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शनिवार, 26 जुलाई 2025

जुलाई २६ , पोयम, रिवर, मुहब्बतनामा, शिव, सॉनेट, दीप्ति, मैंग्रोव, गीत, दोहा, मुक्तिका

सलिल सृजन जुलाई २६  
० 
विश्व मैंग्रोव दिवस 
मैंग्रोव लेट क्रेटेशियस से पेलियोसीन युगों के मध्य दिखे झाड़ी या पेड़ हैं जो मुख्य रूप से त टीय खारे या खारे पानी में , भूमध्यरेखीय जलवायु में समुद्र तट और ज्वार की नदियों के किनारे उगते हैं। उनमें अतिरिक्त ऑक्सीजन लेने और नमक को हटाने के लिए विशेष अनुकूलन होते हैं, जिससे वे अधिकांश पौधों को मारने वाली स्थितियों को सहन कर सकते हैं। कई पौधों के परिवारों में अभिसरण विकास के कारण मैंग्रोव वर्गीकरण की दृष्टि से विविध हैं। वे दुनिया भर में उष्णकटिबंधीय, उपोष्णकटिबंधीय और कुछ समशीतोष्ण तटीय क्षेत्रों में मिलते हैं । अक्षांश ३० ° उत्तर और ३० ° दक्षिण  के बीच, भूमध्य रेखा के ५ ° के भीतर सबसे बड़ा मैंग्रोव क्षेत्र है। मैंग्रोव लवण-सहिष्णु (हेलोफाइटिक) होते हैं और कठोर तटीय परिस्थितियों में रहने के लिए अनुकूलित होते हैं। इनमें एक जटिल लवण निस्पंदन प्रणाली और खारे पानी में डूबने और लहरों की क्रिया का सामना करने के लिए एक जटिल जड़ प्रणाली होती है। ये जलभराव वाली मिट्टी की कम ऑक्सीजन वाली परिस्थितियों के लिए अनुकूलित होते हैं।इनके अंतर्ज्वारीय क्षेत्र के ऊपरी आधे भाग में पनपने की सबसे अधिक संभावना होती है। 

मैंग्रोव बायोम (मैंग्रोव वन या मंगल) एक विशिष्ट खारा वुडलैंड या झाड़ीदार क्षेत्र है, जिसकी विशेषता तटीय वातावरण । वहाँ उच्च ऊर्जा वाली लहरों की क्रिया से सुरक्षित क्षेत्रों में महीन तलछट (अक्सर उच्च कार्बनिक सामग्री के साथ) जमा होती हैं। मैंग्रोव वन जलीय प्रजातियों की एक विविध सरणी के लिए महत्वपूर्ण आवास के रूप में काम करते हैं, एक अद्वितीय पारिस्थितिकी तंत्र की पेशकश करते हैं जो समुद्री जीवन और स्थलीय वनस्पति के जटिल परस्पर क्रिया का समर्थन करता है। विभिन्न मैंग्रोव प्रजातियों द्वारा सहन की जाने वाली खारी स्थिति खारे पानी से लेकर शुद्ध समुद्री जल (३% से ४% लवणता) तक, वाष्पीकरण द्वारा केंद्रित पानी से लेकर समुद्री समुद्री जल की लवणता ९% लवणता तक होती है।  २०१० से शुरू होकर, रिमोट सेंसिंग तकनीकों और वैश्विक डेटा का उपयोग दुनिया भर में मैंग्रोव के क्षेत्रों, स्थितियों और वनों की कटाई की दरों का आकलन करने के लिए किया गया है। २०१८ में, ग्लोबल मैंग्रोव वॉच इनिशिएटिव ने एक नई वैश्विक आधार रेखा जारी की, जो २०१० तक दुनिया के कुल मैंग्रोव वन क्षेत्र का अनुमान १३,६० वर्ग किमी  (५३,१०० वर्ग मील) लगाती है, जो ११देशों और क्षेत्रों में फैला है।ज्वारीय आर्द्रभूमि के नुकसान और लाभ पर २०२२ के एक अध्ययन में १९९९ से २०१९ तक वैश्विक मैंग्रोव विस्तार में ३,७०० वर्ग किमी  (१४ वर्ग मील) की शुद्ध कमी का अनुमान लगाया गया है। मानव गतिविधि के कारण मैंग्रोव का नुकसान जारी है शेष मैंग्रोव की गुणवत्ता में गिरावट भी एक महत्वपूर्ण चिंता का विषय है। मैंग्रोव स्थायी तटीय और समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र का समर्थन करते हैं। वे आसपास के क्षेत्रों को सुनामी और चरम मौसम की घटनाओं से बचाते हैं। मैंग्रोव वन कार्बन पृथक्करण और भंडारण में भी प्रभावी हैं। मैंग्रोव पुनर्स्थापन की सफलता स्थानीय हितधारकों के साथ जुड़ाव और यह सुनिश्चित करने के लिए सावधानीपूर्वक मूल्यांकन पर निर्भर हो सकती है कि चुनी गई प्रजातियों के लिए विकास की परिस्थितियाँ उपयुक्त होंगी।  मैंग्रोव पारिस्थितिकी तंत्र के संरक्षण के लिए अंतर्राष्ट्रीय दिवस हर साल २६  जुलाई को मनाया जाता है।

***
सॉनेट
दीप्ति
दीप्ति तम मिटा दे प्रकाश नव
आत्म दीप प्रज्ज्वलित करें हम
जीवन में व्यापे हुलास नव
कर पाएँ जग से कुछ गम कम
दीप्त रहे मन-प्राण हमारा
शांति पा सकें, स्नेह लुटाकर
कभी किसा का बनें सहारा
द्वेष-घृणा को दूर भगाकर
बाती जले, तेल चुक जाए
किंतु श्रेय दीपक को मिलता
जग उजियारे की जय गाए
जीवन तम से मगर जनमता
दीप्तिमान हों मैं-तुम, हम सब
देख सकें सबके भीतर रब
२६-७-२०२२
•••
शिव पर दोहे
*
शिव सत हैं; रहते सदा, असत-अशुचि से दूर।
आत्मलीन परमात्म हैं, मोहमुक्त तमचूर।।
*
शिव सोकर भी जागते, भव से दूर-अदूर।
उन्मीलित श्यामल नयन, करुणा से भरपूर।।
*
शिव में राग-विराग है, शिव हैं क्रूर-अक्रूर।
भक्त विहँस अवलोकते, शिव का अद्भुत नूर।।
*
शिव शव का सच जानते, करते नहीं गुरूर।
काम वाम जा दग्ध हो, चढ़ता नहीं सुरूर।।
*
शिव न योग या भोग को, त्याग हुए मगरूर ।
सती सतासत पंथ चल, गहतीं सत्य जरूर।।
*
शिव से शिवा न भिन्न हैं, भेद करे जो सूर।
शिवा न शिव से खिन्न हैं, विरह नहीं मंजूर।।
*
शिव शंका के शत्रु हैं, सकल लोक मशहूर।
शिव-प्रति श्रद्धा हैं शिवा, ऐच्छिक कब मजबूर।।
*
शिव का चिर विश्वास हैं, शिवा भक्ति का पूर।
निराकार साकार हो, तज दें अहं हुजूर।।
*
शिव की नवधा भक्ति कर, तन-मन-धन है धूर।
नेह नर्मदा सलिल बन, हो संजीव मजूर।।
***
साहित्य संगम को समर्पित
जबलपुर में हो रहा 'साहित्य संगम' सफल हो
शारदा की हो कृपा, साहित्य महिमा अचल हो
श्रावणी वातावरण में, 'ज्ञानश्री' सब मिल वरें
'तृप्ति' पायें; छंद 'छाया' बैठ कर कवि मन तरें
स्नेह दें-लें, 'मंत्र' जीवन में यही पल-पल जपें
हों अनंत 'बसंत' रच साहित्य सुंदर हम तपें
'कलावती' हो 'मनीषा'; सृजन 'उमा' 'पूजा' सदृश
देख 'सुषमा' संग 'गीता' , 'सुरेखा' प्रगटे अदृश
'मुकुल' मुकुल कर मेघ, कहें कीर्ति साहित्य की
'रश्मि' 'दीप्ति' 'सुशील', 'ममता' मय आदित्य की
'स्वर्ण लता' लख छंद की, 'मनसिज' आप प्रबुद्ध हो
हों 'भगवान सहाय' आ, बुद्धि 'विनीता' सिद्ध हो
'राजेश्वरी' 'आशीष' दें, 'लवकुश' 'रामप्रकाश' पा
'शिवशंकर' हो आत्म, कर 'परिहार' 'नरेंद्र' आ
'राजन' हो 'राजेश', जब हो 'प्रियंक' 'सुधीर'
'विक्रम' का 'अभिषेक' कर, 'प्रांशु' बने मतिधीर
आ 'सुनील' 'जगदीश' भी, करता रस का पान
पूजे सदा 'सतीश' को, बन 'दिलीप' रसखान
२६-७-२०२१
***
नवगीत
*
फ्रीडमता है बोल रे!
हिंगलिश ले आनंद
अपनी बोली बोलते
जो वे हैं मतिमंद
होरी गारी जस भुला
बंबुलिया दो त्याग
राइम गाओ बेसुरा
भूलो कजरी फाग
फ़िल्मी धुन में रेंककर
छोड़ो देशी छंद
हैडेक हो रओ पेट में
कहें उठाके शीश
अधनंगी हो लेडियाँ
परेशान लख ईश
वेलेंटाइन पूज तू
बिसरा आनंदकंद
*
२७-७-२०२०
***
द्विपदियाँ
न केवल बात में, हालात में भी है वहाँ सीलन
जहाँ फौजों के साए में, चुनावी जीत होती है
न बारिश तुम इसे समझो, गिरा है आँख से पानी.
जो आहों का असर होगा, कहाँ जाओगे ये सोचो.
ग़ज़ल कहती न तू आ भा, ग़ज़ल कहती है जी मुझको
बताऊँ मैं उसे कैसे, जिया है हमेशा तुझको
नेता नौटंकी करे, कहकर आम चुनाव.
जिसको चाहे लड़ा दे, डगमग है अब नाव.
चमक रहे चमचे चतुर, गोल-मोल हर बात
पोल ढोल की खुल रही, नाजुक हैं हालात
शोक न करता जो कभी, कहिए उसे अशोक.
जो होता होता रहे, कोई न सकता रोक.
वही द्विवेदी जो पढ़े, योग-भोग दो वेद.
अंत समय में हो नहीं, उसको किंचित खेद.
मन के मनसबदार! तुम, कहो हुए क्यों मौन?
तनकर तन झट झुक गया, यहाँ किसी का कौन?
डर से डर ही उपजता, मिले स्नेह को स्नेह.
निष्ठा पर निष्ठा अडिग, सम हो गेह-अगेह.
***
नवगीत
*
बैठ नर्मदा तीर तंबूरा रहा बजा
बाबा गाये कूटो, लूटो मौज मजा
वनवासी के रहे न
जंगल सरकारी
सोने सम पेट्रोल
टैक्स दो हँस भारी
कोरोना प्रतिबंध
आम लोगों पर है
पार्टी दें-लें नेता
ऊँचे अधिकारी
टैक्स चुरा चंदा दो, थामे रहो ध्वजा
बैठ नर्मदा तीर तंबूरा रहा बजा
चौथा खंबा बिका
नींव पोली बचना
घुली कुएँ में भाँग
पियो बहको सजना
शिक्षक हेतु न वेतन
सांसद लें भत्ता
तंत्र हुआ है हावी
लोक न जी, मरना
जो होता, होने दो, मानो ईश रजा
बैठ नर्मदा तीर तंबूरा रहा बजा
२७-७-२०१८
***
नवगीत:
संजीव
*
गैर कहोगे जिनको
वे ही
मित्र-सगे होंगे
*
ना माँगेंगे पानी-राशन
ना चाहेंगे प्यार
नहीं लगायेंगे वे तुमको
अनचाहे फटकार
शिकवे-गिले-शिकायत
तुमसे?, होगी कभी नहीं
न ही जतायेंगे वे तुम पर
कभी तनिक अधिकार
काम पड़े पर नहीं
आचरण
प्रेम-पगे होंगे
गैर कहोगे जिनको
वे ही
मित्र-सगे होंगे
*
अगर न चाहो तो वे किंचित
निकट नहीं आते
काम पड़े तो अ
अपनापन दे
तनिक न भरमाते
लेन-देन साँसों के
आने-जाने सा व्यापार
कहो कभी क्या किंचित भी वे
तुमको तरसाते?
नाम न उनके, मन-
खूँटी पर
कभी टँगे होंगे
गैर कहोगे जिनको
वे ही
मित्र-सगे होंगे
*
सगा कह रहे जिनको वे ही
रहे निभाते बैर
सम्राटों की शहजादों से
कहो रही कब खैर?
जन्मा, गोद खिलाया-पाला
जिसको देता फूँक
बाप गधे को कहता, कहिए
जीते जी क्या गैर?
वे न जगेंगे,
जिनकी खातिर
आप जगे होंगे
गैर कहोगे जिनको
वे ही
मित्र-सगे होंगे
***
समीक्षा
काल है संक्रांति का
चंद्रकांता अग्निहोत्री
*
शब्द, अर्थ, प्रतीक, बिंब, छंद, अलंकार जिनका अनुगमन करते हैं और जो सदा सत्य की सेवा में अनुरत हैं, ऐसे मनीषी के परिचय को शब्दों में बाँधना कठिन है। इनकी कविताओं को प्रयोगवादी कविता कहा जा सकता है। काल है संक्रांति का आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल’ जी की नवीन कृति है। २०१५ में प्रकाशित इस गीत, नवगीत संग्रह में कवि ने कई नए प्रयोग किये हैं। इसमें उन्हें सफलता भी मिली है। नवीन की चाह में इन्होंने शाश्वत मूल्यों को तिलांजलि नहीं दी क्योंकि इस संग्रह में आरंभ में ही 'वंदन' नामक कविता में सब प्रकार से अभिनंदन किया है:
‘शरणागत हम
चित्रगुप्त प्रभु!
हाथ पसारे आए।’
अब वे ’स्तवन’ के अंतर्गत शारदा माँ की स्तुति करते हैं:
‘सरस्वती शारद ब्रह्माणी!
जय-जय वीणापाणी!'
एक आध्यात्मिक यात्री की तरह वे अपने पूर्वजों का स्मरण भी करते हैं:
कलश नहीं आधार बन सकें
भू हो हिंदी धाम।
सुमिर लें पुरखों को हम
आओ करे प्रणाम।
समाज हमें प्रभावित करता है और समाज की विद्रूपताओं को देख कवि हृदय विचलित हो काव्य रचना करता है। चारों और फैले आतंक को महसूस करते कवि कहता है:
‘झोंक दो आतंक-दहशत
तुम जलाकर भाड़
तुम मत झुको सूरज।’
कवि कहता है विकास के,प्रकाश के, नई उड़ान के सूरज तुम मत थकना। यहाँ सूरज प्रतीक है शुभ संकल्प का, उदित श्रेष्ठ संभावनाओं का और कहीं भी भ्रष्टाचार का अँधेरा न हो।
अपने भीतर के सूरज को संबोधित करते हर कवि कहता है:
'तुम रुको नहीं
थको नहीं।'
क्योंकि काल है संक्रांति का ।इस काल में चलते हुए कवि कहता है:.
खरपतवार न शेष रहे,
कचरा कहीं न लेश रहे।
सच में संक्रांति काल से गुजरना निश्चय ही पीड़ादायक है लेकिन कवि की निश्चयात्मक बुद्धि कहती है:
‘प्रणति है आशीष दो रवि
बाँह में कब घेरते हैं
प्रतीक्षा है उन पलों की।’
'काल है संक्राति का’ नामक काव्य संग्रह में यही स्वर उद्घोषित होता है: 'तुम रुको तुम थको नहीं। हम नये युग की ओर बढ़ रहे हैं। पुराना छूट रहा है,नये का आगमन है।
'सिर्फ सच में
धांधली अब तक चली
अब रोक दे।
सुधारों के लिए खुद को
झोंक दे।'
आक्रोश भी है उम्मीद भी। यह भाव लगभग सभी कविताओं में दृष्टिगोचर होता है:
'सुंदरिये मुंदरिये' की तर्ज़ पर अभिनव प्रयोग द्रष्टव्य है:
‘झूठी लड़े लड़ाई होय
भीतर करें मिताई होय।'
सदा शुभ की प्रेरणा देते हुए ‘करना सदा’ में कवि कहता है:
'हर शूल ले, हँस फूल दे
यदि भूल हो, मत तूल दे।
तुम बन्दूक चलाओ तो.
दीन-धर्म की तुम्हें न चाह
अमन-चैन को देते दाह
तुम जब आग लगाओगे
हम हँस, फिर फूल खिलाएँगे।'
स्थिति कोई भी हो, मनुष्य को उसका सामना करने के लिए तत्पर रहना चाहिए। समाज में रहते हुए भी भीड़ के साथ होना पड़ता है। 'राम बचाए' में कवि प्रश्न करते हैं:
'दुश्मन पर कम, करे विपक्षी पर
ही क्यों ज्यादा प्रहार हम?
कजरी आल्हा फागें बिसरे
माल जा रहे माल लुटाने
क्यों न भीड़ से
हुए भिन्न हम
राम बचाए।'
'कब होंगे आजाद' में क्षोभ है, स्वतंत्र होने की अभीप्सा है:
रीति-नीति, आचार-विचारों, भाषा का हो ज्ञान।
समझ बढ़े तो सीखें, रुचिकर धर्म नीति विज्ञान।
सुर न असुर, हम आदम यदि बन पायेंगे इंसान-
स्वर्ग तभी तो हो पाएगा, धरती पर आबाद।
कब होंगे आजाद?
कवि आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी की सभी रचनाएँ श्रेष्ठ हैं। ‘काल है संक्राति का’ का उद्घोष सभी
रचनाओं में परिलक्षित होता है। सभी रचनाओं की अपनी एक अलग पहचान है। जैसे: उठो पाखी, संक्रांति
काल है, उठो सूरज, छुएँ सूरज, सच की अर्थी, लेटा हूँ, मैं लडूंगा, उड़ चल हंसा, लोकतंत्र का पंछी आदि
विशेष उल्लेखनीय हैं।
अधिकांश बिंब व प्रतीक नए व मनोहारी हैं। कवि ने अपनी भावनाओं को बहुत सुंदरता से प्रस्तुत किया है।इनकी कविताओं की मुख्य विशेषता है घोर अन्धकार में भी आशावादी होना। प्रस्तुत संग्रह हमें साहित्य के क्षेत्र में आशावादी बनाता है। यह पुस्तक अमूल्य देन है साहित्य को। कथ्य व शिल्प की दृष्टि से सभी रचनाएं श्रेष्ठ हैं। पुस्तक पठनीय ही नहीं संग्रहणीय भी है।
आचार्य संजीव 'सलिल' जी को बहुत-बहुत बधाई।
***
मुहब्बतनामा
*
'सलिल' सद्गुणों की पुजारी मुहब्बत.
खुदा की है ये दस्तकारी मुहब्बत.१.
गंगा सी पावन दुलारी मुहब्बत.
रही रूह की रहगुजारी मुहब्बत.२.
अजर है, अमर है हमारी मुहब्बत.
सितारों ने हँसकर निहारी मुहब्बत.३.
महुआ है तू महमहा री मुहब्बत.
लगा जोर से कहकहा री मुहब्बत.४.
पिया बिन मलिन है दुखारी मुहब्बत.
पिया संग सलोनी सुखारी मुहब्बत.५.
सजा माँग सोहे भ'तारी मुहब्बत.
पिला दूध मोहे म'तारी मुहब्बत.६.
नगद है, नहीं है उधारी मुहब्बत.
है शबनम औ' शोला दुधारी मुहब्बत.७.
माने न मन मनचला री मुहब्बत.
नयन-ताल में झिलमिला री मुहब्बत.८.
नहीं ब्याहता या कुमारी मुहब्बत.
है पूजा सदा सिर नवा री, मुहब्बत.९.
जवां है हमारी-तुम्हारी मुहब्बत..
सबल है, नहीं है बिचारी मुहब्बत.१०.
उजड़ती है दुनिया, बसा री मुहब्बत.
अमन-चैन थोड़ा तो ब्या री मुहब्बत.११.
सम्हल चल, उमरिया है बारी मुहब्बत.
हो शालीन, मत तमतमा री मुहब्बत.१२.
दीवाली का दीपक जला री मुहब्बत.
न बम कोई लेकिन चला री मुहब्बत.१३.
न जिस-तिस को तू सिर झुका री मुहब्बत.
जो नादां है कर दे क्षमा री मुहब्बत.१४.
जहाँ सपना कोई पला री मुहब्बत.
वहीं मन ने मन को छला री मुहब्बत.१५.
न आये कहीं जलजला री मुहब्बत.
लजा मत तनिक खिलखिला री मुहब्बत.१६.
अगर राज कोई खुला री मुहब्बत.
तो करना न कोई गिला री मुहब्बत.१७.
बनी बात काहे बिगारी मुहब्बत?
जो बिगड़ी तो क्यों ना सुधारी मुहब्बत?१८.
कभी चाँदनी में नहा री मुहब्बत.
कभी सूर्य-किरणें तहा री मुहब्बत.१९.
पहले तो कर अनसुना री मुहब्बत.
मानी को फिर ले मना री मुहब्बत.२०.
चला तीर दिल पर शिकारी मुहब्बत.
दिल माँग ले न भिखारी मुहब्बत.२१.
सजा माँग में दिल पियारी मुहब्बत.
पिया प्रेम-अमृत पिया री मुहब्बत.२२.
रचा रास बृज में रचा री मुहब्बत.
हरि न कहें कुछ बचा री मुहब्बत.२३.
लिया दिल, लिया रे लिया री मुहब्बत.
दिया दिल, दिया रे दिया, री मुहब्बत.२४.
कुर्बान तुझ पर हुआ री मुहब्बत.
काहे सारिका से सुआ री मुहब्बत.२५.
दिया दिल लुटा तो क्या बाकी बचा है?
खाते में दिल कर जमा री मुहब्बत.२६.
दुनिया है मंडी खरीदे औ' बेचे.
कहीं तेरी भी हो न बारी मुहब्बत?२७.
सभी चाहते हैं कि दर से टरे पर
किसी से गयी है न टारी मुहब्बत.२८.
बँटे पंथ, दल, देश बोली में इंसां.
बँटने न पायी है यारी-मुहब्बत.२९.
तौलो अगर रिश्तों-नातों को लोगों
तो पाओगे सबसे है भारी मुहब्बत.३०.
नफरत के काँटे करें दिल को ज़ख़्मी.
मिलें रहतें कर दुआ री मुहब्बत.३१.
कभी माँगने से भी मिलती नहीं है.
बिना माँगे मिलती उदारी मुहब्बत.३२.
अफजल को फाँसी हो, टलने न पाये.
दिखा मत तनिक भी दया री मुहब्बत.३३.
शहादत है, बलिदान है, त्याग भी है.
जो सच्ची नहीं दुनियादारी मुहब्बत.३४.
धारण किया धर्म, पद, वस्त्र, पगड़ी.
कहो कब किसी ने है धारी मुहब्बत.३५.
जला दिलजले का भले दिल न लेकिन
कभी क्या किसी ने पजारी मुहब्बत?३६.
कबीरा-शकीरा सभी तुझ पे शैदा.
हर सूं गई तू पुकारी मुहब्बत.३७.
मुहब्बत की बातें करते सभी पर
कहता न कोई है नारी मुहब्बत?३८.
तमाशा मुहब्बत का दुनिया ने देखा
मगर ना कहा है 'अ-नारी मुहब्बत.३९.
चतुरों की कब थी कमी जग में बोलो?
मगर है सदा से अनारी मुहब्बत.४०.
बहुत हो गया, वस्ल बिन ज़िंदगी क्या?
लगा दे रे काँधा दे, उठा री मुहब्बत.४१.
निभाये वफ़ा तो सभी को हो प्यारी
दगा दे तो कहिये छिनारी मुहब्बत.४२.
भरे आँख-आँसू, करे हाथ सजदा.
सुकूं दे उसे ला बिठा री मुहब्बत.४३.
नहीं आयी करके वादा कभी तू.
सच्ची है या तू लबारी मुहब्बत?४४.
महज़ खुद को देखे औ' औरों को भूले.
कभी भी न करना विकारी मुहब्बत.४५.
हुआ सो हुआ अब कभी हो न पाये.
दुनिया में फिर से निठारी मुहब्बत.४६.
.
कभी मान का पान तो बन न पायी.
बनी जां की गाहक सुपारी मुहब्बत.४७.
उठाते हैं आशिक हमेशा ही घाटा.
कभी दे उन्हें भी नफा री मुहब्बत.४८.
न कौरव रहे कोई कुर्सी पे बाकी.
जो सारी किसी की हो फारी मुहब्बत.४९.
कलाई की राखी, कजलियों की मिलनी.
ईदी-सिवँइया, न खारी मुहब्बत.५०.
नथ, बिंदी, बिछिया, कंगन औ' चूड़ी.
पायल औ मेंहदी, है न्यारी मुहब्बत.५१.
करे पार दरिया, पहाड़ों को खोदा.
न तू कर रही क्यों कृपा री मुहब्बत?५२.
लगे अटपटी खटपटी चटपटी जो
कहें क्या उसे हम अचारी मुहब्बत?५३.
अमन-चैन लूटा, हुई जां की दुश्मन.
हुई या खुदा! अब बला री मुहब्बत.५४.
तू है बदगुमां, बेईमां जानते हम
कभी धोखे से कर वफा री मुहब्बत.५५.
कभी ख़त-किताबत, कभी मौन आँसू.
कभी लब लरजते, पुकारी मुहब्बत.५६.
न टमटम, न इक्का, नहीं बैलगाड़ी.
बसी है शहर, चढ़के लारी मुहब्बत.५७.
मिला हाथ, मिल ले गले मुझसे अब तो
करूँ दुश्मनों को सफा री मुहब्बत.५८.
तनिक अस्मिता पर अगर आँच आये.
बनती है पल में कटारी मुहब्बत.५९.
है जिद आज की रात सैयां के हाथों.
मुझे बीड़ा दे तू खिला री मुहब्बत.६०.
न चौका, न छक्का लगाती शतक तू.
गुले-दिल खिलाती खिला री मुहब्बत.६१.
न तारे, न चंदा, नहीं चाँदनी में
ये मनुआ प्रिया में रमा री मुहब्बत.६२.
समझ -सोच कर कब किसी ने करी है?
हुई है सदा बिन विचारी मुहब्बत.६३.
खा-खा के धोखे अफ़र हम गये हैं.
कहें सब तुझे अब अफारी मुहब्बत.६४.
तुझे दिल में अपने हमेशा है पाया.
कभी मुझको दिल में तू पा री मुहब्बत.65.
अमन-चैन हो, दंगा-संकट हो चाहे
न रोके से रुकती है जारी मुहब्बत.६६.
सफर ज़िंदगी का रहा सिर्फ सफरिंग
तेरा नाम धर दूँ सफारी मुहब्बत.६७.
जिसे जो न भाता उसे वह भगाता
नहीं कोई कहता है: 'जा री मुहब्बत'.६८.
तरसती हैं आँखें झलक मिल न पाती.
पिया को प्रिया से मिला री मुहब्बत.६९.
भुलाया है खुद को, भुलाया है जग को.
नहीं रबको पल भर बिसारी मुहब्बत.७०.
सजन की, सनम की, बलम की चहेती.
करे ढाई आखर-मुखारी मुहब्बत.७१.
न लाना विरह-पल जो युग से लगेंगे.
मिलन शायिका पर सुला री मुहब्बत.७२.
उषा के कपोलों की लाली कभी है.
कभी लट निशा की है कारी मुहब्बत.७३.
मुखर, मौन, हँस, रो, चपल, शांत है अब
गयी है विरह से उबारी मुहब्बत..
न तनकी, न मनकी, न सुध है बदनकी.
कहाँ हैं प्रिया?, अब बुला री मुहब्बत.७४.
नफरत को, हिंसा, घृणा, द्वेष को भी
प्रचारा, न क्योंकर प्रचारी मुहब्बत?७५.
सातों जनम तक है नाता निभाना.
हो कुछ भी न डर, कर तयारी मुहब्बत.७६.
बसे नैन में दिल, बसे दिल में नैना.
सिखा दे उन्हें भी कला री मुहब्बत.७७.
कभी देवता की, कभी देश-भू की
अमानत है जां से भी प्यारी मुहब्बत.७८.
पिए बिन नशा क्यों मुझे हो रहा है?
है साक़ी, पियाला, कलारी मुहब्बत.७९.
हो गोकुल की बाला मही बेचती है.
करे रास लीलाविहारी मुहब्बत.८०.
हवन का धुआँ, श्लोक, कीर्तन, भजन है.
है भक्तों की नग्मानिगारी मुहब्बत.८१.
ज़माने ने इसको कभी ना सराहा.
ज़माने पे पड़ती है भारी मुहब्बत.८२.
मुहब्बत के दुश्मन सम्हल अब भी जाओ.
नहीं फूल केवल, है आरी मुहब्बत.८३.
फटेगा कलेजा न हो बदगुमां तू.
सिमट दिल में छिप जा, समा री मुहब्बत.८४.
गली है, दरीचा है, बगिया है पनघट
कुटिया-महल है अटारी मुहब्बत.८५.
पिलाया है करवा से पानी पिया ने.
तनिक सूर्य सी दमदमा री मुहब्बत.८६.
मुहब्बत मुहब्बत है, इसको न बाँटो.
तमिल न मराठी-बिहारी मुहब्बत.८७.
न खापों का डर है न बापों की चिंता.
मिटकर निभा दे तू यारी मुहब्बत.८८.
कोई कर रहा है, कोई बच रहा है.
गयी है किसी से न टारी मुहब्बत.८९.
कली फूल कांटा है तितली- भ्रमर भी
कभी घास-पत्ती है डारी मुहब्बत.९०.
महल में मरे, झोपड़ी में हो जिंदा.
हथेली पे जां, जां पे वारी मुहब्बत.९१.
लगा दाँव पर दे ये खुद को, खुदा को.
नहीं बाज आये, जुआरी मुहब्बत.९२.
मुबारक है हमको, मुबारक है तुमको.
मुबारक है सबको, पिआरी मुहब्बत.९३.
रहे भाजपाई या हो कांगरेसी
न लेकिन कभी हो सपा री मुहब्बत.९४.
पिघल दिल गया जब कभी मृगनयन ने
बहा अश्क जीभर के ढारी मुहब्बत.९५.
जो आया गया वो न कोई रहा है.
अगर हो सके तो न जा री मुहब्बत.९६.
समय लीलता जा रहा है सभी को.
समय को ही क्यों न खा री मुहब्बत?९७.
काटे अनेकों लगाया न कोई.
कर फिर धरा को हरा री मुहब्बत.९८.
नंदन न अब देवकी के रहे हैं.
न पढ़ने को मिलती अयारी मुहब्बत.९९.
शतक पर अटक मत कटक पार कर ले.
शुरू कर नयी तू ये पारी मुहब्बत.१००.
न चौके, न छक्के 'सलिल' ने लगाये.
कभी हो सचिन सी भी पारी मुहब्बत.१०१.
'सलिल' तर गया, खुद को खो बेखुदी में
हुई जब से उसपे है तारी मुहब्बत.१०२.
'सलिल' शुबह-संदेह को झाड़ फेंके.
ज़माने की खातिर बुहारी मुहब्बत.१०३.
नए मायने जिंदगी को 'सलिल' दे.
न बासी है, ताज़ा-करारी मुहब्बत.१०४.
जलाती, गलाती, मिटाती है फिर भी
लुभाती 'सलिल' को वकारी मुहब्बत.१०५.
नहीं जीतकर भी 'सलिल' जीत पायी.
नहीं हारकर भी है हारी मुहब्बत.१०६.
नहीं देह की चाह मंजिल है इसकी.
'सलिल' चाहता निर्विकारी मुहब्बत.१०७.
'सलिल'-प्रेरणा, कामना, चाहना हो.
होना न पर वंचना री मुहब्बत.१०८.
बने विश्व-वाणी ये हिन्दी हमारी.
'सलिल' की यही कामना री मुहब्बत.१०९.
ये घपले-घुटाले घटा दे, मिटा दे.
'सलिल' धूल इनको चटा री मुहब्बत.११०.
'सलिल' घेरता चीन चारों तरफ से.
बहुत सोये अब तो जगा री मुहब्बत.१११.
अगारी पिछारी से होती है भारी.
सच यह 'सलिल' को सिखा री मुहब्बत.११२.
'सलिल' कौन किसका हुआ इस जगत में?
न रह मौन, सच-सच बता री मुहब्बत.११३.
'सलिल' को न देना तू गारी मुहब्बत.
सुना गारी पंगत खिला री मुहब्बत.११४.
'सलिल' तू न हो अहंकारी मुहब्बत.
जो होना हो, हो निराकारी मुहब्बत.११५.
'सलिल' साधना वन्दना री मुहबत.
विनत प्रार्थना अर्चना री मुहब्बत.११६.
चला, चलने दे सिलसिला री मुहब्बत.
'सलिल' से गले मिल मिल-मिला री मुहब्बत.११७.
कभी मान का पान लारी मुहब्बत.
'सलिल'-हाथ छट पर खिला री मुहब्बत.११८.
छत पर कमल क्यों खिला री मुहब्बत?
'सलिल'-प्रेम का फल फला री मुहब्बत.११९.
उगा सूर्य जब तो ढला री मुहब्बत.
'सलिल' तम सघन भी टला री मुहब्बत.१२०.
'सलिल' से न कह, हो दफा री मुहब्बत.
है सबका अलग फलसफा री मुहब्बत.१२१.
लड़ाती ही रहती किला री मुहब्बत.
'सलिल' से न लेना सिला री मुहब्बत.१२२.
तनिक नैन से दे पिला री मुहब्बत.
मरते 'सलिल' को जिला री मुहब्बत.१२३.
रहे शेष धर, मत लुटा री मुहब्बत.
कल को 'सलिल' कुछ जुटा री मुहब्बत.१२४.
प्रभाकर की रौशन अटारी मुहब्बत.
कुटिया 'सलिल' की सटा री मुहब्बत.१२५.
***
Poem:
RIVER
*
I wish to be a river.
Why do you laugh?
I'm not joking,
I really want to be a river>
Why?
Just because
River is not only a river.
River is civilization.
River is culture.
River is humanity.
River is divinity.
River is life of lives.
River is continuous attempt.
River is journey to progress.
River is never ending roar.
River is endless silence.
That's why river is called 'mother'.
That's why river is worshipped.
'Namami devi Narmade'.
River live for hunman
But human pollute it until it die.
I wish to
Live and die for others.
Bless mother earth with forests.
Finish the thrust.
Regenerate my energy
again and again.
That's why I wish to be a river.
२६.७.२०१५
***
मुक्तक
खिलखिलाती रहो, चहचहाती रहो
जिंदगी में सदा गुनगुनाती रहो
मेघ तम के चलें जब गगन ढाँकने
सूर्य को आईना हँस दिखाती रहो
*
दोहा सलिलाः
*
प्राची पर आभा दिखी, हुआ तिमिर का अन्त
अन्तर्मन जागृत करें, सन्त बन सकें सन्त
*
आशा पर आकाश टंगा है, कहते हैं सब लोग
आशा जीवन श्वास है, ईश्वर हो न वियोग
*
जो न उषा को चाह्ता, उसके फूटे भाग
कौन सुबह आकर कहे, उससे जल्दी जाग
*
लाल-गुलाबी जब दिखें, मनुआ प्राची-गाल
सेज छोड़कर नमन कर, फेर कर्म की माल
*
गाल टमाटर की तरह, अब न बोलना आप
प्रेयसि के नखरे बढ़ें, प्रेमी पाये शाप.
*
प्याज कुमारी से करे, युवा टमाटर प्यार
किसके ज्यादा भाव हैं?, हुई मुई तकरार
*
२७-७-२०१४

शुक्रवार, 11 जुलाई 2025

जून २५, दीप्ति, दोहा गीत, त्रिप्रमाणिका सवैया, सरस्वती, राम, पिता, सॉनेट, अखिलेश, नयन

सलिल सृजन जून २५
*
नयनावली 
नयन न मन की सुन रहे, करें नमन दिन-रैन। 
नयन नयन से मिल हुए, चैन गँवा बेचैन।। 
नयन चार जबसे हुए, भूल गए हैं द्वैत। 
जब तक नैना चार हैं, तब तक प्रिय अद्वैत।। 
नय न नयन को याद अब, नयन अनयन एक। 
नयन न सुनते क्या कहें, अनुभव बुद्धि विवेक।। 
नयन देखकर रूप को, कैसे करें बखान। 
जिव्हा न देखे रूप को, पर करती गुणगान।। 
नयन बोलते अबोले, देख न देखें सत्य। 
भोगें चुप परिणाम पर, आप न करते कृत्य।। 
.
शारद-शक्ति नयन बसें, नयन लक्ष्मी भक्त। 
वाक् अवाक निहारती, किसको कहे सशक्त।। 
नयन डूबकर नयन में, हो जाते भव पार। 
जो नैना डूबन डरे, क्या जाने मझधार।। 
नयन लड़े झुक उठ मिले, करे न युद्ध विराम। 
साथ न होकर साथ हो, बन गुलाम बेदाम।। 
२६.५.२०२५
***
सोनेट
नर्तन
*
नर्तन करते खुद को भूल शिव ले डमरू, विषधर झूम,
सलिल करे अभिषेक, पखारे पद प्रलयंकर के हो धन्य,
नाद अनाहद सुनें उमा माँ बाजे घुँघरू, तिक तिक धूम,
गणपति कार्तिक नंदी मूषक सिंह नाचते दृश्य अनन्य।
शारद वीणा सुने पवन नभ धरा दिशा दिगंत जीवंत,
ग्रह-उपग्रह नक्षत्र सितारे, हुए परिक्रमित रचने सृष्टि,
शंख-नाद हरि करें, रमा की वाणी का माधुर्य अनंत,
मंत्र मुग्ध विधि, सकल सिद्धि दे शारद कहे रखो सम दृष्टि।
वादन-गायन करें कान्ह नटवर, नटराज विलोक प्रसन्न,
राग-ताल ठाणे कर जोड़े, राग-रागिनी जन्म सफल,
रसानंद की छंद कहे जय, गोपी-गोप मुग्ध आसन्न,
चित्र गुप्त अनहद अरु अनुपम, ह्रदय विराजित अचल अटल।
नर्तन परिवर्तन का साक्षी, दर्शन करे सुदर्शन का
दूर विकर्षण पल में कर, नैकट्य रचे आकर्षण का।
२५-६-२०२३
***
मुक्तक
निंगा देव मूल भारत के लिंगायत ले परम विराग
प्रकृति-पुरुष को बोल शिवा-शिव सृष्टि वृद्धि हित वरते राग
सिर पर अमृत, कंठ गरल धर, सलिल धार दे प्यास मिटा,
वृषभ कृषक, सिंह वन्यबंधु, मूषक लघु सबका अमर सुहाग
२५-६-२०२३
***
सॉनेट
अखिलेश
घटघटवासी औघड़दानी
हे अखिलेश! तुम्हारी जय जय।
विषपायी बाबा शमशानी
करो कृपा जिस पर हो निर्भय।
हे कामारि! कलाविद तुमसा
अन्य न कोई हुआ, न होगा।
शशिधर डमरूधर उमेश हे!
भक्त करें वंदन नित यश गा।
अखिल विश्व के भाग्यनियंता
सकल सृष्टि संप्राणित तुमसे।
लेकिन यह भी तो सच ही है
जगतपूज्य हो प्रभु तुम हमसे।
हें ओंकारनाथ! विपदा हर
हर्षित कर, गाए जन हर हर।
२५-६-२०२२
•••
दोहा सलिला
गीता पढ़कर नित पिता, रहे पढ़ाते पाठ
सदानंद कर्त्तव्य से, मिले करो हंस ठाठ
*
विभा-रश्मि जब साथ हो, तब न तिमिर को भूल
भूमि रेणु से जो जुड़े, वह सरला मति फूल
*
पिता शिवानी पूजते, माँ शंकर की भक्त
भोर दुपहरी रीझती, संध्या थी अनुरक्त
*
करते भजन रमेश का, थे न रमा आधीन
शेख मान शहजाद सम, दें आदर बन दीन
*
राहुल और यशोधरा, साथ रहे बन बुद्ध
थे अनुराग-विराग के मूर्त रूप सन्नद्ध
*
प्रतिमा मन में पिता की, शोभित माँ के साथ
जीव हुआ संजीव तब, धर पग में नत माथ
*
श्वास आस माता पिता, हैं श्रद्धा-विश्वास
इंद्र-इंदिरा ले गए, अब है शेष उजास
२५-६-२०२१
****
विमर्श:
कब हुए थे राम?
भारतीय कालगणना के अनुसार सृष्टि निर्मित हुए १ ९६ ०८ ५३ १२१ वर्ष हो चुके हैं। पाश्चात्य वैज्ञानिक गणना कालांश से पीछे भी जाते है। वे काल गणना ईसा के जन्म से मानते रहे जब देखा कि भारत का इतिहास इससे भी पुराना है, तब इन्होंने AD( anno Domini) ईसा के बाद, BC (Before christ)ईसा पूर्व की कल्पना गढ़ी।
आज से ५५५० वर्ष पूर्व द्वापर युग के अंत में महाभारत युद्ध हुआ था।रामायण त्रेतायुग में हुई थी जिसका काल वर्तमान वैवस्वत मन्वंतर की २८ वीं चतुर्युगी के त्रेतायुग का है। वैदिक गणित/विज्ञान के अनुसार सृष्टि १४ मन्वंतर तक चलती है। प्रत्येक मन्वंतर में ७१ चतुर्युग होते हैं। एक चतुर्युग में ४ युग- सत,त्रेता,द्वापर एवं कलियुग होते है। ७ वाँ मन्वंतर वैवस्वत मन्वंतर चल रहा है।
सतयुग १७,२८,००० वर्ष का, त्रेतायुग १२ ९६,००० वर्ष का, द्वापरयुग ८,६४,००० वर्ष एवं कलियुग ४,३२,००० वर्ष का कालखंड है। वर्तमान मे २८ वे चतुर्युग का कलियुग चल रहा है अर्थात् श्रीराम के जन्म होने और हमारे समय के बीच ८,६४,००० वर्ष का द्वापरयुग तथा कलियुग के लगभग ५२०० वर्ष बीत चुके हैं। महान गणितज्ञ एवं ज्योतिष वराहमिहिर जी के अनुसार -
असन्मथासु मुनय: शासति पृथिवी: युधिष्ठिरै नृपतौ:
षड्द्विकपञ्चद्वियुत शककालस्य राज्ञश्च:
युधिष्ठिर के शासनकाल मे सप्तऋषि मघा नक्षत्र में थे। भारतीय ज्योतिष में २७ नक्षत्र होते हैं, सप्तऋषि प्रत्येक नक्षत्र मे १०० वर्ष रहते है`। यह चक्र चलता रहता है। युधिष्ठिर के समय सप्तऋषियों के २७ चक्र, उसके बाद २४, कुल मिलाकर ५१ चक्र अर्थात् ५,१०० वर्ष हो चुके हैं। युधिष्ठिर ने लगभग ३८ वर्ष शासन किया। उसके कुछ समय बाद आरंभ कलियुग के ५१५५ वर्ष बीत चुके हैं।
इस प्रकार कलियुग से द्वापरयुग तक ८,६९,१५५ वर्ष।
श्रीराम का जन्म हुआ था त्रेतायुग के अंत में। इस प्रकार कम से कम ९ लाख वर्ष के आसपास श्रीराम और रामायण का काल आता है।
रामायण सुन्दरकांड सर्ग ५, श्लोक १२ मे महर्षि वाल्मीकि जी लिखते हैं-
वारणैश्चै चतुर्दन्तै श्वैताभ्रनिचयोपमे
भूषितं रूचिद्वारं मन्तैश्च मृगपक्षिभि:||
अर्थात् जब हनुमान जी वन में श्रीराम और लक्ष्मण के पास जाते हैं तब सफेद रंग और ४ दाँतोंवाले हाथी को देखते हैं। ऐसे हाथी के जीवाश्म सन १८७७० मे॔ मिले थे। कार्बन डेटिंग पद्धति से इनकी आयु लगभग १० लाख से ५० लाख के आसपास निकलती है।
वैज्ञानिक भाषा मे इस हाथी को Gomphothere नाम दिया गया। इससे रामायणकालीन घटनाएँ लगभग १० लाख साल के आसपास घटित होने का वैज्ञानिक प्रमाण उपलब्ध होता है।
•••
अक्षरस्वामिनी आप इष्ट, ईश्वरी उजालावाही,
ऊपर एकल ऐश्वर्यी ओ!, औसरदाई अंबे।
अ: कर कृपा कविता करवा, छंद सिखा जगदंबे!!
*
सलिल करे अभिषेक धन्य हो, मैया! चरण पखार।
हृदयानंदित बसा मातु छवि, आप पधारें द्वार।।
हंसवाहिनी! स्वर-सरगम दे, कीर्ति-कथा कह पाऊँ।
तार बनूँ वीणा का शारद!, तुम छेड़ो तर जाऊँ।।
निर्मलवसने! मीनाक्षी हे! पद्माननी दयाकर।
ममतामयी! मृदुल अनुकंपा कर सुत को अपनाकर।।
ढाई आखर पोथी पढ़कर भाव साधना साधूँ।
रास-लास आवास हृदय को करें, तुम्हें आराधूँ।।
ध्यान धरूँ नित नयन मूँदकर, रूप अरूप निहारूँ।
सुध-बुध खोकर विश्वमोहिनी अपलक खुद को वारूँ।।
विधि-हरि-हर की कृपा मिले, हर चित्र गुप्त चुप देखूँ।
जो न अन्य को दिखे, वही लख, अक्षर-अक्षर लेखूँ।।
भवसागर तर आ पाए सुत, अहं भूल तव द्वार।
अविचल मति दे मैया मोरी शब्द ब्रह्म-सरकार।।
नमन स्वीकार ले, कृपा कर तार दे।
बिसर अपराध मम, जननि अँकवार ले।।
***
अभिनव प्रयोग-
नवान्वेषित त्रिप्रमाणिका सवैया
*
गणसूत्र - ज र ल ग, ज र ल ग, ज र ल ग।
*
चलो ध्वजा उठा चलें, प्रयाण गीत गा चलें, सभी सुलक्ष्य पा सकें।
कहीं नहीं कमी रहे, विकास की हवा बहे, गरीब सौख्य पा सकें।
नया उगे विहान भी, नया तने वितान भी, न भेद-भाव भा सकें।
उठो! उठो!! न हारना, जहां हमें सुधारना, सुछंद नित्य गा सकें।
***
दोहा सलिला
*
लाक्षणिकता हो प्रबल, सहज व्यंजना साध्य।
गति-यति-लय पच तत्वमय दोहा ही आराध्य।
*
दोहा-सुषमा सहजता, भाषिक सलिल प्रवाह।
पाठक करता वाह हो, श्रोता भरता आह।।
*
भाव बिंब रस भाव दें, दोहा के माधुर्य।
मिथक-प्रतीक सटीक हों, किन हो क्लिष्ट-प्राचुर्य।।
*
२५-६-२०१९
***
विमर्श:
कृष्णा अग्निहोत्री: ९०% पुरुष सामंती धारणा के हैं. आपकी क्या राय है?
*
और स्त्रियाँ? शत प्रतिशत...
विवाह होते ही स्वयं को हरः स्वामिनी मानकर पति के पूरे परिवार को बदलने या बेदखल करने की कोशिश, सफल न होने पर शोषण का आरोप, सम्बन्ध न निभा पाने पर खुद को न सुधार कर शेष सब को दंडित करने की कोशिश. जन्म से मरण तक खुद को पुरुष से मदद पाने का अधिकारी मानेंगी और उसी पर निराधार आरोप भी लगाएँगी. पिता की ममता, भाई का साथ, मित्र का अपनापन, पति का संरक्षण, ससुराल की धन-संपत्ति, बच्चों का लाड़, दामाद का आदर सब स्त्री का प्राप्य है किन्तु यह देनेवाला सामन्ती, शोषक, दुर्जन और न जाने क्या-क्या है. पुरुष प्रधान समाज में एक अकेली स्त्री आकर पति गृह की स्वामिनी हो जाती है जबकि पुरुष अपनी ससुराल में केवल अतिथि ही हो पाता है. यदि स्त्री प्रधान समाज हो तो स्त्री पुरु को जन्म ही न लेने दे या जन्मते ही दफना दे. इसीलिए प्रकृति ने पुरुष का अस्तित्व बचाए रखने के लिए प्राणी जगत में पुरुष को सबल बनाया.
*
डॉ.बिपिन पाण्डेय
बिल्कुल सही कहा आपने सर
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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Kanta Roy
मुंह ना खुले तो ही अच्छा है ,नहीं तो यहाँ आप हर दूसरी नारी कृष्णा अग्निहोत्री सी ही पायेंगे, संस्कारों व् अपमान का भय,सामजिक तिरस्कार का भय, घर में वापस कैद कर लिए जाने का भय .........इस भयों के कारण ही परिवार की पसंद पर खरी उतरने वाली आचरण व् रचनाएं लिखने को मजबूर है लेखिकाएं
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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एक्टिव
संजीव वर्मा 'सलिल'
नारी अपना तन मन दोनों उघाड़ती जा रही है. पुरुष यह नहीं कर रहा इसे उसकी कमजोरी नहीं माना जाए. एक चका पंचर होने पर भी गाडी घसिटती है, दोनों पंचर हुए तो भगवान ही मालिक है.
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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3
एक्टिव
संजीव वर्मा 'सलिल' ने जवाब दिया
·
12 जवाब
डॉ. रजनी कांत पांडेय
मै सलिल जी से पूर्णत: सहमत हूँ । तरह-तरह के अपराध का ठीकरा पुरुषो पर फोडने वाली स्त्री बिना पुरुष के चल भी नही पाती है । पुरुष बिना किसी शिकायत के कोल्हू के बैल जैसा दिन-रात चलता रहता है । अपनी खुशियाँ अपनी पत्नी तथा बच्चों के लिए बरबाद कर देता है फिर भी उसका कही नाम नही होता । मेरा मानना है कि स्त्री विमर्श के नाम पर केवल पुरुष को ही दोषी ठहराना उचित नही है ।आज के आधुनिक युग मे पुरुषों से किसी माने मे स्त्रियाँ कम नही है ।
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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2
Kanta Roy
आन्हाक उपस्थिति से मोन प्रसन्न भेल
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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एडिट किया
2
Kanta Roy
ई जे हमर ज्येष्ठ छथिन संजीव जी, झगड़ा करैत रहैत छैथ हमेशा लेकिन स्नेह सय ओत प्रोत सेहो रहैत छैथ
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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2
डॉ. रजनी कांत पांडेय
तुमने कसम खायी, दिल से मुझे मिटाने की ।
तो जिद मेरी भी है, दिल से नही जाने की ।
© डा. रजनी कान्त पान्डेय
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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2
डॉ. रजनी कांत पांडेय
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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2
Kanta Roy
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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संजीव वर्मा 'सलिल' के तौर पर कमेंट करें
Kiran Shrivastava
Bilkul sahi kaha he.
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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Harihar Jha
कहा जाता था दहेज प्रथा से स्त्रियों को सताया जा रहा है। जैसे ही 498A का लाभ स्त्रियों के पक्ष में मिला, बहू ने पति और सास-ससुर पर मुकदमें ठोकने शुरू कर दिये। तो फिर इसका ठीकरा पुरूषों पर मढ़ना कहाँ तक उचित है?
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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एक्टिव
संजीव वर्मा 'सलिल'
अब तो लड़के डर के कारण विवाह ही नहीं करना चाहते. लड़कियाँ सास ससुर नहीं चाहती सो लिव इन में जीवन नष्ट कर रही हैं.
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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अरुण शर्मा
पूर्णतः सहमत सर जी।
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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एक्टिव
डॉ. ब्रह्मजीत गौतम
अच्छी व्याख्या है !
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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एक्टिव
संजीव वर्मा 'सलिल'
कृष्णा जी ने पुरुष को लांछित नहीं महिमा-मंडित किया है. तभी वे राजेन्द्र जी की प्रशस्ति करती हैं. एकांगी सोच पुरुष-प्रशंसा के अंशों की अनदेखी कर पुरुष-निंदा के अंश को शीर्षक और नारे बना कर उछलती रहती है जिसका उद्देश्य सस्ती लोकप्रियता और सनसनी मात्र है. सुधरने की आवश्यकता पुरुष और स्त्री दोनों में उपस्थित रुग्ण मानसिकता को है. स्त्री और पुरुष दोनों में उपस्थित विवेक, सामर्थ्य और प्रयास को दिशा चाहिए. सुधरना दोनों को है. प्रकृति, परिवेश, परिस्थितियों के अनुरूप खुद को ढलते हुए सामंजस्य बैठाने की सामर्थ्य चुकने पर अन्यों को आरोपित कर खुद को दोषमुक्त समझना सरल तो है सत्य नहीं.
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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दर्शन बेजा़र
सभी विद्वानों के अलग अलग अनुभव अलग अलग टिप्पणियां जो स्वाभाविक भी है
6 वर्ष6 वर्ष पहले
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Pushpa Saxena
स्त्री पुरुष दोनो एक दूसरे के पूरक हैं ।केवल एक के ही बल पर परिवार की रचना नही होती ।आपसी सामंजस्य स्नेह त्याग धैर्य संस्कार अच्छी सोच ही आदर्श परिवार व समाज गठित होता है ।एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप निराधार हैं ।कुंठित सोच है ।हमें उदार द्दष्टिकोण अपनाना चाहिए
***
रचना-प्रति रचना
राकेश खण्डेलवाल-आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
दिन सप्ताह महीने बीते
घिरे हुए प्रश्नों में जीते
अपने बिम्बों में अब खुद मैं
प्रश्न चिन्ह जैसा दिखता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
भावों की छलके गागरिया, पर न भरे शब्दों की आँजुर
होता नहीं अधर छूने को सरगम का कोई सुर आतुर
छन्दों की डोली पर आकर बैठ न पाये दुल्हन भाषा
बिलख बिलख कर रह जाती है सपनो की संजीवित आशा
टूटी परवाज़ें संगवा कर
पंखों के अबशेष उठाकर
नील गगन की पगडंडी को
सूनी नजरों से तकता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
पीड़ा आकर पंथ पुकारे, जागे नहीं लेखनी सोई
खंडित अभिलाषा कह देती होता वही राम रचि सोई
मंत्रबद्ध संकल्प, शरों से बिंधे शायिका पर बिखरे हैं
नागफ़नी से संबंधों के विषधर तन मन को जकड़े हैं
बुझी हुई हाथों में तीली
और पास की समिधा गीली
उठते हुए धुंए को पीता
मैं अन्दर अन्दर रिसता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
धरना देती रहीं बहारें दरवाजे की चौखट थामे
अंगनाई में वनपुष्पों की गंध सांस का दामन थामे
हर आशीष मिला, तकता है एक अपेक्षा ले नयनों में
ढूँढ़ा करता है हर लम्हा छुपे हुए उत्तर प्रश्नों में
पन्ने बिखरा रहीं हवायें
हुईं खोखली सभी दुआयें
तिनके जैसा, उंगली थामे
बही धार में मैं तिरता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
मानस में असमंजस बढ़ता, चित्र सभी हैं धुंधले धुंधले
हीरकनी की परछाईं लेकर शीशे के टुकड़े निकले
जिस पद रज को मेंहदी करके कर ली थी रंगीन हथेली
निमिष मात्र न पलकें गीली करने आई याद अकेली
परिवेशों से कटा हुआ सा
समीकरण से घटा हुआ सा
जिस पथ की मंज़िल न कोई
अब मैं उस पथ पर मिलता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
भावुकता की आहुतियां दे विश्वासों के दावानल में
धूप उगा करती है सायों के अब लहराते आँचल में
अर्थहीन हो गये दुपहरी, सन्ध्या और चाँदनी रातें
पड़ती नहीं सुनाई होतीं जो अब दिल से दिल की बातें
कभी पुकारा पनिहारी ने
कभी संभाला मनिहारी ने
चूड़ी के टुकडों जैसा मैं
पानी के भावों बिकता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
मन के बंधन कहाँ गीत के शब्दों में हैं बँधने पाये
व्यक्त कहां होती अनुभूति चाहे कोई कितना गाये
डाले हुए स्वयं को भ्रम में कब तक देता रहूँ दिलासा
नीड़ बना, बैठा पनघट पर, लेकिन मन प्यासा का प्यासा
बिखराये कर तिनके तिनके
भावों की माला के मनके
सीपी शंख बिन चुके जिससे
मैं तट की अब वह सिकता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
***
आदरणीय राकेश जी को सादर समर्पित -
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
जैसे हो तुम मन के अंदर
वैसे ही बाहर दिखते हो
बहुत बधाई तुमको भैया!
*
अब न रहा कंकर में शंकर, कण-कण में भगवान् कहाँ है?
कनककशिपु तो पग-पग पर हैं, पर प्रहलाद न कहीं यहाँ है
शील सती का भंग करें हरि, तो कैसे भगवान हम कहें?
नहीं जलंधर-हरि में अंतर, जन-निंदा में क्यों न वे दहें?
वर देते हैं शिव असुरों को
अभय दान फिर करें सुरों को
आप भवानी-भंग संग रम
प्रेरित करते नारि-नरों को
महाकाल दें दण्ड भयंकर
दया न करते किंचित दैया!
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
जन-हित राजकुमार भेजकर, सत्तासीन न करते हैं अब
कौन अहल्या को उद्धारे?, बना निर्भया हँसते हैं सब
नाक आसुरी काट न पाते, लिया कमीशन शीश झुकाते
कमजोरों को मार रहे हैं, उठा गले से अब न लगाते
हर दफ्तर में, हर कुर्सी पर
सोता कुम्भकर्ण जब जागे
थाना हो या हो न्यायालय
सदा भुखमरा रिश्वत माँगे
भोग करें, ले आड़ योग की
पेड़ काटकर छीनें छैंया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
जब तक था वह गगनबिहारी, जग ने हँस आरती उतारी
छलिये को नटनागर कहकर, ठगी गयी निष्ठा बेचारी
मटकी फोड़ी, माखन खाया, रास रचाई, नाच नचाया
चला गया रणछोड़ मोड़ मुख, युगों बाद सन्देश पठाया
कहता प्रेम-पंथ को तज कर
ज्ञान-मार्ग पर चलना बेहतर
कौन कहे पोंगा पंडित से
नहीं महल, हमने चाहा घर
रहें द्वारका में महारानी
हमें चाहिए बाबा-मैया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
असत पुज रहा देवालय में, अब न सत्य में है नारायण
नेह नर्मदा मलिन हो रही, राग-द्वेष का कर पारायण
लीलावती-कलावतियों को 'लिव इन' रहना अब मन भाया
कोई बाँह में, कोई चाह में, खुद को ठगती खुद ही माया
कोकशास्त्र केजी में पढ़ती,
नव पीढ़ी के मूल्य नये हैं
खोटे सिक्कों का कब्ज़ा है
खरे हारकर दूर हुए हैं
वैतरणी करने चुनाव की
पार, हुई है साधन गैया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
दाँत शेर के कौन गिनेगा?, देश शत्रु से कौन लड़ेगा?
बोधि वृक्ष ले राजकुँवरि को, भेज त्याग-तप मौन वरेगा?
जौहर करना सर न झुकाना, तृण-तिनकों की रोटी खाना
जीत शौर्य से राज्य आप ही, गुरु चरणों में विहँस चढ़ाना
जान जाए पर नीति न छोड़ें
धर्म-मार्ग से कदम न मोड़ें
महिषासुरमर्दिनी देश-हित
अरि-सत्ता कर नष्ट, न छोड़ें
सात जन्म के सम्बन्धों में
रोज न बदलें सजनी-सैंया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
युद्ध-अपराधी कहा उसे जिसने, सर्वाधिक त्याग किया है
जननायक ने ही जनता की, पीठ में छुरा भोंक दिया है
सत्ता हित सिद्धांत बेचते, जन-हित की करते नीलामी
जिसमें जितनी अधिक खोट है, वह नेता है उतना दामी
साथ रहे सम्पूर्ण क्रांति में
जो वे स्वार्थ साध टकराते
भूले, बंदर रोटी खाता
बिल्ले लड़ते ही रह जाते
डुबा रहे मल्लाह धार में
ले जाकर अपनी ही नैया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
कहा गरीबी दूर करेंगे, लेकिन अपनी भरी तिजोरी
धन विदेश में जमा कर दिया, सब नेता हो गए टपोरी
पति पत्नी बच्चों को कुर्सी, बैठा देश लूटते सब मिल
वादों को जुमला कह देते, पद-मद में रहते हैं गाफिल
बिन साहित्य कहें भाषा को
नेता-अफसर उद्धारेंगे
मात-पिता का जीना दूभर
कर जैसे बेटे तारेंगे
पर्व त्याग वैलेंटाइन पर
लुक-छिप चिपकें हाई-हैया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
२५-६-२०१६
***
विमर्श :
हिन्दू - मुसलमान और शिक्षा - विज्ञान
गत १५० वर्ष में हुई प्रगति में पश्चिमी देशों अर्थात यहूदी और ईसाइयों की भागीदारी बहुत अधिक है, हिन्दुओं और मुस्लिमों की अपरक्षकृत बहुत कम। इस काल खंड में हिंदू और मुसलमान सत्ता और धर्म के लिए लड़ते-मरते रहे।
इस समय में हुए १०० महान वैज्ञानिकों के नाम लिखें तो हिन्दू और मुसलमान नाम मात्र को ही मिलेंगे।
दुनिया में ६१ इस्लामी देशों की जनसंख्या लगभग १.७५ अरब और उनमें विश्वविद्यालय लगभग ४५० हैं जबकि हिन्दुओं की जनसंख्या लगभग १.५० अरब और विश्वविद्यालय लगभग ४९० हैं। अमेरिका में ३००० से अधिक और जापान में ९०० से अधिक विश्वविद्यालय हैं।
लगभग ४५ % ईसाई युवक तथा ७५ % यहूदी युवक, २०% हिन्दू युवक तथा ३% मुस्लिम युवक उच्च शिक्षा लेते हैं।
दुनिया के २०० प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में से ५४ अमेरिका, २४इंग्लेंड, १७ ऑस्ट्रेलिया, १० चीन, १० जापान, १० हॉलॅंड, ९ फ़्राँस, 8 जर्मनी, २ भारत और १ इस्लामी मुल्क में हैं।
अमेरिका का जी.डी.पी १५ ट्रिलियन डॉलर से अधिक है जबकि पूरे इस्लामिक जगत का कुल जी.डी.पी लगभग ३.५ ट्रिलियन डॉलर है और भारत का लगभग१.९ ट्रिलियन डॉलर है।
दुनिया में ३८००० मल्टिनॅशनल कम्पनियाँ हैं जिनमें से ३२००० कम्पनियाँ अमेरिका और युरोप में हैं।
दुनिया के १०,००० बड़े अविष्कारों में से ६१०३ अमेरिका में और ८४१० ईसाइयों या यहूदियों ने किये हैं।
दुनिया के ५० अमीरो में से २० अमेरिका, ५ इंग्लेंड, ३ चीन, २ मक्सिको, ३ भारत और १ अरब मुल्क से हैं।
हम हिन्दू और मुसलमान जनहित, परोपकार या समाज सेवा मे भी ईसाईयों और यहूदियों से पीछे हैं। रेडक्रॉस दुनिया का सब से बड़ा मानवीय संगठन है।
बिल गेट्स ने १० बिलियन डॉलर से बिल- मिलिंडा गेट्स फाउंडेशन की बुनियाद रखी जो कि पूरे विश्व के ८ करोड़ बच्चों की सेहत का ख्याल रखती है।
जबकि हम जानते है कि भारत में कई अरबपति हैं। मुकेश अंबानी अपना घर बनाने में ४००० करोड़ खर्च कर सकते हैं और अरब का अमीर शहज़ादा अपने स्पेशल जहाज पर ५०० मिलियन डॉलर खर्च कर सकते हैं। मगर मानवीय सहायता के लिये दोनों ही आगे नहीं आते।
ओलंपिक खेलों में अमेरिका ही सब से अधिक गोल्ड जीतता है। रूस, चीन, जापान, आदि कई देशों के बाद भारत का नाम अत है और मुस्लिम देश तो लगभग अंत में ही होते हैं। हम अतीत पर थोथा गर्व करते हैं किन्तु व्यवहार से वास्तव में व्यक्तिवादी और स्वार्थी हैं। आपस में लड़ने पर अधिक विश्वास रखते हैं। मानसिक रूप में हम हीनताग्रस्त और विदेशों खासकर पश्चिमी देशों की नकल कर गर्व अनुभव करते हैं। धर्म के नाम पर आपस में लड़ने में हम सबसे आगे हैं।
जरा सोचिये कि हमें किस तरफ अधिक ध्यान देने की जरूरत है, आपस में लड़ने या एक होकर देश और खुद को आगे बढ़ाने की? एक-दूसरे के धर्मस्थान तोड़े की या कल-कारखाने खड़े करने की। स्वर्ग और जन्नत के काल्पनिक स्वप्न देखने की या इस धरती और अपने जीवन को अधिक सुखमय बनाने की?
***
मुक्तक: दीप्ति
*
दीप्ति दुनिया की बढ़े नित, देव! यह वरदान देना,
जब कभी तूफां पठाओ, सिखा देना नाव खेना।
नहीं मोहन भोग की है चाह- लेकिन तृप्ति देना-
उदर अपना भर सकूँ, मेहमान भी पायें चबेना।।
*
दीप्ति निश-दिन हो अधिक से अधिक व्यापक,
लगें बौने हैं सभी दुनिया के मापक।
काव्यधारा रहे बहती, सत्य कहती -
दूर दुर्वासा सरीखे रहें शापक।।
*
दीप्ति चेहरे पर रहे नित नव सृजन की,
छंद में छवि देख पायें सब स्वजन की।
ह्रदय का हो हार हिंदी विश्व वाणी-
पत्रिका प्रेषित चरण में प्रभु! नमन की।।
*
दीप्ति आगत भोर का सन्देश देती,
दीप्ति दिनकर को बढ़ो आदेश देती।
दीप्ति संध्या से कहे दिन को नमन कर-
दीप्ति रजनी को सुला बांहों में लेती।।
*
दीप्ति सपनों से सतत दुनिया सजाती,
दीप्ति पाने ज़िंदगी दीपक जलाती।
दीप्ति पाले मोह किंचित कब किसी से-
दीप्ति भटके पगों को राहें दिखाती।।
*
दीप्ति की पाई विरासत धन्य भारत,
दीप्ति कर बदलाव दे, कर-कर बगावत।
दीप्ति बाँटें स्नेह सबको अथक निश-दिन-
दीप्ति से हो तम पराजित कर अदावत।।
*
दीप्ति की गाथा प्रयासों की कहानी,
दीप्ति से मैत्री नहीं होती जुबानी।।
दीप्ति कब मुहताज होती है समय की =-
दीप्ति का स्पर्श पा खिलती जवानी।।
२५.६.२०१३
***
दोहागीत :
मनुआ बेपरवाह.....
*
मन हुलसित पुलकित बदन, छूले नभ है चाह.
झूले पर पेंगें भरे, मनुआ बेपरवाह.....
*
ठेंगे पर दुनिया सकल,
जो कहना है- बोल.
अपने मन की गाँठ हर,
पंछी बनकर खोल..
गगन नाप ले पवन संग
सपनों में पर तोल.
कमसिन है लेकिन नहीं
संकल्पों में झोल.
आह भरे जग देखकर, या करता हो वाह.
झूले पर पेंगें भरे, मनुआ बेपरवाह.....
*
मौन करे कोशिश सदा,
कभी न पीटे ढोल.
जैसा है वैसा दिखे,
चाहे कोई न खोल..
बात कर रहा है खरी,
ज्ञात शब्द का मोल.
'सलिल'-धर में मीन बन,
चंचल करे किलोल.
कोमल मत समझो इसे, हँस सह ले हर दाह.
झूले पर पेंगें भरे, मनुआ बेपरवाह.....
२५.६.२०११
***
मुक्तिका:
लिखी तकदीर रब ने...
*
लिखी तकदीर रब ने फिर भी हम तदबीर करते हैं.
फलक उसने बनाया है, मगर हम रंग भरते हैं..
न हमको मौत का डर है, न जीने की तनिक चिंता-
न लाते हैं, न ले जाते मगर धन जोड़ मरते हैं..
कमाते हैं करोड़ों पाप कर, खैरात देते दस.
लगाकर भोग तुझको खुद ही खाते और तरते हैं..
कहें नेता- 'करें क्यों पुत्र अपने काम सेना में?
फसल घोटालों-घपलों की उगाते और चरते हैं..
न साधन थे तो फिरते थे बिना कपड़ों के आदम पर-
बहुत साधन मिले तो भी कहो क्यों न्यूड फिरते हैं..
न जीवन को जिया आँखें मिलाकर, सिर झुकाए क्यों?
समय जब आख़िरी आया तो खुद से खुद ही डरते हैं..
'सलिल' ने ज़िंदगी जी है, सदा जिंदादिली से ही.
मिले चट्टान तो थमते, नहीं सूराख करते हैं..
२५-६-२०१०
***


सभी रिएक्शन:11

रविवार, 25 जून 2023

मुक्तिका, दोहागीत, मुक्तक, दीप्ति, राम, प्रमाणिका सवैया, राकेश खण्डेलवाल, सॉनेट, अखिलेश

सोनेट
नर्तन
*
नर्तन करते खुद को भूल शिव ले डमरू, विषधर झूम,
सलिल करे अभिषेक, पखारे पद प्रलयंकर के हो धन्य,
नाद अनाहद सुनें उमा माँ बाजे घुँघरू, तिक तिक धूम,
गणपति कार्तिक नंदी मूषक सिंह नाचते दृश्य अनन्य।

शारद वीणा सुने पवन नभ धरा दिशा दिगंत जीवंत,
ग्रह-उपग्रह नक्षत्र सितारे, हुए परिक्रमित रचने सृष्टि,
शंख-नाद हरि करें, रमा की वाणी का माधुर्य अनंत,
मंत्र मुग्ध विधि, सकल सिद्धि दे शारद कहे रखो सम दृष्टि।

वादन-गायन करें कान्ह नटवर, नटराज विलोक प्रसन्न, 
राग-ताल ठाणे कर जोड़े, राग-रागिनी  जन्म सफल,
रसानंद की छंद कहे जय, गोपी-गोप मुग्ध आसन्न,
चित्र गुप्त अनहद का अनुपम, ह्रदय विराजित अचल अटल। 

नर्तन परिवर्तन का साक्षी, दर्शन करे सुदर्शन का
दूर विकर्षण पल में कार, नैकट्य रचे आकर्षण का।
२५-६-२०२३   
***
मुक्तक 
निंगा देव मूल भारत के लिंगायत ले परम विराग
प्रकृति-पुरुष को बोल शिवा-शिव सृष्टि वृद्धि हित वरते राग
सिर पर अमृत, कंठ गरल धर, सलिल धार दे प्यास मिटा,
वृषभ कृषक, सिंह वन्यबंधु, मूषक लघु सबका अमर सुहाग
२५-६-२०२३
***
सॉनेट
अखिलेश
घटघटवासी औघड़दानी
हे अखिलेश! तुम्हारी जय जय।
विषपायी बाबा शमशानी
करो कृपा जिस पर हो निर्भय।
हे कामारि! कलाविद तुमसा
अन्य न कोई हुआ, न होगा।
शशिधर डमरूधर उमेश हे!
भक्त करें वंदन नित यश गा।
अखिल विश्व के भाग्यनियंता
सकल सृष्टि संप्राणित तुमसे।
लेकिन यह भी तो सच ही है
जगतपूज्य हो प्रभु तुम हमसे।
हें ओंकारनाथ! विपदा हर
हर्षित कर, गाए जन हर हर।
२५-६-२०२२
•••
दोहा सलिला
गीता पढ़कर नित पिता, रहे पढ़ाते पाठ
सदानंद कर्त्तव्य से, मिले करो हंस ठाठ
*
विभा-रश्मि जब साथ हो, तब न तिमिर को भूल
भूमि रेणु से जो जुड़े, वह सरला मति फूल
*
पिता शिवानी पूजते, माँ शंकर की भक्त
भोर दुपहरी रीझती, संध्या थी अनुरक्त
*
करते भजन रमेश का, थे न रमा आधीन
शेख मान शहजाद सम, दें आदर बन दीन
*
राहुल और यशोधरा, साथ रहे बन बुद्ध
थे अनुराग-विराग के मूर्त रूप सन्नद्ध
*
प्रतिमा मन में पिता की, शोभित माँ के साथ
जीव हुआ संजीव तब, धर पग में नत माथ
*
श्वास आस माता पिता, हैं श्रद्धा-विश्वास
इंद्र-इंदिरा ले गए, अब है शेष उजास
२५-६-२०२१
****
विमर्श:
कब हुए थे राम?
भारतीय कालगणना के अनुसार सृष्टि निर्मित हुए १ ९६ ०८ ५३ १२१ वर्ष हो चुके हैं। पाश्चात्य वैज्ञानिक गणना कालांश से पीछे भी जाते है। वे काल गणना ईसा के जन्म से मानते रहे जब देखा कि भारत का इतिहास इससे भी पुराना है, तब इन्होंने AD( anno Domini) ईसा के बाद, BC (Before christ)ईसा पूर्व की कल्पना गढ़ी।
आज से ५५५० वर्ष पूर्व द्वापर युग के अंत में महाभारत युद्ध हुआ था।रामायण त्रेतायुग में हुई थी जिसका काल वर्तमान वैवस्वत मन्वंतर की २८ वीं चतुर्युगी के त्रेतायुग का है। वैदिक गणित/विज्ञान के अनुसार सृष्टि १४ मन्वंतर तक चलती है। प्रत्येक मन्वंतर में ७१ चतुर्युग होते हैं। एक चतुर्युग में ४ युग- सत,त्रेता,द्वापर एवं कलियुग होते है। ७ वाँ मन्वंतर वैवस्वत मन्वंतर चल रहा है।
सतयुग १७,२८,००० वर्ष का, त्रेतायुग १२ ९६,००० वर्ष का, द्वापरयुग ८,६४,००० वर्ष एवं कलियुग ४,३२,००० वर्ष का कालखंड है। वर्तमान मे २८ वे चतुर्युग का कलियुग चल रहा है अर्थात् श्रीराम के जन्म होने और हमारे समय के बीच ८,६४,००० वर्ष का द्वापरयुग तथा कलियुग के लगभग ५२०० वर्ष बीत चुके हैं। महान गणितज्ञ एवं ज्योतिष वराहमिहिर जी के अनुसार -
असन्मथासु मुनय: शासति पृथिवी: युधिष्ठिरै नृपतौ:
षड्द्विकपञ्चद्वियुत शककालस्य राज्ञश्च:
युधिष्ठिर के शासनकाल मे सप्तऋषि मघा नक्षत्र में थे। भारतीय ज्योतिष में २७ नक्षत्र होते हैं, सप्तऋषि प्रत्येक नक्षत्र मे १०० वर्ष रहते है`। यह चक्र चलता रहता है। युधिष्ठिर के समय सप्तऋषियों के २७ चक्र, उसके बाद २४, कुल मिलाकर ५१ चक्र अर्थात् ५,१०० वर्ष हो चुके हैं। युधिष्ठिर ने लगभग ३८ वर्ष शासन किया। उसके कुछ समय बाद आरंभ कलियुग के ५१५५ वर्ष बीत चुके हैं।
इस प्रकार कलियुग से द्वापरयुग तक ८,६९,१५५ वर्ष।
श्रीराम का जन्म हुआ था त्रेतायुग के अंत में। इस प्रकार कम से कम ९ लाख वर्ष के आसपास श्रीराम और रामायण का काल आता है।
रामायण सुन्दरकांड सर्ग ५, श्लोक १२ मे महर्षि वाल्मीकि जी लिखते हैं-
वारणैश्चै चतुर्दन्तै श्वैताभ्रनिचयोपमे
भूषितं रूचिद्वारं मन्तैश्च मृगपक्षिभि:||
अर्थात् जब हनुमान जी वन में श्रीराम और लक्ष्मण के पास जाते हैं तब सफेद रंग और ४ दाँतोंवाले हाथी को देखते हैं। ऐसे हाथी के जीवाश्म सन १८७७० मे॔ मिले थे। कार्बन डेटिंग पद्धति से इनकी आयु लगभग १० लाख से ५० लाख के आसपास निकलती है।
वैज्ञानिक भाषा मे इस हाथी को Gomphothere नाम दिया गया। इससे रामायणकालीन घटनाएँ लगभग १० लाख साल के आसपास घटित होने का वैज्ञानिक प्रमाण उपलब्ध होता है।
•••
अक्षरस्वामिनी आप इष्ट, ईश्वरी उजालावाही,
ऊपर एकल ऐश्वर्यी ओ!, औसरदाई अंबे।
अ: कर कृपा कविता करवा, छंद सिखा जगदंबे!!
*
सलिल करे अभिषेक धन्य हो, मैया! चरण पखार।
हृदयानंदित बसा मातु छवि, आप पधारें द्वार।।
हंसवाहिनी! स्वर-सरगम दे, कीर्ति-कथा कह पाऊँ।
तार बनूँ वीणा का शारद!, तुम छेड़ो तर जाऊँ।।
निर्मलवसने! मीनाक्षी हे! पद्माननी दयाकर।
ममतामयी! मृदुल अनुकंपा कर सुत को अपनाकर।।
ढाई आखर पोथी पढ़कर भाव साधना साधूँ।
रास-लास आवास हृदय को करें, तुम्हें आराधूँ।।
ध्यान धरूँ नित नयन मूँदकर, रूप अरूप निहारूँ।
सुध-बुध खोकर विश्वमोहिनी अपलक खुद को वारूँ।।
विधि-हरि-हर की कृपा मिले, हर चित्र गुप्त चुप देखूँ।
जो न अन्य को दिखे, वही लख, अक्षर-अक्षर लेखूँ।।
भवसागर तर आ पाए सुत, अहं भूल तव द्वार।
अविचल मति दे मैया मोरी शब्द ब्रह्म-सरकार।।
नमन स्वीकार ले, कृपा कर तार दे।
बिसर अपराध मम, जननि अँकवार ले।।
***
अभिनव प्रयोग-
नवान्वेषित त्रिप्रमाणिका सवैया
*
गणसूत्र - ज र ल ग, ज र ल ग, ज र ल ग।
*
चलो ध्वजा उठा चलें, प्रयाण गीत गा चलें, सभी सुलक्ष्य पा सकें।
कहीं नहीं कमी रहे, विकास की हवा बहे, गरीब सौख्य पा सकें।
नया उगे विहान भी, नया तने वितान भी, न भेद-भाव भा सकें।
उठो! उठो!! न हारना, जहां हमें सुधारना, सुछंद नित्य गा सकें।
***
दोहा सलिला
*
लाक्षणिकता हो प्रबल, सहज व्यंजना साध्य।
गति-यति-लय पच तत्वमय दोहा ही आराध्य।
*
दोहा-सुषमा सहजता, भाषिक सलिल प्रवाह।
पाठक करता वाह हो, श्रोता भरता आह।।
*
भाव बिंब रस भाव दें, दोहा के माधुर्य।
मिथक-प्रतीक सटीक हों, किन हो क्लिष्ट-प्राचुर्य।।
*
२५-६-२०१९
***
विमर्श:
कृष्णा अग्निहोत्री: ९०% पुरुष सामंती धारणा के हैं. आपकी क्या राय है?
*
और स्त्रियाँ? शत प्रतिशत...
विवाह होते ही स्वयं को हरः स्वामिनी मानकर पति के पूरे परिवार को बदलने या बेदखल करने की कोशिश, सफल न होने पर शोषण का आरोप, सम्बन्ध न निभा पाने पर खुद को न सुधार कर शेष सब को दंडित करने की कोशिश. जन्म से मरण तक खुद को पुरुष से मदद पाने का अधिकारी मानेंगी और उसी पर निराधार आरोप भी लगाएँगी. पिता की ममता, भाई का साथ, मित्र का अपनापन, पति का संरक्षण, ससुराल की धन-संपत्ति, बच्चों का लाड़, दामाद का आदर सब स्त्री का प्राप्य है किन्तु यह देनेवाला सामन्ती, शोषक, दुर्जन और न जाने क्या-क्या है. पुरुष प्रधान समाज में एक अकेली स्त्री आकर पति गृह की स्वामिनी हो जाती है जबकि पुरुष अपनी ससुराल में केवल अतिथि ही हो पाता है. यदि स्त्री प्रधान समाज हो तो स्त्री पुरु को जन्म ही न लेने दे या जन्मते ही दफना दे. इसी लिए प्रकृति ने पुरुष का अस्तित्व बचाए रखने के लिए प्राणी जगत में पुरुष को सबल बनाया.
***
रचना-प्रति रचना
राकेश खण्डेलवाल-आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
दिन सप्ताह महीने बीते
घिरे हुए प्रश्नों में जीते
अपने बिम्बों में अब खुद मैं
प्रश्न चिन्ह जैसा दिखता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
भावों की छलके गागरिया, पर न भरे शब्दों की आँजुर
होता नहीं अधर छूने को सरगम का कोई सुर आतुर
छन्दों की डोली पर आकर बैठ न पाये दुल्हन भाषा
बिलख बिलख कर रह जाती है सपनो की संजीवित आशा
टूटी परवाज़ें संगवा कर
पंखों के अबशेष उठाकर
नील गगन की पगडंडी को
सूनी नजरों से तकता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
पीड़ा आकर पंथ पुकारे, जागे नहीं लेखनी सोई
खंडित अभिलाषा कह देती होता वही राम रचि सोई
मंत्रबद्ध संकल्प, शरों से बिंधे शायिका पर बिखरे हैं
नागफ़नी से संबंधों के विषधर तन मन को जकड़े हैं
बुझी हुई हाथों में तीली
और पास की समिधा गीली
उठते हुए धुंए को पीता
मैं अन्दर अन्दर रिसता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
धरना देती रहीं बहारें दरवाजे की चौखट थामे
अंगनाई में वनपुष्पों की गंध सांस का दामन थामे
हर आशीष मिला, तकता है एक अपेक्षा ले नयनों में
ढूँढ़ा करता है हर लम्हा छुपे हुए उत्तर प्रश्नों में
पन्ने बिखरा रहीं हवायें
हुईं खोखली सभी दुआयें
तिनके जैसा, उंगली थामे
बही धार में मैं तिरता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
मानस में असमंजस बढ़ता, चित्र सभी हैं धुंधले धुंधले
हीरकनी की परछाईं लेकर शीशे के टुकड़े निकले
जिस पद रज को मेंहदी करके कर ली थी रंगीन हथेली
निमिष मात्र न पलकें गीली करने आई याद अकेली
परिवेशों से कटा हुआ सा
समीकरण से घटा हुआ सा
जिस पथ की मंज़िल न कोई
अब मैं उस पथ पर मिलता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
भावुकता की आहुतियां दे विश्वासों के दावानल में
धूप उगा करती है सायों के अब लहराते आँचल में
अर्थहीन हो गये दुपहरी, सन्ध्या और चाँदनी रातें
पड़ती नहीं सुनाई होतीं जो अब दिल से दिल की बातें
कभी पुकारा पनिहारी ने
कभी संभाला मनिहारी ने
चूड़ी के टुकडों जैसा मैं
पानी के भावों बिकता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
मन के बंधन कहाँ गीत के शब्दों में हैं बँधने पाये
व्यक्त कहां होती अनुभूति चाहे कोई कितना गाये
डाले हुए स्वयं को भ्रम में कब तक देता रहूँ दिलासा
नीड़ बना, बैठा पनघट पर, लेकिन मन प्यासा का प्यासा
बिखराये कर तिनके तिनके
भावों की माला के मनके
सीपी शंख बिन चुके जिससे
मैं तट की अब वह सिकता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
***
आदरणीय राकेश जी को सादर समर्पित -
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
जैसे हो तुम मन के अंदर
वैसे ही बाहर दिखते हो
बहुत बधाई तुमको भैया!
*
अब न रहा कंकर में शंकर, कण-कण में भगवान् कहाँ है?
कनककशिपु तो पग-पग पर हैं, पर प्रहलाद न कहीं यहाँ है
शील सती का भंग करें हरि, तो कैसे भगवान हम कहें?
नहीं जलंधर-हरि में अंतर, जन-निंदा में क्यों न वे दहें?
वर देते हैं शिव असुरों को
अभय दान फिर करें सुरों को
आप भवानी-भंग संग रम
प्रेरित करते नारि-नरों को
महाकाल दें दण्ड भयंकर
दया न करते किंचित दैया!
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
जन-हित राजकुमार भेजकर, सत्तासीन न करते हैं अब
कौन अहल्या को उद्धारे?, बना निर्भया हँसते हैं सब
नाक आसुरी काट न पाते, लिया कमीशन शीश झुकाते
कमजोरों को मार रहे हैं, उठा गले से अब न लगाते
हर दफ्तर में, हर कुर्सी पर
सोता कुम्भकर्ण जब जागे
थाना हो या हो न्यायालय
सदा भुखमरा रिश्वत माँगे
भोग करें, ले आड़ योग की
पेड़ काटकर छीनें छैंया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
जब तक था वह गगनबिहारी, जग ने हँस आरती उतारी
छलिये को नटनागर कहकर, ठगी गयी निष्ठा बेचारी
मटकी फोड़ी, माखन खाया, रास रचाई, नाच नचाया
चला गया रणछोड़ मोड़ मुख, युगों बाद सन्देश पठाया
कहता प्रेम-पंथ को तज कर
ज्ञान-मार्ग पर चलना बेहतर
कौन कहे पोंगा पंडित से
नहीं महल, हमने चाहा घर
रहें द्वारका में महारानी
हमें चाहिए बाबा-मैया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
असत पुज रहा देवालय में, अब न सत्य में है नारायण
नेह नर्मदा मलिन हो रही, राग-द्वेष का कर पारायण
लीलावती-कलावतियों को 'लिव इन' रहना अब मन भाया
कोई बाँह में, कोई चाह में, खुद को ठगती खुद ही माया
कोकशास्त्र केजी में पढ़ती,
नव पीढ़ी के मूल्य नये हैं
खोटे सिक्कों का कब्ज़ा है
खरे हारकर दूर हुए हैं
वैतरणी करने चुनाव की
पार, हुई है साधन गैया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
दाँत शेर के कौन गिनेगा?, देश शत्रु से कौन लड़ेगा?
बोधि वृक्ष ले राजकुँवरि को, भेज त्याग-तप मौन वरेगा?
जौहर करना सर न झुकाना, तृण-तिनकों की रोटी खाना
जीत शौर्य से राज्य आप ही, गुरु चरणों में विहँस चढ़ाना
जान जाए पर नीति न छोड़ें
धर्म-मार्ग से कदम न मोड़ें
महिषासुरमर्दिनी देश-हित
अरि-सत्ता कर नष्ट, न छोड़ें
सात जन्म के सम्बन्धों में
रोज न बदलें सजनी-सैंया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
युद्ध-अपराधी कहा उसे जिसने, सर्वाधिक त्याग किया है
जननायक ने ही जनता की, पीठ में छुरा भोंक दिया है
सत्ता हित सिद्धांत बेचते, जन-हित की करते नीलामी
जिसमें जितनी अधिक खोट है, वह नेता है उतना दामी
साथ रहे सम्पूर्ण क्रांति में
जो वे स्वार्थ साध टकराते
भूले, बंदर रोटी खाता
बिल्ले लड़ते ही रह जाते
डुबा रहे मल्लाह धार में
ले जाकर अपनी ही नैया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
कहा गरीबी दूर करेंगे, लेकिन अपनी भरी तिजोरी
धन विदेश में जमा कर दिया, सब नेता हो गए टपोरी
पति पत्नी बच्चों को कुर्सी, बैठा देश लूटते सब मिल
वादों को जुमला कह देते, पद-मद में रहते हैं गाफिल
बिन साहित्य कहें भाषा को
नेता-अफसर उद्धारेंगे
मात-पिता का जीना दूभर
कर जैसे बेटे तारेंगे
पर्व त्याग वैलेंटाइन पर
लुक-छिप चिपकें हाई-हैया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
२५-६-२०१६
***
विमर्श :
हिन्दू - मुसलमान और शिक्षा - विज्ञान
गत १५० वर्ष में हुई प्रगति में पश्चिमी देशों अर्थात यहूदी और ईसाइयों की भागीदारी बहुत अधिक है, हिन्दुओं और मुस्लिमों की अपरक्षकृत बहुत कम। इस काल खंड में हिंदू और मुसलमान सत्ता और धर्म के लिए लड़ते-मरते रहे।
इस समय में हुए १०० महान वैज्ञानिकों के नाम लिखें तो हिन्दू और मुसलमान नाम मात्र को ही मिलेंगे।
दुनिया में ६१ इस्लामी देशों की जनसंख्या लगभग १.७५ अरब और उनमें विश्वविद्यालय लगभग ४५० हैं जबकि हिन्दुओं की जनसंख्या लगभग १.५० अरब और विश्वविद्यालय लगभग ४९० हैं। अमेरिका में ३००० से अधिक और जापान में ९०० से अधिक विश्वविद्यालय हैं।
लगभग ४५ % ईसाई युवक तथा ७५ % यहूदी युवक, २०% हिन्दू युवक तथा ३% मुस्लिम युवक उच्च शिक्षा लेते हैं।
दुनिया के २०० प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में से ५४ अमेरिका, २४इंग्लेंड, १७ ऑस्ट्रेलिया, १० चीन, १० जापान, १० हॉलॅंड, ९ फ़्राँस, 8 जर्मनी, २ भारत और १ इस्लामी मुल्क में हैं।
अमेरिका का जी.डी.पी १५ ट्रिलियन डॉलर से अधिक है जबकि पूरे इस्लामिक जगत का कुल जी.डी.पी लगभग ३.५ ट्रिलियन डॉलर है और भारत का लगभग१.९ ट्रिलियन डॉलर है।
दुनिया में ३८००० मल्टिनॅशनल कम्पनियाँ हैं जिनमें से ३२००० कम्पनियाँ अमेरिका और युरोप में हैं।
दुनिया के १०,००० बड़े अविष्कारों में से ६१०३ अमेरिका में और ८४१० ईसाइयों या यहूदियों ने किये हैं।
दुनिया के ५० अमीरो में से २० अमेरिका, ५ इंग्लेंड, ३ चीन, २ मक्सिको, ३ भारत और १ अरब मुल्क से हैं।
हम हिन्दू और मुसलमान जनहित, परोपकार या समाज सेवा मे भी ईसाईयों और यहूदियों से पीछे हैं। रेडक्रॉस दुनिया का सब से बड़ा मानवीय संगठन है।
बिल गेट्स ने १० बिलियन डॉलर से बिल- मिलिंडा गेट्स फाउंडेशन की बुनियाद रखी जो कि पूरे विश्व के ८ करोड़ बच्चों की सेहत का ख्याल रखती है।
जबकि हम जानते है कि भारत में कई अरबपति हैं। मुकेश अंबानी अपना घर बनाने में ४००० करोड़ खर्च कर सकते हैं और अरब का अमीर शहज़ादा अपने स्पेशल जहाज पर ५०० मिलियन डॉलर खर्च कर सकते हैं। मगर मानवीय सहायता के लिये दोनों ही आगे नहीं आते।
ओलंपिक खेलों में अमेरिका ही सब से अधिक गोल्ड जीतता है। रूस, चीन, जापान, आदि कई देशों के बाद भारत का नाम अत है और मुस्लिम देश तो लगभग अंत में ही होते हैं। हम अतीत पर थोथा गर्व करते हैं किन्तु व्यवहार से वास्तव में व्यक्तिवादी और स्वार्थी हैं। आपस में लड़ने पर अधिक विश्वास रखते हैं। मानसिक रूप में हम हीनताग्रस्त और विदेशों खासकर पश्चिमी देशों की नकल कर गर्व अनुभव करते हैं। धर्म के नाम पर आपस में लड़ने में हम सबसे आगे हैं।
जरा सोचिये कि हमें किस तरफ अधिक ध्यान देने की जरूरत है, आपस में लड़ने या एक होकर देश और खुद को आगे बढ़ाने की? एक-दूसरे के धर्मस्थान तोड़े की या कल-कारखाने खड़े करने की। स्वर्ग और जन्नत के काल्पनिक स्वप्न देखने की या इस धरती और अपने जीवन को अधिक सुखमय बनाने की?
***
मुक्तक: दीप्ति
*
दीप्ति दुनिया की बढ़े नित, देव! यह वरदान देना,
जब कभी तूफां पठाओ, सिखा देना नाव खेना।
नहीं मोहन भोग की है चाह- लेकिन तृप्ति देना-
उदर अपना भर सकूँ, मेहमान भी पायें चबेना।।
*
दीप्ति निश-दिन हो अधिक से अधिक व्यापक,
लगें बौने हैं सभी दुनिया के मापक।
काव्यधारा रहे बहती, सत्य कहती -
दूर दुर्वासा सरीखे रहें शापक।।
*
दीप्ति चेहरे पर रहे नित नव सृजन की,
छंद में छवि देख पायें सब स्वजन की।
ह्रदय का हो हार हिंदी विश्व वाणी-
पत्रिका प्रेषित चरण में प्रभु! नमन की।।
*
दीप्ति आगत भोर का सन्देश देती,
दीप्ति दिनकर को बढ़ो आदेश देती।
दीप्ति संध्या से कहे दिन को नमन कर-
दीप्ति रजनी को सुला बांहों में लेती।।
*
दीप्ति सपनों से सतत दुनिया सजाती,
दीप्ति पाने ज़िंदगी दीपक जलाती।
दीप्ति पाले मोह किंचित कब किसी से-
दीप्ति भटके पगों को राहें दिखाती।।
*
दीप्ति की पाई विरासत धन्य भारत,
दीप्ति कर बदलाव दे, कर-कर बगावत।
दीप्ति बाँटें स्नेह सबको अथक निश-दिन-
दीप्ति से हो तम पराजित कर अदावत।।
*
दीप्ति की गाथा प्रयासों की कहानी,
दीप्ति से मैत्री नहीं होती जुबानी।।
दीप्ति कब मुहताज होती है समय की =-
दीप्ति का स्पर्श पा खिलती जवानी।।
25-6-2013  
***
दोहागीत :
मनुआ बेपरवाह.....
*
मन हुलसित पुलकित बदन, छूले नभ है चाह.
झूले पर पेंगें भरे, मनुआ बेपरवाह.....
ठेंगे पर दुनिया सकल,
जो कहना है- बोल.
अपने मन की गाँठ हर,
पंछी बनकर खोल..
गगन नाप ले पवन संग
सपनों में पर तोल.
कमसिन है लेकिन नहीं
संकल्पों में झोल.
आह भरे जग देखकर, या करता हो वाह.
झूले पर पेंगें भरे, मनुआ बेपरवाह.....
*
मौन करे कोशिश सदा,
कभी न पीटे ढोल.
जैसा है वैसा दिखे,
चाहे कोई न खोल..
बात कर रहा है खरी,
ज्ञात शब्द का मोल.
'सलिल'-धर में मीन बन,
चंचल करे किलोल.
कोमल मत समझो इसे, हँस सह ले हर दाह.
झूले पर पेंगें भरे, मनुआ बेपरवाह.....
25-6-2011
***
मुक्तिका:
लिखी तकदीर रब ने...
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
लिखी तकदीर रब ने फिर भी हम तदबीर करते हैं.
फलक उसने बनाया है, मगर हम रंग भरते हैं..
न हमको मौत का डर है, न जीने की तनिक चिंता-
न लाते हैं, न ले जाते मगर धन जोड़ मरते हैं..
कमाते हैं करोड़ों पाप कर, खैरात देते दस.
लगाकर भोग तुझको खुद ही खाते और तरते हैं..
कहें नेता- 'करें क्यों पुत्र अपने काम सेना में?
फसल घोटालों-घपलों की उगाते और चरते हैं..
न साधन थे तो फिरते थे बिना कपड़ों के आदम पर-
बहुत साधन मिले तो भी कहो क्यों न्यूड फिरते हैं..
न जीवन को जिया आँखें मिलाकर, सिर झुकाए क्यों?
समय जब आख़िरी आया तो खुद से खुद ही डरते हैं..
'सलिल' ने ज़िंदगी जी है, सदा जिंदादिली से ही.
मिले चट्टान तो थमते, नहीं सूराख करते हैं..
२५-६-२०१०
***