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गुरुवार, 17 जुलाई 2025

जुलाई १७, सॉनेट, अम्मी, गाय, तुम, जनमत, दोहा, महाभागवत छंद, चौकडिया, ईसुरी

सलिल सृजन जुलाई १७
विश्व इमोजी दिवस
इमोजी का अर्थ है "चित्र-अक्षर", जो जापानी शब्द "ए" (चित्र) और "मोजी" (अक्षर) से मिलकर बना है। इमोजी छोटे चित्र या प्रतीक होते हैं जिनका उपयोग भावनाओं, विचारों और वस्तुओं को व्यक्त करने के लिए किया जाता है, खासकर ऑनलाइन संचार में। इमोजी का उपयोग विभिन्न प्रकार के ऑनलाइन प्लेटफार्मों पर किया जाता है, जैसे कि सोशल मीडिया, मैसेजिंग ऐप्स, और ईमेल. वे टेक्स्ट संदेशों को अधिक जीवंत और आकर्षक बनाने, भावनाओं को व्यक्त करने, और विचारों को स्पष्ट रूप से संप्रेषित करने में मदद करते हैं।
सॉनेट
स्व. हरिकृष्ण त्रिपाठी के प्रति
रखी रीढ़ की हड्डी सीधी
मस्तक ऊँचा, दृष्टि लक्ष्य पर
आशंका को दिया न अवसर
बिगड़ी बात बनाई-साधी।
बात न रुची अधूरी आधी
कलमकार हित रहा खुल
नवता-क्षमता धन्य नमन कर।
शिक्षा का नव तीर्थ बनाया
सींचा उपवन संस्मरण का
हृदय बसाया मीमांसा को।
नव पीढ़ी से आदर पाया
दे आशीष सुपंथ वर्ण का
दीप जलाया आकांक्षा का।
२७.७.२०२५
०0०
सॉनेट
जनमत
*
कुछ ने इसको आज चुना
औरों ने ठुकराया है
ठेंगा भी दिखलाया
कुछ ने उसको आज चुना
हर दाना है यहाँ घुना
किसको बीज बना बोएँ
किस्मत को हम क्यों रोएँ
सपना फिर से नया बुना
नेता सभी रचाए स्वांग
सत्ता-कूप घुली है भांग
इसकी उसकी खींचें टांग
खुद को नहीं सुधार रहे
जनमत हाय! बिसार रहे
नेता ही बीमार रहे
१७-७-२०२१
***
दोहा सलिला
*
सलिल धार दर्पण सदृश, दिखता अपना रूप।
रंक रंक को देखता, भूप देखता भूप।।
*
स्नेह मिल रहा स्नेह को, अंतर अंतर पाल।
अंतर्मन में हो दुखी, करता व्यर्थ बवाल।।
*
अंतर अंतर मिटाकर, जब होता है एक।
अंतर्मन होत सुखी, जगता तभी विवेक।।
*
गुरु से गुर ले जान जो, वह पाता निज राह।
कर कुतर्क जो चाहता, उसे न मिलती थाह।।
*
भाषा सलिला-नीर सम, सतत बदलती रूप।
जड़ होकर मृतप्राय हो, जैसे निर्जल कूप।।
*
हिंदी गंगा में मिलीं, नदियाँ अगिन न रोक।
मर जाएगी यह समझ, पछतायेगा लोक।।
*
शब्द संपदा बपौती, नहीं किसी की जान।
जिनको अपना समझते, शब्द अन्य के मान।।
*
'आलू' फारस ने दिया, अरबी शब्द 'मकान'।
'मामा' भी है विदेशी, परदेसी है 'जान'।।
*
छाँट-बीन करिये अलग, अगर आपकी चाह।
मत औरों को रोकिए, जाएँ अपनी राह।।
*
दोहा तब जीवंत हो, कह पाए जब बात।
शब्द विदेशी 'इंडिया', ढोते तजें न तात।।
*
'मोबाइल' को भूलिए, कम्प्यूटर' से बैर।
पिछड़ जायेगा देश यह, नहीं रहेंगे खैर।।
*
'बाप, चचा' मत वापरें, कहिये नहीं 'जमीन'।
दोहा के हम प्राण ही, क्यों चाहें लें छीन।।
*
'कागज-कलम' न देश के, 'खीर-जलेबी' भूल।
'चश्मा' लगा न 'आँख' पर, बोल न 'काँटा' शूल।।
*
चरण तीसरे में अगर, लघु-गुरु है अनिवार्य।
'श्वान विडाल उदर' लिखें, कैसे कहिये आर्य?
*
है 'विडाल' ब्यालीस लघु, गुरु-लघु दो से अंत।
चरण तीन दो गुरु कहाँ, पाएँ कहिए संत?
*
'श्वान' चवालिस लघु लिए, दो गुरु इसमें मीत!
चरण तीसरा बिना गुरु, यह दोहे की रीत।।
*
'उदर' एक गुरु मात्र ले, रचते दोहा खूब।
नहीं अंत में गुरु-लघु, तजें न कह 'मर डूब'।।
*
'सर्प' लिख रहे गुरु बिना, कहिए क्या आधार?
क्यों कहते दोहा इसे, बतलायें सरकार??
*
हिंदी जगवाणी बने अगर चाहते बंधु।
हर भाषा के शब्द ले, इसे बना दें सिंधु।।
*
खाल बाल की खींचकर, बदमजगी उत्पन्न।
करें न; भाषा को नहीं, करिये मित्र विपन्न।।
*
गुरु पूर्णिमा, १६-७-२०१९
***
एक रचना:
ओ तुम!
*
ओ तुम! मेरे गीत-गीत में बहती रस की धारा हो.
लगता हर पल जैसे तुमको पहली बार निहारा हो.
दोहा बनकर मोहा तुमने, हाथ थमाया हाथों में-
कुछ न अधर बोले पर लगता तुमने अभी पुकारा हो.
*
ओ तुम! ही छंदों की लय हो, विलय तुम्हीं में भाव हुए.
दूर अगर तुम तो सुख सारे, मुझको असह अभाव हुए.
अपने सपने में केवल तुम ही तुम हो अभिसारों में-
मन-मंदिर में तुम्हीं विराजित, चौपड़ की पौ बारा हो.
*
ओ तुम! मात्रा-वर्ण के परे, कथ्य-कथानक भाषा हो.
अलंकार का अलंकार तुम, जीवन की परिभाषा हो.
नयनों में सागर, माथे पर सूरज, दृढ़संकल्पमयी-
तुम्हीं पूर्णिमा का चंदा हो, और तुम्हीं ध्रुव तारा हो.
*
तुम्हीं लावणी, कजरी, राई, रास, तुम्हीं चौपाई हो.
सावन की हरियाली हो तुम, फागों की अरुणाई हो.
कथा-वार्ता, व्रत, मेला तुम, भजन, आरती की घंटी -
नेह-नर्मदा नित्य निनादित, तुम्हीं सलिल की धारा हो.
१७.७.२०१८
***
कार्यशाला:
बीनू भटनागर
राहुल मोदी भिड़ रहे, बीच केजरीवाल,
सत्ता के झगड़े यहाँ,दिल्ली बनी मिसाल।
संजीव
दिल्ली बनी मिसाल, अफसरी हठधर्मी की
हाय! सियासत भी मिसाल है बेशर्मी की
लोकतंत्र की कब्र, सभी ने मिलकर खोदी
जनता जग दफना दे, कजरी राहुल मोदी
***
कार्यशाला:
रोज मैं इस भँवर से दो- चार होती हूँ
क्यों नहीं मैं इस नदी से पार होती हूँ ।
*
संजीव
लाख रोके राह मेरी, है मुझे प्यारी
इसलिए हँस इसी पर सवार होती हूँ ।
*
***
कार्य शाला:
--अनीता शर्मा
शायरी खुदखुशी का धंधा है।
अपनी ही लाश, अपना ही कंधा है ।
आईना बेचता फिरता है शायर उस शहर मे
जो पूरा शहर ही अंधा है।।
*
-संजीव
शायरी धंधा नहीं, इबादत है
सूली चढ़ना यहाँ रवायत है
ज़हर हर पल मिला करता है पियो
सरफरोशी है, ये बगावत है
१७-७-२०१८
***
एक रचना
गाय
*
गाय हमारी माता है
पूजो गैया को पूजो
*
पिता कहाँ है?, ज़िक्र नहीं
माता की कुछ फ़िक्र नहीं
सदा भाई से है लेना-
नहीं बहिन को कुछ देना
है निज मनमानी करना
कोई तो रस्तों सूझो
पूजो गैया को पूजो
*
गौरक्षक हम आप बने
लाठी जैसे खड़े-तने
मौका मिलते ही ठोंके-
बात किसी की नहीं सुनें
जबरा मारें रों न देंय
कार्य, न कारण तुम बूझो
पूजो गैया को पूजो
*
गैया को माना माता
बैल हो गया बाप है
अकल बैल सी हुई मुई
बात अक्ल की पाप है
सींग मारते जिस-तिस को
भागो-बचो रे! मत जूझो
पूजो गैया को पूजो
१७-७-२०१७
***
मुक्तिका
*
मापनी: १२२ १२२ १२२ १२२
*
हमारा-तुम्हारा हसीं है फ़साना
न आना-जाना, बनाना बहाना
न लेना, न देना, चबाना चबेना
ख़ुशी बाँट, पाना, गले से लगाना
मिटाना अँधेरा, उगाना सवेरा
पसीना बहाना, ग़ज़ल गुनगुनाना
न सोना, न खोना, न छिपना, न रोना
नये ख्वाब बोना, नये गीत गाना
तुम्हीं को लुभाना, तुम्हीं में समाना
तुम्हीं आरती हो, तुम्हीं हो तराना
***
दोहा सलिला:
आँखों-आँखों में हुआ, जाने क्या संवाद?
झुकीं-उठीं पलकें सँकुच, मिलीं भूल फरियाद
*
आँखें करतीं साधना, रहीं वैद को टेर
जुल्मी कजरा आँज दे, कर न देर-अंधेर
*
आँखों की आभा अमित, पल में तम दे चीर
जिससे मिलतीं, वह हुआ, दिल को हार फ़क़ीर
*
आँखों में कविता कुसुम, महकें ज्यों जलजात
जूही-चमेली, मोगरा-चम्पा, जग विख्यात
*
विरह अमावस, पूर्णिमा मिलन, कह रही आँख
प्रीत पखेरू घर बना, बसा समेटे पाँख
*
आँख आरती हो गयी, पलक प्रार्थना-लीन
संध्या वंदन साधना, पूजन करे प्रवीण
१७-७-२०१५
***
अभिनव प्रयोग:
नवगीत
जब लौं आग न बरिहै
.
जब लौं आग न बरिहै तब लौं,
ना मिटहै अंधेरा
सबऊ करो कोसिस मिर-जुर खें
बन सूरज पगफेरा
.
कौनौ बारो चूल्हा-सिगरी
कौनौ ल्याओ पानी
रांध-बेल रोटी हम सेंकें
खा रौ नेता ग्यानी
झारू लगा आज लौं काए
मिल खें नई खदेरा
.
दोरें दिखो परोसी दौरे
भुज भेंटें बम भोला
बाटी भरता चटनी गटखें
फिर बाजे रमतूला
गाओ राई, फाग सुनाओ
जागो, भओ सवेरा
.
(बुंदेलों लोककवि ईसुरी की चौकड़िया फाग की तर्ज़ पर प्रति पर मात्रा १६-१२, महाभागवत छंद)
बुधवार १४ जनवरी २०१५
***
दोहे - नाम अनाम
*
पूर्वाग्रह पाले बहुत, जब रखते हम नाम
सबको यद्यपि ज्ञात है, आये-गये अनाम
कैकेयी वीरांगना, विदुषी रखा न नाम
मंदोदरी पतिव्रता, नाम न आया काम
रास रचाती रही जो, राधा रखते नाम
रास रचाये सुता तो, घर भर होता वाम
काली की पूजा करें, डरें- न रखते नाम
अंगूरी रख नाम दें, कहें न थामो जाम
अपनी अपनी सोच है, छिपी सोच में लोच
निज दुर्गुण देखें नहीं, पर गुण लखें न पोच
१७-७-२०१४
***
मुक्तिका:
अम्मी
*
माहताब की जुन्हाई में, झलक तुम्हारी पाई अम्मी.
दरवाजे, कमरे आँगन में, हरदम पडीं दिखाई अम्मी.
*
बसा सासरे केवल तन है. मन तो तेरे साथ रह गया.
इत्मीनान हमेशा रखना- बिटिया नहीं पराई अम्मी.
*
भावज जी भर गले लगाती, पर तेरी कुछ बात और थी.
तुझसे घर अपना लगता था, अब बाकी पहुनाई अम्मी.
*
कौन बताये कहाँ गयी तू ? अब्बा की सूनी आँखों में,
जब भी झाँका पडी दिखाई तेरी ही परछाँई अम्मी.
*
अब्बा में तुझको देखा है, तू ही बेटी-बेटों में है.
सच कहती हूँ, तू ही दिखती भाई और भौजाई अम्मी.
*
तू दीवाली, तू ही ईदी, तू रमजान दिवाली होली.
मेरी तो हर श्वास-आस में तू ही मिली समाई अम्मी.
*
तू कुरआन, तू ही अजान है, तू आँसू, मुस्कान, मौन है.
जब भी मैंने नजर उठाई, लगा अभी मुस्काई अम्मी.
१७-७-२०१२
***
सुभाष राय
मित्र हुए हम सलिल के , हमको इसका नाज
हिन्दी के निज देश के पूरे होंगे काज
***

सोमवार, 9 जून 2025

जून ९, अम्मी, शहतूत, आँसू, ओस, दोहा, नवगीत, हिंदी ग़ज़ल, तेवरी, सॉनेट

सलिल सृजन जून ९
*
सॉनेट
हुआ मोगरा मनुआ महका
गाल गुलाबी लाल हुआ है
छुईमुई सिर झुका हुआ है
तन पलाश होकर है दहका।
नैन-बैन हो महुआ बहका
चकित चपल चित किसे छुआ है?
माँग माँग भर करी दुआ है
आशा-पंछी कूका-चहका।

जुड़ी-चमेली हुई किशोरी
हरसिंगार सुमन चुन-चुनकर
हर सिंगार करे तरुणाई।
तितली ताके भ्रमर टपोरी
नैनों में सपने बुन-बुनकर
फुलबगिया करती पहुनाई।।
९.६.२०२५
०0०
सॉनेट  सलिला
*
सॉनेट  अंग्रेजी में कविता का एक रूप है। सॉनेट  (sonnet) एक इटालियन शब्द सॉनेट  (sonetto) से बना है जिसका अर्थ है नन्हा गीत या लघु गीत (little song)। तेरहवीं शताब्दी में आते-आते यह १४ पंक्तियोंवाली कविता हो गया। सॉनेट  की लय के आधार पर इसे लिखने के कुछ विशिष्ट नियम हैं। सॉनेट के रचयिता को सॉनेटकार (sonneteers) कहते हैं। सॉनेट के इतिहास में समय-समय पर सोनेटकार कुछ न कुछ परिवर्तन करते रहे हैं।
इटेलियन या मिलटेनियन सॉनेट
प्रसिद्ध सॉनेटकार जॉन मिल्टन ने इटालियन शिल्प पर सॉनेट लिखे। सोलहवीं शताब्दी में थॉमस याट (Wyatt) ने इटेलियाँ तथा फ्रेंच सॉनेटों का अनुवाद करने के साथ अपने सॉनेट भी लिखे। उन दिनों सॉनेट का विषय सामान्यत: प्रेम से सम्बंधित होता था। लन्दन में १५९० में जब प्लेग फैला तो सभी थियेटर आदिबंद हो गए, सभी नाटककारों को रंगमंच पर नाटक खेलना, अभिनय करना आदि प्रतिबंधित कर दिया गया था। उसे दौर में शेक्सपियर ने अपने सॉनेट लिखे। १६७० के बाद काफी समय तक सॉनेट्स लिखने का शौक खत्म हो गया। फ्रांसीसी क्रांति आरंभ होने पर अचानक सॉनेट फिर लिखे जाने लगे और वर्ड्सवर्थ, मिल्टन, कीट्स, शैली आदि ने सॉनेट लिखे। इटेलियन सॉनेट में एक अठपदी (oktev) तथा एक षट्पदी या दो त्रिपदियों (sestek) का संयोजन होता है। इसका मीटर ABBAABBA CDECDE है।
इंग्लिश या शेक्सपीरियन सॉनेट
सर्वाधिक प्रसिद्ध सॉनेटकार विलियम शेक्सपियर ने १५४ सोंनेट्स इआंबिक पेरामीटर में लिखे। शेक्सपियर के सॉनेट का शिल्प विधान ABAB CDCD EFEF GG था। इसमें तीन चतुष्पदी के बाद एक द्विपदी का समायोजन है। अंग्रेजी द्विपदी (English couplets) लयबद्ध होती है जिसके अंतिम शब्द (पदांत) की समान तुक होती है।
सोनेट का रचना विधान
१. सॉनेट में १४ काव्य पक्तियाँ होती हैं।
२. प्रथम १२ पंक्तियाँ ४ - ४ पंक्तियों के ३ पद या अंतरे होते हैं।
३. हर अंतरे की पहली-तीसरी पंक्ति तथा दूसरी-चौथी पंक्तियाँ समान लय तथा पदांत की होना आवश्यक है।
४. शेष अंतिम २ पंक्तियाँ द्विपदी (couplet) होती हैं जिसकी लय तथा पदांत समान होता है।
५. सॉनेट की हर पंक्ति इआंबिक पैरामीटर ( iambic perameter) में लिखी होती है।
इआंबिक पैरामीटर ( iambic perameter):
१. इआंबिक पैरामीटर की काव्य पंक्ति २ उच्चारों के ५ ध्वनि खंडों (syllables) में विभाजित होती है।
२. इसमें ५ उच्चारों का कम जोर से (unstressed अलंबित) उच्चारण किया जाता है जबकि अन्य ५ उच्चारों का अधिक जोर से (stressed प्रलंबित) उच्चारण किया जाता है।
९.६.२०२३ 
***
तेवरी / मुक्तिका :
मुमकिन
*
शीश पर अब पाँव मुमकिन.
धूप के घर छाँव मुमकिन..
.
बस्तियों में बहुत मुश्किल
जंगलों में ठाँव मुमकिन..
.
नदी सूखी, घाट तपता.
तोड़ता दम गाँव मुमकिन..
.
सिखाता उस्ताद कुश्ती.
छिपाकर इक दाँव मुमकिन..
.
कौन पाहुन है अवैया?
'सलिल'-अँगना काँव मुमकिन..
९-६-२०१७
***
मुक्तिका
*
खुद को खुद माला पहनाओ
अख़बारों में खबर छपाओ
.
करो वायदे, बोलो जुमला
लोकतंत्र को कफ़न उढ़ाओ
.
बन समाजवादी अपनों में
सत्ता-पद-मद बाँट-लुटाओ
.
आरक्षण की माँग रेवड़ी
चीन्ह-चीन्ह कर बाँटो-खाओ
.
भीख माँगकर पुरस्कार लो
नगद पचा वापिस लौटाओ
.
घर की कमजोरी बाहर कह
गैरों से ताली बजवाओ
.
नाच न आये, तो मत सीखो
आँगन को टेढ़ा बतलाओ
[संस्कारी जातीय छंद ]
***
हिंदी ग़ज़ल
*
ब्रम्ह से ब्रम्हांश का संवाद है हिंदी ग़ज़ल।
आत्म से परमात्म की फ़रियाद है हिंदी ग़ज़ल।।
*
मत गज़ाला-चश्म कहना, यह कसीदा भी नहीं।
जनक-जननी छन्द-गण, औलाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
जड़ जमी गहरी न खारिज़ समय कर सकता इसे
सिया-सत सी सियासत, मर्याद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
भार-पद गणना, पदांतक, अलंकारी योजना
दो पदी मणि माल, वैदिक पाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
सत्य-शिव-सुन्दर मिले जब, सत्य-चित-आनंद हो
आsत्मिक अनुभूति शाश्वत, नाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
नहीं आक्रामक, न किञ्चित भीरु है, युग जान ले
प्रात कलरव, नव प्रगति का वाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
धूल खिलता फूल, वेणी में महकता मोगरा
छवि बसी मन में समाई याद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
धीर धरकर पीर सहती, हर्ष से उन्मत्त न हो
ह्रदय की अनुभूति का, अनुवाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
परिश्रम, पाषाण, छेनी, स्वेद गति-यति नर्मदा
युग रचयिता प्रयासों की दाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
२-५-२०१६
सी २५६ आवास-विकास, हरदोई
***
नवगीत:
*
जिंदगी की पढ़ो पुस्तक
सीख कर
कुछ नव लिखो,
दूसरों जैसे
दिखों मत
अलग औरों से दिखो.
*
उषा की किरणें सुनहरी
'सलिल' लहरों संग खेलें
जाल सिकता पर बनायें
परे भँवरों को ढकेलो
बाट सीढ़ी घाट पर चल
नाव ले
आगे बढ़ो.
मत उतारों से डरो रे
चढ़ावों पर हँस चढ़ो
अलग औरों से दिखो.
*
दुपहरी सीकर नहाओ
परिश्रम का पथ वरो
तार दो औरों को पहले
स्वार्थ साधे बिन तरो
काम करना कुछ न ऐसा
बिना मारे
खुद मरो.
रखो ऊँचा सदा मस्तक
पीर निज गुपचुप पियो रे
सभी के बनकर जियो
अलग औरों से दिखो.
*
साँझ से ले लालिमा कुछ
अपने सपनों पर मलो
भास्कर की तरह हँस फिर
ऊगने खातिर ढलो
निशा को देकर निमन्त्रण
नींद पलकों
पर मलो.
चन्द्रमा दे रहा दस्तक
चन्द्रिका अँजुरी भरो रे
क्षितिज-भू दीपित करो
अलग औरों से दिखो.
***
नव गीत:
आँसू और ओस
*
हम आँसू हैं,
ओस बूँद
मत कहिये हमको...
*
वे पल भर में उड़ जाते हैं,
हम जीवन भर साथ रहेंगे,
हाथ न आते कभी-कहीं वे,
हम सुख-दुःख की कथा कहेंगे.
छिपा न पोछें हमको नाहक
श्वास-आस सम
हँस-मुस्का
प्रिय! सहिये हमको ...
*
वे उगते सूरज के साथी,
हम हैं यादों के बाराती,
अमल विमल निस्पृह वे लेकिन
दर्द-पीर के हमीं संगाती.
अपनेपन को अब न छिपायें,
कभी तो कहें:
बहुत रुके
'अब बहिये' हमको...
*
ऊँच-नीच में, धूप-छाँव में,
हमने हरदम साथ निभाया.
वे निर्मोही-वीतराग हैं,
सृजन-ध्वंस कुछ उन्हें न भाया.
हारे का हरिनाम हमीं हैं,
'सलिल' नाद
कलकल ध्वनि हम
नित गहिये हमको...
***
द्विपदियाँ (शे'र)
*
आँसू का क्या, आ जाते हैं
किसका इन पर जोर चला है?
*
आँसू वह दौलत है याराँ
जिसको लूट न सके जमाना
*
बहे आँसू मगर इस इश्क ने नही छोड़ा
दिल जलाया तो बने तिल ने दिल ही लूट लिया
***
दोहा का रंग आँसू के संग
*
आँसू टँसुए अश्रु टिअर, अश्क विविध हैं नाम
नयन-नीर निरपेक्ष रह, दें सुख-दुःख पैगाम
*
भाषा अक्षर शब्द नत, चखा हार का स्वाद
कर न सके किंचित कभी, आँसू का अनुवाद
*
आह-वाह-परवाह से, आँसू रहता दूर
कर्म धर्म का मर्म है, कहे भाव-संतूर
*
घर दर आँगन परछियाँ, तेरी-मेरी भिन्न
साझा आँसू की फसल, करती हमें अभिन्न
*
आल्हा का आँसू छिपा, कजरी का दृष्टव्य
भजन-प्रार्थना कर हुआ, शांत सुखद भवितव्य
*
बूँद-बूँद बहुमूल्य है, रखना 'सलिल' सम्हाल
टूटे दिल भी जोड़ दे, आँसू धार कमाल
*
आँसू शोभा आँख की, रहे नयन की कोर
गिरे-बहे जब-तब न हो, ऐसी संध्या-भोर
*
मैं-तुम मिल जब हम हुए, आँसू खुश था खूब
जब बँट हम मैं-तुम हुए, गया शोक में डूब
*
आँसू ने हरदम रखा, खुद में दृढ़ विश्वास
सुख-दुःख दोहा-सोरठा, आँसू है अनुप्रास
*
ममता माया मोह में, आँसू करे निवास
क्षोभ उपेक्षा दर्द दुःख, कुछ पल मात्र प्रवास
*
आँसू के संसार से, मैल-मिलावट दूर
जो न बहा पाये 'सलिल', बदनसीब-बेनूर
*
इसे अगर काँटा चुभे, उसको होती पीर
आँसू इसकी आँख का, उसको करे अधीर
*
आँसू के सैलाब में, डूबा वह तैराक
नेह-नर्मदा का क़िया, जिसने दामन चाक
*
आँसू से अठखेलियाँ, करिए नहीं जनाब
तनिक बहाना पड़े तो, खो जाएगी आब
*
लोहे से कर सामना, दे पत्थर को फोड़
'सलिल' सूरमा देखकर, आँसू ले मुँह मोड़
*
बहे काल के गाल पर, आँसू बनकर कौन?
राधा मीरा द्रौपदी, मोहन सोचें मौन
*
धूप-छाँव का जब हुआ, आँसू को अभ्यास
सुख-दुःख प्रति समभाव है, एक त्रास-परिहास
*
सुख का रिश्ता है क्षणिक, दुःख का अप्रिय न चाह
आँसू का मुसकान सँग, रिश्ता दीर्घ-अथाह
*
तर्क न देखे भावना, बुद्धि करे अन्याय
न्याय संग सद्भावना, आँसू का अभिप्राय
*
मलहम बनकर घाव का, ठीक करे हर चोट
आँसू दिल का दर्द हर, दूर करे हर खोट
*
मन के प्रेशर कुकर में, बढ़ जाता जब दाब
आँसू सेफ्टी वाल्व बन, करता दूर दबाव
*
बहे न आँसू आँख से, रहे न दिल में आह
किसको किससे क्या पड़ी, कौन करे परवाह?
*
आँसू के दरबार में, एक सां शाह-फ़क़ीर
भेद-भाव होता नहीं, ख़ास न कोई हक़ीर
9-6-2015
***
नवगीत:
जो नहीं हासिल...
संजीव 'सलिल'
*
जो नहीं हासिल
वही सब चाहिए...
*
जब किया कम काम
ज्यादा दाम पाया.
या हुए बदनाम
या यश-नाम पाया.
भाग्य कुछ अनुकूल
थोड़ा वाम पाया.
जो नहीं भाया
वही अब चाहिए...
*
चैन पाकर मन हुआ
बेचैन ज्यादा.
वजीरों पर हुआ हावी
चतुर प्यादा.
किया लेकिन निभाया
ही नहीं वादा.
पात्र जो जिसका
वही कब चाहिए...
*
सगे सत्ता के रहे हैं
भाट-चारण.
संकटों का, कंटकों का
कर निवारण.
दूर कर दे विफलता के
सफल कारण.
बंद मुट्ठी में
वही रब चाहिए...
*
कहीं पंडा, कहीं झंडा
कहीं डंडा.
जोश तो है गरम
लेकिन होश ठंडा.
गैस मँहगी हो गयी
तो जला कंडा.
पाठ-पूजा तज
वही पब चाहिए..
*
बिम्ब ने प्रतिबिम्ब से
कर लिया झगड़ा.
मलिनता ने धवलता को
'सलिल' रगडा.
शनिश्चर कमजोर
मंगल पड़ा तगड़ा.
दस्यु के मन में
छिपा नब चाहिए...
९-६-२०१२
***
स्वास्थ्य / आयुर्वेद
शहतूत -
यह मूलतः चीन में पाया जाता है | यह साधारणतया जापान ,नेपाल,पाकिस्तान,बलूचिस्तान ,अफगानिस्तान ,श्रीलंका,वियतनाम तथा सिंधु के उत्तरी भागों में पाया जाता है | भारत में यह पंजाब,कश्मीर,उत्तराखंड,उत्तर प्रदेश एवं उत्तरी पश्चिमी हिमालय में पाया जाता है | इसकी दो प्रजातियां पायी जाती हैं | १- तूत (शहतूत) २-तूतड़ी |
इसके फल लगभग २.५ सेंटीमीटर लम्बे,अंडाकार अथवा लगभग गोलाकार ,श्वेत अथवा पक्वावस्था में लगभग हरिताभ-कृष्ण अथवा गहरे बैंगनी वर्ण के होते हैं | इसका पुष्पकाल एवं फलकाल जनवरी से जून तक होता है | इसके फल में प्रोटीन,वसा,कार्बोहायड्रेट,खनिज,कैल्शियम,फॉस्फोरस,कैरोटीन ,विटामिन A ,B एवं C,पेक्टिन,सिट्रिक अम्ल एवं मैलिक अम्ल पाया जाता है |आज हम आपको शहतूत के औषधीय गुणों से अवगत कराएंगे -
१- शहतूत के पत्तों का काढ़ा बनाकर गरारे करने से गले के दर्द में आराम होता है ।
२- यदि मुँह में छाले हों तो शहतूत के पत्ते चबाने से लाभ होता है |
३- शहतूत के फलों का सेवन करने से गले की सूजन ठीक होती है |
४- पांच - दस मिली शहतूत फल स्वरस का सेवन करने से जलन,अजीर्ण,कब्ज,कृमि तथा अतिसार में अत्यंत लाभ होता है |
५- एक ग्राम शहतूत छाल के चूर्ण में शहद मिलाकर चटाने से पेट के कीड़े निकल जाते हैं |
६- शहतूत के बीजों को पीस कर लगाने से पैरों की बिवाईयों में लाभ होता है |
७- शहतूत के पत्तों को पीसकर लेप करने से त्वचा की बीमारियों में लाभ होता है|
८- सूखे हुए शहतूत के फलों को पीसकर आटे में मिलाकर उसकी रोटी बनाकर खाने से शरीर पुष्ट होता है
***
मुक्तिका:
अम्मी
*
माहताब की
जुन्हाई में,
झलक तुम्हारी
पाई अम्मी.
दरवाजे, कमरे
आँगन में,
हरदम पडी
दिखाई अम्मी.
कौन बताये
कहाँ गयीं तुम?
अब्बा की
सूनी आँखों में,
जब भी झाँका
पडी दिखाई
तेरी ही
परछाईं अम्मी.
भावज जी भर
गले लगाती,
पर तेरी कुछ
बात और थी.
तुझसे घर
अपना लगता था,
अब बाकीपहुनाई अम्मी.
बसा सासरे
केवल तन है.
मन तो तेरे
साथ रह गया.
इत्मीनान
हमेशा रखना-
बिटिया नहीं
परायी अम्मी.
अब्बा में
तुझको देखा है,
तू ही
बेटी-बेटों में है.
सच कहती हूँ,
तू ही दिखती
भाई और
भौजाई अम्मी.
तू दीवाली ,
तू ही ईदी.
तू रमजान
और होली है.
मेरी तो हर
श्वास-आस में
तू ही मिली
समाई अम्मी.
९-६-२०१०
*********

मंगलवार, 8 अप्रैल 2025

अप्रैल ८, हास्य दोहे, नवगीत, मुक्तिका, समीक्षा, मुक्तिका, अम्मी, घुंघुची, पूर्णिका

सलिल सृजन अप्रैल ८
० 
पूर्णिका
.
मिले सात स्वर
मकां हुआ घर
.
देख देव को
मन के अंदर
.
माया मोहे
झलक दिखाकर
.
करें भक्त को
प्रभु पधराकर
.
याद कर रहे
क्यों बिसराकर?
.
सच न छोड़ना
रे! घबराकर
.
तौल सके पर
नभ में जाकर
.
खुद को आँको
खुद को पाकर
.
भूल और की
भुला क्षमाकर
.
'सलिल' कभी क्या
मिला नहाकर
.
सुमधुर सुधियाँ
सतत तहाकर
.
अगर निखरना
मौन दहाकर
.

क्रोध-लोम का
मत हो चाकर
.
जग से जाना
नाम कमाकर
.
साँस-साँस 'जय
राम' जपा कर
.
प्राकृतिक चिकित्सा 
घुंघुचि और गुंजा 
००० 
'घुंघची', 'गुंजा', 'चोंटली' या 'रत्ती' एक झाड़ी/लता जाति की वनस्पति है। दोनों की पत्तियाँ फलियाँ और फल समान होते हैं। अब्रस प्रीकेटोरियस , जिसे आमतौर पर जेक्विरिटी बीन या रोज़री मटर के रूप में जाना जाता है, बीन परिवार फैबेसी में एक शाकाहारी फूल वाला पौधा है । यह एक पतला, बारहमासी चढ़ने वाला पौधा है जिसमें लंबे, पिननेट -लीफलेट वाले पत्ते होते हैं जो पेड़ों, झाड़ियों और हेजेज के चारों ओर लिपटे होते हैं। यह पौधा अपने बीजों के लिए सबसे ज़्यादा जाना जाता है , जिनका इस्तेमाल मोतियों और ताल वाद्यों में किया जाता है, और जो एब्रिन की मौजूदगी के कारण ज़हरीले होते हैं। एब्रस प्रीटोरियस के बीज अपने चमकीले रंग के कारण देशी आभूषणों में बहुत मूल्यवान हैं । अधिकांश फलियाँ काले और लाल रंग की होती हैं, जो लेडीबग की याद दिलाती हैं। स्ट इंडीज के त्रिनिदाद में चमकीले रंग के बीजों को कंगन में पिरोया जाता है और कलाई या टखने के चारों ओर पहना जाता है ताकि जुम्बी या बुरी आत्माओं और "माल-यूक्स" - बुरी नज़र से बचा जा सके । तमिल लोग अलग-अलग रंगों के अब्रस बीजों का उपयोग करते हैं। भारत में चमार अपने पशुओं की खाल को सुरक्षित रखने के उद्देश्य से उन्हें जहर देकर मारते थे। छोटी सुई) या सुतारी को पानी में भिगोए गए, पीसे हुए बीजों के पतले पेस्ट में भिगोकर, धूप में सुखा-तेल लगाकर पत्थर पर तेज कर, हैंडल में चिपकाया कर जानवर की त्वचा को छेदा जाता था।

कन्नड़ में  गुलागंजी, तमिल में कुंडूमणि, तेलुगु में गुरुविंदा गिन्जा और मलयालम में कुन्नी कुरु से तैयार सफेद तेल कामोद्दीपक कहा जाता है। [ इसकी पत्तियों से बनाईचाय  बुखार, खांसी और जुकाम के लिए इस्तेमाल की जाती है। इसके बीज जहरीले होते हैं और इसलिए गर्मी उपचार के बाद ही सेवन किए जाते हैं। तमिल सिद्धर पौधों में विषाक्त प्रभावों का  "सुत्थी सेयथल" या शुद्धिकरण  दूध में बीजों को उबाल-सुखाकर करते हैं। अरंडी के तेल की तरह, उच्च तापमान पर प्रोटीन विष को नष्ट करने से यह हानिरहित हो जाता है।  

पुस्तक 'द यूजफुल नेटिव प्लांट्स ऑफ ऑस्ट्रेलिया' (१८८९) में दर्ज है कि "इस पौधे की जड़ों का उपयोग भारत में मुलेठी के विकल्प के रूप में किया जाता है, हालांकि वे कुछ हद तक कड़वी होती हैं। जावा में जड़ों को मृदु माना जाता है। पत्तियों को शहद के साथ मिलाकर सूजन पर लगाया जाता है और जमैका में चाय के विकल्प के रूप में उपयोग किया जाता है। "जेक्विरिटी" के नाम से बीजों को हाल ही में नेत्र रोग के मामलों में इस्तेमाल किया गया है , जिसका उपयोग वे लंबे समय से भारत और ब्राजील में कर रहे हैं।" 

गुंजा या घुंघची की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसकी फली में लगने वाले बीज एक ही आकार और वजन के होते हैं। सुनार एक रत्ती (१२५ मिलीग्राम) सोना तौलने के लिए इसका प्रयोग करते हैं इसलिए इसे 'रत्ती'  कहा जाता है। गुंजा तीन प्रकार की होती है। लाल गुंजा, सफेद गुंजा और काली गुंजा। लाल गुंजा ग्रामीण अंचलों में झाड़ी वाले स्थान पर पायी जाती हैं। इसकी छोटी-छोटी पत्ती वाली बेल होती है और आसानी से मिल जाती है। गुंजा तीन प्रकार की होती है। लाल गुंजा, सफेद गुंजा और काली गुंजा। लाल गुंजा ग्रामीण अंचलों में झाड़ी वाले स्थान पर पायी जाती हैं। इसकी छोटी-छोटी पत्ती वाली बेल होती है और आसानी से मिल जाती है। विवाह के समय वर-वधू के हाथ में कंगन कें भी इसे बाँधा जाता है। गुंजा के फूल सेम की तरह होते हैं।  गुंजा की फली (शिम्बी) में बहुत छोटे आकार के सफेद या लाल बीज होते हैं। गुंजा के बीजों को 'चिरमी' या 'गुंजा मोती', 'लाल रत्ती' या 'चिरमती लाल' भी कहा जाता है। यह ऊष्ण कटिबंधीय-गर्म क्षेत्रों में पनपता है। इसकी पत्तियाँ इमली की पत्तियों जैसी होती हैं।   

गुंजा के पौधे से प्राप्त अर्क में एंटीकैंसर और एंटीट्यूमर गुण होते हैं। गुंजा के बीजों के पानी में कैंसररोधी गुण होते हैं। गुंजा के बीजों का तेल बालों के भूरेपन को रोकता है। गुंजा के पौधे के बीज सूजन में इस्तेमाल किए जाते हैं।यह  विषैला, कड़वा-कसैला होता है तथा कफ-वात को दूर करता है। इसका वैज्ञानिक नाम abrus pricatorius है। इसके बीज खाने पर सर्प विष (abrin) जैसा प्रभाव होकर मौत हो सकती है। २४ घंटे की भीतर प्रतिरोधी (एन्टिडोट) देकर, श्वास अवरोध होने पर पकसीजन देकर, रक्त चाप बढ़ने पर नियंत्रित कार तथा चारकोल थिरैपी से  इसकी चिकित्सा की जाती है। चारकोल विष सोखकर शरीर में फैलने नहीँ देता।  

ज्योतिष शस्त्र के अनुसार किसी व्यक्ति या संस्थान को बुरी नजर लग जाती है, तो ५  या ११ गुंजा लेकर उनके ऊपर से ५ बार उल्टा उतारें और बाहर किसी अंगारी या कपूर पर जला दें। ३ दिन लगातार शाम के समय ऐसा करने पर बुरी से बुरी नजर भी उतर जायेगी। सफेद गुंजा लोभिया के दानों की तरह सफेद होते हैं। इनका उपयोग ज्योतिष के उपाय और वास्तु के उपाय में होता है। घर का उत्तरी भाग दूषित हो, धन आकार ला जाता हो बरकत नहीं होती तो आप १०  ग्राम सफेद गुंजा सफेद कपड़े में बाँधर उत्तर की दीवार पर टांग दें, कांच की कटोरी में रख दें अथवा अपने घर की छत पर किसी बड़े गमले में सफेद गुंजा को उगा सकते हैं। इससे लक्ष्मी कुबेर आकर्षित होते हैं और घर में धन वृद्धि होती है। इसकी माल पहनने से सकरात्मकता बढ़ती है। इसकी पत्तियाँचबाने से मुँह के  छाले दूर होते हैं। इसकी जड़ स्वास्थयवर्धक कही जाती है।
७.४.२०२५  
००० 
मुक्तक
जो हमारा है उसी की चाहकर।
जो न अपना तनिक मत परवाह कर।।
जो मिला उसको सहेजो उम्र भर-
गैर की खातिर न नाहक आह भर।।
***
पत्रिका सलिला
साहित्य संस्कार - पठनीय महिला कथाकार अंक
संस्कारधानी जबलपुर से प्रकाशित त्रैमासिकी साहित्य संस्कार का जनवरी-मार्च अंक 'महिला कथाकार अंक' के रूप में प्रकाशित हुआ है। ५६ पृष्ठीय पत्रिका में ४ लेख, ८ महानियाँ, २ संस्मरण, ७ लघुकथाएँ, ४ कवितायें, १ व्यंग्य लेख, २ समीक्षाएँ तथा २ संपादकीय समाहित हैं। प्रधान संपादक श्री शरद अग्रवाल 'आत्म निर्भर भारत' शीर्षक संपादकीय में भारत को किस्से-कहानियों का देश कहते हुए अपनी जड़ों से जुड़ने को अपरिहार्य बताते हैं। वे हिंदी की प्रथम महिला कहानीकार जबलपुर निवासी उषा देवी मित्रा जी तथा विद्रोहिणी सुभद्रा कुमारी चौहान जी को स्मरण करते हुए भारत के विकास का जिक्र करते हैं। 'कहानियाँ कभी खत्म नहीं होतीं' शीर्षक संपादकीय में अभियंता सुरेंद्र पवार आंग्ल भाषा चालित संस्था इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स द्वारा प्रकाशित वार्षिकांक 'अभियंता बंधु' के दक्षिण भारत में हुए विमोचन की चर्चा कर जान सामान्य से जीवंत संपर्क का उल्लेख करते हैं।
हिंदी कहानी के विकास पर डॉ. अनिल कुमार का आलेख पठनीय है। शशि खरे जी 'नई कहानी और महिला कथाकार' में जरूरी प्रश्न पूछती हैं- 'क्या महिला कहानीकार की कहानियाँ कहानी जगत में अलग परिचय रखती हैं अथवा कहानी, कहानी है पुरुष या स्त्री लेखक किसी ने भी लिखी हो?' सबका हित साधनेवाले साहित्य का मूल्याङ्कन उसकी गुणवत्ता के आधार पर हो या रचनाकार के लिंग, जाति, धर्म, व्यवसाय आधी के आधार पर? शशि जी ने सवाल पाठकों के चिंतन हेतु उठाया किन्तु इस पर विमर्श नहीं किया। एक लेख में सभी महिला कथाकारों पर चर्चा संभव नहीं हो सकती। शशि जी ने तीन पीढ़ियों की ३ महिला कथाकारों नासिरा शर्मा, नमिता सिंह तथा अमिता श्रीवास्तव की कहानी कला पर प्रकाश डाला है। 'कालजयी कहानीकार उषादेवी मित्रा' शीर्षक लेख में आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने उषा देवी जी के जीवन की विषम परिस्थतियों, कठिन संघर्ष, कर्मठता, सृजनशीलता, कृतियों तथा सम्मान आदि पर संक्षिप्त पर सामान्यत: अनुपलब्ध सारगर्भित जानकारी दी है। अपने साहित्य को अपनी ही चिता पर जला दिए जाने की अंतिम अभिलाषा व्यक्त करनेवाली उषा देवी के कार्य पर हिंदीभाषी अंचल के हिंदी प्राध्यापकों ने अब तक शोध न कराकर अक्षम्य कृतघ्नता का परिचय दिया है जबकि दक्षिण भारत में सेंट थॉमस कॉलेज पाला की छात्रा प्रीति आर. ने वर्ष २०१४ में ;उषा देवी मित्रा के साहित्य में नारी जीवन के बदलते स्वरूप' विषय पर शोध किया है। उपेक्षा की हद तो यह कि उषा देवी जी का एक चित्र तक उपलब्ध नहीं है। 'मालवा की मीरा - मालती जोशी' शीर्षक लेखा में प्रतिमा अखिलेश ने गागर में सागर भरने का सफल प्रयास किया है।
अंक की कहानियों में जया जादवानी की कहानी 'हमसफर' परिणय सूत्र में बँधने जा रहे स्त्री-पुरुष के वार्तालाप में जिआवन के विविध पहलुओं पर केंद्रित हैं। दोनों के अतीत के विविध पहलुओं की चर्चा में अंग्रेजी भाषा का अत्यधिक प्रयोग और विस्तार खटकता है। अर्चना मलैया की छोटी कहानी 'चीख' मर्मस्पर्शी है। अंक की सर्वाधिक प्रभावी कहानी 'वृद्धाश्रम' में सरस दरबारी ने पद के मद में डूबे सेवानिवृत्त उच्चधिकारी के अहंकार के कारण हुए पारिवारिक विघटन के सटीक चित्रण किया है। अनीता श्रीवास्तव की कहानी 'कवि सम्मेलन' साहित्यिक मंचों पर छाए बाजारूपन पर प्रहार करती है। गीता भट्टाचार्य लिखित 'नारी तेरे रूप अनेक' में कहानी और संस्मरण का मिश्रण है। पुष्पा चिले की कहने 'मुक्ति' में प्रेम की पवित्रता स्थापित की गई है। 'लिव इन' में टुकड़े-टुकड़े होती श्रद्धा के इस दौर में ऐसी कहानी किशोरों और युवाओं को राह दिखा सकती है। उभरती कहानीकार वैष्णवी मोहन पुराणिक का कहानी 'प्यार का अहसास' देहातीत प्रेम की सात्विकता प्रतिपादित करती है।
मालती जोशी तथा लता तेजेश्वर 'रेणुका' लिखित संस्मरण सरस हैं।डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव के कहानी संग्रह 'जिजीविषा' की डॉ. साधना वर्मा द्वारा प्रस्तुत समीक्षा में नीर-क्षीर विवेचन किया गया है। डॉ. सरोज गुप्ता द्वारा लिखित 'कि याद जो करें सभी' पुस्तक पर समीक्षा संतुलित तथा पठनीय है।
गीतिका श्रीवास्तव के व्यंग्य लेख 'रोम जलता रहा, नीरो बाँसुरी बजाता रहा' में अभियांत्रिकी शिक्षा और अभियंताओं की दुर्दशा उद्घाटित की गई है। डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव की तीन लघुकथाएँ 'गारंटी', 'प्रतिशोध' तथा 'मरकर भी' विधा तथा अंक की श्रीवृद्धि करती हैं। लघुकथांतर्गत छाया सक्सेना की 'बरसों बाद', श्रद्धा निगम की 'ये हुई न बात' तथा मीना पंवार की 'बेटे की शादी में जरूर आऊँगी' अच्छे प्रयास हैं। कविता कानन के कुसुम गुच्छ में सुवदनी देवी रचित 'उपकार', अंकुर सिंह रचित 'माँ मुझे जन्म लेने दो', आरती रचित 'आतंकवाद' तथा गरिमा सिंह रचित 'निश्छल प्रेम' नवांकुरित प्रयास हैं।
सारत: साहित्य संस्कार का सोलहवाँ अंक इसके कैशोर्य प्रवेश पर्व का निनाद कर रहा है। आगामी अंक इसे तरुणाई की ओर ले जाएँगे। शहीद भगत सिंह के देश के किशोर को क्रांतिधर्मा होना चाहिए। मेरा सुझाव है कि महिला कथाकारअंक के पश्चात् आगामी अंक 'पुरुष विमर्श विशेषांक' के रूप में प्रकाशित किया जाए जिसमें स्त्री विमर्श के रूप में हो रहे इकतरफा आंदोलनों के दुष्प्रभावों, पुरुष के अवदान, विवशता, त्याग, समर्पण आदि पर केंद्रित रचनाओं का प्रकाशन हो। पत्रिका के स्थायित्व के लिए आगामी कुछ अंकों के विषय निर्धारण करसम्यक-प्रामाणिक सामग्री जुटाई जा सकती है। बुंदेला विद्रोह १८४२, स्वातंत्र्य समर १८५७ में बुंदेलखंड का योगदान, बुंदेली साहित्य कल और आज, महकौशल में पर्यटन, विकास कार्य, तकनीकी शिक्षण, साहित्य, कला, उद्योग आदि पर क्रमश: विशेषांक हों तो वे संग्रहणीय होंगे। प्रकाशक और संपादक मंडल साधुवाद का पर्याय है।
८-४-२०२३
***
दोहा सलिला
*
शुभ प्रभात होता नहीं, बिन आभा है सत्य
आ भा ऊषा से कहे, पुलकित वसुधा नित्य
*
मार्निंग गुड होगी तभी, जब पहनेंगे मास्क
सोशल डिस्टेंसिंग रखें, मीत सरल है टास्क
*
भाप लाभदायक बहुत, लें दिन में दो बार
पीकर पानी कुनकुना, हों निरोग हर वार
*
कोल्ड ड्रिंक से कीजिए, बाय बाय कर दूर
आइसक्रीम न टेस्ट कर, रहिए स्वस्थ्य हुजूर
*
नीबू रस दो बूँद लें, आप नाक में डाल
करें गरारे दूर हो, कोरोना बेहाल
*
जिंजर गार्लिक टरमरिक, रियल आपके फ्रैंड्स
इन सँग डेली बाँधिए, फ्रैंड्स फ्रेंडशिप बैंड्स
*
सूर्य रश्मि से स्नानकर, सुबह शाम हों धन्य
घूमें ताजी हवा में, पाएँ खुशी अनन्य
*
हार्म करे एक सी बहुत, घटती है ओजोन
बिना सुरक्षा पर्त के, जीवन चाहे क्लोन
*
दूर शीतला माँ हुईं, कोरोना माँ पास
रक्षित रह रखिए सुखी, करें नहीं उपहास
*
हग कल्चर से दूर रह, करिए नमन प्रणाम
ब्लैसिंग लें दें दूर से, करिए दोस्त सलाम
*
कोविद माता सिखातीं, अनुशासन का पाठ
धन्यवाद कह स्वस्थ्य रह, करिए यारों ठाठ
८-४-२०२१
***
दोहा सलिला
पानी-पानी हो गया, पानी मिटी न प्यास।
जंगल पर्वत नदी-तल, गायब रही न आस।।
*
दो कौड़ी का आदमी, पशु का थोड़ा मोल।
मोल न जिसका वह खुदा, चुप रह पोल न खोल।।
*
तू मारे या छोड़ दे, है तेरा उपकार।
न्याय-प्रशासन खड़ा है, हाथ बाँधकर द्वार।।
*
आज कदर है उसी की, जो दमदार दबंग।
इस पल भाईजान हो, उस पल हो बजरंग।।
*
सवा अरब है आदमी, कुचल घटाया भार।
पशु कम मारे कर कृपा, स्वीकारो उपकार।।
*
हम फिल्मी तुम नागरिक, आम न समता एक।
खल बन रुकते हम यहाँ, मरे बने रह नेक।।
८.४.२०१८
***
नवगीत:
.
कुनबा
गीति विधा का है यह
.
महाकाव्य बब्बा की मूँछें, उजली पगड़ी
खण्डकाव्य नाना के नाना किस्से रोचक
दादी-नानी बन प्रबंध करती हैं बतरस
सुन अंग्रेजी-गिटपिट करते बच्चे भौंचक
ईंट कहीं की, रोड़ा आया और कहीं से
अपना
आप विधाता है यह
कुनबा
गीति विधा का है यह
.
लक्षाधिक है छंद सरस जो चाहें रचिए
छंदहीन नीरस शब्दों को काव्य न कहिए
कथ्य सरस लययुक्त सारगर्भित मन मोहे
फिर-फिर मुड़कर अलंकार का रूप निरखिए
बिम्ब-प्रतीक सलोने कमसिन सपनों जैसे
निश-दिन
खूब दिखाता है यह
कुनबा
गीति विधा का है यह
.
दृश्य-श्रव्य-चंपू काव्यों से भाई-भतीजे
द्विपदी, त्रिपदी, मुक्तक अपनेपन से भीजे
ऊषा, दुपहर, संध्या, निशा करें बरजोरी
पुरवैया-पछुवा कुण्डलि का फल सुन खीजे
बौद्धिकता से बोझिल कविता
पढ़ता
पर बिसराता है यह
कुनबा
गीति विधा का है यह
.
गीत प्रगीत अगीत नाम कितने भी धर लो
रच अनुगीत मुक्तिका युग-पीड़ा को स्वर दो
तेवरी या नवगीत शाख सब एक वृक्ष की
जड़ को सींचों, माँ शारद से रचना-वर लो
खुद से
खुद बतियाता है यह
कुनबा
गीति विधा का है यह
८.४.२०१७
...
एक गीत
धत्तेरे की
*
धत्तेरे की
चप्पलबाज।
*
पद-मद चढ़ा, न रहा आदमी
है असभ्य मत कहो आदमी
चुल्लू भर पानी में डूबे
मुँह काला कर
चप्पलबाज
धत्तेरे की
चप्पलबाज।
*
हाय! जंगली-दुष्ट आदमी
पगलाया है भ्रष्ट आदमी
अपना ही थूका चाटे फिर
झूठ उचारे
चप्पलबाज
धत्तेरे की
चप्पलबाज।
*
गलती करता अगर आदमी
क्षमा माँगता तुरत आदमी
गुंडा-लुच्चा क्षमा न माँगे
क्या हो बोलो
चप्पलबाज?
धत्तेरे की
चप्पलबाज।
८.४.२०१७
***
पुस्तक सलिला-
‘सरे राह’ मुखौटे उतारती कहानियाॅ
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
[पुस्तक परिचय- सरे राह, कहानी संग्रह, डाॅं. सुमनलता श्रीवास्तव, प्रथम संस्करण २०१५, आकार २१.५ से.मी. x १४ से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक लेमिनेटेड जैकट सहित, मूल्य १५० रु., त्रिवेणी परिषद प्रकाशन, ११२१ विवेकानंद वार्ड, जबलपुर, कहानीकार संपर्क १०७ इंद्रपुरी, नर्मदा मार्ग, जबलपुर।]
0
‘कहना’ मानव के अस्तित्व का अपरिहार्य अंग है। ‘सुनना’,‘गुनना’ और ‘करना’ इसके अगले चरण हैं। इन चार चरणों ने ही मनुष्य को न केवल पशु-पक्षियों अपितु सुर, असुर, किन्नर, गंधर्व आदि जातियों पर जय दिलाकर मानव सभ्यता के विकास का पथ प्रशस्त किया। ‘कहना’ अनुशासन और उद्दंेश्य सहित हो तो ‘कहानी’ हो जाता है। जो कहा जंाए वह कहानी, क्या कहा जाए?, वह जो कहे जाने योग्य हो, कहे जाने योग्य क्या है?, वह जो सबके लिये हितकर है। जो सबके हित सहित है वही ‘साहित्य’ है। सबके हित की कामना से जो कथन किया गया वह ‘कथा’ है। भारतीय संस्कृति के प्राणतत्वों संस्कृत और संगीत को हृदयंगम कर विशेष दक्षता अर्जित करनेवाली विदुषी डाॅ. सुमनलता श्रीवास्तव की चैथी कृति और दूसरा कहानी संग्रह ‘सरे राह’ उनकी प्रयोगधर्मी मनोवृत्ति का परिचाायक है।
विवेच्य कृति मुग्धा नायिका, पाॅवर आॅफ मदर, सहानुभूति, अभिलषित, ऐसे ही लोग, सेवार्थी, तालीम, अहतियात, फूलोंवाली सुबह, तीमारदारी, उदीयमान, आधुनिका, विष-वास, चश्मेबद्दूर, क्या वे स्वयं, आत्मरक्षा, मंजर, विच्छेद, शुद्धि, पर्व-त्यौहार, योजनगंधा, सफेदपोश, मंगल में अमंगल, सोच के दायरे, लाॅस्ट एंड फाउंड, सुखांत, जीत की हार तथा उड़नपरी 28 छोटी पठनीय कहानियों का संग्रह है।
इस संकलन की सभी कहानियाॅं कहानीकार कम आॅटोरिक्शा में बैठने और आॅटोरिक्शा सम उतरने के अंतराल में घटित होती हैं। यह शिल्यगत प्रयोग सहज तो है पर सरल नहीं है। आॅटोरिक्शा नगर में एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुॅंचाने में जो अल्प समय लेता है, उसके मध्य कहानी के तत्वों कथावस्तु, चरित्रचित्रण, पात्र योजना, कथेपकथन या संवाद, परिवेश, उद्देश्य तथा शैली का समावेश आसान नहीं है। इस कारण बहुधा कथावस्तु के चार चरण आरंभ, आरोह, चरम और अवरोह कां अलग-अलग विस्तार देे सकना संभव न हो सकने पर भी कहानीकार की कहन-कला के कौशल ने किसी तत्व के साथ अन्याय नहीं होने दिया है। शिल्पगत प्रयोग ने अधिकांश कहानियों को घटना प्रधान बना दिया है तथापि चरित्र, भाव और वातावरण यथावश्यक-यथास्थान अपनी उपस्थिति दर्शाते हैं।
कहानीकार प्रतिष्ठित-सुशिक्षित पृष्ठभूमि से है, इस कारण शब्द-चयन सटीक और भाषा संस्कारित है। तत्सम-तद्भव शब्दों का स्वाभविकता के साथ प्रयोग किया गया है। संस्कृत में शोधोपाधि प्राप्त लेखिका ने आम पाठक का ध्यानकर दैनंदिन जीवन में प्रयोग की जा रही भाषा का प्रयोग किया है। ठुली, फिरंगी, होंड़ते, गुब्दुल्ला, खैनी, हीले, जीमने, जच्चा, हूॅंक, हुमकना, धूरि जैसे शब्दकोष में अप्राप्त किंतु लोकजीवन में प्रचलित शब्द, कस्बाई, मकसद, दीदे, कब्जे, तनख्वाह, जुनून, कोफ्त, दस्तखत, अहतियात, कूवत आदि उर्दू शब्द, आॅफिस, आॅेडिट, ब्लडप्रैशर, स्टाॅप, मेडिकल रिप्रजेन्टेटिव, एक्सीडेंट, केमिस्ट, मिक्स्ड जैसे अंग्रेजी शब्द गंगो-जमनी तहजीब का नजारा पेश करते हैं किंतु कहीं-कहंी समुचित-प्रचलित हिंदी शब्द होते हुए भी अंग्रेजी शब्द का प्रयोग भाषिक प्रदूषण प्रतीत होतं है। मदर, मेन रोड, आफिस आदि के हिंदी पर्याय प्रचलित भी है और सर्वमान्य भी किंतु वे प्रयोग नहीं किये गये। लेखिका ने भाषिक प्रवाह के लिये शब्द-युग्मों चक्कर-वक्कर, जच्चा-बच्चा, ओढ़ने-बिछाने-पहनने, सिलाई-कढ़ाई, लोटे-थालियाॅं, चहल-पहल, सूर-तुलसी, सुविधा-असुविधा, दस-बारह, रोजी-रोटी, चिल्ल-पों, खोज-खबर, चोरी-चकारी, तरो-ताजा, मुड़ा-चुड़ा, रोक-टोक, मिल-जुल, रंग-बिरंगा, शक्लो-सूरत, टांका-टाकी आदि का कुशलतापूर्वक प्रयोग किया है।
किसी भाषा का विकास साहित्य से ही होता है। हिंदी विश्वभाषा बनने का सपना तभी साकार कर सकती है जब उसके साहित्य में भाषा का मानक रूप हो। लेखिका सुशिक्षित ही नहीं सुसंस्कृत भी हैं, उनकी भाषा अन्यों के लिये मानक होगी। विवेच्य कृति में बहुवचन शब्दों में एकरूपता नहीं है। ‘महिलाएॅं’ में हिंदी शब्दरूप है तो ‘खवातीन’ में उर्दू शब्दरूप, जबकि ‘रिहर्सलों’ में अंग्रेजी शब्द को हिंदी व्याकरण-नियमानुसार बहुवचन किया ंगया है।
सुमन जी की इन कहानियों की शक्ति उनमें अंतर्निहित रोचकता है। इनमें ‘उसने कहा था’ और ‘ताई’ से ली गयी प्रेरणा देखी जा सकती है। कहानी की कोई रूढ़ परिभाषा नहीं हो सकती। संग्रह की हर कहानी में कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में लेखिका और आॅटोरिक्शा है, सूत्रधार, सहयात्री, दर्शक, रिपोर्टर अथवा पात्र के रूप में वह घटना की साक्ष्य है। वह घटनाक्रम में सक्रिय भूमिका न निभाते हुए भी पा़त्र रूपी कठपुतलियों की डोरी थामे रहती है जबकि आॅटोेरिक्शा रंगमंच बन जाता है। हर कहानी चलचित्र के द्श्य की तरह सामने आती है। अपने पात्रों के माघ्यम से कुछ कहती है और जब तक पाठक कोई प्रतिकिया दे, समाप्त हो जाती है। समाज के श्वेत-श्याम दोनों रंग पात्रों के माघ्यम ेंसे सामने आते हैं।
अनेकता में एकता भारतीय समाज और संस्कृति दोनों की विशेषता है। यहाॅं आॅटोरिक्शा और कहानीकार एकता तथा घटनाएॅं और पात्र अनेकता के वाहक है। इन कहानियों में लघुकथा, संस्मरण, रिपोर्ताज और गपशप का पुट इन्हें रुचिकर बनाता है। ये कहानियाॅं किसी वाद, विचार या आंदोलन के खाॅंचे में नहीं रखी जा सकतीं तथापि समाज सुधार का भाव इनमें अंतर्निहित है। ये कहानियाॅं बच्चों नहीं बड़ों, विपन्नों नहीं संपन्नों के मुखौटों के पीछे छिपे चेहरों को सामने लाती हैं, उन्हें लांछित नहीं करतीं। ‘योजनगंधा’ और ‘उदीयमान’ जमीन पर खड़े होकर गगन छूने, ‘विष वास’, ‘सफेदपोश’, ‘उड़नपरी’, ‘चश्मेबद्दूर आदि में श्रमजीवी वर्ग के सदाचार, ‘सहानूभूति’, ‘ऐसे ही लोग’, ‘शुद्धि’, ‘मंगल में अमंगल’ आदि में विसंगति-निवारण, ‘तालीम’ और ‘सेवार्थी’ में बाल मनोविज्ञान, ‘अहतियात’ तथा ‘फूलोंवाली सुबह’में संस्कारहीनता, ‘तीमारदारी’, ‘विच्छेद’ आदि में दायित्वहीनता, ‘आत्मरक्षा’ में स्वावलंबन, ‘मुग्धानायिका’ में अंधमोह को केंद्र में रखकर कहानीकार ने सकारात्मक संदेष दिया है।
सुमन जी की कहानियों का वैशिष्ट्य उनमें व्याप्त शुभत्व है। वे गुण-अवगुण के चित्रण में अतिरेकी नहीं होतीं। कालिमा की न तो अनदेखी करती हैं, न भयावह चित्रण कर डराती हैं अपितु कालिमा के गर्भ में छिपी लालिमा का संकेत कर ‘सत-शिव-सुंदर’ की ओर उन्मुख होने का अवसर पाने की इच्छा पाठक में जगााती हैं। उनकी आगामी कृति में उनके कथा-कौशल का रचनामृत पाने की प्रतीक्षा पाठक कम मन में अनायास जग जाती है, यह उनकी सफलता है।
८.४.२०१६
...
मुक्तिका:
.
दिल में पड़ी जो गिरह उसे खोल डालिए
हो बाँस की गिरह सी गिरह तो सम्हालिए
रखिये न वज्न दिल पे ज़रा बात मानिए
जो बात सच है हँस के उसे बोल डालिए
है प्यार कठिन, दुश्मनी करना बहुत सरल
जो भाये न उस बात को मन से बिसारिये
संदेह-शुबह-शक न कभी पालिए मन में
क्या-कैसा-कौन है विचार, तौल डालिए
जिसकों भुलाना आपको मुश्किल लगे 'सलिल'
उसको न जाने दीजिए दिल से पुकारिए
दूरी को पाट सकना हमेशा हुआ कठिन
दूरी न आ सके तनिक तो झोल डालिए
कर्जा किसी तरह का हो, आये न रास तो
दुश्वारियाँ कितनी भी हों कर्जा उतारिये
***
मुक्तिका:
.
मंझधार में हो नाव तो हिम्मत न हारिए
ले बाँस की पतवार घाट पर उतारिए
मन में किसी के फाँस चुभे तो निकाल दें
लें साँस चैन की, न खाँसिए-खखारिए
जो वंशलोचनी है वही नेह नर्मदा
बन कांस सुरभि-रज्जु से जीवन संवारिए
बस हाड़-माँस-चाम नहीं, नारि शक्ति है
कर भक्ति प्रेम से 'सलिल' जीवन गुजारिए
तम सघन हो तो निकट मान लीजिए प्रकाश
उठ-जाग कोशिशों से भोर को पुकारिए
८.४.२०१५
***
मुक्तिका
अम्मी
0
माहताब की जुन्हाई में
झलक तुम्हारी पाई अम्मी
दरवाजे, कमरे आँगन में
हरदम पडी दिखाई अम्मी
कौन बताये कहाँ गयीं तुम
अब्बा की सूनी आँखों में
जब भी झाँका पडी दिखाई
तेरी ही परछाईं अम्मी
भावज जी भर गले लगाती
पर तेरी कुछ बात और थी
तुझसे घर अपना लगता था
अब बाकी पहुनाई अम्मी
बसा सासरे केवल तन है
मन तो तेरे साथ रह गया
इत्मीनान हमेशा रखना-
बिटिया नहीं परायी अम्मी
अब्बा में तुझको देखा है
तू ही बेटी-बेटों में है
सच कहती हूँ, तू ही दिखती
भाई और भौजाई अम्मी.
तू दीवाली, तू ही ईदी
तू रमजान फाग होली है
मेरी तो हर श्वास-आस में
तू ही मिली समाई अम्मी
000
दोहा सलिला
ठिठुर रहा था तुम मिलीं, जीवन हुआ बसंत
दूर हुईं पतझड़ हुआ, हेरूँ हर पल कन्त
तुम मैके मैं सासरे, हों तो हो आनंद
मैं मैके तुम सासरे, हों तो गाएँ छन्द
तू-तू मैं-मैं तभी तक, जब तक हों मन दूर
तू-मैं ज्यों ही हम हुए, साँस हुई संतूर
0
दो हाथों में हाथ या, लो हाथों में हाथ
अधरों पर मुस्कान हो, तभी सार्थक साथ
0
नयन मिला छवि बंदकर, मून्दे नयना-द्वार
जयी चार, दो रह गये, नयना खुद को हार
८.४.२०१३
000
नवगीत:
समाचार है...
*
बैठ मुड़ेरे चिड़िया चहके'
समाचार है.
सोप-क्रीम से जवां दिख रही
दुष्प्रचार है...
*
बिन खोले- अख़बार जान लो,
कुछ अच्छा, कुछ बुरा मान लो.
फर्ज़ भुला, अधिकार माँगना-
यदि न मिले तो जिद्द ठान लो..
मुख्य शीर्षक अनाचार है.
और दूसरा दुराचार है.
सफे-सफे पर कदाचार है-
बना हाशिया सदाचार है....
पैठ घरों में टी. वी. दहके
मन निसार है...
*
अब भी धूप खिल रही उज्जवल.
श्यामल बादल, बरखा निर्मल.
वनचर-नभचर करते क्रंदन-
रोते पर्वत, सिसके जंगल..
घर-घर में फैला बजार है.
अवगुन का गाहक हजार है.
नहीं सत्य का चाहक कोई-
श्रम सिक्के का बिका चार है..
मस्ती, मौज-मजे का वाहक
नित उधर, अ-असरदार है...
*
लाज-हया अब तलक लेश है.
चुका नहीं सब, बहुत शेष है.
मत निराश हो बढ़े चलो रे-
कोशिश अब करनी विशेष है..
अलस्सुबह शीतल बयार है.
खिलता मनहर हरसिंगार है.
मन दर्पण की धूल हटायें-
चेहरे-चेहरे पर निखार है..
एक साथ मिल मुष्टि बाँधकर
संकल्पित करना प्रहार है...
८.४.२०११
***
हास्य दोहे:
*
बेचो घोड़े-गधे भी, सोओ होकर मस्त.
खर्राटे ऊँचे भरो, सब जग को कर त्रस्त..
*
कौन किसी का सगा है, और पराया कौन?
जब भी चाहा जानना, उत्तर पाया मौन
*
दूर रहो उससे सदा, जो धोता हो हाथ.
गर पीछे पड़ जायेगा, मुश्किल होगा साथ..
*
टाँग अड़ाना है 'सलिल', जन्म सिद्ध अधिकार.
समझ सको कुछ या नहीं, दो सलाह हर बार..
*
देवी इतनी प्रार्थना, रहे हमेशा होश
काम 'सलिल' करता रहे, घटे न किंचित जोश
*
देवी दर्शन कीजिए, भंडारे के रोज
देवी खुश हो जब मिले, बिना पकाए भोज
*
हर ऊँची दूकान के, फीके हैं पकवान
भाषण सुन कर हो गया, बच्चों को भी ज्ञान
*
नोट वोट नोटा मिलें, जब हों आम चुनाव
शेष दिनों मारा गया, वोटर मिले न भाव
८.४.२०१०

***

सोमवार, 8 अप्रैल 2024

अप्रैल ८, हास्य, दोहा, नवगीत, सुमन श्री, अम्मी, हिंदी गजल,

सलिल सृजन ८ अप्रैल 

मुक्तक
जो हमारा है उसी की चाहकर।
जो न अपना तनिक मत परवाह कर।।
जो मिला उसको सहेजो उम्र भर-
गैर की खातिर न नाहक आह भर।।
***
पत्रिका सलिला
साहित्य संस्कार - पठनीय महिला कथाकार अंक
संस्कारधानी जबलपुर से प्रकाशित त्रैमासिकी साहित्य संस्कार का जनवरी-मार्च अंक 'महिला कथाकार अंक' के रूप में प्रकाशित हुआ है। ५६ पृष्ठीय पत्रिका में ४ लेख, ८ महानियाँ, २ संस्मरण, ७ लघुकथाएँ, ४ कवितायें, १ व्यंग्य लेख, २ समीक्षाएँ तथा २ संपादकीय समाहित हैं। प्रधान संपादक श्री शरद अग्रवाल 'आत्म निर्भर भारत' शीर्षक संपादकीय में भारत को किस्से-कहानियों का देश कहते हुए अपनी जड़ों से जुड़ने को अपरिहार्य बताते हैं। वे हिंदी की प्रथम महिला कहानीकार जबलपुर निवासी उषा देवी मित्रा जी तथा विद्रोहिणी सुभद्रा कुमारी चौहान जी को स्मरण करते हुए भारत के विकास का जिक्र करते हैं। 'कहानियाँ कभी खत्म नहीं होतीं' शीर्षक संपादकीय में अभियंता सुरेंद्र पवार आंग्ल भाषा चालित संस्था इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स द्वारा प्रकाशित वार्षिकांक 'अभियंता बंधु' के दक्षिण भारत में हुए विमोचन की चर्चा कर जान सामान्य से जीवंत संपर्क का उल्लेख करते हैं।
हिंदी कहानी के विकास पर डॉ. अनिल कुमार का आलेख पठनीय है। शशि खरे जी 'नई कहानी और महिला कथाकार' में जरूरी प्रश्न पूछती हैं- 'क्या महिला कहानीकार की कहानियाँ कहानी जगत में अलग परिचय रखती हैं अथवा कहानी, कहानी है पुरुष या स्त्री लेखक किसी ने भी लिखी हो?' सबका हित साधनेवाले साहित्य का मूल्याङ्कन उसकी गुणवत्ता के आधार पर हो या रचनाकार के लिंग, जाति, धर्म, व्यवसाय आधी के आधार पर? शशि जी ने सवाल पाठकों के चिंतन हेतु उठाया किन्तु इस पर विमर्श नहीं किया। एक लेख में सभी महिला कथाकारों पर चर्चा संभव नहीं हो सकती। शशि जी ने तीन पीढ़ियों की ३ महिला कथाकारों नासिरा शर्मा, नमिता सिंह तथा अमिता श्रीवास्तव की कहानी कला पर प्रकाश डाला है। 'कालजयी कहानीकार उषादेवी मित्रा' शीर्षक लेख में आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने उषा देवी जी के जीवन की विषम परिस्थतियों, कठिन संघर्ष, कर्मठता, सृजनशीलता, कृतियों तथा सम्मान आदि पर संक्षिप्त पर सामान्यत: अनुपलब्ध सारगर्भित जानकारी दी है। अपने साहित्य को अपनी ही चिता पर जला दिए जाने की अंतिम अभिलाषा व्यक्त करनेवाली उषा देवी के कार्य पर हिंदीभाषी अंचल के हिंदी प्राध्यापकों ने अब तक शोध न कराकर अक्षम्य कृतघ्नता का परिचय दिया है जबकि दक्षिण भारत में सेंट थॉमस कॉलेज पाला की छात्रा प्रीति आर. ने वर्ष २०१४ में ;उषा देवी मित्रा के साहित्य में नारी जीवन के बदलते स्वरूप' विषय पर शोध किया है। उपेक्षा की हद तो यह कि उषा देवी जी का एक चित्र तक उपलब्ध नहीं है। 'मालवा की मीरा - मालती जोशी' शीर्षक लेखा में प्रतिमा अखिलेश ने गागर में सागर भरने का सफल प्रयास किया है।
अंक की कहानियों में जया जादवानी की कहानी 'हमसफर' परिणय सूत्र में बँधने जा रहे स्त्री-पुरुष के वार्तालाप में जिआवन के विविध पहलुओं पर केंद्रित हैं। दोनों के अतीत के विविध पहलुओं की चर्चा में अंग्रेजी भाषा का अत्यधिक प्रयोग और विस्तार खटकता है। अर्चना मलैया की छोटी कहानी 'चीख' मर्मस्पर्शी है। अंक की सर्वाधिक प्रभावी कहानी 'वृद्धाश्रम' में सरस दरबारी ने पद के मद में डूबे सेवानिवृत्त उच्चधिकारी के अहंकार के कारण हुए पारिवारिक विघटन के सटीक चित्रण किया है। अनीता श्रीवास्तव की कहानी 'कवि सम्मेलन' साहित्यिक मंचों पर छाए बाजारूपन पर प्रहार करती है। गीता भट्टाचार्य लिखित 'नारी तेरे रूप अनेक' में कहानी और संस्मरण का मिश्रण है। पुष्पा चिले की कहने 'मुक्ति' में प्रेम की पवित्रता स्थापित की गई है। 'लिव इन' में टुकड़े-टुकड़े होती श्रद्धा के इस दौर में ऐसी कहानी किशोरों और युवाओं को राह दिखा सकती है। उभरती कहानीकार वैष्णवी मोहन पुराणिक का कहानी 'प्यार का अहसास' देहातीत प्रेम की सात्विकता प्रतिपादित करती है।
मालती जोशी तथा लता तेजेश्वर 'रेणुका' लिखित संस्मरण सरस हैं।डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव के कहानी संग्रह 'जिजीविषा' की डॉ. साधना वर्मा द्वारा प्रस्तुत समीक्षा में नीर-क्षीर विवेचन किया गया है। डॉ. सरोज गुप्ता द्वारा लिखित 'कि याद जो करें सभी' पुस्तक पर समीक्षा संतुलित तथा पठनीय है।
गीतिका श्रीवास्तव के व्यंग्य लेख 'रोम जलता रहा, नीरो बाँसुरी बजाता रहा' में अभियांत्रिकी शिक्षा और अभियंताओं की दुर्दशा उद्घाटित की गई है। डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव की तीन लघुकथाएँ 'गारंटी', 'प्रतिशोध' तथा 'मरकर भी' विधा तथा अंक की श्रीवृद्धि करती हैं। लघुकथांतर्गत छाया सक्सेना की 'बरसों बाद', श्रद्धा निगम की 'ये हुई न बात' तथा मीना पंवार की 'बेटे की शादी में जरूर आऊँगी' अच्छे प्रयास हैं। कविता कानन के कुसुम गुच्छ में सुवदनी देवी रचित 'उपकार', अंकुर सिंह रचित 'माँ मुझे जन्म लेने दो', आरती रचित 'आतंकवाद' तथा गरिमा सिंह रचित 'निश्छल प्रेम' नवांकुरित प्रयास हैं।
सारत: साहित्य संस्कार का सोलहवाँ अंक इसके कैशोर्य प्रवेश पर्व का निनाद कर रहा है। आगामी अंक इसे तरुणाई की ओर ले जाएँगे। शहीद भगत सिंह के देश के किशोर को क्रांतिधर्मा होना चाहिए। मेरा सुझाव है कि महिला कथाकारअंक के पश्चात् आगामी अंक 'पुरुष विमर्श विशेषांक' के रूप में प्रकाशित किया जाए जिसमें स्त्री विमर्श के रूप में हो रहे इकतरफा आंदोलनों के दुष्प्रभावों, पुरुष के अवदान, विवशता, त्याग, समर्पण आदि पर केंद्रित रचनाओं का प्रकाशन हो। पत्रिका के स्थायित्व के लिए आगामी कुछ अंकों के विषय निर्धारण करसम्यक-प्रामाणिक सामग्री जुटाई जा सकती है। बुंदेला विद्रोह १८४२, स्वातंत्र्य समर १८५७ में बुंदेलखंड का योगदान, बुंदेली साहित्य कल और आज, महकौशल में पर्यटन, विकास कार्य, तकनीकी शिक्षण, साहित्य, कला, उद्योग आदि पर क्रमश: विशेषांक हों तो वे संग्रहणीय होंगे। प्रकाशक और संपादक मंडल साधुवाद का पर्याय है।
८-४-२०२३
***
दोहा सलिला
*
शुभ प्रभात होता नहीं, बिन आभा है सत्य
आ भा ऊषा से कहे, पुलकित वसुधा नित्य
*
मार्निंग गुड होगी तभी, जब पहनेंगे मास्क
सोशल डिस्टेंसिंग रखें, मीत सरल है टास्क
*
भाप लाभदायक बहुत, लें दिन में दो बार
पीकर पानी कुनकुना, हों निरोग हर वार
*
कोल्ड ड्रिंक से कीजिए, बाय बाय कर दूर
आइसक्रीम न टेस्ट कर, रहिए स्वस्थ्य हुजूर
*
नीबू रस दो बूँद लें, आप नाक में डाल
करें गरारे दूर हो, कोरोना बेहाल
*
जिंजर गार्लिक टरमरिक, रियल आपके फ्रैंड्स
इन सँग डेली बाँधिए, फ्रैंड्स फ्रेंडशिप बैंड्स
*
सूर्य रश्मि से स्नानकर, सुबह शाम हों धन्य
घूमें ताजी हवा में, पाएँ खुशी अनन्य
*
हार्म करे एक सी बहुत, घटती है ओजोन
बिना सुरक्षा पर्त के, जीवन चाहे क्लोन
*
दूर शीतला माँ हुईं, कोरोना माँ पास
रक्षित रह रखिए सुखी, करें नहीं उपहास
*
हग कल्चर से दूर रह, करिए नमन प्रणाम
ब्लैसिंग लें दें दूर से, करिए दोस्त सलाम
*
कोविद माता सिखातीं, अनुशासन का पाठ
धन्यवाद कह स्वस्थ्य रह, करिए यारों ठाठ
८-४-२०२१
***
दोहा सलिला
पानी-पानी हो गया, पानी मिटी न प्यास।
जंगल पर्वत नदी-तल, गायब रही न आस।।
*
दो कौड़ी का आदमी, पशु का थोड़ा मोल।
मोल न जिसका वह खुदा, चुप रह पोल न खोल।।
*
तू मारे या छोड़ दे, है तेरा उपकार।
न्याय-प्रशासन खड़ा है, हाथ बाँधकर द्वार।।
*
आज कदर है उसी की, जो दमदार दबंग।
इस पल भाईजान हो, उस पल हो बजरंग।।
*
सवा अरब है आदमी, कुचल घटाया भार।
पशु कम मारे कर कृपा, स्वीकारो उपकार।।
*
हम फिल्मी तुम नागरिक, आम न समता एक।
खल बन रुकते हम यहाँ, मरे बने रह नेक।।
८.४.२०१८
***
नवगीत:
.
कुनबा
गीति विधा का है यह
.
महाकाव्य बब्बा की मूँछें, उजली पगड़ी
खण्डकाव्य नाना के नाना किस्से रोचक
दादी-नानी बन प्रबंध करती हैं बतरस
सुन अंग्रेजी-गिटपिट करते बच्चे भौंचक
ईंट कहीं की, रोड़ा आया और कहीं से
अपना
आप विधाता है यह
कुनबा
गीति विधा का है यह
.
लक्षाधिक है छंद सरस जो चाहें रचिए
छंदहीन नीरस शब्दों को काव्य न कहिए
कथ्य सरस लययुक्त सारगर्भित मन मोहे
फिर-फिर मुड़कर अलंकार का रूप निरखिए
बिम्ब-प्रतीक सलोने कमसिन सपनों जैसे
निश-दिन
खूब दिखाता है यह
कुनबा
गीति विधा का है यह
.
दृश्य-श्रव्य-चंपू काव्यों से भाई-भतीजे
द्विपदी, त्रिपदी, मुक्तक अपनेपन से भीजे
ऊषा, दुपहर, संध्या, निशा करें बरजोरी
पुरवैया-पछुवा कुण्डलि का फल सुन खीजे
बौद्धिकता से बोझिल कविता
पढ़ता
पर बिसराता है यह
कुनबा
गीति विधा का है यह
.
गीत प्रगीत अगीत नाम कितने भी धर लो
रच अनुगीत मुक्तिका युग-पीड़ा को स्वर दो
तेवरी या नवगीत शाख सब एक वृक्ष की
जड़ को सींचों, माँ शारद से रचना-वर लो
खुद से
खुद बतियाता है यह
कुनबा
गीति विधा का है यह
८.४.२०१७
...
एक गीत
धत्तेरे की
*
धत्तेरे की
चप्पलबाज।
*
पद-मद चढ़ा, न रहा आदमी
है असभ्य मत कहो आदमी
चुल्लू भर पानी में डूबे
मुँह काला कर
चप्पलबाज
धत्तेरे की
चप्पलबाज।
*
हाय! जंगली-दुष्ट आदमी
पगलाया है भ्रष्ट आदमी
अपना ही थूका चाटे फिर
झूठ उचारे
चप्पलबाज
धत्तेरे की
चप्पलबाज।
*
गलती करता अगर आदमी
क्षमा माँगता तुरत आदमी
गुंडा-लुच्चा क्षमा न माँगे
क्या हो बोलो
चप्पलबाज?
धत्तेरे की
चप्पलबाज।
८.४.२०१७
***
पुस्तक सलिला-
‘सरे राह’ मुखौटे उतारती कहानियाॅ
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
[पुस्तक परिचय- सरे राह, कहानी संग्रह, डाॅं. सुमनलता श्रीवास्तव, प्रथम संस्करण २०१५, आकार २१.५ से.मी. x १४ से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक लेमिनेटेड जैकट सहित, मूल्य १५० रु., त्रिवेणी परिषद प्रकाशन, ११२१ विवेकानंद वार्ड, जबलपुर, कहानीकार संपर्क १०७ इंद्रपुरी, नर्मदा मार्ग, जबलपुर।]
0
‘कहना’ मानव के अस्तित्व का अपरिहार्य अंग है। ‘सुनना’,‘गुनना’ और ‘करना’ इसके अगले चरण हैं। इन चार चरणों ने ही मनुष्य को न केवल पशु-पक्षियों अपितु सुर, असुर, किन्नर, गंधर्व आदि जातियों पर जय दिलाकर मानव सभ्यता के विकास का पथ प्रशस्त किया। ‘कहना’ अनुशासन और उद्दंेश्य सहित हो तो ‘कहानी’ हो जाता है। जो कहा जंाए वह कहानी, क्या कहा जाए?, वह जो कहे जाने योग्य हो, कहे जाने योग्य क्या है?, वह जो सबके लिये हितकर है। जो सबके हित सहित है वही ‘साहित्य’ है। सबके हित की कामना से जो कथन किया गया वह ‘कथा’ है। भारतीय संस्कृति के प्राणतत्वों संस्कृत और संगीत को हृदयंगम कर विशेष दक्षता अर्जित करनेवाली विदुषी डाॅ. सुमनलता श्रीवास्तव की चैथी कृति और दूसरा कहानी संग्रह ‘सरे राह’ उनकी प्रयोगधर्मी मनोवृत्ति का परिचाायक है।
विवेच्य कृति मुग्धा नायिका, पाॅवर आॅफ मदर, सहानुभूति, अभिलषित, ऐसे ही लोग, सेवार्थी, तालीम, अहतियात, फूलोंवाली सुबह, तीमारदारी, उदीयमान, आधुनिका, विष-वास, चश्मेबद्दूर, क्या वे स्वयं, आत्मरक्षा, मंजर, विच्छेद, शुद्धि, पर्व-त्यौहार, योजनगंधा, सफेदपोश, मंगल में अमंगल, सोच के दायरे, लाॅस्ट एंड फाउंड, सुखांत, जीत की हार तथा उड़नपरी 28 छोटी पठनीय कहानियों का संग्रह है।
इस संकलन की सभी कहानियाॅं कहानीकार कम आॅटोरिक्शा में बैठने और आॅटोरिक्शा सम उतरने के अंतराल में घटित होती हैं। यह शिल्यगत प्रयोग सहज तो है पर सरल नहीं है। आॅटोरिक्शा नगर में एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुॅंचाने में जो अल्प समय लेता है, उसके मध्य कहानी के तत्वों कथावस्तु, चरित्रचित्रण, पात्र योजना, कथेपकथन या संवाद, परिवेश, उद्देश्य तथा शैली का समावेश आसान नहीं है। इस कारण बहुधा कथावस्तु के चार चरण आरंभ, आरोह, चरम और अवरोह कां अलग-अलग विस्तार देे सकना संभव न हो सकने पर भी कहानीकार की कहन-कला के कौशल ने किसी तत्व के साथ अन्याय नहीं होने दिया है। शिल्पगत प्रयोग ने अधिकांश कहानियों को घटना प्रधान बना दिया है तथापि चरित्र, भाव और वातावरण यथावश्यक-यथास्थान अपनी उपस्थिति दर्शाते हैं।
कहानीकार प्रतिष्ठित-सुशिक्षित पृष्ठभूमि से है, इस कारण शब्द-चयन सटीक और भाषा संस्कारित है। तत्सम-तद्भव शब्दों का स्वाभविकता के साथ प्रयोग किया गया है। संस्कृत में शोधोपाधि प्राप्त लेखिका ने आम पाठक का ध्यानकर दैनंदिन जीवन में प्रयोग की जा रही भाषा का प्रयोग किया है। ठुली, फिरंगी, होंड़ते, गुब्दुल्ला, खैनी, हीले, जीमने, जच्चा, हूॅंक, हुमकना, धूरि जैसे शब्दकोष में अप्राप्त किंतु लोकजीवन में प्रचलित शब्द, कस्बाई, मकसद, दीदे, कब्जे, तनख्वाह, जुनून, कोफ्त, दस्तखत, अहतियात, कूवत आदि उर्दू शब्द, आॅफिस, आॅेडिट, ब्लडप्रैशर, स्टाॅप, मेडिकल रिप्रजेन्टेटिव, एक्सीडेंट, केमिस्ट, मिक्स्ड जैसे अंग्रेजी शब्द गंगो-जमनी तहजीब का नजारा पेश करते हैं किंतु कहीं-कहंी समुचित-प्रचलित हिंदी शब्द होते हुए भी अंग्रेजी शब्द का प्रयोग भाषिक प्रदूषण प्रतीत होतं है। मदर, मेन रोड, आफिस आदि के हिंदी पर्याय प्रचलित भी है और सर्वमान्य भी किंतु वे प्रयोग नहीं किये गये। लेखिका ने भाषिक प्रवाह के लिये शब्द-युग्मों चक्कर-वक्कर, जच्चा-बच्चा, ओढ़ने-बिछाने-पहनने, सिलाई-कढ़ाई, लोटे-थालियाॅं, चहल-पहल, सूर-तुलसी, सुविधा-असुविधा, दस-बारह, रोजी-रोटी, चिल्ल-पों, खोज-खबर, चोरी-चकारी, तरो-ताजा, मुड़ा-चुड़ा, रोक-टोक, मिल-जुल, रंग-बिरंगा, शक्लो-सूरत, टांका-टाकी आदि का कुशलतापूर्वक प्रयोग किया है।
किसी भाषा का विकास साहित्य से ही होता है। हिंदी विश्वभाषा बनने का सपना तभी साकार कर सकती है जब उसके साहित्य में भाषा का मानक रूप हो। लेखिका सुशिक्षित ही नहीं सुसंस्कृत भी हैं, उनकी भाषा अन्यों के लिये मानक होगी। विवेच्य कृति में बहुवचन शब्दों में एकरूपता नहीं है। ‘महिलाएॅं’ में हिंदी शब्दरूप है तो ‘खवातीन’ में उर्दू शब्दरूप, जबकि ‘रिहर्सलों’ में अंग्रेजी शब्द को हिंदी व्याकरण-नियमानुसार बहुवचन किया ंगया है।
सुमन जी की इन कहानियों की शक्ति उनमें अंतर्निहित रोचकता है। इनमें ‘उसने कहा था’ और ‘ताई’ से ली गयी प्रेरणा देखी जा सकती है। कहानी की कोई रूढ़ परिभाषा नहीं हो सकती। संग्रह की हर कहानी में कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में लेखिका और आॅटोरिक्शा है, सूत्रधार, सहयात्री, दर्शक, रिपोर्टर अथवा पात्र के रूप में वह घटना की साक्ष्य है। वह घटनाक्रम में सक्रिय भूमिका न निभाते हुए भी पा़त्र रूपी कठपुतलियों की डोरी थामे रहती है जबकि आॅटोेरिक्शा रंगमंच बन जाता है। हर कहानी चलचित्र के द्श्य की तरह सामने आती है। अपने पात्रों के माघ्यम से कुछ कहती है और जब तक पाठक कोई प्रतिकिया दे, समाप्त हो जाती है। समाज के श्वेत-श्याम दोनों रंग पात्रों के माघ्यम ेंसे सामने आते हैं।
अनेकता में एकता भारतीय समाज और संस्कृति दोनों की विशेषता है। यहाॅं आॅटोरिक्शा और कहानीकार एकता तथा घटनाएॅं और पात्र अनेकता के वाहक है। इन कहानियों में लघुकथा, संस्मरण, रिपोर्ताज और गपशप का पुट इन्हें रुचिकर बनाता है। ये कहानियाॅं किसी वाद, विचार या आंदोलन के खाॅंचे में नहीं रखी जा सकतीं तथापि समाज सुधार का भाव इनमें अंतर्निहित है। ये कहानियाॅं बच्चों नहीं बड़ों, विपन्नों नहीं संपन्नों के मुखौटों के पीछे छिपे चेहरों को सामने लाती हैं, उन्हें लांछित नहीं करतीं। ‘योजनगंधा’ और ‘उदीयमान’ जमीन पर खड़े होकर गगन छूने, ‘विष वास’, ‘सफेदपोश’, ‘उड़नपरी’, ‘चश्मेबद्दूर आदि में श्रमजीवी वर्ग के सदाचार, ‘सहानूभूति’, ‘ऐसे ही लोग’, ‘शुद्धि’, ‘मंगल में अमंगल’ आदि में विसंगति-निवारण, ‘तालीम’ और ‘सेवार्थी’ में बाल मनोविज्ञान, ‘अहतियात’ तथा ‘फूलोंवाली सुबह’में संस्कारहीनता, ‘तीमारदारी’, ‘विच्छेद’ आदि में दायित्वहीनता, ‘आत्मरक्षा’ में स्वावलंबन, ‘मुग्धानायिका’ में अंधमोह को केंद्र में रखकर कहानीकार ने सकारात्मक संदेष दिया है।
सुमन जी की कहानियों का वैशिष्ट्य उनमें व्याप्त शुभत्व है। वे गुण-अवगुण के चित्रण में अतिरेकी नहीं होतीं। कालिमा की न तो अनदेखी करती हैं, न भयावह चित्रण कर डराती हैं अपितु कालिमा के गर्भ में छिपी लालिमा का संकेत कर ‘सत-शिव-सुंदर’ की ओर उन्मुख होने का अवसर पाने की इच्छा पाठक में जगााती हैं। उनकी आगामी कृति में उनके कथा-कौशल का रचनामृत पाने की प्रतीक्षा पाठक कम मन में अनायास जग जाती है, यह उनकी सफलता है।
८.४.२०१६
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मुक्तिका:
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दिल में पड़ी जो गिरह उसे खोल डालिए
हो बाँस की गिरह सी गिरह तो सम्हालिए
रखिये न वज्न दिल पे ज़रा बात मानिए
जो बात सच है हँस के उसे बोल डालिए
है प्यार कठिन, दुश्मनी करना बहुत सरल
जो भाये न उस बात को मन से बिसारिये
संदेह-शुबह-शक न कभी पालिए मन में
क्या-कैसा-कौन है विचार, तौल डालिए
जिसकों भुलाना आपको मुश्किल लगे 'सलिल'
उसको न जाने दीजिए दिल से पुकारिए
दूरी को पाट सकना हमेशा हुआ कठिन
दूरी न आ सके तनिक तो झोल डालिए
कर्जा किसी तरह का हो, आये न रास तो
दुश्वारियाँ कितनी भी हों कर्जा उतारिये
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मुक्तिका:
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मंझधार में हो नाव तो हिम्मत न हारिए
ले बाँस की पतवार घाट पर उतारिए
मन में किसी के फाँस चुभे तो निकाल दें
लें साँस चैन की, न खाँसिए-खखारिए
जो वंशलोचनी है वही नेह नर्मदा
बन कांस सुरभि-रज्जु से जीवन संवारिए
बस हाड़-माँस-चाम नहीं, नारि शक्ति है
कर भक्ति प्रेम से 'सलिल' जीवन गुजारिए
तम सघन हो तो निकट मान लीजिए प्रकाश
उठ-जाग कोशिशों से भोर को पुकारिए
८.४.२०१५
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मुक्तिका
अम्मी
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माहताब की जुन्हाई में
झलक तुम्हारी पाई अम्मी
दरवाजे, कमरे आँगन में
हरदम पडी दिखाई अम्मी
कौन बताये कहाँ गयीं तुम
अब्बा की सूनी आँखों में
जब भी झाँका पडी दिखाई
तेरी ही परछाईं अम्मी
भावज जी भर गले लगाती
पर तेरी कुछ बात और थी
तुझसे घर अपना लगता था
अब बाकी पहुनाई अम्मी
बसा सासरे केवल तन है
मन तो तेरे साथ रह गया
इत्मीनान हमेशा रखना-
बिटिया नहीं परायी अम्मी
अब्बा में तुझको देखा है
तू ही बेटी-बेटों में है
सच कहती हूँ, तू ही दिखती
भाई और भौजाई अम्मी.
तू दीवाली, तू ही ईदी
तू रमजान फाग होली है
मेरी तो हर श्वास-आस में
तू ही मिली समाई अम्मी
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दोहा सलिला
ठिठुर रहा था तुम मिलीं, जीवन हुआ बसंत
दूर हुईं पतझड़ हुआ, हेरूँ हर पल कन्त
तुम मैके मैं सासरे, हों तो हो आनंद
मैं मैके तुम सासरे, हों तो गाएँ छन्द
तू-तू मैं-मैं तभी तक, जब तक हों मन दूर
तू-मैं ज्यों ही हम हुए, साँस हुई संतूर
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दो हाथों में हाथ या, लो हाथों में हाथ
अधरों पर मुस्कान हो, तभी सार्थक साथ
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नयन मिला छवि बंदकर, मून्दे नयना-द्वार
जयी चार, दो रह गये, नयना खुद को हार
८.४.२०१३
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नवगीत:
समाचार है...
*
बैठ मुड़ेरे चिड़िया चहके'
समाचार है.
सोप-क्रीम से जवां दिख रही
दुष्प्रचार है...
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बिन खोले- अख़बार जान लो,
कुछ अच्छा, कुछ बुरा मान लो.
फर्ज़ भुला, अधिकार माँगना-
यदि न मिले तो जिद्द ठान लो..
मुख्य शीर्षक अनाचार है.
और दूसरा दुराचार है.
सफे-सफे पर कदाचार है-
बना हाशिया सदाचार है....
पैठ घरों में टी. वी. दहके
मन निसार है...
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अब भी धूप खिल रही उज्जवल.
श्यामल बादल, बरखा निर्मल.
वनचर-नभचर करते क्रंदन-
रोते पर्वत, सिसके जंगल..
घर-घर में फैला बजार है.
अवगुन का गाहक हजार है.
नहीं सत्य का चाहक कोई-
श्रम सिक्के का बिका चार है..
मस्ती, मौज-मजे का वाहक
नित उधर, अ-असरदार है...
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लाज-हया अब तलक लेश है.
चुका नहीं सब, बहुत शेष है.
मत निराश हो बढ़े चलो रे-
कोशिश अब करनी विशेष है..
अलस्सुबह शीतल बयार है.
खिलता मनहर हरसिंगार है.
मन दर्पण की धूल हटायें-
चेहरे-चेहरे पर निखार है..
एक साथ मिल मुष्टि बाँधकर
संकल्पित करना प्रहार है...
८.४.२०११
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हास्य दोहे:
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बेचो घोड़े-गधे भी, सोओ होकर मस्त.
खर्राटे ऊँचे भरो, सब जग को कर त्रस्त..
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कौन किसी का सगा है, और पराया कौन?
जब भी चाहा जानना, उत्तर पाया मौन
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दूर रहो उससे सदा, जो धोता हो हाथ.
गर पीछे पड़ जायेगा, मुश्किल होगा साथ..
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टाँग अड़ाना है 'सलिल', जन्म सिद्ध अधिकार.
समझ सको कुछ या नहीं, दो सलाह हर बार..
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देवी इतनी प्रार्थना, रहे हमेशा होश
काम 'सलिल' करता रहे, घटे न किंचित जोश
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देवी दर्शन कीजिए, भंडारे के रोज
देवी खुश हो जब मिले, बिना पकाए भोज

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हर ऊँची दूकान के, फीके हैं पकवान
भाषण सुन कर हो गया, बच्चों को भी ज्ञान
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नोट वोट नोटा मिलें, जब हों आम चुनाव
शेष दिनों मारा गया, वोटर मिले न भाव
८.४.२०१०
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