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सोमवार, 28 फ़रवरी 2022

सॉनेट, मुक्तिका,

सॉनेट 
चूहे को पंजे में दाब शेर मुस्काए। 
चीं-चीं कर चूहा चाहे निज जान बचाए। 
शांति वार्ता का नाटक जग के मन भाए।।  
बंदर झूल शाख पर जय-जयकार गुँजाए।। 

'भैंस उसी की जिसकी लाठी' अटल सत्य है। 
'माइट इज राइट' निर्बल ही पीटता आया। 
महाबली जो करे वही होता सुकृत्य है।।
मानव का इतिहास गया है फिर दुहराया।।

मनमानी को मन की बात बताते नेता। 
देश नहीं दल की जय-जय कर चमचे पाले। 
जनवाणी जन की बातों पर ध्यान न देता।। 
गुटबंदी सीता को दोषी बोल निकाले।।
  
निज करनी पर कहो बेशरम कब शरमाए। 
चूहे को पंजे में दाब शेर मुस्काए।।
२८-२-२०२२    
***
मुक्तिका
इसने मारा, उसने मारा
इंसानों को सबने मारा
हैवानों की है पौ बारा
शैतानों का जै-जैकारा
सरकारों नें आँखें मूँदीं
टी. वी. ने मारा चटखारा
नफरत द्वेष घृणा का फोड़ा
नेताओं ने मिल गुब्बारा
आम आदमी है मुश्किल में
खासों ने खुद को उपकारा
भाषणबाजों लानत तुम पर
भारत माता ने धिक्कारा
हाथ मिलाओ, गले लगाओ
अब न बहाओ आँसू खारा
*
२८-२-२०२०

रविवार, 27 फ़रवरी 2022

श्रीमद्भागवत रसामृतम्, विनोद शास्त्री

पुस्तक परिचय
श्रीमद्भागवत रसामृतम् - सनातन मूल्यों एवं मान्यताओं का कोष
- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
[कृति विवरण - श्रीमद्भागवत रसामृतम्, विधा आध्यात्मिक समालोचना, लेखक - व्याकरणाचार्य डॉ. विनोद शास्त्री, आवरण सजिल्द क्लॉथ बाइंडिंग, आकार २५ से.मी. x २१ से.मी., द्वितीय संस्करण बसंत पंचमी २०२१, पृष्ठ संख्या ८००, मूल्य रु. ७४०/-, प्रकाशक- भागवत पीयूषधाम समिति, दिल्ली।]
*
पुस्तकें मनुष्य की श्रेष्ठ मित्र और मार्गदर्शक हैं। मानव जीवन के हर मोड़ पर पुस्तकों की उपादेयता होती है। अधिकांश पुस्तकें जीवन के एक सोपान पर उपयोगी होने के पश्चात् अपनी उपयोगिता खो बैठती हैं किन्तु कुछ पुस्तकें ऐसी भी होती है जो सतत सनातन ज्ञान सलिला प्रवाहित करती हैं। ऐसी पुस्तकें मित्र मात्र नहीं; पथ प्रदर्शक और व्यक्तित्व विकासक भी होती हैं। ऐसी ही एक पुस्तक है 'श्रीमद्भागवत रसामृतम्'। वास्तव में यह ग्रंथ नहीं; ग्रंथराज है। महर्षि वेदव्यास द्वारा प्रणीत श्रीमद्भागवत महापुराण की कथा को सात भागों में विभाजित कर साप्ताहिक कथा वाचन की उद्देश्य पूर्ति इस ग्रंथ ने की है। ग्रंथकार डॉ. विनोद शास्त्री जी ने श्रीमद्भागवत पर ही शोधोपाधि प्राप्त की है। यह ग्रंथ प्रामाणिक और सरस बन पड़ा है। 

ग्रंथारंभ में श्रीगोवर्धन मठ पुरी पीठाधीश्वर श्रीमज्जगद्गुरु स्वामी निश्चलानंद जी सरस्वती आशीष देते हुए लिखते हैं- 'डॉ. विनोद शास्त्री महाभाग के द्वारा विरचित श्रीमद्भागवत रसामृतम् (साप्ताहिक कथा) आस्थापूर्वक अध्ययन, अनुशीलन और श्रवण करने योग्य है। श्री शास्त्री जी ने अत्यंत गहन विषय को सरलतम शब्दों में व्यक्त किया है। इस ग्रंथ में शब्द विमर्श सहित तात्विक विवेचन के माध्यम से दार्शनिक भाव व्यक्त किए गए हैं।' रमणरेती गोकुल से जगद्गुरु कार्ष्णि श्री गुरु शरणानंद जी महामंडलेश्वर के शब्दों में - 'ग्रंथ में दुरूह स्थलों एवं प्रसंगों को अत्यंत सरल शब्दों एवं भावों में व्यक्त किया गया है। बीच-बीच में संस्कृत श्लोकों की व्याख्या एवं वैयाकरण सौरभ दृष्टिगोचर होता है। रामचरित मानस एवं भगवद्गीता के उद्धरण देने से ग्रंथ की उपादेयता और भी बढ़ गई है। जगद्गुरु द्वारकाचार्य मलूक पीठाधीश्वर श्री राजेंद्रदास जी के अनुसार 'श्री वंशीधरी आदि टीकाओं का भाव, सभी प्रसंगों का सरल तात्विक विवेचन, प्रत्येक स्कंध, अध्याय, प्रमुख श्लोकों का व्याख्यान इस ग्रंथ का अनुपम वैशिष्ट्य है। इस अनुपम ग्रंथ की श्री गोदा हरिदेव पीठाधीश्वर जगद्गुरु देवनारायणाचार्य, स्वामी श्री किशोरीरमणाचार्य जी, मारुतिनन्दन वागीश जी, कृष्णचन्द्र शास्त्री जी जैसे विद्वानों ने भी भूरि-भूरि प्रशंसा की है। 

ग्रंथ में श्रीमद्भागवद माहात्म्य के पश्चात् बारह स्कन्धों में कथा का वर्णन है।  माहात्म्य के अंतर्गत नारद-भक्ति संवाद, भक्ति का कष्ट विमोचन, गोकर्ण की कथा, धुंधकारी की मुक्ति तथा सप्ताह यज्ञ की विधि वर्णित है। प्रथम स्कंध में भगवद्भक्ति का माहात्म्य, अवतारों का वर्णन, व्यास-नारद संवाद, भागवत रचना, द्रौपदी-सुतों का वध, अश्वत्थामा का मान मर्दन, परीक्षित की रक्षा, भीष्म का देह त्याग, कृष्ण का द्वारका में स्वागत, परीक्षित जन्म, धृतराष्ट्र-गांधारी का हिमालय गमन, परीक्षित राज्याभिषेक, पांडवों का स्वर्ग प्रस्थान, परीक्षित की दिग्विजय, कलियुग का दमन, शृंगी द्वारा शाप तथा शुकदेव द्वारा उपदेश वर्णित हैं। दूसरे स्कंध में ध्यान विधि, विराट स्वरूप, भक्ति माहात्म्य, शुकदेव द्वारा सृष्टि वर्णन, विराट रूप की विभूति का वर्णन, अवतार कथा, ब्रह्मा द्वारा चतुश्लोकी भागवत तथा भागवत के दस लक्षण समाहित हैं। तृतीय स्कंध में उद्धव-विदुर भेंट, कृष्ण की बाल लीला, विदुर-मैत्रेय संवाद, ब्रह्मा की उत्पत्ति, सृष्टि व काल का वर्णन,  वाराह अवतार, जय-विजय कथा, हिरण्याक्ष- हिरण्यकशिपु प्रसंग, देवहूति-कर्दम प्रसंग, कपिल जन्म, सांख्ययोग, अष्टांगयोग, भक्तियोग आदि प्रसंग हैं। चतुर्थ स्कंध में स्वायंभुव मनु प्रसंग, शंकर-दक्ष प्रसंग, ध्रुव की कथा, वेन, पृथु तथा पुरंजन की कथाओं का विवेचन किया गया है। पंचम स्कंध में प्रियव्रत, आग्नीध्र, नाभि, ऋषभदेव, भारत, गंगावतरण, भारतवर्ष, षडद्वीप, लोकालोक, सूर्य, राहु तथा नरकादि का वर्णन किया गया है। छठवें स्कंध में अजामिल आख्यान, नारद-दक्ष प्रसंग, विश्वरूप प्रसंग, दधीचि प्रसंग, वृत्तासुर वध, चित्रकेतु प्रसंग तथा अदिति व दिति प्रसंगों  की व्याख्या की गई है।

नारद-युधिष्ठिर संवाद, जय-विजय कथा, हिरण्यकशिपु-प्रह्लाद-नृसिंह प्रसंग, मानव-धर्म, वर्ण-धर्म, स्त्री-धर्म, सन्यास धर्म तथा गृहस्थाश्रम महत्व का वर्णन सप्तम स्कंध में है। आठवें स्तंभ में मन्वन्तरों का वर्णन, गजेंद्र प्रसंग, समुद्र मंथन, शिव द्वारा विष-पान, देवासुर प्रसंग, वामन-बलि प्रसंग तथा मत्स्यावतार की कथा कही गई है। नौवें स्कंध में वैवस्वत मनु, महर्षि च्यवन, शर्याति, अम्बरीष, दुर्वासा, इक्ष्वाकु वंश, मान्धाता, त्रिशंकु, हरिश्चंद्र, सगर, भगीरथ, श्री राम, निमि, चन्द्रवंश, परशुराम, ययाति, पुरु वंश, दुष्यंत, भरत आदि प्रसंगों पर प्रकाश डाला गया है। दसवें स्कंध के पूर्वार्ध में वासुदेव-देवकी विवाह, श्री कृष्ण जन्म, पूतनादि उद्धार, ब्रह्मा को मोह, कालिय नाग, चीरहरण, गोवर्धन-धारण, रासलीला, अरिष्टासुर वध, कुब्जा पर कृपा, भ्रमर गीत आदि प्रसंग हैं। दसवें स्कंध के उत्तरार्ध में जरासंध वध, द्वारका निर्माण, कालयवन-मुचुकुंद प्रसंग, रुक्मिणी से विवाह, प्रद्युम्न जन्म, शंबरासुर वध, जांबवती व सत्यभाभा के साथ विवाह, सीमन्तक हरण, भौमासुर उद्धार, रुक्मि वध, उषा-अनिरुद्ध प्रसंग, श्रीकृष्ण-बाणासुर युद्ध, राजसूय यज्ञ, शिशुपाल उद्धार, शाल्व उद्धार, सुदामा प्रसंग, वसुदेव यज्ञोत्सव, त्रिदेव परीक्षा, लीलाविहार आदि प्रसंगों का वर्णन है। ग्यारहवें स्कंध में यदुवंश को ऋषि-शाप, कर्म योग निरूपण, अवतार कथा, अवधूत प्रसंग, भक्ति योग की महिमा, भगवान की विभूतियों का वर्णन, वर्ण धर्म, ज्ञान योग, सांख्य योग, क्रिया योग, परमार्थ निरूपण आदि प्रसंगों का विश्लेषण है। अंतिम बारहवें स्कंध में कलियुग के राजाओं का वर्णन, प्रलय, परीक्षित प्रसंग, अथर्ववेद की शाखाएँ, मार्कण्डेय प्रसंग, श्रीमद्भागवत महिमा आदि का समावेश है। 

डॉ. विनोद शास्त्री जी ने श्रीमद्भागवत के विविध प्रसंगों का वर्णन मात्र नहीं किया अपितु उनमें अन्तर्निहित गूढ़ सिद्धांतों, सनातन मूल्यों आदि का सहल-सरल भाषा में सम्यक् विश्लेषण भी किया है। श्रीमद्भागवत के हर प्रसंग का समावेश इस ग्रंथ में है। अध्यायों में प्रयुक्त श्लोकों का शब्द विमर्श, पाठक को श्लोक के हर शब्द को समझकर अर्थ ग्रहण करने में सहायक है। शब्द विमर्श में श्लोक का अर्थ, समास, व्युत्पत्ति आदि का अध्ययन कर पाठक अपने ज्ञान, भाषा और अभिव्यक्ति सामर्थ्य की गुणवत्ता वृद्धि कर सकता है। विविध प्रसंगों पर प्रकाश डालते समय श्रीमद्भगवतगीता, श्री रामचरित मानस आदि ग्रंथों से संबंधित उद्धरणों का समावेश कथ्य के मूलार्थ के साथ-साथ भावार्थ, निहितार्थ को भी समझने में सहायक है। दर्शन के गूढ़ सिद्धांतों को जन सामान्य के लिए सुग्राह्य तथा सहज बोधगम्य बनाने के लिए विनोद जी ने मुख्य आख्यान के साथ-साथ सहायक उपाख्यानों का यथास्थान सटीक प्रयोग किया है। किसी मांगलिक कार्य का श्री गणेश करने के पूर्व ईश वंदना की सनातन परंपरा का पालन करते हुए कृत्यारंभ में मंगलाचरण के अंतर्गत बारह श्लोकों में देव वंदना की गई है। ग्रंथ की श्रेष्ठता का पूर्वानुमान विद्वान् जगद्गुरुओं द्वारा दिए गए शुभाशीष संदेशों से किया जा सकता है। 

विनोद जी द्वारा प्रयुक्त शैली के परिचयार्थ स्कंध १, अध्याय ४ से 'विरक्त' का तात्पर्य प्रसंग प्रस्तुत है-
'विष्णो: रक्त: विरक्त:' अर्थात भगवन की भक्ति में अनुरक्त होकर जीवन यापन करो। 'जीवस्यतत्वजिज्ञासा' (भाग. १/२/१०) - जीवन का लक्ष्य है परमात्मा के स्वरूप (तत्व) का ज्ञान करना। 
विवेकेन भवत्किं में पुत्रं देहि बलादपि। 
नोचेत्तयजाम्यहं प्राणांस्त्वदग्रे शोकमूर्छित:। ३७ 

आत्मदेव ने कहा- मुझे विवेक से क्या मतलब है? मुझे तो संतान दें। यदि मेरे भाग्य में संतान नहीं है तो अपने भाग्य से दें, नहीं तो मैं शोक मूर्छित हो प्राण त्याग करता हूँ। आत्मदेव-  'मरने के बाद मेरा पिंडदान कौन करेगा?' सन्यासी ने कहा- 'केवल इतनी सी बात के लिए प्राण त्याग करना चाहते हो? संतान बुढ़ापे में सेवा करेगी, इसकी क्या गारंटी है? आशा ही दुख का कारण है। दशरथ जी के चार पुत्र थे लेकिन अंतिम समय में कोई पास में नहीं था। २० दिन तक तेल की कढ़ाई में शव रखा रहा। इसलिए इस शरीर रूपी पिंड को भगवद्कार्य (सेवा) में समर्पित करो। 
उद्धरेदात्म नात्मानं नात्मानमवसादयेत्। (गीता) ६/५ 
आत्मा से ही आत्मा का उद्धार होगा। याद रखो संतान से तुम्हें सुख मिलनेवाला नहीं है। सन्यासी ने कहा पुत्र ही पिंडदान करेगा, ऐसी आशा छोड़ दो। परमात्मा के अपरोक्ष साक्षात्कार के बिना मुक्ति नहीं मिलती। तमेव विदित्वा अति मृत्युं एति नान्य: पंथा: विद्यते अन्याय। शास्त्रों में कहा है- 'ऋते ज्ञानान्नमुक्ति:';  बिना ज्ञान के मुक्ति नहीं मिलती। अपना पिंडदान अपने हाथ से करो। सन्यासी के उपदेश का आत्मदेव के मन पर कोई प्रभाव नहीं हुआ। तब सन्यासी को ब्राह्मण पर दया आ गई और उन्होंने आम का एक फल आत्मदेव के हाथ में दिया और कहा- जाओ अपनी पत्नी को यह फल खिला दो। 
इदं भक्षय पत्न्या त्वं तट: पुत्रो भविष्यति। ४१ 
सत्यं शौचं दयादानमेकभक्तं तु भोजनम्।। ४२ 
इस फल के खाने से तुम्हारी स्त्री के गर्भ से एक सुंदर सात्विक स्वभाववाला पुत्र होगा। 
वर्षावधि स्त्रिया कार्य तेन पुत्रोsतिनिर्मल:।  ४२ 
तुम्हारी स्त्री को सत्य, शौच, दया, एक समय  नियम लेना होगा। यह कहकर सन्यासी (योगिराज) चले गए। ब्राम्हण ने घर आकर वह फल अपनी पत्नी (धुंधली) के हाथ में दिया और स्वयं किसी कार्यवश बाहर चला गया। कुटिल पत्नी अपनी सखी से रो-रोकर अपनी व्यथा कहने लगी, बोली- फल खाकर गर्भ रहने पर मेरा पेट बढ़ेगा। मैं अस्वस्थ्य हो जाऊँगी। मेरी जैसी कोमल सुकुमार स्त्री से एक वर्ष तक नियम पालन नहीं होगा। उसने उस फल को नहीं खाया, अपने पति से असत्य कह दिया कि मैंने फल खा लिया है। 
पत्या पृष्टं फलं भुक्तं चेति तयेरितं। ५० 

धुंधली को पुत्र (फल) प्राप्त करने की इच्छा तो है किंतु बिना दुःख झेले। मनुष्य पुण्य करना नहीं, फल भोगना चाहता है। शास्त्र न जानने के कारण धुंधली ने अनर्थ किया।  आत्मा पर बुद्धि का वर्चस्व आ जाता है तो सर्वनाश हो जाता है। पत्नी यदि परमात्मा की ओर चले तो कल्याण होता है। 
पत्नीं मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीमं। (दुर्गा सप्तशती)

सरस्वती की कृपा होने पर गृहस्थ को अच्छी पत्नी मिलती है। संतों पर सरस्वती की कृपा होने पर विद्वान बनते हैं। भारतीय पत्नी को पति में ही नारायण के दर्शन होते हैं।  पति की सेवा नारायण सेवा ही है। प्रसंग में आगे धुंधकारी कौन है (दार्शनिक भाव), आत्मदेव का चरित्र (दार्शनिक भाव) जोड़ते हुए अंत में धुंधकारी के चरित्र  से शिक्षा वर्णित है। 

विनोद जी ने पौराणिक प्रसंगों को समसामयिक परिस्थितियों और परिवेश से जोड़ते हुए व्यावहारिक उपयोगिता बनाये रखने में सफलता पाई है। विनोद जी की भाषा शैली प्रसंगों के कथ्य के अनुरूप है। वे न तो विद्वता प्रदर्शन के लिए क्लिष्ट शब्दों का अनावश्यक प्रयोग करते हैं, न ही सरलता-सहजता के नाम पर देशज शब्दों का उपयोग करते हैं। खड़ी हिंदी में अनेक भाषाओँ-बोलिओं के शब्द सम्मिलित हैं। विनोद जी का भाषा पर पूर्ण अधिकार है। ग्रंथ की विशेषता प्रसंगों को अनावश्यक विस्तार से बचते हुए, सार-सार को इस तरह प्रस्तुत  पाठक के मन में कुछ और जानने की प्यास बानी रहे। ग्रंथ का मूल्य अंतर्वस्तु की प्रामाणिकता, कागज की गुणवत्ता, रेशमी वस्त्र की बंधाई तथा पृष्ठ संख्या को देखते हुए पूरी तरह न्यायोचित है। यह नयनाभिराम जन्मोत्सवों, विवाहोत्सवों आदि प्रसंगों पर उपहार के रूप में देने के लिए सर्वथा उपयुक्त है। हर सनातनधर्मी के गृह मंदिर में इस ग्रंथ को होना ही चाहिए। डॉ. विनोद शास्त्री जी इस महनीय कृति के प्रणयन हेतु साधुवाद के पात्र हैं।
***

सॉनेट

सॉनेट 
मानव
मानव वह जो कोशिश करता।
कदम-कदम नित आगे बढ़ता।
गिर-गिर, उठ-उठ फिर-फिर चलता।।
असफल होकर वरे सफलता।।

मानव ऐंठे नहीं अकारण।
लड़ बाधा का करे निवारण।
शरणागत का करता तारण।।
संयम-धैर्य करें हँस धारण।।

मानव सुर सम नहीं विलासी।
नहीं असुर सम वह खग्रासी।
कुछ यथार्थ जग, कुछ आभासी।।
आत्मोन्नति हित सदा प्रयासी।।

मानव सलिल-धार सम निर्मल।
करे साधना सतत अचंचल।।
२७-२-२०२२
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शनिवार, 26 फ़रवरी 2022

सॉनेट

सॉनेट 
ख्वाब  
हुआ हक़ीक़त रहा न ख्वाब
तुमको ज्योंही दिया गुलाब।
कौन ला सके बोलो ताब।।
चाँद लजाया ऐसी आब।। 

छूने से मैला हो रूप। 
तुमको पा मन खुश हो भूप। 
उजला उजला रूप अरूप।। 
तुम्हें देख धूमिल हो धूप।।

हारा हृदय, आप ही आप। 
शांत दग्ध उर का है ताप।  
हर्ष गया जीवन में व्याप।।

तजा द्वैत; अद्वैत वरा। 
खोटा मन हो गया खरा। 
खुद को खोकर तुम्हें वरा।।  
 

सॉनेट 
तुम 
आँख लगी तुम रहीं रिझाती।
आँख खुली हो जातीं गायब।
आँख मिली तुम रहीं लजाती।।
आँख झुकी झट रीझ गया रब।।

आँख उठाई दिल निसार है।
आँख लड़ाई दिलवर हारा।
आँख दिखाई, क्या न प्यार है?
आँख तरेरी उफ् फटकारा।।

आँख झपककर कहा न बोलो।
आँख अबोले रही बोलती।
आँख बरजती राज न खोलो।।
आँख लाल हो रही डोलती।।

आँख मुँदी तो हो तुम ही तुम।
आँख खुली तो हैं हम ही हम।।
२६-२-२०२२
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शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2022

समाचार 
हिंदी दिवस समारोह 
भाष्य की भाषा रोजगार परक और विज्ञान मित्र होगी - आचार्य ' सलिल'

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शहडोल, १४ सितंबर २०२१। स्थानीय शंभुनाथ विश्वविद्यालय सभागार में हिंदी दिवस के अवसर पर सम्पन्न परिचर्चा में भाषा के भविष्य तथा समसामयिक लेखन पर परिचर्चा संपन्न हुई। कार्यक्रम की अध्यक्षता कुलपति प्रो. मुकेश कुमार तिवारी की अध्यक्षता, सुप्रसिद्ध उपन्यासकार-कवि श्री राजीव शर्मा, आयुक्त शहडोल के मुख्यातिथ्य तथा संस्कारधानी जबलपुर से पधारे सुप्रसिध्द छन्दशास्त्री, समीक्षक, संपादक आचार्य इं. संजीव वर्मा 'सलिल', श्री विनय कुमार पांडेय उपायुक्त शहडोल एवं प्रो. विनय कुमार सिंह कुलसचिव के विशेषातिथ्य  में हिंदी दिवस समारोह संपन्न हुआ। 

कोरोना की शासकीय आचार संहिता का पालन करते हुए मुखावरण व पारस्परिक  दूरी बनाये रखते हुए इस आयोजन में  सारस्वत समारोह में हिंदी के अतीत, वर्तमान तथा भविष्य के परिदृश्य को प्रस्तुत करते हुए आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने ध्वनि से सृष्टि की उत्पत्ति, ध्वनि से भाषा के उद्गम, लिपि के अन्वेषण, भाषाओँ में उच्चारण व  ,भारत की भाषा समस्या, भाषायी एकता, भाषाओँ के विलोपन के कारण , हिंदी के वैशिष्ट्य, हिंदी की अभिव्यक्ति सामर्थ्य, हिंदी से रोजगार अर्जन तथा देश के आर्थिक विकास में हिंदी के महत्वपूर्ण अवदान पर प्रकाश डाला। विद्वान वक्ता ने वर्तमान में प्रतिव्यक्ति आय और कुल राष्ट्रीय आय के अर्जन में हिंदी के योगदान को प्रमाणित करते हुए कहा कि अंग्रेजी से रोजगार प्राप्ति की धारणा मिथ्या और अवैज्ञानिक है। श्रोताओं की करतल ध्वनि के मध्य सलिल जी ने घोषित किया कि हिंदी में विश्व की किसी भी अन्य भाषा की तुलना में रोजगार उत्पन्न करने की सामर्थ्य अधिक है, आवश्यकता इस सामर्थ्य को समझने और तदनुसार पाठ्यक्रमों में परिवर्तन करने की है। हिंदी के समसामयिक लेखन का उल्लेख करते हुए वक्ता ने परशुराम, शंकराचार्य जैसे युगांतरकारी व्यक्तित्वों को तात्कालिक सन्दर्भों में समझे जाने को आवश्यक बताया और श्री राजीव शर्मा के उपन्यास द्वय विद्रोही सन्यासी तथा अद्भुत सन्यासी को उपलब्धि बताया। 

इसके पूर्व डॉ. आरती झा प्राध्यापक हिंदी विभाग ने  परशुराम पर केंद्रित उपन्यास 'अद्भुत सन्यासी'  तथा डॉ. प्रमोद पांडेय प्राध्यापक भौतिकी ने आदि शंकराचार्य के अवदान को व्याख्यायित करते उपन्यास 'विद्रोही सन्यासी' की सटीक और सम्यक समीक्षाएँ प्रस्तुत कीं। आयोजन की संयोजिका डॉ. नीलमणि दुबे ने हिंदी दिवस पर आत्मचिंतन तथा देश और विश्व के भावी परिदृश्य की संकल्पना में हिंदी की भूमिका के आकलन तथा उसे अधिकतम प्रभावी बनाने हेतु प्रयास किये जाने को आवश्यक बताया। 

मुख्य अतिथि श्री राजीव शर्मा ने उपन्यास लेखन हेतु विषय चयन, शोध कार्य, प्रामाणिक जानकारी संकलन, सम्यक विश्लेषण, भाषा के चयन, उपन्यास द्वय को मिली उत्साहवर्धक पाठकीय प्रतिक्रियाओं की चर्चा करते हुए कहा कि सहस्त्रों पृष्ठ पढ़ने के बाद कुछ पंक्तियाँ लिखी सकी हैं। उपन्यास की लेखन प्रक्रिया, कथा की तथ्यात्मक प्रामाणिकता हेतु सामग्री संचयन, निष्पक्ष विवेचना आदि की चर्चा करते हुए विद्वान वक्ता ने प्रशासनिक दायित्वों की निर्वहन करते हुए साहित्य सृजन में हुई कठिनाइयों का संकेत करते हुए, लेखकीय अस्मिता और सत्य स्थापना के संकल्प को आवश्यक बताया।

कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए प्रो. मुकेश कुमार तिवारी, कुलपति शंभुनाथ शुक्ल ने युवा छात्रों से जीवन की चुनौतियों का सामना करते हुए जीवन पथ पर बढ़ने तथा अपनी भूमिका को पहचानने की अपेक्षा की। विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर तथा समन्वय प्रकाशन जबलपुर की गतिविधियों देते हुए संजीव सलिल ने पुसतालय हेतु पुस्तकें पत्रिकाएं कुलपति जी को भेंट कीं। कार्यक्रम के संयोजिका प्रो. नीलमणि दुबे जी तथा प्रो. आरती झा ने अतिथियों का परिचय सदन से कराया। विश्वविद्यालय की और से कुलपति प्रो. मुकेश कुमार तिवारी ने राजीव शर्मा जी तथा आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी का शॉल, श्रीफल, पुस्तकोपहार से स्वागत करते हुए अभिनन्दन पत्र भेंट किए। इस अवसर पर विश्वविद्यालय के विविध विभागों के विभागाध्यक्ष, प्राध्यापक तथा छात्र-छात्रों  ने उत्साहपूर्वक सहभागिता कर आयोजन को सफल बनाया।   


गुरुवार, 24 फ़रवरी 2022

सॉनेट गीत, केरल, समीक्षा, मुक्तिका, शशि पुरवार, मात्रा गणना, सुरेश कुमार पंडा, नवगीत, हाइकु, चित्रगुप्त भजन

सॉनेट गीत
वसुंधरा
हम सबकी माँ वसुंधरा।
हमें गोद में सदा धरा।।
हम वसुधा की संतानें।
सब सहचर समान जानें।
उत्तम होना हम ठानें।।
हम हैं सद्गुण की खानें।।
हममें बुद्धि परा-अपरा।
हम सबकी माँ वसुंधरा।।
अनिल अनल नभ सलिल हमीं।
शशि-रवि तारक वृंद हमीं।
हम दर्शन, विज्ञान हमीं।।
आत्म हमीं, परमात्म हमीं।।
वैदिक ज्ञान यहीं उतरा।
हम सबकी माँ वसुंधरा।।
कल से कल की कथा कहें।
कलकल कर सब सदा बहें।
कलरव कर-सुन सभी सकें।।
कल की कल हम सतत बनें।।
हर जड़ चेतन हो सँवरा।
हम सब की माँ वसुंधरा।।
(विधा- अंग्रेजी छंद, शेक्सपीरियन सॉनेट)
२४-२-२०२२
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सॉनेट गीत
वंदे मातरम्
वंदे मातरम् कहना है।
माँ सम सुख-दुख तहना है।।
माँ ने हमको जन्म दिया।
दुग्ध पिलाया, बड़ा किया।
हर विपदा से बचा लिया।।
अपने पैरों खड़ा किया।।
माँ संग पल-पल रहना है।
वंदे मातरम् कहना है।।
नेह नर्मदा है मैया।
स्वर्गोपम इसकी छैंया।
हम सब डालें गलबैंयां।
मिल खेलें इसकी कैंया।।
धूप-छाँव सम सहना है।
वंदे मातरम् कहना है।।
सब धर्मों का मर्म यही।
काम करें निष्काम सही।
एक नीड़ जग, धरा मही।।
पछुआ-पुरवा लड़ी नहीं।।
धूप-छाँव संग सहना है।
वंदे मातरम् कहना है।।
२४-२-२०२२
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पुरोवाक
केरल : एक झाँकी - मनोरम और बाँकी
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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भारत भूमि का सौंदर्य और समृद्धि चिरकाल से सकल विश्व को आकर्षित करता रहा है। इसी कारण यह पुण्यभूमि आक्रांताओं द्वारा बार-बार पददलित और शोषित की गयी। बकौल इक़बाल 'कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन दौरे-जमां हमारा', भारत हर बार संघर्ष कर स्वाभिमान के साथ पूर्वापेक्षा अधिक गौरव के साथ सर उठाकर न केवल खड़ा हुआ अपितु 'विश्वगुरु' भी बना। संघर्ष और अभ्युत्थान के वर्तमान संघर्षकाल में देश के सौंदर्य, शक्ति और श्रेष्ठता को पहचान कर संवर्धित करने के साथ-साथ-कमजोरियों को पहचान कर दूर किया जाना भी आवश्यक है। विवेच्य कृति 'केरल : एक झाँकी' इस दिशा में एक सार्थक प्रयास है।
पुस्तक की लेखिका अश्वती तिरुनाळ गौरी लक्ष्मीभायी प्रतिष्ठित राजघराने की सदस्य (केणल गोदवर्म राजा की पुत्री, थिरुवल्ला के राजराजा की पत्नी) होते हुए भी जन सामान्य की समस्याओं में गहन रूचि लेकर, उनके कारणों का विश्लेषण और समाधान की राह सुझाने का महत्वपूर्ण दायित्व स्वेच्छा से निभा सकी हैं। हिंदी में संस्मरण निबंध विधाओं में अन्य विधाओं की तुलना में लेखन कम हुआ है जबकि संस्मरण लेखन लेखन बहुत महत्वपूर्ण विधाएँ हैं । इस महत्वपूर्ण कृति का सरस हिंदी अनुवाद कर प्रो. डी. तंकप्पन नायर तथा अधिवक्ता मधु बी. ने हिंदी-मलयालम सेतु सुदृढ़ करने के साथ-साथ केरल की सांस्कृतिक विरासत और प्राकृतिक सौंदर्य से अन्य प्रदेश वासियों को परिचित कराने का सफल प्रयास किया है। राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से इस स्तुत्य सारस्वत अनुष्ठान के लिए लेखिका अश्वती तिरुनाळ गौरी लक्ष्मीभायी तथा अनुवादक द्व्य प्रो. डी. तंकप्पन नायर तथा अधिवक्ता मधु बी. साधुवाद के पात्र हैं।
प्रथम संस्मरण 'जरूरत है एक मलयाली गुड़िया की' में सांस्कृतिक पहचानों के प्रति सजग होने का आह्वान करती विदुषी लेखिका का पूरे देश में खिचड़ी अपसंस्कृति के प्रसार को लेकर चिंतित होना स्वाभाविक है। 'स्मृतियाँ विस्मृति में' ऐतिहासिक स्मारकों की सुरक्षा की ओर ध्यानाकर्षित किया गया है। 'आयुर्वेद एक अमूल्य निधि' में भारत के पुरातन औषधि विज्ञान एवं वैद्यक परंपरा की महत्ता को रेखांकित किया गया है। भारतीय संस्कारों की महत्ता 'आचार प्रभवो धर्म:' में प्रतिपादित की गयी है। 'तिरुवितांकुर का दुर्भाग्य' विलोपित होती विरासत की करुण कथा कहती है। 'हे मलयालम माफ़ी! माफ़ी!' में मातृभाषा की उपेक्षाजनित पीड़ा मुखरित हुई है। आंचलिक परिधानों की प्रासंगिकता और महत्व 'मुंट (धोती) और तोर्त (अँगोछा) का महत्व' संस्मरण में है।
वर्तमान में केरल की ख्याति नयनाभिराम पर्यटल स्थल के रूप में सारी दुनिया में है। वर्षों पूर्व केरल का भविष्य पर्यटन में देख सकने की दिव्य दृष्टि युक्त केणल गोदवर्म राजा पर भारत सरकार को डाक टिकिट निकलना चाहिए। केरल सरकार प्रतिवर्ष उनकी जन्मतिथि को केरल पर्यटन दिवस के रूप में मनाये। लेखिका का परिवार भी इस दिशा में पहल कर केरल के पर्यटन पर देश के अन्य प्रांतों के लेखकों से पुस्तक लिखवा-छपाकर राजाजी की स्मृति को चिरस्थायी कर सकता है। 'पिताजी के सपने और यथार्थ' शीर्षक संस्मरण में उनके अवदान को उचित ही स्मरण किया गया है। समयानुशासन का ध्यान न रखने पर अपनी लाड़ली बेटी को दंडित कर, समय की महत्ता समझाने का प्रेरक संस्मरण 'समय की कैसी गति' हमारे जन सामान्य, अफसरों और नेताओं को सीख देता है। 'किस्सा एक हठी का' रोचक संस्मरण है जो अतीत और वर्तमान के स्थापित करता है।
आधुनिक वैज्ञानिक उन्नति और शहरीकरण ने भारत की परिवार व्यवस्था को गंभीर क्षति पहुँचाने के साथ-साथ बच्चों के कुपोषण तथा संस्कारों की उपेक्षा की समस्या को जन्म दिया है। 'टेलीविजन और नन्हें बच्चे', 'नारी की आवाज', 'मलयाली का ह्रास', 'कन्या कनक संपन्ना' में समकालिक सामाजिक समस्याओं को उठाते हुए, निराकरण के संकेत अन्तर्निहित हैं। 'क्या मलयाली व्यंजन भी फ्रीज़र में रखे जायेंगे?' में आहार संबंधी अपसंस्कृति को उचित ही लांछित किया गया है। 'टिकिट के साथ गंदगी और गर्द' तथा 'धन्यवाद और निंदा' में सामाजिक दायित्वों की ओर सजगता वृद्धि का उद्देश्य निहित है। समाजिक जीवन में नियमों और उद्घोषणाओं के विपरीत आचरण कर स्वयं को गर्वित करने के कुप्रवृत्ति पर शब्दाघात करते हुए लेखिका ने 'उद्घोषणा करने लायक कुछ मौन सत्य' शीर्षक संस्मरण में सार्वजानिक अनुशासन और सामाजिक शालीनता की महत्ता प्रतिपादित की है।
'धार्मिक मैत्री का तीर्थाटन मौसम', 'आयात की गई जीवन शैलियाँ', 'अतिथि देवो भव' आदि में लेखिका के संतुलित चिंतन की झलक है। लेखिका के बहुआयामी व्यक्तित्व की झलक देते इनसंस्मरणों में पर्यावरण के प्रति चिंता 'काई से भरे मन और जलाशय' में दृष्टव्य है। दुर्भाग्य से प्राचीन विरासत के विपरीत स्वतंत्र भारत में जल परिवहन को महत्व न देकर खर्चीले हुए परवरण के लिए हानिप्रद वायु परिवहन तथा थल परिवहन को महत्व देकर देख का राजकोषीय घाटा बढ़ाया जाता रहा है।
चिर काल से भारत कृषि प्रधान देश था, है और रहेगा। विलुप्त होती फसलों के संबंध में लेखिका की चिंता 'उन्मूलन होती फसलें' संस्मरण में सामने आई है। देश के हर भाग में साधनहीन बच्चों द्वारा भिक्षार्जन की समस्या पर 'नियति की धूप मुरझाती कलियाँ', रोग फैलाते मच्छरों पर 'मच्छर उन्मूलन : न सुलझती समस्या', महत्वपूर्ण व्यक्तियों के लिए विशेष व्यवस्थाओं पर 'प्रदर्शकों को एक मार्ग, जनता को राजमार्ग' पठनीय मात्र नहीं, चिंतनीय भी हैं। कृति के अंत में 'स्वगत' के अंतर्गत अपने व्यक्तित्व पर प्रकाश डालकर उनके ऊर्जस्वित व्यक्तित्व से अपरिचित पाठकों को अपना परिचय देते हुए अपनी समृद्ध पारिवारिक पृष्ठभूमि, बहुरंगी बचपन और असाधारण व्यक्तित्व का उल्लेख इतने संतुलित रूप में किया है की कहीं भी अहम्मन्यता नहीं झलती तथा सामान्य पाठक को भी वे अपने परिवार की सदस्य प्रतीत होती हैं।
सारत: 'केरल : एक झाँकी - मनोरम और बाँकी' एक रोचक, ज्ञानवर्धक, लोकोपयोगी कृति है जो देश के सामान्य और विशिष्ट वर्ग की खूबियों और खामियों को भारतीय विरासत के संदर्भ से जोड़ते हुए इस तरह उठाती है कि किसी को आघात भी न पहुँचे और सबको निराकरण हेतु संदेश और सुझाव मिल सकें। इस तरह के लेखन की कमी को देखते हुए इस कृति के अल्प मोली संस्करण निकाले जाकर इसे हर बच्चे और बड़े पाठक तक पहुँचाया जाना चाहिए।
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मुक्तिका
शशि पुरवार
न माने हार।
रोग को जीत
सुनो जयकार।
पराजित पीर
मानकर हार।
खुशी लो थाम
खड़ी तव द्वार।
अधर पर हास
बने सिंगार।
लिखो नवगीत
बने उपचार।
करे अभिषेक
सलिल की धार।
२४-२-२०२१
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कार्यशाला
मात्रा गणना नियम-
१. किसी ध्वनि-खंड को बोलने में लगनेवाले समय के आधार पर मात्रा गिनी जाती है।
२. कम समय में बोले जानेवाले वर्ण या अक्षर की एक तथा अधिक समय में बोले जानेवाले वर्ण या अक्षर की दो मात्राएं गिनी जाती हैंं।
३. अ, इ, उ, ऋ तथा इन मात्राओं से युक्त वर्ण की एक मात्रा गिनें। उदाहरण- अब = ११ = २, इस = ११ = २, उधर = १११ = ३, ऋषि = ११= २, उऋण १११ = ३ आदि।
४. शेष वर्णों की दो-दो मात्रा गिनें। जैसे- आम = २१ = ३, काकी = २२ = ४, फूले २२ = ४, कैकेई = २२२ = ६, कोकिला २१२ = ५, और २१ = ३आदि।
५. शब्द के आरंभ में आधा या संयुक्त अक्षर हो तो उसका कोई प्रभाव नहीं होगा। जैसे गृह = ११ = २, क्षमा = १२ =३आदि।
६. शब्द के मध्य में आधा अक्षर हो तो उसे पहले के अक्षर के साथ गिनें। जैसे- क्षमा १+२, वक्ष २+१, प्रिया १+२, विप्र २+१, उक्त २+१, प्रयुक्त = १२१ = ४ आदि।
७. रेफ को आधे अक्षर की तरह गिनें। बर्रैया २+२+२आदि।
८. हिंदी दोहाकार हिंदी व्याकरण नियमों का पालन करें।
९. अपवाद स्वरूप कुछ शब्दों के मध्य में आनेवाला आधा अक्षर बादवाले अक्षर के साथ गिना जाता है। जैसे- कन्हैया = क+न्है+या = १२२ = ५आदि।
१०. अनुस्वर (आधे म या आधे न के उच्चारण वाले शब्द) के पहले लघु वर्ण हो तो गुरु हो जाता है, पहले गुरु होता तो कोई अंतर नहीं होता। यथा- अंश = अन्श = अं+श = २१ = ३. कुंभ = कुम्भ = २१ = ३, झंडा = झन्डा = झण्डा = २२ = ४आदि।
११. अनुनासिक (चंद्र बिंदी) से मात्रा में कोई अंतर नहीं होता। धँस = ११ = २आदि।
हँस = ११ =२, हंस = २१ = ३ आदि।
मात्रा गणना करते समय शब्द का उच्चारण करने से लघु-गुरु निर्धारण में सुविधा होती है।
दोहा लिखना सीखिए;१. दोहा द्विपदिक छंद है। दोहा में दो पंक्तियाँ (पद) होती हैं।
२. हर पद में दो चरण होते हैं।
३. विषम (पहला, तीसरा) चरण में १३-१३ तथा सम (दूसरा, चौथा) चरण में ११-११ मात्राएँ होती हैं।
४. तेरह मात्रिक पहले तथा तीसरे चरण के आरंभ में एक शब्द में जगण (लघु गुरु लघु) वर्जित होता है।
५. विषम चरणों की ग्यारहवीं मात्रा लघु हो तो लय भंग होने की संभावना कम हो जाती है।
६. सम चरणों के अंत में गुरु लघु मात्राएँ आवश्यक हैं।
७. हिंदी में खाय, मुस्काय, आत, भात, डारि जैसे देशज क्रिया रूपों का उपयोग न करें।
८. दोहा मुक्तक छंद है। कथ्य (जो बात कहना चाहें वह) एक दोहे में पूर्ण हो जाना चाहिए।
९. श्रेष्ठ दोहे में लाक्षणिकता, संक्षिप्तता, मार्मिकता (मर्मबेधकता), आलंकारिकता, स्पष्टता, पूर्णता तथा सरसता होना चाहिए।
१०. दोहे में संयोजक शब्दों और, तथा, एवं आदि का प्रयोग न करें।
११. दोहे में कोई भी शब्द अनावश्यक न हो। हर शब्द ऐसा हो जिसके निकालने या बदलने पर दोहा न कहा जा सके।
१२. दोहे में कारक का प्रयोग कम से कम हो।
१३. दोहा में विराम चिन्हों का प्रयोग यथास्थान अवश्य करें।
१४. दोहा सम तुकान्ती छंद है। सम चरण के अंत में समान तुक आवश्यक है।
१५. दोहा में लय का महत्वपूर्ण स्थान है। लय के बिना दोहा नहीं कहा जा सकता।
२४-२-२०१८
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कृति चर्चा-
"अंजुरी भर धूप" नवगीत अरूप
चर्चाकार- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
[कृति परिचय- अँजुरी भर धूप, गीत-नवगीत संग्रह, सुरेश कुमार पंडा, वर्ष २०१६, ISBN ८१-८९२४४-१८-०४, आकार २०.५ से.मी.x१३.५ से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक, १०४, मूल्य १५०/-, वैभव प्रकाशन अमीनपारा चौक, पुरानी बस्ती, रायपुर गीतकार संपर्क ९४२५५१००२७]
*
नवगीत को साम्यवादियों की विसंगति और विडम्बना केन्द्रित विचारधारा जनीर मानकों की कैद से छुड़ा कर खुली हवा में श्वास लेने का अवसर देनेवाले गीतकारों में एक नाम भाई सुरेश कुमार पंडा का भी है. सुरेश जी का यह गीत-नवगीत संग्रह शिष्ट श्रृंगार रस से आप्लावित मोहक भाव मुद्राओं से पाठक को रिझाता है.
'उग आई क्षितिज पर
सेंदुरी उजास
ताल तले पियराय
उर्मिल आकाश
वृन्तों पर शतरंगी सुमनों की
भीग गई
रसवन्ती कोर
बाँध गई अँखियों को शर्मीली भोर
*
फिर बिछलती साँझ ने
भरमा दिया
लेकर तुम्हारा नाम
* अधरों के किस्लाई किनारों तक
तैर गया
रंग टेसुआ
सपनीली घटी के
शैशवी उतारों पर
गुम हो गया
उमंग अनछुआ
आ आकर अन्तर से
लौट गया
शब्द इक अनाम
लिखा है एक ख़त और
अनब्याही ललक के नाम
सनातन शाश्वत अनुभुतियों की सात्विकतापूर्ण अभिव्यक्ति सुरेश जी का वैशिष्ट्य है. वे नवगीतों को आंचलिकता और प्रांजलता के समन्वय से पठनीय बनाते हैं. देशजता और जमीन से जुड़ाव के नाम पर अप्रचलित शब्दों को ठूँसकर भाषा और पाठकों के साथ अत्याचार नहीं करते.
अछूती भावाभिव्यक्तियाँ, टटके बिम्ब और मौलिक कहन सुरेश जी के गीतों को पाठक की अपनी अनुभूति से जोड़ पाते हैं-
पीपल की फुनगी पर
टंगी रहीं आँखें
जाने कब
अंधियारा पसर गया
एकाकी बगर गया
रीते रहे पल-छिन
अनछुई उसांसें.
नवगीत की सरसता सहजता और ताजगी ही उसे गीतों से पृथक करती है. 'अँजुरी भर धूप' में यह तीनों तत्व सर्वत्र व्याप्त हैं. एक सामान्य दृश्य को अभिनव दृष्टि से शब्दित करने की क्ला में नवगीतकार माहिर है -
आँगन के कोने में
अलसाया
पसरा था
करवट पर सिमटी थी
अँजुरी भर धूप
*
तुम्हारे एक आने से
गुनगुनी
धूप सा मन चटख पीला
फूल सरसों का
तुम्हारे एक आने से
सहज ही खुल गई आँखें
उनींदी
रतजगा
करती उमंगों का.
सुरेश जी विसंगतियों, पीडाओं और विडंबनाओं ओ नवगीत में पिरोते समय कलात्मकता को नहीं भूलते. सांकेतिकता उनकी अभिव्यक्ति का अभिन्न अंग है -
चाँदनी थी द्वार पर
भीतर समायी
अंध कारा
पास बैठे थे अजाने
दुर्मुखों का था सहारा.
आज तेरी याद फिर गहरा गयी है, लिखा है एक खत, कौन है, स्वप्न से जागा नहीं हूँ, मन मेर चंचल हुआ है, अनछुई उसांसें, तुम आये थे, अपने मन का हो लें, तुम्हारे एक आने से, मन का कोना, कब आओगे?, चाँदनी है द्वार पर, भूल चुके हैं, शहर में एकांत, स्वांग, सूरज अकेला है, फागुन आया आदि रचनाएँ मन को छूती हैं. सुरेश जी के इन नवगीतों की भाषा अपनी अभिव्यंजनात्मकता के सहारे पाठक के मन पैठने में सक्षम है. सटीक शब्द-चयन उनका वैशिष्ट्य है. यह संग्रह पाठकों को मन भाने के साथ अगले संग्रह के प्रति उत्सुकता भी जगाता है.
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संपर्क- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', 204 विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com
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नवगीत:
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शिव के मन मांहि
बसी गौरा
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भाँग भवानी कूट-छान के
मिला दूध में हँस घोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
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पेड़ा गटकें, सुना कबीरा
चिलम-धतूरा धर झोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
भसम-गुलाल मलन को मचलें
डगमग डगमग दिल डोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
आग लगाये टेसू मन में
झुलस रहे चुप बम भोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
विरह-आग पे पिचकारी की
पड़ी धार, बुझ गै शोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
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हाइकु:
संजीव
*
हर-सिंगार
शशि भभूत नाग
रूप अपार
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रूप को देख
धूप ठिठक गयी
छवि है नयी
*
झूम नाचता
कंठ लिपटा सर्प
फुंफकारता
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अर्धोन्मीलित
बाँके तीन नयन
करें मोहित
*
भंग-भवानी
जटा-जूट श्रृंगार
शोभा अपार
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चिंतन
शिव, शक्ति और सृष्टि
सृष्टि रचना के सम्बन्ध में भारतीय दर्शन में वर्णित एक दृष्टान्त के अनुसार शिव निद्रालीन थे। शिव के साथ क्रीड़ा (नृत्य) करने की इच्छा लिये शक्ति ने उन्हें जाग्रत किया। आरंभ में शिव नहीं जागे किन्तु शक्ति के सतत प्रयास करने पर उग्र रूप में गरजते हुए क्रोध में जाग्रत हुए। इस कारण उन्हें रूद्र (अनंत, क्रोधी, महाकाल, उग्ररेता, भयंकर, क्रंदन करने वाला) नाम मिला। शिव ने शक्ति को देखा, वह शक्ति पर मोहित हो उठ खड़े हुए। शक्ति के प्रेम के कारण वे शांत होते गये. उन्होंने दीर्घवृत्ताभ (इलिप्सॉइड) का रूप लिया जिसे लिंग (स्वगुण, स्वभाव, विशेषता, रूप) कहा गया।
शिव कोई सशरीर मानव या प्राणी नहीं हैं। शिव का अर्थ है निर्गुण, गुणातीत, अक्षर, अजर, अमर, अजन्मा, अचल, अज्ञेय, अथाह, अव्यक्त, महाकाल, अकर्ता आदि. शिव सृष्टि-कर्ता भी हैं। शक्ति सामान्य ताकत या बल नहीं हैं। शक्ति का अर्थ आवेग, ऊर्जा, ओज, प्राण, प्रणोदन, फ़ोर्स, एनर्जी, थ्रस्ट, त्रिगुणा, माया, प्रकृति, कारण आदि है. शिव अर्थात “वह जो है ही नहीं”। जो सुप्त है वह होकर भी नहीं होता। शिव को हमेशा श्याम बताया गया है. निद्रावस्था को श्याम तथा जागरण को श्वेत या उजला कहकर व्यक्त किया जाता है।
शक्ति के उपासकों को शाक्त कहा जाता है. इस मत में ईश्वर की कल्पना स्त्री रूप में कर उसे शक्ति कहा गया है। शक्ति के आनंदभैरवी, महाभैरवी, त्रिपुरसुंदरी, ललिता आदि नाम भी हैं।
विज्ञान सृष्टि निर्माण के कारक को बिग-बैंग कहता है और भारतीय दर्शन शिव-शक्ति का मिलन। विज्ञान के अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति के पीछे डार्क मैटर और डार्क इनर्जी की भूमिका है। योग और दर्शन के अनुसार डार्क मैटर (शिव) और डार्क एनर्जी (महाकाली) का मिलन ही सृष्टि-उत्पत्ति का कारण है। स्कॉटिश यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों के अनुसार डार्क मैटर और डार्क एनर्जी के बीच संबंध (लिंक) है। पहले वे इन्हें भिन्न मानते थे अब अभिन्न कहते हैं। विज्ञान के अनुसार डार्क मैटर और डार्क इनर्जी के मिलन से एक विस्फोट नहीं विस्फोटों की श्रृंखला उत्पन्न होती है। क्या यह विस्फोट श्रंखला जागकर क्रुद्ध हुए शिव के हुंकारों की ध्वनि है?
वैज्ञानिकों के अनुसार आरम्भ में समूची सृष्टि दीर्घवृत्ताभ आकार के विशाल गैस पिंड के रूप में गर्जना कर रही थी। धीरे-धीरे वह गैसीय पिंड ठंडा होता गया। शीतल होने की प्रक्रिया के कारण इस जगत की रचना हुई। योग कहता है कि जब शक्ति ने शिव को जगा दिया तो वह गुस्से में दहाड़ते हुए उठे। वह कुछ समय के लिये रूद्र बन गये थे। शक्ति को देखकर उनका गुस्सा ठंडा हुआ। . शक्ति पर मोहित होकर वह दीर्घवृत्ताभ बन गये, जिसे लिंग कहा गया।
वैज्ञानिक बड़ा धमाकों के बाद की स्थिति एक खंभे की तरह बताते हैं, जिसमें ऊपर के सिरे पर छोटे-छोटे मशरूम लगे हैं। यह ठीक वैसा है जैसा योग-विद्या में बताया गया है। सृष्टि दीर्घवृत्त के आकार में है, जो ऊष्मा, गैसों के फैलाव और संकुचन तथा उनके द्रव्यमान की सघनता पर निर्भर है। इसका ज्यादातर हिस्सा खाली है जिसमें द्रव्य कण, तारे, ग्रह और आकाशीय पिंड बिखरे हुए हैं। सम्भवत:ज्यादातर चीजें अब तक आकार नहीं ले सकी हैं।
विज्ञान जो बात अब समझा है, उसे दर्शन बहुत पहले समझा चुका था। यह शरीर भी वैसे ही है, जैसे कि यह संपूर्ण सृष्टि। पेड़ के तने में बने छल्लों से पेड़ के जीवन-काल में धरती पर घटित हर घटना का ज्ञान हो सकता है. मानव शरीर में अन्तर्निहित ऊर्जा से साक्षात हो सके तो ब्रह्मांड के जन्म और विकास की झाँकी अपने भीतर ही मिल सकती है।
संदर्भ:
१. बृहत् हिंदी कोष सं. कलिका प्रसाद, राजवल्लभ सहाय, मुकुन्दीलाल श्रीवास्तव

२. समान्तर कोष, अरविन्द कुमार, कुसुम कुमार
२४-२-२०१७
***
नवगीत:
ओ उपासनी
*
ओ उपासनी!
शीतल-निर्मल सलिल धार सी
सतत प्रवाहित
हो सुहासिनी!
*
भोर, दुपहरी, साँझ, रात तक
अथक, अनवरत
बहती रहतीं।
कौन बताये? किससे पूछें?
शांत-मौन क्यों
कभी न दहतीं?
हो सुहासिनी!
सबकी सब खुशियों का करती
अंतर्मन में द्वारचार सी
शीतल-निर्मल सलिल धार सी
सतत प्रवाहित
ओ उपासनी!
*
इधर लालिमा, उधर कालिमा
दीपशिखा सी
जलती रहतीं।
कोना-कोना किया प्रकाशित
अनगिन खुशियाँ
बिन गिन तहतीं।
चित प्रकाशनी!
श्वास-छंद की लय-गति-यति सँग
मोह रहीं मन अलंकार सी
शीतल-निर्मल सलिल धार सी
सतत प्रवाहित
ओ उपासनी!
*
चौका, कमरा, आँगन, परछी
पूजा, बैठक
हँसती रहतीं।
माँ-पापा, बेटी-बेटा, मैं
तकें सहारा
डिगीं, न ढहतीं
मन निवासिनी!
आपद-विपद, कष्ट-पीड़ा का
गुप-चुप करतीं फलाहार सी
शीतल-निर्मल सलिल धार सी
सतत प्रवाहित
ओ उपासनी!
***

***
भजन
*
प्रभु!
तेरी महिमा अपरम्पार
*
तू सर्वज्ञ व्याप्त कण-कण में
कोई न तुझको जाने।
अनजाने ही सारी दुनिया
इष्ट तुझी को माने।
तेरी आय दृष्टि का पाया
कहीं न पारावार
प्रभु!
तेरी महिमा अपरम्पार
*
हर दीपक में ज्योति तिहारी
हरती है अँधियारा।
कलुष-पतंगा जल-जल जाता
पा मन में उजियारा।
आये कहाँ से? जाएँ कहाँ हम?
जानें, हो उद्धार
प्रभु!
तेरी महिमा अपरम्पार
*
कण-कण में है बिम्ब तिहारा
चित्र गुप्त अनदेखा।
मूरत गढ़ते सच जाने बिन
खींच भेद की रेखा।
निराकार तुम,पूज रहा जग
कह तुझको साकार
प्रभु!
तेरी महिमा अपरम्पार
२४-२-२०१६
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नवगीत:
बहुत समझ लो
सच, बतलाया
थोड़ा है
.
मार-मार
मनचाहा बुलावा लेते हो.
अजब-गजब
मनचाहा सच कह देते हो.
काम करो,
मत करो, तुम्हारी मर्जी है-
नजराना
हक, छीन-झपट ले लेते हो.
पीर बहुत है
दर्द दिखाया
थोड़ा है
.
सार-सार
गह लेते, थोथा देते हो.
स्वार्थ-सियासत में
हँस नैया खेते हो.
चोर-चोर
मौसेरे भाई संसद में-
खाई पटकनी
लेकिन तनिक न चेते हो.
धैर्य बहुत है
वैर्य दिखाया
थोड़ा है
.
भूमि छीन
तुम इसे सुधार बताते हो.
काला धन
लाने से अब कतराते हो.
आपस में
संतानों के तुम ब्याह करो-
जन-हित को
मिलकर ठेंगा दिखलाते हो.
धक्का तुमको
अभी लगाया
थोड़ा है
२४-२-२०१५
*

बुधवार, 23 फ़रवरी 2022

सॉनेट, छंद, गीत, नवगीत, मुक्तिका, विश्वंभर शुक्ल, शिव,दोहा,धरती

विमर्श:
सात लोक और लौकिक छन्द
अध्यात्म शास्त्र में वर्णित सात लोक भू-लोक, भुवः लोक, स्वः लोक, तपः लोक, महः लोक, जनः लोक और सत्य लोक हैं। ये किसी ग्रह, नक्षत्र में स्थित अथवा अधर में लटके हुए स्थान नहीं, स्थूलता से सूक्ष्मता की ओर बढ़ने की स्थिति मात्र हैं। पिंगल शास्त्र में सप्त लोकों के आधार पर सात मात्राओं के छंदों को 'लौकिक छंद' कहा गया है।
सामान्य दृष्टि से भूलोक में रेत, पत्थर, वृक्ष, वनस्पति, खनिज, प्राणी, जल आदि पदार्थ हैं। इसके भीतर की स्थिति है आँखों से नहीं, सूक्ष्मदर्शी यन्त्र से देखी-समझी जा सकती है। हवा में मिली गैसें, जीवाणु आदि इस श्रेणी में हैं। इससे गहरी अणु सत्ता के विश्लेषण में उतरने पर विभिन्न अणुओं-परमाणुओं के उड़ते हुए अन्धड़ और अदलते-बदलते गुच्छक हैं। अणु सत्ता का विश्लेषण करने पर उसके सूक्ष्म घटक पदार्थ नहीं,विद्युत स्फुल्लिंग मात्र दृष्टिगोचर होते हैं। तदनुसार ऊर्जा प्रवाह ही संसार में एकमात्र विद्यमान सत्ता प्रतीत होती है। स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ते हुए हम कहीं से कहीं जा पहुँचते हैं किंतु स्थान परिवर्तन नहीं होता। अपने इसी स्थान में यह स्थूल से सूक्ष्म, सूक्ष्म से अति सूक्ष्म, अति सूक्ष्म से महा सूक्ष्म की स्थिति बनती जाती है।
सात लोकों का स्थान कहीं बाहर या अलग-अलग नहीं है। वे एक शरीर के भीतर अवयव, अवयवों के भीतर माँस-पेशियाँ, माँस-पेशियों के भीतर ज्ञान-तंतु, ज्ञान-तन्तुओं के भीतर मस्तिष्कीय विद्युत आदि की तरह हैं। वे एक के भीतर एक के क्रम से क्रमशः भीतर के भीतर-समाये, अनुभव किये जा सकते हैं। सात लोकों की सत्ता स्थूल लोक के भीतर ही सूक्ष्मतर-सूक्ष्मतम और अति सूक्ष्म होती गई है। सबका स्थान वही है जिसमें हम स्थित हैं। ब्रह्मांड के भीतर ब्रह्मांड की सत्ता परमाणु की मध्यवर्ती नाभिक के अन्तर्गत प्राप्त अति सूक्ष्म किन्तु विशाल ब्रह्मांड का प्रतिनिधित्व करनेवाले ब्रह्म-बीज में प्राप्य है।
जीव की देह भी ब्रह्म शरीर का प्रतीक प्रतिनिधि (बीज) है। उसके भीतर भी सात लोक हैं। इन्हें सात शरीर (सप्त धातु-रस, रक्त, माँस, अस्थि, मज्जा, शुक्र, ओजस) कहा जाता है। भौतिक तन में छह धातुएँ हैं, सातवीं ओजस् तो आत्मा की ऊर्जा मात्र है। इनके स्थान अलग-अलग नहीं हैं। वे एक के भीतर एक समाये हैं। इसी तरह चेतना शरीर भी सात शरीरों का समुच्चय है। वे भी एक के भीतर एक के क्रम से अपना अस्तित्व बनाये हुए हैं।
योग शास्त्र में इन्हें चक्रों का नाम दिया गया है। छह चक्र मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा और सातवाँ सहस्रार कमल। कहीं छह, कहीं सात की गणना से भ्रमित न हों। सातवाँ लोक सत्यलोक है। सत्य अर्थात् पूर्ण परमात्मा । इससे नीचे के लोक भी तथा साधना में प्रयुक्त होने वाले चक्र छ:-छ: ही हैं। सातवाँ सहस्रार कमल ब्रह्मलोक है। उस में शेष ६ लोक लय होते है। सात या छह के भेद-भाव को इस तरह समझा जा सकता है। देवालय सात मील दूर है। बीच में छह मील के पत्थर और सातवाँ मील पत्थर प्रत्यक्ष देवालय। छह गिने या सात इससे वस्तुस्थिति में कोई अन्तर नहीं पड़ता।
मनुष्य के सात शरीरों का वर्णन तत्ववेत्ताओं ने इस प्रकार किया हैं- (१) स्थूल शरीर-फिजिकल बाड़ी (२) सूक्ष्म शरीर इथरिक बॉडी (३) कारण शरीर-एस्ट्रल बॉडी (४)मानस शरीर-मेन्टल बॉडी (५) आत्मिक शरीर-स्प्रिचुअल बॉडी (६) देव शरीर -कॉस्मिक बॉडी (७) ब्रह्म शरीर-वाडीलेस बॉडी।
सप्त धातुओं का बना भौतिक शरीर प्रत्यक्ष है। इसे देखा, छुआ और इन्द्रिय सहित अनुभव किया जा सकता है। जन्मतः प्राणी इसी कलेवर को धारण किये होता है। उनमें प्रायः इन्द्रिय चेतना जागृत होती है। भूख, सर्दी-गर्मी जैसी शरीरगत अनुभूतियाँ सक्षम रहती हैं। पशु शरीर आजीवन इसी स्थिति में रहते हैं। मनुष्य के सातों शरीर क्रमशः विकसित होते हैं। भ्रूण पड़ते ही सूक्ष्म मानव शरीर जागृत होने लगता है। इच्छाओं और सम्वेदनाओं के रूप में इसका विकास होता है। मानापमान, अपना-पराया, राग-द्वेष, सन्तोष-असन्तोष, मिलन-वियोग जैसे अनुभव भाव (सूक्ष्म) शरीर को होते हैं। बीज में से पहले अंकुर निकलता है, तब उसका विकास पत्तों के रूप में होता है। स्थूल शरीर को अंकुर और सूक्ष्म शरीर पत्ता कह सकते हैं। फिजिकल बॉडी यथास्थान बनी रहती है, पर उसमें नई शाखा भाव शरीर एस्ट्रल बॉडी के रूप में विकसित होती है।सातों शरीरों का अस्तित्व आत्मा के साथ-साथ ही है, पर उनका विकास आयु और परिस्थितियों के आधार पर धीमे अथवा तीव्र गति से स्वल्प-अधिक मात्रा में होता है।
तीसरा कारण शरीर विचार, तर्क, बुद्धि से सम्बन्धित है। इसका विकास, व्यावहारिक, सभ्यता और मान्यतापरक संस्कृति के आधार पर होता है। यह किशोरावस्था में प्रवेश करते-करते आरम्भ होता है और वयस्क होने तक अपने अस्तित्व का परिचय देने लगता है। बालक को मताधिकार १८ वर्ष की आयु में मिलता है। अल्प वयस्कता इसी अवधि में पहुँचने पर पूरी होती है। बारह से लेकर अठारह वर्ष की आयु में शरीर का काम चलाऊ विकास हो जाता है। यौन सम्वेदनाएँ इसी अवधि में जागृत होती हैं। सामान्य मनुष्य इतनी ही ऊँचाई तक बढ़ते हैं। फिजिकल-इथरिक और एस्ट्रल बॉडी के तीन वस्त्र पहनकर ही सामान्य लोग दरिद्रता में जीवन बिताते हैं। इसलिए सामान्यत: तीन शरीरों की ही चर्चा होती है। स्थूल , सूक्ष्म और कारण शरीरों की व्याख्या कर बात पूरी कर ली जाती है। प्रथम शरीर में शरीरगत अनुभूतियों का सुख-दुःख, दूसरे में भाव सम्वेदनाएँ और तीसरे में लोकाचार एवं यौनाचार की प्रौढ़ता विकसित होकर एक कामचलाऊ मनुष्य का ढाँचा खड़ा हो जाता है।
तीन शरीरों के बाद मनुष्य की विशिष्टताएँ आरम्भ होती हैं। मनस् शरीर में कलात्मक रसानुभूति होती है। कवित्व जगता है। कोमल सम्वेदनाएँ उभरती हैं। कलाकार, कवि, सम्वेदनाओं के भाव लोक में विचरण करने वाले भक्त-जन, दार्शनिक, करुणार्द्र, उदार, देश-भक्त इसी स्तर के विकसित होने से बनते हैं। यह स्तर उभरे तो पर विकृत बन चले तो व्यसन और व्याभिचार जन्य क्रीड़ा-कौतुकों में रस लेने लगता है। विकसित मनस् क्षेत्र के व्यक्ति असामान्य होते हैं। इस स्तर के लोग कामुक-रसिक हो सकते हैं। सूरदास, तुलसीदास जैसे सन्त अपने आरम्भिक दिनों में कामुक थे। वही ऊर्जा जब भिन्न दिशा में प्रवाहित हो तो सम्वेदनाएँ कुछ से कुछ करके दिखाने लगीं। महत्वाकाँक्षाएँ (अहंकार) इसी क्षेत्र में जागृत होती हैं। महत्वाकांक्षी व्यक्ति भौतिक जीवन में तरह-तरह के महत्वपूर्ण प्रयास कर असाधारण प्रतिभाशाली कहलाते हैं। प्रतिभागी लोगों का मनस् तत्व प्रबल होता है। उन्हें मनस्वी भी कहा जा सकता है। बाल्मीक, अँगुलिमाल, अशोक जैसे महत्वाकांक्षी विकृत मनःस्थिति में घोर आतंकवादी रहे, पर जब सही दिशा में मुड़ गये तो उन्हें चोटी की सफलता प्राप्त करने में देर नहीं लगी। इसे मेन्टल बॉडी की प्रखरता एवं चमत्कारिता कहा जा सकता है।
पाँचवाँ शरीर-आत्मिक शरीर स्प्रिचुअल बॉडी अतीन्द्रिय शक्तियों का आवास होता है। अचेतन मन की गहरी परतें जिनमें दिव्य अनुभूतियाँ होती हैं। इसी पाँचवें शरीर से सम्बन्धित हैं। मैस्मरेज्म, हिप्नोटिज्म, टेलीपैथी, क्लैरेहवाइंस जैसे प्रयोग इसी स्तर के विकसित होने पर होते हैं । कठोर तन्त्र साधनाएँ एवं उग्र तपश्चर्याएँ इसी शरीर को परिपुष्ट बनाने के लिए की जाती हैं। संक्षेप में इसे ‘दैत्य’ सत्ता कहा जा सकता है। सिद्धि और चमत्कारों की घटनाएँ- संकल्प शक्ति के बढ़े-चढ़े प्रयोग इसी स्तर के समर्थ होने पर सम्भव होते हैं। सामान्य सपने सभी देखते हैं पर जब चेतना इस पाँचवे शरीर में जमी होती है तो किसी घटना का सन्देश देने वाले सपने भी दीख सकते हैं। उनमें भूत, भविष्य की जानकारियों तथा किन्हीं रहस्यमय तथ्यों का उद्घाटन भी होता है। भविष्यवक्ताओं, तान्त्रिकों एवं चमत्कारी सिद्धि पुरुषों की गणना पाँचवे शरीर की जागृति से ही सम्भव होती है। ऊँची मीनार पर बैठा हुआ मनुष्य जमीन पर खड़े मनुष्य की तुलना में अधिक दूर की स्थिति देख सकता है। जमीन पर खड़ा आदमी आँधी का अनुभव तब करेगा जब वह बिलकुल सामने आ जायगी। पर मीनार पर बैठा हुआ मनुष्य कई मील दूर जब आँधी होंगी तभी उसकी भविष्यवाणी कर सकता है। इतने मील दूर वर्षा हो रही है। अथवा अमुक स्थान पर इतने लोग इकट्ठे हैं। इसका वर्णन वह कर सकता जो ऊँचे पर खड़ा है और आँखों पर दूरबीन चढ़ाये है, नीचे खड़े व्यक्ति के लिए यह सिद्धि चमत्कार है, पर मीनार पर बैठे व्यक्ति के लिए यह दूरदर्शन नितान्त सरल और स्वाभाविक है।
छठे शरीर को देव शरीर कहते हैं-यही कॉस्मिक बाड़ी है। ऋषि , तपस्वी, योगी इसी स्तर पर पहुँचने पर बना जा सकता है। ब्राह्मणों और सन्तों का भू-देव, भू-सुर नामकरण उनकी दैवी अन्तःस्थिति के आधार पर है। स्वर्ग और मुक्ति इस स्थिति में पहुँचने पर मिलनेवाला मधुर फल है। सामान्य मनुष्य चर्म-चक्षुओं से देखता है, पर देव शरीर में दिव्य चक्षु खुलते हैं और “सियाराम मय सब जग जानी” के विराट ब्रह्मदर्शन की मनःस्थिति बन जाती है। कण-कण में ईश्वरीय सत्ता के दर्शन होते हैं और इस दिव्य उद्यान में सर्वत्र सुगंध महकती प्रतीत होती हैं। परिष्कृत दृष्टिकोण ही स्वर्ग है। स्वर्ग में देवता रहते हैं। देव शरीर में जागृत मनुष्यों के अन्दर उत्कृष्ट चिन्तन और बाहर आदर्श कर्तृत्व सक्रिय रहता है। तदनुसार भीतर शान्ति की मनःस्थिति और बाहर सुख भरी परिस्थिति भरी-पूरी दृष्टिगोचर होती है। स्वर्ग इसी स्थिति का नाम है। जो ऐसी भूमिका में निर्वाह करते हैं। उन्हें देव कहते हैं। असुर मनुष्य और देव यह आकृति से तो एक किन्तु प्रकृति से भिन्न होते हैं।
भौतिकवादी लोक-मान्यताओं का ऐसे देव मानवों पर रत्ती भर प्रभाव नहीं पड़ता । वे निन्दा-स्तुति की, संयोग-वियोग की, हानि-लाभ की, मानापमान की लौकिक सम्वेदनाओं से बहुत ऊँचे उठ जाते हैं। लोक मान्यताओं को वे बाल-बुद्धि की दृष्टि से देखते हैं। लोभ-मोह, वासना-तृष्णा के भव-बन्धन सामान्य मनुष्यों को बेतरह जकड़कर कठपुतली की तरह नचाते हैं। छठवीं देव भूमिका में पहुँची देव आत्माएँ आदर्श और कर्त्तव्य मात्र को पर्याप्त मानती हैं। आत्मा और परमात्मा को सन्तोष देना ही उन्हें पर्याप्त लगता है। वे अपनी गतिविधियाँ निर्धारित करते समय लोक मान्यताओं पर तनिक भी ध्यान नहीं देते वरन् उच्चस्तरीय चेतना से प्रकाश ग्रहण करते हैं। इन्हें भव-बन्धनों से मुक्त-जीवन मुक्त कहा जाता है। मुक्ति या मोक्ष प्राप्त कर लेना इसी स्थिति का नाम है। यह छोटे शरीर में देव स्थिति में कॉस्मिक बॉडी में विकसित आत्माओं को उपलब्ध होता है।
सातवाँ ब्रह्म शरीर है। इसमें आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप में अवस्थित होता है। वे शरीर झड़ जाते हैं जो किसी न किसी प्रकार भौतिक जगत से सम्बन्धित थे। उनका आदान-प्रदान प्रत्यक्ष संसार से चलता है। वे उससे प्रभावित होते और प्रभावित करते हैं। ब्रह्म शरीर का सीधा सम्बन्ध परमात्मा से होता है। उसकी स्थिति लगभग ब्रह्म स्तर की हो जाती है। अवतार इसी स्तर पर पहुँची हुई आत्माएँ हैं। लीला अवतरण में उनकी अपनी कोई इच्छा आकाँक्षा नहीं होती, वे ब्रह्मलोक में निवास करते हैं। ब्राह्मी चेतना किसी सृष्टि सन्तुलन के लिए भेजती है तो उस प्रयोजन को पूरा करके पुनः अपने लोक वापस लौट जाते हैं। ऐसे अवतार भारत में १० या २४ मान्य है। वस्तुतः उनकी गणना करना कठिन है। संसार के विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न प्रयोजनों के लिए वे समय-समय पर विलक्षण व्यक्तित्व सहित उतरते हैं और अपना कार्य पूरा करके वापिस चले जाते हैं। यह स्थिति ‘अहम् ब्रह्मोसि’ सच्चिदानन्दोऽहम्, शिवोऽहम् सोऽहम्, कहने की होती है। उस चरम लक्ष्य स्थल पर पहुँचने की स्थिति को चेतना क्षेत्र में बिजली की तरह कोंधाने के लिए इन वेदान्त मन्त्रों का जप, उच्चारण एवं चिन्तन, मनन किया जाता है।
पाँचवें शरीर तक स्त्री-पुरुष का भेद, विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण तथा अगले जन्म में उसी लिंग का शरीर बनने की प्रक्रिया चलती है। उससे आगे के छठे और सातवें शरीर में विकसित होने पर यह भेदभाव मिट जाता है। तब मात्र एक आत्मा की अनुभूति होती है। स्त्री-पुरुष का आकर्षण-विकर्षण समाप्त हो जाता है। सर्वत्र एक ही आत्मा की अनुभूति होती है। अपने आपकी अन्तः स्थिति लिंग भेद से ऊपर उठी होती है यद्यपि जननेंद्रिय चिन्ह शरीर में यथावत् बने रहते हैं। यही बात साँसारिक स्थिति बदलने के कारण मन पर पड़ने वाली भली-बुरी प्रतिक्रिया के सम्बन्ध में भी होती है। समुद्र में लहरें उठती-गिरती रहती हैं। नाविक उनके लिए हर्ष-शोक नहीं करता, समुद्री हलचलों का आनन्द लेता है। छठे शरीर में विकसित देवात्माएँ इस स्थिति से ऊपर उठ जाती हैं। उनका चेतना स्तर गीता में कहे गये 'स्थित प्रज्ञ ज्ञानी' की और उपनिषदों में वर्णित 'तत्वदर्शी' की बन जाती है। उसके आत्म सुख से संसार के किसी परिवर्तन में विक्षेप नहीं पड़ता। लोकाचार हेतु उपयुक्त लीला प्रदर्शन हेतु उसका व्यवहार चलता रहता है। यह छठे शरीर तक की बात है। सातवें शरीर वाले अवतारी (भगवान) संज्ञा से विभूषित होते हैं। इन्हें ब्रह्मात्मा, ब्रह्म पुरुष का सकते हैं। उन्हें ब्रह्म साक्षात्कार, ब्रह्म निर्वाण प्राप्त भी कहा जा सकता है।
छठे शरीर में स्थित देव मानव स्थितिवश शाप और वरदान देते हैं, पर सातवें शरीर वाले के पास शुभेच्छा के अतिरिक्त और कुछ बचता ही नहीं। उनके लिए पराया एवं बैरी कोई रहता ही नहीं। दोष, अपराधों को वे बाल बुद्धि मानते हैं और द्वेष दण्ड के स्थान पर करुणा और सुधार की बात भर सोचते हैं।
सनातन धर्म की मान्यता के अनुसार पृथ्वी के नीचे सात पाताल लोक वर्णित हैं जिनमें पाताल अंतिम है। हिन्दू धर्म ग्रंथों में पाताल लोक से सम्बन्धित असंख्य कहानियाँ, घटनायें तथा पौराणिक विवरण मिलते हैं। पाताल लोक को नागलोक का मध्य भाग बताया गया है, क्योंकि जल-स्वरूप जितनी भी वस्तुएँ हैं, वे सब वहाँ पर्याप्त रूप से गिरती हैं। पाताल लोक में दैत्य तथा दानव निवास करते हैं। जल का आहार करने वाली आसुर अग्नि सदा वहाँ उद्दीप्त रहती है। वह अपने को देवताओं से नियंत्रित मानती है, क्योंकि देवताओं ने दैत्यों का नाश कर अमृतपान कर शेष भाग वहीं रख दिया था। अत: वह अग्नि अपने स्थान के आस-पास नहीं फैलती। अमृतमय सोम की हानि और वृद्धि निरंतर दिखाई पड़ती है। सूर्य की किरणों से मृतप्राय पाताल निवासी चन्द्रमा की अमृतमयी किरणों से पुन: जी उठते हैं। विष्णु पुराण के अनुसार पूरे भू-मण्डल का क्षेत्रफल पचास करोड़ योजन है। इसकी ऊँचाई सत्तर सहस्र योजन है। इसके नीचे सात लोक इस प्रकार हैं-१. अतल, २. वितल, ३. सुतल, ४. रसातल, ५. तलातल, ६. महातल, ७. पाताल।
पौराणिक उल्लेख
पुराणों में पाताल लोक के बारे में सबसे लोकप्रिय प्रसंग भगवान विष्णु के अवतार वामन और पाताल सम्राट बलि का है। रामायण में अहिरावण द्वारा राम-लक्ष्मण का हरण कर पाताल लोक ले जाने पर श्री हनुमान के वहाँ जाकर अहिरावण वध करने का प्रसंग आता है। इसके अलावा भी ब्रह्माण्ड के तीन लोकों में पाताल लोक का भी धार्मिक महत्व बताया गया है।
***
गीत, 
हम
हम वही हैं,
यह न भूलो
झट उठो आकाश छू लो।
बता दो सारे जगत को
यह न भूलो
हम वही है।
हमारे दिल में पली थी
सरफरोशी की तमन्ना।
हमारी गर्दन कटी थी
किंतु
किंचित भी झुकी ना।
काँपते थे शत्रु सुनकर
नाम जिनका
हम वही हैं।
कारगिल देता गवाही
मर अमर
होते हमीं हैं।
इंकलाबों की करी जयकार
हमने फेंककर बम।
झूल फाँसी पर गये
लेकिन
न झुकने दिया परचम।
नाम कह 'आज़ाद', कोड़े
खाये हँसकर
हर कहीं हैं।
नहीं धरती मात्र
देवोपरि हमें
मातामही हैं।
पैर में बंदूक बाँधे,
डाल घूँघट चल पड़ी जो।
भवानी साकार दुर्गा
भगत के
के संग थी खड़ी वो।
विश्व में ऐसी मिसालें
सत्य कहता हूँ
नहीं हैं।
ज़िन्दगी थीं या मशालें
अँधेरा पीती रही
रही हैं।
'नहीं दूँगी कभी झाँसी'
सुनो, मैंने ही कहा था।
लहू मेरा
शिवा, राणा, हेमू की
रग में बहा था।
पराजित कर हूण-शक को
मर, जनम लेते
यहीं हैं।
युद्ध करते, बुद्ध बनते
हमीं विक्रम, 'जिन'
हमीं हैं।
विश्व मित्र, वशिष्ठ, कुंभज
लोपामुद्रा, कैकयी, मय ।
ऋषभ, वानर, शेष, तक्षक
गार्गी-मैत्रेयी
निर्भय?
नाग पिंगल, पतंजलि,
नारद, चरक, सुश्रुत
हमीं हैं।
ओढ़ चादर रखी ज्यों की त्यों
अमल हमने
तही हैं।
देवव्रत, कौंतेय, राघव
परशु, शंकर अगम लाघव।
शक्ति पूजित, शक्ति पूजी
सिय-सती बन
जय किया भव।
शून्य से गुंजित हुए स्वर
जो सनातन
हम सभी हैं।
नाद अनहद हम पुरातन
लय-धुनें हम
नित नयी हैं।
हमीं भगवा, हम तिरंगा
जगत-जीवन रंग-बिरंगा।
द्वैत भी, अद्वैत भी हम
हमीं सागर,
शिखर, गंगा।
ध्यान-धारी, धर्म-धर्ता
कम-कर्ता
हम गुणी हैं।
वृत्ति सत-रज-तम न बाहर
कहीं खोजो,
त्रय हमीं हैं।
भूलकर मत हमें घेरो
काल को नाहक न टेरो।
अपावन आक्रांताओं
कदम पीछे
हटा फेरो।
बर्फ पर जब-जब
लहू की धार
सरहद पर बही हैं।
कहानी तब शौर्य की
अगणित, समय ने
खुद कहीं हैं।
हम वही हैं,
यह न भूलो
झट उठो आकाश छू लो।
बता दो सारे जगत को
यह न भूलो
हम वही है।
मुक्तिका:
.
गीतों से अनुराग न होता
जीवन कजरी-फाग न होता
रास आस से कौन रचाता?
मौसम पहने पाग न होता
निशा उषा संध्या से मिलता
कैसे सूरज आग न होता?
बाट जोहता प्रिय प्रवास की
मन-मुँडेर पर काग न होता
सूनी रहती सदा रसोई
गर पालक का साग न होता
चंदा कहलातीं कैसे तुम
गर निष्ठुरता-दाग न होता?
गुणा कोशिशों का कर पाते
अगर भाग में भाग न होता
नागिन क्वारीं मर जाती गर
बीन सपेरा नाग न होता


'सलिल' न होता तो सच मानो
बाट घाट घर बाग़ न होता
***
***
कृति चर्चा:
'उम्र जैसे नदी हो गई' हिंदी गजल का सरस प्रवाह
. [कृति विवरण: उम्र जैसे नदी हो गई, हिंदी ग़ज़ल / गीतिका संग्रह, प्रो. विश्वंभर शुक्ल, प्रथम संस्करण, २०१७, आई एस बी एन ९७८.९३.८६४९८.३७.३, पृष्ठ ११८, मूल्य २२५/-, आवरण बहुरंगी, सजिल्द जैकेट सहित, अनुराधा प्रकाशन, जनकपुरी, नई दिल्ली, रचनाकार संपर्क ८४ ट्रांस गोमतीए त्रिवेणी नगर, प्रथम, डालीगंज रेलवे क्रोसिंग, लखनऊ २२६०२०, चलभाष ९४१५३२५२४६]
*
. विश्ववाणी हिंदी का गीति काव्य विश्व की किसी भी अन्य भाषा की तुलना में अधिक व्यापक, गहन, उर्वर, तथा श्रेष्ठ है। इस कथन की सत्यता हेतु मात्र यह इंगित करना पर्याप्त है कि हिंदी में ३२ मात्रा तक के मात्रिक छंदों की संख्या ९२, २७, ७६३ तथा २६ वर्णों तक के वर्णिक छंदों की संख्या ६,७१,०८,८६४ है। दंडक छंद, मिश्रित छंद, संकर छंद, लोक भाषाओँ के छंद असंख्य हैं जिनकी गणना ही नहीं की जा सकी है। यह छंद संख्या गणित तथा ध्वनि-विज्ञान सम्मत है। संस्कृत से छान्दस विरासत ग्रहण कर हिंदी ने उसे सतत समृद्ध किया है। माँ शारदा के छंद कोष को संस्कृत अनुष्टुप छंद के विशिष्ट शिल्प के अंतर्गत समतुकांती द्विपदी में लिखने की परंपरा के श्लोक सहज उपलब्ध हैं। संस्कृत से अरबी-फारसी ने यह परंपरा ग्रहण की और मुग़ल आक्रान्ताओं के साथ इसने भारत में प्रवेश किया। सैन्य छावनियों व बाज़ार में लश्करी, रेख्ता और उर्दू के जन्म और विकास के साथ ग़ज़ल नाम की यह विधा भारत में विकसित हुई किंतु सामान्य जन अरबी-फारसी के व्याकरण-नियम और ध्वनि व्यवस्था से अपरिचित होने के कारण यह उच्च शिक्षितों या जानकारों तक सीमित रह गई। उर्दू के तीन गढ़ों में से एक लखनऊ से ग़ज़ल के भारतीयकरण का सूत्रपात हुआ।
. . हरदोई निवासी डॉ. रोहिताश्व अस्थाना ने हिंदी ग़ज़ल पर प्रथम शोध ग्रन्थ 'हिंदी ग़ज़ल उद्भव और विकास' प्रस्तुत किया। सागर मीराजपुरी ने गज़लपुर, नवग़ज़लपुर तथा गीतिकायनम के नाम से तीन शोधपरक कृतियों में हिंदी ग़ज़ल के सम्यक विश्लेषण का कार्य किया। हिंदी ग़ज़ल को स्वतंत्र विधा के रूप में पहचान देने की भावना से प्रेरित रचनाकारों ने इसे मुक्तिका, गीतिका, तेवरी, अनुगीत, लघुगीत जैसे नाम दिए किंतु नाम मात्र बदलने से किसी विधा का इतिहास नहीं बदला करता।
. हिंदी ग़ज़ल को महाप्राण निराला द्वारा प्रदत्त 'गीतिका' नाम से स्थापित करने के लिए प्रो . विश्वंभर शुक्ल ने अपने अभिन्न मित्र ओम नीरव के साथ मिलकर अंतरजाल पर निरंतर प्रयत्न कर नव पीढ़ी को जोड़ा। फलत: 'गीतिका है मनोरम सभी के लिए' तथा 'गीतिकालोक' शीर्षक से दो महत्वपूर्ण कृतियाँ प्रकाशित हुईं जिनसे नई कलमों को प्रोत्साहन मिला।
. . विवेच्य कृति 'उम्र जैसे नदी हो गयी' इस पृष्ठभूमि में हिंदी छंदाधारित हिंदी ग़ज़ल की परिपक्वता की झलक प्रस्तुत करती पठनीय-मननीय कृति है। गीतिका, रोला, वाचिक भुजंगप्रयात, विजात, वीर/आल्ह, सिंधु, मंगलवत्थु, दोहा, आनंदवर्धक, वाचिक महालक्ष्मी, वाचिक स्रग्विणी, जयकरी चौपाई, वर्णिक घनाक्षरी, राधाश्यामी चौपाई, हरिगीतिका, सरसी, वाचिक चामर, समानिका, लौकिक अनाम, वर्णिक दुर्मिल सवैया, सारए लावणी, गंगोदक, सोरठा, मधुकरी चौपाई, रारायगा, विजात, विधाता, द्वियशोदा, सुखदा, ताटंक, बाला, शक्ति, द्विमनोरम, तोटक, वर्णिक विमोहाए आदि छंदाधारित सरस रचनाओं से समृद्ध यह काव्य-कृति रचनाकार की छंद पर पकड़, भाषिक सामर्थ्य तथा नवप्रयोगोंमुखता की बानगी है। शुभाशंसान्तर्गत प्रो . सूर्यप्रकाश दीक्षित ने ठीक ही कहा है: 'इस कृति में वस्तु-शिल्पगत यथेष्ट वैविध्यपूर्ण काव्य भाषा का प्रयोग किया गया है, जो प्रौढ़ एवं प्रांजल है.... कृति में विषयगत वैविध्य दिखाई देता है। कवि ने प्रेम, सौन्दर्य, विरह-मिलन एवं उदात्त चेतना को स्वर दिया है। डॉ. उमाशंकर शुक्ल 'शितिकंठ' के अनुसार इन रचनाओं में विषय वैविध्य, प्राकृतिक एवं मानवीय प्रेम-सौन्दर्य के रूप-प्रसंग, भक्ति-आस्था की दीप्ति, उदात्त मानवीय मूल्यों का बोध, राष्ट्रीय गौरव की दृढ़ भावनाएँ विडंबनाओं पर अन्वेषी दृष्टि, व्यंग्यात्मक कशाघात से तिलमिला देनेवाले सांकेतिक चित्र तथा सुधारात्मक दृष्टिकोण समाहित हैं।'
. 'गीतिका है मनोरम सभी के लिए' में ९० रचनाकारों की १८० रचनाओं के अतिरिक्त, दृगों में इक समंदर है तथा मृग कस्तूरी हो जाना दो गीतिका शतकों के माध्यम से इस विधा के विकास हेतु निरंतर सचेष्ट प्रो. विश्वंभर शुक्ल आयु के सात दशकीय पड़ाव पार करने के बाद भी युवकोचित उत्साह और ऊर्जा से छलकते हुए उम्र के नद-प्रवाह को इस घाट से घाट तक तैरकर पराजित करते रहते हैं। भाव-संतरण की महायात्रा में गीतिका की नाव और मुक्तकों के चप्पू उनका साथ निभाते हैं। प्रो. शुक्ल के सृजन का वैशिष्ट्य देश-काल-परिस्थिति के अनुरूप भाषा- शैली और शब्दों का चयन करना है। वे भाषिक शुद्धता के प्रति सजग तो हैं किंतु रूढ़-संकीर्ण दृष्टि से मुक्त हैं। वे भारत की उदात्त परंपरानुसार परिवर्तन को जीवन की पहचान मानते हुए कथ्य को शिल्प पर वरीयता देते हैं। 'कर्म प्रधान बिस्व करि राखा' और 'कर्मण्येवाधिकारस्ते' की सनातन परंपरा के क्रम में वे कहते हैं-
. 'कर्म के खग पंख खोलें व्योम तक विचरण करें
. शिथिल हैं यदि चरण तब यह जीवनी कारा हुई
. काटकर पत्थर मनुज अब खोजता है नीर को
. दग्ध धरती कुपित यह अभिशप्तए अंगारा हुई
. पर्वतों को सींचता है देवता जब स्वेद से
. भूमि पर तब एक सलिला पुण्य की धारा हुई '
. जीवन में सर्वाधिक महत्व स्नेह का हैण् तुलसीदास कहते है-
. 'आवत ही हरसे नहींए नैनन नहीं सनेह
. तुलसी तहाँ न जाइए कंचन बरसे नेह'
शुक्ल जी इस सत्य को अपने ही अंदाज़ में कहते हैं.
. 'आदमी यद्यपि कभी होता नहीं भगवान है
. किंतु प्रिय सबको वही जिसके अधर मुस्कान है
. सूख जाते हैं समंदर जिस ह्रदय में स्नेह के
. जानिए वह देवता भी सिर्फ रेगिस्तान है
. पाहनों को पूज लेताए मोड़ता मुँह दीन से
. प्यार.ममता के बिना मानव सदा निष्प्राण हैण्
. प्रेम करुणा की सलिल सरिता जहाँ बहती नहीं
. जीव ऐसा जगत में बस स्वार्थ की दूकान है'
प्रकृति के मानवीकरण ओर रूपक के माध्यम से जीवन-व्यापार को शब्दांकित करने में शुक्ल जी का सानी नहीं है. भोर में उदित होते भास्कर पर आल्हाध्वीर छंद में रचित यह मुक्तिका देखिए-
. 'सोई हुई नींद में बेसुध, रजनी बाला कर श्रृंगार
. रवि ने चुपके से आकर के, रखे अधर पर ऊष्ण अंगार
. अवगुंठन जब हटा अचानक, अरुणिम उसके हुए कपोल
. प्रकृति वधूटी ले अँगड़ाई, उठी लाज से वस्त्र सँवार
. सकुचाई श्यामा ने हँसकर, इक उपहार दिया अनमोल
. प्रखर रश्मियों ने दिखलाए, जी भर उसके रंग हजार
. हुआ तिरोहित घने तिमिर का, फैला हुआ प्रबल संजाल
. उषा लालिमा के संग निखरी, गई बिखेर स्वर्ण उपहार
. प्रणय समर्पण मोह अनूठे, इनसे खिलती भोर अनूप
. हमें जीवनी दे देता है, रिश्तों का यह कारोबार'
. पंचवटी में मैथिलीशरण जी गुप्त भोर के दृश्य का शब्दांकन देखें-
. 'है बिखेर देती वसुंधरा मोती सबके सोने पर
. रवि बटोर लेता है उनको सदा सवेरा होनेपर
. और विरामदायिनी अपनी संध्या को दे जाता है
. शून्य श्याम तनु जिससे उसका नया रूप झलकाता है'
दो कवियों में एक ही दृश्य को देखकर उपजे विचार में भिन्नता स्वाभाविक है किंतु शुक्ल जी द्वारा किए गए वर्णन में अपेक्षाकृत अधिक सटीकता और बारीकी उल्लेखनीय है।
उर्दू ग़ज़ल के चुलबुलेपन से प्रभावित रचना का रंग अन्य से बिलकुल भिन्न है-
'हमारे प्यार का किस्सा पुराना है
कहो क्या और इसको आजमाना है
गज़ब इस ज़िंदगी के ढंग हैं प्यारे
पता चलता नहीं किस पर निशाना है।'
एक और नमूना देखें -
'फिर से चर्चा में आज है साहिब
दफन जिसमें मुमताज है साहिब
याद में उनके लगे हैं मेले
जिनके घर में रिवाज़ है साहिब'
भारतीय आंचलिक भाषाओँ को हिंदी की सहोदरी मानते हुए शुक्ल जी ने बृज भाषा की एक रचना को स्थान दिया है। वर्णिक दुर्मिल सवैया छंद का माधुर्य आनंदित करता है-
करि गोरि चिरौरि छकी दुखियाए छलिया पिय टेर सुनाय नहीं
अँखियाँ दुइ पंथ निहारि थकींए हिय व्याकुल हैए पिय आय नहीं
तब बोलि सयानि कहैं सखियाँ ए तनि कान लगाय के बात सुनो
जब लौं अँसुआ टपकें ण कहूँए सजना तोहि अंग लगाय नहीं
ग्रामीण लोक मानस ऐसी छेड़-छाड़ भरी रचनाओं में ही जीवन की कठिनाइयों को भुलाकर जी पाता है।
राष्ट्रीयता के स्वर बापू और अटल जी को समर्पित रचनाओं के अलावा यत्र-तत्र भी मुखर हुए हैं-
'तोड़ सभी देते दीवारें बंधन सीमाओं के
जन्मभूमि जिनको प्यारी वे करते नहीं बहाना
कब-कब मृत्यु डरा पाई है पथ के दीवानों को
करते प्राणोत्सर्ग राष्ट्र-हित गाते हुए तराना
धवल कीर्ति हो अखिल विश्व में, नवोन्मेष का सूरज
शस्य श्यामला नमन देश को वन्दे मातरम गाना'
यदा-कदा मात्रा गिराने, आयें और आएँ दोनों क्रिया रूपों का प्रयोग, छुपे, मुसकाय जैसे देशज क्रियारूप खड़ी हिंदी में प्रयोग करना आदि से बचा जा सकता तो आधुनिक हिंदी के मानक नियमानुरूप रचनाएँ नव रचनाकारों को भ्रमित न करतीं।
शुक्ल जी का शब्द भण्डार समृद्ध है। वे हिंदीए संस्कृत, अंगरेजी, देशज और उर्दू के शब्दों को अपना मानते हुए यथावश्यक निस्संकोच प्रयोग करते हैं , कथ्य के अनुसार छंद चयन करते हुए वे अपनी बात कहने में समर्थ हैं-
'अब हथेली पर चलो सूरज उगाएँ
बंद आँखों में अमित संभावनाएँ
मनुज के भीतर अनोखी रश्मियाँ है
खो गयी हैंए आज मिलकर ढूँढ लाएँ
एक सूखी झील जैसे हो गए मन
है जरूरी नेह की सरिता बहाएँ
आज का चिंतन मनन अब तो यही है
पेट भर के ग्रास भूखों को खिलाएँ
तोड़ करके व्योम से लायें न तारे
जो दबे कुचले उन्हें ऊपर उठाएँ'
सारत: 'उम्र जैसे नदी हो गयी' काव्य-पुस्तकों की भीड़ में अपनी अलग पहचान स्थापित करने में समर्थ कृति है। नव रचनाकारों को छांदस वैविध्य के अतिरिक्त भाषिक संस्कार देने में भी यह कृति समर्थ है। शुक्ल जी का जिजीविषाजयी व्यक्तित्व इन रचनाओं में जहाँ-तहाँ झलक दिखाकर पाठक को मोहने में कोई कसर नहीं छोड़ता।
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शिव-दोहावली
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हर शंका को दूर कर, रख शंकर से आस.
श्रृद्धा-शिवा सदय रहें, यदि मन में विश्वास.
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शिव नीला आकाश हैं, सविता रक्त सरोज
रश्मि-उमा नित नमन कर, देतीं जीवन-ओज
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शिव जीवों में प्राण है, विष्णु जीव की देह
ब्रम्हा मति को जानिए, जीवन जिएँ विदेह
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उमा प्राण की चेतना, रमा देह का रूप
शारद मति की तीक्ष्णता, जो पाए हो भूप
*
चिंतन-लेखन ब्रम्ह है, पठन विष्णु को जान
मनन-कहाँ शिव तत्व है, नमन करें मतिमान
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अक्षर-अक्षर ब्रम्ह है, शब्द विष्णु अवतार
शिव समर्थ दें अर्थ तब, लिख-पढ़ता संसार
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अक्षर की लिपि शारदा, रमा शब्द का भाव
उमा कथ्य निहितार्थ हैं, मेटें सकल अभाव
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कलम ब्रम्ह, स्याही हरी, शिव कागज विस्तार
शारद-रमा-उमा बनें, लिपि कथ्यार्थ अपार
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नव लेखन से नित्य कर, तीन-देव-अभिषेक
तीन देवियाँ हों सदय, जागे बुद्धि-विवेक
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जो न करे रचना नई, वह जीवित निर्जीव
नया सृजन कर जड़ बने, संचेतन-संजीव
*
सविता से ऊर्जा मिले, ऊषा करे प्रकाश
वसुधा हो आधार तो, कर थामें आकाश
२३-२-२०१८
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गीत
काव्य और जन-वेदना
*
काव्य क्या?
कुछ कल्पना
कुछ सत्य है.
यह नहीं जड़,
चिरंतन चैतन्य है।
देख पाते वह अदेखा जो रहा,
कवि मनीषी को न कुछ अव्यक्त है।
रश्मि है
अनुभूतिमय संवेदना।
चतुर की जाग्रत सतत हो चेतना
शब्द-वेदी पर हवन मन-प्राण का।
कथ्य भाषा भाव रस संप्राणता
पंच तत्त्वों से मिले संजीवनी
साधना से सिद्धि पाते हैं गुनी।
कहा पढ़ सुन-गुन मनन करते रहे
जो नहीं वे देखकर बाधा ढहे
चतुर्दिक क्या घट रहा,
क्या जुड़ रहा?
कलम ने जो किया अनुभव
वह कहा।
पाठकों!
अब मौन व्रत को तोड़ दो।
‘तंत्र जन’ का है
सदा सच-शुभ ही कहो।
अशुभ से जब जूझ जाता ‘लोक’ तो
‘तन्त्र’ में तब व्याप जाता शोक क्यों?
‘प्रतिनिधि’ जिसका
न क्यों उस सा रहे?
करे सेवक मौज, मालिक चुप दहे?
शब्द-शर-संधान कर कवि-चेतना
चाहती जन की हरे कुछ वेदना।
२३-२-२०१७
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नवगीत:
सद्यस्नाता
*
सद्यस्नाता!
रूप तुम्हारा
सावन सा भावन।
केश-घटा से
बूँद-बूँद जल
टप-टप चू बरसा।
हेर-हेर मन
नील गगन सम
हुलस-पुलक तरसा।
*
उगते सूरज जैसी बिंदी
सजा भाल मोहे।
मृदु मुस्कान
सजे अधरों पर
कंगन कर सोहे।
लेख-लेख तन म
हुआ वन सम
निखर-बिखर गमका।
*
दरस-परस पा
नैन नशीले
दो से चार हुए।
कूल-किनारे
भीग-रीझकर
खुद जलधार हुए।
लगा कर अगन
बुझा कर सजन
बिन बसंत कुहका।
२३-२-२०१६
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दोहा सलिला :
माटी सब संसार.....
*
माटी ने शत-शत दिये, माटी को आकार.
माटी में माटी मिली, माटी सब संसार..
*
माटी ने माटी गढ़ी, माटी से कर खेल.
माटी में माटी मिली, माटी-नाक नकेल..
*
माटी में मीनार है, वही सकेगा जान.
जो माटी में मिल कहे, माटी रस की खान..
*
माटी बनती कुम्भ तब, जब पैदा हो लोच.
कूटें-पीटें रात-दिन, बिना किये संकोच..
*
माटी से मिल स्वेद भी, पा जाता आकार.
पवन-ग्रीष्म से मिल उड़े, पल में खो आकार..
*
माटी बीजा एक ले, देती फसल अपार.
वह जड़- हम चेतन करें, क्यों न यही आचार??
*
माटी को मत कुचलिये, शीश चढ़े बन धूल.
माटी माँ मस्तक लगे, झरे न जैसे फूल..
*
माटी परिपाटी बने, खाँटी देशज बोल.
किन्तु न इसकी आड़ में, कर कोशिश में झोल..
*
माटी-खेलें श्याम जू, पा-दे सुख आनंद.
माखन-माटी-श्याम तन, मधुर त्रिभंगी छंद..
*
माटी मोह न पालती, कंकर देती त्याग.
बने निरुपयोगी करे, अगर वृथा अनुराग..
*
माटी जकड़े दूब-जड़, जो विनम्र चैतन्य.
जल-प्रवाह से बच सके, पा-दे प्रीत अनन्य..
*
माटी मोल न आँकना, तू माटी का मोल.
जाँच-परख पहले 'सलिल', बात बाद में बोल..
*
माटी की छाती फटी, खुली ढोल की पोल.
किंचित से भूडोल से, बिगड़ गया भूगोल..
*
माटी श्रम-कौशल 'सलिल', ढालें नव आकार.
कुम्भकार ने चाक पर, स्वप्न किया साकार.
*
माटी की महिमा अमित, सकता कौन बखान.
'सलिल' संग बन पंक दे, पंकज सम वरदान..
२३-२-२०१३
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कविता
धरती

*
धरती काम करने
कहीं नहीं जाती
पर वह कभी भी
बेकाम नहीं होती.

बादल बरसता है
चुक जाता है.
सूरज सुलगता है
ढल जाता है.

समंदर गरजता है
बँध जाता है.
पवन चलता है
थम जाता है.

न बरसती है,
न सुलगती है,
न गरजती है,
न चलती है

लेकिन धरती
चुकती, ढलती,
बँधती या थमती नहीं.
धरती जन्म देती है

सभ्यता को,
धरती जन्म देती है
संस्कृति को.
तभी ज़िंदगी
बंदगी बन पाती है.

धरती कामगार नहीं
कामगारों की माँ होती है.
इसीलिये इंसानियत ही नहीं
भगवानियत भी
उसके पैर धोती है..
२३-२-२०११
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