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शुक्रवार, 15 मई 2009

कविता: धात्री -शोभना चौरे

वह कभी हिसाब नहीं माँगती
तुम एक बीज डालते हो
वह अनगिनत दाने देती है।
बीज भी उसी का होता है
और वह ही उसके लिए
उर्वरक बनती है।
अनेक कष्ट सहकर
अपनी कोख में
उस बीज को पुष्ट बनाती है।
जब- बीज अँकुरित हो
अपने हाथ-पाँव पसारता है
तब वह खुश होती है,
आनंदित होकर बीज को
अर्थात तुमको पनपने देती है
किंतु तुम
उसे कष्ट देकर
बाहर आ जाते हो,
इतराने लगते हो अपने अस्तित्व पर
पालते हो भरम अपने होने का,
लोगो की भूख मिटाने का।
तुम बडे होकर फ़िर फ़ैल जाते हो
उसकी छाती पर अपना हक़ जमाने
तुम हिसाब करने लगते हो
उसके आकार का,
उसके प्रकार का,
भूल जाते हो उसकी उर्वरा शक्ति को ,
जो उसने तुम्हें भी दी
तुम निस्तेज हो पुनः
उसी में विलीन हो जाते
न ही वह बीज को दर्द सुनाती है,
न ही बीज डालनेवाले को।
वह निरंतर देती जाती है।

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शुक्रवार, 8 मई 2009

शोभना चौरे

कविता

ऐसा क्यों?...

शोभना चौरे

ऐसा क्यो होता है ?
जहाँ 'फूल तोड़ना मना है'
लिखा है
हम वहीं पर
सबसे ज्यादा फूल तोड़ते है
जहाँ वाहन खडा करना वर्जित हो,
वनीं सर्वाधिक गाडियां खड़ी होती हैं
जहाँ धूम्रपान 'वर्जित है,
वहीं तथाकथित भद्रजन
धुएँ के छल्ले उडाते देखे जाते हैं
जहाँ कचरा फेंकना मना है,
वहीं पर
घर और शहर कचरा फेकते हैं,
डब्बे में पेट्रोल ले जाना मना है,
तो पेट्रोल पम्प पर धड़ल्ले से
डब्बे में पेट्रोल भरते देखे जा सकते हैं.
हम समझना ही नहीन चाहते
मन्दिर की शान्ति को सराहते हैं,
परन्तु
जूतों की गंदगी
वहाँ भी फैला ही आते हैं.
आप ही बताएन
ऐसा क्यों होता है?
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