शिव का माहिया पूजन
*
भोले को मना लाना,
सावन आया है
गौरी जी संग आना।
*
सब मिल अभिषेक करो
गोरस, मधु, घृत से
नहलाओ प्रभु जी को।
*
ले अभ्रक भस्म गुलाल
भक्ति सहित करिए
शंकर जी का शृंगार।
*
जौ गेहूँ अक्षत दाल
तिल शर्करा सहित
शिव अर्पित करिए माल।
*
ले बिल्व पत्र ताजा
भाँग धतूरा फूल-
फल मिल चढ़ाँय आजा।
*
नागेंद्र रहे फुफकार
मुझको मत भूलो
लो बना गले का हार।
*
नंदी पूजन मत भूल
सुख-समृद्धि दाता
सम्मुख हर लिए त्रिशूल।
*
मद काम क्रोध हैं शूल
कर में पकड़ त्रिशूल
काबू करिए बिन भूल।
*
लेकर रुद्राक्ष सुमाल
जाप नित्य करिए
शुभ-मंगल हो तत्कल।
*
हे कार्तिकेय-गणराज!
ग्रहण कीजिए भोग
मन मंदिर सदा विराज।
*
मन भावन सावन मास
सबके हिया हुलास
भर गौरी-गौरीनाथ।
*
संजीव
९४२५१८३२४४
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
कुल पेज दृश्य
शनिवार, 31 जुलाई 2021
शिव का माहिया पूजन
चिप्पियाँ Labels:
माहिया पूजन,
शिव
आचार्य संजीव वर्मा सलिल
हास्य रचना: मेरी श्वास-श्वास में कविता
हास्य रचना:
मेरी श्वास-श्वास में कविता
*
मेरी श्वास-श्वास में कविता, छींक-खाँस दूँ तो हो गीत।
युग क्या जाने खर्राटों में, मेरे व्याप्त मधुर संगीत।
पल-पल में कविता कर देता, क्षण-क्षण में मैं लिखूँ निबंध।
मुक्तक-क्षणिका क्षण-क्षण होते, चुटकी बजती काव्य प्रबंध।
रस-लय-छंद-अलंकारों से लेना-देना मुझे नहीं।
बिंब-प्रतीक बिना शब्दों की, नौका खेना मुझे यहीं।
धुंआधार को नाम मिला है, कविता-लेखन की गति से।
शारद भी चकराया करतीं हैं; मेरी अद्भुत मति से।
खुद गणपति भी हार गए, कविता सुन लिख सके नहीं।
खोजे-खोजे अर्थ न पाया, पंक्ति एक बढ़ सके नहीं।
एक साल में इतनी कविता, जितने सर पर बाल नहीं।
लिखने को कागज़ इतना हो, जितनी भू पर खाल नहीं।
वाट्स एप को पूरा भर दूँ, अगर जागकर लिख दूँ रात।
गूगल का स्पेस कम पड़े, मुखपोथी की क्या औकात?
ट्विटर, वाट्स एप, मेसेंजर, मुझे देख डर जाते हैं।
वेदव्यास भी मेरे सम्मुख, फीके से पड़ जाते हैं।
वाल्मीकि भी पानी भरते, मेरी प्रतिभा के आगे।
जगनिक और ईसुरी सम्मुख, जाऊँ तो पानी माँगे।
तुलसी सूर निराला बच्चन, से मेरी कैसी समता?
अब का कवि खद्योत सरीखा, हर मेरे सम्मुख नमता।
किसमें क्षमता है जो मेरी, प्रतिभा का गुणगान करे?
इसीलिये मैं खुद करता हूँ, धन्य वही जो मान करे।
विन्ध्याचल से ज्यादा भारी, अभिनंदन के पत्र हुए।
स्मृति-चिन्ह अमरकंटक सम, जी से प्यारे लगें मुए।
करो न चिता जो व्यय; देकर मान पत्र ले, करूँ कृतार्थ।
लक्ष्य एक अभिनंदित होना, इस युग का मैं ही हूँ पार्थ।
*
७९९९५५९६१८
salil.sanjiv@gmail.com
मेरी श्वास-श्वास में कविता
*
मेरी श्वास-श्वास में कविता, छींक-खाँस दूँ तो हो गीत।
युग क्या जाने खर्राटों में, मेरे व्याप्त मधुर संगीत।
पल-पल में कविता कर देता, क्षण-क्षण में मैं लिखूँ निबंध।
मुक्तक-क्षणिका क्षण-क्षण होते, चुटकी बजती काव्य प्रबंध।
रस-लय-छंद-अलंकारों से लेना-देना मुझे नहीं।
बिंब-प्रतीक बिना शब्दों की, नौका खेना मुझे यहीं।
धुंआधार को नाम मिला है, कविता-लेखन की गति से।
शारद भी चकराया करतीं हैं; मेरी अद्भुत मति से।
खुद गणपति भी हार गए, कविता सुन लिख सके नहीं।
खोजे-खोजे अर्थ न पाया, पंक्ति एक बढ़ सके नहीं।
एक साल में इतनी कविता, जितने सर पर बाल नहीं।
लिखने को कागज़ इतना हो, जितनी भू पर खाल नहीं।
वाट्स एप को पूरा भर दूँ, अगर जागकर लिख दूँ रात।
गूगल का स्पेस कम पड़े, मुखपोथी की क्या औकात?
ट्विटर, वाट्स एप, मेसेंजर, मुझे देख डर जाते हैं।
वेदव्यास भी मेरे सम्मुख, फीके से पड़ जाते हैं।
वाल्मीकि भी पानी भरते, मेरी प्रतिभा के आगे।
जगनिक और ईसुरी सम्मुख, जाऊँ तो पानी माँगे।
तुलसी सूर निराला बच्चन, से मेरी कैसी समता?
अब का कवि खद्योत सरीखा, हर मेरे सम्मुख नमता।
किसमें क्षमता है जो मेरी, प्रतिभा का गुणगान करे?
इसीलिये मैं खुद करता हूँ, धन्य वही जो मान करे।
विन्ध्याचल से ज्यादा भारी, अभिनंदन के पत्र हुए।
स्मृति-चिन्ह अमरकंटक सम, जी से प्यारे लगें मुए।
करो न चिता जो व्यय; देकर मान पत्र ले, करूँ कृतार्थ।
लक्ष्य एक अभिनंदित होना, इस युग का मैं ही हूँ पार्थ।
*
७९९९५५९६१८
salil.sanjiv@gmail.com
चिप्पियाँ Labels:
अनंत,
श्वास-श्वास में कविता,
हास्य रचना
आचार्य संजीव वर्मा सलिल
पंकज परिमल की याद में माहिए
पंकज परिमल की याद में माहिए
*
पंकज परिमल खोकर
नवगीत उदास हुआ
पिंजरे से उड़ा सुआ।
*
जीवट का रहा धनी
थी जिजीविषा अद्भुत
पंकज था धुनी गुनी।
*
नवगीत मिसाल बने
भाषिक-शैल्पिक नव दृष्टि
नव रूपक-बिंब घने।
*
बिन पंकज हो श्रीहीन
करता है याद सलिल
टूटी सावन में बीन।
*
नवगीत सुनेंगे इंद्र
दे शुभाशीष तुमको
होंगे खुश बहुत रवींद्र।
*
अपनी मिसाल तुम आप
छू पाए अन्य नहीं
तव सुयश सका जग व्याप।
*
भावांजलि लिए सलिल
चुप अश्रुपात करता
खो पंकज दिल दुखता
*
*
पंकज परिमल खोकर
नवगीत उदास हुआ
पिंजरे से उड़ा सुआ।
*
जीवट का रहा धनी
थी जिजीविषा अद्भुत
पंकज था धुनी गुनी।
*
नवगीत मिसाल बने
भाषिक-शैल्पिक नव दृष्टि
नव रूपक-बिंब घने।
*
बिन पंकज हो श्रीहीन
करता है याद सलिल
टूटी सावन में बीन।
*
नवगीत सुनेंगे इंद्र
दे शुभाशीष तुमको
होंगे खुश बहुत रवींद्र।
*
अपनी मिसाल तुम आप
छू पाए अन्य नहीं
तव सुयश सका जग व्याप।
*
भावांजलि लिए सलिल
चुप अश्रुपात करता
खो पंकज दिल दुखता
*
चिप्पियाँ Labels:
पंकज परिमल,
माहिए
आचार्य संजीव वर्मा सलिल
मुक्तिका
मुक्तिका:
१
*
कैसा लगता काल बताओ?
तनिक मौत को गले लगाओ
.
मारा है बहुतों को तड़पा
तड़प-तड़पकर मारे जाओ
.
सलमानों के अरमानों की
चिता आप ही आप जलाओ
.
समय न माफ़ करेगा तुमको
काम देश के अगर न आओ
.
दहशतगर्दों तज बंदूकें
चलो खेत में फसल उगाओ
***
२
*
याद जिसकी भुलाना मुश्किल है
याद उसको न आना मुश्किल है
.
मौत औरों को देना है आसां
मौत को झेल पाना मुश्किल है
.
खुद को कहता रहा मसीहा जो
उसका इंसान होना मुश्किल है
.
तुमने बोले हैं झूठ सौ-सौ पर
एक सच बोल सकना मुश्किल है
.
अपने अधिकार चाहते हैं सभी
गैर को हक़ दिलाना मुश्किल है
***
१
*
कैसा लगता काल बताओ?
तनिक मौत को गले लगाओ
.
मारा है बहुतों को तड़पा
तड़प-तड़पकर मारे जाओ
.
सलमानों के अरमानों की
चिता आप ही आप जलाओ
.
समय न माफ़ करेगा तुमको
काम देश के अगर न आओ
.
दहशतगर्दों तज बंदूकें
चलो खेत में फसल उगाओ
***
२
*
याद जिसकी भुलाना मुश्किल है
याद उसको न आना मुश्किल है
.
मौत औरों को देना है आसां
मौत को झेल पाना मुश्किल है
.
खुद को कहता रहा मसीहा जो
उसका इंसान होना मुश्किल है
.
तुमने बोले हैं झूठ सौ-सौ पर
एक सच बोल सकना मुश्किल है
.
अपने अधिकार चाहते हैं सभी
गैर को हक़ दिलाना मुश्किल है
***
चिप्पियाँ Labels:
मुक्तिका
आचार्य संजीव वर्मा सलिल
हास्य रचना स्वादिष्ट निमंत्रण तुहिना वर्मा 'तुहिन'
हास्य रचना
स्वादिष्ट निमंत्रण
तुहिना वर्मा 'तुहिन'
*
''खट्टे-मिट्ठे जिज्जाजी को चटपटी साली जी यानी आधी घरवाली जी की ताज़ा-ताज़ा गरमागरम मीठी-मीठी नमस्ते।
यह कुरकुरी पाती पाकर आपके मन में पानी - बतासे की तरह मोतीचूर के लड्डू फूटने लगेंगे क्योंकि हम आपको आपकी ससुराल में तशरीफ़ लाने की दावत दे रहे हैं।
मौका? अरे हुजूर मौका तो ऐसा है कि जो आये वो भी पछताए...जो न आये वह भी पछताये क्योंकि आपकी सिर चढ़ी सिरफिरी साली इमरतिया की शादी यानी बर्बादी का जश्न बार-बार तो होगा नहीं।
ये रसमलाई जैसा मिठास भरा रिश्ता पेड़ा शहर, कचौड़ी नगर, के खीरपुर मोहल्ले के मोटे-ताजे सेठ समोसामल मिंगौड़ीलाल के हरे-भरे साहिबजादे, खीरमोहन सिवईं प्रसाद के साथ होना तय हुआ है।
चांदनी चौक में चमचम चाची को चांदी की चमचमाती चम्मच से चिरपिरी चटनी चटाकर चर्चा में आ चुके चालू चाचा अपने आलूबंडे बेटे और भाजीबड़ा बिटिया के साथ चटखारे लेते हुए यहाँ आकर डकार ले रहे हैं।
जलेबी जिज्जी, काजू कक्का, किशमिश काकी, बादाम बुआ, फुल्की फूफी, छुहारा फूफा, चिरौंजी चाची, चिलगोजा चाचा, मखाना मौसा, मुसम्बी मौसी, दहीबड़ा दादा, दाल-भात दादी, आज गुलाब जामुन-मैसूरपाग एक्सप्रेस से आइसक्रीम खाते हुए, अखरोटगंज स्टेशन पर उतरेंगे.
रसमलाई धरमशाला में संदेश बैंड, बर्फी आर्केस्ट्रा, सिवईया बानो की कव्वाली, बूंदी बेगम का मुजरा, आपको दिल थामकर आहें भरने पर मजबूर कर देगा.
शरबती बी के बदबख्त हाथों से विजया भवानी यानी भांग का भोग लगाकर आप पोंगा पंडित की तरह अंगुलियाँ चाटते हुए कार्टून या जोकर नजर आयेंगे. पत्थर हज़म हजम हाजमा चूर्ण, मुंह जलाऊ मुनक्का बाटी के साथ मीठे मसालेवाला पान और नशीला पानबहार लिये आपके इन्तेज़ार में आपकी नाक में दम करनेवाली रस की प्याली
-- रबडी मलाई
***
हास्य सलिला:
संजीव
*
लालू जी बाजार गये, उस दिन लाली के साथ
पल भर भी छोड़ा नहीं, लिये हाथ में हाथ
दोस्त साथ था हुआ चमत्कृत बोला: 'भैया! खूब
दिन भर भउजी के ख्याल में कैसे रहते डूब?
इतनी रहती फ़िक्र, न छोड़ा पल भर को भी हाथ'
लालू बोले: ''गलत न समझो, झुक जाएगा माथ
ज्यों छोडूँगा हाथ, तुरत ही आ जाएगी आफत
बिना बात क्यों कहो बुलाऊँ खुद ही अपनी शामत?
ज्यों छूटेगा हाथ खरीदी कर लेगी यह खूब
चुका न पाऊँ इतने कर्जे में जाऊँगा डूब''
***
३१-७-२०१५
चिप्पियाँ Labels:
तुहिना वर्मा 'तुहिन',
लालूजी,
स्वादिष्ट निमंत्रण,
हास्य रचना
आचार्य संजीव वर्मा सलिल
शुक्रवार, 30 जुलाई 2021
शिव दोहा,
शिव का माहिया पूजन
*
भोले को मना लाना,
सावन आया है
गौरी जी संग आना।
*
सब मिल अभिषेक करो
गोरस, मधु, घृत से
नहलाओ प्रभु जी को।
*
ले अभ्रक भस्म गुलाल
भक्ति सहित करिए
शंकर जी का शृंगार।
*
जौ गेहूँ अक्षत दाल
तिल शर्करा सहित
शिव अर्पित करिए माल।
*
ले बिल्व पत्र ताजा
भाँग धतूरा फूल-
फल मिल चढ़ाँय आजा।
*
नागेंद्र रहे फुफकार
मुझको मत भूलो
लो बना गले का हार।
*
नंदी पूजन मत भूल
सुख-समृद्धि दाता
सम्मुख हर लिए त्रिशूल।
*
मद काम क्रोध हैं शूल
कर में पकड़ त्रिशूल
काबू करिए बिन भूल।
*
लेकर रुद्राक्ष सुमाल
जाप नित्य करिए
शुभ-मंगल हो तत्कल।
*
हे कार्तिकेय-गणराज!
ग्रहण कीजिए भोग
मन मंदिर सदा विराज।
*
मन भावन सावन मास
सबके हिया हुलास
भर गौरी-गौरीनाथ।
***
संजीव
९४२५१८३२४४
‐---------------------
शिव पर दोहे
*
शंभु नाथ हैं जगत के, रूप सुदर्शन दिव्य।
तेज प्रताप सुविदित है, शंकर छवि है भव्य।।
*
अंबर तक यश व्यापता, जग पूजित नागेंद्र।
प्रिया भवानी शिवानी, शीश सजे तारेंद्र।।
*
शिवाधार पा सलिल है, धन्य गंग बन तात।
करे जीव संजीव दे, मुक्ति सत्य विख्यात।।
*
सत्-शिव-सुंदर सृजनकर, अहंकार तज नित्य।
मैं मेरा से मुक्त हो, बहता पवन अनित्य। ।
*
शंका-अरि शंकारि शिव, हैं शुभ में विश्वास।
श्रद्धा हैं मैया उमा, सुत गणपति हैं श्वास।।
*
कार्तिकेय संकल्प हैं, नंदी है श्रम मूर्त।
मूषक मति चातुर्य है, सर्प गरल स्फूर्त। ।
*
रुद्र अक्ष सह भस्म मिल, करे काम निष्काम।
काम क्रोध मद शूल त्रय, सिंह विक्रम बलधाम।।
*
संजीव
९५२५१८३२४४
----------------------
वंदे भारत भारती! कहता जगकर भोर।
उषा किरण ला परिंदे, मचा रहे हैं शोर।।
मचा रहे हैं शोर, थक गया अरुणचूर भी।
जागा नहीं मनुष्य, मोह में रहा चूर ही।।
दिन कर दिनकर दुखी, देख मानव के धंधे।
दुपहर संझा रात, परेशां नेक न बंदे।।
*
संजीव
९४२५१८३२४४
----------------------
चिप्पियाँ Labels:
शिव दोहा
आचार्य संजीव वर्मा सलिल
शिव पर दोहे
शिव पर दोहे
*
शिव सत हैं; रहते सदा, असत-अशुचि से दूर।
आत्मलीन परमात्म हैं, मोहमुक्त तमचूर।।
*
शिव सोकर भी जागते, भव से दूर-अदूर।
उन्मीलित श्यामल नयन, करुणा से भरपूर।।
*
शिव में राग-विराग है, शिव हैं क्रूर-अक्रूर।
भक्त विहँस अवलोकते, शिव का अद्भुत नूर।।
*
शिव शव का सच जानते, करते नहीं गुरूर।
काम वाम जा दग्ध हो, चढ़ता नहीं सुरूर।।
*
शिव न योग या भोग को, त्याग हुए मगरूर ।
सती सतासत पंथ चल, गहतीं सत्य जरूर।।
*
शिव से शिवा न भिन्न हैं, भेद करे जो सूर।
शिवा न शिव से खिन्न हैं, विरह नहीं मंजूर।।
*
शिव शंका के शत्रु हैं, सकल लोक मशहूर।
शिव-प्रति श्रद्धा हैं शिवा, ऐच्छिक कब मजबूर।।
*
शिव का चिर विश्वास हैं, शिवा भक्ति का पूर।
निराकार साकार हो, तज दें अहं हुजूर।।
*
शिव की नवधा भक्ति कर, तन-मन-धन है धूर।
नेह नर्मदा सलिल बन, हो संजीव मजूर।।
***
salil.sanjiv@gmail.com
२९.७.२०१८, ७९९९५५९६१८
*
शिव सत हैं; रहते सदा, असत-अशुचि से दूर।
आत्मलीन परमात्म हैं, मोहमुक्त तमचूर।।
*
शिव सोकर भी जागते, भव से दूर-अदूर।
उन्मीलित श्यामल नयन, करुणा से भरपूर।।
*
शिव में राग-विराग है, शिव हैं क्रूर-अक्रूर।
भक्त विहँस अवलोकते, शिव का अद्भुत नूर।।
*
शिव शव का सच जानते, करते नहीं गुरूर।
काम वाम जा दग्ध हो, चढ़ता नहीं सुरूर।।
*
शिव न योग या भोग को, त्याग हुए मगरूर ।
सती सतासत पंथ चल, गहतीं सत्य जरूर।।
*
शिव से शिवा न भिन्न हैं, भेद करे जो सूर।
शिवा न शिव से खिन्न हैं, विरह नहीं मंजूर।।
*
शिव शंका के शत्रु हैं, सकल लोक मशहूर।
शिव-प्रति श्रद्धा हैं शिवा, ऐच्छिक कब मजबूर।।
*
शिव का चिर विश्वास हैं, शिवा भक्ति का पूर।
निराकार साकार हो, तज दें अहं हुजूर।।
*
शिव की नवधा भक्ति कर, तन-मन-धन है धूर।
नेह नर्मदा सलिल बन, हो संजीव मजूर।।
***
salil.sanjiv@gmail.com
२९.७.२०१८, ७९९९५५९६१८
मुक्तक, द्विपदी
कोशिशें करती रहो, बात बन ही जायेगी
जिन्दगी आज नहीं, कल तो मुस्कुरायेगी
हारते जो नहीं गिरने से, वो ही चल पाते-
मंजिलें आज नहीं कल तो रास आयेंगी.
*
द्विपदी:
जात मजहब धर्म बोली, चाँद अपनी कह जरा
पुज रहा तू ईद में भी, संग करवा चौथ के.
*
चाँद का इन्तिजार करती रही, चाँदनी ने 'सलिल' गिला न किया.
तोड़्ती है समाधि शिव की नहीं, शिवा ने मौन रह सहयोग दिया.
*
चाँद तनहा है ईद हो कैसे? चाँदनी उसकी मीत हो कैसे??
मेघ छाये घने दहेजों के, रेप पर उसकी जीत हो कैसे??
*
गले मिले दोहा यमक
गले मिले दोहा यमक
*
चल बे घर बेघर नहीं, जो भटके बिन काज
बहुत हुई कविताई अब, कलम घिसे किस व्याज?
*
पटना वाली से कहा, 'पट ना' खाई मार
चित आए पट ना पड़े, अब की सिक्का यार
*
धरती पर धरती नहीं, चींटी सिर का भार
सोचे "धर दूँ तो धरा, कैसे सके सँभार?"
*
घटना घट ना सब कहें, अघट न घटना रीत
घट-घटवासी चकित लख, क्यों मनु करे अनीत?
*
सिरा न पाये फ़िक्र हम, सिरा न आया हाथ
पटक रहे बेफिक्र हो, पत्थर पर चुप माथ
*
बेसिर-दानव शक मुआ, हरता मन का चैन
मनका ले विश्वास का, सो ले सारी रैन
*
करता कुछ करता नहीं, भरता भरता दंड
हरता हरता शांति सुख, धरता धरता खंड
*
बजा रहे करताल पर, दे न सके कर ताल
गिनते हैं कर माल फिर, पहनाते कर माल
*
जल्दी से आ भार ले, व्यक्त करूँ आभार
असह्य लगे जो भार दें, हटा तुरत साभार
*
हँस सहते हम दर्द जब, देते हैं हमदर्द
अपना पन कर रहा है सब अपनापन सर्द
*
भोग लगाकर कर रहे, पंडित जी आराम
नहीं राम से पूछते, "ग्रहण करें आ राम!"
*****
*
चल बे घर बेघर नहीं, जो भटके बिन काज
बहुत हुई कविताई अब, कलम घिसे किस व्याज?
*
पटना वाली से कहा, 'पट ना' खाई मार
चित आए पट ना पड़े, अब की सिक्का यार
*
धरती पर धरती नहीं, चींटी सिर का भार
सोचे "धर दूँ तो धरा, कैसे सके सँभार?"
*
घटना घट ना सब कहें, अघट न घटना रीत
घट-घटवासी चकित लख, क्यों मनु करे अनीत?
*
सिरा न पाये फ़िक्र हम, सिरा न आया हाथ
पटक रहे बेफिक्र हो, पत्थर पर चुप माथ
*
बेसिर-दानव शक मुआ, हरता मन का चैन
मनका ले विश्वास का, सो ले सारी रैन
*
करता कुछ करता नहीं, भरता भरता दंड
हरता हरता शांति सुख, धरता धरता खंड
*
बजा रहे करताल पर, दे न सके कर ताल
गिनते हैं कर माल फिर, पहनाते कर माल
*
जल्दी से आ भार ले, व्यक्त करूँ आभार
असह्य लगे जो भार दें, हटा तुरत साभार
*
हँस सहते हम दर्द जब, देते हैं हमदर्द
अपना पन कर रहा है सब अपनापन सर्द
*
भोग लगाकर कर रहे, पंडित जी आराम
नहीं राम से पूछते, "ग्रहण करें आ राम!"
*****
एक दोहा:
नेह वॄष्टि नभ ने करी, धरा गयी हँस भींज
हरियायी भू लाज से, 'सलिल' मन गयी तीज
***
नवगीत
नवगीत
*
मेघ न बरसे
बरस रही हैं
आहत जनगण-मन की चाहत।
नहीं सुन रहीं
गूँगी-बहरी
सरकारें, क्या देंगी राहत?
*
जनप्रतिनिधि ही
जन-हित की
नीलामी करते, शर्म न आती।
सत्ता खातिर
शकुनि-सुयोधन
की चालें ही मन को भातीं।
द्रोणाचार्य
बेचते शिक्षा
व्यापम के सिरमौर बने हैं।
नाम नहीं
लिख पाते टॉपर
मेघ विपद के बहुत घने हैं।
कदम-कदम पर
शिक्षालय ही
रेप कर रहे हैं शिक्षा का।
रावण के रथ
बैठ सियासत
राम-लखन पर ढाती आफत।
*
लोकतन्त्र की
डुबा झोपड़ी
लोभतन्त्र नभ से जा देखे।
शोकतंत्र निज
बहुमत क्रय कर
भोगतंत्र की जय-जय लेखे।
कोकतंत्र नित
जीता शैशव
आश्रम रथ्यागार बन गए।
जन है दुखी
व्यथित है गण
बेमजा प्रजा को शासन शामत।
*
हँसिया
गर्दन लगा काटने,
हाथी ने बगिया रौंदी रे!
चक्र गला
जनता का काटे,
पंजे ने कबरें खोदी रे!
लालटेन से
जली झुपड़िया
कमल चुभाता पल-पल काँटे।
सेठ-हितू हैं
अफसर नेता
अँधा न्याय ढा रहा आफत।
*
३०-७-२०१६
*
मेघ न बरसे
बरस रही हैं
आहत जनगण-मन की चाहत।
नहीं सुन रहीं
गूँगी-बहरी
सरकारें, क्या देंगी राहत?
*
जनप्रतिनिधि ही
जन-हित की
नीलामी करते, शर्म न आती।
सत्ता खातिर
शकुनि-सुयोधन
की चालें ही मन को भातीं।
द्रोणाचार्य
बेचते शिक्षा
व्यापम के सिरमौर बने हैं।
नाम नहीं
लिख पाते टॉपर
मेघ विपद के बहुत घने हैं।
कदम-कदम पर
शिक्षालय ही
रेप कर रहे हैं शिक्षा का।
रावण के रथ
बैठ सियासत
राम-लखन पर ढाती आफत।
*
लोकतन्त्र की
डुबा झोपड़ी
लोभतन्त्र नभ से जा देखे।
शोकतंत्र निज
बहुमत क्रय कर
भोगतंत्र की जय-जय लेखे।
कोकतंत्र नित
जीता शैशव
आश्रम रथ्यागार बन गए।
जन है दुखी
व्यथित है गण
बेमजा प्रजा को शासन शामत।
*
हँसिया
गर्दन लगा काटने,
हाथी ने बगिया रौंदी रे!
चक्र गला
जनता का काटे,
पंजे ने कबरें खोदी रे!
लालटेन से
जली झुपड़िया
कमल चुभाता पल-पल काँटे।
सेठ-हितू हैं
अफसर नेता
अँधा न्याय ढा रहा आफत।
*
३०-७-२०१६
चिप्पियाँ Labels:
नवगीत
आचार्य संजीव वर्मा सलिल
बुधवार, 28 जुलाई 2021
घनाक्षरी
घनाक्षरी परिचय
घनाक्षरी के ९ प्रकार होते हैं;
१. मनहर: कुल वर्ण संख्या ३१. समान पदभार, समतुकांत, पदांत गुरु अथवा लघु-गुरु, चार चरण ८-८-८-७ वर्ण।
२. जनहरण: कुल वर्ण संख्या ३१. समान पदभार, समतुकांत, पदांत गुरु शेष सब वर्ण लघु।
३. कलाधर: कुल वर्ण संख्या ३१. समान पदभार, समतुकांत, पदांत लघु-गुरु, चार चरण ८-८-८-७ वर्ण ।
४. रूप: कुल वर्ण संख्या ३२. समान पदभार, समतुकांत, पदांत गुरु-लघु, चार चरण ८-८-८-८ वर्ण।
५. जलहरण: कुल वर्ण संख्या ३२. समान पदभार, समतुकांत, पदांत लघु-लघु, चार चरण ८-८-८-८ वर्ण।
६. डमरू: कुल वर्ण संख्या ३२. समान पदभार, समतुकांत, पदांत बंधन नहीं, चार चरण ८-८-८-८ लघु वर्ण।
७. कृपाण: कुल वर्ण संख्या ३२. समान पदभार, समतुकांत, पदांत गुरु-लघु, चार चरण, प्रथम ३ चरणों में समान अंतर तुकांतता, ८-८-८-८ वर्ण।
८. विजया: कुल वर्ण संख्या ३२. समान पदभार, समतुकांत, पदांत लघु-गुरु, चार चरण ८-८-८-८ वर्ण।
९. देव: कुल वर्ण संख्या ३३. समान पदभार, समतुकांत, पदांत ३ लघु-गुरु, चार चरण ८-८-८-९ वर्ण।
गायत्री सावित्री मैया!. धूप-छाँव सुख दाता, निश-दिन भजता है, जो वांछित फल पाता।
शारद-रमा-उमा हे!, हम सब संतानें हैं, निज मन जो भाता है, वह हर कवि गाता।।
बुद्धिप्रदाता मैया का, वर छंद भाव रस, मुक्तक गीत भजन, जनगण-मन भाता।
सदय रहो हे मैया!, सब भव-बाधा हर, सत-शिव-सुंदर हों, रचनाएँ सुखदाता।।
(नव घनाक्षरी - बत्तीस वार्णिक, ८-८-८-८ पर यति, पदांत यगण)
(नव घनाक्षरी - बत्तीस वार्णिक, ८-८-८-८ पर यति, पदांत यगण)
*
आठ-आठ-आठ-सात, पर यति रखकर, मनहर घनाक्षरी, छन्द कवि रचिए.
लघु-गुरु रखकर, चरण के आखिर में, 'सलिल'-प्रवाह-गति, वेग भी परखिए..
अश्व-पदचाप सम, मेघ-जलधार सम, गति अवरोध न हो, यह भी निरखिए.
करतल ध्वनि कर, प्रमुदित श्रोतागण- 'एक बार और' कहें, सुनिए-हरषिए..
लघु-गुरु रखकर, चरण के आखिर में, 'सलिल'-प्रवाह-गति, वेग भी परखिए..
अश्व-पदचाप सम, मेघ-जलधार सम, गति अवरोध न हो, यह भी निरखिए.
करतल ध्वनि कर, प्रमुदित श्रोतागण- 'एक बार और' कहें, सुनिए-हरषिए..
(मनहरण)
*
*
चाहते रहे जो हम / अन्य सब करें वही / हँस तजें जो भी चाह / उनके दिलों में रही
मोह वासना है यह / परार्थ साधना नहीं / नेत्र हैं मगर मुँदे / अग्नि इसलिए दही
मुक्त हैं मगर बँधे / कंठ हैं मगर रुँधे / पग बढ़े मगर रुके / सर उठे मगर झुके
जिद्द हमने ठान ली / जीत मन ने मान ली / हार छिपी देखकर / येन-केन जय गही
(विजया)
*
फूँकता कवित्त प्राण, डाल मुरदों में जान, दीप बाल अंधकार, ज़िन्दगी का हरता।
नर्मदा निनाद सुनो,सच की ही राह चुनो, जीतता सुधीर वीर, पीर पीर सहता।।
'सलिल'-प्रवाह पैठ, आगे बढ़ नहीं बैठ, सागर है दूर पूर, दूरी हो निकटता।
आना-जाना खाली हाथ, कौन कभी देता साथ, हो अनाथ भी सनाथ, प्रभु दे निकटता।।
नर्मदा निनाद सुनो,सच की ही राह चुनो, जीतता सुधीर वीर, पीर पीर सहता।।
'सलिल'-प्रवाह पैठ, आगे बढ़ नहीं बैठ, सागर है दूर पूर, दूरी हो निकटता।
आना-जाना खाली हाथ, कौन कभी देता साथ, हो अनाथ भी सनाथ, प्रभु दे निकटता।।
(कलाधर)
*
*
गीत-ग़ज़ल गाइये / डूबकर सुनाइए / त्रुटि नहीं छिपाइये / सीखिये-सिखाइए
शिल्प-नियम सीखिए / कथ्य समझ रीझिए / भाव भरे शब्द चुन / लय भी बनाइए
बिम्ब नव सजाइये / प्रतीक भी लगाइये / अलंकार कुछ नये / प्रेम से सजाइए
वचन-लिंग, क्रिया रूप / दोष न हों देखकर / आप गुनगुनाइए / वाह-वाह पाइए
(कलाधर)
*
शिल्प-नियम सीखिए / कथ्य समझ रीझिए / भाव भरे शब्द चुन / लय भी बनाइए
बिम्ब नव सजाइये / प्रतीक भी लगाइये / अलंकार कुछ नये / प्रेम से सजाइए
वचन-लिंग, क्रिया रूप / दोष न हों देखकर / आप गुनगुनाइए / वाह-वाह पाइए
(कलाधर)
*
कौन किसका है सगा? / किसने ना दिया दगा? / फिर भी प्रेम से पगा / जग हमें दुलारता
जो चला वही गिरा / उठ हँसा पुन: बढ़ा / आदि-अंत सादि-सांत / कौन छिप पुकारता?
रात बनी प्रात नित / प्रात बने रात फिर / दोपहर कथा कहे / साँझ नभ निहारता
काल-चक्र कब रुका? / सत्य कहो कब झुका? /मेहनती नहीं चुका / धरांगन बुहारता
(विजया)
*
जो चला वही गिरा / उठ हँसा पुन: बढ़ा / आदि-अंत सादि-सांत / कौन छिप पुकारता?
रात बनी प्रात नित / प्रात बने रात फिर / दोपहर कथा कहे / साँझ नभ निहारता
काल-चक्र कब रुका? / सत्य कहो कब झुका? /मेहनती नहीं चुका / धरांगन बुहारता
(विजया)
*
न चाहतें, न राहतें / न फैसले, न फासले / दर्द-हर्ष मिल सहें / साथ-साथ हाथ हों
न मित्रता, न शत्रुता / न वायदे, न कायदे / कर्म-धर्म नित करें / उठे हुए माथ हों
न दायरे, न दूरियाँ / रहें न मजबूरियाँ / फूल-शूल, धूप-छाँव / नेह नर्मदा बनें
गिर-उठें, बढ़े चलें / काल से विहँस लड़ें / दंभ-द्वेष-छल मिटें / कोशिशें कथा बुनें
न मित्रता, न शत्रुता / न वायदे, न कायदे / कर्म-धर्म नित करें / उठे हुए माथ हों
न दायरे, न दूरियाँ / रहें न मजबूरियाँ / फूल-शूल, धूप-छाँव / नेह नर्मदा बनें
गिर-उठें, बढ़े चलें / काल से विहँस लड़ें / दंभ-द्वेष-छल मिटें / कोशिशें कथा बुनें
(कलाधर)
*
*
चाहते रहे जो हम / अन्य सब करें वही / हँस तजें जो भी चाह / उनके दिलों में रही
मोह वासना है यह / परार्थ साधना नहीं / नेत्र हैं मगर मुँदे / अग्नि इसलिए दही
मुक्त हैं मगर बँधे / कंठ हैं मगर रुँधे / पग बढ़े मगर रुके / सर उठे मगर झुके
जिद्द हमने ठान ली / जीत मन ने मान ली / हार छिपी देखकर / येन-केन जय गही
मोह वासना है यह / परार्थ साधना नहीं / नेत्र हैं मगर मुँदे / अग्नि इसलिए दही
मुक्त हैं मगर बँधे / कंठ हैं मगर रुँधे / पग बढ़े मगर रुके / सर उठे मगर झुके
जिद्द हमने ठान ली / जीत मन ने मान ली / हार छिपी देखकर / येन-केन जय गही
(विजया)
*
*
सावन में झूम-झूम, डालों से लूम-लूम, झूला झूल दुःख भूल, हँसिए हँसाइये.
एक दूसरे की बाँह, गहें बँधें रहे चाह, एक दूसरे को चाह, कजरी सुनाइये..
दिल में रहे न दाह, तन्नक पले न डाह, मन में भरे उछाह, पेंग को बढ़ाइए.
राखी की है साखी यही, पले प्रेम-पाखी यहीं, भाई-भगिनी का नाता, जन्म भर निभाइए..
एक दूसरे की बाँह, गहें बँधें रहे चाह, एक दूसरे को चाह, कजरी सुनाइये..
दिल में रहे न दाह, तन्नक पले न डाह, मन में भरे उछाह, पेंग को बढ़ाइए.
राखी की है साखी यही, पले प्रेम-पाखी यहीं, भाई-भगिनी का नाता, जन्म भर निभाइए..
(विजया घनाक्षरी)
*
*
संकट में लाज थी, गिरी सिर पे गाज थी, शत्रु-दृष्टि बाज थी, नैया कैसे पार हो?
करनावती महारानी, पूजतीं माता भवानी, शत्रु है बली बहुत, देश की न हार हो..
राखी हुमायूँ को भेजी, बादशाह ने सहेजी, बहिन की पत राखी, नेह का करार हो.
शत्रु को खदेड़ दिया, बहिना को मान दिया, नेह का जलाया दिया, भेंट स्वीकार हो..
(कलाधर)
*
महाबली बलि को था, गर्व हुआ संपदा का, तीन लोक में नहीं है, मुझ सा कोई धनी.
मनमानी करूँ भी तो, रोक सकता न कोई, हूँ सुरेश से अधिक, शक्तिवान औ' गुनी..
महायज्ञ कर दिया, कीर्ति यश बल लिया, हरि को दे तीन पग, धरा मौन था गुनी.
सभी कुछ छिन गया, मुख न मलिन हुआ, हरि की शरण गया, सेवा व्रत ले धुनी..
(कलाधर)
*
बाधा दनु-गुरु बने, विपद मेघ थे घने, एक नेत्र गँवा भगे, थी व्यथा अनसुनी.
रक्षा सूत्र बाँधे बलि, हरि से अभय मिली, हृदय की कली खिली, पटकथा यूँ बनी..
विप्र जब द्वार आये, राखी बांध मान पाये, शुभाशीष बरसाये, फिर न हो ठनाठनी.
कोई किसी से न लड़े, हाथ रहें मिले-जुड़े, साथ-साथ हों खड़े, राखी मने सावनी..
(कलाधर
*
बागी थे हों अनुरागी, विरागी थे हों सुहागी, कोई भी न हो अभागी, दैव से मनाइए.सभी के माथे हो टीका, किसी का न पर्व फीका, बहनों का नेह नीका, राखी-गीत गाइए..
कलाई रहे न सूनी, राखी बाँध शोभा दूनी, आरती की ज्वाल धूनी, अशुभ मिटाइए.
मीठा खाएँ मीठा बोलें, जीवन में रस घोलें, बहना के पाँव छूलें, शुभाशीष पाइए..
(कलाधर)
*
बंधन न रास आये, बँधना न मन भाये, स्वतंत्रता ही सुहाये, सहज स्वभाव है.
निर्बंध अगर रहें, मर्याद को न गहें, कोई किसी को न सहें, चैन का अभाव है..
मना राखी नेह पर्व, करिए नातों पे गर्व, निभायें संबंध सर्व, नेह का निभाव है.
बंधन जो प्रेम का हो, कुशल का क्षेम का हो, धरम का नेम हो, 'सलिल' सत्प्रभाव है..
*
बंधन न रास आये, बँधना न मन भाये, स्वतंत्रता ही सुहाये, सहज स्वभाव है.
निर्बंध अगर रहें, मर्याद को न गहें, कोई किसी को न सहें, चैन का अभाव है..
मना राखी नेह पर्व, करिए नातों पे गर्व, निभायें संबंध सर्व, नेह का निभाव है.
बंधन जो प्रेम का हो, कुशल का क्षेम का हो, धरम का नेम हो, 'सलिल' सत्प्रभाव है..
(कलाधर)
*
कल :
कज्जल के कूट पर दीप शिखा सोती है कि, श्याम घन मंडल मे दामिनी की धारा है ।
भामिनी के अंक में कलाधर की कोर है कि, राहु के कबंध पै कराल केतु तारा है ।
शंकर कसौटी पर कंचन की लीक है कि, तेज ने तिमिर के हिये मे तीर मारा है ।
काली पाटियों के बीच मोहनी की माँग है कि, ढ़ाल पर खाँड़ा कामदेव का दुधारा है ।
काले केशों के बीच सुन्दरी की माँग की शोभा का वर्णन करते हुए कवि ने ८ उपमाएँ दी हैं.-
१. काजल के पर्वत पर दीपक की बाती.
२. काले मेघों में बिजली की चमक.
३. नारी की गोद में बाल-चन्द्र.
४. राहु के काँधे पर केतु तारा.
५. कसौटी के पत्थर पर सोने की रेखा.
६. काले बालों के बीच मन को मोहने वाली स्त्री की माँग.
७. अँधेरे के कलेजे में उजाले का तीर.
८. ढाल पर कामदेव की दो धारवाली तलवार.
कबंध=धड़. राहु काला है और केतु तारा स्वर्णिम, कसौटी के काले पत्थर पर रेखा खींचकर सोने को पहचाना जाता है. ढाल पर खाँडे की चमकती धार. यह सब केश-राशि के बीच माँग की दमकती रेखा का वर्णन है
*
कल :
कज्जल के कूट पर दीप शिखा सोती है कि, श्याम घन मंडल मे दामिनी की धारा है ।
भामिनी के अंक में कलाधर की कोर है कि, राहु के कबंध पै कराल केतु तारा है ।
शंकर कसौटी पर कंचन की लीक है कि, तेज ने तिमिर के हिये मे तीर मारा है ।
काली पाटियों के बीच मोहनी की माँग है कि, ढ़ाल पर खाँड़ा कामदेव का दुधारा है ।
काले केशों के बीच सुन्दरी की माँग की शोभा का वर्णन करते हुए कवि ने ८ उपमाएँ दी हैं.-
१. काजल के पर्वत पर दीपक की बाती.
२. काले मेघों में बिजली की चमक.
३. नारी की गोद में बाल-चन्द्र.
४. राहु के काँधे पर केतु तारा.
५. कसौटी के पत्थर पर सोने की रेखा.
६. काले बालों के बीच मन को मोहने वाली स्त्री की माँग.
७. अँधेरे के कलेजे में उजाले का तीर.
८. ढाल पर कामदेव की दो धारवाली तलवार.
कबंध=धड़. राहु काला है और केतु तारा स्वर्णिम, कसौटी के काले पत्थर पर रेखा खींचकर सोने को पहचाना जाता है. ढाल पर खाँडे की चमकती धार. यह सब केश-राशि के बीच माँग की दमकती रेखा का वर्णन है
चिप्पियाँ Labels:
घनाक्षरी
आचार्य संजीव वर्मा सलिल
विमर्श, जात, कायस्थ
विमर्श -
'जात' क्रिया (जना/जाया=जन्म दिया, जाया=जगजननी का एक नाम) से आशय 'जन्मना' होता है, जन्म देने की क्रिया को 'जातक कर्म', जन्म लिये बच्चे को 'जातक', जन्म देनेवाली को 'जच्चा' कह्ते हैं। जन्मे बच्चे के गुण-अवगुण उसकी जाति निर्धारित करते हैं. बुद्ध की जातक कथाओं में विविध योनियों में जन्म लिये बुद्ध के ईश्वरत्व की चर्चा है। जाति जन्मना नहीं कर्मणा होती है. जब कोई सज्जन दिखनेवाला व्यक्ति कुछ निम्न हर्कात कर दे तो बुंदेली में एक लोकोक्ति कही जाती है- 'जात दिखा गया'. यहाँ भी जात का अर्थ उसकी असलियत या सच्चाई से है। सामान्यतः समान जाति का अर्थ समान गुणों, योग्यता या अभिरुचि से है।
आप ही नहीं हर जीव कायस्थ है। पुराणकार के अनुसार "कायास्थितः सः कायस्थः"
अर्थात वह (निराकार परम्ब्रम्ह) जब किसी काया का निर्माण कर अपने अन्शरूप (आत्मा) से उसमें स्थित होता है, तब कायस्थ कहा जाता है। व्यावहारिक अर्थ में जो इस सत्य को जानते-मानते हैं वे खुद को कायस्थ कहने लगे, शेष कायस्थ होते हुए भी खुद को अन्य जाति का कहते रहे।दुर्भाग्य से लंबे आपदा काल में कायस्थ भी इस सच को भूल गये या आचरण में नहीं ला सके। कंकर-कंकर में शंकर, कण-कण में भगवान, आत्मा सो परमात्मा आदि इसी सत्य की घोषणा करते हैं।
जातिवाद का वास्तविक अर्थ अपने गुणों-ग्यान आदि अन्यों को सिखाना है ताकि वह भी समान योग्यता या जाति का हो सके।
***
समीक्षा, अवनीश त्रिपाठी, नवगीत
कृति समीक्षा :
'दिन कटे हैं धूप चुनते' हौसले ले स्वप्न बुनते
समीक्षाकार : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण : दिन कटे हैं धूप चुनते, नवगीत संग्रह, अवनीश त्रिपाठी, प्रथम संस्करण २०१९, आईएसबीएन ९७८९३८८९४६२१६, आकार २२ से.मी. X १४ से.मी., आवरण सजिल्द बहुरंगी, जैकेट सहित, बेस्ट बुक बडीज टेक्नोलॉजीस प्रा. लि. नई दिल्ली, कृतिकार संपर्क - ग्राम गरएं, जनपद सुल्तानपुर २२७३०४, चलभाष ९४५१५५४२४३, ईमेल tripathiawanish9@gmail.com]
*
धरती के
मटमैलेपन में
इंद्रधनुष बोने से पहले,
मौसम के अनुशासन की
परिभाषा का विश्लेषण कर लो।
साहित्य की जमीन में गीत की फसल उगाने से पहले देश, काल, परिस्थितियों और मानवीय आकांक्षाओं-अपेक्षाओं के विश्लेषण का आव्हान करती उक्त पंक्तियाँ गीत और नवगीत के परिप्रेक्ष्य में पूर्णत: सार्थक हैं। तथाकथित प्रगतिवाद की आड़ में उत्सवधर्मी गीत को रुदन का पर्याय बनाने की कोशिश करनेवालों को यथार्थ का दर्पण दिखाते नवगीत संग्रह "दिन कटे हैं धूप चुनते" में नवोदित नवगीतकार अवनीश त्रिपाठी ने गीत के उत्स "रस" को पंक्ति-पंक्ति में उँड़ेला है। मौलिक उद्भावनाएँ, अनूठे बिम्ब, नव रूपक, संयमित-संतुलित भावाभिव्यक्ति और लयमय अभिव्यक्ति का पंचामृती काव्य-प्रसाद पाकर पाठक खुद को धन्य अनुभव करता है।
स्वर्ग निरंतर
उत्सव में है
मृत्युलोक का चित्र गढ़ो जब,
वर्तमान की कूची पकड़े
आशा का अन्वेषण कर लो।
मिट्टी के संशय को समझो
ग्रंथों के पन्ने तो खोलो,
तर्कशास्त्र के सूत्रों पर भी
सोचो-समझो कुछ तो बोलो।
हठधर्मी सूरज के
सम्मुख
फिर तद्भव की पृष्ठभूमि में
जीवन की प्रत्याशावाले
तत्सम का पारेषण कर लो।
मानव की सनातन भावनाओं और कामनाओं का सहयात्री गीत-नवगीत केवल करुणा तक सिमट कर कैसे जी सकता है? मनुष्य के अरमानों, हौसलों और कोशिशों का उद्गम और परिणिति डरे, दुःख, पीड़ा, शोक में होना सुनिश्चित हो तो कुछ करने की जरूरत ही कहाँ रह जाती है? गीतकार अवनीश 'स्वर्ग निरंतर उत्सव में है' कहते हुए यह इंगित करते हैं कि गीत-नवगीत को उत्सव से जोड़कर ही रचनाकार संतुष्टि और सार्थकता के स्वर्ग की अनुभूति कर सकता है।
नवगीत के अतीत और आरंभिक मान्यताओं का प्रशस्तिगान करते विचारधारा विशेष के प्रति प्रतिबद्ध गीतकार जब नवता को विचार के पिंजरे में कैद कर देते हैं तो "झूमती / डाली लता की / महमहाई रात भर" जैसी जीवंत अनुभूतियाँ और अभिव्यक्तियाँ गीत से दूर हो जाती हैं और गीत 'रुदाली' या 'स्यापा' बनकर जिजीविषा की जयकार करने का अवसर न पाकर निष्प्राण हो जाता है। अवनीश ने अपने नवगीतों में 'रस' को मूर्तिमंत किया है-
गुदगुदाकर
मंजरी को
खुश्बूई लम्हे खिले,
पंखुरी के
पास आई
गंध ले शिकवे-गिले,
नेह में
गुलदाउदी
रह-रह नहाई रात भर।
कवि अपनी भाव सृष्टि का ब्रम्हा होता है। वह अपनी दृष्टि से सृष्टि को निरखता-परखता और मूल्यांकित करता है। "ठहरी शब्द-नदी" उसे नहीं रुचती। गीत को वैचारिक पिंजरे में कैद कर उसके पर कुतरने के पक्षधरों पर शब्दाघात करता कवि कहता है-
"चुप्पी साधे पड़े हुए हैं
कितने ही प्रतिमान यहाँ
अर्थ हीन हो चुकी समीक्षा
सोई चादर तान यहाँ
कवि के मंतव्य को और अधिक स्पष्ट करती हैं निम्न पंक्तियाँ-
अक्षर-अक्षर आयातित हैं
स्वर के पाँव नहीं उठते हैं
छलते संधि-समास पीर में
रस के गाँव नहीं जुटते हैं।
अलंकार ले
चलती कविता
सर से पाँव लदी।
अलंकार और श्रृंगार के बिना केवल करुणा एकांगी है। अवनीश एकांगी परिदृश्य का सम्यक आकलन करते हैं -
सौंपकर
थोथे मुखौटे
और कोरी वेदना,
वस्त्र के झीने झरोखे
टाँकती अवहेलना,
दुःख हुए संतृप्त लेकिन
सुख रहे हर रोज घुनते।
सुख को जीते हुए दुखों के काल्पनिक और मिथ्या नवगीत लिखने के प्रवृत्ति को इंगित कर कवि कहता है-
भूख बैठी प्यास की लेकर व्यथा
क्या सुनाये सत्य की झूठी कथा
किस सनातन सत्य से संवाद हो
क्लीवता के कर्म पर परिवाद हो
और
चुप्पियों ने मर्म सारा
लिख दिया जब चिट्ठियों में,
अक्षरों को याद आए
शक्ति के संचार की
अवनीश के नवगीतों की कहन सहज-सरल और सरस होने के निकष पर सौ टका खरी है। वे गंभीर बात भी इस तरह कहते हैं कि वह बोझ न लगे -
क्यों जगाकर
दर्द के अहसास को
मन अचानक मौन होना चाहता है?
पूर्वाग्रहियों के ज्ञान को नवगीत की रसवंती नदी में काल्पनिक अभावों और संघर्षों से रक्त रंजीत हाथ दोने को तत्पर देखकर वे सजग करते हुए कहते हैं-
फिर हठीला
ज्ञान रसवंती नदी में
रक्त रंजित हाथ धोना चाहता है।
नवगीत की चौपाल के वर्तमान परिदृश्य पर टिप्पणी करते हुए वे व्यंजना के सहारे अपनी बात सामने रखते हुए कहते हैं कि साखी, सबद, रमैनी का अवमूल्यन हुआ है और तीसमारखाँ मंचों पर तीर चला कर अपनी भले ही खुद ठोंके पर कथ्य और भाव ओके नानी याद आ रही है-
रामचरित की
कथा पुरानी
काट रही है कन्नी
साखी-शबद
रमैनी की भी
कीमत हुई अठन्नी
तीसमारखाँ
मंचों पर अब
अपना तीर चलाएँ ,
कथ्य-भाव की हिम्मत छूटी
याद आ गई नानी।
और
आज तलक
साहित्य जिन्होंने
अभी नहीं देखा है,
उनके हाथों
पर उगती अब
कविताओं की रेखा।
नवगीत को दलितों की बपौती बनाने को तत्पर मठधीश दुहाई देते फिर रहे हैं कि नवगीत में छंद और लय की अपेक्षा दर्द और पीड़ा का महत्व अधिक है। शिल्पगत त्रुटियों, लय भंग अथवा छांदस त्रुटियों को छंदमुक्ति के नाम पर क्षम्य ही नहीं अनुकरणीय कहनेवालों को अवनीश उत्तर देते हैं-
मात्रापतन
आदि दोषों के
साहित्यिक कायल हैं
इनके नव प्रयोग से सहमीं
कवितायेँ घायल हैं
गले फाड़ना
फूहड़ बातें
और बुराई करना,
इन सब रोगों से पीड़ित हैं
नहीं दूसरा सानी।
'दिन कटे हैं धूप चुनते' का कवि केवल विसंगतियों अथवा भाषिक अनाचार के पक्षधरताओं को कटघरे में नहीं खड़ा करता अपितु क्या किया जाना चाहिए इसे भी इंगित करता है। संग्रह के भूमिकाकार मधुकर अष्ठाना भूमिका में लिखते हैं "कविता का उद्देश्य समाज के सम्मुख उसकी वास्तविकता प्रकट करना है, समस्या का यथार्थ रूप रखना है। समाधान खोजना तो समाज का ही कार्य है।' वे यह नहीं बताते कि जब समाज अपने एक अंग गीतकार के माध्यम से समस्या को उठता है तो वही समाज उसी गीतकार के माध्यम से समाधान क्यों नहीं बता सकता? समाधान, उपलब्धु, संतोष या सुख के आते ही सृजन और सृजनकार को नवगीत और नवगीतकारों के बिरादरी के बाहर कैसे खड़ा किया जा सकता है? अपनी विचारधारा से असहमत होनेवालों को 'जातबाहर' करने का धिकार किसने-किसे-कब दिया? विवाद में न पड़ते हुए अवनीश समाधान इंगित करते हैं-
स्वप्नों की
समिधायें लेकर
मन्त्र पढ़ें कुछ वैदिक,
अभिशापित नैतिकता के घर
आओ, हवं करें।
शमित सूर्य को
बोझल तर्पण
ायासित संबोधन,
आवेशित
कुछ घनी चुप्पियाँ
निरानंद आवाहन।
निराकार
साकार व्यवस्थित
ईश्वर का अन्वेषण,
अंतरिक्ष के पृष्ठों पर भी
क्षितिज चयन करें।
अपनी बात को और अधिक स्पष्ट करते हुए नवगीतकार कहता है-
त्रुटियों का
विश्लेषण करतीं
आहत मनोव्यथाएँ
अर्थहीन वाचन की पद्धति
चिंतन-मनन करें।
और
संस्कृत-सूक्ति
विवेचन-दर्शन
सूत्र-न्याय संप्रेषण
नैसर्गिक व्याकरण व्यवस्था
बौद्धिक यजन करें।
बौद्धिक यजन की दिशा दिखाते हुए कवि लिखता है -
पीड़ाओं
की झोली लेकर
तरल सुखों का स्वाद चखाया...
.... हे कविता!
जीवंत जीवनी
तुमने मुझको गीत बनाया।
सुख और दुःख को धूप-छाँव की तरह साथ-साथ लेकर चलते हैं अवनीश त्रिपाठी के नवगीत। नवगीत को वर्तमान दशक के नए नवगीतकारों ने पूर्व की वैचारिक कूपमंडूकता से बाहर निकालकर ताजी हवा दी है। जवाहर लाल 'तरुण', यतीन्द्र नाथ 'राही, कुमार रवींद्र, विनोद निगम, निर्मल शुक्ल, गिरि मोहन गुरु, अशोक गीते, संजीव 'सलिल', गोपालकृष्ण भट्ट 'आकुल', पूर्णिमा बर्मन, कल्पना रामानी, रोहित रूसिया, जयप्रकाश श्रीवास्तव, मधु प्रसाद, मधु प्रधान, संजय शुक्ल, संध्या सिंह, धीरज श्रीवास्तव, रविशंकर मिश्र बसंत शर्मा, अविनाश ब्योहार आदि के कई नवगीतों में करुणा से इतर वात्सल्य, शांत, श्रृंगार आदि रसों की छवि-छटाएँ ही नहीं दर्शन की सूक्तियों और सुभाषितों से सुसज्ज पंक्तियाँ भी नवगीत को समृद्ध कर नई दिशा दे रही है। इस क्रम में गरिमा सक्सेना और अवनीश त्रिपाठी का नवगीतांगन में प्रवेश नव परिमल की सुवास से नवगीत के रचनाकारों, पाठकों और श्रोताओं को संतृप्त करेगा।
वैचारिक कूपमंडूकता के कैदी क्या कहेंगे इसका पूर्वानुमान कर नवगीत ही उन्हें दशा दिखाता है-
चुभन
बहुत है वर्तमान में
कुछ विमर्श की बातें हों अब,
तर्क-वितर्कों से पीड़ित हम
आओ समकालीन बनें।
समकालीन बनने की विधि भी जान लें-
कथ्यों को
प्रामाणिक कर दें
गढ़ दें अक्षर-अक्षर,
अंधकूप से बाहर निकलें
थोड़ा और नवीन बनें।
'दर्द' की देहरी लांघकर 'उत्सव' के आँगन में कदम धरता नवगीत यह बताता है की अब परिदृश्य परिवर्तित हो गया है-
खोज रहे हम हरा समंदर,
मरुथल-मरुथल नीर,
पहुँच गए फिर, चले जहाँ से,
उस गड़ही के तीर .
नवगीत विसंगतियों को नकारता नहीं उन्हें स्वीकारता है फिर कहता है-
चेत गए हैं अब तो भैया
कलुआ और कदीर।
यह लोक चेतना ही नवगीत का भविष्य है। अनीति को बेबस ऐसे झेलकर आँसू बहन नवगीत को अब नहीं रुच रहा। अब वह ज्वालामुखी बनकर धधकना और फिर आनंदित होने-करने के पथ पर चल पड़ा है -
'ज्वालामुखी हुआ मन फिर से
आग उगलने लगता है जब
गीत धधकने लगता है तब
और
खाली बस्तों में किताब रख
तक्षशिला को जीवित कर दें
विश्व भारती उगने दें हम
फिर विवेक आनंदित कर दें
परमहंस के गीत सुनाएँ
नवगीत को नव आयामों में गतिशील बनाने के सत्प्रयास हेति अवनीश त्रिपाठी बढ़ाई के पात्र हैं। उन्होंने साहित्यिक विरासत को सम्हाला भर नहीं है, उसे पल्लवित-पुष्पित भी किया है। उनकी अगली कृति की उत्कंठा से प्रतीक्षा मेरा समीक्षक ही नहीं पाठक भी करेगा।
==============
[संपर्क: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ७९९९५५९६१८, ईमेल : salil.sanjiv@gmail.com]
चिप्पियाँ Labels:
अवनीश त्रिपाठी,
नवगीत,
समीक्षा
आचार्य संजीव वर्मा सलिल
मंगलवार, 27 जुलाई 2021
लोकगीत - भुन्सारे चिरैया
लोकगीत -
भुन्सारे चिरैया
*
नई आई,
बब्बा! नई आई
भुन्सारे चरैया नई आई
*
पीपर पै बैठत थी, काट दओ कैंने?
काट दओ कैंने? रे काट दओ कैंने?
डारी नें पाई तो भरमाई
भुन्सारे चरैया नई आई
नई आई,
सैयां! नई आई
*
तला में पीयत ती, घूँट-घूँट पानी
घूँट-घूँट पानी रे घूँट-घूँट पानी
टला खों पूरो तो रिरयाई
भुन्सारे चरैया नई आई
नई आई,
गुइयाँ! नई आई
*
फटकन सें टूंगत ती बेर-बेर दाना
बेर-बेर दाना रे बेर-बेर दाना
सूपा खों फेंका तो पछताई
भुन्सारे चरैया नई आई
नई आई,
लल्ला! नई आई
*
८-२-२०१६
भुन्सारे चिरैया
*
नई आई,
बब्बा! नई आई
भुन्सारे चरैया नई आई
*
पीपर पै बैठत थी, काट दओ कैंने?
काट दओ कैंने? रे काट दओ कैंने?
डारी नें पाई तो भरमाई
भुन्सारे चरैया नई आई
नई आई,
सैयां! नई आई
*
तला में पीयत ती, घूँट-घूँट पानी
घूँट-घूँट पानी रे घूँट-घूँट पानी
टला खों पूरो तो रिरयाई
भुन्सारे चरैया नई आई
नई आई,
गुइयाँ! नई आई
*
फटकन सें टूंगत ती बेर-बेर दाना
बेर-बेर दाना रे बेर-बेर दाना
सूपा खों फेंका तो पछताई
भुन्सारे चरैया नई आई
नई आई,
लल्ला! नई आई
*
८-२-२०१६
चिप्पियाँ Labels:
बुंदेली गीत भुन्सारे चिरैया,
लोकगीत
आचार्य संजीव वर्मा सलिल
बुंदेली नवगीत
बुंदेली नवगीत
*
हम का कर रए?
जे मत पूछो,
तुम का कर रए
जे बतलाओ?
*
हमरो स्याह सुफेद सरीखो
तुमरो धौला कारो दीखो
पंडज्जी ने नोंचो-खाओ
हेर सनिस्चर भी सरमाओ
घना बाज रओ थोथा दाना
ठोस पका
हिल-मिल खा जाओ
हम का कर रए?
जे मत पूछो,
तुम का कर रए
जे बतलाओ?
*
हमरो पाप पुन्न सें बेहतर
तुमरो पुन्न पाप सें बदतर
होते दिख रओ जा जादातर
ऊपर जा रो जो बो कमतर
रोन न दे मारे भी जबरा
खूं कहें आँसू
चुप पी जाओ
हम का कर रए?
जे मत पूछो,
तुम का कर रए
जे बतलाओ?
*
8.2.2016
*
हम का कर रए?
जे मत पूछो,
तुम का कर रए
जे बतलाओ?
*
हमरो स्याह सुफेद सरीखो
तुमरो धौला कारो दीखो
पंडज्जी ने नोंचो-खाओ
हेर सनिस्चर भी सरमाओ
घना बाज रओ थोथा दाना
ठोस पका
हिल-मिल खा जाओ
हम का कर रए?
जे मत पूछो,
तुम का कर रए
जे बतलाओ?
*
हमरो पाप पुन्न सें बेहतर
तुमरो पुन्न पाप सें बदतर
होते दिख रओ जा जादातर
ऊपर जा रो जो बो कमतर
रोन न दे मारे भी जबरा
खूं कहें आँसू
चुप पी जाओ
हम का कर रए?
जे मत पूछो,
तुम का कर रए
जे बतलाओ?
*
8.2.2016
चिप्पियाँ Labels:
बुंदेली नवगीत
आचार्य संजीव वर्मा सलिल
नवगीत : का बिगार दओ?
नवगीत :
का बिगार दओ?
*
काए फूँक रओ बेदर्दी सें
हो खें भाव बिभोर?
का बिगार दो तोरो मैंने
भइया रामकिसोर??
*
हँस खेलत ती
संग पवन खें
पेंग भरत ती खूब।
तेंदू बिरछा
बाँह झुलाउत
रओ खुसी में डूब।
कें की नजर
लग गई दइया!
धर लओ मो खों तोर।
का बिगार दो तोरो मैंने
भइया रामकिसोर??
*
काट-सुखा
भर दई तमाखू
डोरा दओ लपेट।
काय नें समझें
महाकाल सें
कर लई तुरतई भेंट।
लत नें लगईयो
बीमारी सौ
दैहें तोय झिंझोर
का बिगार दो तोरो मैंने
भइया रामकिसोर??
*
जिओ, जियन दो
बात मान ल्यो
पीओ नें फूकों यार!
बढ़े फेंफडे में
दम तुरतई
गाड़ी हो नें उलार।
चुप्पै-चाप
मान लें बतिया
सुनें न कौनऊ सोर।
का बिगार दो तोरो मैंने
भइया रामकिसोर??
*
अपनों नें तो
मेहरारू-टाबर
का करो ख़याल।
गुटखा-पान,
बिड़ी लत छोड़ो
नई तें होय बबाल।
करत नसा नें
कब्बऊ कौनों
पंछी, डंगर, ढोर।
का बिगार दो तोरो मैंने
भइया रामकिसोर??
*
बात मान लें
निज हित की जो
बोई कहाउत सयानो।
तेन कैसो
नादाँ है बीरन
साँच नई पहचानो।
भौत करी अंधेर
जगो रे!
टेरे उजरी भोर।
का बिगार दो तोरो मैंने
भइया रामकिसोर??
*
२१-११-२०१५
कालिंदी विहार लखनऊ
का बिगार दओ?
*
काए फूँक रओ बेदर्दी सें
हो खें भाव बिभोर?
का बिगार दो तोरो मैंने
भइया रामकिसोर??
*
हँस खेलत ती
संग पवन खें
पेंग भरत ती खूब।
तेंदू बिरछा
बाँह झुलाउत
रओ खुसी में डूब।
कें की नजर
लग गई दइया!
धर लओ मो खों तोर।
का बिगार दो तोरो मैंने
भइया रामकिसोर??
*
काट-सुखा
भर दई तमाखू
डोरा दओ लपेट।
काय नें समझें
महाकाल सें
कर लई तुरतई भेंट।
लत नें लगईयो
बीमारी सौ
दैहें तोय झिंझोर
का बिगार दो तोरो मैंने
भइया रामकिसोर??
*
जिओ, जियन दो
बात मान ल्यो
पीओ नें फूकों यार!
बढ़े फेंफडे में
दम तुरतई
गाड़ी हो नें उलार।
चुप्पै-चाप
मान लें बतिया
सुनें न कौनऊ सोर।
का बिगार दो तोरो मैंने
भइया रामकिसोर??
*
अपनों नें तो
मेहरारू-टाबर
का करो ख़याल।
गुटखा-पान,
बिड़ी लत छोड़ो
नई तें होय बबाल।
करत नसा नें
कब्बऊ कौनों
पंछी, डंगर, ढोर।
का बिगार दो तोरो मैंने
भइया रामकिसोर??
*
बात मान लें
निज हित की जो
बोई कहाउत सयानो।
तेन कैसो
नादाँ है बीरन
साँच नई पहचानो।
भौत करी अंधेर
जगो रे!
टेरे उजरी भोर।
का बिगार दो तोरो मैंने
भइया रामकिसोर??
*
२१-११-२०१५
कालिंदी विहार लखनऊ
चिप्पियाँ Labels:
नवगीत :
का बिगार दओ?
आचार्य संजीव वर्मा सलिल
लघुकथा,गरम आँसू
लघुकथा:
गरम आँसू
*
टप टप टप
चेहरे पर गिरती अश्रु-बूँदों से उसकी नीद खुल गयी, सास को चुपाते हुए कारण पूछा तो उसने कहा- 'बहुरिया! मोय लला से माफी दिला दे रे!मैंने बापे सक करो। परोस का चुन्ना कहत हतो कि लला की आँखें कौनौ से लर गयीं, तुम नें मानीं मने मोरे मन में संका को बीज पर गओ। सिव जी के दरसन खों गई रई तो पंडत जी कैत रए बिस्वास ही फल देत है, संका के दुसमन हैं संकर जी। मोरी सगरी पूजा अकारत भई'।
''नई मइया! ऐसो नें कर, असगुन होत है। तैं अपने मोंडा खों समझत आय। मन में फिकर हती सो संका बन खें सामने आ गई हती। भली भई, मन कौन काँटा निकर गओ। मो खों असीस दे सुहाग सलामत रहे।''
एक दूसरे की बाँहों में लिपटी सास-बहू में माँ-बेटी के गलों और मनों को शीतल कर मुस्कुरा रहे थे गरम आँसू।
***
९.३.२०१६
-आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, ९४२५१ ८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com
गीत कनैया नई सुदरो
गीत
कनैया नई सुदरो
*
नई सुदरो, बब्बा नई सुदरो
मन कारो,
कनैया नई सुदरो
*
कालिज मा जा खें
नें खोलें किताबें
भासन दें, गुंडों सें
ऊधम कराबें
अधनंगी मोंड़िन सँग
फोटू खिंचाबे
भारत मैया कीं
नाक कटाबे
फरज निभाबें मा
बा पिछरो
मन कारो,
कनैया नई सुदरो
*
दुसमन की जै-जै के
नारे लगाए
भारत की सैना पे
उँगरी उठाए
पत्तल में खा-खा खें
छिदरा गिनाए
थूके खों चाटे, नें
तनकऊ लजाए
सूकर है मैला में
जाय सपरो
मन कारो,
कनैया नई सुदरो
*
१३.३.२०१६
सामयिक फाग:
दिल्ली के रंग
*
दिल्ली के रंग रँगो गुइयाँ।
जुलुस मिलें दिन-रैन, लगें नारे कई बार सुनो गुइयाँ।।
जे एन यू में बसो कनैया, उगले ज़हर बचो गुइयाँ।
संसद में कालिया कई, चक्कर में नाँय फँसो गुइयाँ।।
मम्मी-पप्पू की बलिहारी, माथा ठोंक हँसो गुइयाँ।।
छप्पन इंची छाती पंचर, सूजा लाओ सियों गुइयाँ।।
पैले आप-आप कर रए रे, छूटी ट्रेन न रो गुइयाँ।।
नेताजी खों दाँव चूक रओ, माया माँय धँसो गुइयाँ।।
थाना फुँका बता रईं ममता, अपराधी छूटो गुइयाँ।।
सुसमा-ईरानी जब बोलें, चुप्पै-चाप भगो गुइयाँ।।
***
२०.३.२०१६
कनैया नई सुदरो
*
नई सुदरो, बब्बा नई सुदरो
मन कारो,
कनैया नई सुदरो
*
कालिज मा जा खें
नें खोलें किताबें
भासन दें, गुंडों सें
ऊधम कराबें
अधनंगी मोंड़िन सँग
फोटू खिंचाबे
भारत मैया कीं
नाक कटाबे
फरज निभाबें मा
बा पिछरो
मन कारो,
कनैया नई सुदरो
*
दुसमन की जै-जै के
नारे लगाए
भारत की सैना पे
उँगरी उठाए
पत्तल में खा-खा खें
छिदरा गिनाए
थूके खों चाटे, नें
तनकऊ लजाए
सूकर है मैला में
जाय सपरो
मन कारो,
कनैया नई सुदरो
*
१३.३.२०१६
सामयिक फाग:
दिल्ली के रंग
*
दिल्ली के रंग रँगो गुइयाँ।
जुलुस मिलें दिन-रैन, लगें नारे कई बार सुनो गुइयाँ।।
जे एन यू में बसो कनैया, उगले ज़हर बचो गुइयाँ।
संसद में कालिया कई, चक्कर में नाँय फँसो गुइयाँ।।
मम्मी-पप्पू की बलिहारी, माथा ठोंक हँसो गुइयाँ।।
छप्पन इंची छाती पंचर, सूजा लाओ सियों गुइयाँ।।
पैले आप-आप कर रए रे, छूटी ट्रेन न रो गुइयाँ।।
नेताजी खों दाँव चूक रओ, माया माँय धँसो गुइयाँ।।
थाना फुँका बता रईं ममता, अपराधी छूटो गुइयाँ।।
सुसमा-ईरानी जब बोलें, चुप्पै-चाप भगो गुइयाँ।।
***
२०.३.२०१६
चिप्पियाँ Labels:
गीत कनैया नई सुदरो
आचार्य संजीव वर्मा सलिल
सोमवार, 26 जुलाई 2021
शिवमहिम्न स्तोत्र
🎊🎊🎊🎊🎊🎊🎊🎊 ।। शिव महिम्न स्तोत्रम् ।। 🎊🎊🎊🎊🎊🎊🎊🎊🎊🎊
🎊🎊🎊🎊🎊 डॉ. तेजप्रकाश पूर्णानंद व्यास 917987713115 🎊🎊🎊🎊🎊
***
श्रावण मास में भूत भावन शिव शंकर की सहजता सरलता सौम्यता सादगी का अवचेतन मन से पूर्ण श्रद्धा व समर्पण के साथ स्मरण करने से भोले शिव प्रसन्न होते हैं। महिम्न स्तोत्रम् में शिव के दिव्य स्वरूप एवं उनकी सादगी का सुवर्णन है। इस महिम्न स्तोत्र के पृष्ठ में अद्भुत अलौकिक सुंदर कथा प्रचलित है।
चित्ररथ नाम का राजा था। वह भगवान शिव का अद्भूतब भक्त था। उसने एक अद्भुत सुंदर उद्यान निर्मित किया , जिसमें विभिन्न रङ्गों तथा खुशबुओं के पुष्प थे। प्रतिदिन दिन राजा उन पुष्पों से शिव जी की पूजा करते थे।
फिर एक दिन पुष्पदंत नामक गन्धर्व उस राजा के उद्यान के समीप से जा रहे थे। उद्यान की अनुपम अद्भूत सुंदरता ने पुष्पदंत गंधर्व को आकर्षित किया ।पुष्पदंत ने उद्यान के पुष्पों को चुरा लिया। अगले दिन चित्ररथ को पूजा हेतु पुष्प प्राप्त नहीं हुए।
उद्यान की अनुपम सुन्दरता और आकर्षक पुष्पों के सौंदर्य पर मुग्ध पुष्पदंत प्रतिदिन पुष्प की चोरी करने लगा। कौन पुष्पों को प्रतिदिन तोड़ ले जाता है ? राजा सारे प्रयत्नों उपरान्त भी राजा जान नहीं पाया कि उद्यान से पुष्प प्रतिदिन कौन चुरा ले जाता है ? क्योंकि पुष्पदंत अपनी दिव्य शक्तियों के कारण अदृश्य बना रहता था।
राजा चित्ररथ ने एक अद्भुत समाधान निकाला। उन्होंने शिव को अर्पित पुष्प एवं विल्व पत्रों को उद्यान में बिछा दिया। राजा के उपाय से अनभिज्ञ पुष्पदंत ने उन पुष्पों को अपने पैरो से कुचल दिया। इससे पुष्पदंत की दिव्य शक्तिओं का क्षय हो गया।
पुष्पदंत स्वयं भी महान शिव भक्त था। अपनी त्रुटि का बोध होने पर उसने इस परम स्तोत्र के रचना की , जिससे प्रसन्न होकर महादेव ने उसकी गलती को क्षमा प्रदान कर पुष्पदंत के दिव्य स्वरूप को पुनः प्रदान किया।
शिव महिम्न स्तोत्रम् :-
महिम्नः पारं ते परमविदुषो यद्यसदृशी
स्तुतिर्ब्रह्मादीनामपि तदवसन्नास्त्वयि गिरः
अथाऽवाच्यः सर्वः स्वमतिपरिणामावधि गृणन्
ममाप्येष स्तोत्रे हर निरपवादः परिकरः
हे हर ! आप प्राणी मात्र के कष्टों को हराने वाले हैं। मैं इस स्तोत्र द्वारा आपकी वंदना कर रहा हूं जो कदाचित आपके वंदना के योग्य न भी हो पर हे महादेव स्वयं ब्रह्मा और अन्य देवगण भी आपके चरित्र की पूर्ण गुणगान करने में सक्षम नहीं हैं। जिस प्रकार एक पक्षी अपनी क्षमता के अनुसार ही आसमान में उड़ान भर सकता है उसी प्रकार मैं भी अपनी यथाशक्ति आपकी आराधना करता हूं।।
अतीतः पंथानं तव च महिमा वाङ्मनसयोः
अतद्व्यावृत्त्या यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि
स कस्य स्तोत्रव्यः कतिविधगुणः कस्य विषयः
पदे त्वर्वाचीने पतति न मनः कस्य न वचः
हे शिव ! आपकी व्याख्या न तो मन, ना ही वचन द्वारा ही संभव है। आपके सन्दर्भ में वेद भी अचंभित हैं तथा नेति नेति का प्रयोग करते हैं अर्थात यह भी नहीं और वो भी नहीं... आपका संपूर्ण गुणगान भला कौन कर सकता है? यह जानते हुए भी कि आप आदि व अंत रहित हैं परमात्मा का गुणगान कठिन है मैं आपकी वंदना करता हूं।
मधुस्फीता वाचः परमममृतं निर्मितवतः
तव ब्रह्मन् किं वागपि सुरगुरोर्विस्मयपदम्
मम त्वेतां वाणीं गुणकथनपुण्येन भवतः
पुनामीत्यर्थेऽस्मिन् पुरमथन बुद्धिर्व्यवसिता
हे वेद और भाषा के सृजक जब स्वयं देवगुरु बृहस्पति भी आपके स्वरूप की व्याख्या करने में असमर्थ हैं तो फिर मेरा कहना ही क्या? हे त्रिपुरारी, अपनी सीमित क्षमता का बोध होते हुए भी मैं इस विश्वास से इस स्तोत्र की रचना कर रहा हूं कि इससे मेरी वाणी शुद्ध होगी तथा मेरी बुद्धि का विकास होगा।
तवैश्वर्यं यत्तज्जगदुदयरक्षाप्रलयकृत्
त्रयीवस्तु व्यस्तं तिस्रुषु गुणभिन्नासु तनुषु .
अभव्यानामस्मिन् वरद रमणीयामरमणीं
विहन्तुं व्याक्रोशीं विदधत इहैके जडधियः
हे देव, आप ही इस संसार के सृजक, पालनकर्ता एवं विलयकर्ता हैं। तीनों वेद आपकी ही संहिता गाते हैं, तीनों गुण (सतो-रजो-तमो) आपसे ही प्रकाशित हैं। आपकी ही शक्ति त्रिदेवों में निहित है। इसके बाद भी कुछ मूढ़ प्राणी आपका उपहास करते हैं तथा आपके बारे भ्रम फैलाने का प्रयास करते हैं जो की सर्वथा अनुचित है।
किमीहः किंकायः स खलु किमुपायस्त्रिभुवनं
किमाधारो धाता सृजति किमुपादान इति च
अतर्क्यैश्वर्ये त्वय्यनवसर दुःस्थो हतधियः
कुतर्कोऽयं कांश्चित् मुखरयति मोहाय जगतः
हे महादेव ! वो मूढ़ प्राणी जो स्वयं ही भ्रमित हैं इस प्रकार से तर्क-वितर्क द्वारा आपके अस्तित्व को चुनौती देने की कोशिश करते हैं। वह कहते हैं कि अगर कोई परम पुरुष है तो उसके क्या गुण हैं? वह कैसा दिखता है? उसके क्या साधन हैं? वह इस सृष्टि को किस प्रकार धारण करता है? ये प्रश्न वास्तव में भ्रामक मात्र हैं। वेद ने भी स्पष्ट किया है कि तर्क द्वारा आपको नहीं जाना जा सकता।
अजन्मानो लोकाः किमवयववन्तोऽपि जगतां
अधिष्ठातारं किं भवविधिरनादृत्य भवति
अनीशो वा कुर्याद् भुवनजनने कः परिकरो
यतो मन्दास्त्वां प्रत्यमरवर संशेरत इमे...
हे परमपिता ! इस सृष्टि में सात लोक हैं (भूलोक, भुवर्लोक, स्वर्गलोक, सत्यलोक,महर्लोक, जनलोक, एवं तपलोक)। इनका सृजन भला सृजक (आपके) के बिना कैसे संभव हो सका? यह किस प्रकार से और किस साधन से निर्मित हुए? तात्पर्य यह है कि आप पर किसी प्रकार का संशय नहीं किया जा सकता।
त्रयी साङ्ख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति
प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिल नानापथजुषां
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव।
विविध प्राणी सत्य तक पहुंचने के लिए विभिन्न वेद पद्धतियों का अनुसरण करते हैं। पर जिस प्रकार सभी नदी अंतत: सागर में समाहित हो जाती है ठीक उसी प्रकार हर मार्ग आप तक ही पहुंचता है।
महोक्षः खट्वाङ्गं परशुरजिनं भस्म फणिनः
कपालं चेतीयत्तव वरद तन्त्रोपकरणम् .
सुरास्तां तामृद्धिं दधति तु भवद्भूप्रणिहितां
न हि स्वात्मारामं विषयमृगतृष्णा भ्रमयति।
हे शिव ! आपके भृकुटी के इशारे मात्र से सभी देवगण ऐश्वर्य एवं संपदाओं का भोग करते हैं। पर आपके स्वयं के लिए सिर्फ बैल (नंदी), कपाल, बाघम्बर, त्रिशुल, कपाल एवं नाग्माला एवं भस्म मात्र है। अगर कोई संशय करें कि आप देवों के असीम ऐश्वर्य के स्त्रोत हैं तो आप स्वयं उन ऐश्वर्यों का भोग क्यों नहीं करते तो इस प्रश्न का उत्तर सहज ही है आप इच्छा रहित हैं तथा स्वयं में ही स्थितप्रज्ञ रहते हैं।
ध्रुवं कश्चित् सर्वं सकलमपरस्त्वध्रुवमिदं
परो ध्रौव्याऽध्रौव्ये जगति गदति व्यस्तविषये
समस्तेऽप्येतस्मिन् पुरमथन तैर्विस्मित इव
स्तुवन् जिह्रेमि त्वां न खलु ननु धृष्टा मुखरता।
हे त्रिपुरहंता ! इस संसार के बारे में विभिन्न विचारकों के भिन्न-भिन्न मत हैं। कोई इसे नित्य जानता है तो कोई इसे अनित्य समझता है। अन्य इसे नित्यानित्य बताते हैं। इन विभिन्न मतों के कारण मेरी बुद्धि भ्रमित होती है पर मेरी भक्ति आप में और दृढ़ होती जा रही है।
तवैश्वर्यं यत्नाद् यदुपरि विरिञ्चिर्हरिरधः
परिच्छेतुं यातावनिलमनलस्कन्धवपुषः
ततो भक्तिश्रद्धा-भरगुरु-गृणद्भ्यां गिरिश यत्
स्वयं तस्थे ताभ्यां तव किमनुवृत्तिर्न फलति।
एक समय आपके पूर्ण स्वरूप का भेद जानने हेतु ब्रह्मा एवं विष्णु क्रमश:प्रत्येक दिशा में गए। पर उनके सारे प्रयास विफल हुए। जब उन्होंने भक्ति मार्ग अपनाया तभी आपको जान पाए। क्या आपकी भक्ति कभी विफल हो सकती है?
अयत्नादासाद्य त्रिभुवनमवैरव्यतिकरं
दशास्यो यद्बाहूनभृत-रणकण्डू-परवशान्
शिरःपद्मश्रेणी-रचितचरणाम्भोरुह-बलेः
स्थिरायास्त्वद्भक्तेस्त्रिपुरहर विस्फूर्जितमिदम्।
हे त्रिपुरान्तक ! दशानन रावण किस प्रकार विश्व को शत्रु विहीन कर सका? उसके महाबाहू हर पल युद्ध के लिए व्यग्र रहे। हे प्रभु! रावण ने भक्तिवश अपने ही शीश को काट-काट कर आपके चरण कमलों में अर्पित कर दिया, यह उसी भक्ति का प्रभाव था।
अमुष्य त्वत्सेवा-समधिगतसारं भुजवनं
बलात् कैलासेऽपि त्वदधिवसतौ विक्रमयतः
अलभ्यापातालेऽप्यलसचलितांगुष्ठशिरसि
प्रतिष्ठा त्वय्यासीद् ध्रुवमुपचितो मुह्यति खलः
हे शिव ! एक समय उसी रावण ने मद् में चूर आपके कैलाश को उठाने की धृष्टता करने की भूल की। हे महादेव आपने अपने सहज पांव के अंगूठे मात्र से उसे दबा दिया। फिर क्या था रावण कष्ट में रूदन करा उठा। वेदना ने पटल लोक में भी उसका पीछा नहीं छोड़ा। अंततः आपकी शरणागति के बाद ही वह मुक्त हो सका।
यदृद्धिं सुत्राम्णो वरद परमोच्चैरपि सतीं
अधश्चक्रे बाणः परिजनविधेयत्रिभुवनः
न तच्चित्रं तस्मिन् वरिवसितरि त्वच्चरणयोः
न कस्याप्युन्नत्यै भवति शिरसस्त्वय्यवनतिः
हे शम्भो ! आपकी कृपा मात्र से ही बाणासुर दानव इन्द्रादि देवों से भी अधिक ऐश्वर्यशाली बन सका तथा तीनों लोकों पर राज्य किया। हे ईश्वर, आपकी भक्ति से क्या कुछ संभव नहीं है?
अकाण्ड-ब्रह्माण्ड-क्षयचकित-देवासुरकृपा
विधेयस्याऽऽसीद् यस्त्रिनयन विषं संहृतवतः
स कल्माषः कण्ठे तव न कुरुते न श्रियमहो
विकारोऽपि श्लाघ्यो भुवन-भय-भङ्ग-व्यसनिनः
देवताओं एव असुरों ने अमृत प्राप्ति हेतु समुन्द्र मंथन किया। समुद्र से मूल्यवान वस्तुएं प्रकट हुईं जो देव तथा दानवों ने आपस में बांट ली। पर जब समुद्र से अत्यधिक भयावह कालकूट विष प्रकट हुआ तो असमय ही सृष्टि समाप्त होने का भय उत्पन्न हो गया और सभी भयभीत हो गए। हे हर, तब आपने संसार रक्षार्थ विषपान कर लिया। वह विष आपके कंठ में निष्क्रिय हो कर पड़ा है। विष के प्रभाव से आपका कंठ नीला पड़ गया। हे नीलकंठ, आश्चर्य है की यह स्थिति भी आपकी शोभा ही बढ़ाती है। कल्याण कार्य सुन्दर ही होता है।
असिद्धार्था नैव क्वचिदपि सदेवासुरनरे
निवर्तन्ते नित्यं जगति जयिनो यस्य विशिखाः
स पश्यन्नीश त्वामितरसुरसाधारणमभूत्
स्मरः स्मर्तव्यात्मा न हि वशिषु पथ्यः परिभवः
हे प्रभु ! कामदेव के वार से कभी कोई भी नहीं बच सका चाहे वो मनुष्य हों, देव या दानव ही पर जब कामदेव ने आपकी शक्ति समझे बिना आप की ओर अपने पुष्प बाण को साधा तो आपने उसे तत्क्षण ही भस्म कर दिया। श्रेष्ठ जनों के अपमान का परिणाम हितकर नहीं होता।
मही पादाघाताद् व्रजति सहसा संशयपदं
पदं विष्णोर्भ्राम्यद् भुज-परिघ-रुग्ण-ग्रह-गणम्
मुहुर्द्यौर्दौस्थ्यं यात्यनिभृत-जटा-ताडित-तटा
जगद्रक्षायै त्वं नटसि ननु वामैव विभुता।
हे नटराज ! जब संसार कल्याण के हेतु आप तांडव करने लगते हैं तो आपके पांव के नीचे धरा कांप उठती है, आपके हाथों की परिधि से टकरा कर ग्रह-नक्षत्र भयभीत हो उठते हैं। विष्णु लोक भी हिल जाता है। आपकी जटा के स्पर्श मात्र से स्वर्गलोग व्याकुल हो उठता है। आश्चर्य ही है हे महादेव कि अनेक बार कल्याणकारी कार्य भी भय उत्पन्न करते हैं।
वियद्व्यापी तारा-गण-गुणित-फेनोद्गम-रुचिः
प्रवाहो वारां यः पृषतलघुदृष्टः शिरसि ते
जगद्द्वीपाकारं जलधिवलयं तेन कृतमिति
अनेनैवोन्नेयं धृतमहिम दिव्यं तव वपुः
आकाश गंगा से निकलती तारागणों के बीच से गुजरती गंगा जल अपनी धारा से धरती पर टापू तथा अपने वेग से चक्रवात उत्पन्न करती हैं। पर य उफान से परिपूर्ण गंगा आपके मस्तक पर एक बूंद के सामन ही दृष्टिगोचर होती है। यह आपके दिव्य स्वरूप का ही परिचायक है।
रथः क्षोणी यन्ता शतधृतिरगेन्द्रो धनुरथो
रथाङ्गे चन्द्रार्कौ रथ-चरण-पाणिः शर इति
दिधक्षोस्ते कोऽयं त्रिपुरतृणमाडम्बर विधिः
विधेयैः क्रीडन्त्यो न खलु परतन्त्राः प्रभुधियः
हे शिव ! आपने त्रिपुरासुर का वध करने हेतु पृथ्वी को रथ, ब्रह्मा को सारथी, सूर्य-चन्द्र को पहिया एवं स्वयं इन्द्र को बाण बनाया। हे शम्भु, इस वृहत प्रयोजन की क्या आवश्यकता थी? आपके लिए तो संसार मात्र का विलय करना अत्यंत ही छोटी बात है। आपको किसी सहायता की क्या आवश्यकता?
हरिस्ते सहस्रं कमल बलिमाधाय पदयोः
यदेकोने तस्मिन् निजमुदहरन्नेत्रकमलम्
गतो भक्त्युद्रेकः परिणतिमसौ चक्रवपुषः
त्रयाणां रक्षायै त्रिपुरहर जागर्ति जगताम्।
जब भगवान विष्णु ने आपकी सहस्र कमलों एवं सहस्र नामों द्वारा पूजा प्रारम्भ की तो उन्होंने एक कमल कम पाया। तब भक्ति भाव से हरी ने अपनी एक आंख को कमल के स्थान पर अर्पित कर दिया। उनकी यही अदम्य भक्ति ने सुदर्शन चक्र का स्वरूप धारण कर लिया जिसे भगवान विष्णु संसार रक्षार्थ उपयोग करते हैं।
क्रतौ सुप्ते जाग्रत् त्वमसि फलयोगे क्रतुमतां
क्व कर्म प्रध्वस्तं फलति पुरुषाराधनमृते
अतस्त्वां सम्प्रेक्ष्य क्रतुषु फलदान-प्रतिभुवं
श्रुतौ श्रद्धां बध्वा दृढपरिकरः कर्मसु जनः
हे देवाधिदेव ! आपने ही कर्म-फल का विधान बनाया। आपके ही विधान से अच्छे कर्मो तथा यज्ञ कर्म का फल प्राप्त होता है। आपके वचनों में श्रद्धा रख कर सभी वेद कर्मो में आस्था बनाए रखते हैं तथा यज्ञ कर्म में संलग्न रहते हैं।
क्रियादक्षो दक्षः क्रतुपतिरधीशस्तनुभृतां
ऋषीणामार्त्विज्यं शरणद सदस्याः सुर-गणाः
क्रतुभ्रंशस्त्वत्तः क्रतुफल-विधान-व्यसनिनः
ध्रुवं कर्तुं श्रद्धा विधुरमभिचाराय हि मखाः
हे प्रभु ! यद्यपि आपने यज्ञ कर्म और फल का विधान बनाया है तदपि जो यज्ञ शुद्ध विचारों और कर्मो से प्रेरित न हो और आपकी अवहेलना करने वाला हो उसका परिणाम कदाचित विपरीत और अहितकर ही होता है। दक्षप्रजापति के महायज्ञ से उपयुक्त उदाहरण भला और क्या हो सकता है? दक्षप्रजापति के यज्ञ में स्वयं ब्रह्मा पुरोहित तथा अनेकानेक देवगण तथा ऋषि-मुनि सम्मिलित हुए। फिर भी शिव की अवहेलना के कारण यज्ञ का नाश हुआ। आप अनीति को सहन नहीं करते भले ही शुभकर्म के संदर्भ में क्यों न हो।
प्रजानाथं नाथ प्रसभमभिकं स्वां दुहितरं
गतं रोहिद् भूतां रिरमयिषुमृष्यस्य वपुषा
धनुष्पाणेर्यातं दिवमपि सपत्राकृतममुं
त्रसन्तं तेऽद्यापि त्यजति न मृगव्याधरभसः
एक समय में ब्रह्मा अपनी पुत्री पर ही मोहित हो गए जब उनकी पुत्री ने हिरनी का स् वर ूप धारण कर भागने की कोशिश की तो कामातुर ब्रह्मा भी हिरन भेष में उसका पीछा करने लगे। हे शंकर तब आपने व्याघ्र स्वरूप में धनुष-बाण लेकर ब्रह्मा की और कूच किया। आपके रौद्र रूप से भयभीत ब्रह्मा आकाश दिशा की ओर भाग निकले तथा आजे भी आपसे भयभीत हैं।
स्वलावण्याशंसा धृतधनुषमह्नाय तृणवत्
पुरः प्लुष्टं दृष्ट्वा पुरमथन पुष्पायुधमपि
यदि स्त्रैणं देवी यमनिरत-देहार्ध-घटनात्
अवैति त्वामद्धा बत वरद मुग्धा युवतयः
हे योगेश्वर! जब आपने माता पार्वती को अपनी सहधर्मिणी बनाया तो उन्हें आपके योगी होने पर शंका उत्पन्न हुई। यह शंका निर्मूल ही थी क्योंकि जब स्वयं कामदेव ने आप पर अपना प्रभाव दिखलाने की कोशिश की तो आपने काम को जला करा नष्ट करा दिया।
श्मशानेष्वाक्रीडा स्मरहर पिशाचाः सहचराः
चिता-भस्मालेपः स्रगपि नृकरोटी-परिकरः
अमङ्गल्यं शीलं तव भवतु नामैवमखिलं
तथापि स्मर्तॄणां वरद परमं मङ्गलमसि
हे भोलेनाथ! आप श्मशान में रमण करते हैं, भुत-प्रेत आपके संगी होते हैं, आप चिता भस्म का लेप करते हैं तथा मुंडमाल धारण करते हैं। यह सारे गुण ही अशुभ एवं भयावह जान पड़ते हैं। तब भी हे श्मशान निवासी आपके भक्तो को आप इस स्वरूप में भी शुभकारी एव आनंददायी ही प्रतीत होते हैं क्योंकि हे शंकर आप मनोवांछित फल प्रदान करने में तनिक भी विलम्ब नहीं करते।
मनः प्रत्यक् चित्ते सविधमविधायात्त-मरुतः
प्रहृष्यद्रोमाणः प्रमद-सलिलोत्सङ्गति-दृशः
यदालोक्याह्लादं ह्रद इव निमज्यामृतमये
दधत्यन्तस्तत्त्वं किमपि यमिनस्तत् किल भवान्
हे योगिराज! मनुष्य नाना प्रकार के योग्य पद्धति को अपनाते हैं जैसे की सांस पर नियंत्रण, उपवास, ध्यान इत्यादि। इन योग क्रियाओं द्वारा वो जिस आनंद, जिस सुख को प्राप्त करते हैं वह वास्तव में आप ही हैं। हे महादेव!
त्वमर्कस्त्वं सोमस्त्वमसि पवनस्त्वं हुतवहः
त्वमापस्त्वं व्योम त्वमु धरणिरात्मा त्वमिति च
परिच्छिन्नामेवं त्वयि परिणता बिभ्रति गिरं
न विद्मस्तत्तत्त्वं वयमिह तु यत् त्वं न भवसि
हे शिव ! आप ही सूर्य, चन्द्र, धरती, आकाश, अग्नि, जल एवं वायु हैं। आप ही आत्मा भी हैं। हे देव मुझे ऐसा कुछ भी ज्ञात नहीं जो आप न हों।
त्रयीं तिस्रो वृत्तीस्त्रिभुवनमथो त्रीनपि सुरान्
अकाराद्यैर्वर्णैस्त्रिभिरभिदधत् तीर्णविकृति
तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभिः
समस्त-व्यस्तं त्वां शरणद गृणात्योमिति पदम्
हे सर्वेश्वर! ॐ तीन तत्वों से बना है अ, ऊ, मं जो तीन वेदों (ऋग, साम, यजु), तीन अवस्था (जाग्रत, स्वप्न, सुशुप्त), तीन लोकों, तीन कालों, तीन गुणों तथा त्रिदेवों को इंगित करता है। हे ॐकार आपही इस त्रिगुण, त्रिकाल, त्रिदेव, त्रिअवस्था, और त्रिवेद के समागम हैं।
भवः शर्वो रुद्रः पशुपतिरथोग्रः सहमहान्
तथा भीमेशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम्
अमुष्मिन् प्रत्येकं प्रविचरति देव श्रुतिरपि
प्रियायास्मैधाम्ने प्रणिहित-नमस्योऽस्मि भवते
हे शिव, वेद एवं देवगन आपकी इन आठ नामों से वंदना करते हैं - भव, सर्व, रूद्र, पशुपति, उग्र, महादेव, भीम, एवं इशान। हे शम्भू मैं भी आपकी इन नामों से स्तुति करता हूं।
नमो नेदिष्ठाय प्रियदव दविष्ठाय च नमः
नमः क्षोदिष्ठाय स्मरहर महिष्ठाय च नमः
नमो वर्षिष्ठाय त्रिनयन यविष्ठाय च नमः
नमः सर्वस्मै ते तदिदमतिसर्वाय च नमः
हे त्रिलोचन, आप अत्यधिक दूर हैं और अत्यंत पास भी, आप महाविशाल भी हैं तथा परमसूक्ष्म भी, आप श्रेठ भी हैं तथा कनिष्ठ भी। आप ही सभी कुछ हैं साथ ही आप सभी कुछ से परे भी हैं।
बहुल-रजसे विश्वोत्पत्तौ भवाय नमो नमः
प्रबल-तमसे तत् संहारे हराय नमो नमः
जन-सुखकृते सत्त्वोद्रिक्तौ मृडाय नमो नमः
प्रमहसि पदे निस्त्रैगुण्ये शिवाय नमो नमः
हे भव, मैं आपको रजोगुण से युक्त सृजनकर्ता जान कर आपका नमन करता हूं। हे हर, मैं आपको तामस गुण से युक्त, विलयकर्ता मान आपका नमन करता हूं। हे मृड, आप सतोगुण से व्याप्त सभी का पालन करने वाले हैं। आपको नमस्कार है। आप ही ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश हैं। हे परमात्मा, मैं आपको इन तीन गुणों से परे जान कर शिव रूप में नमस्कार करता हूं।
कृश-परिणति-चेतः क्लेशवश्यं क्व चेदं
क्व च तव गुण-सीमोल्लङ्घिनी शश्वदृद्धिः
इति चकितममन्दीकृत्य मां भक्तिराधाद्
वरद चरणयोस्ते वाक्य-पुष्पोपहारम्
हे शिव आप गुणातीत हैं और आपका विस्तार नित बढ़ता ही जाता है। अपनी सीमित क्षमता से मैं कैसे आपकी वंदना कर सकता हूं? पर भक्ति से ये दूरी मिट जाती है तथा मैं आपने कर कमलों में अपनी स्तुति प्रस्तुत करता हूं।
असित-गिरि-समं स्यात् कज्जलं सिन्धु-पात्रे
सुर-तरुवर-शाखा लेखनी पत्रमुर्वी
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं
तदपि तव गुणानामीश पारं न याति
''हे शिव, यदि नीले पर्वत को समुद्र में मिला कर स्याही तैयार की जाए, देवताओं के उद्यान के वृक्ष की शाखाओं को लेखनी बनाया जाए और पृथ्वीको कागद बनाकर भगवती शारदा देवी अर्थात सरस्वती देवी अनंतकाल तक लिखती रहें तब भी हे प्रभो! आपके गुणों का संपूर्ण व्याख्यान संभव नहीं होगा।''
असुर-सुर-मुनीन्द्रैरर्चितस्येन्दु-मौलेः
ग्रथित-गुणमहिम्नो निर्गुणस्येश्वरस्य
सकल-गण-वरिष्ठः पुष्पदन्ताभिधानः
रुचिरमलघुवृत्तैः स्तोत्रमेतच्चकार
इस स्तोत्र की रचना पुष्पदंत गंधर्व ने चन्द्रमौलेश्वर शिव जी के गुणगान के लिए की है जो गुणातीत हैं।
अहरहरनवद्यं धूर्जटेः स्तोत्रमेतत्
पठति परमभक्त्या शुद्ध-चित्तः पुमान् यः
स भवति शिवलोके रुद्रतुल्यस्तथाऽत्र
प्रचुरतर-धनायुः पुत्रवान् कीर्तिमांश्च
जो भी इस स्तोत्र का शुद्ध मन से नित्य पाठ करता है वह जीवन काल में विभिन्न ऐश्वर्यों का भोग करता है तथा अंततः शिवधाम को प्राप्त करता है तथा शिवतुल्य हो जाता है।
महेशान्नापरो देवो महिम्नो नापरा स्तुतिः
अघोरान्नापरो मन्त्रो नास्ति तत्त्वं गुरोः परम्
महेश से श्रेष्ठ कोई देव नहीं, महिम्न स्तोत्र से श्रेष्ठ कोई स्तोत्र नहीं, ॐ से बढकर कोई मंत्र नहीं तथा गुरु से उपर कोई सत्य नहीं।
दीक्षा दानं तपस्तीर्थं ज्ञानंयोगादिकाः क्रियाः
महिम्नस्तव पाठस्य कलांनार्हन्ति षोडशीम्
दान, यज्ञ, ज्ञान एवं त्याग इत्यादि सत्कर्म इस स्तोत्र के पाठ के सोलहवें अंश के बराबर भी फल नहीं प्रदान कर सकते।
कुसुमदशन-नामा सर्व-गन्धर्व-राजः
शशिधरवर-मौलेर्देवदेवस्य दासः
स खलु निज-महिम्नो भ्रष्ट एवास्य रोषात्
स्तवनमिदमकार्षीद् दिव्य-दिव्यं महिम्न ः
कुसुमदंत नामक गंधर्वों का राजा चंद्रमौलेश्वर शिव जी का परम भक्त था। अपने अपराध (पुष्प की चोरी) के कारण वह अपने दिव्य स्वरूप से वंचित हो गया तब उसने इस स्तोत्र की रचना कर शिव को प्रसन्न किया तथा अपने दिव्य स्वरूप को पुनः प्राप्त किया।
सुरगुरुमभिपूज्य स्वर्ग-मोक्षैक-हेतुं
पठति यदि मनुष्यः प्राञ्जलिर्नान्य-चेताः
व्रजति शिव-समीपं किन्नरैः स्तूयमानः
स्तवनमिदममोघं पुष्पदन्तप्रणीतम्
जो इस स्तोत्र का पठन करता है वो शिवलोक पाता है तथा ऋषि-मुनियों द्वारा भी पूजित हो जाता है।
आसमाप्तमिदं स्तोत्रं पुण्यं गन्धर्व-भाषितम्
अनौपम्यं मनोहारि सर्वमीश्वरवर्णनम्
पुष्पदंत रचित ये स्तोत्र दोषरहित है तथा इसका नित्य पाठ करने से परम सुख की प्राप्ति होती है।
इत्येषा वाङ्मयी पूजा श्रीमच्छङ्कर-पादयोः
अर्पिता तेन देवेशः प्रीयतां मे सदाशिवः
ये स्तोत्र शंकर भगवान को समर्पित है। प्रभु महादेव हमसे प्रसन्न हों।
तव तत्त्वं न जानामि कीदृशोऽसि महेश्वर,
यादृशोऽसि महादेव तादृशाय नमो नम ः
हे शिव ! मैं आपके वास्तविक स्वरुप को नहीं जानता। हे शिव आपके उस वास्तविक स्वरूप जिसे मैं नहीं जान सकता उसको नमस्कार है।
एककालं द्विकालं वा त्रिकालं यः पठेन्नरः
सर्वपाप-विनिर्मुक्तः शिव लोके महीयते
जो इस स्तोत्र का दिन में एक, दो या तीन बार पाठ करता है वो पाप मुक्त हो जाता है तथा शिव लोक को प्राप्त करता है।
श्री पुष्पदन्त-मुख-पंकज-निर्गतेन
स्तोत्रेण किल्बिष-हरेण हर-प्रियेण
कण्ठस्थितेन पठितेन समाहितेन
सुप्रीणितो भवति भूतपतिर्महेशः
पुष्पदंत द्वारा रचित ये स्तोत्र शिव जी अत्यंत ही प्रिय है। इसका पाठ करने वाला अपने संचित पापों से मुक्ति पाता है।
।। इति श्री पुष्पदंत विरचितं शिवमहिम्नः स्तोत्रं सम्पूर्ण:।।
***
चिप्पियाँ Labels:
शिवमहिम्न स्तोत्र
आचार्य संजीव वर्मा सलिल
सदस्यता लें
संदेश (Atom)