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बुधवार, 14 जून 2017

doha muktika

सामयिक दोहा मुक्तिका:
संदेहित किरदार.....
संजीव 'सलिल
*
लोकतंत्र को शोकतंत्र में, बदल रही सरकार.
असरदार सरदार सशंकित, संदेहित किरदार..

योगतंत्र के जननायक को, छलें कुटिल-मक्कार.
नेता-अफसर-सेठ बढ़ाते, प्रति पल भ्रष्टाचार..

आम आदमी बेबस-चिंतित, मूक-बधिर लाचार.
आसमान छूती मंहगाई, मेहनत जाती हार..

बहा पसीना नहीं पल रहा, अब कोई परिवार.
शासक है बेफिक्र, न दुःख का कोई पारावार..

राजनीति स्वार्थों की दलदल, मिटा रही सहकार.
देश बना बाज़ार- बिकाऊ, थाना-थानेदार..

अंधी न्याय-व्यवस्था, सच का कर न सके दीदार.
काले कोट दलाल- न सुनते, पीड़ित का चीत्कार..

जनमत द्रुपदसुता पर, करे दु:शासन निठुर प्रहार.
कृष्ण न कोई, कौन सकेगा, गीता-ध्वनि उच्चार?

सबका देश, देश के हैं सब, तोड़ भेद-दीवार.
श्रृद्धा-सुमन शहीदों को दें, बाँटें-पायें प्यार..

सिया जनास्था का कर पाता, वनवासी उद्धार.
सत्ताधारी भेजे वन को, हर युग में हर बार..

लिये खडाऊँ बापू की जो, वही बने बटमार.
'सलिल' असहमत जो वे भी हैं, पद के दावेदार..

'सलिल' एक है राह, जगे जन, सहे न अत्याचार.
अफसरशाही को निर्बल कर, छीने निज अधिकार..

*************

सोमवार, 3 जनवरी 2011

कविता: लोकतंत्र का मकबरा संजीव 'सलिल'

कविता:
लोकतंत्र का मकबरा
संजीव 'सलिल'
*
(मध्य प्रदेश के नये विधान सभा भवन के उद्घाटन के अवसर पर २००१ में लिखी गयी )

विश्व के
महानतम लोकतन्त्र के
विशालतम राज्य के
रोजी-रोटी के लिये चिंतित
पेयजल और
शौच-सुविधा से वंचित
विपन्न जनगण के,
तथाकथित गाँधीवादी, राष्ट्रवादी,
साम्यवादी, बहुजनवादी,
समाजवादी, आदर्शवादी,
जनप्रतिनिधियों के
बैठने-सोचने,
ऐठने-टोंकने,
 लड़ने-झगड़ने और
मनमानी करने के लिये
बनाया गाय है एक भवन,
जिसकी भव्यता देख
दंग रह जायें
किन्नर-अप्सराएँ,
यक्ष और देवगण.

पैर ही नहीं
दृष्टि और चरित्र भी
स्खलित हो साये
इतने चिकने फर्श.
इतना ऊँचा गुम्बद
कि नीचा नजर आये अर्श.
श्वासरोधी चमक
अचंभित करती दमक.
वास्तुकला का
नायाब नमूना.
या गरीब प्रदेश की
खस्ताहाल अर्थव्यवस्था को
जान-बूझकर
लगाया गया चूना?
लोकतन्त्र का भगेविधाता
झोपडीवासी मतदाता
 देश का आम आदमी,
बापू का दरिद्र नारायण
नित नये करों की
भट्टी में जा रहा है भूना.  

नई करोड़ की प्रस्तावित लागत,
बावन करोड खा गयी इमारत.
साज-सज्जा फिर भी अधूरी
हाय! हाय!! ये मजबूरी.
काश!
इतना धन मिल जाता
 गरीब बच्चों के
गरीब माँ-बापों को
तो हजारों बेटियों के
हाथ हो जाते पीले,
अनेकों मरीजों का
हो जाता इलाज.
बच जाते जाने
कितनों के प्राण.

अनगिन गावों तक
पहुँचतीं सड़कें.
खुलते कल-कारखाने
बहुत तडके..
मिलती भूखों को दाल-रोटी.
खुशियाँ कुछ बड़ी, कुछ छोटीं.
लेकिन-
ज्यादा जरूरी समझा गया
आतप, वर्षा, शीत,
नंगे बदन झेलनेवाले
मतदाताओं के
जनप्रतिनिधियों को
एयर कंडीशन में बैठाना.
जनगण के दुःख-दर्द,
देश की माटी-पानी,
हवा और गर्द से
दूर रखना-बचाना
ताकि
इतिहास की पुनरावृत्ति न हो सके.
लोकतन्त्री शुद्धोधन (संविधान) के
सिद्धार्थी राजकुमार (जनप्रतिनिधि)
जीवन का सत्य न तलाशने लगें.
परिश्रम के पानी और 'अनुभव की माटी से
शासन-प्रशासन की जनसेवी सूरत
न निखारने लगें.
आम आदमी के
दुःख, दर्द, पीड़ा के
फलसफे न बघारने लगें.

इसलिए-
ऐश्वर्या उअर वैभव,
सुख और सुविधा,
ऐश और आराम का
चकाचौंधभरा माया-महल बनवाया गया है.
कुरुक्षेत्र के
महाभारत के समान
चुनावी महासमर में
ध्रित्रश्त्री रीति-नीति से
चुने गये दुर्योधनी विधायकों से
गाँधीवादी आदर्शों की
असहाय द्रौपद्र्र का खुलेआम
चीरहरण कराया गया है,
ताकि -
जनतंत्री कृष्ण, लोकतंत्री पांडव
और गणतंत्री कुरुकुल के
सनातन शत्रु
धृतराष्ट्री न्यायपालिका,
दुर्योधनी विधायिका,
शकुनी पत्रकारिता, दुशासनी प्रशासन के सहारे ,
संभावनाओं के अभिमन्यु को
घपलों-घोटालों के चक्रव्यूह में
घेरकर उसका काम तमाम कर कि
तमाम काम हो गया.
और जनगण को
तारने की आड़ में खुद तर सकें.
 एक नहीं,
अनेक पीढ़ियों के लिये
काली लक्ष्मी से
सारस्वत सफेदी को शर्मानेवाले
इरावती वाहन ला सकें.
अपने घरों को
सहस्त्रक्षी इन्द्र का विलास भवन बना सकें.
अपने ऐश-आराम और
भोग-विलास की खातिर
देश के आम लोगों के
सुख-चैन को बेचकर गा सकें
उद्दंडता के ध्वनि-विस्तारक यंत्र पर
देश प्रेम के छद्म गीत गा सकें.
सत्य को तलाशते विदुर पत्रकारों
संजय जैसे निष्पक्ष अधिकारियों की
आवाज़ को सुविधा से घोंट,
दबा या दफना सकें.
नीति, नियम, विचार, सिद्धांत भूलकर
बना सकें ऐसी नीतियां कि
आम आदमी मँहगाई की मार से
रोजी-रोटी के जुगाड़ की चिंता में
न जिंदा रह पाये न मारा.
अस्मिता बचाने,
लज्जा छिपाने और
सिर न झुकाने की विरासत
चेतना और विवेक का मारा
रह जाये अधमरा.
इसलिए... मात्र इसलिए
मुकम्मल कराया गया है
शानदार
मगर बेजानदार
लोकतंत्र का मकबरा.

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मंगलवार, 6 अप्रैल 2010

लघु कथा: शब्द और अर्थ --संजीव वर्मा "सलिल "

लघु कथा: शब्द और अर्थ
संजीव वर्मा "सलिल "

शब्द कोशकार ने अपना कार्य समाप्त किया...कमर सीधी कर लूँ , सोचते हुए लेटा कि काम की मेज पर कुछ खटपट सुनायी दी... मन मसोसते हुए उठा और देखा कि यथास्थान रखे शब्दों के समूह में से निकल कर कुछ शब्द बाहर आ गए थे। चश्मा लगाकर पढ़ा , वे शब्द 'लोकतंत्र', प्रजातंत्र', 'गणतंत्र' और 'जनतंत्र' थे।

शब्द कोशकार चौका - ' अरे! अभी कुछ देर पहले ही तो मैंने इन्हें यथास्थान रखा रखा था, फ़िर ये बाहर कैसे...?'

'चौंको मत...तुमने हमारे जो अर्थ लिखे हैं वे अब हमें अनर्थ लगते हैं। दुनिया का सबसे बड़ा लोक तंत्र लोभ तंत्र में बदल गया है। प्रजा तंत्र में तंत्र के लिए प्रजा की कोई अहमियत ही नहीं है। गण विहीन गण तंत्र का अस्तित्व ही सम्भव नहीं है। जन गण मन गाकर जनतंत्र की दुहाई देने वाला देश सारे संसाधनों को तंत्र के सुख के लिए जुटा रहा है। -शब्दों ने एक के बाद एक मुखर होते हुए कहा


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