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बुधवार, 3 मई 2017

lekh

सामयिक लेख
विवाह, हम और समाज
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अत्यंत तेज परिवर्तनों के इस समय में विवाह हेतु सुयोग्य जीवनसाथी खोजना पहले की तुलना में अधिक कठिन होता जा रहा है. हर व्यक्ति को समय का अभाव है. कठिनाई का सबसे बड़ा कारन अपनी योग्यता से बेहतर जीवन साथी की कामना है. पहले वर और वरपक्ष को कन्या पसंद आते ही विवाह निश्चित हो जाता था. अब ऐसा नहीं है. अधिकाँश लडकियाँ सुशिक्षित और कुछ नौकरीपेशा भी हैं. शिक्षा के साथ उनमें स्वतंत्र सोच भी होती है. इसलिए अब लड़के की पसंद के समान लडकी की पसंद भी महत्वपूर्ण है.

नारी अधिकारों के समर्थक इससे प्रसन्न हो सकते हैं किन्तु वैवाहिक सम्बन्ध तय होने में इससे कठिनाई बढ़ी है, यह भी सत्य है. अब यह आवश्यक है की अनावश्यक पत्राचार और समय बचाने के लिए विवाह सम्बन्धी सभी आवश्यक सूचनाएं एक साथ दी जाएँ ताकि प्रस्ताव पर शीघ्र निर्णय लेना संभव हो.

१. जन्म- जन्म तारीख, समय और स्थान स्पष्ट लिखें, यह भी कि कुंडली में विश्वास करते हैं या नहीं? केवल उम्र लिखना पर्याप्त नहीं होता है.

२. शिक्षा- महत्वपूर्ण उपाधियाँ, डिप्लोमा, शोध, प्रशिक्षण आदि की पूर्ण विषय, शाखा, प्राप्ति का वर्ष तथा संस्था का नाम भी दें. यदि आप किसी विशेष उपाधि या विषय में शिक्षित जीवन साथ चाहते हैं तो स्पष्ट लिखें.

३. शारीरिक गठन- अपनी ऊँचाई, वजन, रंग, चश्मा लगते हैं या नहीं, रक्त समूह, कोई रोग (मधुमेह, रक्तचाप, दमा आदि) हो तो उसका नाम आदि जानकारी दें. आरम्भ में जानकारी छिपा कर विवाह के बाद सम्बन्ध खराब होने से बेहतर है पहले जानकारी देकर उसी से सम्बन्ध हो जो सत्य को स्वीकार सके.

४. आजीविका- अपने व्यवसाय या नौकरी के सम्बन्ध में पूरी जानकारी दें. कहाँ, किस तरह का कार्य है, वेतन-भत्ते आदि कुल वार्षिक आय कितनी है? कोई ऋण लिया हो और उसकी क़िस्त आदि कट रही हो तो छिपाइए मत. अचल संपत्ति, वाहन आदि वही बताइये जो वास्तव में आपका हो. सम्बन्ध स्वीकारने वाला पक्ष आपकी जानकारी को सत्य मानता है. बाद में पाता चले की आपके द्वारा बाते मकान आपका नहीं पिताजी का है, वाहन भाई का है, दूकान सांझा कई तो वह ठगा सा अनुभव करता है. इसलिए जो भी हो स्थिति हो स्पष्ट कर दें

५. पसंद- यदि जीवन साथी के समबन्ध में आपकी कोई खास पसंद हो तो बता दें ताकि अनुकूल प्रस्ताव पर ही बात आगे बढ़े.

६. दहेज- दहेज़ की माँग क़ानूनी अपराध, सामाजिक बुराई और व्यक्तिगत कमजोरी है. याद रखें दुल्हन ही सच्चा दहेज है. दहेज़ न लेने पर नए सम्बन्धियों में आपकी मान-प्रतिष्ठा बढ़ जाती है. यदि आप अपनी प्रतिष्ठा गंवा कर भी पराये धन की कामना करते है तो इसका अर्थ है कि आपको खुद पर विश्वास नहीं है. ऐसी स्थिति में पहले ही अपनी माँग बता दें ताकि वह सामर्थ्य होने पर ही बात बढ़े. सम्बन्ध तय होने के बाद किसी बहाने से कोई माँग करना बहुत गलत है. ऐसा हो तो समबन्ध ही नहीं करें.

७. चित्र- आजकल लडकियों के चित्र प्रस्ताव के साथ ही भेजने का चलन है. चित्र भेजते समय शालीनता का ध्यान रखें. चश्मा पहनते हैं तो पहने रहें. विग लगाते हों तो बता दें. बहुत तडक-भड़क वाली पोशाक न हो बेहतर.

८. भेंट- बात अनुकूल प्रतीत हो और दुसरे पक्ष की सहमती हो तो प्रत्यक्ष भेंट का कार्यक्रम बनाने के पूर्व दूरभाष या चलभाष पर बातचीत कर एक दुसरे के विचार जान लें. अनुकूल होने पर ही भेंट हेतु जाएँ या बुलाएँ. वैचारिक ताल-मेल के बिना जाने पर धन और समय के अपव्यय के बाद भी परिणाम अनुकूल नहीं होता.

९. आयोजन- सम्बन्ध तय हो जाने पर 'चाट मंगनी पट ब्याह' की कहावत के अनुसार 'शुभस्य शीघ्रं' दोनों परिवारों के अनुकूल गरिमापूर्ण आयोजन करें. आयोजन में अपव्यय न करें. सुरापान, मांसाहार, बंदूक दागना आदि न हो तो बेहतर. विवाह एक सामाजिक, पारिवारिक तथा धार्मिक आयोजन होता है जिससे दो व्यक्ति ही नहीं दो परिवार, कुल और खानदान भी एक होते हैं. अत: एक दूसरे की भावनाओं का सम्मान करते हुए आयोजन को सादगी, पवित्रता और उल्लास के वातावरण में पूर्ण करें
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गुरुवार, 7 जुलाई 2016

विवाह शुभकामना

'तन्वी-अनुगम' परिणय पर्व पर शुभाशीष

आत्मजा कल्पना-प्रमोद भट्ट आत्मज आभा-प्रभाकर गोस्वामी
*

श्री गणेश-कुलदेवता, मंगल करिये आज
संग द्वारकाधीश आ, पूर्ण कीजिये काज
*
गुंजित 'मानस भवन' में, मधुर गीत-संगीत 
संस्कार-संबंध शुभ, हर मन पलती प्रीत
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शाम 'श्यामला हिल्स' पर, प्रीति-भोज लख मुग्ध
'अभिजीत' पल में हो गयी, हर भव-बाधा दग्ध
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'तन्वी' से भुज-हार ले,'अनुगम' दे गल-हार 
'रत्नाक'र की 'प्रभा' लख, दिल बैठे दिल हार 
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'बल्लभ रसिक' पधारकर, नेह 'निर्मला' गंग 
बहा रहे पल-पल मुदित, प्रवहित प्रेम-तरंग 
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'सुमन-नागभूषण' विहँस, दें आशीष बिखेर 
पा 'प्रमोद' को 'प्रभाकर', गले मिलें बिन देर 
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'आभा' को भर बाँह में, हुई 'कल्पना' मौन 
जीवन-निधि सौंपी पुलक, सुख-दुःख जाने कौन?
*
'पूजा' कर 'श्रीनाथ' की, 'अतुल' 'सुयश' पा धन्य
'किरण' 'अनुपमा' 'पूर्णिमा', 'चित्रा' मुदित अनन्य
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'स्तुति' 'सार्थक' 'अमृत'मयी, 'रचना' करें 'बृजेश'
'शुभ्रा'-'आकांक्षा' करें, पूरी श्री मथुरेश
*
कण-कण 'कृष्ण अनंत' लख, 'संजय' 'अंशुल' संग 
'पीहू' 'पूर्वा' को लिए, नाचें दुनिया दंग 
*
'गौतम' 'आरोही' मगन, 'गौरव' अनुपम देख
पुलक 'अनुष्का' डालती, द्वार अल्पना-रेख 
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बुध-जन का आशीश ही. हो निश्चय ताम्बूल
सगा सगाई बना दे, दे अद्वैत के फूल 
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सत्यम् स्वागत, 'शिवम्' है, पाणिग्रहण संबंध 
विदा सुंदरम् रॉयली, प्रिय अटूट अनुबंध 
*
शहनाई की गूँज में, हो तन-मन से एक 
'तन्वी-अनुगम' सुखी हों, कार्य करें मिल नेक 
*
'सलिल'-'साधना' स्नेह की, कर होना 'संजीव'
नेह-नर्मदा में खिलें, मुकुलित मन-राजीव 


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शुक्रवार, 25 मार्च 2016

aanuwanshik vivah

स्वास्थ्य और समाज-
मुस्लिम बहुल देश ताजिकिस्तान में आनुवंशिक विवाह प्रतिबंधित  

मुस्लिम समाज में आनुवंशिक विवाह (चचेरे, फुफेरे, ममेरे, मौसेरे भाई-बहनों में विवाह) की परंपरा चिर काल से है सनातन धर्मियों में एक परिवार, एक खानदान, एक वंश, एक कुल, एक गोत्र, एक गाँव, एक गुरुकुल के युवाओं में तथा अपने से उच्च वर्ण की कन्या से  विवाह विविध समय में वर्जित रहे हैं पिताक्षर प्रणाली के अनुसार पिता की ७ पीढ़ियों तथा मिताक्षर प्रणाली के अनुसार मत की ५ पीढ़ियों में विवाह वर्जित बताया गया है आदिवासी समाज में भी समगोत्रीय विवाह वर्जित रहे हैं। ईसाई भी आनुवांशिक विवाह उचित नहीं मानते। 


भारत में विविध कारणों से विवाह सम्बन्धी नियम भंग करने के अनेक अपवाद हैं किन्तु उनके परिणाम अधिकतर दुखद रहे हैं विवाह नियमों को लेकर समाजशास्त्र, विधिशास्त्र, नीतिशास्त्र तथा धर्मशास्त्र में चर्चा स्वाभाविक है विवाह में मन का मिलन हो न हो,  तन का मिलन तो होता ही है और उसका परिणाम संतान उत्पत्ति के रूप में सामने आता है। इसलिए आनुवंशिकी (जिनेटिक्स साइंस) के अंतर्गत विविध विवाह प्रणालियों एवं उनके परिणामों का अध्ययन किया जाता है 



   

ताज़िकिस्तान चीन, अफगानिस्तान, किर्गिस्तान और उज्बेकिस्तान से घिरा हुआ, मध्य एशिया का सबसे गरीब देश है आनुवंशिकी विवाह पर रोक लगाने के ताज़िकिस्तान के फैसले ने दुनिया को चौंकाया और मुस्लिम बहुल देशों व इस्लाम धर्मावलम्बियों के बीच बहस को तेज किया है१३जनवरी २०१६ को ताज़िकिस्तानी संसद ने देश में कॉन्सेंग्युनियस विवाह (आनुवंशिक या रक्त संबंधियों से विवाह) पर प्रतिबंध लगाकर दुनिया को चकित कर दिया। दुनिया के मुस्लिम बहुल देशों में कॉन्सेंग्युनियस विवाह मजहब तथा समाज से सामान्यत: स्वीकृत प्रथा हैताज़िकिस्तानी स्वास्थ्य विभाग ने माना है कि कॉन्सेंग्युनियस विवाह से पैदा होने वाले बच्चों में आनुवंशिक रोग होने की संभावनाएँ अधिक होती हैं एक अध्ययन के अनुसार २५ हजार से अधिक विकलांग बच्चों का पंजीकरण और उनका अध्ययन करने के बाद इनमें से ३५% आनुवंशिक विवाह से उत्पन्न पाये गये हैं

एशिया, उत्तरी अफ्रीका, स्विट्ज़रलैंड, मध्यपूर्व, और चीन, जापान और भारत के कई क्षेत्रों में कॉन्सेंग्युनियस सामान्यत: प्रचलित हैं कई देशों में आनुवंशिक विवाह आंशिक रूप से प्रतिबंधित है कुछ अमरीकी राज्यों में संतान उत्पत्ति में असमर्थ अथवा ६५ वर्ष से अधिक उम्र के पश्चात अनुवांशिक विवाह की अनुमति है ब्रिटेन में पाकिस्तानी मूल के ३% बच्चे जन्म लेते हैं किन्तु १३% आनुवंशिक रोग से पीड़ित हैं। अध्ययनों के अनुसार आनुवंशिक संतानों में आनुवंशिक रोगों की संभावनाएँ कई गुना अधिक होती हैं ब्रिटेन के ब्रैडफोर्ड में किये गये अध्ययन के अनुसार कुल जनसंख्या में से १७% पाकिस्तानी मुस्लिमों में से ७५% प्रतिशत अपने समुदाय में चचेरे, ममेरे, फुफेरे, मौसेरे भाई/बहनों से विवाह करते हैंइनके बच्चों में से कई आनुवंशिक रोगों से ग्रस्त हैं
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दक्षिण भारत में आनुवंशिक विवाह प्रथा के कारण बच्चों में कई तरह के रोग हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय के अंतर्गत इस विषय पर शोधरत  आंध्र प्रदेश निवासी बिंदु शॉ के अनुसार भारत में ऐसे शोध नगण्य हैं। बिंदु ने आनुवंशिक विवाह करनेवाले २०० परिवारों का अध्ययन किया जिनमें से ९७ परिवारों के बच्चे आनुवंशिक रोग से पीड़ित थे चचेरे, ममेरे, फुफेरे, मौसेरे भाई/बहनों से विवाह की तुलना में मामा से शादी होने पर बच्चों में इस तरह के विकार अधिक संभावित हैं।इस शोध के अनुसार अपने रक्तसंबंधियों से विवाह करने पर पति-पत्नी दोनों के कई जीन एक समान होते हैं माता-पिता के जीन में कोई विकार हो तो उनके बच्चे में पहुँची विकृत जीन की दो प्रतियाँ आनुवंशिक रोग का कारण बनती हैं समुदाय से बाहर शादी होने पर जीन की भिन्नता के कारण बच्चों में विकृत जीन पहुँचने की संभावना नगण्य होती है। बिंदु के निकट संबंधी ऐसे विवाहों के कारण आनुवंशिक रोगों का शिकार हुए जिससे उन्हें इस विषय पर शोध की प्रेरणा मिली। 

आनुवंशिक विवाह के कई दुष्परिणामों जानने के बाद भी इनके प्रचलन का कारण धार्मिक मान्यताओं से ज्यादा सामाजिक पहलू हैं संबंधियों से शादी होने पर संपत्ति का विभाजन न होना, लड़कियों की सुरक्षा तथा समान रीति-रिवाज़, खान-पान, जीवन शैली व त्यौहार आदि से ताल-मेल में सहजता भी इसके कारण हैं बच्चे बहुत छोटी उम्र से ही अपने चचेरे, ममेरे, फुफेरे, मौसेरे भाई-बहनों के साथ मिलते-जुलते, खेलते-कूदते और साथ-साथ बड़े होते हैं उनकी आपसी समझ अच्छी होती है। आनुवंशिक विवाह वर्जित माननेवाले समुदायों में बच्चों में अनुराग भाव विकसित नहीं होता, राखी और भाई दूज जैसे पर्व सनातनधर्मियों में वंश से बाहर के युवाओं में विवाह संबंध अमान्य कर देते हैं। आनुवंशिक विवाह माननेवाले परिवारों के बच्चों में अन्य चचेरे, ममेरे, फुफेरे, मौसेरे भाई-बहनों के प्रति लगाव पनपना स्वाभाविक है  
   
ताजिकिस्तान में लिए गए निर्णय के विरोधी आनुवंशिक विवाह के पक्षधर अनुवांशिक विवाहों से आनुवांशिक रोगों संबंधी तथ्य को बढ़ा-चढ़ाकर बताया गया मानते हुए और अधिक आंकड़े चाहते हैं।इनके अनुसार आनुवंशिक विवाह से होने वाले बच्चों के बीमार होने की उतनी ही संभावना ४० वर्ष से अधिक उम्र की महिला के माँ बनने पर उसके बच्चे के बीमार होने के समान होती हैं।इनकी आपत्ति है कि जब किसी ४० वर्ष से अधिक उम्र की महिला के माँ बनने पर रोक नहीं है तो फिर आनुवंशिक विवाह पर रोक क्यों हो? चिकित्सा विज्ञान के जानकार ताजिकिस्तान के इस फैसले का स्वागत कर रहे हैं

गुरुवार, 25 फ़रवरी 2016

वैवाहिक सूची १

CHITRASHEESH VIVAH SANSTHAN : ETERNAL  KAYASTHA  AFFENITY JABALPUR

MATRIMONOAL   LIST:  1

BOYS:

1.       Dr. Vaidik shrivastava, 13-9-1985, 9.35 PM, akola maharasgtra, MD Pathology,  Practising Surat. Contact- sanjayshri1234@gmail.com

2.       Dr. Saxena, 19-2-1980, 23.31PM, Rajgarh  MP,  MPT, Practising Bhopal. Contact-  R.C.Saxena Retd. Dy. Collector,  rcs4938@gmail.com

3.       K. S. Shrivastava, 27-8-1986, 10.45 AM, Ranchi, 5’9”, BE Electrical, Manager Reliance Infrastructures Ltd. Hisar, 8.50 Lakh annually. Contact- Surendra Mohan Shrivastav 13/A Nlanda Nagr, Nari Road, Nagpur 26 M. 9823666739 / 9372206821.

4.       Sahai, 2-12-1984, 20.45 Pm, Rupnarayanpur W. Bengal, 6’1”, BTech, MBA, PGDM, Marketing Professional Tata Steel Nagpur, 20-25 Lakh, Non Veg. Contact- ranjan Sahay 9422064120 / 0712 2512907, ranjansahai@rediffmail.com.  

5.       Kayastha, 27-8-1986, 6’1”, BA, MBA, PGDM, Marketing professional Airtel, 20-27 lakh, Non veg, o+. Contact- 9793269000, surabhi.ranjan@gmail.com.

6.       Pankaj, 1-3-1988, 5.30 AM, kalian Mumbai, 6’, CA, Mumbai, Contact- 9987648127 / 9987648471.
7.       Shantanu Khare, 6-8-1986, 10 AM, Sagar MP, 5’10”, BE Computer Sc., MBA Marketing, Senior Manager JPCement  Jabalpur , 8 Lakh. Contact-  S K Khare 9425984904 / 9893455764.

8.       Rochak Sahai, 13-8-1987, 15.30 PM, Jabalpur MP, 5’8”, BE, TCS Maxico. Contact- nikunj_stv@rediffmail.com / sahai.prashant@gmail.com.

9.       Vishal Shrivastava, 22-2-1983, 3.04 AM, Raipur, 5’9”, B com, MBA, Share marketing, 2.5 – 3.0 Lakh. Contact 9755311800.


10.   Priyanshu Sahai, 22-2-1986, 10.30.PM, 5’5”, Gwalior, BEIT, In Pvt. Co. at Pune, 6 Lakh. Contact Alkendra sahai, Jiwajiganj, Argade ka Bada, Near Police Station, Gwalior 9425110780.               

शुक्रवार, 7 नवंबर 2014

gotr aur vivah

एक गोत्र में शादी क्यों नही होती है ....

वैज्ञानिक कारण हैं.. एक दिन डिस्कवरी पर जेनेटिक
बीमारीयों से सम्बन्धित एक ज्ञानवर्धक कार्यक्रम देख रहा था ... उस प्रोग्राम में एक
अमेरिकी वैज्ञानिक ने कहा की जेनेटिक बीमारी न हो इसका एक ही इलाज है और
वो है "सेपरेशन ऑफ़ जींस".. मतलब अपने नजदीकी रिश्तेदारो में विवाह नही करना चाहिए ..
क्योकि नजदीकी रिश्तेदारों में जींस सेपरेट नही हो पाता और
जींस लिंकेज्ड बीमारियाँ जैसे हिमोफिलिया, कलर ब्लाईंडनेस, और एल्बोनिज्म होने की १००% चांस होती है ..
फिर मुझे बहुत ख़ुशी हुई जब उसी कार्यक्रम में ये दिखाया गया की आखिर हिन्दूधर्म में करोड़ो सालो पहले जींस और डीएनए के बारे में कैसे
लिखा गया है ? हिंदुत्व में कुल सात गोत्र होते है
और एक गोत्र के लोग आपस में शादी नही कर सकते ताकि जींस सेपरेट रहे.. उस वैज्ञानिक ने कहा की आज पूरे विश्व को मानना पड़ेगा की हिन्दूधर्म ही विश्व का एकमात्र
ऐसा धर्म है जो "विज्ञान पर आधारित" है !
गर्व से कहे हम हिन्दू है.
जय सनातन, जय हिन्द

शनिवार, 23 अगस्त 2014

vimarsh: varmaal ya jaymaal kyon??? -sanjiv

अनावश्यक कुप्रथा: वरमाल या जयमाल???

संजीव 

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आजकल विवाह के पूर्व वर-वधु बड़ा हार पहनाते हैं। क्यों? इस समय वर के मिटे हुल्लड़ कर उसे उठा लेते हैं ताकि वधु माला न पहना सके। प्रत्युत्तर में वधु पक्ष भी यही प्रक्रिया दोहराता है। 

दुष्परिणाम:

वहाँ उपस्थित सज्जन विवाह के समर्थक होते हैं और विवाह की साक्षी देने पधारते हैं तो वे बाधा क्यों उपस्थित करते हैं? इस कुप्रथा के दुपरिणाम देखने में आये हैं, वर या वधु आपाधापी में गिरकर घायल हुए तो रंग में भंग हो गया और चिकित्सा की व्यवस्था करनी पडी। सारा कार्यक्रम गड़बड़ा गया. इस प्रसंग में वधु को उठाते समय उसकी साज-सज्जा और वस्त्र अस्त-व्यस्त हो जाते हैं. कोई असामाजिक या दुष्ट प्रकृति का व्यक्ति हो तो उसे छेड़-छाड़ का अवसर मिलता है. यह प्रक्रिया धार्मिक, सामाजिक या विधिक (कानूनी) किसी भी दृष्टि से अनिवार्य नहीं है.

औचित्य:

यदि जयमाल के तत्काल बाद वर-वधु में से किसी एक का निधन हो जाए या या किसी विवाद के कारण विवाह न हो सके तो क्या स्थिति होगी? सप्तपदी, सिंदूर दान या वचनों का आदान-प्रदान न हुआ तो क्या केवल माला को अदला-बदली को विवाह माना जायेगा?हिन्दू विवाह अधिनियम ऐसा नहीं मानता।ऐसी स्थिति में वधु को वर की पत्नी के अधिकार और कर्तव्य (चल-अचल संपत्ति पर अधिकार, अनुकम्पा नियुक्ति या पेंशन, वर का दूसरा विवाह हो तो उसकी संतान के पालन-पोषण का अधिकार) नहीं मिलते।सामाजिक रूप से भी उसे अविवाहित माना जाता है, विवाहित नहीं। धार्मिक दृष्टि से भी वरमाल को विवाह की पूर्ति अन्यथा बाद की प्रक्रियाओं का महत्त्व ही नहीं रहता।  

कारण:

धर्म, समाज तथा विधि तीनों दृष्टियों से अनावश्यक इस प्रक्रिया का प्रचलन क्यों, कब और कैसे हुआ? 
सर्वाधिक लोकप्रिय राम-सीता जयमाल प्रसंग का उल्लेख राम-सीता के जीवनकाल में रचित वाल्मीकि रामायण में नहीं है. रामचरित मानस में तुलसीदास  प्रसंग का मनोहारी चित्रण किया है। तभी श्री राम के ३  भाइयों के विवाह सीता जी की ३ बहनों के साथ संपन्न हुए किन्तु उनकी जयमाल का वर्णन नही है। 

श्री कृष्ण के काल में द्रौपदी स्वयंवर में ब्राम्हण वेषधारी अर्जुन ने मत्स्य वेध किया। जिसके बाद द्रौपदी ने उन्हें जयमाल पहनायी किन्तु वह ५ पांडवों की पत्नी हुईं अर्थात जयमाल न पहननेवाले अर्जुन के ४ भाई भी द्रौपदी के पति हुए। स्पष्ट है कि  जयमाल और विवाह का कोई सम्बन्ध नहीं है। रुक्मिणी का श्रीकृष्ण ने और सुभद्रा का अर्जुन  के पूर्व अपहरण कर लिया था। जायमाला कैसी होती?  

ऐतिहासिक प्रसंगों में पृथ्वीराज चौहा और संयोगिता का प्रसंग उल्लेखनीय है। पृथ्वीराज चौहान और जयचंद रिश्तेदार होते हुए भी एक दूसरे के शत्रु थे। जयचंद की पुत्री संयोगिता के स्वयंवर के समय पृथ्वीराज द्वारपाल का वेश बनाकर खड़े हो गये। संयोगिता जयमाल लेकर आयी तो आमंत्रित राजाओं को छोड़कर पृथ्वीराज के गले में माल पहना दी और पृथ्वीराज चौहान संयोगिता को लेकर भाग गये। इस प्रसंग से बढ़ी शत्रुता ने जयचंद के हाथों गजनी के मो. गोरी को भारत आक्रमण के लिए प्रेरित कराया, पृथ्वीराज चौहान पराजितकर बंदी बनाये गये, देश गुलाम हुआ 

स्पष्ट है कि जब विवाहेच्छुक राजाओं में से कोई एक अन्य को हराकर अथवा निर्धारित शर्त पूरी कर वधु को जीतता था तभी जयमाल होता था अन्यथा नहीं। 

मनमानी व्याख्या: 

तुलसी ने राम को मर्यादपुषोत्तम  मुग़लों द्वारा  उत्साह जगाने के लिए कई प्रसंगों की रचना की। प्रवचन कारों ने प्रमाणिकता का विचार किये बिना उनकी चमत्कारपूर्ण सरस व्याख्याएँ  चढ़ोत्री बढ़े। वरमाल तब भी विवाह का अनिवार्य अंग नहीं थी। तब भी केवल वधु ही वर को माला पहनाती थी, वर द्वारा वधु को माला नहीं पहनायी जाती थी। यह प्रचलन रामलीलाओं से प्रारम्भ हुआ। वहां भी सीता की वरमाला को स्वीकारने के लिये उनसे लम्बे राम अपना मस्तक शालीनता के साथ नीचे करते हैं। कोई उन्हें   ऊपर नहीं उठाता, न ही वे सर ऊँचा रखकर सीता को उचकाने के लिए विवश करते हैं  

कुप्रथा बंद हो: 

जयमाला वधु द्वारा वर  डाली जाने के कारण वरमाला कही जाने लगी। रामलीलाओं में जान-मन-रंजन के लिये और सीता को जगजननी बताने के लिये उनके गले में राम द्वारा माला पहनवा दी गयी किन्तु यह धार्मिक रीति न थी, न है। आज के प्रसंग में विचार करें तो विवाह अत्यधिक अपव्ययी और दिखावे के आयोजन हो गए हैं। दोनों पक्ष वर्षों की बचत खर्च कर अथवा क़र्ज़ लेकर यह तड़क-भड़क करते हैं।  हार भी कई सौ से कई हजार रुपयों के आते हैं। मंच, उजाला, ध्वनिविस्तारक सैकड़ों  कुसियों और शामियाना तथा सैकड़ों चित्र खींचना, वीडियो बनाना आदि पर बड़ी राशि खर्चकर एक माला पहनाई जाना हास्यास्पद नहीं तो और क्या है? 

इस कुप्रथा का दूसरा पहलू यह है की लाघग सभी स्थानीयजन तुरंत बाद भोजन कर चले जाते हैं जिससे वे न तो विवाह सम्बन्ध के साक्षी बन पते हैं, न वर-वधु को आशीष दे हैं, न व्धु को मिला स्त्रीधन पाते हैं। उन्हें  के २ कारण विवाह का साक्षी बनना तथा विवाह पश्चात नव दम्पति को आशीष  देना ही होते हैं। जयमाला के तुरंत बाद चलेजाने पर ये उद्देश्य पूर्ण नहीं हो पाते। अतः, विवेकशीलता की मांग है की जयमाला की कुप्रथा का त्याग किया जाए। नारी समानता के पक्षधर वर द्वारा वधु को जीतने के चिन्ह रूप में जयमाला को कैसे स्वीकार सकते हैं? इसी कारण विवाह पश्चात वार वधु से समानता का व्यवहार न कर उसे अपनी अर्धांगिनी नहीं अनुगामिनी और आज्ञानुवर्ती मानता है। यह प्रथा नारी समानता और नारी सम्मान के विपरीत और अपव्यय है। इसे तत्काल बंद किया जाना उचित होगा       
facebook: sahiyta salila / sanjiv verma 'salil' 

शनिवार, 31 मई 2014

kundali milan men gan vichar: sanjiv

लेख: 
कुंडली मिलान में गण-विचार
संजीव 
*








वैवाहिक संबंध की चर्चा होने पर लड़का-लड़की की कुंडली मिलान की परंपरा भारत में है. कुंडली में वर्ण का १, वश्य के २, तारा के ३, योनि के ४, गृह मैटरर के ५, गण के ६, भकूट के ७ तथा नाड़ी के ८ कुल ३६ गुण होते हैं.जितने अधिक गुण मिलें विवाह उतना अधिक सुखद माना जाता है. इसके अतिरिक्त मंगल दोष का भी  विचार किया जाता है. 

कुंडली मिलान में 'गण' के ६ अंक होते हैं. गण से आशय मन:स्थिति या मिजाज (टेम्परामेन्ट) के तालमेल से हैं. गण अनुकूल हो तो दोनों में उत्तम सामंजस्य और समन्वय उत्तम होने तथा गण न मिले तो शेष सब अनुकूल होने पर भी अकारण वैचारिक टकराव और मानसिक क्लेश होने की आशंका की जाती है. दैनंदिन जीवन में छोटी-छोटी बातों में हर समय एक-दूसरे की सहमति लेना या एक-दूसरे से सहमत होना संभव नहीं होता,  दूसरे को सहजता से न ले सके और टकराव हो तो पूरे परिवार की मानसिक शांति नष्ट होती है। गण भावी पति-पत्नी के वैचारिक साम्य और सहिष्णुता को इंगित करते हैं 

ज्योतिष के प्रमुख ग्रन्थ कल्पद्रुम के अनुसार निम्न २ स्थितियों में गण दोष को महत्त्वहीन कहा गया है:

१. 'रक्षो गणः पुमान स्याचेत्कान्या भवन्ति मानवी । केपिछान्ति तदोद्वाहम व्यस्तम कोपोह नेछति ।।' 

अर्थात जब जातक का कृतिका, रोहिणी, स्वाति, मघा, उत्तराफाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढा नक्षत्रों में जन्म हुआ हो।

        २. 'कृतिका रोहिणी स्वामी मघा चोत्त्राफल्गुनी । पूर्वाषाढेत्तराषाढे न क्वचिद गुण दोषः ।।'

अर्थात जब वर-कन्या के राशि स्वामियों अथवा नवांश के स्वामियों में मैत्री हो।

      गण को ३ वर्गों 1-देवगण, 2-नर गण, 3-राक्षस गण में बाँटा गया है। गण मिलान ३ स्थितियाँ हो सकती हैं:

1. वर-कन्या दोनों समान गण के हों तो सामंजस्य व समन्वय उत्तम होता है. 

2. वर-कन्या देव-नर हों तो सामंजस्य संतोषप्रद होता है ।

३. वर-कन्या देव-राक्षस हो तो सामंजस्य न्यून होने के कारण पारस्परिक टकराव होता है ।

शारंगीय के अनुसार; वर राक्षस गण का और कन्या मनुष्य गण की हो तो विवाह उचित होगा। इसके विपरीत वर मनुष्य गण का एवं कन्या राक्षस गण की हो तो विवाह उचित नहीं अर्थात सामंजस्य नहीं होगा। 

सर्व विदित है कि देव सद्गुणी किन्तु विलासी, नर या मानव परिश्रमी तथा संयमी एवं असुर या राक्षस दुर्गुणी, क्रोधी तथा अपनी इच्छा अन्यों पर थोपनेवाले होते हैं।  

भारत में सामान्यतः पुरुषप्रधान परिवार हैं अर्थात पत्नी सामान्यतः पति की अनुगामिनी होती है। युवा अपनी पसंद से विवाह करें या अभिभावक तय करें दोनों स्थितियों में वर-वधु के जीवन के सभी पहलू एक दूसरे को विदित नहीं हो पाते गण मिलान अज्ञात पहलुओं का संकेत कर सकता है गण को कब-कितना महत्त्व देना है यह उक्त दोनों तथ्यों तथा वर-वधु के स्वभाव, गुणों, शैक्षिक-सामाजिक-आर्थिक स्थितियों के परिप्रेक्ष्य में विचारकर तय करना चाहिए। 

   
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शुक्रवार, 2 नवंबर 2012

दोहा सलिला: विवाह- एक दृष्टि द्वैत मिटा अद्वैत वर... संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
विवाह- एक दृष्टि

द्वैत मिटा अद्वैत वर...
संजीव 'सलिल'

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रक्त-शुद्धि सिद्धांत है, त्याज्य- कहे विज्ञान।
रोग आनुवंशिक बढ़ें, जिनका नहीं निदान।।

पितृ-वंश में पीढ़ियाँ, सात मानिये त्याज्य।
मातृ-वंश में पीढ़ियाँ, पाँच नहीं अनुराग्य।।

नीति:पिताक्षर-मिताक्षर, वैज्ञानिक सिद्धांत।
नहीं मानकर मिट रहे, असमय ही दिग्भ्रांत।।

सहपाठी गुरु-बहिन या, गुरु-भाई भी वर्ज्य।
समस्थान संबंध से, कम होता सुख-सर्ज्य।।

अल्ल गोत्र कुल आँकना, सुविचारित मर्याद।
तोड़ें पायें पीर हों, त्रस्त करें फ़रियाद।।

क्रॉस-ब्रीड सिद्धांत है, वैज्ञानिक चिर सत्य।
वर्ण-संकरी भ्रांत मत, तजिए- समझ असत्य।।

किसी वृक्ष पर उसी की, कलम लगाये कौन?
नहीं सामने आ रहा, कोई सब हैं मौन।।

आपद्स्थिति में तजे, तोड़े नियम अनेक।
समझें फिर पालन करें, आगे बढ़ सविवेक।।

भिन्न विधाएँ, वंश, कुल, भाषा, भूषा, जात।
मिल- संतति देते सबल, जैसे नवल प्रभात।।

एक्य समझदारी बढ़े, बने सहिष्णु समाज।
विश्व-नीड़ परिकल्पना, हो साकारित आज।।

'सलिल' ब्याह की रीति से, दो अपूर्ण हों पूर्ण।
द्वैत मिटा अद्वैत वर, रचें पूर्ण से पूर्ण।।

Acharya Sanjiv verma 'Salil'

http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in



बुधवार, 15 जून 2011

चिंतन: स्वच्छ्न्दता की तलाश में आधुनिक पाश्चात्यवादी नारी कुंठा - शिवेन्द्र कुमार मिश्र

:चिंतन:

स्वच्छ्न्दता की तलाश में आधुनिक पाश्चात्यवादी नारी कुंठा  

- शिवेन्द्र कुमार मिश्र, बरेली.





[इस चर्चा से यह भारतीय हिन्दू दृष्टिकोण स्वत: स्पष्ट है कि भौतिक सुखों के केन्द्र में है - ''नारी और यौन सुख अर्थात सेक्स है। इस प्रकार ''हिन्दू नारी विमर्श'' के लिए नारी की यौन संतुष्टि, उसके यौनाधिकार और उसकी संतानोत्पत्ति का अधिकार केन्द्र में आ जाता है। वेदों, उपनिषदों, आरण्यकों एवं नीति ग्रंथो में इसकी चर्चा है। अथर्ववेद में तो इस पर विस्तृत चर्चा देखी जा सकती है .... ]


हम जब भी स्त्री-विमर्श की चर्चा करते हैं तो यह चर्चा स्त्री-पुरूष समानता के चौराहे से चलकर स्त्री की देह पर समाप्त हो जाती है। लैंगिक समानता का अभिप्राय जहां एक ओर पुरूष के साथ काम के अवसरों की समानता से लगाया जाता है वहीं दूसरी ओर उसकी यौनिक आजादी से भी। मेरा मानना है कि स्वतंत्रता की अन्य विधाओं की तरह यौन संबंधी आजादी दिए जाने में भी कोई परहेज नहीं होना चाहिए बशर्तें इस बात का ध्यान रखा जाए कि जहां से मेरी नाक शुरू होती है वहीं से आप की आजादी समाप्त हो जाती है। किंतु महिलाओं के क्षेत्र में यही पेंच है। मसलन अगर कोई महिला शार्ट नेकर या माइक्रो मिनी स्कर्ट के साथ स्पोटर्स ब्रा पहन कर सार्वजनिक मार्ग पर घूमना चाहे तो उस पर अश्लीलता के आरोप में कानूनी कार्यवाही हो सकती है। यह देश आज भी किसी युवा स्त्री के सार्वजनिक स्थान पर नग्न होने की धमकी मात्र से सहम जाता है और फिर रूपहले पर्दे पर देख-देखकर अपने सपनों में ''चेयर खींचने के बाद (दीपिका की) स्कर्ट खींचने'' को बेताब तमाम, बेटा, बाप और बाबा की उम्र के पुरूष एक साथ अपने-अपने मन में ख्बाब सजाने लगते हैं। नारीवादी महिलाएं इस तथ्य को नारीवादी अधिकारो में शामिल किए जाने पर बहस कर सकती हैं।

इस संस्कृति से एक ओर जहां ''सोशलाइट नारी'' निकलती है वहीं दूसरी ओर वह नारी दिखाई देती है जिसकी ''देह'' साम्राज्यवादी - बाजार वाद में स्वंय के नित नए रूप प्रदर्शित करती है। एक शब्द ''ग्लैमर'' ने ''नारी-बाजार-वाद और वस्त्र-वातायन से झांकते नारी देह दर्शन को'' पर्यायवाची बना दिया है। अभी थोड़े दिनों पूर्व महिला टेनिस में ग्लैमर के नाम पर खिलाड़ियों को ''माइक्रो टाइप'' स्कर्ट को टेनिस प्रबंधन द्वारा अनिवार्य करने पर मीडिया में बहस छिड़ी थी सामान्यत: महिला खिलाड़ी शार्ट्स (छोटे नेकर) पहन कर ही खेलती है जिनमें जांघो का पर्याप्त हिस्सा खुला ही रहता है तो फिर और ''ग्लैमर'' क्या ? बाजार बाद देखिए इस प्रश्न पर कोई बहस नहीं। मैं बताता हूं कि ''मिनी स्कर्ट'' खेल के दौरान जब उडेग़ी तो कैमरों की ''फ्लश लाइटस'' के बीच खिलाड़ी की ''पेन्टी दर्शना'' तस्वीरें भी एक बड़े ब्राण्ड के रूप में बिकेंगी। इस मायावी दुनिया को ''पूनम पाण्डेय'' के सार्वजनिक रूप से नंगे होने से डर नहीं लगता अपितु अपनी नंगई चौराहे पर खुलने का डर सताने लगता है। ''पूनम'' के ''नंगा'' होने का तो ''ड्रेसिंग रूम'' में स्वागत है इसीलिए एक बयान के बाद ही उसे करोड़ो के शो आफर हो जाते हैं।

किंतु आश्चर्य यह है कि प्रगतिशीलता का लेबल चिपकाए नारीवादी संगठनो की विचारक और नेत्रियां स्वंय को ''फेमिनिस्ट'' या नारीवादी कहे जाने के डर से नारी हितों के मुद्दों पर खुलकर बहस करने से बचना चाहती हैं।

इस तरह के बाजार वाद में नारी की स्वतंत्र अस्मिता, पहचान और जरूरतें कहीं शोरगुल में दब जाती हैं और पुरूष के समान अधिकार दिए जाने की धुन में ''पुरूष टाइप महिला'' का चित्र उभर आता है। यह महिला बड़ी आसानी से बाजारवादी साम्राज्य वाद की भेंट चढ़ जाती है। यही तथा कथित आधुनिक महिला है जो उच्च वर्गीय पार्टियों में अल्प वस्त्रों और शराब की चुस्कियों के साथ पुरूष के साथ डांस पार्टियों का मजा उठाते हुए पुरूष के समान अधिकार प्राप्त करने, उसके साथ बराबरी में खड़ा होने और आधुनिक होने का दम भरती है और आसानी से बिना जाने बाजार वाद और पुरूष शोषण का शिकार हो जाती है।

यही है आधुनिक पाश्चात्यवादी नारी-विमर्श। हम वैदिक धर्मानुयायियों अर्थात हिन्दुओं पर ''पिछड़ा'' होने के आरोप युगों से चस्पा है और नारी के मामले में हमारी सोच को विदेशी ही नहीं हम भी दकियानूसी मानते हैं। ऐसे में ''नारी की आजादी'' को मैंने इस चश्मे से ही देखने का प्रयास किया है।

आधुनिक ''नारी-विमर्श'' जहां ''पुरूषों के साथ काम की समानता'' और ''नारी देह'' पर पुंस वर्चस्व'' को तोड़ने के मिथ से ग्रसित है वहीं हिन्दू नारी विमर्श ''नारी देह एवं भाव जगत'' की मूलभूत आवश्यकताओं को केन्द्र में रखकर रचा गया है। पुरूष दोनो ही जगह लाभ की स्थिति में है किंतु वैदिक व्यवस्था में नारी बाजार वाद की होड़ से थोड़ा दूर है। अपनी यौनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए एक हद तक समाज का समर्थन प्राप्त करती है तो वहीं पुरूष भी समाज में एकाधिकारीवादी वर्चस्व का एकमात्र केन्द्र बन कर नहीं उभर पाता। वस्तुत: यह स्थिति एक ''आदर्श'' है जो इतिहास के थपेड़ो से शनै: शनै: टूटते हुए इस हद तक जा पहुंची कि इस विषय पर हम दकियानूसी सोच वाले लोग सिध्द किए जाने लगे।

इस विषय पर नारी की चर्चा बिना उसकी ''देह और यौन'' की चर्चा के नही हो सकती। आधुनिक ''बोल्ड नारी'' के युग मे मै समझता हूं मेरा आलेख मेरी इतनी ''बोल्डनेस'' स्वीकार कर लेगा और मेरे पाठक भी।

नारी की गूढ़ता और पुरूष की स्वाभाविक गंभीरता एवं उच्छंखलता के मध्य उनके यौनागों की बनावट एवं तज्जन्य उसकी अनुभूतियों में कहीं कोई संबंध तो नहीं। इस प्रश्न ने मेरे मन को अनेक बार मथा है। मैं समझता हूं कि भारत संवभत: पहला देश और ''हिन्दू'' पहली संस्कृति रही होगी जिसने ''काम'' सेक्स को देवता कहा और इस विषय पर विस्तृत शोध ग्रंथो की रचना की। इसकी चर्चा यहां हमारा उद्देश्य नहीं है किन्तु 'काम' या 'सेक्स' की भारतीयों की दृष्टि में महत्ता को स्पष्ट करना चाहूंगा।

आचार्य वात्सात्यन ने अपने ग्रंथ के मंगलाचरण में लिखा है - ''धर्मार्थकमेभ्य नम:'' अर्थात धर्म अर्थ और काम को नमस्कार है।'' 'धर्म' की वैशेषिक दर्शन की परिभाषा देखें - ''यतोsभ्यदुय नि:श्रेयस सिध्दिस: धर्म:।'' अर्थात इस लोक में सुख और परलोक में कल्याण करने वाला तत्व ही धर्म है इस लोक में अर्थात भौतिक संसार में सुख क्या है ?

चाणक्य का कथन है -

''भोज्यं भोजन शक्तिष्च रतिषक्तिर्वरागंनां
विभवो दान शक्तिष्च नाल्पस्यतपस: कलम॥''
अर्थात भोज्य पदार्थ और भोजन करने शक्ति, रति अर्थात सैक्स शक्ति एवं सुन्दर स्त्री का मिलना, वैभव और दानशक्ति का प्राप्त होना 'कम तपस्या' का फल नहीं है। (चा0नी0अ02/2)

स्पष्ट है कि भारतीय हिन्दू परम्परा में ''स्त्री और सेक्स'' सांसारिक सुखों का आधार है। 'काम' या सैक्स को लेकर कतिपय अन्य उदाहरण देखें -

कामो जज्ञे प्रथमे (अथर्ववेद - 9/12/19) कामस्तेदग्रे समवर्तत (अथर्ववेद - 19/15/17) (ऋग्वेद 10/12/18)

वृहदारव्यक में विषय-सुख की अनुभूति के लिए मिथनु अर्थात स्त्री पुरूष जोड़े की अनिवार्यता को वाणी दी गई है - ''स नैव रेमे तस्मादेकाकी न रमते। स द्वितीयमैच्छत।''

अर्थात किसी का अकेले में मन नहीं लगता ब्रहमा का भी नहीं। रमण के लिए उसे दूसरे की चाहना होती है।

मानव मन की मूलवासनाओं अथवा प्रवृत्तियों को हमारे आचार्यों ने इस प्रकार चिन्हित किया - ''वित्तैषणा, पुत्रषवणा तथ लोकेषणा'' इनको वर्गो में रखते हुए इनके मूल में ''आनन्द के उपभोग'' की प्रवृत्ति को माना है - ब्रहदारण्यक उपनिषद का कथन है - ''सर्वेषामानन्दानामुपस्थ एकायनम्'' अर्थात सभी सुख एकमात्र ''उपस्थ'' (योनिक एवं लिंग) के आधीन हैं। (उपस्थ - योनि एवं लिंग संस्कृत हिन्दी शब्द कोष - वा0शि0आप्टे - पृ0 213)

[इस चर्चा से यह भारतीय हिन्दू दृष्टिकोण स्वत: स्पष्ट है कि भौतिक सुखों के केन्द्र में है - ''नारी और यौन सुख अर्थात सेक्स है। इस प्रकार ''हिन्दू नारी विमर्श'' के लिए नारी की यौन संतुष्टि, उसके यौनाधिकार और उसकी संतानोत्पत्ति का अधिकार केन्द्र में आ जाता है। वेदों, उपनिषदों, आरण्यकों एवं नीति ग्रंथो में इसकी चर्चा है। अथर्ववेद में तो इस पर विस्तृत चर्चा देखी जा सकती है जिसे इस चार्ट से समझ सकते हैं। ]

यह कुछ उदाहरण हैं। ऐसे अनेकों काण्ड और सूक्त प्रस्तुत किया जा सकते हैं। हमारी परम्परा में ''वेदों'' को ''ज्ञान'' का ''इनसाइक्लोपीडिया'' माना गया है। मनु कहते हैं - वेदो अखिलोs धर्म ज्ञान मूलम''।

उपरोक्त उदाहरणों एवं चर्चा से यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि हमने ''सहचर्य'' जीवन की अनिवार्यता को कितना महत्व दिया और उस पर कितना विशद मनन एवं अध्ययन किया। प्रसंगत: यह चर्चा यहां यह भी समझने के लिए पर्याप्त है कि क्यों भारत में ही और हिन्दुओं द्वारा ही यौन रत् मूर्तियों के मन्दिर बनाये गए और क्यों ''कामसूत्र'' जैसी रचना का सृजन हमारे ही देश में हुआ। प्रसंगत: बता दूं कि महर्षि वात्सायन अपनी परम्परा के अकेले ऋषि नहीं है - ''इस परम्परा में भगवान ब्रहमा, बृहस्पति, महादेव के गण नन्दी, महर्षि उददालक पुत्र श्वेतकेतु, ब्रभु के पुत्र, पाटलिपुत्र के आचार्य दत्तक, आचार्य सुवर्णनाम्, आचार्य घोटकमुख, गोनर्दीय, गोणिका पुत्र, आचार्य कुचुमार आदि। प्रारम्भ में यह ग्रंथ एक लाख अध्यायों वाला था।''

यद्यपि सुधी जन इसे विषयान्तर मान सकते हैं तदापि हिन्दुओं में कामशास्त्र (सैक्स को एक विषय के रूप में मानना) की महत्ता, परम्परा एवं विशाल साहित्य का अनुमान लगाने के लिए यह जानकारी आवश्यक है।

इतनी व्यापक चर्चा के बाद यह स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि ''हिन्दू नारी विमर्ष के केन्द्र में ''नारी की दैहिक एवं भावात्मक संतुष्टि'' है। हमारा नारी विमर्श कैसे नारी की यौन संतुष्टि एवं संतान प्राप्ति (विशेषत: पुत्र) की उसकी इच्छा को लेकर केन्द्रित है। इसे आगे के प्रसंग से समझना चाहिए।

इस चर्चा से उन लोगों को उत्तर मिल जाना चाहिए जो यह मानते हैं कि - ''कामसूत्र की व्याख्या भारत में हुई। अजन्ता एलोरा तथा खजुराहों की जगहों में मूर्तिकला के विभिन्न यौनिक स्वरूप मिलते हैं। पर वैदिक संस्कृति का स्त्रीविरोध सैमेटिक धर्मों के व्यापन के दौरान भी बरकरार रहा।'' (स्त्री - यौनिकता बनाम अध्यात्मिकता : प्रमीला, के.पी. - अ0 4 पृ0 38) प्रमीला के.पी. जैसी नारीवादी चिन्तकों ने स्त्री-पुरूष सहचारी जीवन में आधुनिक नारी-विमर्श के सन्दर्भ में तमाम प्रश्न उठाये हैं। जिनके उत्तर स्वाभाविक रूप से इस लेख में मिल सकते हैं। जैसे उनका कथन है - ''मानव अधिकारों के नियमों की बावजूद व्यक्तिगत यौनिक चयन और प्रेम के साहस को सामाजिक मान्यता नहीं मिलती। क्यों ?'' (इसी पु0 के इसी अ0 के पृ0 44 से) यदि आधुनिक युग की एक नारीवादी विचारिका की यह पीड़ा है तो आप समझ सकते हैं कि आधुनिक पाश्चात्य-वादी ''नारी समानता'' के घाव कितने गहरे हैं।

हम सहचारी जीवन की यौनानुभूतियों की ओर चलते हैं। प्रमीला - के.पी. कामसूत्र के हवाले से लिखती हैं - ''विपरीत में कामसूत्र के अनुसार, यौनिक क्रिया में वह परम साथीवन का निभाव उपलब्ध होता है। उसके एहसास में युग्म एक स्पर्षमात्र से खुश रहते हैं। बताया जाता है कि मानव-शरीर इस तरह बनाया गया है कि उसमें यौनावयव ही नहीं किसी भी पोर में एक बार छूनेमात्र से एक नजर डाल देने मात्र से प्रेम की अथाह संवेदना जाग्रत होती है। पर यह नौबत सच्चे प्रेमियों को ही हासिल है।''

प्रोमिला जी सही जगह पर इस प्रसंग का पटाक्षेप करती हैं। वस्तुत: यौन जीवन में प्रेम के अतिरिक्त यौन उत्तेजना को पैदा करने, उसे बनाये रखने एवं सफल यौन व्यवहार एवं चरमसंतुष्टि प्रदान करने वाले संबंधों के लिए कामकला के ज्ञान की आवश्यकता होती है। स्त्री के लिए इसका विशेष महत्व होता है। ऐस वस्तुत: उसकी विशेष प्रकार की शरीर रचना के कारण होती है। कामग्रंथो यथा कामसूत्र, अनंगरंग, रतिरहस्य आदि में इसकी विशद चर्चा की गई है।

हमारा विषय कामशास्त्रीय चर्चा नहीं है किंतु यह प्रासंगिक होगा कि स्त्री के कामसुख की चर्चा कामशास्त्रीय दृष्टि से कर ली जाए। वात्सायन कृत कामसूत्र के ''सांप्रयोगिक नामक द्वितीय अधिकरण के रत-अवस्थापन'' नामक अध्याय में इस विषय पर कामशास्त्र के विभिन्न शास्त्रीय विद्वानों के मतों की चर्चा की गई है। किंतु ''कामसुख'' की व्यापकता की दृष्टि से आचार्य बाभ्रव्य के शिष्यों का मत अधिक स्वीकार्य प्रतीत होता है - ''आचार्य वाभ्रव्य के शिष्यों की मान्यता है - पुरूष के स्खलन के समय आनन्द मिलता है और उसके उपरान्त समाप्त हो जाता है। किन्तु स्त्री को संभाग में प्रवृत्त होते ही संभोगकाल तक और उसकी समाप्ति पर निरन्तर आनन्द की अनुभूति होती है। यदि भोग में उसे आनन्द न आता होता तो उसकी भोगेच्छा जाग्रत ही नही होती और यदि भोगेच्छा न होती तो वह कभी गर्भधारण नही कर पाती। उसका गर्भ स्थिर नही रह पाता।'' अन्तिम वाक्य से सहमति नहीं भी हो सकती है किंतु पूर्वार्ध से आचार्य बाभ्रव्य सहित वात्सायन भी सहमत नजर आते हैं।'' इसी विषय पर श्री काल्याणमल्ल विरचित अनगरंग अनुवादक श्री डा0 रामसागर त्रिपाठी का मत जानना भी समीचीन होगा। कल्याणमल्ल दो महत्वपूर्ण बात करते हैं। वह स्त्री और पुरूष के यौनसुख में आनन्द के स्वरूप और काल की दृष्टि से भेद स्वीकार नही करते हैं। स्त्री इस क्रिया में आधार है और पुरूष कर्ता है। पुरूष भोक्ता है अर्थात वह इस बात से प्रसन्न है कि उसने अमुक महिला को भोगा है और महिला इस बात से प्रसन्न है कि वह अमुक पुरूष द्वारा भोगी गई है। इस प्रकार स्त्री पुरूष में उपाय तथा अभिमान में भेद होता है। अस्तु:! इस विषय पर और चर्चा न करके यह स्वीकारणीय तथ्य है कि - ''यौन क्रिया में पुरूष को सुख की प्राप्ति स्खलन पर होती है उसके लिए शेष कार्य यहां तक पहुंचने की दौड़मात्र है जबकि स्त्री प्रथम प्रहार से आनन्दित होती है और अन्तिम् बिन्दु पर चरमानन्द को प्राप्त करती है।'' वार्ता करने पर कुछ महिलाओं ने इस तथ्य की पुष्टि की है किंतु शालीनता साक्ष्य के प्रकटीकरण की सहमति नहीं देती।

अब जरा इस बात पर ध्यान दें कि यदि नारी असंतुष्ट छूट जाए तो क्या होता है। मेरा मानना है कि वह शनै: शनै: इस प्रवृत्ति को दबाये रखने की आदत डाल लेती हैं इसके कारण उसका शरीर और भावजगत अनेक प्रतिक्रियायें उत्पन्न करता है जिसमे ंउसकी यह गूढ़ प्रवृत्ति भी शामिल है। जो स्वंय के अन्तरमन को पूर्ण अभिव्यक्ति नहीं देती। हिन्दू नारी विमर्श का मूल आधार उसके शरीरगत और भावगत यौनानुभूतियों का वैषम्य है। इसे किस प्रकार हिन्दू नारी विषयक वैदिक चिंतन अभिव्यक्त करता है। उन्हें इन शीर्षकों में देखना उचित होगा।

वर चयन की स्वतंत्रता एवं विवाह :- यदि वैदिक साहित्य का अनुशीलन किया जाए तो यह स्वत: स्पष्ट हो जायेगा कि स्त्रियों को वर-चयन में स्वतंत्रता प्राप्त थी। डा0 राजबली पाण्डेय अपनी पुस्तक हिन्दू संस्कार के अध्याय आठ ''विवाह संस्कार'' में विवाह के उद्भव पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं - ''प्रसवावस्था के कठिन समय में अपने व असहाय शिशु के समुचित संरक्षण के लिए स्त्री का चिन्तित होना स्वाभाविक ही था। जिसने उसे स्थायी जीवन सहयोगी चुनने के लिए प्रेरित किया। इस चुनाव में वह अत्यन्त सतर्क थी तथा किसी पुरूष को अपने आत्म समर्पण के पूर्व उसकी योग्यता, क्षमता व सामर्थ्य का विचार तथा सावधानीपूर्वक अन्तिम निष्कर्ष पर पहुंचना उसके लिए अत्यन्त आवश्यक था।'' इस विषय को महाभारत में वर्णित ''प्राग् विवाह स्थिति से भी समझा जा सकता है, ''अनावृता: किल् पुरा स्त्रिय: आसन वरानने कामाचार: विहारिण्य: स्वतंत्राश्चारूहासिनि॥ 1.128

अर्थात अति प्राचीन काल में स्त्रियां स्वतंत्र तथा अनावृत थीं और वे किसी भी पुरूष के साथ यौन सम्बन्ध स्थापित कर सकती थी।''
इस स्थिति से समझौता कर उन्होने विवाह संस्था को स्वीकार किया होगा तो यह तो संभव नही कि पूर्णत: पुंस आधिपत्य स्वीकार कर लिया हो अर्थात पुरूष जिससे चाहें विवाह कर ले और स्त्री की इच्छा का कोई सम्मान न हो। वर चयन की स्वतंत्रता के समर्थन में यह तर्क भी दिया जा सकता है कि ''औछालकि पुत्र श्वेतकेतु'' को विवाह संस्था की स्थापना का श्रेय जाता है और यह कि इन महर्षि की गणना ''कामशास्त्र'' के श्रेष्ठ आचार्यों में की जाती है। अत: विवाह संस्था की स्थापना करते समय इस ऋषि ने स्त्री की यौन प्रवृत्तियों का ध्यान न रखा हो, यह संभव नही।

एक अन्य उदाहरण के रूप में इस पुराकथा को प्रमाणरूप ग्रहण किया जा सकता है। - ''मद्रदेश के राजा अश्वपति की पुत्री सावित्री अत्यंत रूपवती थी। उसने अपने लिए स्वंय पर खोजना प्रारम्भ किया और अन्त में शाल्व नरेश सत्यवान का चयन कर विवाह किया।'' यह वही सावित्री है जिसने यमराज से अपने पति सत्यवान के प्राण वापस ले लिए थे और हिन्दू मानस में जो सती सावित्री के नाम से प्रसिध्द हुई। डा0 राधा कुमुद मुखर्जी ''हिन्दू सभ्यता'' अध्याय 7 भारत में ऋग्वेदीय ''आर्य - समाज - विवाह और परिवार'' पृ0 91 में यह स्वीकार करते हैं कि - ''विवाह में वर वधू को स्वंयवर की अनुमति थी (10/27/12 ऋग्वेद) गुप्त काल में ''कौमुदी महोत्सव'' मनाये जाने के प्रमाण मिलते हैं कौमुदी महोत्सव वस्तुत: मदनोत्सव या कामदेव की पूजा का ही उत्सव था। ऐसे उत्सव जहां बच्चो, प्रौढ़ो तथा वृध्दों के लिए सामान्य मनोरंजन ही प्रदान करते हैं वही युवक-युवतियों के लिए पारस्परिक चयन की स्वतंत्रता प्रदान करते थे। आज भी ''बसन्त पंचमी'' का त्यौहार मनाया जाता है जो कामदेव की पूजा ही है। ''बसन्तपंचमी'' से होली का महोत्सव या फाल्गुनी मस्ती और हंसी ठिठोली छा जाती है। इस मदनोत्सव का समापन ''होलिका दाह'' पर होता है और होली के पश्चात ''नवदुर्गो'' के पश्चात लगनों से विवाह कार्यक्रम शुरू हो जाते हैं।

विवाह :- वैदिक परम्परा में पत्नी को जो स्थान प्राप्त था उससे ही विवाह के महत्व को समझा जा सकता है।

''जायेदस्तम् मघवनत्सेदु योनिस्तदित त्वा युक्ता हस्यो वहन्तु। यदा कदा च सुनवाम् सोममग्निष्टवा द्रतो धन्वात्यछा।(ऋ 3.83.4)। भावार्थ यह है कि पत्नी ही घर होती है। वहीं घर में सब लोगो का आश्रय स्थान है। स्त्री के कारण ही परिवार का संगठन होता है। ऋग्वेद का ही मंत्र संख्या 3.53.6 भी स्त्री (पत्नी) का ऐसे ही गौरवान्वित करता है। ऋग्वेद के इन मंत्रो में आधुनिक नारी जिस अस्तित्व और अस्मिता के संकट से गुजर रही है शायद उसका समाधान मिल जाए। अस्तित्व संकट कार्य है। संकट प्रोमिला के.पी. के शब्दो में देखिए - ''वरजीनिया वुल्फ'' ने अपने कमरे को लेकर जो बाते बताई थीं : उसकी पूरी संभावनाएं कम से कम आज की मध्यवर्गीय औरत के पास हैं। पर उसने अपनी रसोई को छोड़ दिया : उसे उपभोगवादी सामग्री के हवाले कर दिया। घरेलू जगह में भी ऐसे अनेक कोने थे जो स्त्रियों के अपने थे। - पर हड़बड़ी में जगह ही खोने की नौबत उभर आई।'' यह है आधुनिकता के दंभ में छिपा आधुनिक नारी का दर्द। किंतु वैदिक ऋषि तो कहता है ''जायेदस्तम्'' पत्नी ही घर है। कोना नहीं सारा आवास ही आपकी कृपा के आश्रित हैं। श्रीमति प्रोमिला के.पी. का यह आरोप कि भारत में वात्स्यायन के पश्चात से हिन्दू धर्म भी मनुवादी रास्ते पर चला अर्थात यौनिकता या देह को हेय मानने का रास्ता। यह आरोप सर्वथा गलत है मनु विवाह के संबंध में कहते हैं - सुंख चेहेच्छता नित्यं योsधार्यों दुर्बलेन्द्रियौ: अर्थात दुर्बलेन्द्रिय व्यक्ति ग्रहस्थाश्रम को धारण नही कर सकता।'' (मनु. स्मृति 3-99-79) स्पष्ट है कि यह कथन स्त्री पुरूष की यौनिकता को ध्यान में रखकर ही कहा गया होगा। आइये, इस तथ्य का परीक्षण वैदिक मनीषियों द्वारा स्वीकार्य विवाह पध्दतियों के अनुशीलन से किया जाए।

वैसे तो आठ विवाह स्वीकार किए गए है - चार प्रशस्त या श्रेष्ठ और चार अप्रशस्त या निष्कृष्ट। यहां पर हम उन्हीं प्रकारों की संक्षिप्त चर्चा करेंगे जिसमें स्त्री के स्त्रीत्व की मर्यादा का सबसे अधिक ध्यान रखा गया हो। विवाह पध्दतियों में ''पिशाच विवाह'' को मैं प्रथम स्थान पर रखना चाहूंगा।

पिषाच विवाह :- ''सुप्तां, मत्तां, प्रमत्तां व रहो यत्रोपगच्छति। सा पापिष्ठो विवाहानां पैशाचाष्टमोsधम: मत। प्रमत्त, अथवा सेती हुई कन्या से मैथुन करना। (म.स्मृ.3.24) ही पिशाच विवाह है।'' वस्तुत: यह विवाह उस कन्या को विवाह, गृहस्थ जीवन, संतानोत्पति और सामाजिक वैधता का अधिकार देता है जिसके साथ बलात्कार किया गया हो। यद्यपि प्रत्येक स्थिति में ऐसा संभव नही होता होगा तो उसके लिए दण्ड संहिताओं मे अलग से विधान है - जिनका अध्ययन एक अलग विषय है। किंतु जिस नारी और विशेषत: कन्या से या अविवाहिता से, बलात्कार किया गया हो उसकी पीड़ा वही स्त्री ही समझ सकती है। प्राय: ऐसी स्थिति में लड़कियों को चुप रहने या आत्महत्या करते ही देखा गया है। आधुनिक राज्य और उनके दण्ड विधान इस दिशा में दोषी को दण्ड (जो त्रृटिपूर्ण व्यवस्था में प्राय: नहीं हो पाता) और पीड़िता को कुछ रूपयों का अनुतोष प्रदान करता है। ''बलात्कार'' के बदले ''अनुतोष'' की स्थिति क्या दयनीय और मजाकिया नहीं लगती ? इस व्यवस्था से उत्पन्न क्षोभ देखिए कि अभी हाल ही समाचार पत्रों की सुर्खियां बना यह समाचार कि एक निचली अदालत की जज ने बलात्कार के वाद में निर्णय देते हुए यह सुझावात्मक टिप्पणी की - ''कि बलात्कारियों को इंजेक्शन द्वारा नपुसंक बना देना चाहिए।''

इससे यह तो स्पष्ट है कि तमाम महिला संगठनों और बड़े-बड़े कानूनो व दावों के बाद भी बलात्कार से पीड़िता ''नारी के हक'' में कुछ भी नहीं कर पाता। ''पिशाच विवाह'' कम से कम निम्न वर्गीय महिलाओं जैसे खेतिहर, मजदूर, वनवासी, खदानों में काम करने वाली, श्रीमती के घरो में काम करने सेविकाओं को आदि यौन शोषण के विरूध्द सामाजिक सुरक्षा, सम्मान और नारी के अधिकार प्रदान करता है। जो आधुनिक समाज भी देने में सक्षम नहीं है। इसके पीछे निश्चय ही राज्य की सहमति और शक्ति रही होगी क्योंकि उसके बिना ''बलात्कृता नारी'' को ''विवाह'' की सुरक्षा प्रदान कर पाना संभव ही नहीं। यह ध्यान रखना चाहिए कि प्राचीन हिन्दू समाज में ''बहुपत्नी प्रथा'' स्वीकार्य थी। अत: ऐसे विवाह के लिए बाध्य किए गए पुरूष को अन्य पत्यिों का चयन करने में और पुन: पूर्ववत् हरकत करने में, दोनो ही स्थितियों में विषम परिस्थितियों का सामना करना पड़ता होगा।

राक्षस विवाह :- मनु ने इसके लक्षण में कहा है -

''हत्वा, छित्वा, च भित्वा च क्रोशन्तीं, रूदतीं गृहात्
प्रसध्यं कन्यां हरतो, राक्षसो विधिरूच्यते।'' (मनु-3.33)
अर्थात रोती, पीटती हुई कन्या का उसके संबंधियों को मारकर या क्षत विक्षत कर बलपूर्वक हरण कर विवाह करना ''राक्षस'' प्रकार का विवाह कहा जाता था।

मैं इस पध्दति को ''नारी'' की सामाजिक स्वीकार्यता और सम्मान से जोड़कर क्यों देखता हूं : उसका कारण है। पहली बात यह विवाह ''अपहरण और बलात्कार नही हैं।'' अपितु इसमें विवाह पूर्व ''प्रेम'' का स्थायी भाव पुष्पित होता है। ऐसा कतिपय विद्वान स्वीकार करते हैं। भगवान कृष्ण और रूक्मणी तथा पृथ्वीराज चौहान और संयुक्ता के विवाह को उदाहरण में रख सकते हैं। जहां ''राक्षस विवाह'' हुआ है और विवाहपूर्व ''प्रेम'' का स्थायी भाव विद्यमान है। यद्यपि इसके विरूध्द भी उदाहरण दिए जा सकते है किंतु बहुमान्य तथ्य विवाह पूर्व प्रेम का स्थायी भाव ही है।

अब मैं अपना मत रखता हूं कि यह नारी के ''सम्मान'' से कैसे संबंधित है। सामान्यत: यह विवाह राजन्यों या क्षत्रियों कुलों में सम्मानित माना गया। विवाह पूर्व ''प्रेम'' की स्थिति में एक अन्य उपाय ''गान्धर्व विवाह'' था (असुर विवाह भी) किंतु चोरी छिपे विवाह करने में वीर ''स्त्री-पुरूषों'' का सामाजिक अपमान था तो इस तरह ''राक्षस'' प्रकार के विवाह में दोनो पक्षों से निकट संबंधियों के युध्द में मारे जाने का भय था। ऐसी स्थिति में इन हत्याओं का सामाजिक कलंक नववधू को ही ढोना था। उल्लेखनीय है कि आज भी यदि नववधू के आगमन के पश्चात परिवार में कोई दुर्घटना हो जाए तो अशिक्षित परिवारों की तो छोड़िए शिक्षित परिवारों में भी इसका दोष ''नवागन्तुका'' के सिर पर ही थोप देते हैं। ऐसी स्थिति से ''कन्या'' को बचाने व युगल के ''प्रेम'' को सर्वोच्च सम्मान देते हुए ''राक्षस विवाह'' को न केवल स्वीकार किया गया अपितु क्षत्रियों के लिए सर्वाधिक प्रतिष्ठित विवाह पध्दतियों में रखा गया। स्पष्ट है कि राक्षस विवाह का विधान नारी की प्रतिष्ठा और सामाजिक सम्मान को बनाये रखने और विवाह पूर्व युगल के प्रेम को सामाजिक स्वीकरोक्ति का ही प्रकार है।

गान्धर्व विवाह :- यह संभवत: विवाह संस्था के जन्म से भी पूर्व से विद्यमान विवाह पध्दति है जिसे बाद में सभ्य समाज ने सामाजिक स्वीकरोक्ति प्रदान की है। मनु की गान्धर्व विवाह की परिभाषा देखें -
''इच्छायाsन्योन्यसंयोग: कन्यायाश्च वरस्य च
गान्धर्वस्य तु विज्ञेयो मैथुन्य: कामसंभव:।'' (मनु 3.32)
अर्थात कन्या और वर पारस्परिक इच्छा से कामुकता के वशीभूत होकर संभोग करते हैं। ऐसे स्वेच्छापूर्वक विवाह को गान्धर्व विवाह कहा जाता है।'' यह परिभाषा बहुलत: स्वीकार्य है।

इस विवाह में विवाह पूर्व कामुकता के वशीभूत स्वेच्छया किए गए संभोग को सामाजिक स्वीकृति से विवाह में बदल दिया गया है। इसमें न केवल नारी के सम्मान और गरिमा की रक्षा हुई है अपितु विवाह पूर्व जो बीज नारी के गर्भाशय में स्थापित हुआ है। उसकी भी मर्यादा और सामाजिक सम्मान का संरक्षण हुआ।

उपरोक्त के अतिरिक्त प्राजापत्य विवाह जिसे प्रशस्त विवाह श्रेणियों में माना गया है। को भी मैं नारी के सम्मान और गरिमा को महत्व प्रदान करने वाला विवाह मानता हूँ।

प्राजापात्य विवाह :- मनु की परिभाषा देखिए :-
''सहोभौ चरतां धर्मीमति वाचानुभाटय च
कन्याप्रदानमभ्यचर्य प्राजापत्यो विधि स्मृत:।''
अर्थात ''विवाह का वह प्रकार जिसमें तुम दोनों धर्म का साथ-साथ आचरण करो'' ऐसा आदेश दिया जाता है।'' इसमें विशेष बात यह है कि वर स्वंय वधू के पिता के पास प्रार्थी के रूप में आता था और पिता उसकी योग्यता पर विचार कर उस वर के साथ पाणिग्रहण संस्कार सम्पन्न कर देता था।'' वर का स्वंय वधू के पिता के पास प्रार्थी के रूप में आना वर-वधू का परस्पर पूर्व परिचय आकर्षण, एवं प्रेम सिध्द करता है और वधू के पिता द्वारा योग्यता के परीक्षणोपरान्त विवाह सम्पन्न करना पिता के दायित्व और कन्या के परिचय एवं प्रेम के बीच अद्भुत समन्वय का उदाहरण है।

उपरोक्त विवाह प्रकारों पर चर्चा करते हुए हम यह समझ सकते हैं कि वैदिक हिन्दू व्यवस्था द्वारा सुविचारित ''नारी विमर्श'' कितना आधुनिक और नारी की यौन स्वतंत्रता एवं सामाजिक मर्यादा के बीच कितना अद्भुत सामंजस्य स्थापित करता है।

आधुनिक सहचारी जीवन का चिन्त्य विषय स्त्री-पुरूष मित्रता और नारी की यौन स्वतंत्रता आदि कितना आधुनिक है। इसको यदि हिन्दू सभ्यता के परम्परागत साहित्य के द्वारा देखने का प्रयास करें तो स्थिति स्वत: स्पष्ट हो जायेगी।

सभ्यता के शैशव काल में युवक तथा युवतियां बिना किसी शक्ति अथवा छल के स्वंय परस्पर आकर्षित होते रहेंगे। ऋग्वेद 10.27.17 के अनुसार - ''वही वही वधु भ्रदा कहलाती है जो सुन्दर वेश-भूषा से अलंकृत होकर जनसमुदाय में अपने पति (मित्र) का वरण करती है।'' युवा लड़कियां ग्राम-जीवन अथवा अन्य अनेक उत्सवों व मेलों में जहां उनका स्वतंत्र चुनाव तथा परस्पर आकर्षण उनके संबंधियों को अवांछित न लगे इस प्रकार से एक दूसरे के सहवास का अनुभव कर चुके हो अथर्ववेद का मंत्र देखें :-

आ नो अग्ने सुमतिं संभलो गमेदिमां कुमारीं सहनो मगेन्
जृष्टावरेषु समनेषु वल्गुरोयां पत्या सौभगत्वमस्यै। अथर्ववेद 2.36

इस मंत्र से ऐसा प्रतीत होता है कि - ''प्राय: माता-पिता पुत्री को अपने प्रेमी (भावी पति) के चयन के लिए स्वतंत्र छोड़ देते थे और प्रेम प्रसंग में आगे बढ़ने के लिए उन्हें प्रत्यक्षत: प्रोत्साहित करते थे। ऋ.वे. 6.30.6 के अनुशीलन से ऐसा विदित होता है कि कन्या की माता उस समय का विचार करती रहती थी जब कन्या का विकसित यौवन (पतिवेदन) उसके लिए पति प्राप्त करने मे सफलता प्राप्त कर लेगा। यह पूर्णत: पवित्र व आनन्द का अवसर था जिसमें न तो किसी प्रकार कलुष था और न अस्वाभाविकता।

अन्त में महाभारत के निम्न उध्दरण को प्रस्तुत करना चाहूंगा -
''सकामाया: सकामेन निर्मन्त्र: श्रेष्ठ उच्यते।'' (म.भा. 4.94.60)
अर्थात् सकामा स्त्री का सकाम पुरूष के साथ विवाह भले ही धार्मिक क्रिया व संस्कार से रहित क्यो न हो, सर्वोत्त्म है।''

डा0 राजबली पाण्डेय कृत हिन्दू संस्कार - विवाह संस्कार से ''गृहीत उक्त सन्दर्भ से यह भलीभांति समझ में आ सकता है कि स्त्री को ''यौन स्वतंत्रता'' हिन्दू/वैदिक समाज के लिए महत्वपूर्ण रहा है। महाभारत के उपरोक्त श्लोक में ''सकामा'' शब्द पर बल देना भी यही स्पष्ट करता है कि यदि कामातुरा नारी कामातुर पुरूष से संबंध बना ले तो किसी विधि विधान के बिना भी वह ''सर्वोत्तम'' विवाह है। महाभारतकार ''श्रेष्ठ'' शब्द का उच्चारण कर रहे हैं। स्पष्ट है कि स्त्री की ''यौन संतुष्टि'' का भाव हमारे सामाजिक सहचारी जीवन की व्यवस्था करते समय नीतिकारों के मन में कितना गहरा बैठा हुआ है।