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शनिवार, 18 दिसंबर 2010

नवगीत: मुहब्बत संजीव 'सलिल'

नवगीत:                                                                    
मुहब्बत

संजीव 'सलिल'
*
दिखाती जमीं पे
है जीते जी
खुदा की है ये
दस्तकारी मुहब्बत...
*
मुहब्बत जो करते,
किसी से न डरते.
भुला सारी दुनिया
दिलवर पे मरते..

न तजते हैं सपने,
बदलते न नपने.
आहें भरें गर-
लगे दिल भी कंपने.
जमाना को दी है
खुदा ने ये नेमत...
*
दिलों को मिलाओ,
गुलों को खिलाओ.
सपने न टूटें,
जुगत कुछ भिड़ाओ.

दिलों से मिलें दिल.
कली-गुल रहें खिल.
मिले आँख तो दूर
पायें न मंजिल.
नहीं इससे ज्यादा
'सलिल' है मसर्रत...
***********

शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

गीत : हम संजीव 'सलिल'

गीत :                                                                           

हम

संजीव 'सलिल'
*
सारे जग को जान रहे हैं
खुद को भी पहचानें हम....
*
कंकर-कंकर में शंकर है
देख सकें तो देखें हम.
मानव-सेवा माधव-सेवा
मानें सच अवलेखें हम..
स्वहित जन्म से करते आये
परहित मंजिल जानें हम.
सारे जग को जान रहे हैं
खुद को भी पहचानें हम....
*
राष्ट्रदेव आराध्य हो सके
विश्वदेव तब साध्य बने.
ऐसे दृढ़-संकल्पजयी हों
नियति-दैव भी बाध्य बने.
रच पायें सत-शिव-सुंदर नित
अपने मन में ठानें हम.
सारे जग को जान रहे हैं
खुद को भी पहचानें हम....
*
बिंदु-बिंदु में सिन्धु समाया
आत्मा में परमात्मा है.
कभी किसी को हेय न मानें
जीव-जीव विश्वात्मा है.
हर नर में नारायण बैठा
'सलिल' सभी संतानें हम.
सारे जग को जान रहे हैं
खुद को भी पहचानें हम....
*

गुरुवार, 28 अक्टूबर 2010

नवगीत : मन की महक --- संजीव 'सलिल'

नव गीत

मन की महक

संजीव 'सलिल'
*
मन की महक
बसी घर-अँगना
बनकर बंदनवार...
*
नेह नर्मदा नहा,
छाछ पी, जमुना रास रचाये.
गंगा 'बम भोले' कह चम्बल
को हँस गले लगाये..
कहे : 'राम जू की जय'
कृष्णा-कावेरी सरयू से-
साबरमती सिन्धु सतलज संग
ब्रम्हपुत्र इठलाये..

लहर-लहर
जन-गण मन गाये,
'सलिल' करे मनुहार.
मन की महक
बसी घर-अँगना
बनकर बंदनवार...
*
विन्ध्य-सतपुड़ा-मेकल की,
हरियाली दे खुशहाली.
काराकोरम-कंचनजंघा ,
नन्दादेवी आली..
अरावली खासी-जयंतिया,
नीलगिरी, गिरि झूमें-
चूमें नील-गगन को, लूमें
पनघट में मतवाली.

पछुआ-पुरवैया
गलबहियाँ दे
मनायें त्यौहार.
मन की महक
बसी घर-अँगना
बनकर बंदनवार...
*
चूँ-चूँ चहक-चहक गौरैया
कहे हो गयी भोर.
सुमिरो उसको जिसने थामी
सब की जीवन-डोर.
होली ईद दिवाली क्रिसमस
गले मिलें सुख-चैन
मिला नैन से नैन,
बसें दिल के दिल में चितचोर.

बाज रहे
करताल-मंजीरा
ठुमक रहे करतार.
मन की महक
बसी घर-अँगना
बनकर बंदनवार...
****************

रविवार, 24 अक्टूबर 2010

नवगीत: महका-महका : संजीव सलिल

नवगीत:

महका-महका :

संजीव सलिल

*
महका-महका
मन-मंदिर रख सुगढ़-सलौना
चहका-चहका
*
आशाओं के मेघ न बरसे
कोशिश तरसे
फटी बिमाई, मैली धोती
निकली घर से
बासन माँजे, कपड़े धोए
काँख-काँखकर
समझ न आए पर-सुख से
हरसे या तरसे
दहका-दहका
बुझा हौसलों का अंगारा
लहका-लहका
*
एक महल, सौ यहाँ झोपड़ी
कौन बनाए
ऊँच-नीच यह, कहो खोपड़ी
कौन बताए
मेहनत भूखी, चमड़ी सूखी
आँखें चमकें
कहाँ जाएगी मंजिल
सपने हों न पराए
बहका-बहका
सम्हल गया पग, बढ़ा राह पर
ठिठका-ठहका
*
लख मयंक की छटा अनूठी
तारे हरषे.
नेह नर्मदा नहा चन्द्रिका
चाँदी परसे.
नर-नरेंद्र अंतर से अंतर
बिसर हँस रहे.
हास-रास मधुमास न जाए-
घर से, दर से.
दहका-दहका
सूर्य सिंदूरी, उषा-साँझ संग
धधका-दहका...
                                     साभार: अनुभूति, नवगीत की पाठशाला.
***************

शनिवार, 25 सितंबर 2010

नव गीत: कैसी नादानी??... संजीव 'सलिल'

नव गीत:

कैसी नादानी??...

संजीव 'सलिल'
*
मानव तो रोके न अपनी मनमानी.
'रुको' कहे प्रकृति से कैसी नादानी??...
*
जंगल सब काट दिये
दरके पहाड़.
नदियाँ भी दूषित कीं-
किया नहीं लाड़..
गलती को ले सुधार, कर मत शैतानी.
'रुको' कहे प्रकृति से कैसी नादानी??...
*
पाट दिये ताल सभी
बना दीं इमारत.
धूल-धुंआ-शोर करे
प्रकृति को हताहत..
घायल ऋतु-चक्र हुआ, जो है लासानी...
'रुको' कहे प्रकृति से कैसी नादानी??...
*
पावस ही लाता है
हर्ष सुख हुलास.
तूने खुद नष्ट किया
अपना मधु-मास..
मेघ बजें, कहें सुधर, बचा 'सलिल' पानी.
'रुको' कहे प्रकृति से कैसी नादानी??...
*

गुरुवार, 22 जुलाई 2010

नवगीत: संजीव 'सलिल' --अपना हर पल है हिन्दीमय

नवगीत:
संजीव 'सलिल'
अपना हर पल है हिन्दीमय.....
*











*
अपना हर पल
है हिन्दीमय
एक दिवस
क्या खाक मनाएँ?
बोलें-लिखें
नित्य अंग्रेजी
जो वे
एक दिवस जय गाएँ...
निज भाषा को
कहते पिछडी.
पर भाषा
उन्नत बतलाते.
घरवाली से
आँख फेरकर
देख पडोसन को
ललचाते.
ऐसों की
जमात में बोलो,
हम कैसे
शामिल हो जाएँ?...
हिंदी है
दासों की बोली,
अंग्रेजी शासक
की भाषा.
जिसकी ऐसी
गलत सोच है,
उससे क्या
पालें हम आशा?
इन जयचंदों 
की खातिर
हिंदीसुत
पृथ्वीराज बन जाएँ...
ध्वनिविज्ञान-
नियम हिंदी के
शब्द-शब्द में 
माने जाते.
कुछ लिख,
कुछ का कुछ पढने की
रीत न हम
हिंदी में पाते.
वैज्ञानिक लिपि,
उच्चारण भी
शब्द-अर्थ में
साम्य बताएँ...
अलंकार,
रस, छंद बिम्ब,
शक्तियाँ शब्द की
बिम्ब अनूठे.
नहीं किसी
भाषा में  मिलते,
दावे करलें
चाहे झूठे.
देश-विदेशों में
हिन्दीभाषी
दिन-प्रतिदिन
बढ़ते जाएँ...
अन्तरिक्ष में
संप्रेषण की
भाषा हिंदी
सबसे उत्तम.
सूक्ष्म और
विस्तृत वर्णन में
हिंदी है
सर्वाधिक
सक्षम.
हिंदी भावी
जग-वाणी है
निज आत्मा में
'सलिल' बसाएँ...
********************
-दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम