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शुक्रवार, 29 मार्च 2019

चिंतन: विश्वास और श्रद्धा

चिंतन 
विश्वास और श्रद्धा 
*
= 'विश्वासं फलदायकम्' भारतीय चिंतन धारा का मूलमंत्र है।

= 'श्रद्धावान लभते ग्यानम्' व्यवहार जगत में विश्वास की महत्ता प्रतिपादित करता है। 
बिना विश्वास के श्रद्धा हो ही नहीं सकती। शंकाओं का कसौटियों पर अनगिनत बार लगातार विश्वास खरा उतरे, तब श्रद्धा उपजती है।

= श्रद्धा अंध-श्रद्धा बनकर त्याज्य हो जाती है।
= स्वार्थ पर आधारित श्रद्धा, श्रद्धा नहीं दिखावा मात्र होती है।
= तुलसी 'भवानी शंकर वंदे, श्रद्धा विश्वास रूपिणौ' कहकर श्रद्धा और विश्वास के अंतर्संबंध को स्पष्ट कर देते हैं।
शिशु के लिए जन्मदात्री माँ से अधिक विश्वसनीय और कौन है सकता है? भवानी को श्रद्धा कहकर तुलसी अकहे ही कह देते हैं कि वे सकल सृष्टिकर्त्री आदि प्रकृति महामाया हैं। 
तुलसी शंकर को विश्वास बताते हैं। शंकर हैं शंकारि, शंकाओं के शत्रु। शंका का उन्मूलन करनेवाला ही तो विश्वास का भाजन होगा।

= यहाँ एक और महत्वपूर्ण सूत्र है जिसे जानना जरूरी है। अरि अर्थात शत्रु, शत्रुता नकारात्मक ऊर्जा है। संदेह हो सकता है कि क्या नकारात्मकता भी साध्य, वरेण्य हो सकती है? उत्तर हाँ है। यदि नकारात्मकता न हो तो सकारात्मकता को पहचानोगे कैसे? खट्टा, नमकीन, चरपरा, तीखा न हो मीठा भी आनंदहीन हो जाएगा।
सृष्टि की सृष्टि ही अँधेरे के गर्भ से होती है। निशा का निबिड़ अंधकार ही उषा के उजास को जन्म देता है। अमावस का घनेरा अँधेरा न हो तो दिये जलाकर उजाला का पर्व मनाने का आनंद ही न रहेगा।
= शत्रुता या नकारात्मकता आवश्यक तो है पर वह विनाशकारी है, विध्वंसक है, उसे सुप्त रहना चाहिए। वह तभी जागृत हो, तभी सक्रिय हो जब विश्वास और श्रद्धा की स्थापना अपरिहार्य हो। जीर्णोध्दार करने के लिए जीर्ण को मिटाना जरूरी है।
= भव अर्थात संसार, भव को अस्तित्व में लाने वाली भवानी, शून्य से- सर्वस्व का सृजन करनेवाली भवानी सकारात्मक ऊर्जा हैं। वे श्रद्धा हैं।
= विश्वास के बिना श्रद्धा अजन्मा और श्रद्धा के बिना विश्वास निष्क्रिय है। इसीलिए शिव तपस्यारत हैं। शत्रुता विस्मृति के गर्त में रहे तभी कल्याण है किंतु भवानी सक्रिय हैं, सचेष्ट हैं। यही नहीं वे शिव को निष्क्रिय भी नहीं रहने देती, तपस्या को भंग करा देती हैं भले ही शिव की रौद्रता काम का विनाश कर दे।
= काम क्या है? काम रति का स्वामी है। रति कौन है? रति है ऊर्जा। काम और रति का दिशा-हीन मिलन वासना, मोह और भोग को प्रधानता देता है। यही काम निष्काम हो तो कल्याणकारी हो जाता है। रति यदि विरति हो तो सृजन ही न होगा, कुरति हो विनाश कर देगी, सुरति है तो सुगतिदात्री होगी।
= काम को मार कर फिर जिलाना शंका उपजाता है। मारा तो जिलाया क्यों? जिलाना था तो मारा क्यों? शंका का समाधान न हो तो विश्वास बिना मरे मर जाएगा।
किसी वास्तुकार से पूछो- जीर्णोध्दार के लिए बनाने से पहले गिराना होता है या नहीं? ऊगनेवाला सूर्य न डूबे तो देगा कैसे? तुम कहो कि ऊगना ही है तो डूबना क्यों या डूबना ही है तो ऊगना क्यों? तो इसका उत्तर यही है कि ऊगना इसलिए कि डूबना है, डूबना इसलिए कि ऊगना है। जन्मना इसलिए कि मरना है, मरना इसलिए कि जन्मना है।
= शिव की सुप्त शक्ति पर विश्वास कर उसको जागृत करने-रखने वाली ही शिवा है। शिवारहित शिव शव सदृश्य हैं, मृत नहीं निरानंदी हैं। शिवा के काम को शांत कर ममता में बदलनेवाले ही शिव हैं। शिवरहित शिवा तामसी नहीं तापसी हैं, उपवासी हैं, अपर्णा हैं। पतझर के बाद अपर्णा प्रकृति सपर्णा न हो तो सृष्टि न होगी इसलिए अपर्णा का लक्ष्य सपर्णा और सपर्णा का लक्ष्य अपर्णा है ।
= विश्वास और श्रद्धा भी शिव और शिवा का तरह अन्योन्याश्रित हैं। शंकाओं के गिरि से- उत्पन्न गिरिजा विश्वास के शंकर का वरण कर गर्भ से जन्मती हैं वरद, दयालु, नन्हें को गणनायक गणेश को जिनसे आ मिलते हैं षडानन और तुलसी करते हैं जय जय-
जय जय गिरिवर राज किसोरी, जय महेश मुख चंद्र चकोरी।
जय गजवदन षडानन माता, जगत जननि दामिनी द्युति दाता।।
नहिं तव आदि मध्य अवसाना, अमित प्रभाव वेद नहिं जाना।।

= विश्वास और श्रद्धा के बिना गण और गणतंत्र के गणपति बनने के अभिलाषी तब जान लें कि काम-सिद्धि को साध्य मानने की परिणाम क्षार होने में होता है। पक्ष-विपक्ष शत्रु नहीं पूरक हैं। एक दूसरे के प्रति विश्वास और गण के प्रति श्रद्धा ही उन्हें गणनायक बना सकती है अन्यथा जनशक्ति का शिव उन्हें सत्ता सौंप सकता है तो जनाक्रोश का रुद्र उन्हें मिट्टी में भी मिला सकता है।
= विश्वास और श्रद्धा का वरण कर जनता जनार्दन नोटा के तीसरे नेत्र का उपयोग कर सत्ता प्राप्ति के काम के प्रति रति रखनेवाले आपराधिक प्रवृत्तिवाले प्रत्याशियों और उन्हें मैदान में उतारनेवाले दलों को क्षार कर, जनसेवा के प्रति समर्पित जनप्रतिनिधियों को नवजीवन देने से पीछे नहीं हटेगी।
***
संवस 
७९९९५५९६१८ 

शनिवार, 1 जुलाई 2017

chinatan aur charha



चिंतन और चर्चा-
साईं, स्वरूपानंद और मैं
संजीव
*
स्वामी स्वरूपानंद द्वारा उठायी गयी साईं संबंधी आपत्ति मुझे बिलकुल ठीक प्रतीत होती है। एक सामान्य व्यक्ति के नाते मेरी जानकारी और चिंतन के आधार पर मेरा मत निम्न है:
१. सनातन: वह जिसका आदि अंत नहीं है अर्थात जो देश, काल, परिस्थिति का नियंत्रण-मार्गदर्शन करने के साथ-साथ खुद को भी चेतन होने के नाते परिवर्तित करता रहता है, जड़ नहीं होता इसीलिए सनातन धर्म में समय-समय पर देवी-देवता , पूजा-पद्धतियाँ, गुरु, स्वामी ही नहीं दार्शनिक विचार धाराएं और संप्रदाय भी पनपते और मान्य होते रहे हैं।
२. चित्रगुप्त अर्थात वह शक्ति जिसका चित्र गुप्त (अनुपलब्ध) है अर्थात नहीं है. चित्र बनाया जाता है आकार से, आकार काया (बॉडी) का होता है. स्पष्ट है कि चित्रगुप्त वह आदिशक्ति है जिसका आकार (शेप) नहीं है अर्थात जो निराकार है. आकार न होने से परिमाप (साइज़) भी नहीं हो सकती, जो किसी सीमा में नहीं बँधता वही असीम होता है और मापा नहीं जा सकता.आकार के बनने और मिटने के तिथि और स्थान, निर्माता तथा नाशक होते हैं. चित्रगुप्त निराकार अर्थात अनादि, अनंत, अक्षर, अजर, अमर, असीम, अजन्मा, अमरणा हैं. ये लक्षण परब्रम्ह के कहे गए हैं. चित्रगुप्त ही परब्रम्ह हैं. "चित्रगुप्त प्रणम्यादौ वात्मानं सर्वदेहिनां" उन चित्रगुप्त को सबसे पहले प्रणाम जो सब देहधारियों में आत्मा के रूप में विराजमान हैं. इससे लिए चित्रगुप्त की कोई मूर्ति, कथा, कहानी, व्रत, उपवास, मंदिर आदि आदिकाल से ३०० वर्ष पूर्व तक नहीं बनाये गए जबकि उनके उपासक ही शासक-प्रशासक थे. जब-जिस रूप में किसी की पूजा हुई वह चित्रगुप्त जी की ही हुई. " कायास्थित: स: कायस्थ:' अर्थात जब वह (परब्रम्ह) किसी काया में स्थित होता है तो उसे कायस्थ कहते हैं" तदनुसार सकल सृष्टि और उसका कण-कण कायस्थ है.
२. देवता: वेदों में ३३ प्रकार के देवता (१२ आदित्य, १८ रूद्र, ८ वसु, १ इंद्र, और प्रजापति) ही नहीं श्री देवी, उषा, गायत्री आदि अन्य अनेक और भी अन्र्क पूज्य शक्तियाँ वर्णित हैं। आत्मा सो परमात्मा, अयमात्मा ब्रम्ह, कंकर सो शंकर, कंकर-कंकर में शंकर, शिवोहं, अहम ब्रम्हास्मि जैसी उक्तियाँ तो हर कण को ईश्वर कहती हैं। आचार्य रजनीश ने खुद को ओशो कहा और आपत्तिकर्ताओं को उत्तर दिया कि तुम भी ओशो हो अंतर यह है की मैं जानता हूँ कि मैं ओशो हूँ, तुम नहीं जानते। अतः साईं को कोई साईं भक्त भगवान माने और पूजे इसमें किसी सनातन धर्मी को आपत्ति नहीं हो सकती।
३. रामायण महाभारत ही नहीं अन्य वेद, पुराण, उपनिषद, आगम, निगम, ब्राम्हण ग्रन्थ आदि भी न केवल इतिहास हैं न आख्यान या गल्प। भारत में सृजन दार्शनिक चिंतन पर आधारित रहा है। ग्रंथों में पश्चिम की तरह व्यक्तिपरकता नहीं है, यहाँ मूल्यात्मक चिंतन प्रमुख है। दृष्टान्तों या कथाओं का प्रयोग किसी चिंतनधारा को आम लोगों तक प्रत्यक्ष या परोक्षतः पहुँचाने के लिए किया गया है। अतः, सभी ग्रंथों में इतिहास, आख्यान, दर्शन और अन्य शाखाओं का मिश्रण है।
देवताओं को विविध आधारों पर वर्गीकृत किया जा सकता है। यथा: जन्मा - अजन्मा, आर्य - अनार्य, वैदिक, पौराणिक, औपनिषदिक, सतयुगीन - त्रेतायुगीन - द्वापरयुगीन कलियुगीन, पुरुष देवता- स्त्री देवता, सामान्य मनुष्य की तरह - मानवेतर, पशुरूपी-मनुष्यरूपी आदि।
४. बाली, शंबूक, बर्बरीक, अश्वत्थामा, दुर्योधन जैसे अन्य भी अनेक प्रसंग हैं किन्तु इनका साईं से कुछ लेना-देना नहीं है। इन पर अलग-अलग चर्चा हो सकती है। राम और कृष्ण का देवत्व इन पर निर्भर नहीं है।
५. बुद्ध और महावीर का सनातन धर्म से विरोध और नव पंथों की स्थापना लगभग समकालिक होते हुए भी बुद्ध को अवतार मानना और महावीर को अवतार न मानना अर्थात बौद्धों को सनातनधर्मी माना जाना और जैनियों को सनातन धर्मी न माना जाना भी साईं से जुड़ा विषय नहीं है और पृथक विवेचन चाहता है।
६. अवतारवाद के अनुसार देवी - देवता कारण विशेष से प्रगट होते हैं फिर अदृश्य हो जाते हैं, इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि वे नष्ट हो जाते हैं। वे किसी वाहन से नहीं आते - जाते, वे शक्तियाँ रूपांतरित या स्थानांतरित होकर भी पुनः प्रगट होती हैं, एक साथ अनेक स्थानों पर भी प्रगट हो सकती हैं। यह केवल सनातन धर्म नहीं इस्लाम, ईसाई आय अन्य धर्मों में भी वर्णित है। हरि अनंत हरि कथा अनंता, उनके रूप भी अनंत हैं, प्रभु एक हैं वे भक्त की भावनानुसार प्रगट होते हैं, इसीलिए एक ईश्वर के भी अनेक रूप हैं गोपाल, मधुसूदन, श्याम, कान्हा, मुरारी आदि। इनके मन्त्र, पूजन विधि, साहित्य, कथाएं, माहात्म्य भी अलग हैं पर इनमें अंतर्विरोध नहीं है। सत्यनारायण, शालिग्राम, नृसिंह और अन्य विष्णु के ही अवतार कहे गये हैं।
७. गौतमी, सरस्वती और ऐसे ही अनेक अन्य प्रकरण यही स्थापित करते हैं कि सर्व शक्तिमान होने के बाद भी देवता आम जनों से ऊपर विशेषधिकार प्राप्त नहीं हैं, जब वे देह धारण करते हैं तो उनसे भी सामान्य मनुष्यों की तरह गलतियाँ होती हैं और उन्हें भी इसका दंड भोगना होता है। 'to err is human' का सिद्धांत ही यहाँ बिम्बित है। कर्मफलवाद गीता में भी वर्णित है।
८. रामानंद, नानक, कबीर, चैतन्य, तुलसी, सूर, कबीर, नानक, मीरा या अन्य सूफी फकीर सभी अपने इष्ट के उपासक हैं। 'राम ते अधिक राम के दासा'… सनातन धर्मी किसी देव के भाकर से द्वेष नहीं करता। सिख का अस्तित्व ही सनातन की रक्षा के लिए है, उसे धर्म, पंथ, सम्प्रदाय कुछ भी कहें वह "ॐ" ओंकार का ही पूजक है। एक अकाल पुरुख परमब्रम्ह ही है। सनातन धर्मी गुरुद्वारों को पूजास्थली ही मानता है। गुरुओं ने भी राम,कृष्णादि को देवता माँन कर वंदना की है और उन पर साहित्य रचा है।
९. वाल्मीकि को रामभक्त और आदिकवि के नाते हर सनातनधर्मी पूज्य मानता है। कोई उनका मंदिर बनाकर पूजे तो किसी को क्या आपत्ति? कबीर, तुलसी, मीरा की मूर्तियाँ भी पूजा ग्रहों और मंदिरों में मिल जायेंगी।
१०. मेरी साईं के ईश्वरतत्व से नहीं साईं को अन्य धर्मावलम्बियों के मंदिरों, पूजाविधियों और मन्त्रों में घुसेड़े जाने से असहमति है। नमाज की आयत में, ग्रंथसाहब के सबद में, बाइबल के किसी अंश में साईं नाम रखकर देखें आपको उनकी प्रतिक्रिया मिल जाएगी। सनातन धर्मी ही सर्वाधिक सहिष्णु है इसलिए इतने दिनों तक झेलता रहा किन्तु कमशः साईं के नाम पर अन्य देवी-देवताओं के स्थानों पर बेजा कब्ज़ा तथा मूल स्थान पर अति व्यावसायिकता के कारण यह स्वर उठा है।
अंत में एक सत्य और स्वरूपानंद जी के प्रति उनके कांग्रेस मोह और दिग्विजय सिंग जैसे भ्रष्ट नेताओं के प्रति स्नेह भाव के कारण सनातनधर्मियों की बहुत श्रद्धा नहीं रही। मैं जबलपुर में रहते हुए भी आज तक उन तक नहीं गया किन्तु एक प्रसंग में असहमति से व्यक्ति हमेशा के लिए और पूरी तरह गलत नहीं होता। साई प्रसंग में स्वरूपानंद जी ने सनातनधर्मियों के मन में छिपे आक्रोश, क्षोभ और असंतोष को वाणी देकर उनका सम्मान पाया है। यह दायित्व साई भक्तों का है कि वे अपने स्थानों से अन्य देवी-देवताओं के नाम हटाकर उन्हें साई को इष्ट सादगी, सरलता और शुचितापरक कार्यपद्धति अपनाकर अन्यों का विश्वास जीतें। चढोत्री में आये धन का उपयोग स्थान को मूर्ति और मंदिर को स्वर्ण से मढ़ने के स्थान पर उन दरिद्रों के कल्याण के लिए हो जिनकी सेवा करने का साईं ने उपदेश दिया। कुछ मित्रों के बयान पढ़े हैं कि वे स्वरूपानंद जी के बीसियों वर्षों तक भक्त रहे पर साईं सम्बन्धी वक्तव्य से उनकी श्रद्धा नष्ट हो गयी। ये कैसा शिष्यत्व है जो दोहरी निष्ठा ही नहीं रखता गुरु की कोई बात समझ न आने पर गुरु से मार्गदर्शन नहीं लेता, सत्य नहीं समझता और उसकी बरसों की श्रद्धा पल में नष्ट हो जाती है?
सनातन धर्म में द्वैत को त्याज्य और अद्वैत को वरेण्य कहा गया है. जब आत्मा से गुरु को गुरु नहीं माँना जाता तो शिष्य की श्रद्धा भी कृत्रिम होती है जो पल में ही नष्ट हो जाती है.
अस्तु साईं प्रसंग में स्वरूपानंद जी द्वारा उठाई गयी आपत्ति से सहमत हूँ।
१-७-२०१४

गुरुवार, 22 जून 2017

चिंतन

चिंतन
शिक्षा व्यवस्था और शिक्षक
*
शासकीय विद्यालयों के परीक्षा परिणाम आने के साथ ही सर्वाधिक अंक प्राप्त करनेवाले विद्यार्थियों को वाहवाही मिलने, पत्रकारों द्वारा खोजबीन, हेराफेरी और गत वर्षों के सफलता प्रतिशत की तुलना जैसी खबरों के बीच कुछ आत्महत्याओं के समाचार आने लगते हैं।
शिक्षा प्रणाली
सबसे पहली बात तो यह है कि देश में शिक्षा की एक ही प्रणाली होना चाहिए। भारत में शासकों और आम जनों के मध्य खाई को बनाए रखने ही नहीं उसे बढ़ाते जाने में भी नेता, अफसर और सेठों की रुची रही है. इस कारण मँहगे विद्यालय और सरकारी विद्यालय अस्तित्व में थे, हैं और रहेंगे।
मेरे पिताजी ने अधिकारी होने के बाद भी मुझे और मैंने अपने अभियंता और श्रीमती जी के कोलेज प्राध्यापक होने के बाद भी बच्चों को सरकारी विद्यालयों में ही पढ़ाया। हमें अपने निर्णय पर कोई पछतावा नहीं है किन्तु बच्चों को कभी-कभी शिकायत करते सुना है। अब अगली पीढ़ी को शायद ही सरकारी विद्यालय में पढ़ाया जाए। इसका कारण निजी विद्यालयों की श्रेष्ठता नहीं, सरकारी विद्यालयों में राजनीति, विद्यार्थियों का आरक्षण के आधार पर प्रवेश, शिक्षकों की अध्यापन में अरुचि, पुस्तकालयों का न होना तथा प्रयोगों हेतु उपकरणों का न होना है। दुःख यह है कि निजी विद्यालय भी श्रेष्ठ नहीं केवल कुछ बेहतर हैं। वस्तुत: भारत में शिक्षा को ही महत्व नहीं दिया जा रहा है।
शिक्षक: नौकर या गुरु?
शासकीय विद्यालयों के शिक्षकों को निजी विद्यालयों की तुलना में पर्याप्त अधिक वेतन मिलाता है, नौकरी स्थानान्तरणीय किन्तु सुरक्षित होती है जबकि निजी विद्यालयों में वेतन कम, आजीविका अनिश्चित किन्तु अस्थानान्तरणीय होती है। शिक्षक की आजीविका के साथ एक विशेष सामाजिक सम्मान जुड़ा होता है जो बड़े से बड़े नेता, अधिकारी या धनपति को नहीं मिलता। भारत में अधिकांश विद्यार्थी अपने शिक्षक के चरण स्पर्श करते हैं। शिक्षक को फटीचर टीचर नहीं गुरु माना जाता है। क्या शिक्षक स्वयं 'गुरुत्व' प्राप्त करने के प्रति सजग हैं?, अधिकांश नहीं। अधिकांश शिक्षक केवल फर्ज़ अदायगी और वेतन की चिंता करते हैं। यह स्थिति चिन्तनीय और शिक्षा के गिरते स्तर का कारण है। जिस व्यक्ति की शिक्षा कर्म में रुची न हो उसे शिक्षण नहीं होना चाहिए। शिक्षक स्वयं अस्थायी और शोषण का शिकार होगा तो अध्यापन कैसे कराएगा? योग्य शिक्षक को अपने विषय का ज्ञान, अध्यापन विधियों की जानकारी, बाल मनोविज्ञान की समझ तथा अपने कार्य में रुचि होना जरूरी है।
जानकारी, ज्ञान और दायित्व?
शिक्षा का लक्ष्य क्या है? पाठ्यक्रम की जानकारी या विषय का ज्ञान? हमारी शिक्षा प्रणाली विषय को समझने और उसमें कुछ नया सोचने-करने के प्रति उदासीन है। किताबी जानकारी को यादकर परीक्षा पुस्तिका में वामन कर देना ही शिक्षा का पर्याय मान लिया गया है। फलत:, अभियंता और चिकित्सक भी किताबी हैं जिन्हें व्यावहारिक ज्ञान नहीं के बराबर है। यह स्थिति बदली जाना बहुत जरूरी है। प्राथमिक शालेय शिक्षा से ही विद्यार्थी को व्यावहारिक शिक्षा, प्रकृति से जुड़ाव, देश और समाज के प्रति दायित्व आदि की बीज बो दिए जाने चाहिए। हमें बचपन में प्रभात फेरी, जुलूस, व्यायाम, बागवानी, कक्षा की सफाई आदि के काम कराकर अपने दायित्व का भान कराया गया किन्तु आजकल निजी विद्यालयों तो दूर शासकीय विद्यालयों में भी यह नहीं कराया जा रहा। विद्यालयों में राजनैतिक तथा प्रशासनिक हस्तक्षेप न्यूनतम हो। सभी विद्यार्थियों को समान सुविधाएँ, व्यवहार व अवसर मिले तो भविष्य के लिए जिम्मेदार नागरिक तैयार होंगे जो स्वस्थ्य समाज का निर्माण करेंगे। अच्छे नागरिक और मनुष्य किसी कारखाने में किसी तकनीक से तैयार नहीं किये जा सकते केवल शिक्षक विद्यालयों में उन्हें विकसित कर सकता है। इसलिए शिक्षा और शिक्षक को सर्वाधिक महत्त्व दिया जाना चाहिए।
व्यावहारिक पाठ्यक्रम व विषय चयन
हर कक्षा के लिए पाठ्यक्रम विद्यार्थी की औसत उम्र में हुए मानसिक विकास के आधार पर बनाया जाए। अनावश्यक विषय न पढ़ाए जाए तथा आवश्यक विषय छोड़े भी न जाएँ। साथ ही साथ मानवीय, नैतिक, सामाजिक और राष्ट्रीय मूल्यों के विकास, शारीरिक मजबूती, चारित्रिक दृढ़ता के विकास संबंधी कार्यक्रम भी होना चाहिए। विद्यार्थियों का मनोवैज्ञानिक परिक्षण कर उनमें अंतर्निहित गुणों और प्रतिभा का आकलन कर तदनुसार विषय या शिल्प की शिक्षा दी जाना चाहिए ताकि उनका सर्वश्रेष्ठ विकास हो। अभिभावकों की इच्छा या समृद्धि को विषय चयन का आधार नहीं होना चाहिए।
एक ही शिक्षा प्रणाली
तत्काल संभव न हो तो भी क्रमश: पूरे देश में सभी व्द्यार्थियों को क्रमश: सामान्य पाठ्यक्रम तथा विद्यालय मिलना चाहिए। सभी जनप्रतिनिधियों और जनसेवकों के लिए अपने बच्चों को सरकारी विद्यालयों में पढ़ाना अनिवार्य किया जाना चाहिए। शिक्षा का व्यवसायीकरण बंद करने के लिए निजी विद्यालयों को हतोत्साहित करना आवश्यक है। कमजोर समाज के मतों के लिए राजनीति कर रहे दलों को इस ओर प्रतिबद्ध होना चाहिए। सरकारी विद्यालयों को अधिकाधिक साधन संपन्न और विकसित बनाकर निजी विद्यालयों को हतोत्साहित किया जा सकता है।
शासकीय विद्यालय अभिशाप नहीं वरदान
प्राय: साधन संपन्न जन अपने बच्चों को शासकीय विद्यालयों में नहीं भेजते। यह स्थिति बदली जानी चाहिए। शासकीय संस्थानों में सुयोग्य शिक्षक, समृद्ध पुस्तकालय, सुसज्ज प्रयोगशाला, खेल-कूद उपकरण, समयानुकूल पाठ्यक्रम तथा परिणामोन्मुखी वेतनमान हों तो विद्यार्थी उन्हें चुनने लगेंगे। शासकीय विद्यालयों के श्रेष्ठ विद्यार्थियों को शासकीय सेवा में वरीयता दी जाने से भी स्थिति में सुधार होगा।
शासकीय शक्षकों को अपनी सोच बदलनी होगी। शासकीय विद्यालयों में निम्न अंक प्रतिशत के विद्यार्थी आने का लाभ कुशल शिक्षक ले सकता है। ४० % अंक ला रहे विद्यार्थी पर ध्यान देकर उसे ६०% के स्तर पर ले जाना आसान है किन्तु ९०% अंक ला रहे विद्यार्थी के स्तर को बढ़ाना या बनाये रखना अधि कठिन है। शासकीय विद्यालय के शिक्षक अपने हर विद्यार्थी को पूर्व परीक्षा से बेहतर अंक पाने योग्य बनाने का लक्ष्य रखें। जो शिक्षक यह लक्ष्य पा सकें उन्हें वार्षिक वेतन वृद्धि दी जाए, जो यह लक्ष्य न पा सकें उन्हें पूर्वत वेतन दिया जाए और जिनके विद्यार्थियों का परीक्षा परिणाम घटे उनके वेतन में एक वार्षिक वेतन वृद्धि की राशि काम कर दी जाए। ऐसी व्यवस्था होने पर शिक्षक पूरी क्षमता से अध्यापन कराएँगे।
परिणाम बेहतर आने औए उच्च कक्षा में प्रवेश में प्राथमिकता मिलने से विद्यार्थी भी मनोयोग से पढ़ने के लिए उत्साहित होंगे। निजी विद्यालयों में कमजोर विद्यार्थी जायेंगे तो उन्हें योग्य शिक्षक समुचित वेतनमान पट रखना होंगे। लाभांश कम होगा तो धंधेबाज शिक्षाजगत से बाहर होते जायेंगे और केवल समाज सेवा या देश सेवा को लक्ष्य बनाने वाले ही शिक्षा संस्थाएँ चलाएँगे।
शिक्षक असहाय नहीं
शिक्षा स्तर सुढारने की दिशा में हर शिक्षक अपने स्तर पर पहल कर सकता है। सत्र आरम्भ होने पर वह हर विद्यार्थी के प्राप्तांक की जानकारी ले ले तथा खुद अपने लिए लक्ष्य बनाए की हर विद्यार्थी के अंकों में कम से कम ५% अंक वृद्धि हो, इस तरह अध्यापन कराएगा। इससे और कुछ न हो उसे आत्म संतोष मिलेगा तथा विद्यार्थियों के समय परीक्षा परिणाम के समय यह घोषणा किये जाने पर विद्यार्थियों का सम्मान पायेगा। प्राचार्य ऐसे शिक्षकों के वार्षिक प्रतिवेदन में इस तथ्य का उल्लेख करते हुए पुरस्कार हेतु अनुशंसा करें तथा जिला शिक्षाधिकारी पुरस्कृत करें। शासन उदासीन हो तो यह कार्य शिक्षक संघ भी कर सकते हैं या अन्य सामाजिक संस्थाएँ भी। शिक्षक का सम्मान बढ़ेगा तो उसमें अध्यापन के प्रति रुचि भी बढ़ेगी।
धनहीन विद्यार्थियों के लिए गत वर्ष उत्तीर्ण हो चुके विद्यार्थियों की पुस्तकें उपलब्ध कराकर शिक्षक सहायता कर सकते हैं। इसी तरह निर्धन होशियार छात्रों से निचली कक्षा के कमजोर विद्यार्थी को ट्यूशन दिलाकर दोनों की मदद की जा सकती है। शिक्षकों को साधनहीनता, शासकीय उपेक्षा, काम वेतन आदि का रोना रोना बंद कर स्थिति को सुधारने के उपाय खोजना अपना कार्य मानना होगा तभी वे 'गुरु' हो सकेंगे।
***

शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2017

vimarsh/chintan

विमर्श / चिंतन 
ब्राह्मण और कायस्थ कौन हैं?
※※※※※※※※

सनातन धर्म के अनुसार मनुष्य  अपनी योग्यता के अनुसार अपने कर्मों का संपादन कर तदनुसार वर्ण पाता है। एक वर्ण के माता-पिता से जन्मा व्यक्ति अपनी इच्छानुसार कर्म कर तदनुसार वर्ण पा सकता सकता है। चारों वर्ण समान हैं, कोई किसी से ऊँचा या नीचा नहीं है। ब्राम्हण बुद्धिमान, क्षत्रिय वीर, वैश्य दुनदार तथा शूद्र सेवाभावी है। हर व्यक्ति प्रतिदिन चारों वर्ण हेतु निर्धारित कर्म करता है।    
जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात्‌ भवेत द्विजः।
वेद पाठात्‌ भवेत्‌ विप्रःब्रह्म जानातीति ब्राह्मणः।। -- यास्क मुनि  
हर व्यक्ति जन्मतः शूद्र है। संस्कार से वह द्विज बन सकता है। वेदों के पठन-पाठन से विप्र हो सकता है किंतु जो ब्रह्म को जान ले, वही ब्राह्मण कहलाने का सच्चा अधिकारी है।
(ब्रम्ह कौन है? ब्रम्हं सत्यं जगन्मिथ्या ब्रम्ह सत्य है जगत मिथ्या है। ब्रम्ह भौतिक सृष्टि की रचना करनेवाली शक्ति या परमात्मा है अंश आत्मा के रूप में हर प्राणी ही नहीं जड़ में भी है। इसीलिए कण-कण  या कंकर-कंकर में शंकर कहा जाता है।) जब सभी में परमात्मा का  आत्मा के रूप में है तो कोई ऊँचा या नीचा कैसे हो सकता है? 
———————
विद्या तपश्च योनिश्च एतद् ब्राह्मणकारकम्।
विद्यातपोभ्यां यो हीनो जातिब्राह्मण एव स:॥ -- पतंजलि, (पतंजलि भाष्य ५१-११५)।
''विद्या और तप युक्त योनि में स्थित ही ब्राम्हण है जिसमें विद्या तथा तप नहीं है वह नाममात्रका ब्राह्मण है, पूज्य नहीं। '' 
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विधाता शासिता वक्ता मो ब्राह्मण उच्यते।
तस्मै नाकुशलं ब्रूयान्न शुष्कां गिरमीरयेत्॥ -महर्षि मनु 
ईश्वर द्वारा शासित अर्थात सांसारिक शक्तियों से अधिक ईश्वरीय शक्तियों  नियंत्रण माननेवाला ब्राम्हण कहा जाता है।उसका अमंगल चाहना  अनुचित है। '' (मनु; ११-३५)।
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"जो जन्म से ब्राह्मण हे किन्तु कर्म से ब्राह्मण नहीं हे उसे शुद्र (मजदूरी) के काम में लगा दो" - वेदव्यास, महाभारत 
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"जो निष्कारण (आसक्ति के बिना) वेदों के अध्ययन में व्यस्त और वैदिक विचार के संरक्षण-संवर्धन हेतु सक्रिय है वही ब्राह्मण हे." - -महर्षि याज्ञवल्क्य, पराशर व वशिष्ठ शतपथ ब्राह्मण, ऋग्वेद मंडल १०., पराशर स्मृति

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"शम, दम, करुणा, प्रेम, शील(चारित्र्यवान), निस्पृही जेसे गुणों का स्वामी ही ब्राह्मण है"-श्री कृष्ण, भगवदगीता             ----------------------------              
"ब्राह्मण वही है जो "पुंसत्व" से युक्त "मुमुक्षु" है। जो सरल, नीतिवान, वेदप्रेमी, तेजस्वी, ज्ञानी है।  जिसका ध्येय वेदों का अध्ययन-अध्यापन-संवर्धन है।"- शंकराचार्य विवेक चूडामणि, सर्व वेदांत सिद्धांत सार संग्रह, आत्मा-अनात्मा विवेक
—————————
केवल जन्म से ब्राह्मण होना संभव नहीं, कर्म से कोई भी ब्राह्मण बन सकता है। 
इसके कई प्रमाण वेदों और ग्रंथो में हैं। 

(क) ऐतरेय ऋषि दास अथवा अपराधी के पुत्र थे | वे ऐतरेय ब्राह्मण और ऐतरेय उपनिषद की रचना कर ब्राम्हण हुए | ऋग्वेद को समझने के लिए ऐतरेय ब्राह्मण अतिशय आवश्यक माना जाता है|
(ख) ऐलूष ऋषि दासीपुत्र, जुआरी और दुश्चरित्र थे | बाद में बोध होने पर अध्ययनकर ऋग्वेद पर अनुसन्धान व अविष्कार किये | ऋषियों ने उन्हें आमंत्रित कर के आचार्य पद पर आसीन किया | (ऐतरेय ब्राह्मण २.१९)
(ग) सत्यकाम जाबाल गणिका (वेश्या) के पुत्र थे परन्तु सत्य निष्ठा के कारण ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए |
(घ) राजा दक्ष के पुत्र पृषध शूद्र हो गए थे, प्रायश्चित स्वरुप तपस्या करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया | (विष्णु पुराण ४.१.१४)
( ङ) राजा नेदिष्ट के पुत्र नाभाग वैश्य हुए | पुनः इनके कई पुत्रों ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया | (विष्णु पुराण ४.१.१३)
(च) धृष्ट नाभाग के पुत्र थे परन्तु ब्राह्मण हुए और उनके पुत्र क्षत्रिय, प्रपौत्र ब्राम्हण हुए | (विष्णु पुराण ४.२.२)
(छ) भागवत के अनुसार राजपुत्र अग्निवेश्य ब्राह्मण हुए |
(ज) विष्णुपुराण और भागवत के अनुसार रथोतर क्षत्रिय से ब्राह्मण बने |
(झ) हारित क्षत्रियपुत्र से ब्राह्मण हुए | (विष्णु पुराण ४.३.५)
() क्षत्रियकुल में जन्में शौनक ने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया | (विष्णु पुराण ४.८.१) वायु, विष्णु और हरिवंश पुराण कहते हैं कि शौनक ऋषि के पुत्र कर्म भेद से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण के हुए | इसी प्रकार गृत्समद, गृत्समति और वीतहव्य के उदाहरण हैं |
(ट) मातंग चांडालपुत्र से ब्राह्मण बने |
(ठ) ऋषि पुलस्त्य का पौत्र रावण अपनेकर्मों से राक्षस बना |
(ड) राजा रघु का पुत्र प्रवृद्ध राक्षस हुआ |
(ढ) त्रिशंकु राजा होते हुए भी कर्मों से चांडाल बन गए थे |
(ण) विश्वामित्र के पुत्रों ने शूद्रवर्ण अपनाया | विश्वामित्र स्वयं क्षत्रिय थे परन्तु बाद उन्होंने ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया |
(त) विदुर दासी पुत्र थे | तथापि वे ब्राह्मण हुए और उन्होंने हस्तिनापुर साम्राज्य का मंत्री पद सुशोभित किया |
(थ) कश्मीर के महामंत्री कल्हण राजतरंगिणी ग्रन्थ की रचना कर ब्राम्हण हुए, उनके पिता कायस्थ, लीत्तमः ब्राम्हण तथा प्रपितामह कायस्थ थे।  
'सर्वं खल्विदं ब्रह्मं' अर्थात सकल सृष्टि ब्रम्ह है, जो अजन्मा तथा अविनाशी है। थेर्मोडायनामिक्स के अनुसार ऊर्जा न तो बनाई जा सकती है, न नष्ट होती है उसका रूपांतरण (कायांतरण) ही किया जा सकता है। यह ऊर्जा ही ब्रम्ह है जो न बनाई जा सकती है, न नष्ट की जा सकती है तथा जिससे सकल सृष्टि का निर्माण होता है। इस ऊर्जा का कोई रूप-आकार भी नहीं है।  यह निराकार है जो कोई भी रूप ले सकती है। निराकार होने के कारण इसका कोई चित्र नहीं है अर्थात चित्र गुप्त है।  यह ऊर्जा जब किसी काया में स्थित होती है तो कायस्थ कही जाती है 'कायस्थिते स: कायस्थ:। परम ऊर्जा ही आत्मा रूप में जड़ को चेतन बनाती है। इससे विज्ञान अभी अपरिचित है।   
परम ऊर्जा जब सृष्टि में निर्माण करती है तो ब्रम्हा, संधारण या पालन करती है तो विष्णु और विनाश करती है तो शंकर कही जाती है। जीवन है तो प्रश् हैं, उत्तर हैं। जीवन नहीं तो प्रश्न या शंकाएं नहीं, तभी शंकर शंकारि (शंका के शत्रु) अर्थात विश्वास कहे गए हैं। 
''भवानी शंकरौ वंदे श्रद्धा विश्वास रुपिणौ'' -तुलसीदास, मानस 
विश्वास में विष का वास भी है, इसलिए शंकर नीलकंठ हैं। 
परमऊर्जा या परमात्मा आत्मा रूप में सकल जगत में होने के कारन सबसे पहले पूज्य कहा गया है'
''चित्रगुप्त प्रणम्यादौ वात्मानं सर्व देहिनां। " अर्थात चित्र गुप्र (निराकार परमेश्वर) सबसे पहले प्रणाम के योग्य है क्योंकि वह सब देहधारियों में आत्मा रूप में वास करता है।  
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मंगलवार, 11 अक्टूबर 2016

chintan / vimarsh

चिन्तन / विमर्श 
चरण स्पर्श क्यों?
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चरण स्पर्श के कई आयाम है। गुरु या सिद्ध सन्त के चरण स्पर्श का आशय उनकी सकारात्मक ऊर्जा को ग्रहण करना होता है। इस हेतु दाहिने हाथ की अंगुलियों से बाएं पैर के अंगुष्ठ को तथा बाएं हाथ की अँगुलियों से दाहिने पैर के अंगुष्ठ का स्पर्श किया जाता है। परमहंस ने अपने पैर का अंगुष्ठ नरेंद्र के मस्तक पर अपने अंतिम समय में स्पर्श कराकर अपनी सकल सिद्धियाँ देकर उन्हें विवेकानन्द बना दिया था। अपनों से ज्ञान, मान, अनुभव, योग्यता व उम्र में बड़ों के पैर छूने की प्रथा का आशय अपने अहन को तिलांजलि देकर विनम्रता पूर्वक आशीर्वाद पाना है। आजकल छद्म विनम्रता दिखाकर घुटने स्पर्श करने का स्वांग करनेवाले भूल जाते हैं की इसका आशय शत्रुता दर्शन है। के कई आयाम है। गुरु या सिद्ध सन्त के चरण स्पर्श का आशय उनकी सकारात्मक ऊर्जा को ग्रहण करना होता है। इस हेतु दाहिने हाथ की अंगुलियों से बाएं पैर के अंगुष्ठ को तथा बाएं हाथ की अँगुलियों से दाहिने पैर के अंगुष्ठ का स्पर्श किया जाता है। परमहंस ने अपने पैर का अंगुष्ठ नरेंद्र के मस्तक पर अपने अंतिम समय में स्पर्श कराकर अपनी सकल सिद्धियाँ देकर उन्हें विवेकानन्द बना दिया था। अपनों से ज्ञान, मान, अनुभव, योग्यता व उम्र में बड़ों के पैर छूने की प्रथा का आशय अपने अहन को तिलांजलि देकर विनम्रता पूर्वक आशीर्वाद पाना है। आजकल छद्म विनम्रता दिखाकर घुटने स्पर्श करने का स्वांग करनेवाले भूल जाते हैं की इसका आशय शत्रुता प्रदर्शन है।

गुरुवार, 7 अगस्त 2014

गुरुवार, 16 जनवरी 2014

chaintan: ashok jamnani


काहे री बानी तू कुम्हलानी


Ashok Jamnani
- अशोक जमनानी
पिछले दिनों कहानी-पाठ के लिए दिल्ली जाना हुआ तो वहाँ कार्यक्रम के मुख्य अतिथि और सुप्रसिद्ध साहित्यकार प्रभाकर श्रोत्रिय की कही बात ने देर तक सोचने के लिए विवश कर दिया। उन्होंने कहा कि पिछले कुछ वर्षों में हमारी तीन सौ चालीस बोलियां हमेशा के लिए विलुप्त हो गईं और केवल तीन सौ चालीस बोलियां विलुप्त नहीं हुईं असल में उनके साथ-साथ तीन सौ चालीस संस्कृतियां भी विलुप्त हो गईं।एक देश जो अपने वैविध्य के सौंदर्य से पूरी दुनियां को चमत्कृत करता रहा हो और जब वो किसी तथाकथित समृद्धि का कोई बाना पहने, उसके साथ ही वो अपनी वाणी को दारिद्र्य देकर स्वयं को सदा-सदा के लिए श्री विहीन भी कर ले तो उसकी समृद्धि का यह दुशाला देह पर नहीं बल्कि अर्थी पर पड़े दुशाले की तरह ही लगता है।

संस्कृति इस देश की देह में प्राण की तरह बसती है और भाषाओं एवं बोलियों का वैविध्य इस प्राण को केवल तत्त्व मात्र नहीं रहने देता वरन इस तत्त्व को सगुण भी बनाता है। इस तत्त्व की महिमा ऐसी कि महल से लेकर झोपड़ी तक और संसद से लेकर सड़क तक वाणी का साम्राज्य रहता है और सामर्थ्य ऐसी कि कोई कबीर निर्गुण बखानता है तो उसे भी बानी का बाना ओढ़ना ही पड़ता है।क्या छूटा है इन भाषाओं से, इन बोलियों से … कुछ भी तो नहीं। फिर ऐसा क्या हो गया कि प्राणों के प्राण सूखने लगे ! भारत की समृद्ध भाषाएँ और बोलियां असमय ही प्राण विहीन होने लगीं !! कोस-कोस में बदलता पानी और बीस कोस में बदलती बानी अब बदलते नहीं बल्कि सूखे कंकाल बने मरघट के घट जा बैठे हैं!!!फ़िर वही उदारीकरण का गिरेबान पकड़कर, दोष का ठीकरा उसके माथे फोड़कर चाहूं तो बात ख़त्म कर दूँ, पर करूंगा नहीं। सोचता हूँ अपने गिरेबान में भी झांककर देख लूँ।

मैं जहाँ रहता हूँ उस मोहल्ले का नाम है-इतवारा बाज़ार। कभी इतवार का साप्ताहिक हाट घर के बाहर तक लगता था। कस्बा ज़रा छोटा था पर संस्कृति की समृद्धि बहुत बड़ी थी। वैसे भी बुंदेलखण्ड, निमाड़ , मालवा और भोपाल रियासत की सीमाओं ने मेरे क़स्बे को केवल स्पर्श ही नहीं किया है बल्कि अपनी भाषा-बोली के अंश भी इस कस्बे की भाषा में घोल दिए। इसलिए यहाँ की भाषा का वैविध्य भी अद्भुत था। फ़िर देखते ही देखते कस्बा बड़ा हो गया। इतवारा बाज़ार एक दिन लगने वाला हाट नहीं रहा बल्कि पक्की दुकानों की कतार अब घर तक आती है और सजी हुई दुकानों में जो संवाद है उसमें न तो बुंदेलखण्ड, न निमाड़ , न मालवा और न ही भोपाल रियासत का सुर गमकता है। उसमें तो बस एक रस होती अंग्रेज़ी घुसी खड़ी बोली का वर्चस्व है। कभी मैं इसे सभ्य समाज की भाषा समझाता था पर अब लगता है कि ये बाज़ारू बाना देह के लिए तो ठीक है पर न तो ये दिल तक पहुँचता है और न शेष अंतः करण को स्पर्श कर पाता है। और बात अगर यहाँ तक भी नहीं पहुँचती है तो घूंघट के पट खोलने का तो स्वप्न भी कौन देखे ?

कभी घर के बाहर तक आते इतवारी हाट में देहाती भाषा में बोलते लोगों के साथ वैसी ही भाषा में संवाद करता था। फ़िर पता नहीं कब असभ्य हो गया और तथाकथित सभ्य भाषा बोलने लगा। शायद उन विलुप्त हो गईं तीन सौ चालीस बोलियों में मेरे कस्बे की बोली भी होगी क्योंकि अब वो सुनाई देना बंद हो गयी है और केवल बोली नहीं मिटी बल्कि हाट की संस्कृति जबसे बाज़ार के रंग में रंगी है तो कितनी भद्दी और कैसी कुरंगी हो गयी है। दिल्ली में प्रभाकर श्रोत्रिय को सुन रहा था तो याद करने की कोशिश कर रहा था कि अपनी बोली जब बिछड़ी थी तो वो बरस कौन-सा था।पर अब ऐसी गैर ज़रूरी बातें कहाँ याद रहती हैं।

एक कबीर थे उन्होंने नलिनी से पूछा था - काहे री नलिनी तू कुम्हलानी ? तेरे तो नीचे सरोवर का पानी था !सोचता हूँ लुप्त हो चुकी तीन सौ चालीस बोलियों में से किसी एक से तो पूछूं कि काहे री बानी तू कुम्हलानी ? तेरे साथ तो ये महान हिन्दुस्तान और हिन्दुस्तानी थे। पर सच कहूं तो पूछने में ख़तरा भी बहुत है। कहीं इस कुम्हलायी बानी के निर्जीव होंठों पर मेरी अंग्रेजी निष्ठ हिंदी को निहारकर कोई व्यंग्य स्मित उभरी तो बताइये मैं कहाँ मुंह छुपाऊंगा ?????

सोमवार, 21 जनवरी 2013

चिंतन: धर्म क्या है? नीरज श्रीवास्तव


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क्या है सनातन धर्म ? 
 
(1) भगवान् राम की जीवनी देखे तो जीवन सदाचार निष्ठा त्याग से पूर्ण कर्म प्रधान है । जहाँ भगवन उनके सारे दायित्वों कुशलता पूर्वक निभाते है । एक धोबी द्वारा असंस्तुति जताने पर राजधर्म वश अपनी पत्नी सीता का त्याग कर देते हैं ।
(2) भगवान् कृष्ण ने जीवन को कर्म प्रधान बताने के साथ साथ धर्म, जाति आदि की उत्तम व्याख्या भी की है जैसे की बचपन में वो इंद्र की पूजा-हवन करना बंद करते हैं ।

भगवान कृष्ण द्वारा गीता में वेद और पंडितों पर कुछ कहे गए श्लोको को देखें:

विद्याविनयसंपन्ने ब्रह्माने गविहस्तनी । शुनि चैव श्रव्पाके च पंडिता समदर्शिनः ।।
इहैव तैर्जितः सर्गो येषाम समय स्थितम मनः । निर्दोषं ही समं ब्रहम तस्माद ब्रहाणी ते स्थिताः ।।

अर्थात सचमुच वही ऋषि और पंडित है जो विद्या तथा विनय से युक्त ब्राहमण, गाय, कुत्ते और चंडाल में समदृष्टि रखता है ।
जिसका अन्तः करण समता में अर्थात सब भूतों के अंतर्गत ब्रम्हरूप संभव में निश्छलता पूर्वक स्थित है, उसने जीवित
अवस्था में ही पृथ्वी स्वर्ग आदि समस्त लोकों पर विजय प्राप्त कर ली है चूंकि ब्रम्हा निर्दोष और सम है,  इसलिए जो समदर्शी (सबको सामान भाव से देखने वाला) एवं निर्दोष है वे ब्रहम में ही स्थित कहे जाते है । वेदांती नैतिकता का यही सारांश है - सबके प्रति साम्य ।

यामिमां पुस्पिताम वाचम प्रवद्न्त्यविपश्वितः । वेद वादरताः पार्थ नान्या स्थिति वादिनः ।।
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रद्शाम ।क्रियाविश्लेशबहुलां भोगैश्वर्यगतिम् प्रति ।।

भावार्थ :- हे पृथा पुत्र अल्प ज्ञानी मनुष्य वेदों के उन अलंकारिक शब्दों के प्रति ज्यादा आसक्त रहते हैं जो स्वर्ग की प्राप्ति , उत्तम जन्म ऐश्वर्य आदि के प्राप्ति के लिए सकाम कर्म फल की ( यज्ञ , या किसी देव विशेष पूजा से इक्षित वास्तु की प्राप्ति ) विविध क्रियाओं  का वर्णन करते हैं , अपनी इन्द्रिय तृप्ति और ऐश्वर्यमय जीवन की कामना के कारण कहते हैं इससे बढ़कर कुछ भी नहीं, यही सर्वोपरि है ।

भोगैश्वर्यप्रस्क्ताना तयापह्रीतचेतशाम । व्यावासयात्मिका बुद्धिः सामधो ना विधीयते ।।

जो मनुष्य इन्द्रियों के भोग तथा भौतक ऐश्वर्य के प्रति आसक्त होने से ऐसी वस्तुओ से मोहग्रस्त हो जाते हैं उन मनुष्यों में भगवान् के प्रति दृढ संकल्पित बुद्धि नहीं होती है ।
(3) भगवान् बुद्ध -

बुद्ध के उपदेशों का सार इस प्रकार है -

सम्यक ज्ञान

बुद्ध के अनुसार धम्म यह है: (धम्म का अर्थ धर्म लें यहाँ)

जीवन की पवित्रता बनाए रखना
जीवन में पूर्णता प्राप्त करना
निर्वाण प्राप्त करना
तृष्णा का त्याग
यह मानना कि सभी संस्कार अनित्य हैं
कर्म को मानव के नैतिक संस्थान का आधार मानना

बुद्ध के अनुसार क्या अ-धम्म है-- (अधम्म का अधर्म लें यहाँ )

परा-प्रकृति में विश्वास करना
आत्मा में विश्वास करना
कल्पना-आधारित विश्वास मानना
धर्म की पुस्तकों का वाचन मात्र

बुद्ध के अनुसार सद्धम्म क्या है-- 1. जो धम्म प्रज्ञा की वृद्धि करे--

जो धम्म सबके लिए ज्ञान के द्वार खोल दे
जो धम्म यह बताए कि केवल विद्वान होना पर्याप्त नहीं है
जो धम्म यह बताए कि आवश्यकता प्रज्ञा प्राप्त करने की है

2. जो धम्म मैत्री की वृद्धि करे--

जो धम्म यह बताए कि प्रज्ञा भी पर्याप्त नहीं है, इसके साथ शील भी अनिवार्य है
जो धम्म यह बताए कि प्रज्ञा और शील के साथ-साथ करुणा का होना भी अनिवार्य है
जो धम्म यह बताए कि करुणा से भी अधिक मैत्री की आवश्यकता है.

3. जब वह सभी प्रकार के सामाजिक भेदभावों को मिटा दे

जब वह आदमी और आदमी के बीच की सभी दीवारों को गिरा दे
जब वह बताए कि आदमी का मूल्यांकन जन्म से नहीं कर्म से किया जाए
जब वह आदमी-आदमी के बीच समानता के भाव की वृद्धि करे

महावीर जैन ने भी वही कहा -

1. सत्य के बारे में भगवान महावीर स्वामी कहते हैं, हे पुरुष! तू सत्य को ही सच्चा तत्व समझ। जो बुद्धिमान सत्य की ही आज्ञा में रहता है, वह मृत्यु को तैरकर पार कर जाता है।
 
2. इस लोक में जितने भी त्रस जीव (एक, दो, तीन, चार और पाँच इंद्रिय वाले जीव) आदि की हिंसा मत कर, उनको उनके पथ पर जाने से न रोको। उनके प्रति अपने मन में दया का भाव रखो। उनकी रक्षा करो। यही अहिंसा का संदेश भगवान महावीर अपने उपदेशों से हमें देते हैं।
 
3. परिग्रह पर भगवान महावीर कहते हैं जो आदमी खुद सजीव या निर्जीव चीजों का संग्रह करता है, दूसरों से ऐसा संग्रह कराता है या दूसरों को ऐसा संग्रह करने की सम्मति देता है, उसको दुःखों से कभी छुटकारा नहीं मिल सकता। यही संदेश अपरिग्रह का माध्यम से भगवान महावीर दुनिया को देना चाहते हैं।
 
4. महावीर स्वामी ब्रह्मचर्य के बारे में अपने बहुत ही अमूल्य उपदेश देते हैं कि ब्रह्मचर्य उत्तम तपस्या, नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, संयम और विनय की जड़ है। तपस्या में ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ तपस्या है। जो पुरुष स्त्रियों से संबंध नहीं रखते, वे मोक्ष मार्ग की ओर बढ़ते हैं। क्षमा के बारे में 
 
5. भगवान महावीर कहते हैं- 'मैं सब जीवों से क्षमा चाहता हूँ। जगत के सभी जीवों के प्रति मेरा मैत्रीभाव है। मेरा किसी से वैर नहीं है। मैं सच्चे हृदय से धर्म में स्थिर हुआ हूँ। सब जीवों से मैं सारे अपराधों की क्षमा माँगता हूँ। सब जीवों ने मेरे प्रति जो अपराध किए हैं, उन्हें मैं क्षमा करता हूँ।' वे यह भी कहते हैं 'मैंने अपने मन में जिन-जिन पाप की वृत्तियों का संकल्प किया हो, वचन से जो-जो पाप वृत्तियाँ प्रकट की हों और शरीर से जो-जो पापवृत्तियाँ की हों, मेरी वे सभी पापवृत्तियाँ विफल हों। मेरे वे सारे पाप मिथ्या हों।'
 
6. धर्म सबसे उत्तम मंगल है। अहिंसा, संयम और तप ही धर्म है। महावीरजी कहते हैं जो धर्मात्मा है, जिसके मन में सदा धर्म रहता है, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं।

विवेकानंद जी ने धर्म पर व्याख्यान देते हुए कुछ यूँ कहा -

भाईयो! मैं आप लोगों को एक स्तोत्र की कुछ पंक्तियाँ सुनाता हूँ जिसकी आवृति मैं बचपन से कर रहा हूँ और जिसकी आवृति प्रतिदिन लाखों मनुष्य किया करते हैं:

रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम्। नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव।।
 
(अर्थात जैसे विभिन्न नदियाँ भिन्न भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती हैं उसी प्रकार हे प्रभो! भिन्न-भिन्न 
रुचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जानेवाले लोग अन्त में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं।)
 
यह सभा, जो अभी तक आयोजित सर्वश्रेष्ठ पवित्र सम्मेलनों में से एक है, स्वतः ही गीता के इस अद्भुत उपदेश का प्रतिपादन एवं जगत के प्रति उसकी घोषणा करती है:

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्। मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।

अर्थात जो कोई मेरी ओर आता है-चाहे किसी प्रकार से हो-मैं उसको प्राप्त होता हूँ। लोग भिन्न मार्ग द्वारा प्रयत्न करते हुए अन्त में मेरी ही ओर आते हैं।

साम्प्रदायिकता, हठधर्मिता और उनकी वीभत्स वंशधर धर्मान्धता इस सुन्दर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज्य कर चुकी हैं। वे पृथ्वी को हिंसा से भरती रही हैं व उसको बारम्बार मानवता के रक्त से नहलाती रही हैं, सभ्यताओं को ध्वस्त करती हुई पूरे के पूरे देशों को निराशा के गर्त में डालती रही हैं। यदि ये वीभत्स दानवी शक्तियाँ न होतीं तो मानव समाज आज की अवस्था से कहीं अधिक उन्नत हो गया होता। पर अब उनका समय आ गया हैं और मैं आन्तरिक रूप से आशा करता हूँ कि आज सुबह इस सभा के सम्मान में जो घण्टा ध्वनि हुई है वह समस्त धर्मान्धता का, तलवार या लेखनी के द्वारा होनेवाले सभी उत्पीड़नों का तथा एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर होने वाले मानवों की पारस्पारिक कटुता का मृत्यु निनाद सिद्ध हो।

आदि शंकराचार्य जी ने भी वही किया और कहा -

शंकराचार्य एक महान समन्वयवादी थे। उन्हें हिन्दू धर्म को पुनः स्थापित एवं प्रतिष्ठित करने का श्रेय दिया जाता है। एक तरफ उन्होने अद्वैत चिन्तन को पुनर्जीवित करके सनातन हिन्दू धर्म के दार्शनिक आधार को सुदृढ़ किया, तो दूसरी तरफ उन्होंने जनसामान्य में प्रचलित मूर्तिपूजा का औचित्य सिद्ध करने का भी प्रयास किया।

सनातन हिन्दू धर्म को दृढ़ आधार प्रदान करने के लिये उन्होने विरोधी पन्थ के मत को भी आंशिक तौर पर अंगीकार किया। शंकर के मायावाद पर महायान बौद्ध चिन्तन का प्रभाव माना जाता है। इसी आधार पर उन्हें प्रछन्न बुद्ध कहा गया है।

शंकर के अद्वैत का दर्शन का सार-

ब्रह्म और जीव मूलतः और तत्वतः एक हैं। हमे जो भी अंतर नजर आता है उसका कारण अज्ञान है।
जीव की मुक्ति के लिये ज्ञान आवश्यक है। जीव की मुक्ति ब्रह्म में लीन हो जाने में  है।
 
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शुक्रवार, 20 अप्रैल 2012

सामायिक लेख: हिन्दी : आज और कल संजीव 'सलिल'

सामायिक लेख: हिन्दी : आज और कल संजीव 'सलिल'

 सामायिक लेख:                                                          

हिन्दी : आज और कल

संजीव 'सलिल'

भाषा के प्रश्न पर चर्चा करते समय लिपि की चर्चा भी आवश्यक है. रोमन लिपि और देवनागरी लिपि के गुण-दोषों की भी चर्चा हो. अन्य भारतीय लिपियों  की सामर्थ्य और वैज्ञानिकता को भी कसौटी पर कसा जाये. क्या हर प्रादेशिक भाषा अलग लिपि लेकर जी सकेगी? यदि सबकी लिपि देवनागरी हो तो उन्हें पढना सबके लिये सहज हो जायेगा. पढ़ सकेंगे तो शब्दों के अर्थ समझ कर विविध भाषाएँ बोलना और लिखना आसान हो जायेगा. प्रादेशिक भाषाओँ और हिन्दी की शब्द सम्पदा साझी है. अंतर कर्ता, क्रिया और कारक से होता है किन्तु इतना नहीं कि एक रूप को समझनेवाला अन्य रूप को न समझ सके. 

                 संस्कृत सबका मूल होने पर भी भी पूरे देश में सबके द्वारा नहीं बोली गयी. संस्कृत संभ्रांत औत पंडित वर्ग की भाषा थी जबकि प्राकृत और अपभ्रंश आम लोगों द्वारा बोली जाती थीं. अतीत में गड़े मुर्दे उखाड़कर किसी भी भाषा का भला नहीं होना है. वर्तमान में हिन्दी अपने विविध रूपों (आंचलिक भाषाओँ / बोलिओँ, उर्दू भी) के साथ सकल देश में बोली और समझी जाती है. राजस्थान में भी हिन्दी साहित्य मंडल नाथद्वारा जैसी संस्थाएँ हिन्दी को नव शक्ति प्रदान करने में जुटी हैं. राजस्थानी तो अपने आपमें कोई भाषा है ही नहीं. राजस्थान में मेवाड़ी, मारवाड़ी, शेखावाटी, हाडौती आदि कई भाषाएँ प्रचलित हैं. इनमें से एक भाषा के क्षेत्र में अन्य प्रादेशिक भाषा का विरोध अधिक है हिन्दी का कम. क्या मैथिली भाषी भोजपुरी को, अवधी वाले मैथिली को, मेवाड़ी हदौती को, बघेली बुन्देली को, मालवी निमाड़ी को स्वीकारेंगे? यह कदापि संभव नहीं है जबकि हिन्दी की सर्व स्वीकार्यता है. विविध प्रदेशों में प्रचलित रूपों को उनके राजकीय काम-काज की भाषा घोषित करने के पीछे साहित्यिक-सांस्कृतिक चिंतन कम और स्थानीय राजनीति अधिक है.

                     भारतीय भाषा में रोमन लिपि और अंग्रेजी को सर्वाधिक चुनौती देने की सामर्थ्य है? इस पर विचार करें तो हिन्दी के सिवा कोई नाम नहीं है. क्या आप कल्पना भी कर सकते हैं कि कभी मेवाड़ी, अंगिका, छत्तीसगढ़ी, काठियावाड़ी, हरयाणवी या अन्य भाषा विश्व भाषा हो सकेगी? स्थानीय राजनैतिक लाभ के लिये भाषावार प्रान्तों की संरचना कर भारत के राष्ट्रीय हितों पर कुठाराघात करने की अदूरदर्शी नीति ने भारत और हिन्दी को महती हानि पहुँचायी है. यदि सरकारें ईमानदारी से प्रादेशिक भाषाओँ को बढ़ाना चाहतीं तो अंग्रेजी के माध्यम से प्राथमिक शिक्षा को बंद कर प्रादेशिक भाषा के माध्यम से पहले प्राथमिक फिर क्रमशः माध्यमिक, उच्चतर माध्यमिक, स्नातक स्तर की शिक्षा की नीति अपनातीं. खेदजनक है कि देश के विदेशी शासकों की भाषा अंग्रेजी का मोह नहीं छूट रहा जबकि उसे समझनेवाले अत्यल्प हैं. 
 
                       यह तथ्य है कि विश्व भाषा बनने की सामर्थ्य सभी भारतीय भाषाओँ में केवल हिन्दी में है. आवश्यकता हिन्दी के शब्दकोष में आंचलिक भाषाओँ के शब्दों को जोड़ने की है. आवश्यकता हिन्दी में विज्ञान के नए आयामों को देखते हुए नए शब्दों को गढ़ने और कुछ अंग्रेजी शब्दों को आत्मसात करने की है. आवश्यकता नयी पीढ़ी को हिन्दी के माध्यम से हर विषय को पढाये जाने की है. आवश्यकता अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा को प्रतिबंधित किये जाने की है. हिन्दी का भारत की किसी भी भाषा से कोई बैर नहीं है. भारत के राष्ट्रीय गौरव, राष्ट्रीय अस्मिता, राष्ट्रीय एकता और राष्ट्रीय प्रतिष्ठा की वाहक सिर्फ हिन्दी ही है. समय के साथ सभी अंतर्विरोध स्वतः समाप्त होते जाएँगे. हिन्दी-प्रेमी मौन भाव से हिन्दी की शब्द-सामर्थ्य और अभिव्यक्ति-क्षमता बढ़ाने में जुटे रहें. वीवध विषयों और भाषाओँ का साहित्य हिन्दी में और हिन्दी से लगातार अनुवादित, भाषांतरित किया जाता रहे तो हिन्दी को विश्व-वाणी बनने से कोई नहीं रोक सकता. 

                           हिन्दीभाषियों द्वारा मातृभाषा के रूप में प्रांतीय भाषा को लिखाकर हिंदीभाषियों की संख्या कम दर्शाने और अंग्रेजी को राजभाषा घोषित करने का प्रशासनिक अधिकारियों का षड्यंत्र इस देश की जागृत जनता कभी सफल नहीं होने देगी. समय साक्षी है जब-जब हिन्दी की अस्मिता को चुनौती देने की कोशिशें हुईं वह दुगनी शक्ति के साथ आगे बढ़ी है. अमेरिका का राष्ट्रपति बार-बार अमरीकियों से हिन्दी सीखने का आव्हान अकारण नहीं कर रहे. वे समझते हैं कि भविष्य में विश्व-वाणी बनने और अंग्रेजी का स्थान लेने की क्षमता केवल हिन्दी में है. यहाँ तक कि अंतरिक्ष में अन्य आकाश गंगाओं में संभावित सभ्यताओं से संपर्क के लिये विश्व की जिन भाषाओँ में संकेत भेजे गए हैं उनमें भारत से केवल हिन्दी ही है. विश्व के वैज्ञानिकों ने ध्वनि विज्ञान और इलेक्ट्रोनिक्स के मानकों के आधार पर केवल हिन्दी और संस्कृत में यह क्षमता पायी है कि उनके शब्दों को विद्युत तरंगों में बदलने और फिर तरंगों से भाषिक रूप में लाये जाने पर वे यथावत रहते हैं. यही नहीं इन्हीं दो भाषाओँ में जो बोला जाता है, वही लिखा और समझा जाता है. 
 
                   अतः हिन्दी का भविष्य सुनिश्चित और सुरक्षित है. स्थानीय राजनीति, प्रशासनिक अदूरदर्शिता, आंचलिक भाषा-मोह आदि व्यवधानों से चिंतित हुए बिना हिन्दी को समृद्ध से समृद्धतर करने के अनथक प्रयास करते रहें. आइये भावी विश्व-वाणी हिन्दी के व्याकरण, पिंगल को समझें, उसमें नित नया रचें और आंचलिक भाषाओँ से टकराव की निरर्थक कोशिशों से बचें. वे सभी हिन्दी का हिस्सा हैं. आंचलिक भाषाओँ के रचनाकार, उनका साहित्य अंततः हिन्दी का ही है. हिन्दी के विशाल भाषिक प्रासाद के विविध कक्ष प्रांतीय / आंचलिक भाषाएँ हैं. उन्हें सँवारने-बढ़ाने के प्रयासों से भी हिन्दी का भला ही होगा.
 
                      हिन्दी के विकास के लिये सतत समर्पित रहनेवाले अनेक साहित्यकार अहिंदीभाषी हैं. ऐसा नहीं है कि उन्हें अपनी आंचलिक भाषा से प्यार नहीं है. वस्तुतः वे स्थानीय, राष्ट्रीय और वैश्विक परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में भाषिक प्रश्न को ठीक से देख और समझ पाते हैं. इसलिए वे अपनी आंचलिक भाषा के साथ-साथ हिन्दी में भी सृजन करते हैं. अनेक ऐसे हिन्दीभाषी रचनाकार हैं जो हिन्दी के साथ-साथ अन्य भारतीय भाषाओँ में निरंतर लिख रहे हैं. अन्य कई सृजनधर्मी विविध भाषाओँ के साहित्य को अनुवादित कर रहे हैं. वास्तव में ये सभी सरस्वती पुत्र हिन्दी के  ही प्रचार-प्रसार  में निमग्न हैं. उनका योगदान हिन्दी को समृद्ध कर रहा है.                                                                                                                                              
                  अतः हिन्दी का भविष्य सुनिश्चित और सुरक्षित है. स्थानीय राजनीति, प्रशासनिक अदूरदर्शिता, आंचलिक भाषा-मोह आदि व्यवधानों से चिंतित हुए बिना हिन्दी को समृद्ध से समृद्धतर करने के अनथक प्रयास करते रहें. आइये भावी विश्व-वाणी हिन्दी के व्याकरण, पिंगल को समझें, उसमें नित नया रचें और आंचलिक भाषाओँ से टकराव की निरर्थक कोशिशों से बचें. वे सभी हिन्दी का हिस्सा हैं. आंचलिक भाषाओँ के रचनाकार, उनका साहित्य अंततः हिन्दी का ही है. हिन्दी के विशाल भाषिक प्रासाद के विविध कक्ष प्रांतीय / आंचलिक भाषाएँ हैं. उन्हें सँवारने-बढ़ाने के प्रयासों से भी हिन्दी का भला ही होगा. आइये, हम सब भारत माता के माथे की बिंदी हिन्दी को धरती माता के माथे की बिंदी बनाने के लिये संकल्पित-समर्पित हों.                                                                                                                     -- दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम 

शुक्रवार, 5 अगस्त 2011


02.JPGचिंतन:
वर्तमान स्त्री : पूज्या या भोग्या 


- राजीव गुप्ता
 अहं केतुरहं मूर्धाहमुग्रा विवाचानी । ममेदनु क्रतुपतिरू सेहनाया उपाचरेत !! ऋग्वेद )

( ऋग्वेद की ऋषिका -शची पोलोमी कहती है "मैं ध्वजारूप (गृह स्वामिनी ),तीब्र बुद्धि वाली एवं प्रत्येक विषय पर परामर्श देने में समर्थ हूँ । मेरे कार्यों का मेरे पतिदेव सदा समर्थन करते हैं ! " )


संक्रमण काल के इस दौर में तथाकथित प्रसिद्धि पाने की होड़, प्रतिस्पर्धा और आधुनिकता के नाम पर बदलाव के दहलीज पर खड़े हम स्त्री के उस जाज्वल्यमान आभा की प्रतीक्षा कर रहे है जो सनातन  से ही भारतीय मनीषियों के चिंतन का विषय रहा है ! भारतीय मनीषियों ने सदैव  से ही स्त्री-पुरुष को न केवल एक दूसरे का पूरक माना अपितु मनु स्मृति  में  स्त्री को पूजनीय कहकर समाज में प्रतिष्ठित किया गया !  
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता: !
यत्रेतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफला: क्रिया: !!
( जहां महिलाओं को सम्मान मिलता है वहां समृद्धि का राज्य होता है.
                                        जहां महिलाऑ का अपमान होता है, वहां की सब योजनाएं/ कार्य विफल हो जाते हैं )


.विश्व की इस अद्वितीय भारतीय संस्कृति में ही हम स्त्री को पूजनीय कह सकते  है तभी तो  पुरुष उनकी ही बदौलत आज भी महिमा मंडित हो रहा है ! भारतीय दर्शन में सृष्टि का मूल कारण अखंड मातृसत्ता अदिति भी नारी है और  वेद माता गायत्री है !  नारी की महानता  का वर्णन करते हुये ”महर्षि गर्ग” कहते हैं कि :-
यद् गृहे रमते नारी लक्ष्‍मीस्‍तद् गृहवासिनी।
देवता: कोटिशो वत्‍स! न त्‍यजन्ति गृहं हितत्।।
( जिस घर में सद्गुण सम्पन्न नारी सुख पूर्वक निवास करती है उस घर में लक्ष्मी जी निवास करती हैं। हे वत्स! करोड़ों देवता भी उस घर को नहीं छोड़ते। )

भारत में हमेशा से ही  नारी को उच्च स्थान दिया गया ।  भारतीय संस्कृति में नारी का उल्लेख 'श्री’, ‘ज्ञान’ तथा ‘शौर्य’ की अधिष्ठात्री नारी रूप में किया गया है !आदिकाल से ही हमारे देश में नारी की पूजा होती आ रही है। आज भी आदर्श-रूप में भारतीय नारी में तीनों देवियाँ सरस्वती,लक्ष्मी और दुर्गा की पूजा होती है ! भला  ‘अर्द्धनारीश्वर’ का आदर्श को कौन नहीं जानता ?  किसी भी मंगलकार्य में नारी की उपस्थिति को अनिवार्य माना गया है ! नारी की अनुपस्थिति में किये गए कोई भी मांगलिक कार्य को अपूर्ण माना गया। उदहारण के लिए  हम सत्यनारायण  भगवान् की कथा को ही ले लेते है ! वेदों के अनुसार सृष्टि के विधि-विधान में नारी सृष्टिकर्ता ‘श्रीनारायण’ की ओर से मूल्यवान व दुर्लभ उपहार है। नारी ‘माँ’ के रूप में ही हमें इस संसार का साक्षात दिग्दर्शन कराती है, जिसके शुभ आशीर्वाद से जीवन की सफलता फलीभूत होती है। माँ तो प्रेम, भक्ति तथा श्रध्दा की आराध्य देवी है। तीनों लोकों में ‘माता’ के रूप में नारी की महत्ता प्रकट की गई है। जिसके कदमों तले स्वर्ग है, जिसके हृदय में कोमलता, पवित्रता, शीतलता, शाश्वत वाणी की शौर्य-सत्ता और वात्सल्य जैसे अनेक उत्कट गुणों का समावेश है, जिसकी मुस्कान में सृजन रूपी शक्ति है तथा जो हमें सन्मार्ग के चरमोत्कर्ष शिखर तक पहुँचने हेतु उत्प्रेरित करती है, उसे ”मातृदेवो भव” कहा गया है ! नारी के प्रति किसी भी प्रकार  के  असम्मान को गंभीर अपराध की श्रेणी में रखा गया है चाहे  नारी शत्रु पक्ष की ही क्यों ना हो  तो भी उसको पूरा सम्मान देने की परम्परा भारत में है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने ‘रामचरित मानस’ में लिखा भी  है कि भगवान श्री राम बालि से कहते हैं-
अनुज बधू, भगिनी सुत नारी। सुनु सठ कन्‍या सम ए चारी।।

 इन्‍हहिं कुदृष्टि विलोकई जोई। ताहि बधे कछु पाप न होई।।
(छोटे भाई की पत्नी, बहिन, पुत्र की पत्नी कन्या के समान होती हैं। इन्हें कुदृष्टि से देखने वाले का वध कर देना कतई पापनहीं है।)
    किसी लेखक ने  नारी की महानता की  व्याख्या  करते हुए लिखा है कि  भारत की यह परम्परा रही है कि छोटी आयु में पिता को,  विवाह के बाद पति को तथा प्रौढ़ होने पर पुत्र को नारी की रक्षा का दायित्व है। यही कारण था कि हमारी संस्कृति में प्राचीन काल से ही महान नारियों की एक उज्ज्वल परम्परा रही है। सीता, सावित्री, अरून्धती, अनुसुइया, द्रोपदी जैसी तेजस्विनी; मैत्रेयी, गार्गी अपाला, लोपामुद्रा जैसी प्रकाण्ड विदुषी, और कुन्ती,विदुला जैसी क्षात्र धर्म की ओर प्रेरित करने वाली तथा एक से बढ़कर एक वीरांगनाओं के अद्वितीय शौर्य से भारत का इतिहास भरा पड़ा है। वर्तमान काल खण्ड में भी महारानी अहल्याबाई, माता जीजाबाई, चेन्नमा, राजमाता रूद्रमाम्बा, दुर्गावती और महारानी लक्ष्मीबाई जैसी महान नारियों ने अपने पराक्रम की अविस्मरणीय छाप छोड़ी । इतना ही नहीं, पद्मिनी का जौहर, मीरा की भक्ति और पन्ना के त्याग से भारत की संस्कृति में नारी को  "ध्रुवतारे" जैसा स्थान प्राप्त हो गया।  "इस धर्म की रक्षा के लिए अगर मेरे पास और भी पुत्र होते तो मैं उन्हें भी धर्म-रक्षा, देश-रक्षा के लिए प्रदान कर देती।” ये शब्द उस ‘माँ’ के थे जिसके तीनों पुत्र दामोदर, बालकृष्ण व वासुदेव चाफेकर स्वतंत्रता के लिये फाँसी चढ़ गये। भारत में जन्म लेने वाली पीढ़ियाँ कभी भी नारी के इस महान आदर्श को नहीं भूल सकती। भारतीय संस्कृति में नारी की पूजा हमेशा होती रहेगी। प्राचीन भारत की नारी समाज में अपना स्थान माँगने नहीं गयी, मंच पर खड़े होकर अपने अभावों की माँग पेश करने की आवश्यकता उसे कभी प्रतीत ही नहीं हुई। और न ही विविध संस्थायें स्थापित कर उसमें नारी के अधिकारों पर वाद-विवाद करने की उसे जरूरत हुई। उसने अपने महत्वपूर्ण क्षेत्र को पहचाना था, जहाँ खड़ी होकर वह सम्पूर्ण संसार को अपनी तेजस्विता, नि.स्वार्थ सेवा और त्याग के अमृत प्रवाह से आप्लावित कर सकी थी। व्यक्ति, परिवार, समाज, देश व संसार को अपना-अपना भाग मिलता है- नारी से, फिर वह सर्वस्वदान देने वाली महिमामयी नारी सदा अपने सामने हाथ पसारे खड़े पुरुषों से क्या माँगे और क्यों माँगे? वह हमारी देवी अन्नपूर्णा है- देना ही जानती है लेने की आकांक्षा उसे नहीं है। वास्तविकता तो यह है कि भारतीय नारी ने कभी भी अपने ‘नारीधर्म’ का परित्याग नहीं किया नहीं तो आर्य-वर्त कहलाने वाला ‘हिन्दुस्थान’ अखिल विश्व की दृष्टि में कभी का ख़त्म हो गया होता।  और तो और इतिहासकारों का भी यही मत है कि प्रायः पुरुष शिकार पर जाते थे और नारी घर पर रहती थी ! कुछ दानो को जमीन पर बिखराकर नारी  ने ही नव-पाषण काल में खेती की खोज कर अस्थायी बस्तियों को स्थाई बनाकर एक क्रांति को जन्म दिया जिसके बाद में ही शहरीकरण की स्थपाना हुई ! अतः यह कहना सही होगा कि प्राचीन काल में भी स्त्री-पुरुष को एक दूसरे का पूरक माना जाता था ऐसा इतिहासकार भी मानते है ! स्टीफन. आर. कोवे ने अपनी प्रसिध्द पुस्तक ‘सेवन हैबिट्स आफ हाइली इफेक्टिव पीपल’ के प्रारंभ में लिखा है-”Interdependence is better than Independence.” वास्तव में अंतर्निर्भरता ही जीवन का मूल  है। स्त्री पुरुष के संदर्भ में अंतर्निर्भरता और सहजीवन एक संपूर्ण सत्य है। यह जीवन की स्वाभाविकता का मूल आधार है व  उनकी एकात्मता नैसर्गिक है। गांधी जी का भी यही चिंतन था  कि - ”जिस प्रकार स्त्री और पुरुष बुनियादी तौर पर एक हैं, उसी प्रकार उनकी समस्या भी मूल में एक होनी चाहिए। दोनों के भीतर वही आत्मा है। दोनों एक ही प्रकार का जीवन बिताते हैं। दोनो की भावनाएं एक सी हैं। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं, दोनों एक-दूसरे की सक्रिय सहायता के बिना जी नहीं सकते। और इस स्त्री, पुरुष नाम के दोनों पहलुओं को एक इकाई की तरह जान लेना, समझ लेना और जीने की कोशिश करना ही विवाह नामक व्यवस्था का उद्देश्य हो सकता है।
परन्तु वर्तमान समय  में पाश्चात्य संस्कृति और  शिक्षा के प्रचार-प्रसार के प्रभाव से भारत में भी नारी के अधिकार का आन्दोलन चल पड़ा है।  बीसवीं सदी का प्रथमार्ध यदि नारी जागृति का काल था तो उत्तरार्ध नारी प्रगति का और इक्कीसवी सदी का यह महत्वपूर्ण पूर्वार्ध नारी सशक्तीकरण का काल है। आजकल मनुष्य जाति के इतिहास में ‘वस्त्र सभ्यता’ ने बड़ी धूम मचा रखा है ! भारत की राजधानी दिल्ली में अभी हाल में ही एक  "बेशर्म मोर्चा" निकाला गया जो कि टोरंटो से शुरू होकर यहाँ पहुंचा था !  शायद किसी दबाव में बदलकर बाद में ये इस मोर्चे का केंद्र-बिदु  "महिला-सशक्तिकरण " हो गया  बहरहाल पहले तो इस मार्च का  उद्देश्य था  कि  " लड़कियों को हर प्रकार के कपडे पहनने की आजादी होनी चाहिए चाहे वो छोटे हो हो अथवा बड़े, पुरुष की नियत में खोट होता है उनके कपड़ों में नहीं !" मुझे समझ नहीं आया कि ये आन्दोलन पुरूषों  की सोच व उनकी गलत मानसिकता के खिलाफ था अथवा उनके परिवार के सदस्य जैसे माता-पिता , भाई-बहन आदि के खिलाफ था जो उनके बाहर निकलने से पहले उनके परिधान को लेकर टोक देते है ! शायद घर में डर-वश कुछ बोल ना पाती हो इसलिए दिल्ली के  जंतर-मंतर पर आ गयी जहा उन्हें मीडिया का अटेंशन तो मिलेगा ही और रविवार छुट्टी का दिन होने के करण  कनाट प्लेस घूमने आये लोगों की भीड़ भी मिलेगी ! 
बाजारवाद का यह मूल मन्त्र है कि "जो दिखता है वो बिकता है !" शायद इसलिए नारी को को लगभग हर विज्ञापन से जोड़ दिया जाता चाहे वो विज्ञापन सीमेंट का हो, चाकलेट का हो, अन्तः वस्त्र का हो,  अथवा किसी मोबाईल के काल रेट का जो दो पैसे में दो लड़कियां पटाने की बात करता है !  और तो और विज्ञापन - क्षेत्र में करियर चमकाने की  स्त्री की लालसा  को आज का बाजार लगभग उसी पुरा  पाषण-काल के दौर में ले जाने को आतुर है जहा लोगों को कपडे का अर्थ तक नहीं पता था पहनने की बात तो दूर की है ! यह कहना कोई  अतिश्योक्ति नहीं होगी कि आजकल की स्त्री वही कपडे पहनती जो बाजार चाहता था ! एक दिन  मेरे कालेज में एक लड़की एक टी शर्ट पहनकर आई जिस पर यह वाक्य लिखा था- Virginity is not a dignity , It is lack of opportunity. अर्थात  ‘कौमार्य या यौन शुचिता सम्मान की बात नहीं है, यह अवसर की कमी है।’ मैंने सोचा कि आजकल की यह अवधारणा, आंदोलन या क्रांतिकारिता  का रूप भी ले सकती है ! सेक्स और बाजार  के समन्वय से जो अर्थशास्त्र बनता है उसने सारे मूल्यों को पीछे छोड़  दिया है । फिल्मों, इंटरनेट, मोबाइल, टीवी चेनलों से आगे अब वह मुद्रित माध्यमों अर्थात "एडवरटाइजमेंट"  पर ही निर्भर  है। प्रिंट मीडिया जो पहले अपने दैहिक विमर्शों के लिए ‘प्लेबाय’ या ‘डेबोनियर’ तक सीमित था, अब दैनिक अखबारों से लेकर हर पत्र-पत्रिका में अपनी जगह बना चुका है। अखबारों में ग्लैमर वर्ल्र्ड के कॉलम ही नहीं, खबरों के पृष्ठों पर भी लगभग निर्वसन विषकन्याओं का कैटवाग खासी जगह घेर रहा है। अखबारों में ग्लैमर वर्ल्र्ड के कॉलम ही नहीं, खबरों के पृष्ठों पर भी लगभग निर्वसन विषकन्याओं का कैटवाग खासी जगह घेर रहा है। यह कहना गलत ना होगा कि स्त्री आज बाजारू संस्कृति का खिलौना मात्र बनकर गयी है जो कि  शरीर  ढंकने, कम ढंकने, उघाड़ने या ओढ़ने पर जोर देता है। आजकल कलंक की भी मार्केटिंग होती है  क्योंकि यह समय कह रहा है कि दाग अच्छे हैं। बाजार इसी तरह से नारी को  रिझा रहा है और बोली लगा रहा है। बट्रर्ड रसल ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, ”विक्टोरियन युग में स्त्री के पैर का अंगूठा भी दिखता था तो बिजली दौड़ जाती थी, अब स्त्रियां अर्धनग्न घूम रही हैं, कोई बिजली नहीं दौड़ती।” प्रसिद्द नारीवादी विचारक एवं लेखिका सिमोन द बोवुआर का एक प्रसिध्द वाक्य है- ‘स्त्री पैदा नहीं होती बल्कि बना दी जाती है।’ मातृत्व की अवधारणा और अन्यायपूर्ण श्रम विभाजन पर सिमोन ने क्रांतिकारी नजरिया प्रस्तुत किया है। उनका मानना था कि स्त्रियोचित प्रकृति स्त्रियों का कोई आंतरिक गुण नहीं है। यह पितृसत्ता द्वारा उन पर विशेष प्रकार की शिक्षा-दीक्षा, मानसिक अनुकूलन और सामाजीकरण के द्वारा आरोपित किया जाता है। सिमोन द बोवुआर कहती हैं, स्त्रियों  का उत्पीड़न हुआ है और स्त्रियां खुद प्रेम और भावना के नाम पर उत्पीड़न की इजाजत देती हैं।” सिमोन के इस नजरिए को क्रांतिकारी नारीवादी सोच (Radical Feminist approach) कहा गया। मगर अपनी प्रसिध्द पुस्तक- ‘द सेकेंड सेक्स’ की अंतिम पंक्ति में सिमोन द बोवुआर यह सदिच्छा व्यक्त करती हैं, ”नि:संदेह एक दिन स्त्री और पुरुष आपसी समता और सह-अस्तित्व की जरूरत को स्वीकार करेंगे।” सिमोन द बोवुआर और जान स्टुअर्ट मिल के विचारों को जानते हुए हमें पश्चिम की औरतों की स्थिति का भी आभास मिलता है जहा भारत के विपरीत कभी  भी सम्मान की दृष्टि से स्त्री को  नहीं देखा गया !  कहा जाता है कि वहां स्त्रियों की स्थिति लगभग दोयम दर्जे की रही है। परन्तु  समस्या तब और जटिल हो जाती है जब नारी की आजादी  का मतलब ‘देह’ को केन्द्र में रखने, उसकी नुमाइश और लेन-देन से समृध्दि, सम्पन्नता, अधिकार एवं वर्चस्व प्राप्त करने तक पहुंच जाता है। आज स्त्री अस्मिता के संघर्ष में ‘दैहिक स्वतंत्रता और पुरुष का विरोध’ ही दो प्रमुख पहलू नजर आते हैं। परिणाम यह हुआ है कि स्त्री देह अब केवल ‘कामोत्तेजना’ नहीं बल्कि ‘काम विकृति’ के लिए भी इस्तेमाल होने लगी है। वह लगभग ‘वस्तु’ के रूप में क्रय-विक्रय के लिए बाजार में मौजूद हो गई है। यह समूची स्त्री जाति का न केवल अपमान है बल्कि यह  दुर्भाग्य भी है कि अब स्त्री की देह ही सब कुछ है। उसकी आत्मा का कोई मूल्य नहीं है। आत्महीन स्त्री की मुक्ति और स्वतंत्रता के मायने क्या हो सकते हैं? कोई किसी तस्वीर या मूर्ति को बेड़ी में बांधकर रखे या हवा में खुला छोड़ दें तो क्या फर्क पड़ने वाला है? पश्चिम के दर्शन व संस्कृति में नारी सदैव पुरुषों से हीन , शैतान की कृति,पृथ्वी पर प्रथम अपराधी थी। वह कोई पुरोहित नहीं हो सकती थी । यहाँ तक कि वह मानवी भी है या नहीं ,यह भी विवाद का विषय था। इसीलिये पश्चिम की नारी आत्म धिक्कार के रूप में एवं बदले की भावना से कभी फैशन के नाम पर निर्वस्त्र होती है तो कभी पुरुष की बराबरी के नाम पर अविवेकशील व अमर्यादित व्यवहार करती है। हिंदुस्तानी औरत इस समय बाजार के निशाने पर है। एक वह बाजार है जो परंपरा से सजा हुआ है और दूसरा वह बाजार है जिसने औरतों के लिए एक नया बाजार पैदा किया है। मुझे कभी कभी डर भी लगता है कहीं  किसी गाने की ये पंक्तियाँ " औरत ने जन्म दिया पुरुषो को , पुरुषों ने उसे बाज़ार दिया " सच ना साबित हो जाय ! औरत की देह इस समय दूरदर्शन के चौबीसों घंटे चलने वाले माध्यमों का सबसे लोकप्रिय विमर्श है। लेकिन परंपरा से चला आ रहा देह बाजार भी नए तरीके से अपने रास्ते बना रहा है। अब यह देह की बाधाएं हटा रहा है, जो सदैव से गोपन रहा उसको अब ओपन कर रहा है।  
केवल अपने लिए भोग करने वाला मानव तो पशु के समान शीघ्र ही  जीवन समाप्ति की ओर पहुंच जाता है। भोग और कामोपभोग से तृप्ति  उसे कभी नहीं मिलती है ! गांधीजी का चिंतन था कि  - ”अगर  स्त्री और पुरुष के संबंधों पर स्वस्थ और शुध्द दृष्टि से विचार किया जाय  और भावी पीढ़ियों के नैतिक कल्याण के लिए अपने को ट्रस्टी माना जाय  तो आज की मुसीबतों के बड़े भाग से बचा जा  सकता  हैं।” फिर यौनिक स्वतंत्रता का मूल्य क्या है, यह केवल स्वच्छंदता और नासमझी भरी छलांग हो सकती है, अस्तित्व का खतरे में पड़ना जिसका परिणाम होता है। इसी तरह यौन शुचिता या कौमार्य का प्रश्न भी है। यह केवल स्त्रियों के लिए नहीं होना चाहिए। यह जरूरी है कि पारस्पारिक समर्पण एवं निष्ठा से चलने वाले वैवाहिक या प्रतिबध्द जीवन के लिए दोनो ओर से संयम का पालन हो। और इसकी समझ स्त्री और पुरुष दोनों के लिए समान रूप से अनिवार्य एवं आवश्यक हो। पुरुष को भी संयम एवं संतुलन के लिए प्रेरित करने में स्त्री की भूमिका सदा से रही है। इसलिए स्त्री संयम की अधिष्ठात्री है। उसे स्वाभाविक संयम एवं काम प्रतिरोध की क्षमता प्राकृतिक रूप से भी उपलब्ध है। सिमोन द बोवुआर ने भी स्त्री की संरचना में उसकी शिथिल उत्तेजकता को स्वीकार किया है। यह भी पारस्परिकता का एक महत्वपूर्ण बिंदु है। यौन शुचिता जीवन के रक्षण का ही पर्याय है और यौन अशुचिता नैतिक रूप से ही नहीं बल्कि प्राकृतिक रूप से भी हमें विनष्ट करती है। संयम सदैव ही सभी समाजों में शक्ति का पर्याय माना जाता रहा है। कहावत भी है- ‘सब्र का फल मीठा होता है।’  इस आधुनिकता की अंधी दौड़ में मनुष्य की दशा एक कस्तूरी मृग जैसी हो गयी है, जो  भागता है सुगंध के लिए परन्तु  अतृप्त हो कर थक जाता है । सुगंध स्वयं उसके भीतर है। उसका आत्म उसके आनंद का केन्द्र है। देह तो एक चारदीवारी है,  एक भवन है, जिसमें उसका अस्तित्व आत्मा के रूप में मौजूद है । भवन को अस्तित्व मान लेना भ्रांति है। और भवन  पर पेंट कर,  रंग-रोगन कर उसे चमका लेना भी क्षणिक आनंद भर मात्र  है। उससे दुनिया जहान को भरमा लेना भी कुछ देर का खेल तमाशा है। भवन  को गिरना है आज नहीं तो कल , यही सत्य है ।
वर्तमान दौर में नारी को उसे आधुनिक समाज ने  स्थान अवश्य दिया  है पर वह दिया  है लालसाओं की प्रतिमूर्ति के रूप में, पूजनीय माता के रूप में नहीं। अवश्य ही सांस्कृतिक-परिवर्तन के साथ हमारे आचार-विचार में और हमारे अभाव-आवश्यकताओं में परिवर्तन होना अनिवार्य है। परन्तु जीवन के मौलिक सिद्धान्तों से समझौता कदापि ठीक नहीं। एक लेखक ने तो यहाँ तक लिखा है कि जिस प्रकार दीमक अच्छे भले फलदायक वृक्ष को नष्ट कर देता है उसी प्रकार पूंजीवादी व भौतिकतावादी विचारधारा भारतीय जीवन पद्धति व सोच को नष्ट करने में प्रति पल जुटा है।जिस प्रकार एक शिक्षित पुरूष स्वयं शिक्षित होता है लेकिन एक शिक्षित महिला पूरे परिवार को शिक्षित व सांस्कारिक करती है,उसी प्रकार ठीक इसके उलट यह भी है कि एक दिग्भ्रमित,भ्रष्ट व चरित्रहीन पुरूष अपने आचरण से स्वयं का अत्यधिक नुकसान करता है,परिवार व समाज पर भी प्रतिकूल प्रभाव पडता है लेकिन अगर कोई महिला दिग्भ्रमित,भ्रष्ट व चरित्रहीन हो जाये तो वह स्वयं के अहित के साथ-साथ अपने परिवार के साथ ही दूसरे के परिवार पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालती है।एक कटु सत्य यह भी है कि एक पथभ्रष्ट पुरूष के परिवार को उस परिवार की महिला तो संभाल सकती है,अपनी संतानों को हर दुःख सहन करके जीविकोपार्जन लायक बना सकती है लेकिन एक पथभ्रष्ट महिला को संभालना किसी के वश में नहीं होता है और उस महिला के परिवार व संतानों को अगर कोई महिला का सहारा व ममत्व न मिले तो उस परिवार के अवनति व अधोपतन को रोकना नामुमकिन है। परन्तु पुरुषों की बराबरी के नाम पर स्त्रियोचित गुणों व कर्तव्यों का बलिदान नहीं किया जाना चाहिए। ममता, वात्सल्य, उदारता, धैर्य,लज्जा आदि नारी सुलभ गुणों के कारण ही नारी पुरुष से श्रेष्ठ है। जहां ‘ कामायनी ‘ का रचनाकार ” नारी तुम केवल श्रृद्धा हो” से नतमस्तक होता है, वहीं वैदिक ऋषि घोषणा करता है कि-” स्त्री हि ब्रह्मा विभूविथ ” उचित आचरण, ज्ञान से नारी तुम निश्चय ही ब्रह्मा की पदवी पाने योग्य हो सकती हो। ( ऋग्वेद ) !

एक लेखक ने भारत  में वर्तमान समय में स्त्री की स्थिति  का चित्रण करते हुए लिखा है कि अब स्त्रियां गांव, चौपाल, गलियों, सड़कों, बाजारों से लेकर स्कूल-कालेज, छोटे-बड़े दफ्तरों और प्रतिष्ठानों, सभी जगह पर निर्द्वन्द्व रूप से अपनी सार्थक एवं सशक्त उपस्थिति से सबको चमत्कृत कर रही हैं। कांग्रेस में श्रीमति सोनिया गांधी सर्वोच्च पद पर पहुंची जिनके हाथ में अघोषित तौर पर देश की बागडोर रहने के आरोप लगते रहे हैं। बाद में देश को 2007 में पहली महिला महामहिम राष्ट्रपति के तौर पर प्रतिभा देवी सिंह पाटिल मिलीं। इसके उपरांत लोकसभा में पहली महिला अध्यक्ष के तौर पर मीरा कुमार भी मिल गईं। लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष भी श्रीमति सुषमा स्वराज हैं। स्वतंत्र भारत की पहली महिला मुख्यमंत्री साठ के दशक में सुचिता कृपलानी थीं। इसके बाद उड़ीसा में नंदिनी सत्पथी मुख्यमंत्री बनीं। मध्य प्रदेश में उमा भारती भी मुख्यमंत्री रहीं। सत्तर के दशक में महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी की शशिकला काकोडकर ने केंद्र शासित प्रदेश गोवा में मुख्यमंत्री का कार्यभार संभाला। अस्सी के दशक मंे अनवरा तैमूर मुख्यमंत्री बनीं तो इसी दौर में तमिलनाडू में एम.जी. रामचंद्रन की पत्नि जानकी रामचंद्रन ने मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली। सुषमा स्वराज दिल्ली, राबड़ी देवी बिहार, वसुंधरा राजे राजस्थान तो राजिन्दर कौर भट्टल पंजाब में सफल मुख्यमंत्री रह चुकी हैं।
वर्तमान में दिल्ली की गद्दी श्रीमति शीला दीक्षित, उत्तर प्रदेश की निजाम मायावती हैं। अब आने वाले दिनों में पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी तो तमिलनाडू मंे जयललिता मुख्यमंत्री बन महिला शक्ति को साबित करने वाली हैं। 2004 के बाद यह दूसरा मौका होगा जब देश के चार सूबों में महिला मुख्यमंत्री आसीन होंगी। इसक पूर्व 2004 में एमपी में उमा भारती, राजस्थान में वसुंधरा राजे, दिल्ली में शीला दीक्षित तो तमिलनाडू में जयललिता मुख्यमंत्री थीं। 1236 में रजिया सुल्तान की ताजपोशी से आरंभ हुआ लेडी पावर का सिलसिला 775 सालों बाद 2011 में भी बरकरार है। आने वाले साल दर साल यह और जमकर उछाल मारेगा इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है। एसी मातृ शक्ति को समूचा भारत वर्ष नमन करता  है !
महिलाओ के बगैर यह श्रृष्टि अधूरी है ! नारी न सिर्फ जननी है  बल्कि भाग्य विधाता भी है ! पूरे परिवार की नीवं एक नारी ही है ! किसी ने सच ही  कहा है कि -  
माँ बनके ममता का सागर लुटाती हो,

बहन हो हक और स्नेह जताती हो, 

पत्नी बन जीवनभर साथ निभाती हो,

बन बेटी, खुशी से दिल भर जाती हो, 

तुम में अनंत रूप, असंख्य रंग हैं ...

 हर मोड़ पे साथ निभाती हो !

तुमसे है घर-द्वार, तुमसे संसार है, 

सृष्टि भी बिना तुम्हारे लाचार है, 

गुस्सा है तुम से और तुम से ही प्यार है, 

हो साथ तुम तो क्या जीत क्या हार है,

बिना तुम्हारे न रहेगी ये दुनिया ...
तुम्हारे ही कंधो पर सृष्टि का भार है !

इतिहास में मैंने पढ़ा था कि एक दौर में मातृ सत्ता हुआ करती थी. तब महिलाओं की तूती बोलती थी. फिर वक्त बदला और पुरूषों ने सत्ता पर कब्जा जमा डाला और महिलाओं के शोषण की ऐसी काली किताब लिखी कि लाख धोने पर भी शायद ही धुले ! मध्ययुगीन अन्धकार के काल में बर्बर व असभ्य विदेशी आक्रान्ताओं की लम्बी पराधीनता से उत्पन्न विषम सामाजिक स्थिति के घुटन भरे माहौल के कारण भारतीय नारी की चेतना भी अज्ञानता के अन्धकार में खोगई थी ! आज जब महिलाओं के पास एक बार फिर कानूनी ताकत आ रही है तो क्या पुरूषों के साथ भी वही सबकुछ नहीं होने लगा है.  उदहारण के लिए आर्टिकल 498 - A को भला आज कौन नहीं जानता ?  भले ही अभी इसे शुरुआत कहा जा सकता है ! लेनिन ने कहा था कि सत्ता इंसान को पतित करती है या यूं कहें पावर जिसके पास होती है वह शोषणकारी होता है और उसका इंसानी मूल्यों के प्रति कोई सरोकार नहीं रहता. लेकिन क्या ऐसे कभी समानता आ सकती है? या फिर ये चक्र ऐसे ही घूमता रहेगा. कभी हम मरेंगें, कभी तुम मरोगे !  
समय करवट ले रहा है ! विचारक  ‘जोड’ ने एक पुस्तक में लिखा है- ”जब मैं जन्मा था तब पश्चिम में होम्स थे, अब हाउसेस रह गए हैं क्योंकि पश्चिमी घरों से स्त्री खो गई है।” कही यह दुर्गति भारत की भी ना हो जाय क्योंकि  भारत  में यदि भारतीय संस्कृति  यहाँ का धर्म और विचार अगर बचा है तो नारी की बदौलत ही  बचा है !  अतः नारी  को इस पर विचार करना चाहिए !  कही देर ना हो जाय अतः इस स्थिति से उबरने का एकमात्र उपाय यही है कि नारी अब अन्धानुकरण का त्याग कर ,भोगवादी व बाजारवादी संस्कृति से अपने को मुक्त करे। अपनी लाखों , करोड़ों पिछड़ी अनपढ़ बेसहारा बहनों के दुखादर्दों को बांटकर उन्हें शैक्षिक , सामाजिक, व आर्थिक स्वाबलंबन का मार्ग दिखाकर सभी को अपने साथ प्रगति के मार्ग पर अग्रसर होना सिखाये । तभी सही अर्थों में  नारी इक्कीसवीं सदी की समाज की नियंता हो सकेगी । अब स्त्री को खुद को सोचना है कि वह कैसे स्थापति होना  चाहती है पूज्या बनकर या भोग्या बनकर !

- राजीव गुप्ता
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