दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
कुल पेज दृश्य
शनिवार, 30 मई 2009
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती
कल्पना श्रीवास्तव
M.Sc.
C/6 ,M.P.S.E.B. Colony
रामपुर , जबलपुर , मोबाइल 9229118812
व्यक्ति द्वारा जीवन मे प्रतिपादित कर्म ही उसकी पहचान बनते हैं. अपना जीवन लक्ष्य निर्धारित कर उस दिशा में बढ़ना आवश्यक है ,अंततोगत्वा सफलता मिलना सुनिश्चित है . असफलता केवल इस तथ्य को प्रमाणित करती है कि प्रयत्न पूरे मनोयोग से सही दिशा में नहीं किया गया है .प्रयासों में असफलता , सफलता के मार्ग का एक पड़ाव मात्र है .
जो मार्ग में ही थककर , लौट जाते हैँ या राह बदल लेते है , वे जीवन के संघर्ष में असफल होते हैं . उनका व्यक्तित्व पलायनवादी बन जाता है .प्रत्येक कार्य में उनकी असफलता दृष्टिगत होती है .सफल व्यक्ति सेवा करता है असफल व्यक्ति सेवा करवाता है। सफल व्यक्ति के पास समाधान होता है असफल व्यक्ति के पास समस्या। सफल व्यक्ति के पास एक कार्यक्रम होता है असफल व्यक्ति के पास एक बहाना। सफल व्यक्ति कहता है यह काम मैं करुँगा असफल व्यक्ति कहता है यह काम मेरा नहीं है। सफल व्यक्ति समस्या में समाधान देखता है असफल व्यक्ति समाधान में समस्या ढ़ूँढ़ निकालता है। सफल व्यक्ति कहता है यह काम कठिन है लेकिन संभव है असफल व्यक्ति कहता है यह काम असंभव है। सफल व्यक्ति समय का पूर्ण सदुपयोग करता है असफल व्यक्ति समय का व्यर्थ कामों में दुरुपयोग करता है। सफल व्यक्ति हर वस्तु सही स्थान पर रखता है असफल व्यक्ति हर वस्तु बेतरतीब रखता है। सफल व्यक्ति परिवार और समाज को धर्म एवं सेवा के कार्यो से जोड़ता है असफल व्यक्ति धर्म एवं सेवा कार्यो से स्वयं भी भागता है और परिवार, समाज को तोड़ता है । सफल व्यक्ति अपने परिवेश में सफाई रखता है असफल व्यक्ति अपने घर का कचरा भी दूसरों के घर के आगे फेंकता हैं। सफल व्यक्ति भोजन जूठा नहीं छोड़कर अन्नउपजाने वाले किसान के श्रम का सम्मान करता है असफल व्यक्ति जूठा छोड़कर अन्न देवता का अपमान करने में शर्म अनुभव भी नहीं करता .
असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करना आवश्यक है . सफलता के लिये क्या कमी रह गई, इसका आकलन कर और सुधार कर जब तक सफल न हो, नींद चैन को त्याग संघर्ष में निरत रहना पड़ता है , तब हम सफलता की जय जय कार के अधिकारी बन पाते हैं .मन का विश्वास रगों में साहस भरता है. कोशिश करने वालों की मेहनत कभी बेकार नहीं होती, हार हो भी पर अंतिम परिणिति उनकी जीत ही होती है . सफलता संघर्ष से प्राप्त होती है इसीलिये उसे उपलब्धि माना जाता है और सफलता पर बधाई दी जाती है .
किसी कवि की ये पंक्तियां एक गोताखोर पर लिखी गई हैं ,जो हमें प्रेरणा देती हैं कि यदि हम उत्साह पूर्वक जीवन मंथन करते हुये ,दुनिया के अथाह सागर में गोते लगाते रहें तो एक दिन हमारे हाथो में भी सफलता के मोती अवश्य होंगे .
डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है,
जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है.
मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में,
बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में.
मुट्ठी उसकी खाली पर हर बार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती.
एक मुक्तक
प्रो. सी. बी. श्रीवास्तव विदग्ध
जिस घर की ईटें हैं जुड़ी गारे के प्यार से
दीवारें हैं रंगी हुई शुभ संस्कार से
उसमें कभी तकरार की आंधी नहीं आती
जलते हैं वहां दीप सदा सद्विचार के
शुक्रवार, 29 मई 2009
भारत के गांव
भारत के गांव
प्रो सी.बी. श्रीवास्तव विदग्ध
सात्विक संतोषी बड़े भारत के सब गांव
जिनकि निधि बस झोपड़ी औ" बरगद की छांव
बसते आये हैं जहां अनपढ़ दीन किसान
जिनके जीवन प्राण पशु खीेत फसल खलिहान
अपने पर्यावरण से जिनको बेहद प्यार
खेती मजदूरी ही है जीवन आधार
सबके साथी नित जहां जंगल खेत मचान
दादा भैया पड़ोसी गाय बैल भगवान
जन मन में मिलता जहां आपस का सद्भाव
खुला हुआ व्यवहार सब कोई न भेद दुराव
दुख सुख में सहयोग की जहां सबों की रीति
सबकी सबसे निकटता सबकी सबसे प्रीति
आ पहुंचे यदि द्वार पै कोई कभी अनजान
होता आदर ातिथि का जैसे हो भगवान
हवा सघन अमराई की देती मधुर मिठास
अपनेपन का जगाती हर मन में विश्वास
मोटी रोटी भी जहां दे चटनी के साथ
सबको ममता बांटता हर गृहणी का हाथ
शहरों से विपरीत है गावो का परिवेश
जग से बिलकुल अलग सा अपना भारत देश
मधुर प्रीति रस से सनी बहती यहां बयार
खिल जाते मन के कमल पा एसा व्यवहार
चौराहा
चौराहा
विवेक रंजन श्रीवास्तव
आज रंगा है चौराहा
भगवा रंग में
रामनवमीं है आज
कल ईद पर हरे रंग से सराबोर था चौराहा
चुनावों के मौसम में
तिरंगे दो रंगे ,बहुरंगे झण्डों पोस्टरों से
बातो बातों में रातोरात रंग जाता है चौराहा
शहर करता है स्वागत ,
नये साल का चौराहे पर
बिजली टेलीफोन के खम्भों पर बंधे लाउड स्पीकर
हर मौके पर हिट गानो का लगभग
एक सा शोर करते हैं
बैंड बाजों नाचते झूमते लोगो की भीड़ के साथ
अलग अलग मकसदों के लिये
जाने कहां से आ जाते हैं?
जूलूस भर लोग चौराहे पर .
ट्रेफिक थम जाता है
सड़को के दोनो ओर दूकानो से
लोग कौतुहल से देखते हैं जुलूस
जुलूस नारे लगाता गुजर जाता है
लोग फिर अपनी रोजी रोटी के चक्कर में
उलझ जाते हैं
चौराहे पर होती बेइंतिहा आतिशबाजी करती है उद्घोष
क्रिकेट में भारत की जीत का
चौराहे के पान के ठेले पर होती चर्चायें
बन जाती हैं दूसरे दिन अखबारों की खबरें
संसद का प्रति रूप है चौराहा
चौराहे ने देखी हैं
बदलती पीढ़ीयां
पीढ़ीयों के बदलते चाल चलन
सामाजिक बदलाव के बीच
स्थित प्रज्ञ ॠषि सा मूक दर्शक है चौराहा
चौराहे में समाया हुआ है सारा भारत वर्ष
अपनी विविध रंगी संस्कृति के साथ
चौराहे के गोल चक्कर में
जिज्ञासा
जिज्ञासा
विवेक रंजन श्रीवास्तव
कैसे निकलता है
चूजा अंडे को फोड़कर ?
कैसे समा जाता है विशाल वट वृक्ष
नन्हें से बीज में
जानना चाहता हूं मै .
गुरुवार, 28 मई 2009
सूक्ति सलिला : प्रो. भगवत प्रसाद मिश्र 'नियाज़' - संजीव 'सलिल'
प्रो. भगवत प्रसाद मिश्र 'नियाज़' - संजीव 'सलिल'
*
विश्व वाणी हिन्दी के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ साहित्यकार, शिक्षाविद तथा चिन्तक नियाज़ जी द्वारा इस स्तम्भ में विविध आंग्ल साहित्यकारों के साहित्य का मंथन कर प्राप्त सूक्ति रत्न पाठको को भेँट किए जा रहे हैं। संस्कृत में कहा गया है- 'कोषस्तु महीपानाम् कोशाश्च विदुषामपि' अर्थात कोष या तो राजाओं के पास होता है या विद्वानों के।
इन सूक्तियों के हिन्दी अनुवाद मूल की तरह प्रभावी हैं। डॉ. अम्बाशंकर नागर के अनुसार 'अनुवाद के लिए कहा जाता है कि वह प्रामाणिक होता है तो सुंदर नहीं होता, और सुंदर होता है तो प्रामाणिक नहीं किंतु मैं यह विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि इन सूक्तियों का अनुवाद प्रामाणिक भी है और सुंदर भी।'
'नियाज़' जी कहते हैं- 'साहित्य उतना ही सनातन है जितना कि मानव, देश और काल की सीमायें उसे बाँध नहीं सकतीं। उसके सत्य में एक ऐसी सत्ता के दर्शन होते हैं जिससे अभिभूत होकर न जाने कितने युग-द्रष्टाओं ने अमर स्वरों में उसका गान किया है। प्रांजल विचार संचरण के बिना श्रेष्ठ नव साहित्य का निर्माण असंभव है आंग्ल साहित्य के कुछ श्रेष्ठ रचनाकारों के साहित्य का मंथन कर नियाज़ जी ने प्राप्त सूक्ति रत्न बटोरे हैं जिन्हें वे पाठकों के साथ साँझा कर रहे हैं।
सूक्तियां शेक्सपिअर के साहित्य से-Fortune,भाग्य, किस्मत, तकदीर, मुकद्दर, नसीबOur thoughts are ours, their ends none of our own. हम अपने भावों के स्वामी किंतु नहीं परिणामों के.
मात्र विचारों पर ही अपने,'सलिल' हमें अधिकार।
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ॐ वन्दना: स्व. शान्ति देवी वर्मा
चलीं जानकी प्यारी
चलीं जानकी प्यारी, सूना भया जनकपुर आज...
रोएँ अंक भर मातु सुनयना, पिता जनक बेहाल.
सूना भया जनकपुर आज...
सखी-सहेली फ़िर-फ़िर भेंटें, रखना हमको याद.
सूना भया जनकपुर आज...
शुक-सारिका न खाते-पीते, ले चलो हमको साथ.
सूना भया जनकपुर आज...
चारों सुताओं से कहें जनक, रखना दोउ कुल की लाज.
सूना भया जनकपुर आज...
कहें सुनयना भये आज से, ससुर-सास पितु-मात.
सूना भया जनकपुर आज...
गुरु बोलें: सबका मन जीतो, यही एक है पाठ.
सूना भया जनकपुर आज...
नगरनिवासी खाएं पछाडें, काहे बना रिवाज.
सूना भया जनकपुर आज...
जनक कहें दशरथ से 'करिए क्षमा सकल अपराध.
सूना भया जनकपुर आज...
दशरथ कहें-हैं आँख पुतरिया, रखिहों प्राण समान.
सूना भया जनकपुर आज...
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काव्य-किरण: सरला खरे
आहत है साहित्य करुण,
करुणा का सागर है कवि।
पावन बूँदें गिर रहीं
तपती रेत पर ॥
*
देश के घर-घर में साहित्य
साहित्य के कर्णधार हैं,
नींव के पत्थर।
*
बैठाये मीडिया ने
मीनारों के कंगूरों पर
साहित्य के पावन स्वरुप का
उपहास करते वानर॥
*
कछुआ-चाल से
चलते हुए भी,
एक दिन साहित्य का
शिखर पर
आधिपत्य होगा।
विद्या का दूषण
कम होगा.
शासन प्रतिभा का होगा।
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काव्य-किरण: चुटकी - अमरनाथ
नव काव्य विधा: चुटकी
समयाभाव के इस युग में बिन्दु में सिन्धु समाने का प्रयास सभी करते हैं। शहरे-लखनऊ के वरिष्ठ रचनाकार अभियंता अमरनाथ ने क्षणिकाओं से आगे जाकर कणिकाओं को जन्म दिया है जिन्हें वे 'चुटकी' कहते हैं।
चुटकी काटने की तरह ये चुटकियाँ आनंद और चुभन की मिश्रित अनुभूति कराती हैं। अंगरेजी के paronyms की तरह इसकी दोनों पंक्तियों में एक समान उच्चारण लिए हुए कोई एक शब्द होता है जो भिन्नार्थ के कारण मजा देता है।
गीता
जब से देखा तुझको गीता.
भूल गया मैं पढ़ना गीता..
काले खां
नाम रखा है काले खां
दिल के भी वे काले खां...
चले सदा दो राहों पर. .
पर मिले सदा दोराहों पर॥
नाना
नाना चीजें लाते नाना..
कभी पाइनेपिल कभी बनाना..
है यह कुत्ता पालतू।
पाल सके तो, पाल तू॥
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बुधवार, 27 मई 2009
लघु कथा:
- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
एकलव्य का अद्वितीय धनुर्विद्या अभ्यास देखकर गुरुवार द्रोणाचार्य चकराए कि अर्जुन को पीछे छोड़कर यह श्रेष्ठ न हो जाए। उन्होंने गुरु दक्षिणा के बहाने एकलव्य का बाएँ हाथ का अंगूठा मांग लिया और यह सोचकर प्रसन्न हो गए कि काम बन गया। प्रगट में आशीष देते हुए बोले- 'धन्य हो वत्स! तुम्हारा यश युगों-युगों तक इस पृथ्वी पर अमर रहेगा।'
'आपकी कृपा है गुरुवर!' एकलव्य ने बाएँ हाथ का अंगूठा गुरु दक्षिणा में देकर विकलांग होने का प्रमाणपत्र बनवाया और छात्रवृत्ति का जुगाड़ कर लिया। छात्रवृत्ति के रुपयों से प्लास्टिक सर्जरी कराकर अंगूठा जुड़वाया और द्रोणाचार्य एवं अर्जुन को ठेंगा बताते हुए 'अंगूठा' चुनाव चिन्ह लेकर चुनाव समर में कूद पड़ा।
तब से उसके वंशज आदिवासी द्रोणाचार्य से शिक्षा न लेकर अंगूठा लगाने लगे।
भाषा वैभव: मगही
गुंजन जय-जय भारती
गाँव-गाँव में, नगर-डगर में
गुन्जय जय-जय भारती....
हिंया न राजा, हिंया न रानी
सबके देश पियारा है।
हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई
सब में भाईचारा है।
झूम-झूम के भारत-जनता
गावय गाँधी आरती।
गाँव-गाँव में, नगर-डगर में
गुन्जय जय-जय भारती....
मरघट से पनघट तक कैसन
रूप-गंध अलसात है।
बंजर भुइंयाँ विहँस रहल आउ
सगरो सुख अलसात है।
गूंगा गावय गीत सोहावन
मरिया बन गेल मालती।
गाँव-गाँव में, नगर-डगर में
गुन्जय जय-जय भारती....
मड़िया के झाँकय इंजोरिया
मधु रस से मातल हर कोर।
गदरैयल जन-जन के भाषा
उतर पड़ल है सुख के भोर।
सुघड़ गोरिया झूम रहल कि
बुढियन ओढे बरसाती।
गाँव-गाँव में, नगर-डगर में
गुन्जय जय-जय भारती...
****************
हास्य हाइकु: मन्वंतर
लाद दे भार
जो होता नहीं भारी
ले ले आभार॥
२
खाता है चारा
घर होते रबडी
लालू बेचारा॥
३
करें विरोध
संसद में विपक्षी
हैं धृतराष्ट्र॥
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काव्य किरण: क्षणिकाएँ - देवेन्द्र मिश्रा, छिंदवाडा
अहम्-१
मैंने पूछा-
तुमसे हाल-चाल और
मिला आगे बढ़कर हाथ।
तुम इतराने लगे।
मैंने पूछा-
'किस बात का अहम् तुम्हें?'
तुमने कहा-
'बस, इसी बात का।'
**************
अहम् २
चलो माना कि
झुककर आदमी
आधा हो जाता है.
खड़ा रहकर भी
कौन सा तीर मार लेता है?
सिवाय अहम् को पोसने के.
*******************
मंगलवार, 26 मई 2009
लेख: डॉ. सी. जयशंकर बाबु, संपादक युगमानस
हिंदी के विकास के लिए कई आयामों पर चिंतन के साथ-साथ पूरी निष्ठा के साथ हमें प्रयास करने की आवश्यकता है । देश में आज हिंदी की दुस्थिति को लेकर व्यथित एवं व्यग्र होकर संघर्षपूर्ण स्वर में कोसनेवालों की श्रेणी एक ओर, हिंदी को विश्वभाषा साबित करने की, संयुक्त राष्ट्र संघ से मान्यता दिलाने की मांग करनेवालों की श्रेणी दूसरी ओर है । बीच का रास्ता अपनाकर हिंदी के हितवर्धन हेतु अपने स्तर पर योग्य कार्य करनेवाले चंद हितैषी भी हैं । इन सबकी गति से सौ गुना अधिक तेजी से भारत में अंग्रेज़ी के दायरों का विस्तार होता जा रहा है । हिंदी की गति तभी बढ़ेगी जब हम जिम्मेदार एवं प्रभावशाली व्यक्तियों का ध्यान आकर्षित करने में सक्रिय रहेंगे तथा कर्तव्य निभाने के लिए उन्हें बाध्य करेंगे । भारतीय संविधान की मूल संकल्पना के अनुसार हिंदी को उचित दर्जा दिलाने हेतु उचित दिशा में संघर्ष करना आज हमारा कर्तव्य है ।
सूचना प्रौद्योगिकी के विकास के परिप्रेक्ष्य में हिंदी की स्थिति के संदर्भ में भी हमें तुरंत सचेत होने की बड़ी आवश्यकता है । एक विडंबना है कि हम जानबूझकर कंप्यूटर में जिन चालन प्रणालियों (आपरेटिंग सिस्टम) को अपना चुके हैं उनका आधार अंग्रेज़ी भाषा है । हिंदी भाषा आधारित चालन प्रणालियों से युक्त कंप्यूटर उपलब्ध कराने के लिए हमने उत्पादकों को बाध्य नहीं किया है । सूचना प्रौद्योगिकी के विकास के परिप्रेक्ष्य में राजभाषा नीति के उल्लंघन का यह मूलबिंदु है ।
यहाँ एक और तथ्य पर हमें गौर करने की आवश्यकता है कि कंप्यूटर चालन प्रणालियों में आज सहजतः विश्वभर में मानक अंग्रेज़ी का एक फांट (अक्षर रूप) मिल जाता है । अंग्रेज़ी के अन्य फांट साफ्टवेयर के साथ इसका आदान-प्रदान (परिवर्तनीयता एवं पठनीयता) भी संभव है । हिंदी भाषा आधारित चालन प्रणाली का अभाव तो है ही, मानक हिंदी फांट भी आज कहीं उपलब्ध नहीं हैं जैसे कि अंग्रेज़ी में उबलब्ध हैं । आज भारतीय बाज़ार में हिंदी के कई साफ्टवेयर उपलब्ध हैं, जिनका प्रचार राजभाषा विभाग के तकनीकी कक्ष की ओर से भी किया जा रहा है किंतु मानक फांट साफ्टवेयर के अभाव में हिंदी के हित से बढ़कर अहित ही अधिक हो रहा है ।
हिंदी जिस देश की राजभाषा है वहाँ हिंदी साफ्टवेयर खरीदना पड़ रहा है जब कि अंग्रेज़ी जहाँ की राजभाषा भी नहीं, वहाँ भी मानक अंग्रेज़ी फांट निःशुल्क उपलब्ध हो रहा है । सरकार को चाहिए कि वह एक मानक हिंदी साफ्टवेयर को विकसित कराएँ जिससे कहीं परिवर्तनीयता अथवा पठनीयता की समस्या उत्पन्न न हो । हिंदी के हित में यह आवश्यक है कि विश्वभर में एक मानक फांट साफ्टवेयर निःशुल्क उपलब्ध कराने के लिए प्रावधान रखें । हिंदी के विकास के मार्ग अपने आप खुलने की दिशा में यह भी एक अपेक्षित कदम है । समस्त हिंदी प्रेमी इक दिशा में सरकार को बाध्य करने के लिए आज ही सक्रिय हो जावें, अपने सक्रिय प्रयासों की जानकारी युग मानस को भी अवश्य देते रहें ।
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गीत - मनोज श्रीवास्तव , लखनऊ
विरासत: भजन - स्व. शान्ति देवी वर्मा
ठांडे जनक संकुचाएँ
ठांडे जनक संकुचाएँ, राम जी को का देऊँ ?...
हीरा पन्ना नीलम मोती, मूंगा माणिक लाल।
राम जी को का देऊँ ?
रेशम कोसा मखमल मलमल खादी के थान हजार।
राम जी को का देऊँ ?
कुंडल बाजूबंद कमरबंद, मुकुट अंगूठी नौलख हार।
राम जी को का देऊँ ?
स्वर्ण-सिंहासन चांदी का हौदा, हाथीदांत की चौकी।
राम जी को का देऊँ ?
गोटा किनारी, चादर परदे, धोती अंगरखा शाल।
राम जी को का देऊँ ?
काबुली घोडे हाथी गौएँ शुक सारिका रसाल।
राम जी को का देऊँ ?
चंदन पलंग, आबनूस पीढा, शीशम मेज सिंगार।
राम जी को का देऊँ ?
अवधपति कर जोड़ मनाएं, चाहें कन्या चार।
राम जी को का देऊँ ?
'दुल्हन ही सच्चा दहेज़ है, मत दे धन सामान।'
राम जी को का देऊँ ?
राम लक्ष्मण भरत शत्रुघन, देन बहु विध सम्मान।
राम जी को का देऊँ ?
शुभाशीष दें जनक-सुनयना, 'शान्ति' होंय बलिहार।
राम जी को का देऊँ ?
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काव्य-किरण
सरला खरे, भोपाल
जब देश पर विपत्ति आएगी
तब काम आएगा
विदेशी बैंकों में
संचित किया धन॥
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देश जूझ रहा है,
मंदी की मार है.
सकल देश में
चुनाव की बहार है॥
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क्या पियेंगे पानी?
कैसे कटेंगी रातें?
बिन पानी सब सून।
बिन बिजली सब अँधेरा॥
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पहले भी थे मंत्री,
सरकार भी थी जोरदार।
आगे भी आयेंगे,
ऐसे ही कर्णधार?
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वादा है- छवि सुधारेंगे।
जिनसे वोट खरीदे है,
उन्हीं को तो तारेंगे॥
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सोमवार, 25 मई 2009
काव्य किरण :
एक शे'र
आचार्य संजीव 'सलिल'
जब तलक जिंदा था, रोटी न मुहैया थी।
मर गया तो तेरही में दावतें हुईं॥
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poetry: डॉ. राम शर्मा, मेरठ
Mother, why have you gone away,
why have you become so helpless,
why your face is faded,
why have you engulfed in darkness,
the light of the house,
where have you gone
काव्य-किरण: गजल -मनु बेतखल्लुस. दिल्ली
बस आदमी से उखडा हुआ आदमी मिले
हमसे कभी तो हँसता हुआ आदमी मिले
इस आदमी की भीड़ में तू भी तलाश कर,
शायद इसी में भटका हुआ आदमी मिले
सब तेजगाम जा रहे हैं जाने किस तरफ़,
कोई कहीं तो ठहरा हुआ आदमी मिले
रौनक भरा ये रात-दिन जगता हुआ शहर
इसमें कहाँ, सुलगता हुआ आदमी मिले
इक जल्दबाज कार लो रिक्शे पे जा चढी
इस पर तो कोई ठिठका हुआ आदमी मिले
बाहर से चहकी दिखती हैं ये मोटरें मगर,
इनमें इन्हीं पे ऐंठा हुआ आदमी मिले।
देखें कहीं, तो हमको भी दिखलाइये ज़रूर
गर आदमी में ढलता हुआ आदमी मिले
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रविवार, 24 मई 2009
लघुकथा: आचार्य संजीव 'सलिल'
Friday, May 22, 2009
गुरु दक्षिणा
रचनाकार परिचय:-
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' नें नागरिक अभियंत्रण में त्रिवर्षीय डिप्लोमा, बी. ई., एम.आई.ई., अर्थशास्त्र तथा दर्शनशास्त्र में एम. ऐ., एल-एल. बी., विशारद,, पत्रकारिता में डिप्लोमा, कंप्युटर ऍप्लिकेशन में डिप्लोमा किया है। आपकी प्रथम प्रकाशित कृति 'कलम के देव' भक्ति गीत संग्रह है। 'लोकतंत्र का मकबरा' तथा 'मीत मेरे' आपकी छंद मुक्त कविताओं के संग्रह हैं। आपकी चौथी प्रकाशित कृति है 'भूकंप के साथ जीना सीखें'। आपनें निर्माण के नूपुर, नींव के पत्थर, राम नाम सुखदाई, तिनका-तिनका नीड़, सौरभ:, यदा-कदा, द्वार खड़े इतिहास के, काव्य मन्दाकिनी २००८ आदि पुस्तकों के साथ साथ अनेक पत्रिकाओं व स्मारिकाओं का भी संपादन किया है। आपको देश-विदेश में १२ राज्यों की ५० संस्थाओं ने ७० सम्मानों से सम्मानित किया जिनमें प्रमुख हैं : आचार्य, २० वीं शताब्दी रत्न, सरस्वती रत्न, संपादक रत्न, विज्ञानं रत्न, शारदा सुत, श्रेष्ठ गीतकार, भाषा भूषण, चित्रांश गौरव, साहित्य गौरव, साहित्य वारिधि, साहित्य शिरोमणि, काव्य श्री, मानसरोवर साहित्य सम्मान, पाथेय सम्मान, वृक्ष मित्र सम्मान, वागविदान्वर सम्मान आदि। म.प्र. सड़क विकास निगम में उप महाप्रबंधक रह चुके सलिल जी वर्तमान में लोक निर्माण विभाग मध्य प्रदेश की परिक्षेत्रीय अनुसन्धान प्रयोगशाला में सहायक शोध अधिकारी के रूप में कार्यरत हैं।
">लघुकथा : गुरु दक्षिणा
एकलव्य का अद्वितीय धनुर्विद्या अभ्यास देखकर गुरुवार द्रोणाचार्य चकराए कि अर्जुन को पीछे छोड़कर यह श्रेष्ठ न हो जाए। उन्होंने गुरु दक्षिणा के बहाने एकलव्य का बाएँ हाथ का अंगूठा मांग लिया और यह सोचकर प्रसन्न हो गए कि काम बन गया। प्रगट में आशीष देते हुए बोले- 'धन्य हो वत्स! तुम्हारा यश युगों-युगों तक इस पृथ्वी पर अमर रहेगा।'
'आपकी कृपा है गुरुवर!' एकलव्य ने बाएँ हाथ का अंगूठा गुरु दक्षिणा में देकर विकलांग होने का प्रमाणपत्र बनवाया और छात्रवृत्ति का जुगाड़ कर लिया। छात्रवृत्ति के रुपयों से प्लास्टिक सर्जरी कराकर अंगूठा जुड़वाया और द्रोणाचार्य एवं अर्जुन को ठेंगा बताते हुए 'अंगूठा' चुनाव चिन्ह लेकर चुनाव समर में कूद पड़ा।
तबसे उसके वंशज आदिवासी द्रोणाचार्य से शिक्षा न लेकर अंगूठा लगाने लगे।
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साहित्य समाचार:हिन्दी साहित्य सम्मलेन प्रयाग-शताब्दी समारोह, 'सलिल' ''वागविदांवर सम्मान'' से विभूषित
Saturday, May 23, 2009
: : साहित्य समाचार : :
हिन्दी साहित्य सम्मलेन प्रयाग - शताब्दी समारोह
- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ''वागविदांवर सम्मान'' से विभूषित -
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अयोध्या, १०-११ मई '0९ । समस्त हिन्दी जगत की आशा का केन्द्र हिन्दी साहित्य सम्मलेन प्रयाग अपने शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में देव भाषा संस्कृत तथा विश्व-वाणी हिन्दी को एक सूत्र में पिर्पने के प्रति कृत संकल्पित है। सम्मलेन द्वारा राष्ट्रीय अस्मिता, संस्कृति, हिंदी भाषा तथा साहित्य के सर्वतोमुखी उन्नयन हेतु नए प्रयास किये जा रहे हैं। १० मई १९१० को स्थापित सम्मलेन एकमात्र ऐसा राष्ट्रीय संस्थान है जिसे राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन तथा अन्य महान साहित्यकारों व समाजसेवियों का सहयोग प्राप्त हुआ। नव शताब्दी वर्ष में प्रवेश के अवसर पर सम्मलेन ने १०-११ मई '0९ को अयोध्या में अखिल भारतीय विद्वत परिषद् का द्विदिवसीय सम्मलेन हनुमान बाग सभागार, अयोध्या में आयोजित किया गया। इस सम्मलेन में २१ राज्यों के ४६ विद्वानों को सम्मलेन की मानद उपाधियों से सम्मानित किया गया।
१० मई को 'हिंदी, हिंदी साहित्य और हिंदी साहित्य सम्मलेन' विषयक संगोष्ठी में देश के विविध प्रान्तों से पधारे ११ वक्ताओं ने विद्वतापूर्ण व्याख्यान दिए । साहित्य वाचस्पति डॉ। बालशौरी रेड्डी, अध्यक्ष, तमिलनाडु हिंदी अकादमी ने इस सत्र के अध्यक्षता की। इस सत्र का संचालन डॉ। ओंकार नाथ द्विवेदी ने किया। स्वागत भाषण डॉ। बिपिन बिहारी ठाकुर ने दिया। प्रथम दिवस पूर्वान्ह सत्र में संस्कृत विश्व विद्यालय दरभंगा के पूर्व कुलपति डॉ। जय्मंत मिश्र की अध्यक्षता में ११ उद्गाताओं ने 'आज संस्कृत की स्थिति' विषय पर विचार व्यक्त किए। विद्वान् वक्ताओं में डॉ। तारकेश्वरनाथ सिन्हा बोध गया, श्री सत्यदेव प्रसाद डिब्रूगढ़, डॉ. गार्गीशरण मिश्र जबलपुर, डॉ. शैलजा पाटिल कराड, डॉ.लीलाधर वियोगी अंबाला, डॉ. प्रभाशंकर हैदराबाद, डॉ. राजेन्द्र राठोड बीजापुर, डॉ. नलिनी पंड्या अहमदाबाद आदि ने विचार व्यक्त किए
अपरान्ह सत्र में प्रो. राम शंकर मिश्र वाराणसी, डॉ. मोहनानंद मिश्र देवघर, पर. ग.र.मिश्र तिरुपति, डॉ. हरिराम आचार्य जयपुर, डॉ. गंगाराम शास्त्री भोपाल, डॉ. के. जी. एस. शर्मा बंगलुरु, पं. श्री राम डेव जोधपुर, डॉ. राम कृपालु द्विवेदी बंद, डॉ. अमिय चन्द्र शास्त्री मथुरा, डॉ. भीम सिंह कुरुक्षेत्र, डॉ. महेशकुमार द्विवेदी सागर आदि ने संस्कृत की प्रासंगिकता तथा हिंदी--संस्कृत की अभिन्नता पर प्रकाश डाला. यह सत्र पूरी तरह संस्कृत में ही संचालित किया गया. श्रोताओं से खचाखच भरे सभागार में सभी वक्तव्य संस्कृत में हुए.
समापन दिवस पर ११ मई को डॉ. राजदेव मिश्र, पूर्व कुलपति सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी की अध्यक्षता में ५ विद्द्वजनों ने ज्योतिश्पीठाधीश्वर जगद्गुरु स्वामी वासुदेवानंद सरस्वती के प्रति प्रणतांजलि अर्पित की. सम्मलेन के अध्यक्ष साहित्य वाचस्पति श्री भगवती प्रसाद देवपुरा, अध्यक्ष हिंदी साहित्य सम्मलेन प्रयाग की अध्यक्षता में देश के चयनित ५ संस्कृत विद्वानों डॉ. जय्म्न्त मिश्र दरभंगा, श्री शेषाचल शर्मा बंगलुरु, श्री गंगाराम शास्त्री भोपाल, देवर्षि कलानाथ शास्त्री जयपुर, श्री बदरीनाथ कल्ला फरीदाबाद को महामहिमोपाध्याय की सम्मानोपाधि से सम्मानित किया गया.
११ संस्कृत विद्वानों डॉ. मोहनानंद मिश्र देवघर, श्री जी. आर. कृष्णमूर्ति तिरुपति, श्री हरिराम आचार्य जयपुर, श्री के.जी.एस. शर्मा बंगलुरु, डॉ. रामकृष्ण सर्राफ भोपाल, डॉ. शिवसागर त्रिपाठी जयपुर, डॉ.रामकिशोर मिश्र बागपत, डॉ. कैलाशनाथ द्विवेदी औरैया, डॉ. रमाकांत शुक्ल भदोही, डॉ. वीणापाणी पाटनी लखनऊ तथा पं. श्री राम्दावे जोधपुर को महामहोपाध्याय की सम्मानोपाधि से सम्मानित किया गया.
२ हिन्दी विद्वानों डॉ. केशवराम शर्मा दिल्ली व डॉ वीरेंद्र कुमार दुबे को साहित्य महोपाध्याय तथा २८ साहित्य मनीषियों डॉ. वेदप्रकाश शास्त्री हैदराबाद, डॉ. भीम सिंह कुरुक्षेत्र, डॉ. कमलेश्वर प्रसाद शर्मा दुर्ग, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जबलपुर, डॉ. महेश कुमार द्विवेदी सागर, श्री ब्रिजेश रिछारिया सागर, डॉ. मिजाजीलाल शर्मा इटावा, श्री हरिहर शर्मा कबीरनगर, डॉ, रामशंकर अवस्थी कानपूर, डॉ. रामकृपालु द्विवेदी बांदा, डॉ. हरिहर सिंह कबीरनगर, डॉ, अमियचन्द्र शास्त्री 'सुधेंदु' मथुरा, डॉ. रेखा शुक्ल लखनऊ, डॉ. प्रयागदत्त चतुर्वेदी लखनऊ, डॉ. उमारमण झा लखनऊ, डॉ. इन्दुमति मिश्र वाराणसी, प्रो. रमाशंकर मिश्र वाराणसी, डॉ. गिरिजा शंकर मिश्र सीतापुर, चंपावत से श्री गंगाप्रसाद पांडे, डॉ. पुष्करदत्त पाण्डेय, श्री दिनेशचन्द्र शास्त्री 'सुभाष', डॉ. विष्णुदत्त भट्ट, डॉ. उमापति जोशी, डॉ. कीर्तिवल्लभ शकटा, हरिद्वार से प्रो. मानसिंह, अहमदाबाद से डॉ. कन्हैया पाण्डेय, प्रतापगढ़ से डॉ, नागेशचन्द्र पाण्डेय तथा उदयपुर से प्रो. नरहरि पंड्याको ''वागविदांवर सम्मान'' ( ऐसे विद्वान् जिनकी वाक् की कीर्ति अंबर को छू रही है) से अलंकृत किया गया.
उक्त सभी सम्मान ज्योतिश्पीठाधीश्वर जगद्गुरु स्वामी वासुदेवानंद सरस्वती के कर कमलों से प्रदान किये जाते समय सभागार करतल ध्वनि से गूँजता रहा.
अभियंता-आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ''वागविदांवर सम्मान'' से विभूषित
अंतर्जाल पर हिन्दी की अव्यावसायिक साहित्यिक पत्रिका दिव्य नर्मदा का संपादन कर रहे विख्यात कवि-समीक्षक अभियंता श्री संजीव वर्मा 'सलिल' को संस्कृत - हिंदी भाषा सेतु को काव्यानुवाद द्वारा सुदृढ़ करने तथा पिंगल व साहित्य के क्षेत्र में विशिष्ट अवदान के लिए 'वाग्विदान्वर सम्मान' से सम्मलेन द्वारा अलंकृत किया जाना अंतर्जाल जगत के लिया विशेष हर्ष का विषय है चुकी उक्त विद्वानों में केवल सलिल जी ही अंतर्जाल जगत से न केवल जुड़े हैं अपितु व्याकरण, पिंगल, काव्य शास्त्र, अनुवाद, तकनीकी विषयों को हिंदी में प्रस्तुत करने की दिशा में मन-प्राण से समर्पित हैं.
अंतर्जाल की अनेक पत्रिकाओं में विविध विषयों में लगातार लेखन कर रहे सलिल जी गद्य-पद्य की प्रायः सभी विधाओं में सृजन के लिए देश-विदेश में पहचाने जाते हैं।
हिंदी साहित्य सम्मलेन के इस महत्वपूर्ण सारस्वत अनुष्ठान की पूर्णाहुति परमपूज्य ज्योतिश्पीठाधीश्वर जगद्गुरु स्वामी वासुदेवानंद सरस्वती महाराज के प्रेरक संबोधन से हुई. स्वामी जी ने संकृत तथा हिंदी को भविष्य की भाषाएँ बताया तथा इनमें संभाषण व लेखन को जन्मों के संचित पुण्य का फल निरुपित किया.
सम्मलेन के अध्यक्ष वयोवृद्ध श्री भगवती प्रसाद देवपुरा, ने बदलते परिवेश में अंतर्जाल पर हिंदी के अध्ययन व शिक्षण को अपरिहार्य बताया।
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शनिवार, 23 मई 2009
संस्मरण : ममतामयी महादेवी -संजीव 'सलिल'
नेह नर्मदा धार: महीयसी महादेवी वर्मा केवल हिन्दी साहित्य नहीं अपितु विश्व वांग्मय की ऐसी धरोहर हैं जिन्हें पढने और समझने के लिए उनके धरातल तक उठना होगा। उनका विराट व्यक्तित्व और उदात्त कृतित्व उन्हें एक दिव्य आभा से मंडित करता तो उनकी निरभिमानता, सहजता और ममतामय दृष्टि नैकट्य की अनुभूति कराता। सफलता, यश और मान्यता के शिखर पर भी उनमें जैसी सरलता। सहजता, विनम्रता और सत्य के प्रति दृढ़ता थी वह अब दुर्लभ है। पूज्य बुआश्री ने जिन मूल्यों का सृजन किया उन्हें अपने जीवन में मूर्तिमंत भी किया। 'नारी तुम केवल श्रृद्धा हो' लिखनेवाली कलम की स्वामिनी का लम्बा सामाजिक-साहित्यिक कार्यकाल अविवादित और निष्कलुष रहा। उनहोंने सबको स्नेह-सम्मान दिया और शतगुण पाया। उनके निकट हर अंतर्विरोध इस तरह विलीन हो जाता था जैसे पावस में पावक। हर बड़ा-छोटा, साहित्यकार-कलाकार, समाजसेवी-राजनेता, वशिष्ट-सामान्य, भाषा-भूषा, पंथ-संप्रदाय, क्षेत्र-प्रान्त, मत-विमत का अंतर भूलकर उनके निकट आते ही उनके पारिवारिक सदस्य की तरह नेह-नर्मदा में अवगाहन कर धन्यता की प्रतीति कर पाता था।
महीयसी ने महाकवि प्रसाद, दद्दा (मैथिलीशरण गुप्त), दादा (माखन लाल चतुर्वेदी), महापंडित राहुल जी, महाप्राण निराला, युगकवि पन्त, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, आचार्य नन्द दुलारे वाजपेयी, दिनकर, इलाचंद्र जोशी, अमृतलाल नागर, भगवतीचरण वर्मा, यशपाल, फणीश्वर नाथ 'रेणू', नवीन, सुमन, भारती, उग्र आदि तीन पीढियों के सरस्वती सुतों को अपने ममत्व और वात्सल्य से सराबोर किया। समस्त साहित्यिक-सामाजिक-राजनैतिक अंतर्विरोध उनकी उपस्थिति में स्वत विलीन या क्षीण हो जाते थे। उन्हें बापू और जवाहर से आशीष मिला तो अटल जी और इंदिरा जी से आत्मीयता और सम्मान।
ममता की शुचि मूर्ति वे, नेह नर्मदा धार।
माँ वसुधा का रत्न थीं, श्वासों का श्रृंगार॥
अपनेपन की चाह : महादेवी जी में चिरंतन आदर्शों को जीवंत करने की ललक के साथ नव परम्पराओं से सृजित करने की पुलक भी थी। वे समग्रता की उपासक थीं। गौरवमयी विरासत के साथ सामयिक समस्याओं के सम्यक समाधान में उनकी तत्परता स्तुत्य थी। वे अपने सृजन संसार में लीन रहते हुए भी राष्ट्रीय, सामाजिक, पारिवारिक नातों तथा अपने उत्स के प्रति सतत सचेष्ट रहती थीं। उनका परिवार रक्त संबंधों नहीं, स्नेह संबंधों से बना था। अजनबी से अपने बने लेने में उनका सानी नहीं था। वे प्रशंसा का अमृत, आलोचना का गरल, सुख की धूप, दुःख की छाँव समभाव से ग्रहण कर निर्लिप्त रहती थीं। सनातन सलिला नर्मदा तट पर स्थित संस्कारधानी जबलपुर उन्हें प्रिय रहा। जब भी अवसर मिलता वे जबलपुर आतीं और यहाँ के रचनाकारों पर आशीष बरसातीं। इस निकटता का प्रत्यक्ष कारण स्व। रामानुज लाल श्रीवास्तव 'ऊँट बिलहरीवी', नर्मदा प्रसाद खरे तथा उनकी प्राणप्रिय सखी सुभद्रा कुमारी चौहान थीं जो अपने पति ठाकुर लक्ष्मण सिंह चौहान के साथ स्वतंत्रता सत्याग्रहों की अलख जलाये थीं। दादा भी कर्मवीर के सिलसिले में बहुधा जबलपुर रहते।
मूल की तलाश: जबलपुर से लगाव का परोक्ष कारण महादेवी जी की ननिहाल थी जो घटनाओं के प्रवाह में छूट चुकी थी। दो पीढियों के मध्य का अन्तराल नयी पीढियों का अपरिचय बन गया। वे किसी से कुछ न कहतीं पर मन से चाहतीं की बिछुडे परिजन कभी मिल सकें। अंततः,अपने अंतिम जबलपुर प्रवास में उनके धैर्य का बाँध टूट गया। उन्होंने सुभद्रा जी की मूर्ति के समीप हुए कवि सम्मेलन से संबोधित करते हुए जबलपुर में अपने ननिहाल होने की जानकारी दी तथा अपेक्षा की की उस परिवार में से कोई हो तो मिले। साप्ताहिक हिंदुस्तान के होली विशेषांक में उनका एक साक्षात्कार छपा। प्रसिद्ध पत्रकार पी। डी। टन्डन से चर्चा करते हुए उन्होंने पुनः परिवार की बिखरी शाखा से मिलने-जुड़ने की कामना व्यक्त की। कहते हैं 'जहाँ चाह, वहाँ राह' उनकी यह चाह किसी निज हित के कारण नहीं स्नेह संबंध की उस टूटी कड़ी से जोड़ने की थी जिसे उनकी माताश्री प्रयास करने पर भी नहीं जोड़ सकीं थीं। शायद वे अपनी माँ की अधूरी इच्छा से पूरा करना चाह रही थीं। नियति से उनकी चाह के आगे झुकना पड़ा। रहीम ने कहा है- 'रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय। टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गाँठ पड़ जाय।' महादेवी जी की जिजीविषा ने टूटे धागे से जोड़ ही दिया। उनके ये दोनों वक्तव्य मैंने पढ़े। मैं आजीविका से अभियंता तथा शासकीय सेवा में होने पर भी उन दिनों पत्रकारिता में डिप्लोमा कर रहा था। महादेवी जी द्वारा बताया विवरण परिवार से मेल खाता था। उत्सुकतावश मैंने परिवार के बुजुर्गों से चर्चा की। उन दिनों का अनुशासन... कहीं डांट पडी, कहीं से अधूरी जानकारी... अधिकांश अनभिज्ञ थे। कुछ निराशा के बाद मैंने अपने परिवार का वंश-वृक्ष (शजरा) बनाया, इसमें महादेवी जी या उनके माता-पिता का नाम कहीं नहीं था। ऐसा लगा कि यह परिवार वह नहीं है जिसे महीयसी खोज रही हैं। अन्दर का पत्रकार कुलबुलाता रहा... खोजबीन जारी रही... एक दिन जितनी जानकारी मिली थी वह महीयसी से भेजते हुए निवेदन किया कि कुछ बड़े आपसे रिश्ता होने से स्वीकारते हैं पर नहीं जानते कि क्या नाता है? मुझे नहीं मालूम किस संबोधन से आपको पुकारूँ? आपके आव्हान पर जो जुटा सका भेज रहा हूँ। आप ही कुछ बता सकें तो बताइये। मैं आपकी रचनायें पढ़कर बड़ा हुआ हूँ। इस बहाने ही सही आपका आशीर्वाद पाने के सौभाग्य से धन्य हूँ। लगभग एक सप्ताह बाद एक लिफाफे में प्रातः स्मरणीय महादेवी जी का ४ पृष्ठों का पत्र मिला। पत्र में मुझ पर आशीष बरसाते हुए उन्होंने लिखा था कि किसी समय कुछ विघ्न संतोषी सम्बन्धियों द्वारा पनपाये गए संपत्ति विवाद में एक खानदान की दो शाखाओं में ऐसी टूटन हुई कि वर्तमान पीढियाँ अपरिचित हो गयीं। उनके पत्र से विदित हुआ कि उनके नाना स्व। खैराती लाल जी मेरे परबाबा स्व। सुन्दर लाल तहसीलदार के सगे छोटे भाई थे। पिताजी जिन चिन्जा बुआ की चर्चा करते थे उनका वास्तविक नाम हेमरानी देवी था और वे महादेवी जी की माता श्री थीं। हमारे कुल में काव्य साधन के प्रति लगाव हर पीढी में रहा पर प्रतिभाएँ अवसर के अभाव में घर-आँगन तक सिमट कर रह गयीं। सुन्दर लाल व खैराती लाल शिव भक्त थे। शिव भक्ति के स्तोत्र रचते-गाते। उनसे यह विरासत हेमरानी को मिली। बचपन में हेमरानी को भजन रचते-गाते देख-सुनकर महादेवी जी ने पहली कविता लिखी- माँ के ठाकुर जी भोले हैं। ठंडे पानी से नहलातीं। गीला चन्दन उन्हें लगतीं। उनका भोग हमें दे जातीं। फिर भी कभी नहीं बोले हैं। माँ के ठाकुर जी भोले हैं... माँ से शिव-पार्वती, नर्मदा, सीता-राम, राधा-कृष्ण के भजन-आरती, तथा पर्वों पर बुन्देली गीत सुनकर बचपन से ही महादेवी जी को काव्य तथा हिन्दी के प्रति लगाव के संस्कार मिले। माँ की अपने मायके से बिछड़ने की पीडा अवचेतन में पोसे हुए महादेवी जी अंततः टूटी कड़ी से जुड़ सकीं। पूर्व जन्मों के पुण्य कर्मों का सुफल मुझे इस रूप में मिला कि मैं उनके असीम स्नेह का भाजन बना। जो महान उसमें पले, अपनेपन की चाह। क्षुद्र मनस जलता रहे, मन में रखकर डाह। बिंदु सिन्धु से जा मिला: कबीर ने लिखा है: जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ। जो बौरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ। पूज्य बुआश्री से मिलने की उत्कंठा मुझे इलाहाबाद ले गयी। आवास पर पहुँचा तो ज्ञात हुआ कि वे बाबा विश्वनाथ की नगरी वाराणसी गयी हैं किसी को जानता था नहीं। निराश लौटने को हुआ कि एक कार को रुकते देख ठिठक गया। पलटकर देखा एक तरुणी वृद्धा को सहारा देकर कार से उतारने का जतन कर रही है। मैं तत्क्षण कार के निकट पहुँचा तब तक वृद्धा जमीन पर पैर रखते हुए हाथ सहारे के लिए बढा रहीं थीं। पहले कभी न देखने पर भी मन ने कहा हो न हो यही बुआ श्री हैं। मैंने चरण स्पर्शकर उन्हें सहारा दिया। एक अजनबी युवा को निकट देख तरुणी संकुचाई, 'खुश रहो' कहते हुए बुआजी ने हाथ थामकर दृष्टि उठाई और पहचानने का यत्न करने लगीं कि कौन है? तब तक घर से एक महिला और पुरुष आ गए थे। लम्बी यात्रा से लौटी श्रांत-क्लांत महीयसी को थामे अजनबी को देख कर उनके मन की उलझन स्वाभाविक थी। मैं परिचय दूँ इसके पहले ही वे बोलीं 'चलो, अन्दर चलो', मैंने कहा-'बुआजी! मैं संजीव' सुनते ही उनके चेहरे पर जिस चमक, हर्ष और उल्लास की झलक देखी वह अविस्मर्णीय है। उन्होंने भुजाओं में भरते हुए मस्तक चूमा। पूछा- 'कब आया?' सब विस्मित कि यह कौन अजनबी इतने निकट आने की धृष्टता कर बैठा और उसे हटाया भी नहीं जा रहा। बुआ जी जैसे सबकी उलझन का आनंद ले रहीं हो, कुछ पल मौन रहकर बोलीं- 'ये संजीव है, मेरा भतीजा...जबलपुर से आया है।सबका अभिवादन किया। उन्होंने सबका परिचय कराते हुए कहा 'ये मेरे बेटे की तरह रामजी, ये बहु, ये भतीजी आरती...चल अन्दर ले चल' मैं उन्हें थामे हुए घर में अन्दर ले आया। अन्दर कमरे में एक तख्त पर उजली सफ़ेद चादर बिछी थी, सिरहाने की ओर भगवान श्री कृष्ण की सुन्दर श्वेत बाल रूप की मूर्ति थी। बुआ जी बैठ गयीं। मुझे अपनी बगल में बैठा लिया, ऐसा लगा किसी तपस्विनी की शीतल वात्सल्यमयी छाया में हूँ। तभी स्नेह सिक्त वाणी सुनी- 'बेटा! थक गया होगा, चाय-पानी कर आराम कर। फिर तुझसे बहुत सी बातें करना है। सामान कहाँ है?' तब तक आरती पानी ले आयी थी। मैंने पानी पिया, बताया चाय नहीं पीता, सुनकर कुछ विस्मित प्रसन्न हुईं, मेरे मन करने पर भी दूध पिलवाकर ही मानीं। मुझे चेत हुआ कि वे स्वयं सुदूर यात्रा कर थकी लौटी हैं। उन्होंने आरती को स्नान आदि की व्यस्वस्थ करने को कहा तो मैंने बताया कि मैं निवृत्त हो चुका हूँ। मैं धीरे से तखत के समीप बैठकर उनके पैर दबाने लगा... उन्होंने मना किया पर मैंने मना लिया कि वे थकी हैं कुछ आराम मिलेगा। बुआ जी अपनी उत्कंठा को अधिक देर तक दबा नहीं सकीं। पूछा: कौन-कौन हैं घर-परिवार में? मैंने धीरे-धीरे सब जानकारी दी। मेरे मँझले ताऊ जी स्व. ज्वालाप्रसाद वर्मा ने स्व. द्वारका प्रसाद मिश्र, सेठ गोविन्द दास और व्यौहार राजेंद्र सिंह के साथ स्वतंत्रता सत्याग्रह में सक्रिय भूमिका निभायी, नानाजी राय बहादुर माता प्रसाद सिन्हा 'रईस', मैनपुरी ने ऑनरेरी मजिस्ट्रेट का पद व खिताब ठुकराकर बापू के आव्हान पर विदेशी वस्त्रों की होली जलाकर नेहरु जी के साथ त्रिपुरी कांग्रेस में भाग लिया और तभी इन दोनों की भेंट से मेरे पिताजी और माताजी का विवाह हुआ- यह सुनकर वे हँसी और बोलीं 'यह तो कहानी की तरह रोचक है। मेरे एक फूफा जी १९३९ में हिन्दू महासभा के राष्ट्रीय महामंत्री थे तथा कैप्टेन मुंजे व डॉ. हेडगेवार के साथ राम सेना व शिव सेना नामक सशस्त्र संगठनों के माध्यम से दंगों में अपहृत हन्दू युवतियों को मुक्तकर उनकी शुद्धि तथा सामाजिक स्वीकृति कराते थे । यह जानकर वे बोलीं- 'रास्ता कोई भी हो, भरत माता की सेवा ही असली बात है।' बुआ श्री ने १८५७ के स्वातंत्र्य समर में अपने पूर्वजों के योगदान और संघर्ष की चर्चा की। आरती ने उनसे स्नानकर भोजन करने का अनुरोध किया तो बोलीं- 'संजीव की थाली लगाकर यहीं ले आ, इसे अपने सामने ही खिलाऊँगी। बाद में नहा लूँगी।' मैंने निवेदन किया कि वे स्नान कर लें तब साथ ही खा लेंगे तो बोलीं 'जब तक तुझे खिला न लूँ, पूजा में मन न लगेगा, चिंता रहेगी कि तूने कुछ नहीं खाया। उनके स्नेहपूर्ण आदेश का सम्मान करते हुए मुझे सामने ही बैठाया। एक रोटी अपने हाथों से खिलायी। भोजन के मध्य आरती से कह-कहकर सामग्री मंगाती रहीं। मेरा मन उनके स्नेह-सागर में अवगाहन कर तृप्त हो गया। उनके हाथों से घी लगी एक-एक रोटी अमृत जैसा स्वाद दे रही थी। फुल्के, दल, सब्जी, आचार, पापड़ जैसी सामान्यतः नित्य मिलनेवाली भोजन सामग्री में उस दिन जैसी मिठास फिर कभी नहीं मिली। पेट भर जाने पर भी आग्रह कर-कर के २ रोटी और खिलाईं, फिर मिठाई... बीच में लगातार बातें...फिर बोलीं- 'अब तुम आराम करो, नहाकर -पूजा करेगी।' लगभग आधे घंटे में स्नान-ध्यान से निवृत्त होकर आयीं तो तखत पर विराजते ही मैं फिर समीप ही बैठ गया। उनके पैर दबाते-दबाते कितनी ही बातें हुईं...काश तब आज जैसे यंत्र होते तो वह सब अंकित कर लिया जा सकता। परिवार के बाद अब वे मेरे बारे में पूछ रहीं थीं...क्या-क्या पढ़ लिया?, क्या कर रहा हूँ?, किन विधाओं में लिखता हूँ?, कौन-कौन से कवि-लेखक तथा पुस्तकें पसंद हैं?, घर में किसकी क्या रूचि है?, उनकी कौन-कौन सी कृतियाँ मैंने पढीं हैं? कौन सी सबसे ज्यादा पसंद है? यामा देखे या नहीं?, कौनसा चित्र अधिक अच्छ लगा? प्रश्न ही प्रश्न... जैसे सब कुछ जान लेना चाहती हों, वह सब जो समय-चक्र ने इतने सालों तक नहीं जानने दिया। मैं अनुभव कर सका कि उनके मन में कितना ममत्व है, अदेखे-अनजाने नातों के लिए। शायद मानव और महामानव के बीच की सीमा रेखा होती है कि महा मानव सब पर स्नेह अमृत बरसाते हैं। मेरे बहुत आग्रह पर आराम करने को तैयार हुईं... तू क्या करेगा?,ऊब तो नहीं जायेगा? आश्वस्त किया कि मैं भैया (डॉ.पाण्डेय) - भाभी से गप्प कर रहा हूँ, आप विश्राम कर लें। कुछ देर बाद उठीं तो फिर बातचीत का सिलसिला चला। मुझसे पूछा- 'तू अपना उपनाम 'सलिल' क्यों लिखता है?' मैंने कभी गहराई से सोचा ही न था, क्या बताता? मौन देखकर बोलीं- 'सलिल माने पानी... पानी जिन्दगी के लिए जरूरी है...पर गंगा में हो या नाले में दोनों ही सलिल होते हैं। बहता पानी निर्मला... सो तो ठीक है पर... उनका आशय था कि नाम सबसे अच्छा हो तो काम भी अच्छा करने की प्रवृत्ति होगी। वे स्वयं नाम से ही नहीं वास्तव में भी महादेवी ही थीं। बातचीत के बीच-बीच में वे आरती की प्रशंसा करतीं तो वह संकुचा जाती। मैं भी सुबह से देख रहा था कि वह कितनी ममता से बुआश्री की सेवा में जुटी थी। बुआजी डॉ. पाण्डेय व भाभी जी की भी बार-बार प्रशंसा करती रहीं। कुछ देर बाद कहा- 'तू क्या पूछना चाहता है पूछ न ? सुबह से मैं ही बोल रही हूँ। अब तू पूछ...जो मन चाहे...मैं तेरी माँ जैसी हूँ... माँ से कोई संकोच करता है? पूछ...' न कैसे अनुमान लगाया कि मेरे मन में कुछ जिज्ञासाएँ हैं। पत्रकारिता में पढ़ते समय वरिष्ठ पत्रकार स्व. कालिकाप्रसाद दीक्षित 'कुसुमाकर' विभागाध्यक्ष थे। उनकी धारणा थी कि महादेवी जी ने निराला जी का अर्थ शोषण किया, मैं असहमति व्यक्त करता तो कहते 'तुम क्या जानो?' आज अवसर था लेकिन पूछूँ तो कैसे? बुआ जी के प्रोत्साहित करने पर मैंने कहा- 'निराला जी के बारे में कुछ बताइए।?' 'वे महाप्राण थे विषपायी...बुआजी के चेहरे पर प्रसन्नता के भाव आये, ऐसा लगा कि उनकी रूचि का प्रसंग है...कुछ क्षण आँखें मूँद कर जैसे उन पलों को जी रहीं हों जब निराला साथ थे। फिर बोलीं क्या कहूँ?...कितना कहूँ? ऐसा आदमी न पहले कभी हुआ... न आगे होगा... वो मानव नहीं महामानव थे...विषपायी थे। उनके बाद मेरी राखी सूनी हो गयी... उस एक ही पल में मैं समझ गया कि कुसुमाकर जी कि धारणा निराधार थी। 'निराला जी आम लोगों की तरह दुनियादारी से कोई मतलब नहीं रखते थे। प्रकाशक उनकी किताबें छापकर अमीर हो गए पर वे फकीर ही रह गये। एक बार हम लोगों ने बहुत कठिनाई से दुलारे लाल भार्गव से उन्हें रोयल्टी की राशि दिलवाई, वे मेरे पास छोड़कर जाने लगे मुश्किल से अपने साथ ले जाने को तैयार हुए, मैं खुश थी कि अब वे हमेशा रहनेवाले आर्थिक संकट से कुछ दिनों तक मुक्त रहेंगे। कुछ दिनों बाद आये तो बोले कुछ रुपये चाहिए। मुझे अचरज हुआ कि इतने रुपये कहाँ गए? पूछा तो बोले उस दिन तुम्हारे पास से गया तो भूख से परेशान एक बुढिया को भीख मांगते देखा। जेब से एक नोट निकलकर उसके हाथ पर रखकर पूछा कि अब तो भीख नहीं मांगेगी। बुढिया बोली जब तक इनसे काम चलेगा नहीं मांगूगी। निराला जी ने एक गड्डी निकल कर उसके हाथों में रखकर पूछ अब कब तक भीख नहीं मांगेगी? बुढिया बोली 'बहुत दिनों तक।' निराला जी ने सब गड्डियाँ भिखारिन की झोली में डालकर पूछा- 'अब?' 'कभी नहीं' बुढिया बोली। निराला जी खाली हाथ घर चले गए। जब खाने को कुछ न बचा तथा बनिए ने उधार देने से मना कर दिया तो मेरे पास आ गए थे। ऐसे थे भैया। कुछ देर रुकीं...शायद कुछ याद कर रहीं थी...फिर बोलीं एक बार कश्मीर में मेरा सम्मान कर पश्मीना की शाल उढाई गयी। मेरे लौटने की खबर पाकर भैया मिलाने आये। ठण्ड के दिनों में भी उघारे बदन, मैंने सब हाल बताया तथा शाल उन्हें उढा दी कि अब ठण्ड से बचे रहेंगे। कुछ दिन बाद ठण्ड से जड़ते हुए आये। मैंने पूछा शाल कहाँ है? पहले तो सर झुकाए चुप बैठे रहे। दोबारा पूछने पर बताया कि रास्ते में ठण्ड से पीड़ित किसी भिखारी को कांपते देख उसे उढा दी। बोल देखा है कोई दूसरा ऐसा अवढरदानी ? वाणी मौन थी और कान व्याकुल। चर्चा...और चर्चा, प्रसंग से प्रसंग... निराला और नेहरु, निराला और पन्त, निराला और इलाचंद्र जोशी,, निराला और राजेंद्र प्रसाद, निराला और हिंदी, निराला और रामकृष्ण, निराला और आकाशवाणी, आदि...कभी कंठ रुद्ध हो जाता... कभी आँखें भर आतीं...कभी सर गर्व से उठ जाता... निराला और राखी की चर्चा करते हुए बताया कि निराला और इलाचंद्र जोशी में होड़ होती कि कौन पहले राखी बंधवाये? निराला राखी बाँधने के पहले रूपये मांगते फिर राखी बंधने पर वही दे देते क्योकि उनके पास कुछ होता ही नहीं था और खाली हाथ राखी बंधवाना उन्हें गवारा नहीं होता था। स्मृतियों के महासागर में डूबती-तिरती बुआश्री का अगला पड़ाव था दद्दा और जिया... चिरगांव की राखी। दद्दा का संसद में कवितामय बजट भाषण...हिन्दी संबन्धी आन्दोलन... फिर प्रसाद और कामायनी की चर्चा। फिर दिनकर... फिर नन्द दुलारे वाजपेई... हजारी प्रसाद द्विवेदी... नवीन... सुमन... जवाहर लाल नेहरु... इंदिरा जी, द्वारका प्रसाद मिश्र... पत्रकार पी. डी. टंडन अनेक नाम... अनेक प्रसंग... अनंत कोष स्मृतियों का। मैंने प्रसंग परिवर्तन के लिए कहा- 'कुछ अपने बारे में बताइए। 'क्या बताऊँ? अपने बारे में क्या कहूं? मैं तो अधूरी रह गयी हूँ उसके बिना...' मैं अवाक् था। किसकी कथा सुनने को मिलेगी? ...कौन है वह महाभाग? 'वह तो थी ही विद्रोहिणी... बचपन से ही... निर्भीक, निस्संकोच, वात्सल्यमयी, सेवाभावी, रूढी भंजक...फिर प्रारंभ हुआ सुभद्रा पुराण... स्कूल में भेंट... दोनों का कविता लिखना, चूडी बदलना... लक्ष्मण प्रसाद जी से भेंट... दोनों का विवाह... पर्दा प्रथा को तोड़ना... दुधमुंहे बच्चों को छोड़कर सत्याग्रह में भाग लेना-जेल यात्रा... फिर सुभद्रा जी के विधायक बनने में सेठ गोविन्द दास द्वारा बाधा... सरदार पटेल द्वारा समर्थन... गाँधी जी के अस्थि विसर्जन में सुभद्रा जी द्वारा झुग्गीवासियों को लेकर जाना...अंत में मोटर दुर्घटना में निधन... की चर्चा कर रो पडी...खुद को सम्हाला...आंसू पोंछे...पानी पिया...प्रकृतिस्थ हुईं... 'थक गया न ? जा आराम कर।' 'नहीं बुआजी! बहुत अच्छा लग रहा है...ऐसा अवसर फिर न जाने कब मिले?...तो क्या सुनना है अब?...इतनी कथा तो पंडित दक्षिणा लेकर भी नहीं कहता'... 'बुआ जी आपके कृष्ण जी!'...; ' मेरे नहीं... कृष्ण तो सबके हैं जो उन्हें जिस भाव से भज ले...उन्हें वही स्वीकार। तू न जानता होगा...एक बार पं. द्वारका प्रसाद और मोरार जी देसाई में प्रतिद्वंदिता हो गयी कि बड़ा कृष्ण-भक्त कौन है? पूरा प्रसंग सुनाया फिर बोलीं- भगवन! ऐसा भ्रम कभी न दे।' अब भी मुझे आगे सुनने के लिए उत्सुक पाया तो बोलीं तू अभी तक नहीं थका?...पी. डी. टन्डन का नाम सुना है? एक बार साक्षात्कार लेने आया तो बोला आज बहुत खतरनाक सवाल पूछने आया हूँ। मैनें कहा पूछो तो बोला अपनी शादी के बारे में बताइये। मैनें कहा- 'बाप रे, यह तो आज तक किसी ने नहीं पूछा। क्या करेगा जानकर?' बुआ जी बताइए न, मैं भी जानना चाहता हूँ।' -मेरे मुंह से निकला, 'तू भी कम शैतान नहीं है...चल सुन...फिर अपने बचपन...बाल विवाह...गाँधी जी व् बौद्ध धर्म के प्रभाव, दीक्षा के अनुभव, मोह भंग, प्रभावतीजी से मित्रता, जे. पी. के संस्मरण... अपने बाल विवाह के पति से भेंट... गृहस्थ जीवन के लिए आमंत्रण, बापू को दिया वचन गार्हस्थ से विराग आदि प्रसंग उन्होंने पूरी निस्संगता से सुनाये। उनके निकट लगभग ६ घंटे किसी चलचित्र की भांति कब कटे पता ही न चला...मुझे घड़ी देखते पाया तो बोलीं- 'तू जायेगा ही? रुक नहीं सकता? तेरे साथ एक पूरा युग फिर से जी लिया मैंने।' सबेरे वे अपनी नाराजगी जता चुकी थीं कि इतने कम समय में क्यों जा रहा हूँ?, रुकता क्यों नहीं? पर इस समय शांत थीं...उनका वह वात्सल्य...वह स्पर्श...वह स्नेह...अब तक रोमांचित कर देता है...बाद में ३-४ बार और बुआ जी का शुभाशीष पाया। कभी ईश्वर मिले और वर माँगने को कहे तो मैं बुआ जी के साथ के वही पल फिर से जीना चाहूँगा। *************************
लेबल: इंदिरा, जे. पी., निराला, नेहरू, पन्त, संस्मरण: ममतामयी महादेवी-संजीव 'सलिल'
गुरुवार, 21 मई 2009
काव्य-किरण: आचार्य संजीव 'सलिल'
सारे जग को
जान रहे हम,
लेकिन खुद को
जान न पाए...
जब भी मुड़कर
पीछे देखा.
गलत मिला
कर्मों का लेखा.
एक नहीं
सौ बार अजाने
लाँघी थी निज
लछमन रेखा.
माया-ममता,
मोह-लोभ में,
फँस पछताए-
जन्म गँवाए...
पाँच ज्ञान की,
पाँच कर्म की,
दस इन्द्रिय
तज राह धर्म की.
दशकन्धर तन
के बल ऐंठी-
दशरथ मन में
पीर मर्म की.
श्रवण कुमार
सत्य का वध कर,
खुद हैं- खुद से
आँख चुराए...
जो कैकेयी
जान बचाए.
स्वार्थ त्याग
सर्वार्थ सिखाये.
जनगण-हित
वन भेज राम को-
अपयश गरल
स्वयम पी जाये.
उस सा पौरुष
जिसे विधाता-
दे वह 'सलिल'
अमर हो जाये...
******************
काव्य-किरण : दोहांजलि -अंबरीश श्रीवास्तव
माँ की महिमा
नैनन में है जल भरा, आँचल में आशीष
तुम सा दूजा नहि यहाँ , तुम्हें नवायें शीश
कंटक सा संसार है, कहीं न टिकता पांव
अपनापन मिलता नहीं , माँ के सिवा न ठांव
लोहू से सींचा हमें, काया तेरी देन
संस्कार अपने सब दिए, अद्भुत तेरा प्रेम
रातों को भी जागकर, हमें लिया है पाल
ऋण तेरा कैसे चुके, सोंचे तेरे लाल
स्वारथ है कोई नहीं , ना कोई व्यापार
माँ का अनुपम प्रेम है,. शीतल सुखद बयार
जननी को जो पूजता , जग पूजै है सोय
महिमा वर्णन कर सके, जग में दिखै न कोय
माँ तो जग का मूल है, माँ में बसता प्यार
मातृ-दिवस पर पूजता, तुझको सब संसार
**************************************
बुधवार, 20 मई 2009
भजन: चलीं जानकी प्यारी -स्व. शान्ति देवी
चलीं जानकी प्यारी, सूना भया जनकपुर आज...
रोएँ अंक भर मातु सुनयना, पिता जनक बेहाल.
सूना भया जनकपुर आज...
सखी-सहेली फ़िर-फ़िर भेंटें, रखना हमको याद.
सूना भया जनकपुर आज...
शुक-सारिका न खाते-पीते, ले चलो हमको साथ.
सूना भया जनकपुर आज...
चारों सुताओं से कहें जनक, रखना दोउ कुल की लाज.
सूना भया जनकपुर आज...
कहें सुनयना भये आज से, ससुर-सास पितु-मात.
सूना भया जनकपुर आज...
गुरु बोलें: सबका मन जीतो, यही एक है पाठ.
सूना भया जनकपुर आज...
नगरनिवासी खाएं पछाडें, काहे बना रिवाज.
सूना भया जनकपुर आज...
जनक कहें दशरथ से 'करिए क्षमा सकल अपराध.
सूना भया जनकपुर आज...
दशरथ कहें-हैं आँख पुतरिया, रखिहों प्राण समान.
सूना भया जनकपुर आज...
***********
ग़ज़ल: मनु बेतखल्लुस, दिल्ली
ख़ुद ही अपने पे आजमाने हैं
सर्द रातें गुजारने के लिए,
धूप के गीत गुनगुनाने हैं
कैद सौ आफ़ताब तो कर लूँ,
क्या मुहल्ले के घर जलाने हैं
आ ही जायेंगे वो चराग ढले,
और उनके कहाँ ठिकाने हैं
फ़िक्र पर बंदिशें हजारों हैं,
सोचिये, क्या हसीं जमाने हैं
तुझ सा मशहूर हो नहीं सकता
तुझ से हटकर, मेरे फ़साने हैं
--------------------
काव्य किरण: डॉ. राम शर्मा, मेरठ
POETRY
DR. RAM SHARMA, Meerut
CHILDHOOD MEMORIES
I still remember my childhood,
Love, affection and chide of my mother,
Weeping in a false manner,
Playing in the moonlight,
Struggles with cousins and companions,
Psuedo-chide of my father,
I still have everything with me,
But i miss,
Those childhood memories
OCTOPUSM
an has become octopus,
entangled in his own clutches,
fallen from sky to earth,
new foundation was made,o
f rituals, customs and manners,
tried to come out of the clutches,
but notwaiting for doom`s day
Years
Years,passed,
of this century,
in the hope,
era has changed,
to see something new,
perhaps,everything will be changed,
but what happens with thinking,
do something positive
it will take years,to build
COMPLAIN
I am tired,of callling,
i am finding none,
to come with me,
none is hearing me,
hearts have been locked,
windows of ears have been closed,
its my fate,pain is my destiny,
i have no complain,towards anyone
******************************
मंगलवार, 19 मई 2009
काव्य-किरण:
सारे जग को
जान रहे हम,
लेकिन खुद को
जान न पाए...
पीछे देखा.
गलत मिला
कर्मों का लेखा.
एक नहीं
सौ बार अजाने
लाँघी थी निज
लछमन रेखा.
माया ममता
मोह लोभ में,
फँस पछताए-
जन्म गँवाए...
पाँच ज्ञान की,
पाँच कर्म की,
दस इन्द्रिय
तज राह धर्म की.
दशकन्धर तन
के बल ऐंठी-
दशरथ मन में
पीर मर्म की.
श्रवण कुमार
सत्य का वध कर,
खुद हैं- खुद से
आँख चुराए...
जो कैकेयी
जान बचाए.
स्वार्थ त्याग
सर्वार्थ सिखाये.
जनगण-हित
वन भेज राम को-
अपयश गरल
स्वयम पी जाये.
उस सा पौरुष
जिसे विधाता-
दे वह 'सलिल'
अमर हो जाये...
******************
काव्य-किरण: आचार्य संजीव 'सलिल'
संजीव 'सलिल'
जीवन की
जय बोल,
धरा का दर्द
तनिक सुन...
तपता सूरज
आँख दिखाता
जगत जल रहा.
पीर सौ गुनी
अधिक हुई है
नेह गल रहा.
हिम्मत
तनिक न हार-
नए सपने
फिर से बुन...
निशा उषा
संध्या को छलता
सुख का चंदा.
हँसता है पर
काम किसी के
आये न बन्दा...
सब अपने
में लीन,
तुझे प्यारी
अपनी धुन...
महाकाल के
हाथ जिंदगी
यंत्र हुई है.
स्वार्थ-कामना ही
साँसों का
मन्त्र मुई है.
तंत्र लोक पर,
रहे न हावी
कर कुछ
सुन-गुन...
**************
काव्य-किरण: आशा वर्मा
चलो तिरंगा ध्वज फहराएँ
रिपु-दल में भगदड़ मच जाए।
जांबाजों का शौर्य देखकर
दुश्मन की घिग्घी बँध जाए।
हों बुलंद हौसले तुम्हारे
जान हथेली पर रखना तुम।
देख तुम्हारा प्रबल पराक्रम
स्वयं काल तुमसे घबराए।
पृथ्वीराज, प्रताप, शिवाजी
विक्रम दुर्गा लक्ष्मी तात्या-
बिस्मिल, भगत, आजाद, बोस,
सेखों, त्यागी सी बनें कथाएँ।
शंकर प्रलयंकर बन टूटो
ध्वस्त शत्रु के करो इरादे।
सरहद पर कुरुक्षेत्र समर हो
मिटें विभाजन की रेखाएँ।
सर पर कफन बाँधकर मचलो,
लिखो शौर्य की नव गाथाएँ।
मिटा पाक नापाक समूचा
चलो तिरंगा ध्वज फहराएँ।
***********************
काव्य-किरण:
मन्वंतर
अजब गेट
कोई न जाए पार
रे! कोलगेट।
एक ही सेंट
नहीं सकते सूंघ
है परसेंट।
कौन सी बला
मानी जाती है कला?
बजा तबला।
आरोग्य-आशा: स्व. शान्ति देवी
इस स्तम्भ के अंतर्गत पारंपरिक चिकित्सा-विधि के प्रचलित दिए जा रहे हैं। हमारे बुजुर्ग इन का प्रयोग कर रोगों से निजात पाते रहे हैं।
आपको ऐसे नुस्खे ज्ञात हों तो भेजें।
इनका प्रयोग आप अपने विवेक से करें, परिणाम के प्रति भी आप ही जिम्मेदार होंगे, लेखक या संपादक नहीं।
रोग: रक्त-अतिसार, खूनी-दस्त
बकरी के दूध में तिल का चूर्ण और मिश्री मिलकर पिलाने से रक्त-अतिसार जड़-मूल से दूर हो जाता है।
डालें बकरी-दूध में, मिसरी-तिल का चूर्ण.
रोग रक्त-अतिसार हो, नष्ट शीघ्र ही पूर्ण..
************************************
सूक्ति-सलिला: प्रो. बी.पी.मिश्र'नियाज़' / सलिल
विश्व वाणी हिन्दी के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ साहित्यकार, शिक्षाविद तथा चिन्तक नियाज़ जी द्वारा इस स्तम्भ में विविध आंग्ल साहित्यकारों के साहित्य का मंथन कर प्राप्त सूक्ति रत्न पाठको को भेँट किए जा रहे हैं। संस्कृत में कहा गया है- 'कोषस्तु महीपानाम् कोशाश्च विदुषामपि' अर्थात कोष या तो राजाओं के पास होता है या विद्वानों के।
इन सूक्तियों के हिन्दी अनुवाद मूल की तरह प्रभावी हैं। डॉ. अम्बाशंकर नागर के अनुसार 'अनुवाद के लिए कहा जाता है कि वह प्रामाणिक होता है तो सुंदर नहीं होता, और सुंदर होता है तो प्रामाणिक नहीं किंतु मैं यह विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि इन सूक्तियों का अनुवाद प्रामाणिक भी है और सुंदर भी।'
'नियाज़' जी कहते हैं- 'साहित्य उतना ही सनातन है जितना कि मानव, देश और काल की सीमायें उसे बाँध नहीं सकतीं। उसके सत्य में एक ऐसी सत्ता के दर्शन होते हैं जिससे अभिभूत होकर न जाने कितने युग-द्रष्टाओं ने अमर स्वरों में उसका गान किया है। प्रांजल विचार संचरण के बिना श्रेष्ठ नव साहित्य का निर्माण असंभव है आंग्ल साहित्य के कुछ श्रेष्ठ रचनाकारों के साहित्य का मंथन कर नियाज़ जी ने प्राप्त सूक्ति रत्न बटोरे हैं जिन्हें वे पाठकों के साथ साँझा कर रहे हैं।
सूक्तियों का हिन्दी काव्यानुवाद कर रहे हैं आचार्य संजीव 'सलिल' ।
सूक्तियां शेक्सपिअर के साहित्य से-
Fortune,चाटुकारिता, चापलूसी, मुँहदेखी
Our thoughts are ours, their ends none of our own.
वाह रे विश्व! मनुष्य के कान सत्परामर्श के लिए बहरे किन्तु चाटुकारिता के लिए सदैव उत्सुक और सजग हैं.
शुभ सलाह हित मनुज के, बहरे होते कान.
style="color:#ff0000;">चाटुकारिता के लिए, क्यों उत्सुक इंसान?
*************************************************************************************
काव्य-किरण : अमरनाथ
नव काव्य विधा: चुटकी
समयाभाव के इस युग में बिन्दु में सिन्धु समाने का प्रयास सभी करते हैं। शहरे-लखनऊ के वरिष्ठ रचनाकार अभियंता अमरनाथ ने क्षणिकाओं से आगे जाकर कणिकाओं को जन्म दिया है जिन्हें वे 'चुटकी' कहते हैं।
चुटकी काटने की तरह ये चुटकियाँ आनंद और चुभन की मिश्रित अनुभूति कराती हैं। अंगरेजी के paronyms की तरह इसकी दोनों पंक्तियों में एक समान उच्चारण लिए हुए कोई एक शब्द होता है जो भिन्नार्थ के कारण मजा देता है।
गिरिजा
उसने बताया नाम जब गिरिजा.
दर्द तब चीख पड़ा मैं: 'जा तू गिर जा..'
अंतुले
नाम है इनका अंतुले
सदा ही रहते अन तुले..
गोबी
पहुँचा मरुस्थल जब वह गोबी..
लगा ढूँढने वह फूल गोभी..
नंदmain bola: 'laya bakra'
उसकी सबसे बड़ी जो नंद..
वह समझती ख़ुद को महानंद..
बकरा
मैं बोला:'लाया बकरा.'
वह बोली:'तू क्या बक रा?'
*********************
सोमवार, 18 मई 2009
-: काव्य किरण :-
नव गीत
आचार्य संजीव 'सलिल'
टूटा नीड़,
व्यथित है पाखी।
मूक कबीरा
कहे न साखी।
संबंधों के
अनुबंधों में
सिसक रही
है
बेबस राखी।
नहीं नेह को
मिले
ठांव क्यों?...
पूरब पर
पश्चिम
का साया।
बौरे गाँव
ऊँट ज्यों आया।
लाल बुझक्कड़
बूझ रहे है,
शेख चिल्लियों
का कहवाया।
कूक मूक क्यों?
मुखर काँव क्यों??...
बरगद सबकी
चिंता करता।
हँसी उड़ाती-
पतंग, न चिढ़ता।
कट-गिरती तो
आँसू पोंछे,
चेतन हो जाता
तज जड़ता।
पग-पग पर है
चाँव-चाँव क्यों?...
दीप-ज्योति के
तले अँधेरा,
तम से
जन्मे
सदा सवेरा।
माटी से-
मीनार
गढें हम।
माटी ने फिर
हमको टेरा।
घाट कहीं क्यों?
कहीं नाव क्यों??...
****************
साहित्य समाचार: हिन्दी साहित्य सम्मलेन प्रयाग : शताब्दी वर्ष समारोह संपन्न
साहित्य समाचार:
हिन्दी साहित्य सम्मलेन प्रयाग : शताब्दी वर्ष समारोह संपन्न
अयोध्या, १०-११ मई '0९ । समस्त हिन्दी जगत की आशा का केन्द्र हिन्दी साहित्य सम्मलेन प्रयाग अपने शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में देव भाषा संस्कृत तथा विश्व-वाणी हिन्दी को एक सूत्र में पिरोने के प्रति कृत संकल्पित है। सम्मलेन द्वारा राष्ट्रीय अस्मिता, संस्कृति, हिंदी भाषा तथा साहित्य के सर्वतोमुखी उन्नयन हेतु नए प्रयास किये जा रहे हैं।
१० मई १९१० को स्थापित सम्मलेन एकमात्र ऐसा राष्ट्रीय संस्थान है जिसे राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन तथा अन्य महान साहित्यकारों व समाजसेवियों का सहयोग प्राप्त हुआ। नव शताब्दी वर्ष में प्रवेश के अवसर पर सम्मलेन ने १०-११ मई '0९ को अयोध्या में अखिल भारतीय विद्वत परिषद् का द्विदिवसीय सम्मलेन हनुमान बाग सभागार, अयोध्या में आयोजित किया गया। इस सम्मलेन में २१ राज्यों के ४६ विद्वानों को सम्मलेन की मानद उपाधियों से सम्मानित किया गया। १० मई को 'हिंदी, हिंदी साहित्य और हिंदी साहित्य सम्मलेन' विषयक संगोष्ठी में देश के विविध प्रान्तों से पधारे ११ वक्ताओं ने विद्वतापूर्ण व्याख्यान दिए ।
साहित्य वाचस्पति डॉ. बालशौरी रेड्डी, अध्यक्ष, तमिलनाडु हिंदी अकादमी ने इस सत्र के अध्यक्षता की। इस सत्र का संचालन डॉ. ओंकार नाथ द्विवेदी ने किया। स्वागत भाषण डॉ. बिपिन बिहारी ठाकुर ने दिया। प्रथम दिवस पूर्वान्ह सत्र में संस्कृत विश्व विद्यालय दरभंगा के पूर्व कुलपति डॉ. जय्मंत मिश्र की अध्यक्षता में ११ उद्गाताओं ने 'आज संस्कृत की स्थिति' विषय पर विचार व्यक्त किए। विद्वान् वक्ताओं में डॉ. तारकेश्वरनाथ सिन्हा बोध गया, श्री सत्यदेव प्रसाद डिब्रूगढ़, डॉ. गार्गीशरण मिश्र जबलपुर, डॉ. शैलजा पाटिल कराड, डॉ.लीलाधर वियोगी अंबाला, डॉ. प्रभाशंकर हैदराबाद, डॉ. राजेन्द्र राठोड बीजापुर, डॉ. नलिनी पंड्या अहमदाबाद आदि ने विचार व्यक्त किये।
अपरान्ह सत्र में प्रो. राम शंकर मिश्र वाराणसी, डॉ. मोहनानंद मिश्र देवघर, पं. ग. र। मिश्र तिरुपति, डॉ. हरिराम आचार्य जयपुर, डॉ. गंगाराम शास्त्री भोपाल, डॉ. के. जी. एस. शर्मा बंगलुरु, पं. श्री राम देव जोधपुर, डॉ. राम कृपालु द्विवेदी बांदा , डॉ. अमिय चन्द्र शास्त्री मथुरा, डॉ. भीम सिंह कुरुक्षेत्र, डॉ. महेशकुमार द्विवेदी सागर आदि ने संस्कृत की प्रासंगिकता तथा हिंदी--संस्कृत की अभिन्नता पर प्रकाश डाला। यह सत्र पूरी तरह संस्कृत में ही संचालित किया गया। श्रोताओं से खचाखच भरे सभागार में सभी वक्तव्य संस्कृत में हुए।
समापन दिवस पर ११ मई को डॉ. राजदेव मिश्र, पूर्व कुलपति सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी की अध्यक्षता में ५ विद्द्वजनों ने ज्योतिश्पीठाधीश्वर जगद्गुरु स्वामी वासुदेवानंद सरस्वती के प्रति प्रणतांजलि अर्पित की। सम्मलेन के अध्यक्ष साहित्य वाचस्पति श्री भगवती प्रसाद देवपुरा, अध्यक्ष हिंदी साहित्य सम्मलेन प्रयाग की अध्यक्षता में देश के चयनित ५ संस्कृत विद्वानों डॉ। जय्म्न्त मिश्र दरभंगा, श्री शेषाचल शर्मा बंगलुरु, श्री गंगाराम शास्त्री भोपाल, देवर्षि कलानाथ शास्त्री जयपुर, श्री बदरीनाथ कल्ला फरीदाबाद को महामहिमोपाध्याय की सम्मानोपाधि से सम्मानित किया गया।
११ संस्कृत विद्वानों डॉ. मोहनानंद मिश्र देवघर, श्री जी. आर. कृष्णमूर्ति तिरुपति, श्री हरिराम आचार्य जयपुर, श्री के.जी।एस. शर्मा बंगलुरु, डॉ. रामकृष्ण सर्राफ भोपाल, डॉ. शिवसागर त्रिपाठी जयपुर, डॉ.रामकिशोर मिश्र बागपत, डॉ. कैलाशनाथ द्विवेदी औरैया, डॉ. रमाकांत शुक्ल भदोही, डॉ. वीणापाणी पाटनी लखनऊ तथा पं. श्री राम देव जोधपुर को महामहोपाध्याय की सम्मानोपाधि से सम्मानित किया गया।
२ हिन्दी विद्वानों डॉ. केशवराम शर्मा दिल्ली व डॉ. वीरेंद्र कुमार दुबे को साहित्य महोपाध्याय तथा २८ साहित्य मनीषियों डॉ। वेदप्रकाश शास्त्री हैदराबाद, डॉ. भीम सिंह कुरुक्षेत्र, डॉ. कमलेश्वर प्रसाद शर्मा दुर्ग, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जबलपुर, डॉ. महेश कुमार द्विवेदी सागर, श्री ब्रिजेश रिछारिया सागर, डॉ. मिजाजीलाल शर्मा इटावा, श्री हरिहर शर्मा कबीरनगर, डॉ, रामशंकर अवस्थी कानपूर, डॉ. रामकृपालु द्विवेदी बांदा, डॉ. हरिहर सिंह कबीरनगर, डॉ, अमियचन्द्र शास्त्री 'सुधेंदु' मथुरा, डॉ. रेखा शुक्ल लखनऊ, डॉ. प्रयागदत्त चतुर्वेदी लखनऊ, डॉ. उमारमण झा लखनऊ, डॉ. इन्दुमति मिश्र वाराणसी, प्रो. रमाशंकर मिश्र वाराणसी, डॉ. गिरिजा शंकर मिश्र सीतापुर, चंपावत से श्री गंगाप्रसाद पांडे, डॉ. पुष्करदत्त पाण्डेय, श्री दिनेशचन्द्र शास्त्री 'सुभाष', डॉ. विष्णुदत्त भट्ट, डॉ. उमापति जोशी, डॉ. कीर्तिवल्लभ शकटा, हरिद्वार से प्रो. मानसिंह, अहमदाबाद से डॉ. कन्हैया पाण्डेय, प्रतापगढ़ से डॉ, नागेशचन्द्र पाण्डेय तथा उदयपुर से प्रो. नरहरि पंड्याको ''वागविदांवर सम्मान'' ( ऐसे विद्वान् जिनकी वाक् की कीर्ति अंबर को छू रही है) से अलंकृत किया गया। उक्त सभी सम्मान ज्योतिश्पीठाधीश्वर जगद्गुरु स्वामी वासुदेवानंद सरस्वती के कर कमलों से प्रदान किये जाते समय सभागार करतल ध्वनि से गूँजता रहा।
अभियंता-आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ''वागविदांवर सम्मान'' से विभूषित
अंतर्जाल पर हिन्दी की अव्यावसायिक साहित्यिक पत्रिका दिव्य नर्मदा का संपादन कर रहे विख्यात कवि-समीक्षक अभियंता श्री संजीव वर्मा 'सलिल' को संस्कृत - हिंदी भाषा सेतु को काव्यानुवाद द्वारा सुदृढ़ करने तथा पिंगल व साहित्य के क्षेत्र में विशिष्ट अवदान के लिए 'वाग्विदान्वर सम्मान' से सम्मलेन द्वारा अलंकृत किया जाना अंतर्जाल जगत के लिया विशेष हर्ष का विषय है चुकी उक्त विद्वानों में केवल सलिल जी ही अंतर्जाल जगत से न केवल जुड़े हैं अपितु व्याकरण, पिंगल, काव्य शास्त्र, अनुवाद, तकनीकी विषयों को हिंदी में प्रस्तुत करने की दिशा में मन-प्राण से समर्पित हैं।
अंतर्जाल की अनेक पत्रिकाओं में विविध विषयों में लगातार लेखन कर रहे सलिल जी गद्य-पद्य की प्रायः सभी विधाओं में सृजन के लिए देश-विदेश में पहचाने जाते हैं। हिंदी साहित्य सम्मलेन के इस महत्वपूर्ण सारस्वत अनुष्ठान की पूर्णाहुति परमपूज्य ज्योतिश्पीठाधीश्वर जगद्गुरु स्वामी वासुदेवानंद सरस्वती महाराज के प्रेरक संबोधन से हुई। स्वामी जी ने संकृत तथा हिंदी को भविष्य की भाषाएँ बताया तथा इनमें संभाषण व लेखन को जन्मों के संचित पुण्य का फल निरुपित किया।
सम्मलेन के अध्यक्ष वयोवृद्ध श्री भगवती प्रसाद देवपुरा, ने बदलते परिवेश में अंतर्जाल पर हिंदी के अध्ययन व शिक्षण को अपरिहार्य बताया।
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काव्य-किरण: -शोभना चौरे
मुसकराने की कोई ,
वजह नहीं होती
वह तो कलियों के ,
खिलने की तरह होती है
सपनों की कोई तरंग ,
नहीं होती
वह तो मात्र मन को,
छलावा देती है
सागर की गहराई में जाना ,
मात्र उक्ति नहीं होती
वह तो प्रेम की अथाह
शक्ति होती है
दुनिया माने न माने ,
प्रेम की कोई
कसौटी नहीं होती है
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काव्य किरण : WORDS -Dr. Ram Sharma,
Word breaks silence,
touches the hearts,
joins the minds,
fights the persons,
words are very powerful,
words are the real treasures,
of human beings.
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काव्य किरण: चुटकी -अमरनाथ, लखनऊ
जब अकेले थे अगस्त.
।
है आज तो पंद्रह अगस्त.
.
तब कान पड़े महिषी रम्भाना.
रविवार, 17 मई 2009
पुस्तक-पुष्पा: चित्रगुप्त मीमांसा -रविंद्रनाथ, समीक्षक सलिल
चित्रगुप्त मीमांसा : श्रृष्टि-श्रृष्टा की तलाश में सार्थक सृजन यात्रा
(कृति विवरण: नाम: चित्रगुप्त मीमांसा, विधा: गद्य, कृतिकार: रवीन्द्र नाथ, आकर: डिमाई, पृष्ठ: ९३, मूल्य: ७५/-,आवरण: पेपरबैक, अजिल्द-एकरंगी, प्रकाशक: जैनेन्द्र नाथ, सी १८४/३५१ तुर्कमानपुर, गोरखपुर २७३००५ )
श्रृष्टि के सृजन के पश्चात से अब तक विकास के विविध चरणों की खोज आदिकाल से मनुष्य का साध्य रही है। 'अथातो धर्म जिज्ञासा' और 'कोहं' जैसे प्रश्न हर देश-कल-समय में पूछे और बूझे जाते रहे हैं। समीक्ष्य कृति में श्री रविन्द्र नाथ ने इन चिर-अनुत्तरित प्रश्नों का उत्तर अपनी मौलिक विवेचना से देने का प्रयास किया है।
पुस्तक का विवेच्य विषय जटिल तथा गूढ़ होने पर भी कृतिकार उसे सरल, सहज, बोधगम्य, रोचक, प्रसादगुण संपन्न भाषा में अभिव्यक्त करने में सफल हुआ है। अपने मत के समर्थन में लेखक ने विविध ग्रंथों का उल्लेख कर पुष्ट-प्रामाणिक पीठिका तैयार की है। गायत्री तथा अग्नि पूजन के विधान को चित्रगुप्त से सम्बद्ध करना, चित्रगुप्त को परात्पर ब्रम्ह तथा ब्रम्हा-विष्णु-महेश का मूल मानने की जो अवधारणा अखिल कायस्थ महासभा के हैदराबाद अधिवेशन के बाद से मेरे द्वारा लगातार प्रस्तुत की जाती रही है, उसे इस कृति में लेखक ने न केवल स्वीकार किया है अपितु उसके समर्थन में पुष्ट प्रमाण भी प्रस्तुत किये हैं।
'इल' द्वारा इलाहाबाद तथा 'गय' द्वारा गया की स्थापना सम्बन्धी तथ्य मेरे लिए नए हैं. कायस्थी लिपि के बिहार से काठियावाड तक प्रसार तथा ब्राम्ही लिपि से अंतर्संबंध पर अधिक अन्वेषण आवश्यक है। मेरी जानकारी के अनुसार इस लिपि को 'कैथी' कहते हैं तथा इसकी वर्णमाला भी उपलब्ध है. संभवतः यह लिपि संस्कृत के प्रचलन से पहले प्रबुद्ध तथा वणिक वर्ग की भाषा थी।
लेखक की अन्य १४ कृतियों में पौराणिक हिरन्यपुर साम्राज्य, सागर मंथन- एक महायज्ञ, विदुए का राजनैतिक चिंतन आदि कृतियाँ इस जटिल विषय पर लेखन का सत्पात्र प्रमाणित करती हैं। इस शुष्ठु कृति के सृजन हेतु लेखक साधुवाद का पात्र है ।