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शुक्रवार, 1 दिसंबर 2017

navgeet

नवगीत
पत्थरों के भी कलेजे
हो रहे पानी

आदमी ने जब से
मन पर रख लिए पत्थर
देवता को दे दिया है
पत्थरों का घर
रिक्त मन मंदिर हुआ
याद आ रही नानी
.
नाक हो जब बहुत ऊँची
बैठती मक्खी
कब गयी कट?, क्या पता?
उड़ गया कब पक्षी
नम्रता का?, शेष दुर्गति
अहं ने ठानी
.
चुराते हैं, झुकाते हैं आँख
खुद से यार
बिन मिलाये बसाते हैं
व्यर्थ घर-संसार
आँख को ही आँख
फूटी आँख ना भानी
.
चीर हरकर माँ धरा का
नष्टकर पोखर
पी रहे जल बोतलों का
हाय! हम जोकर
बावली है बावली
पानी लिए धानी

www.divyanarmada.in, 9425183244
hindi_blogger

गुरुवार, 13 जुलाई 2017

muktak

मुक्तक
*
था सरोवर, रह गया पोखर महज क्यों आदमी?
जटिल क्यों?, मिलता नहीं है अब सहज क्यों आदमी?
काश हो तालाब शत-शत कमल शतदल खिल सकें-
आदमी से गले मिलकर 'सलिल' खुश हो आदमी।।
१३-०७-२०१६
*
#हिंदी_ब्लॉगर

मंगलवार, 15 अप्रैल 2014

chitra par kavita: sanjiv

चित्र पर कविता:
संजीव

रिश्तों पे जमीं बर्फ रास आ रही है खूब
गर्मी दिलों की आदमी से जा रही है ऊब
रस्मी बराए-नाम हुई राम-राम अब-
काम-काम सांस जपे जा रही है अब
कुदरत भी परेशान कि जीना मुहाल है
आदमी की आदमीयत पर सवाल है

मंगलवार, 11 अक्टूबर 2011

सामयिक दोहा मुक्तिका: संदेहित किरदार..... संजीव 'सलिल

सामयिक दोहा मुक्तिका:
संदेहित किरदार.....
संजीव 'सलिल
*
लोकतंत्र को शोकतंत्र में, बदल रही सरकार.
असरदार सरदार सशंकित, संदेहित किरदार..

योगतंत्र के जननायक को, छलें कुटिल-मक्कार.
नेता-अफसर-सेठ बढ़ाते, प्रति पल भ्रष्टाचार..

आम आदमी बेबस-चिंतित, मूक-बधिर लाचार.
आसमान छूती मंहगाई, मेहनत जाती हार..

बहा पसीना नहीं पल रहा, अब कोई परिवार.
शासक है बेफिक्र, न दुःख का कोई पारावार..

राजनीति स्वार्थों की दलदल, मिटा रही सहकार.
देश बना बाज़ार- बिकाऊ, थाना-थानेदार..

अंधी न्याय-व्यवस्था, सच का कर न सके दीदार.
काले कोट दलाल- न सुनते, पीड़ित का चीत्कार..

जनमत द्रुपदसुता पर, करे दु:शासन निठुर प्रहार.
कृष्ण न कोई, कौन सकेगा, गीता-ध्वनि उच्चार?

सबका देश, देश के हैं सब, तोड़ भेद-दीवार.
श्रृद्धा-सुमन शहीदों को दें, बाँटें-पायें प्यार..

सिया जनास्था का कर पाता, वनवासी उद्धार.
सत्ताधारी भेजे वन को, हर युग में हर बार..

लिये खडाऊँ बापू की जो, वही बने बटमार.
'सलिल' असहमत जो वे भी हैं, पद के दावेदार..

'सलिल' एक है राह, जगे जन, सहे न अत्याचार.
अफसरशाही को निर्बल कर, छीने निज अधिकार..

*************

सोमवार, 25 अप्रैल 2011

मुक्तिका: दीवाना भी होता था. ----- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका
दीवाना भी होता था.
संजीव 'सलिल'
*
हजारों आदमी में एक दीवाना भी होता था.
खुदाई रौशनी का एक परवाना भी होता था..

सियासत की वजह से हो गये हैं गैर अपने भी.
वगर्ना कहो तो क्या कोई बेगाना भी होता था??

लहू अपना लहू है, और का है खून भी पानी. 
गया वो वक्त जब बस एक पैमाना भी होता था..

निकाली भाई कहकर दुशमनी दिलवर के भाई ने.
कलेजे में छिपाए दर्द मुस्काना भी होता था..

मिली थी साफ़ चादर पर सहेजी थी नहीं हमने.
बिसारा था कि ज्यों की त्यों ही धर जाना भी होता था.. 

सिया जूता, बुना कपड़ा तो इसमें क्या बुराई है?
महल हो या कुटी मिट्टी में मिल जाना ही होता था..

सिया को भेज वन सीखा अवध ने पाठ यह सच्चा 
हर इक आबाद घर में एक वीराना भी होता था..

नहाकर स्नेह सलिला में, बहाकर प्रेम की गंगा.
'सलिल' मरघट में सबको एक हो जाना ही होता था
..
*********

गुरुवार, 30 सितंबर 2010

तरही मुक्तिका २ : ........ क्यों है? ------ संजीव 'सलिल'

तरही मुक्तिका २  :

........ क्यों है?

संजीव 'सलिल'
*
आदमी में छिपा, हर वक़्त ये बंदर क्यों है?
कभी हिटलर है, कभी मस्त कलंदर क्यों है??

आइना पूछता है, मेरी हकीकत क्या है?
कभी बाहर है, कभी वो छिपी अंदर क्यों है??

रोता कश्मीर भी है और कलपता है अवध.
आम इंसान बना आज छछूंदर क्यों है??

जब तलक हाथ में पैसा था, सगी थी दुनिया.
आज साथी जमीं, आकाश समंदर क्यों है??

उसने पर्वत, नदी, पेड़ों से बसाया था जहां.
फिर ज़मीं पर कहीं मस्जिद कहीं मंदर क्यों है??

गुरु गोरख को नहीं आज तलक है मालुम.
जब भी आया तो भगा दूर मछंदर क्यों है??

हाथ खाली रहा, आया औ' गया जब भी 'सलिल'
फिर भी इंसान की चाहत ये सिकंदर क्यों है??

जिसने औरत को 'सलिल' जिस्म कहा औ' माना.
उसमें दुनिया को दिखा देव-पुरंदर क्यों है??

*

शुक्रवार, 30 अक्टूबर 2009

आज का गीत: संजीव 'सलिल'

आज का गीत:

संजीव 'सलिल'

पीले पत्तों की
पौ बारह,
हरियाली रोती...
*
समय चक्र
बेढब आया है,
मग ने
पग को
भटकाया है.
हार तिमिर के हाथ
ज्योत्सना
निज धीरज खोती...
*
नहीं आदमी
पद प्रधान है.
हावी शर पर
अब कमान है.
गजब!
हताशा ही
आशा की फसल
मिली बोती...
*
जुही-चमेली पर
कैक्टस ने
आरक्षण पाया.
सद्गुण को
दुर्गुण ने
जब चाहा
तब बिकवाया.
कंकर को
सहेजकर हमने
फेंक दिए मोती...
*