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सोमवार, 31 मई 2021

लेख: कुंडली मिलान में गण-विचार

लेख:
कुंडली मिलान में गण-विचार
संजीव
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वैवाहिक संबंध की चर्चा होने पर लड़का-लड़की की कुंडली मिलान की परंपरा भारत में है. कुंडली में वर्ण का १, वश्य के २, तारा के ३, योनि के ४, गृह मैटरर के ५, गण के ६, भकूट के ७ तथा नाड़ी के ८ कुल ३६ गुण होते हैं.जितने अधिक गुण मिलें विवाह उतना अधिक सुखद माना जाता है. इसके अतिरिक्त मंगल दोष का भी विचार किया जाता है.
कुंडली मिलान में 'गण' के ६ अंक होते हैं. गण से आशय मन:स्थिति या मिजाज (टेम्परामेन्ट) के तालमेल से हैं. गण अनुकूल हो तो दोनों में उत्तम सामंजस्य और समन्वय उत्तम होने तथा गण न मिले तो शेष सब अनुकूल होने पर भी अकारण वैचारिक टकराव और मानसिक क्लेश होने की आशंका की जाती है. दैनंदिन जीवन में छोटी-छोटी बातों में हर समय एक-दूसरे की सहमति लेना या एक-दूसरे से सहमत होना संभव नहीं होता, दूसरे को सहजता से न ले सके और टकराव हो तो पूरे परिवार की मानसिक शांति नष्ट होती है। गण भावी पति-पत्नी के वैचारिक साम्य और सहिष्णुता को इंगित करते हैं।
ज्योतिष के प्रमुख ग्रन्थ कल्पद्रुम के अनुसार निम्न २ स्थितियों में गण दोष को महत्त्वहीन कहा गया है:
१. 'रक्षो गणः पुमान स्याचेत्कान्या भवन्ति मानवी । केपिछान्ति तदोद्वाहम व्यस्तम कोपोह नेछति ।।'
अर्थात जब जातक का कृतिका, रोहिणी, स्वाति, मघा, उत्तराफाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढा नक्षत्रों में जन्म हुआ हो।
२. 'कृतिका रोहिणी स्वामी मघा चोत्त्राफल्गुनी । पूर्वाषाढेत्तराषाढे न क्वचिद गुण दोषः ।।'
अर्थात जब वर-कन्या के राशि स्वामियों अथवा नवांश के स्वामियों में मैत्री हो।
गण को ३ वर्गों 1-देवगण, 2-नर गण, 3-राक्षस गण में बाँटा गया है। गण मिलान ३ स्थितियाँ हो सकती हैं:
1. वर-कन्या दोनों समान गण के हों तो सामंजस्य व समन्वय उत्तम होता है.
2. वर-कन्या देव-नर हों तो सामंजस्य संतोषप्रद होता है ।
३. वर-कन्या देव-राक्षस हो तो सामंजस्य न्यून होने के कारण पारस्परिक टकराव होता है ।
शारंगीय के अनुसार; वर राक्षस गण का और कन्या मनुष्य गण की हो तो विवाह उचित होगा। इसके विपरीत वर मनुष्य गण का एवं कन्या राक्षस गण की हो तो विवाह उचित नहीं अर्थात सामंजस्य नहीं होगा।
सर्व विदित है कि देव सद्गुणी किन्तु विलासी, नर या मानव परिश्रमी तथा संयमी एवं असुर या राक्षस दुर्गुणी, क्रोधी तथा अपनी इच्छा अन्यों पर थोपनेवाले होते हैं।
भारत में सामान्यतः पुरुषप्रधान परिवार हैं अर्थात पत्नी सामान्यतः पति की अनुगामिनी होती है। युवा अपनी पसंद से विवाह करें या अभिभावक तय करें दोनों स्थितियों में वर-वधु के जीवन के सभी पहलू एक दूसरे को विदित नहीं हो पाते। गण मिलान अज्ञात पहलुओं का संकेत कर सकता है। गण को कब-कितना महत्त्व देना है यह उक्त दोनों तथ्यों तथा वर-वधु के स्वभाव, गुणों, शैक्षिक-सामाजिक-आर्थिक स्थितियों के परिप्रेक्ष्य में विचारकर तय करना चाहिए।
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बुधवार, 7 अगस्त 2019

ज्योतिष / वास्तु जन्म लग्न, रोग और भोजन पात्र

ज्योतिष / वास्तु 
जन्म लग्न, रोग और भोजन पात्र -
मेष, सिंह, वृश्चिक लग्न- ताँबे के बर्तन पित्त, गुरदा, ह्रदय, श्रम भगंदर, यक्ष्मा आदि रोगों से बचायेंगे।
मिथुन, कन्या, धनु, मीन लग्न- स्टील के बर्तनों से अनिद्रा, गठिया, जोड़ दर्द, तनाव, अम्लता, आंत्र दोष की संभावना। कांसे के बर्तन लाभदायक।
वृष, कर्क, तुला लग्न - स्टील के बर्तनों से आँख, कान, गले, श्वास, मस्तिष्क संबंधी रोग हो सकते हैं। चाँदी - पीतल मिश्र धातु का प्रयोग लाभप्रद। 
मकर लग्न - किसी धातु के साथ लकड़ी के पात्र का प्रयोग वायु दोष, चर्म रोग, तिल्ली, उर्वरता, स्मरण शक्ति हेतु फायदे मन्द।
कुम्भ लग्न - स्टील पात्र लाभप्रद, मिट्टी के पात्र में केवड़ा मिला जल लाभदायक।
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शनिवार, 4 मई 2013

jyotish seekhen:

ज्योतिष ज्ञान



ज्योतिष को मुख्यता २ भागो में बाटा गया है सिद्धांत व फलित ज्योतिष ज्योतिष का वह भाग जिसमे ग्रह नक्षत्र आदि की गतियो का अवलोकन किया जाता है सिद्धांत या गणित के नाम से जाना जाता है फलित वह भाग है जिसके द्वारा ग्रह की विशेष स्तिथि को देख कर बताया जाता है की उस स्तिथि का मनुष्य पर क्या प्रभाव पड़ेगा
जातक –
अधिकतर ज्योतिष की किताबो में ये शब्द आपने देखा व पढ़ा गया है जातक शब्द व्यक्ति विशेष के लिए आता है जिसकी ज्योतिष के अधार पर गड़ना कर फलित करने की कोशिश की जाती है अर्थात वो व्यक्ति स्वयं भी हो सकता है या जिसका ज्योतिषीय विधि से विचार किया जा रहा है
पत्री –
ग्रहों की विशेष स्थिति को एक कागज पर विशेष आकृति में बनाना जिससे समय समय पर अलग अलग स्तिथि वश विचार किया जा सके पत्री कही जाती है सूक्ष्म पत्री में ग्रह की स्तिथि ही दी जाती है जबकि पूर्ण पत्रियो में ग्रह गडना के साथ साथ दशा अंतरदशा ग्रहों के शुभ अशुभ फल व जन्मदिन का पंचाग भी दिया जाता है
सम्वंतसर –
ई० काल श्री क्राइस्ट के जन्म से माना जाता है जिसका २०१० व वर्ष चल रहा है क्राइस्ट के जन्म के ३१०१ वर्ष पूर्व ही कलियुग शुरू हो चुका था वास्तविक कलियुग का आरंभ १८ फरबरी ३१०२ बी०सी० की अर्ध रात्रि को हुआ था ज्योतिष गडना के अनुसार ७ ग्रह मेष राशि में थे इसका ज्योतिष गणित में विशेष महत्व है
क्राइस्ट के जन्म के ५७ वर्ष पहले उज्जैन में विक्रमादित्य नाम के प्रतापी राजा हुए है स्कंध पुराण में लिखा गया है कि कलियुग के लगभग ३००० वर्ष बीत जाने पर विक्रमादित्य नामक राजा हुआ जिसके नाम से ही विक्रमी संवत जाना जाता है यही कारण है कि चल रहे इस्वी साल में ५७ और जोड़ दिया जाये तो वह विक्रमी सम्वत बन जाता है
क्राइस्ट के जन्म के ७८ वर्ष के बाद शालिवाहन नामक राजा हुए है जिनके नाम पर ही शक संवत का प्राम्भ हुआ अर्थात इस्वी साल में ७८ और घटा दिया जाये तो वह शक सम्वत बन जाता है

पंचांग –
पंचांग का अर्थ ही ५ अंगों का समूह है पंचाग में तिथि, वार, नक्षत्र, योग, करण आते है ज्योतिष का पूर्ण पंचाग सूर्य और चन्द्रमा की गति पर निर्भर करता है

तिथि –
सूर्य और चन्द्रमा के अंशो के अंतर से तिथियो का चयन किया जाता है तिथिया दो प्रकार की होती है शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष की तिथिया –



राशि –
प्रथ्वी जब सूर्य के चारो तरफ चक्कर लगाती है तो एक गोलाकार परिभ्रमण बन जाता है इस ३६० अंश के परिभ्रमण को गडना की सुगमता हेतु १२ भागो में विभक्त किया गया था लेकिन अनुभवों से ये पाया गया की इन १२ भागो की आपने एक अलग पहचान भी है जब भी कोई ग्रंह इन अलग अलग भागो में जाता है तो उसका अलग ही प्रभाव मनुष्य पर पड़ता है
जिस प्रकार यदि कोई मनुष्य पहेली बार किसी मार्ग पर जाता है तो अपनी वापसी के लिए कुछ स्थान को अपने ध्यान का केंद्र बना लेता है जिससे वो याद रख सके की इससे मार्ग से आये थे उसी तरह पूर्व के ज्योतिषविदो ने राशियों को अलग अलग तारा मंडलों के स्थान के अधार पर निर्धारित कर दिया था जिससे यह ज्ञात किया जा सके कि कौन सा ग्रह कब और किस तारा मंडल की तरफ को जा रहा है इन तारा मंडल के विशेष समूह को ३० – ३० अंश में विभक्त कर अलग अलग नाम दे दिये गए जिनको आजकल लोग राशि कहते है



उत्तर भारत की ज्योतिष की समस्त पत्रीयो में राशि के स्थान पर ऊपर दिए गये राशि अंको का ही प्रयोग किया जाता है ये अंक किसी भी पत्री में भाव को प्रदर्शित नहीं करते ये संबधित राशि को ही दर्शाते है जो की ऊपर बताइ गई है बहुत से नए ज्योतिष के विद्यार्थी राशि अंक को ही जातक की कुंडली का भाव समझते है जिस कारण उनके द्वारा किया गया फलित निष्प्रभावी हो जाता है
ज्योतिष में ९ ग्रहों सूर्य चन्द्रमा मंगल राहू गुरु शनि बुध केतु और शुक्र को ही विशेष महत्व दिया गया है राशियों के स्वामी और उनका सम्बन्ध कुछ इस प्रकार है


वार –
दैनिक रूप से हम लोग प्रतिदिन एक न एक दिन के नाम को जानते है जैसेकि रविवार सोमवार आदि लेकिन ये दिन एक क्रम में ही क्यों होते है क्यों सोमवार के बाद मंगल ही आता है शुक्र ही क्यों नहीं आ जाता इसका एक विशेष गणित निर्धारित है
गणितीय आधार पर सबसे दूर शनि को बताया गया है इसकी दूरी ८८ करोड मील से कुछ ऊपर ही आकी गई है अतः शनि एक परिक्रमाँ १०७५९ दिनों में पूरा कर पता है यह अवधि ३० वर्ष के बराबर होती है शनि से कम दूरी पर गुरु (ब्रहस्पति) ४८ करोड मील दूर है इस कारण ये परिक्रमा ४३३२ दिन या १२ वर्ष में पूरी करता है गुरु से कम दूरी पर मंगल जो १४ करोड मील से कुछ अधिक है इसलिए ६८६ दिनों में परिक्रमा पूरी करता है मंगल से कम दूरी इस प्रथ्वी की है जो ९ करोड मील पर है चुकी प्रथ्वी को चलायेमान नहीं मानते इस लिए यह स्थान सूर्य को दिया गया है इससे कम दूरी पर शुक्र है जो ६ करोड मील से कुछ अधिक है इस कारण ये २२४ दिन में परिक्रमा पूरी करता है शुक्र से भी कम दूरी पर बुध जो ३.५ करोड मील पर है ये ८७ दिन में अपनी परिरकमा पूरी करता है सबसे कम दूरी पर चन्द्रमा है जो लगभग २.५ लाख मील पर है ये २७ दिन में अपना परिक्रमा का काल पूरा करता है
यदि इन ग्रहों को उनके दूरवर्ती क्रम में लिखा जाये तो शनि गुरु मंगल सूर्य शुक्र बुध व चन्द्रमा आते है अहोरात्रि एक दिन और रात के युग्म को कहा जाता है अहोरात्रि में यदि अ और त्रि का विलोप कर दिया जाये तो उसको होरा कहा जाता है १ अहोरात्रि में २४ होरा होते है जिसे अग्रेजी के HOUR शब्द की संज्ञा दी गयी है
प्रलय के अंत के बाद सूर्य का उदय होता है उसके ही प्रकाश में पुन सृष्टि का जन्म होता है इसलिए पहेला होरा सूर्य का ही माना गया है उसके बाद शुक्र के बाद बुध के बाद चंद्र के बाद शनि के बाद गुरु के बाद मंगल फिर ये ही क्रम बार बार चलता है इस क्रम में २४ होरा के बाद फिर चन्द्र का होरा आता है


इस क्रम के चलते ही ठीक २४ घंटे या होरा के बाद यदि आज सूर्योदय पर रविवार है तो २४ घंटे बाद चन्द्र वार = सोमवार पड़ेगा ! उस क्रम को ध्यान में रखते हुए वार का नामांकन किया गया है

नक्षत्र –
अनेक तारो के विशिष्ट आक्रति वाले पुंज को नक्षत्र कहा जाता है आकाश में जो असंख्या तारा मंडल जो दिखाई पड़ते है वे ही नक्षत्र कहे जाते है ज्योतिष में नक्षत्र का एक विशेष स्थान है इस सम्पूर्ण आकाश को २७ नक्षत्रो में बाटा गया है प्रत्येक भाग को एक नाम दिया गया है जिनके नाम व स्वामी निम्न प्रकार है



नक्षत्र और राशि का सम्बन्ध -
गणितीय अधार पर एक नक्षत्र १३ अंश २० मिनिट का होता है तथा प्रत्येक नक्षत्र के ४ चरण होते है इस प्रकार हर नक्षत्र का प्रत्येक चरण ३ अंश २० मिनिट का होता है इस प्रकार नक्षत्रो को राशियों के साथ निम्नवत रखा गया है



नक्षत्रो की संज्ञा –
ज्योतिष में नक्षत्रो को मूल, पंचक, ध्रुव, चर, मिश्र, अधोमुख, उधर्व्मुख, दंध व त्रियाद्य्मुख नामो से जाना जाता है

मूल नक्षत्र –
अश्वनी, मघा, मूल, अश्लेषा ज्येष्ठा व रेवती ये ६ एसे नक्षत्र को मूल नक्षत्रो में गिना जाता है इन नक्षत्रो में होने वाले बच्चो को मूल संज्ञा में ही कहा जाता है २७ दिन के बाद ये नक्षत्र पुन आता है तब मूल की शांति कराई जाती है ज्येष्ठा और मूल को गणङात मूल की व अश्लेषा को सर्प मूल की संज्ञा दी गयी है

पंचक –
घनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद, रेवती ये ५ नक्षत्र पंचक कहे जाते है इनमे किये गए कार्य सिद्ध नहीं होते है

ध्रुव –
उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद, रेवती ये ४ नक्षत्र ध्रुव संज्ञक बताये गए है

चर –
स्वाति, पुनर्वसु, श्रवण और शतभिषा ये ४ नक्षत्र चर संज्ञक है

लघु व मिश्र –
हस्त, अश्वनी व पुष्य नक्षत्र लघु संज्ञक है विशाखा और कृतिका को मिश्र संज्ञक नक्षत्र माना गया है

अधोमुख –
मूल अश्लेषा विशाखा कृतिका पूर्वाफाल्गुनी पूर्वाषाढ़ा पूर्वाभाद्रपद भरणी और मघा ये ९ नक्षत्र आते है इनमे कुआ बाबडी मकान की नीव आदि का कार्य का आरंभ करना शुभ माना गया है

उधर्वमुख –
आद्रा पुष्य श्रवण घनिष्ठा और शतभिषा ये नक्षत्र उधर्वमुख संज्ञक नक्षत्र है

दंद –
यदि रविवार को भरणी सोमवार को चित्रा मंगलवार को उत्तराषाढ़ा बुधवार को घनिष्ठा गुरुवार को उत्तराफाल्गुनी शुक्रवार को ज्येष्ठा और शनिवार को रेवती तो उस युग्म से बने योग को दंद संज्ञक नक्षत्र कहा जाता है

त्रियाद्य्मुख –
अनुराधा हस्त स्वाति पुनर्वसु ज्येष्ठा और अश्वनी को त्रियाद्य्मुख संज्ञक नक्षत्र कहा जाता है

ज्योतिष में माह का नाम –
मुख्यता उजाले पक्ष को शुक्ल पक्ष और अधेरे पक्ष को कृष्ण पक्ष कहा जाता है दोनों पक्षों को जोड़ कर एक माह का निर्धारण किया जाता है इसी प्रकार १२ चन्द्र मास का एक वर्ष होता है जिसके नाम इस प्रकार है



ऊपर बताये गए माह के नाम भी एक विशेष कारण से ही रखे गए है जिस मास की पूर्णिमा को चित्रा नक्षत्र पड़ता है उस मास का नाम चेत माना गया है उसी क्रम में जिस मास की पूर्णिमा को विशाखा नक्षत्र आता है वह वैशाख ही होता है

पंचांग का अध्यन –
जैसा की आपको पूर्व में ही बताया है की पंचांग के ५ अंग होते है तिथि वार नक्षत्र योग करण ! तिथि सूर्य से चंद्रमा के अंशो के बीच के अंतर से निकली जाती है यदि सूर्य से चन्द्रमा के बीच की दूरी का अंतर १८० अंश से कम है तो वह शुक्ल पक्ष की तिथि होती है जब सूर्य से चन्द्रमा के बीच का अंतर १८० अंश से ज्यादा होता है तो वह कृष्ण पक्ष की तिथि होती है

उ० १ - मान ले यदि सूर्य सिंह राशि में १० अंश पर है और चन्द्रमा तुला में १५ अंश पर है
सूर्य के कुल अंश = १२० + १० = १३० (तालिका ०२ से)
चन्द्रमा के कुल अंश = १८० + १५ = १९५ (तालिका ०२ से)
चन्द्रमा से सूर्य का अंतर = १९५ – १३० = ६५ = शुक्ल पक्ष की ६ षष्ठी (तालिका ०१ से)

उ० २ – मान ले यदि सूर्य मिथुन राशि में १२ अंश पर और चन्द्रमा मीन राशि में १० अंश पर है
सूर्य के कुल अंश = ६० + १२ = ७२ (तालिका ०२ से)
चन्द्रमा के कुल अंश = ३३० + १० = ३४० (तालिका ०२ से)
चन्द्रमा से सूर्य का अंतर = ३४० – ७२ = २६८
चुकी यह मान १८० से ज्यादा है इसलिए २६८ – १८० = ८८ कृष्ण पक्ष ८ अष्टमी (तालिका ०१ से)

उ० ३ – मान ले यदि सूर्य तुला राशि में १७ अंश पर और चन्द्रमा कर्क में १२ अंश पर है
सूर्य के कुल अंश = १८० + १७ = १९७ (तालिका ०२ से)
चन्द्रमा के कुल अंश = ९० + १२ = १०२ (तालिका ०२ से)
चन्द्रमा से सूर्य का अंतर = १०२ – १९७ = - ९५ चुकी मान – में है इसलिए
चन्द्रमा से सूर्य का अंतर = -९५ + ३६० = २६५
चुकी यह मान १८० से ज्यादा है इसलिए २६५ – १८० = ८५ कृष्ण पक्ष ८ अष्टमी (तालिका ०१ से)

तिथियों की संज्ञा –तिथियो को ५ अलग अलग समूह में रखा गया है –


अमावस्या –
अमावस्या को ३ संज्ञाओ के रूप में जाना जाता है –
सिनी वाली – प्रातकाल से रात्रि तक की पूर्ण अमावस्या को
दर्श – चतुर्दशी तिथि से संलग्न अमावस्या को
कुहू – प्रतिपदा से युक्त अमावस्या को

कुछ तिथिया वार के साथ मिलकर अशुभ फल देने वाली होती है तथा कुछ को सिद्ध तिथि कहा जाता है जिनमें समस्त कार्य सिद्ध हो जाते है



दग्ध विष और हुतासन को अशुभ फल देने वाली तिथि ही कहा गया है
वार के विषय में विस्तार से तालिका ०४ के अनुक्रम में पूर्व में ही बताया जा चुका है


नक्षत्र –
नक्षत्र के बारे में पूर्व में ही बताया जा चुका है नक्षत्र की गडना के लिए तालिका १० से चन्द्रमा की स्तिथि ही उस समय के नक्षत्र को प्रदर्शित करती है

उ० ४ यदि मान ले की चन्द्रमा कन्या में १७ अंश पर है तो तालिका १० से हस्त नक्षत्र कन्या में १० अंश से २३.२० अंश तक होता है चुकी चन्द्रमा १७ अंश का है इसलिए संगत अवधि में हस्त नक्षत्र होगा

योग –
सूर्य और चन्द्रमा के मान को जोड़ कर तालिका १० से प्राप्त स्तिथि के अधार योग को ज्ञात किया जा सकता है

पूर्व में दिए गए उ० १ के अनुसार –
सूर्य के कुल अंश = १२० + १० = १३० (तालिका ०२ से)
चन्द्रमा के कुल अंश = १८० + १५ = १९५ (तालिका ०२ से)
सूर्य व चन्द्र का योग = १९४ + १३० = ३२४
तालिका २ के अनुसार ३२४ कुम्भ राशि में आता है अत तालिका १० व ०३ से ब्रह्म योग बनता है

पूर्व के दिए गए उ० २ के अनुसार –
सूर्य के कुल अंश = ६० + १२ = ७२ (तालिका ०२ से)
चन्द्रमा के कुल अंश = ३३० + १० = ३४० (तालिका ०२ से)
सूर्य व चन्द्र का योग = ७२ + ३४० = ४१२ चुकी यह ३६० से ज्यादा है
अतः ४१२ - ३६० =५२
तालिका २ के अनुसार ५२ वृषभ राशि में आता है अत तालिका १० व ०३ से सौभाग्य योग बनता है

करण –
तिथि के आधे भाग को कारण कहा जाता है प्रत्येक तिथि का मान १२ अंश अर्थात २४ होरा या घंटे होता है इसमें पूर्वार्ध के १२ घंटे या होरा का एक करण तथा उतरार्ध के १२ घंटे या होरा का एक करण होता है शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष में ३० तिथिया होती है तिथि व पक्ष के आधार पर करण का निर्धरण निम्न प्रकार है



पंचांग में भद्रा का भी उल्लेख मिलता है विष्टि करण को भद्रा कहा जाता है भद्रा में कोई भी शुभ काम नहीं किया जाता है

रविवार, 16 अगस्त 2009

ज्योतिष: शनि की नज़र

ज्योतिष:

: शनि की दृष्टि (साढे़ साती) 9 सितम्बर 2009 के उपरांत कन्या राशि पर

शनि किस को कष्ट देंगे किस को लाभ ?

पं. राजेश कुमार शर्मा, भृगु ज्योतिष अनुसंधान केन्द्र, सदर, मेरठ.

9 सितम्बर 2009 को शनि कन्या राशि में तथा उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में भ्रमण करेंगे तथा पूरे साल कन्या राशि में ही रहेंगे.

मत्स्य पुराण में महात्मा शनि देव का शरीर इन्द्र कांति की नीलमणि जैसी है, वे गिद्ध पर सवार है, हाथ मे धनुष बाण है एक हाथ से वर मुद्रा भी है, शनि देव का विकराल रूप भयावना भी है. शनि पापियों के लिये हमेशा ही संहारक हैं.

शनि प्रधान जातक तपस्वी और परोपकारी होता है,वह न्यायवान, विचारवान तथा विद्वान होता है,बुद्धि कुशाग्र होती है,शान्त स्वभाव होता है,और वह कठिन से कठिन परिस्थति में अपने को जिन्दा रख सकता है. सूर्य एक राशि पर एक महीने, चंद्रमा सवा दो दिन, मंगल डेढ़ महीने, बुध और शुक्र एक महीने, वृहस्पति तेरह महीने रहते हैं, शनि किसी राशि पर साढ़े सात वर्ष (साढ़े साती) तक रहते है.

शनि की कुदृष्टि से राजाओं तक का वैभव पलक झपकते ही नष्ट हो जाता है. शनि की साढ़े साती दशा जीवन में नेक दु:खों, विपत्तियों का समावेश करती है. अत:, मनुष्य को शनि की कुदृष्टि से बचने के लिए शनिवार का व्रत करते हुए शनि देवता की पूजा-अर्चना करनी चाहिए.

मेष: मेष राशि के जातकों के लिए शनि छठे भाव में आए हैं. शत्रु, बीमारी तथा कर्जे से मुक्ति मिलेगी. वैवाहिक जीवन का आनंद उठाएंगे तथा धन प्राप्ति के योग बनेंगे.

वृष: शनि पंचम भाव में विचरण करेंगे. विवादों एवं झूठे प्रत्यारोप धन हानि की ओर संकेत देते हैं. मानसिक तनाव के साथ-साथ संतान से मतभेद की स्थिति आ सकती है.

मिथुन: शनि की लघु कल्याणी ढैया चलेगी. पारिवारिक विवादों असंतुष्टि आर्थिक हानि के साथ-साथ खर्चों में वृद्धि से परेशानी बनेगी। विवाद तथा खिन्नता रहेगी.

कर्क: तृतीय भाव में शनि सफलता, आनंद, उत्सव, नौकरी अथवा व्यापार में उन्नति के साथ-साथ धन लाभ के योग बनेंगे. शत्रुओं की पराजय के साथ-साथ सम्मान के पात्र भी बनेंगे.

सिंह: स्वास्थ्य में कमी, धन हानि विवादों तथा अनावश्यक खर्चों से परेशानी का अनुभव होगा. मानसिक अशांति, पत्नी के स्वास्थ्य में गिरावट, शत्रु बाधा से परेशानी अनुभव करेंगे. शनि साढ़े साती की अंतिम ढैया से भी परेशानी एवं धन हानि के योग बनेंगे.

कन्या: शनि साढ़े साती मध्य में रहेगी. पारिवारिक सदस्यों के स्वास्थ्य में कमी के कारण परेशानी होगी. शत्रुओं से भय प्राप्त, सम्मान हानि के योग बनेंगे. प्रयासों में असफलता तथा खर्चों में बढ़ोत्तरी के कारण परेशान रहेंगे.

तुला: शनि साढ़ेसाती की प्रथम ढैया रहेगी. दुर्घटना से खतरा रहेगा. परिवार में विवाद-कानूनी विवाद उत्पन्न हो सकते हैं.

वृश्चिक: धन लाभ के साथ-साथ स्थाई सम्पत्ति का लाभ प्राप्त होने के योग बनेंगे. सम्मान उन्नति के अवसर प्राप्त होंगे और पारिवारिक प्रसन्नता रहेगी.

धनु: बीमारी तथा परिवार में अशान्ति बनने से खिन्नता रहेगी. धन हानि के संकेत भी हैं. विवादों से बचें. सम्मान में कमी का अनुभव करेंगे.

मकर: आय में कमी तथा शत्रु बाधा से परेशानी होगी. प्रयासों में असफलता से खिन्नता का अनुभव करेंगे. विवादों तथा झगड़े झंझटों से बचना बेहतर रहेगा.

कुंभ: परिवार में विवाद, स्वास्थ्य में गिरावट, पत्नी को कष्ट रिश्तेदारों से अनबन तथा निन्दा के पात्र बनेंगे. असफलता के कारण खिन्नता, शत्रुओं द्वारा नुकसान की संभावना रहेगी. शनि की अष्टम लघु कल्याणी ढैया बड़ी परेशानी का कारण बन सकती है.

मीन: परिवार में अलगाव खर्च में बढ़ोतरी से परेशानी, स्वास्थ्य में कमी तथा सदूर कष्टदायी यात्रा का योग है. पत्नी का स्वास्थ्य भी प्रभावित हो सकता है.

शनि की अशुभता जानने के लिये जन्म पत्रिका में शनि की स्थिति को देखा जाता हैं जिन व्यक्तियों कि जन्म पत्रिका में शनि (6.8.12) भावो का स्वामी होकर निर्बल हो मारकेश हो चतुर्थेश व पंचमेश होकर स्थिति में हों नीच राशीगत हों शत्रु राशीगत हो वक्री व अस्त हो बलहीन हो उन्हें शनि के अशुभ फल प्रप्त होते है. शनि के कष्टो से छुटकारा पाने के लिये शनि को प्रसन्न करने के लिये अनेक उपायो का वर्णन ज्योतिष शास्त्रो एवं हिन्दू धर्मग्रन्थो में मिलते हैं. शनि की अनुकूलता के ‍लिये हमारे ग्रर्न्थो मे अनेक स्तोत्र मन्त्र टोटकें पूजा दान आदि अनेक उपाय हैं.

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मंगलवार, 21 जुलाई 2009

विशेष लेख : संगीता पुरी

vishesh

पृथ्‍वी के जड चेतन पर सूर्य या चंद्रग्रहण के प्रभाव का क्‍या है सच ???????


आप दुनिया को जिस रूप में देख पाते हैं, उसी रूप में उसका चित्र उतार पाना मुश्किल होता है, चाहे आप किसी भी साधन से कितनी भी तन्‍मयता से क्यों न कोशिश करें? इसका मुख्‍य कारण यह है कि आप हर वस्‍तु को देखते तो त्रिआयामी हैं, यानि हर वस्‍तु की लंबाई और चौडाई के साथ साथ ऊंचाई या मोटाई भी होती है, पर चित्र द्विआयामी ही ले पाते हैं, जिसमें वस्‍तु की सिर्फ लंबाई और चौडाई होती है। इसके कारण किसी भी वस्‍तु की वास्‍तविक स्थिति दिखाई नहीं देती है।



इसी प्रकार जब हम आकाश दर्शन करते हैं, तो हमें पूरे ब्रह्मांड का त्रिआयामी दर्शन होता है । प्राचीन गणित ज्‍योतिष के सूत्रों में सभी ग्रहों की आसमान में स्थिति का त्रिआयामी आकलण ही किया जाता है, इसी कारण सभी ग्रहों के अपने पथ से विचलन के साथ ही साथ सूर्य के उत्‍तरायण और दक्षिणायण होने की चर्चा भी ज्‍योतिष में की गयी है। पर ऋषि-महर्षियों ने जन्‍मकुंडली निर्माण से लेकर भविष्‍य-कथन तक के सिद्धांतों में कहीं भी आसमान के त्रिआयामी स्थिति को ध्‍यान में नहीं रखा है । इसका अर्थ यह है कि फलित ज्‍योतिष में आसमान के द्विआयामी स्थिति भर का ही महत्‍व है। शायद यही कारण है कि पंचांग में प्रतिदिन के ग्रहों की द्विआयामी स्थिति ही दी होती है। ‘गत्‍यात्‍मक ज्‍योतिष’ भी ग्रहों के पृथ्‍वी के जड चेतन पर पडने वाले प्रभाव में ग्रहों की द्विआयामी स्थिति को ही स्‍वीकार करता है। इस कारण सूर्यग्रहण या चंद्रग्रहण से प्रभावित होने का कोई प्रश्‍न ही नहीं उठता ?



हम सभी जानते हैं कि आसमान में प्रतिमाह पूर्णिमा को सूर्य और चंद्र के मध्‍य पृथ्‍वी होती है, जबकि अमावस्‍या को पृथ्‍वी और सूर्य के मध्‍य चंद्रमा की स्थिति बन जाती है, लेकिन इसके बावजूद प्रतिमाह सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण नहीं होता। इसका कारण भी यही है। आसमान में प्रतिमाह वास्‍तविक तौर पर पूर्णिमा को सूर्य और चंद्र के मध्‍य पृथ्‍वी और हर अमावस्‍या को पृथ्‍वी और सूर्य के मध्‍य चंद्रमा की स्थिति नहीं बनती है । यह तो हमें मात्र उस चित्र में दिखाई देता है, जो द्विआयामी ही लिए जाते हैं। इस कारण एक पिंड की छाया दूसरे पिंड पर नहीं पडती है। जिस माह वास्‍तविक तौर पर ऐसी स्थिति बनती है, एक पिंड की छाया दूसरे पिंड पर पडती है और इसके कारण सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण होते है।



सूर्यग्रहण के दिन चंद्रमा सूर्य को पूरा ढंक लेता है, जिससे उसकी रोशनी पृथ्‍वी तक नहीं पहुंच पाती, तो दूसरी ओर चंद्रग्रहण के दिन पृथ्‍वी सूर्य और चंद्रमा के मध्‍य आकर सूर्य की रोशनी चंद्रमा पर नहीं पडने देती है । सूर्य और चंद्र की तरह ही वास्‍तविक तौर पर समय-समय पर अन्‍य ग्रहों की भी आसमान में ग्रहण सी स्थिति बनती है, जो विभिन्‍न ग्रहों की रोशनी को पृथ्‍वी तक पहुंचने में बाधा उपस्थित करती है। पर चूंकि अन्‍य ग्रहों की रोशनी से जनसामान्‍य प्रभावित नहीं होते हैं, इस कारण वे सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण की तरह उन्‍हें साफ दिखाई नहीं देते। यदि ग्रहणों का प्रभाव पडता, तो सिर्फ सूर्य और चंद्र ग्रहण ही प्रभावी क्यों होता, अन्‍य ग्रहण भी प्रभावी होते और प्राचीन ऋषियों-महर्षियों के द्वारा उनकी भी कुछ तो चर्चा की गयी होती ।



अन्‍य ग्रहों के ग्रहणों का किसी भी ग्रंथ में उल्‍लेख नहीं किए जाने से यह स्‍पष्‍ट है कि किसी भी ग्रहण का कोई ज्‍योतिषीय प्रभाव जनसामान्‍य पर नहीं पडता है। सूर्य के उदय और अस्‍त के अनुरूप ही पशुओं के सारे क्रियाकलाप होते हैं, इसलिए अचानक सूर्य की रोशनी को गायब होते देख उनलोगों का व्‍यवहार असामान्‍य हो जाता है, जिसे हम ग्रहण का प्रभाव मान लेते हैं । लेकिन चिंतन करनेवाली बात तो यह है कि यदि ग्रहण के कारण जानवरों का व्‍यवहार असामान्‍य होता तो वह सिर्फ सूर्यग्रहण में ही क्यों होता? चंद्रग्रहण के दिन भी तो उनका व्‍यवहार असामान्‍य होना चाहिए था । पर चंद्रग्रहण में उन्‍हें कोई अंतर नहीं पडता है, क्योंकि अमावस्‍या के चांद को झेलने की उन्‍हें आदत होती है।



वास्‍तव में ज्‍योतिषीय दृष्टि से अमावस्‍या और पूर्णिमा का दिन ही खास होता है। यदि इन दिनों में किसी एक ग्रह का भी अच्‍छा या बुरा साथ बन जाए तो अच्‍छी या बुरी घटना से जनमानस को संयुक्‍त होना पडता है। यदि कई ग्रहों की साथ में अच्‍छी या बुरी स्थिति बन जाए तो किसी भी हद तक लाभ या हानि की उम्‍मीद रखी जा सकती है। ऐसी स्थिति किसी भी पूर्णिमा या अमावस्‍या को हो सकती है, इसके लिए उन दिनों में ग्रहण का होना मायने नहीं रखता पर पीढी दर पीढी ग्रहों के प्रभाव के ज्ञान की यानि ज्‍योतिष शास्‍त्र की अधकचरी होती चली जानेवाली ज्‍योतिषीय जानकारियों ने कालांतर में ऐसे ही किसी ज्‍योतिषीय योग के प्रभाव से उत्‍पन्‍न हुई किसी अच्‍छी या बुरी घटना को इन्‍हीं ग्रहणों से जोड दिया हो। इसके कारण बाद की पीढी इससे भयभीत रहने लगी हो। इसलिए समय-समय पर पैदा हुए अन्‍य मिथकों की तरह ही सूर्य या चंद्र ग्रहण से जुड़े सभी अंधविश्वासी मिथ गलत माने जा सकते है। यदि किसी ग्रहण के दिन कोई बुरी घटना घट जाए, तो उसे सभी ग्रहों की खास स्थिति का प्रभाव मानना ही उचित होगा, न कि किसी ग्रहण का प्रभाव।

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