गीत:
फागुनी पुरवाई
संजीव 'सलिल'
*
फागुनी पुरवाई में महुआ मदिर जब-जब महकता
हवाओं में नाम तब-तब सुनाई देता गमककर.....
टेरती है, हेरती है पुनि लुका-छिपि खेलती है.
सँकुचती है एक पल फिर निज पगों को ठेलती है.
नयन मूंदो तो दिखे वह, नयन खोलो तो छिपे वह
परस फागुन का अनूठा प्रीत-पापड़ बेलती है.
भाविता-संभाविता की भुलैयां हरदम अबूझी
करे झिलमिल, हँसे खिलखिल, ठगे मन रसना दिखाकर.....
थिर, क्षितिज पर टिकी नज़रें हो सुवासित घूमती हैं.
कोकिला के कंठ-स्वर सी ध्वनि निरंतर चूमती हैं.
भुलावा हो या छलावा, लपक लेतीं हर बुलावा-
पेंग पुरवैया के संग, कर थाम पछुआ लूमती हैं.
उहा-पोही धूप-छाँही निराशा-आशा अँजुरी में
लिए तर्पण कर रहा कोई समर्पण की डगर पर.....
फिसलकर फिर-फिर सम्हलता, सम्हलकर फिर-फिर फिसलता.
अचल उन्मन में कहाँ से अवतरित आतुर विकलता.
अजाना खुद से हुआ खुद, क्या खुदी की राह है यह?
आस है या प्यास करती रास, तज संयम चपलता.
उलझ अपने आपसे फिर सुलझने का पन्थ खोजे
गगनचारी मन उतरता वर त्वरा अधरा धरा पर.....
क्षितिज के उस पार झाँके, अदेखे का चित्र आँके.
मिट अमिट हो, अमिट मिटकर, दिखाये आकार बाँके.
चन्द्रिका की चमक तम हर दमक स्वर्णिम करे सिकता-
सलिल-लहरों से गले मिल, षोडशी सी सलज झाँके.
विमल-निर्मल प्राण-परिमल देह नश्वर में विलय हो
पा रही पहचान खोने के लिए मस्तक नवाकर.....
*
Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.in
फागुनी पुरवाई
संजीव 'सलिल'
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फागुनी पुरवाई में महुआ मदिर जब-जब महकता
हवाओं में नाम तब-तब सुनाई देता गमककर.....
टेरती है, हेरती है पुनि लुका-छिपि खेलती है.
सँकुचती है एक पल फिर निज पगों को ठेलती है.
नयन मूंदो तो दिखे वह, नयन खोलो तो छिपे वह
परस फागुन का अनूठा प्रीत-पापड़ बेलती है.
भाविता-संभाविता की भुलैयां हरदम अबूझी
करे झिलमिल, हँसे खिलखिल, ठगे मन रसना दिखाकर.....
थिर, क्षितिज पर टिकी नज़रें हो सुवासित घूमती हैं.
कोकिला के कंठ-स्वर सी ध्वनि निरंतर चूमती हैं.
भुलावा हो या छलावा, लपक लेतीं हर बुलावा-
पेंग पुरवैया के संग, कर थाम पछुआ लूमती हैं.
उहा-पोही धूप-छाँही निराशा-आशा अँजुरी में
लिए तर्पण कर रहा कोई समर्पण की डगर पर.....
फिसलकर फिर-फिर सम्हलता, सम्हलकर फिर-फिर फिसलता.
अचल उन्मन में कहाँ से अवतरित आतुर विकलता.
अजाना खुद से हुआ खुद, क्या खुदी की राह है यह?
आस है या प्यास करती रास, तज संयम चपलता.
उलझ अपने आपसे फिर सुलझने का पन्थ खोजे
गगनचारी मन उतरता वर त्वरा अधरा धरा पर.....
क्षितिज के उस पार झाँके, अदेखे का चित्र आँके.
मिट अमिट हो, अमिट मिटकर, दिखाये आकार बाँके.
चन्द्रिका की चमक तम हर दमक स्वर्णिम करे सिकता-
सलिल-लहरों से गले मिल, षोडशी सी सलज झाँके.
विमल-निर्मल प्राण-परिमल देह नश्वर में विलय हो
पा रही पहचान खोने के लिए मस्तक नवाकर.....
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Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.in