
ज्योतिष
को मुख्यता २ भागो में बाटा गया है सिद्धांत व फलित ज्योतिष ज्योतिष का वह
भाग जिसमे ग्रह नक्षत्र आदि की गतियो का अवलोकन किया जाता है सिद्धांत या
गणित के नाम से जाना जाता है फलित वह भाग है जिसके द्वारा ग्रह की विशेष
स्तिथि को देख कर बताया जाता है की उस स्तिथि का मनुष्य पर क्या प्रभाव
पड़ेगा
जातक –अधिकतर ज्योतिष की किताबो में ये
शब्द आपने देखा व पढ़ा गया है जातक शब्द व्यक्ति विशेष के लिए आता है जिसकी
ज्योतिष के अधार पर गड़ना कर फलित करने की कोशिश की जाती है अर्थात वो
व्यक्ति स्वयं भी हो सकता है या जिसका ज्योतिषीय विधि से विचार किया जा रहा
है
पत्री –ग्रहों की विशेष स्थिति को एक कागज पर
विशेष आकृति में बनाना जिससे समय समय पर अलग अलग स्तिथि वश विचार किया जा
सके पत्री कही जाती है सूक्ष्म पत्री में ग्रह की स्तिथि ही दी जाती है
जबकि पूर्ण पत्रियो में ग्रह गडना के साथ साथ दशा अंतरदशा ग्रहों के शुभ
अशुभ फल व जन्मदिन का पंचाग भी दिया जाता है
सम्वंतसर –ई०
काल श्री क्राइस्ट के जन्म से माना जाता है जिसका २०१० व वर्ष चल रहा है
क्राइस्ट के जन्म के ३१०१ वर्ष पूर्व ही कलियुग शुरू हो चुका था वास्तविक
कलियुग का आरंभ १८ फरबरी ३१०२ बी०सी० की अर्ध रात्रि को हुआ था ज्योतिष
गडना के अनुसार ७ ग्रह मेष राशि में थे इसका ज्योतिष गणित में विशेष महत्व
है
क्राइस्ट के जन्म के ५७ वर्ष पहले उज्जैन में विक्रमादित्य नाम के
प्रतापी राजा हुए है स्कंध पुराण में लिखा गया है कि कलियुग के लगभग ३०००
वर्ष बीत जाने पर विक्रमादित्य नामक राजा हुआ जिसके नाम से ही विक्रमी संवत
जाना जाता है यही कारण है कि चल रहे इस्वी साल में ५७ और जोड़ दिया जाये
तो वह विक्रमी सम्वत बन जाता है
क्राइस्ट के जन्म के ७८ वर्ष के बाद
शालिवाहन नामक राजा हुए है जिनके नाम पर ही शक संवत का प्राम्भ हुआ अर्थात
इस्वी साल में ७८ और घटा दिया जाये तो वह शक सम्वत बन जाता है
पंचांग – पंचांग
का अर्थ ही ५ अंगों का समूह है पंचाग में तिथि, वार, नक्षत्र, योग, करण
आते है ज्योतिष का पूर्ण पंचाग सूर्य और चन्द्रमा की गति पर निर्भर करता है
तिथि –सूर्य और चन्द्रमा के अंशो के अंतर से तिथियो का चयन किया जाता है तिथिया दो प्रकार की होती है शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष की तिथिया –
राशि –प्रथ्वी
जब सूर्य के चारो तरफ चक्कर लगाती है तो एक गोलाकार परिभ्रमण बन जाता है
इस ३६० अंश के परिभ्रमण को गडना की सुगमता हेतु १२ भागो में विभक्त किया
गया था लेकिन अनुभवों से ये पाया गया की इन १२ भागो की आपने एक अलग पहचान
भी है जब भी कोई ग्रंह इन अलग अलग भागो में जाता है तो उसका अलग ही प्रभाव
मनुष्य पर पड़ता है
जिस प्रकार यदि कोई मनुष्य पहेली बार किसी मार्ग पर
जाता है तो अपनी वापसी के लिए कुछ स्थान को अपने ध्यान का केंद्र बना लेता
है जिससे वो याद रख सके की इससे मार्ग से आये थे उसी तरह पूर्व के
ज्योतिषविदो ने राशियों को अलग अलग तारा मंडलों के स्थान के अधार पर
निर्धारित कर दिया था जिससे यह ज्ञात किया जा सके कि कौन सा ग्रह कब और किस
तारा मंडल की तरफ को जा रहा है इन तारा मंडल के विशेष समूह को ३० – ३० अंश
में विभक्त कर अलग अलग नाम दे दिये गए जिनको आजकल लोग राशि कहते है

उत्तर
भारत की ज्योतिष की समस्त पत्रीयो में राशि के स्थान पर ऊपर दिए गये राशि
अंको का ही प्रयोग किया जाता है ये अंक किसी भी पत्री में भाव को प्रदर्शित
नहीं करते ये संबधित राशि को ही दर्शाते है जो की ऊपर बताइ गई है बहुत से
नए ज्योतिष के विद्यार्थी राशि अंक को ही जातक की कुंडली का भाव समझते है
जिस कारण उनके द्वारा किया गया फलित निष्प्रभावी हो जाता है
ज्योतिष
में ९ ग्रहों सूर्य चन्द्रमा मंगल राहू गुरु शनि बुध केतु और शुक्र को ही
विशेष महत्व दिया गया है राशियों के स्वामी और उनका सम्बन्ध कुछ इस प्रकार
है
वार –दैनिक
रूप से हम लोग प्रतिदिन एक न एक दिन के नाम को जानते है जैसेकि रविवार
सोमवार आदि लेकिन ये दिन एक क्रम में ही क्यों होते है क्यों सोमवार के बाद
मंगल ही आता है शुक्र ही क्यों नहीं आ जाता इसका एक विशेष गणित निर्धारित
है
गणितीय आधार पर सबसे दूर शनि को बताया गया है इसकी दूरी ८८ करोड मील
से कुछ ऊपर ही आकी गई है अतः शनि एक परिक्रमाँ १०७५९ दिनों में पूरा कर
पता है यह अवधि ३० वर्ष के बराबर होती है शनि से कम दूरी पर गुरु
(ब्रहस्पति) ४८ करोड मील दूर है इस कारण ये परिक्रमा ४३३२ दिन या १२ वर्ष
में पूरी करता है गुरु से कम दूरी पर मंगल जो १४ करोड मील से कुछ अधिक है
इसलिए ६८६ दिनों में परिक्रमा पूरी करता है मंगल से कम दूरी इस प्रथ्वी की
है जो ९ करोड मील पर है चुकी प्रथ्वी को चलायेमान नहीं मानते इस लिए यह
स्थान सूर्य को दिया गया है इससे कम दूरी पर शुक्र है जो ६ करोड मील से कुछ
अधिक है इस कारण ये २२४ दिन में परिक्रमा पूरी करता है शुक्र से भी कम
दूरी पर बुध जो ३.५ करोड मील पर है ये ८७ दिन में अपनी परिरकमा पूरी करता
है सबसे कम दूरी पर चन्द्रमा है जो लगभग २.५ लाख मील पर है ये २७ दिन में
अपना परिक्रमा का काल पूरा करता है
यदि इन ग्रहों को उनके दूरवर्ती
क्रम में लिखा जाये तो शनि गुरु मंगल सूर्य शुक्र बुध व चन्द्रमा आते है
अहोरात्रि एक दिन और रात के युग्म को कहा जाता है अहोरात्रि में यदि अ और
त्रि का विलोप कर दिया जाये तो उसको होरा कहा जाता है १ अहोरात्रि में २४
होरा होते है जिसे अग्रेजी के HOUR शब्द की संज्ञा दी गयी है
प्रलय के
अंत के बाद सूर्य का उदय होता है उसके ही प्रकाश में पुन सृष्टि का जन्म
होता है इसलिए पहेला होरा सूर्य का ही माना गया है उसके बाद शुक्र के बाद
बुध के बाद चंद्र के बाद शनि के बाद गुरु के बाद मंगल फिर ये ही क्रम बार
बार चलता है इस क्रम में २४ होरा के बाद फिर चन्द्र का होरा आता है

इस
क्रम के चलते ही ठीक २४ घंटे या होरा के बाद यदि आज सूर्योदय पर रविवार है
तो २४ घंटे बाद चन्द्र वार = सोमवार पड़ेगा ! उस क्रम को ध्यान में रखते
हुए वार का नामांकन किया गया है
नक्षत्र –अनेक
तारो के विशिष्ट आक्रति वाले पुंज को नक्षत्र कहा जाता है आकाश में जो
असंख्या तारा मंडल जो दिखाई पड़ते है वे ही नक्षत्र कहे जाते है ज्योतिष में
नक्षत्र का एक विशेष स्थान है इस सम्पूर्ण आकाश को २७ नक्षत्रो में बाटा
गया है प्रत्येक भाग को एक नाम दिया गया है जिनके नाम व स्वामी निम्न
प्रकार है
नक्षत्र और राशि का सम्बन्ध -गणितीय
अधार पर एक नक्षत्र १३ अंश २० मिनिट का होता है तथा प्रत्येक नक्षत्र के ४
चरण होते है इस प्रकार हर नक्षत्र का प्रत्येक चरण ३ अंश २० मिनिट का होता
है इस प्रकार नक्षत्रो को राशियों के साथ निम्नवत रखा गया है
नक्षत्रो की संज्ञा –ज्योतिष में नक्षत्रो को मूल, पंचक, ध्रुव, चर, मिश्र, अधोमुख, उधर्व्मुख, दंध व त्रियाद्य्मुख नामो से जाना जाता है
मूल नक्षत्र –अश्वनी,
मघा, मूल, अश्लेषा ज्येष्ठा व रेवती ये ६ एसे नक्षत्र को मूल नक्षत्रो में
गिना जाता है इन नक्षत्रो में होने वाले बच्चो को मूल संज्ञा में ही कहा
जाता है २७ दिन के बाद ये नक्षत्र पुन आता है तब मूल की शांति कराई जाती है
ज्येष्ठा और मूल को गणङात मूल की व अश्लेषा को सर्प मूल की संज्ञा दी गयी
है
पंचक –घनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद, रेवती ये ५ नक्षत्र पंचक कहे जाते है इनमे किये गए कार्य सिद्ध नहीं होते है
ध्रुव –उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद, रेवती ये ४ नक्षत्र ध्रुव संज्ञक बताये गए है
चर –स्वाति, पुनर्वसु, श्रवण और शतभिषा ये ४ नक्षत्र चर संज्ञक है
लघु व मिश्र –हस्त, अश्वनी व पुष्य नक्षत्र लघु संज्ञक है विशाखा और कृतिका को मिश्र संज्ञक नक्षत्र माना गया है
अधोमुख –मूल
अश्लेषा विशाखा कृतिका पूर्वाफाल्गुनी पूर्वाषाढ़ा पूर्वाभाद्रपद भरणी और
मघा ये ९ नक्षत्र आते है इनमे कुआ बाबडी मकान की नीव आदि का कार्य का आरंभ
करना शुभ माना गया है
उधर्वमुख –आद्रा पुष्य श्रवण घनिष्ठा और शतभिषा ये नक्षत्र उधर्वमुख संज्ञक नक्षत्र है
दंद –यदि
रविवार को भरणी सोमवार को चित्रा मंगलवार को उत्तराषाढ़ा बुधवार को घनिष्ठा
गुरुवार को उत्तराफाल्गुनी शुक्रवार को ज्येष्ठा और शनिवार को रेवती तो उस
युग्म से बने योग को दंद संज्ञक नक्षत्र कहा जाता है
त्रियाद्य्मुख –अनुराधा हस्त स्वाति पुनर्वसु ज्येष्ठा और अश्वनी को त्रियाद्य्मुख संज्ञक नक्षत्र कहा जाता है
ज्योतिष में माह का नाम –मुख्यता
उजाले पक्ष को शुक्ल पक्ष और अधेरे पक्ष को कृष्ण पक्ष कहा जाता है दोनों
पक्षों को जोड़ कर एक माह का निर्धारण किया जाता है इसी प्रकार १२ चन्द्र
मास का एक वर्ष होता है जिसके नाम इस प्रकार है

ऊपर
बताये गए माह के नाम भी एक विशेष कारण से ही रखे गए है जिस मास की
पूर्णिमा को चित्रा नक्षत्र पड़ता है उस मास का नाम चेत माना गया है उसी
क्रम में जिस मास की पूर्णिमा को विशाखा नक्षत्र आता है वह वैशाख ही होता
है
पंचांग का अध्यन –जैसा की आपको पूर्व में
ही बताया है की पंचांग के ५ अंग होते है तिथि वार नक्षत्र योग करण ! तिथि
सूर्य से चंद्रमा के अंशो के बीच के अंतर से निकली जाती है यदि सूर्य से
चन्द्रमा के बीच की दूरी का अंतर १८० अंश से कम है तो वह शुक्ल पक्ष की
तिथि होती है जब सूर्य से चन्द्रमा के बीच का अंतर १८० अंश से ज्यादा होता
है तो वह कृष्ण पक्ष की तिथि होती है
उ० १ - मान ले यदि सूर्य सिंह राशि में १० अंश पर है और चन्द्रमा तुला में १५ अंश पर है
सूर्य के कुल अंश = १२० + १० = १३० (तालिका ०२ से)
चन्द्रमा के कुल अंश = १८० + १५ = १९५ (तालिका ०२ से)
चन्द्रमा से सूर्य का अंतर = १९५ – १३० = ६५ = शुक्ल पक्ष की ६ षष्ठी (तालिका ०१ से)
उ० २ – मान ले यदि सूर्य मिथुन राशि में १२ अंश पर और चन्द्रमा मीन राशि में १० अंश पर है
सूर्य के कुल अंश = ६० + १२ = ७२ (तालिका ०२ से)
चन्द्रमा के कुल अंश = ३३० + १० = ३४० (तालिका ०२ से)
चन्द्रमा से सूर्य का अंतर = ३४० – ७२ = २६८
चुकी यह मान १८० से ज्यादा है इसलिए २६८ – १८० = ८८ कृष्ण पक्ष ८ अष्टमी (तालिका ०१ से)
उ० ३ – मान ले यदि सूर्य तुला राशि में १७ अंश पर और चन्द्रमा कर्क में १२ अंश पर है
सूर्य के कुल अंश = १८० + १७ = १९७ (तालिका ०२ से)
चन्द्रमा के कुल अंश = ९० + १२ = १०२ (तालिका ०२ से)
चन्द्रमा से सूर्य का अंतर = १०२ – १९७ = - ९५ चुकी मान – में है इसलिए
चन्द्रमा से सूर्य का अंतर = -९५ + ३६० = २६५
चुकी यह मान १८० से ज्यादा है इसलिए २६५ – १८० = ८५ कृष्ण पक्ष ८ अष्टमी (तालिका ०१ से)
तिथियों की संज्ञा –तिथियो को ५ अलग अलग समूह में रखा गया है –

अमावस्या –
अमावस्या को ३ संज्ञाओ के रूप में जाना जाता है –
सिनी वाली – प्रातकाल से रात्रि तक की पूर्ण अमावस्या को
दर्श – चतुर्दशी तिथि से संलग्न अमावस्या को
कुहू – प्रतिपदा से युक्त अमावस्या को
कुछ तिथिया वार के साथ मिलकर अशुभ फल देने वाली होती है तथा कुछ को सिद्ध तिथि कहा जाता है जिनमें समस्त कार्य सिद्ध हो जाते है

दग्ध विष और हुतासन को अशुभ फल देने वाली तिथि ही कहा गया है
वार के विषय में विस्तार से तालिका ०४ के अनुक्रम में पूर्व में ही बताया जा चुका है
नक्षत्र –नक्षत्र
के बारे में पूर्व में ही बताया जा चुका है नक्षत्र की गडना के लिए तालिका
१० से चन्द्रमा की स्तिथि ही उस समय के नक्षत्र को प्रदर्शित करती है
उ०
४ यदि मान ले की चन्द्रमा कन्या में १७ अंश पर है तो तालिका १० से हस्त
नक्षत्र कन्या में १० अंश से २३.२० अंश तक होता है चुकी चन्द्रमा १७ अंश का
है इसलिए संगत अवधि में हस्त नक्षत्र होगा
योग –सूर्य और चन्द्रमा के मान को जोड़ कर तालिका १० से प्राप्त स्तिथि के अधार योग को ज्ञात किया जा सकता है
पूर्व में दिए गए उ० १ के अनुसार –
सूर्य के कुल अंश = १२० + १० = १३० (तालिका ०२ से)
चन्द्रमा के कुल अंश = १८० + १५ = १९५ (तालिका ०२ से)
सूर्य व चन्द्र का योग = १९४ + १३० = ३२४
तालिका २ के अनुसार ३२४ कुम्भ राशि में आता है अत तालिका १० व ०३ से ब्रह्म योग बनता है
पूर्व के दिए गए उ० २ के अनुसार –
सूर्य के कुल अंश = ६० + १२ = ७२ (तालिका ०२ से)
चन्द्रमा के कुल अंश = ३३० + १० = ३४० (तालिका ०२ से)
सूर्य व चन्द्र का योग = ७२ + ३४० = ४१२ चुकी यह ३६० से ज्यादा है
अतः ४१२ - ३६० =५२
तालिका २ के अनुसार ५२ वृषभ राशि में आता है अत तालिका १० व ०३ से सौभाग्य योग बनता है
करण –तिथि
के आधे भाग को कारण कहा जाता है प्रत्येक तिथि का मान १२ अंश अर्थात २४
होरा या घंटे होता है इसमें पूर्वार्ध के १२ घंटे या होरा का एक करण तथा
उतरार्ध के १२ घंटे या होरा का एक करण होता है शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष
में ३० तिथिया होती है तिथि व पक्ष के आधार पर करण का निर्धरण निम्न प्रकार
है

पंचांग में भद्रा का भी उल्लेख मिलता है विष्टि करण को भद्रा कहा जाता है भद्रा में कोई भी शुभ काम नहीं किया जाता है