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गुरुवार, 5 जुलाई 2018

काव्य दोष

काव्य दोष 
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काव्य-दोष पर चर्चा प्रारम्भ की जा रही है। काव्य-दोष को परिभाषित करते हुए आचार्य मम्मट लिखते हैं-
मुख्यार्थहतिर्दोषो रसश्च मुख्यस्तदाश्रयाद्वाच्यः।
उभयोपयोगिनः स्युः शब्दाद्यास्तेन तेष्वपि सः।।
अर्थात् मुख्यार्थ का अपकर्ष करनेवाला कारक दोष है और रस मुख्यार्थ है तथा उसका (रस का) आश्रय वाच्यार्थ का अपकर्षक भी दोष होता है। शब्द आदि (वर्ण और रचना)  इन दोनों  (रस और वाच्यार्थ) के सहायक होते हैं। अतएव यह दोष उनमें भी रहता है।
आचार्य विश्वनाथ कविराज अपने ग्रंथ साहित्यदर्पण दोष का लक्षण करते हुए कहते हैं- रसापकर्षका दोषाः, अर्थात् रस का अपकर्ष करनेवाले कारक दोष कहलाते हैं।
काव्यप्रदीपकार के शब्दों में नीरस काव्य में वाक्यार्थ के चमत्कार को हानि पहुँचानेवाले कारक दोष हैं-नीरसे त्वविलम्बितचमत्कारिवाक्यार्थप्रतीतिविघातका एव दोषाः।
     इन सभी परिभाषाओं को ध्यान में रखकर यदि विचार किया जाय तो यह बात स्पष्ट होती है कि मुख्यार्थ शब्द, अर्थ और रस के आश्रय से ही निर्धारित होता है। इसलिए काव्य-दोषों के तीन भेद किए गए हैं- शब्ददोष, अर्थदोष और रसदोष। चूँकि शब्ददोष होने से काव्य में प्रयुक्त पद का कोई भाग दूषित होने से पद दूषित होता है, पद के दूषित होने से वाक्य दूषित होता है। अतएव शब्ददोष के पुनः तीन भेद किए गए हैं- पददोष, पदांश-दोष और वाक्य-दोष। दूसरे शब्दों में जो पददोष हैं वे वाक्यदोष भी होते हैं और वाक्यदोष अलग से  स्वतंत्र रूप से भी होते हैं। इसके अतिरिक्त एक समास-दोष होते हैं, पर संस्कृत भाषा की समासात्मक प्रवृत्ति होने के कारण ये दोष संस्कृत-काव्यों में ही देखने को मिलते हैं, हिन्दी में बहुत कम पाया जाते हैं। अतएव जितने पददोष हैं वे समासदोष भी होते हैं। समास के कारण कुछ दोष स्वतंत्र रूप से समासदोष के अन्तर्गत आते हैं।
     इन दोषों पर आगे चर्चा करने के पहले एक और बात स्पष्ट करनी पड़ेगी कि इन दोषों को दो भागों में बाँटा गया है- नित्य-दोष और अनित्य-दोष। नित्य-दोष वे दोष हैं जो सदा बने रहते हैं, उनका समर्थन अनुकरण के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता, जैसे च्युतसंस्कार आदि। अनित्य-दोष वे होते हैं जो एक परिस्थिति में दोष तो हैं, पर दूसरी परिस्थिति में उनका परिहार हो जाता है, जैसे श्रुतिकटुत्वआदि। श्रुतिकटुत्व दोष शृंगार वर्णन में दोष है, जबकि वीर, रौद्र आदि रस में गुण हो जाता है। दोषों की चर्चा करते समय इन भेदों का संकेत किया जाएगा।
      निम्नलिखित तेरह दोषों को पददोष कहा गया हैः श्रुतिकटु, च्युतसंस्कार, अप्रयुक्त, असमर्थ, निहतार्थ, अनुचितार्थ, निरर्थक, अवाचक, अश्लील, संदिग्ध, अप्रतीतत्व, ग्राम्य और नेयार्थ।
     इसके अतिरिक्त तीन दोष- क्लिष्टत्व, अविमृष्टविधेयांश और विरुद्धमतिकारिता- केवल समासगत दोष होते हैं। काव्यप्रकाश में इन्हें दो कारिकाओं में दिया गया है-
      दुष्टं पदं श्रुतिकटु च्युतसंस्कृत्यप्रयुक्तमसमर्थम्।
      निहतार्थमनुचितार्थं निरर्थकमवाचकमं त्रिधाSश्लीलम्।।
      सन्दिग्धमप्रतीतं ग्राम्यं नेयार्थमथ भवेत् क्लिष्टम्।
      अविमृष्टविधेयांशं विरुद्थमतिकृत समासगतमेव।।
आचार्य मम्मट के अनुसार काव्य के मुख्य अर्थ (रस) के विधात (बाधक) तत्व ही दोष हैं 
आचार्य विश्वनाथ प्रसाद ने साहित्यदर्पण में "रसापकर्षका दोष:" कहकर रस का अपकर्ष करने वालो तत्वों को दोष बताया हैदोषों का विभाजन: 
दोषों का विभाजन करना तर्कसंगत नही है काव्यप्रकाश में ७० दोष बताए गये हैं जिन्हें चार वर्गो में विभाजित किया गया है:- १-शब्ददोष 
२- वाक्य दोष. 
३- अर्थ दोष 
४- रस दोष। 
हिंदी में रीति-काव्य का आधार संस्कृत के लक्षण-ग्रंथ हैं । संस्कृत में कवि और आचार्य, दो अलग-अलग व्यक्ति होते थे, किंतु हिंदी में यह भेद मिट गया । प्रत्येक कवि आचार्य बनने की कोशिश करने लगा, जिसका परिणाम यह हुआ कि वे सफल आचार्य तो बन नहीं पाए,उनके कवित्व पर भी कहीं-कहीं दाग लग गए । इन रीति-ग्रंथकारों में मौलिकता का सर्वथा अभाव रहा । परिणामस्वरूप उनका शास्त्रीय विवेचन सुचारू रूप से नहीं हो सका । 

काव्यांगों का विवेचन करते हुए हिंदी के आचार्यों ने काव्य के सब अंगों का समान विवेचन नहीं किया । शब्द-शक्ति की ओर किसी का ध्यान ही नहीं गया । रस में भी केवल श्रृंगार को ही प्रधानता दी गई । 

लक्षण पद्य में देने की परम्परा के कारण इन कवियों के लक्षण अस्पष्ट और कहीं-कहीं अपूर्ण रह गए हैं । 

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का निष्कर्ष द्रष्टव्य है - "हिंदी में लक्षण-ग्रंथों की परिपाटी पर रचना करने वाले सैकड़ों कवि हुए हैं, वे आचार्य की कोटि में नहीं आ सकते । वे वास्तव में कवि ही थे ।"

लक्षण ग्रंथों की दृष्टि से कुछ त्रुटियाँ होते हुए भी इन ग्रंथों का कवित्व की दृष्टि से बहुत महत्त्व है । अलंकारों अथवा रसों के उदाहरण के लिए जो पद्य उपस्थित किए गए हैं, वे अत्यंत सरस और रोचक हैं । श्रृंगार रस के जितने उदाहरण अकेले रीतिकाल में लिखे गए हैं, उतने सम्पूर्ण संस्कृत साहित्य में भी उपलब्ध नहीं होते । 

इनकी कविता में भावों की कोमलता, कल्पना की उड़ान और भाषा की मधुरता का सुंदर समन्वय हुआ है । 

सोमवार, 12 जुलाई 2010

गीत: बात बस इतनी सी थी... संजीव वर्मा 'सलिल'

गीत:
बात बस इतनी सी थी...
संजीव वर्मा 'सलिल'
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confusion.JPG

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बात बस इतनी सी थी, तुमने नहीं समझा मुझे.
बात बस इतनी सी थी...
*
चाहते तुम कम नहीं थे, चाहते कम हम न थे.
चाहतें क्यों खो गईं?, सपने सुनहरे कम न थे..

बात बस इतनी सी थी, रिश्ता लगा उलझा मुझे.
बात बस इतनी सी थी, तुमने नहीं समझा मुझे.
बात बस इतनी सी थी...
*
बाग़ में भँवरे-तितलियाँ, फूल-कलियाँ कम न थे.
पर नहीं आईं बहारें, सँग हमारे तुम न थे..

बात बस इतनी सी थी, चेहरा मिला मुरझा मुझे.
बात बस इतनी सी थी, तुमने नहीं समझा मुझे.
बात बस इतनी सी थी...
*
दोष किस्मत का नहीं, हम ही न हम बन रह सके.
सुन सके कम दोष यह है, क्यों न खुलकर कह सके?.

बात बस इतनी सी थी, धागा मिला सुलझा मुझे.
बात बस इतनी सी थी, तुमने नहीं समझा मुझे.
बात बस इतनी सी थी...
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----दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
Acharya Sanjiv Salil

मंगलवार, 8 जून 2010

काव्य दोष या समझ का अंतर? ...

काव्य दोष या समझ का अंतर? ...

ई कविता पर एक प्रसंग में महाकवि तुलसी के काव्य को लेकर हुई चर्चा दिव्य नर्मदा के पाठकों के लिए प्रस्तुत है.
Tulsidas.jpg


आनंद कृष्ण: मैं आप सबके सामने गोस्वामी तुलसीदास का एक दोहा प्रस्तुत कर रहा हूँ जिसमें "क्रम-विपर्यय" का दोष है-
 
सचिव, बैद, गुरु तीनि जो, प्रिय बोलहिं भय आस.
राज, धर्म, तन तीनि कर होहि बेगही नास.
 
इसका अर्थ स्पष्ट है की यदि सचिव (मंत्री), वैद्य (चिकित्सक) और गुरु: ये तीन व्यक्ति किसी भय के कारण अप्रिय नहीं बोलते हैं तो राज्य, धर्म और शरीर इन तीनों का शीघ्रता से नाश होता है.
 
पहली पंक्ति में क्रम है- सचिव, बैद और गुरु........... अगली पंक्ति में इनसे सम्बंधित क्षेत्रों का क्रम गड़बड़ा गया है- सचिव के लिए राज, बैद के लिए "तन" होना था पर "धर्म" आया है और गुरु के लिए "धर्म होना था किन्तु "तन" आया है......... ये दोष है...
 
इस दोष का ज़िक्र करने का अर्थ गोस्वामी तुलसीदास की शान में गुस्ताखी करना  नहीं समझा जाए सादर -आनंदकृष्ण, जबलपुर , मोबाइल : ०९४२५८००८१८   http://hindi-nikash.blogspot.कॉम    ******
परमपूज्य आनंदकृष्ण जी ,
आपके जैसे विद्वान तुलसीदास के जमाने में भी थे , जिन्होंने तुलसीदास की पूरी कृति को ही निरस्त कर दिया था । लेकिन दुर्भाग्य से उन पंडितों में से किसी का नाम आज किसी को याद नहीं है । याद रह गए तो सिर्फ तुलसीदास । वैसे छंद विधान में शब्दों को इतना आगे-पीछे रखने की छूट कवि को दी जाती है । अन्यथा ये कहावत ही न बन पाती कि जहां न पहुंचे रवि , वहां पहुंचे कवि । - ओमप्रकाश तिवारी    *****

परम आदरणीय तिवारी जी,
आनंद जी ने स्वयं स्पष्ट किया है कि उनका इरादा तुलसी दास जी क़ी शान में गुस्ताखी करने का कतई नहीं था. उनकी रचना से उदहारण देकर उन्होंने कुछ बुरा भी नहीं किया. 'क्रम विपर्यय' दोष क़ी चर्चा छंद शास्त्रों मैं पहले से है, हम अपनी श्रद्धा के आगे इतना विवश क्यों हो जाते हैं कि सच्ची बात अखरने लगती है. अगर तुलसी दास जी को भूल कर उस दोष पर विचार करें जो उस रचना मैं किसी कारण वश रह गया, तो भविष्य की कविता और सुन्दर हो सकती है. आशा है मेरे निवेदन को अन्यथा न लेंगे.      कृपाकांक्षी,  मदन मोहन 'अरविन्द'   *****

सचिव, बैद, गुरु तीनि जो, प्रिय बोलहिं भय आस.
राज, धर्म, तन तीनि कर होहि बेगहि नास.
यहाँ ऊपरी तौर पर 'क्रम विपर्यय दोष' है किन्तु गहराई से सोचें तो नहीं भी है. बैद भय के कारण प्रिय बोलेगा तो स्वास्थ्य बिगड़ेगा और रोगी के लिए धार्मिक अनुष्ठान वर्जित होने से धर्म की हानि होगी. इसी तरह गुरु भयवश प्रिय कहेगा तो ज्ञान नहीं मिल सकेगा और अज्ञान के कारण शरीर नष्ट होगा.

ऐसा ही एक और प्रसंग है: 'शंकर सुवन केसरी नंदन, तेज प्रताप महा जग वंदन' में निरर्थक शब्द-प्रयोग का दोष दिखता है चूंकि 'सुवन' शब्द का कोई अर्थ समझ में नहीं आता, सामान्य शब्द कोशों और अरविन्द कुमार के हिन्दी थिसारस में 'सुवन' शब्द ही नहीं है. बिहार में पंडितों की एक सभा में इस पर चर्चा कर सर्व सम्मति से संशोधन किया गया 'शंकर स्वयं केसरी नंदन' चूंकि हनुमान रूद्र के अवतार मान्य हैं यह ठीक भी लगता है किन्तु वास्तव में इसकी आवश्यकता ही नहीं है. 'सुवन' =
सूर्य, चन्द्रमा, पुत्र, पुष्प, सुमन, देवता, पंडित, अच्छे मनवाला (पृष्ठ १२८२, बृहत् हिन्दी कोष, संपादक: कलिका प्रसाद, राजवल्लभ सहाय, मुकुन्दीलाल श्रीवास्तव).

एक और; 'ढोल गंवार शूद्र पशु नारी' का उल्लेख कर तुलसी को नारी निंदक कहनेवाले यह भूल जाते हैं कि 'जय-जय गिरिवर राज किशोरी, जय महेश मुख चन्द्र चकोरी, जय गजवदन षडानन माता, जगत जननि दामिनी दुति गाता' में तुलसी नारी को 'जगत जननि' कहकर उसकी मान वन्दना करते हैं. यहाँ 'पशु नारी' का अर्थ 'पशु और नारी' नहीं 'पशुवत नारी' अर्थात पशु की तरह अमर्यादित आचरण करनेवाली नारी है.

यह मेरी बाल बुद्धि की सोच है. यदि मैं गलत हूँ तो विद्वज्जन क्षमा करते हुए मार्दर्शन करेंगे. 
  --संजीव 'सलिल'   *********

काव्य में दायें और बायें की लयात्मक दृष्टी से छूट होती है यह केवल दोष दृष्टि है.   -- मृदुल कीर्ति  ********

यह बहस का मुद्दा ही नहीं है.... ब्लोग्ग पर सतही बहस करनेवाले और जल्दी उत्तेजित होनेवाले बहुत हैं... आप इससे दूर ही रहें...  आपके बताये अर्थ सही हैं.    ---पूर्णिमा वर्मन.    *****


आप पाठक भी अपनी बात कहें...


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