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रविवार, 4 मार्च 2012

होली की कुण्डलियाँ: मनायें जमकर होली --संजीव 'सलिल'

होली की कुण्डलियाँ:
मनायें जमकर होली
संजीव 'सलिल'
*
होली अनहोली न हो, रखिए इसका ध्यान.
मही पाल बन जायेंगे, खायें भंग का पान.. 
खायें भंग का पान, मान का पान न छोड़ें.
छान पियें ठंडाई, गत रिकोर्ड को तोड़ें..
कहे 'सलिल' कविराय, टेंट में खोंसे गोली.
भोली से लग गले, मनायें जमकर होली..
*
होली ने खोली सभी, नेताओं की पोल. 
जिसका जैसा ढोल है, वैसी उसकी पोल..
वैसी उसकी पोल, तोलकर करता बातें.
लेकिन भीतर ही भीतर करता हैं घातें..
नकली कुश्ती देख भ्रनित है जनता भोली.
एक साथ मिल भत्ते बढ़वा करते होली..
*
होली में फीका पड़ा, सेवा का हर रंग.
माया को भायी सदा, सत्ता खातिर जंग..
सत्ता खातिर जंग, सोनिया को भी भाया.
जया, उमा, ममता, सुषमा का भारी पाया..
मर्दों पर भारी है, महिलाओं की टोली.
पुरुष सम्हालें चूल्हा-चक्की अबकी होली..
*

शनिवार, 11 फ़रवरी 2012

सामयिक कुण्डलियाँ: संजीव 'सलिल'

सामयिक कुण्डलियाँ:
संजीव 'सलिल'
*
नार विदेशी सोनिया, शेष स्वदेशी लोग.
सबको ही लग गया है, राजनीति का रोग..
राजनीति का रोग, चाहते केवल सत्ता. 
जनता चाहे काट न पाये इनका पत्ता.
'सलिल' आयें जब द्वार पर दें इनको दुत्कार.
दल कोई भी हो सभी चोरों के सरदार..
*
दल का दलदल ख़त्म कर, चुनिए अच्छे लोग.
जिन्हें न पद का लोभ हो, साध्य न केवल भोग..
साध्य न केवल भोग, लक्ष्य जन सेवा करना.
करें देश-निर्माण पंथ ही केवल वरना.
कहे 'सलिल' कवि, करें योग्यता को मत ओझल.
आरक्षण को कर समाप्त, योग्यता ही हो संबल..

गुरुवार, 23 अप्रैल 2009

एक कुण्डली : आचार्य संजीव 'सलिल'

भुला न पाता प्यार को, कभी कोई इंसान.
पाकर-देकर प्यार सब जग बनता रस-खान
जग बनता रस-खान, नेह-नर्मदा नाता.
बन अपूर्ण से पूर्ण, नया संसार बसाता.
नित्य 'सलिल' कविराय, प्यार का ही गुण गाता.
खुद को जाये भूल, प्यार को भुला न पाता.

सोमवार, 13 अप्रैल 2009

कुण्डली -आचार्य संजीव 'सलिल'

हैं ऊँची दूकान में, यदि फीके पकवान।

जिसे- देख आश्चर्य हो, वह सचमुच नादान।

वह सचमुच नादान, न फल या छाँह मिलेगी।

ऊँचा पेड़ खजूर, व्यर्थ- न दाल गलेगी।

कहे 'सलिल' कविराय, दूर हो ऊँचाई से।

मिलती है ऊँचाई केवल नीचाई से.

गुरुवार, 26 मार्च 2009

कुण्डली : हार न मानो --संजीव 'सलिल'

प्यारी बिटिया! यही है दुनिया का दस्तूर।
हर दीपक के तले है, अँधियारा भरपूर।
अँधियारा भरपूर मगर उजियारे की जय।
बाद अमावस के फिर सूरज ऊगे निर्भय।
हार न मानो, लडो, कहे चाचा की चिठिया।
जय पा अत्याचार मिटाओ, प्यारी बिटिया।

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लोकतंत्र में लोक ही, होता जिम्मेवार।
वही बनाता देश की भली-बुरी सरकार।
छोटे-छोटे स्वार्थ हित, जब तोडे कानून।
तभी समझ लो कर रहा, आजादी का खून।
भारत माँ को पूजकर, हुआ न पूरा फ़र्ज़।
प्रकृति माँ को स्वच्छ रख, तब उतरे कुछ क़र्ज़।

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ग़ज़ल

तू न होकर भी यहीं है मुझको सच समझा गई ।
ओ मेरी माँ! बनके बेटी, फिर से जीने आ गई ।।

रात भर तम् से लड़ा, जब टूटने को दम हुई।
दिए के बुझने से पहले, धूप आकर छा गई ।।

नींव के पत्थर का जब, उपहास कलशों ने किया।
ज़मीं काँपी असलियत सबको समझ में आ गई ।।

सिंह-कुल-कुलवंत कवि कविता करे तो जग कहे।
दिल पे बीती आ जुबां पर ज़माने पर छा गई

बनाती कंकर को शंकर नित निनादित नर्मदा।
ज्यों की त्यों धर दे चदरिया 'सलिल' को सिखला गई ।।

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दोहे

जो सबको हितकर वही, होता है साहित्य।
कालजयी होता अमर, जैसे हो आदित्य.

सबको हितकर सीख दे, कविता पाठक धन्य।
बडभागी हैं कलम-कवि, कविता सत्य अनन्य।

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