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मंगलवार, 25 फ़रवरी 2025

फरवरी २५, राम किंकर, शिव, भजन, ममता, फागें, होली, दोहा ग़ज़ल, सुभाषित, सोरठे

सलिल सृजन फरवरी २५
*
सुभाषित 
स हि भवति दरिद्रो यस्य तृष्णा विशाला। 
मनसि च परितुष्टे कोर्थवान् को दरिद्रा:।। 
है दरिद्र वह, जिसकी तृष्णा बहुत अधिक है। जिसका मन संतुष्ट, उसे सम धनी-निधन हैं।।
२५.२.२०२५
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स्मरण युग तुलसी राम किंकर उपाध्याय
२५.२.२०२४
संचालक- सरला वर्मा, भोपाल, शुभाशीष- पूज्य मंदाकिनी दीदी अयोध्या
वक्ता - डॉ. शिप्रा सेन, डॉ. दीपमाला, डॉ. मोनिका वर्मा, पवन सेठी
*
मिलते हैं जगदीश यदि, मन में हो विश्वास
सिया-राम-जय गुंजाती, जीवन की हर श्वास
*
जहाँ विनय विवेक रहे, रहें सदय हनुमान
राम-राम किंकर तहाँ, वर दें; कर गुणगान
*
आस लखन शत्रुघ्न फल, भरत विनम्र प्रयास
पूर्ण समर्पण पवनसुत, दशकंधर संत्रास
*
प्रगटे तुलसी दास ही, करने भक्ति प्रसार
कहे राम किंकर जगत, राम नाम ही सार
*
राम भक्ति मंदाकिनी, जो करता जल-पान
भव सागर से पार हो, महामूढ़ मतिवान
*
शिप्रा भक्ति प्रवाह में, जो सकता अवगाह
भव बाधा से मुक्त हो, मिलता पुण्य अथाह
*
सिया-राम जप नित्य प्रति, दें दर्शन हनुमान
पाप विमोचन हो तुरत, राम नाम विज्ञान
*
भक्ति दीप माला करे, मोह तिमिर का अंत
भजे राम-हनुमान नित, माँ हो जा रे संत
*
मौन मोनिका ध्यान में, प्रभु छवि देखे मग्न
सिया-राम गुणगान में, मन रह सदा निमग्न
*
अग्नि राम का नाम है, लखन गगन -विस्तार
भरत धरा शत्रुघ्न नभ, हनुमत सलिल अपार
*
'शिव नायक' श्रद्धा अडिग, 'धनेसरा' विश्वास
भक्ति 'राम किंकर' हरें, मानव मन का त्रास
*
मिले अखंडानंद भज, सत्-चित्-आनंद नित्य
पा-दे परमानंद हँस, सिया-राम ही सत्य
२५.२.२०२४
***
सोरठे
रचता माया जाल, सोम व्योम से आ धरा आ।
प्रगटे करे निहाल, प्रकृति स्मृति में बसी।।
नितिन निरंतर साथ, सीमा कहाँ असीम की।
स्वाति उठाए माथ, बन अरुणा करुणा करे।।
पाते रहे अबोध, साची सारा स्नेह ही।
जीवन बने सुबोध, अक्षत पा संजीव हो।।
मनवन्तर तक नित्य, करें साधना निरंतर।
खुशियाँ अमित अनित्य, तुहिना सम साफल्य दे।।
२५-२-२०२३
***
शिव भजन
*
महाकाल की जय जय बोलो भवसागर तर जाओ रे!
बम भोले, जय जय शिवशंकर
झूम झूमकर गाओ रे!!
*
मन की शंका हरते शंकर,
दूषण मारें झट प्रलयंकर।
भक्तों की भव बाधा हरते
पल में महाकाल अभ्यंकर।।
द्वेष-क्रोध विष रखो कंठ में
प्रेम बाँट सुख पाओ रे!
महाकाल की जय जय बोलो भवसागर तर जाओ रे!
बम भोले, जय जय शिवशंकर
झूम झूमकर गाओ रे!!
*
नेह नरमदा तीर विराजे,
भोले बाबा मन भाए।
उज्जैन क्षिप्रा तट बैठे,
धूनि रमाए मुस्काए।।
डमडम डिमडिम बजता डमरू
जनहित कर सुख पाओ रे!
महाकाल की जय जय बोलो भवसागर तर जाओ रे!
बम भोले, जय जय शिवशंकर
झूम झूमकर गाओ रे!!
*
काहे को रोना कोरोना,
दानव को मिल मारो अब।
बाँध मुखौटा, दूरी रखकर
रहो सुरक्षित प्यारो!अब।।
दो टीके लगवा लो हँसकर,
संकट पर जय पाओ रे!
महाकाल की जय जय बोलो भवसागर तर जाओ रे!
बम भोले, जय जय शिवशंकर
झूम झूमकर गाओ रे!!
२५-२-२०२१
***
दोहा
ममता
*
माँ गुरुवर ममता नहीं, भिन्न मानिए एक।
गौ भाषा माटी नदी, पूजें सहित विवेक।।
*
ममता की समता नहीं, जिसे मिले वह धन्य।
जो दे वह जगपूज्य है, गुरु की कृपा अनन्य।।
*
ममता में आश्वस्ति है, निहित सुरक्षा भाव।
पीर घटा; संतोष दे, मेटे सकल अभाव।।
*
ममता में कर्तव्य का, सदा समाहित बोध।
अंधा लाड़ न मानिए, बिगड़े नहीं अबोध।।
*
प्यार गंग के साथ में, दंड जमुन की धार।
रीति-नीति सुरसति अदृश, ममता अपरंपार।।
*
दीन हीन असहाय क्यों, सहें उपेक्षा मात्र।
मूक अपंग निबल सदा, चाहें ममता मात्र।।
२५-२-२०२०
***
पुस्तक सलिला:
सारस्वत सम्पदा का दीवाना ''शामियाना ३''
*
[पुस्तक विवरण: शामियाना ३,सामूहिक काव्य संग्रह, संपादक अशोक खुराना, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द बहुरंगी जैकेट सहित, पृष्ठ २४०, मूल्य २००/-, मूल्य २००/-, संपर्क- विजय नगर कॉलोनी, गेटवाली गली क्रमांक २, बदायूँ २४३६०१, चलभाष ९८३७० ३०३६९, दूरभाष ०५८३२ २२४४४९, shamiyanaashokkhurana@gmail.com]
*
साहित्य और समाज का संबंध अन्योन्याश्रित है. समाज साहित्य के सृजन का आधार होता है. साहित्य से समाज प्रभावित और परिवर्तित होता है. जिन्हें साहित्य के प्रभाव अथवा साहित्य से लाभ के विषय में शंका हो वे उत्तर प्रदेश के बदायूं जिले के शामियाना व्यवसायी श्री अशोक खुराना से मिलें। अशोक जी मेरठ विश्व विद्यालय से वोग्य में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त कर शामियाना व्यवसाय से जुड़े और यही उनकी आजीविक का साधन है. व्यवसाय को आजीविका तो सभी बनाते हैं किंतु कुछ विरले संस्कारी जन व्यवसाय के माध्यम से समाज सेवा और संस्कार संवर्धन का कार्य भी करते हैं. अशोक जी ऐसे ही विरले व्यक्तित्वों में से एक हैं. वर्ष २०११ से प्रति वर्ष वे एक स्तरीय सामूहिक काव्य संकलन अपने व्यय से प्रकाशित और वितरित करते हैं. विवेच्य 'शामियाना ३' इस कड़ी का तीसरा संकलन है. इस संग्रह में लगभग ८० कवियों की पद्य रचनाएँ संकलित हैं.
निरंकारी बाबा हरदेव सिंह, बाबा फुलसन्दे वाले, बालकवि बैरागी, कुंवर बेचैन, डॉ. किशोर काबरा, आचार्य भगवत दुबे, डॉ. गार्गीशरण मिश्र 'मराल', आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', डॉ. महाश्वेता चतुर्वेदी, डॉ. रसूल अहमद 'सागर', भगवान दास जैन, डॉ. दरवेश भारती, डॉ. फरीद अहमद 'फरीद', जावेद गोंडवी, कैलाश निगम, कुंवर कुसुमेश, खुमार देहलवी, मधुकर शैदाई, मनोज अबोध, डॉ. 'माया सिंह माया', डॉ. नलिनी विभा 'नाज़ली', ओमप्रकाश यति, शिव ओम अम्बर, डॉ. उदयभानु तिवारी 'मधुकर' आदि प्रतिष्ठित हस्ताक्षरों की रचनाएँ संग्रह की गरिमा वृद्धि कर रही हैं. संग्रह का वैशिष्ट्य 'शामियाना विषय पर केंद्रित होना है. सभी रचनाएँ शामियाना को लक्ष्य कर रची गयी हैं. ग्रन्थारंभ में गणेश-सरस्वती तथा मातृ वंदना कर पारंपरिक विधान का पालन किया गया है. अशोक खुराना, दीपक दानिश, बाबा हरदेव सिंह, बालकवि बैरागी, डॉ. कुँवर बेचैन के आलेख ग्रन्थ ओ महत्वपूर्ण बनाते हैं. ग्रन्थ के टंकण में पाठ्य शुद्धि पर पूरा ध्यान दिया गया है. कागज़, मुद्रण तथा बंधाई स्तरीय है.
कुछ रचनाओं की बानगी देखें-
जब मेरे सर पर आ गया मट्टी का शामियाना
उस वक़्त य रब मैंने तेरे हुस्न को पहचाना -बाबा फुलसंदेवाले
खुद की जो नहीं होती इनायत शामियाने को
तो हरगिज़ ही नहीं मिलती ये इज्जत शामियाने को -अशोक खुराना
धरा की शैया सुखद है
अमित नभ का शामियाना
संग लेकिन मनुज तेरे
कभी भी कुछ भी न जाना -आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
मित्रगण क्या मिले राह में
स्वस्तिप्रद शामियाने मिले -शिव ओम अम्बर
काटकर जंगल बसे जब से ठिकाने धूप के
हो गए तब से हरे ये शामियाने धूप के - सुरेश 'सपन'
शामियाने के तले सबको बिठा
समस्या का हल निकला आपने - आचार्य भगवत दुबे
करे प्रतीक्षा / शामियाने में / बैठी दुल्हन - नमिता रस्तोगी
चिरंतन स्वयं भव्य है शामियाना
कृपा से मिलेगा वरद आशियाना -डॉ. महाश्वेता चतुर्वेदी
उसकी रहमत का शामियाना है
जो मेरा कीमती खज़ाना है - डॉ. नलिनी विभा 'नाज़ली'
अशोक कुरान ने इस सारस्वत अनुष्ठान के माध्यम से अपनी मातृश्री के साथ, सरस्वती मैया और हिंदी मैया को भी खिराजे अक़ीदत पेश की है. उनका यह प्रयास आजीविकादाता शामियाने के पारी उनकी भावना को व्यक्त करने के साथ देश के ९ राज्यों के रचनाकारों को जोड़ने का सेतु भी बन सका है. वे साधुवाद के पात्र हैं. इस अंक में अधिकांश ग़ज़लें तथा कुछ गीत व् हाइकू का समावेश है. अगले अंक को विषय परिवर्तन के साथ विधा विशेष जैसे नवगीत, लघुकथा, व्यंग्य लेख आदि पर केंद्रित रखा जा सके तो इनका साहित्यिक महत्व भी बढ़ेगा।
२५-२-२०१६
***
लेख:
भारत की लोक सम्पदा: फागुन की फागें
.
भारत विविधवर्णी लोक संस्कृति से संपन्न- समृद्ध परम्पराओं का देश है। इन परम्पराओं में से एक लोकगीतों की है। ऋतु परिवर्तन पर उत्सवधर्मी भारतीय जन गायन-वादन और नर्तन की त्रिवेणी प्रवाहित कर आनंदित होते हैं। फागुन वर्षांत तथा चैत्र वर्षारम्भ के साथ-साथ फसलों के पकने के समय के सूचक भी हैं। दक्षिणायनी सूर्य जैसे ही मकर राशि में प्रवेश कर उत्तरायणी होते हैं इस महाद्वीप में दिन की लम्बाई और तापमान दोनों की वृद्धि होने की लोकमान्यता है। सूर्य पूजन, गुड़-तिल से निर्मित पक्वान्नों का सेवन और पतंगबाजी के माध्यम से गगनचुम्बी लोकांनंद की अभिव्यक्ति सर्वत्र देख जा सकती है।मकर संक्रांति, खिचड़ी, बैसाखी, पोंगल आदि विविध नामों से यह लोकपर्व सकल देश में मनाया जाता है।
पर्वराज होली से ही मध्योत्तर भारत में फागों की बयार बहने लगती है। बुंदेलखंड में फागें, बृजभूमि में नटनागर की लीलाएँ चित्रित करते रसिया और बधाई गीत, अवध में राम-सिया की जुगल जोड़ी की होली-क्रीड़ा जन सामान्य से लेकर विशिष्ट जनों तक को रसानंद में आपादमस्तक डुबा देते हैं। राम अवध से निकाकर बुंदेली माटी पर अपनी लीलाओं को विस्तार देते हुए लम्बे समय तक विचरते रहे इसलिए बुंदेली मानस उनसे एकाकार होकर हर पर्व-त्यौहार पर ही नहीं हर दिन उन्हें याद कर 'जय राम जी की' कहता है। कृष्ण का नागों से संघर्ष और पांडवों का अज्ञातवास नर्मदांचली बुन्देल भूमि पर हुआ। गौरा-बौरा तो बुंदेलखंड के अपने हैं, शिवजा, शिवात्मजा, शिवसुता, शिवप्रिया, शिव स्वेदोभवा आदि संज्ञाओं से सम्बोधित आनन्ददायिनी नर्मदा तट पर बम्बुलियों के साथ-साथ शिव-शिवा की लीलाओं से युक्त फागें गयी जाना स्वाभाविक है।
बुंदेली फागों के एकछत्र सम्राट हैं लोककवि ईसुरी। ईसुरी ने अपनी प्रेमिका 'रजउ' को अपने कृतित्व में अमर कर दिया। ईसुरी ने फागों की एक विशिष्ट शैली 'चौघड़िया फाग' को जन्म दिया। हम अपनी फाग चर्चा चौघड़िया फागों से ही आरम्भ करते हैं। ईसुरी ने अपनी प्राकृत प्रतिभा से ग्रामीण मानव मन के उच्छ्वासों को सुर-ताल के साथ समन्वित कर उपेक्षित और अनचीन्ही लोक भावनाओं को इन फागों में पिरोया है। रसराज श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनों पक्ष इन फागों में अद्भुत माधुर्य के साथ वर्णित हैं। सद्यस्नाता युवती की केशराशि पर मुग्ध ईसुरी गा उठते हैं:
ईसुरी राधा जी के कानों में झूल रहे तरकुला को उन दो तारों की तरह बताते हैं जो राधा जी के मुख चन्द्र के सौंदर्य के आगे फीके फड़ गए हैं:
कानन डुलें राधिका जी के, लगें तरकुला नीके
आनंदकंद चंद के ऊपर, तो तारागण फीके
ईसुरी की आराध्या राधिका जी सुंदरी होने के साथ-साथ दीनों-दुखियों के दुखहर्ता भी हैं:
मुय बल रात राधिका जी को, करें आसरा की कौ
दीनदयाल दीन दुःख देखन, जिनको मुख है नीकौ
पटियाँ कौन सुगर ने पारी, लगी देहतन प्यारी
रंचक घटी-बड़ी है नैयाँ, साँसे कैसी ढारी
तन रईं आन सीस के ऊपर, श्याम घटा सी कारी
'ईसुर' प्राण खान जे पटियाँ, जब सें तकी उघारी
कवि पूछता है कि नायिका की मोहक चोटियाँ किस सुघड़ ने बनायी हैं? चोटियाँ जरा भी छोटी-बड़ी नहीं हैं और आती-जाती साँसों की तरह हिल-डुल रहीं हैं। वे नायिका के शीश के ऊपर श्यामल मेघों की तरह छाईं हैं। ईसुरी ने जब से इस अनावृत्त केशराशि की सुनदरता को देखा है उनकी जान निकली जा रही है।
ईसुर की नायिका नैनों से तलवार चलाती है:
दोई नैनन की तरवारें, प्यारी फिरें उबारें
अलेपान गुजरान सिरोही, सुलेमान झख मारें
ऐंच बाण म्यान घूंघट की, दे काजर की धारें
'ईसुर' श्याम बरकते रहियो, अँधियारे उजियारे
तलवार का वार तो निकट से ही किया जा सकता है नायक दूर हो तो क्या किया जाए? क्या नायिका उसे यूँ ही जाने देगी? यह तो हो ही नहीं सकता। नायिका निगाहों को बरछी से भी अधिक पैने तीर बनाकर नायक का ह्रदय भेदती है:
छूटे नैन-बाण इन खोरन, तिरछी भौंह मरोरन
नोंकदार बरछी से पैंने, चलत करेजे फोरन
नायक बेचारा बचता फिर रहा है पर नायिका उसे जाने देने के मूड में नहीं है। तलवार और तीर के बाद वह अपनी कातिल निगाहों को पिस्तौल बना लेती है:
अँखियाँ पिस्तौलें सी करके, मारन चात समर के
गोली बाज दरद की दारू, गज कर देत नज़र के
इतने पर भी ईसुरी जान हथेली पर लेकर नवयौवना नायिका का गुणगान करते नहीं अघाते:
जुबना कड़ आये कर गलियाँ, बेला कैसी कलियाँ
ना हम देखें जमत जमीं में, ना माली की बगियाँ
सोने कैसे तबक चढ़े हैं, बरछी कैसी भलियाँ
'ईसुर' हाथ सँभारे धरियो फुट न जावें गदियाँ
लोक ईसुरी की फाग-रचना के मूल में उनकी प्रेमिका रजऊ को मानती है। रजऊ ने जिस दिन गारो के साथ गले में काली काँच की गुरियों की लड़ियों से बने ४ छूँटा और बिचौली काँच के मोतियों का तिदाने जैसा आभूषण और चोली पहिनी, उसके रूप को देखकर दीवाना होकर हार झूलने लगा। ईसुरी कहते हैं कि रजऊ के सौंदर्य पर मुग्ध हुए बिना कोई नहीं रह सकता।
जियना रजऊ ने पैनो गारो, हरनी जिया बिरानो
छूँटा चार बिचौली पैंरे, भरे फिरे गरदानो
जुबनन ऊपर चोली पैरें, लटके हार दिवानो
'ईसुर' कान बटकने नइयाँ, देख लेव चह ज्वानो
ईसुरी को रजऊ की हेरन (चितवन) और हँसन (हँसी) नहीं भूलती। विशाल यौवन, मतवाली चाल, इकहरी पतली कमर, बाण की तरह तानी भौंह, तिरछी नज़र भुलाये नहीं भूलती। वे नज़र के बाण से मरने तक को तैयार हैं, इसी बहाने रजऊ एक बार उनकी ओर देख तो ले। ऐसा समर्पण ईसुरी के अलावा और कौन कर सकता है?
हमख़ाँ बिसरत नहीं बिसारी, हेरन-हँसन तुमारी
जुबन विशाल चाल मतवारी, पतरी कमर इकारी
भौंह कमान बान से तानें, नज़र तिरीछी मारी
'ईसुर' कान हमारी कोदी, तनक हरे लो प्यारी
ईसुरी के लिये रजऊ ही सर्वस्व है। उनका जीवन-मरण सब कुछ रजऊ ही है। वे प्रभु-स्मरण की ही तरह रजऊ का नाम जपते हुए मरने की कामना करते हैं, इसलिए कुछ विद्वान रजऊ की सांसारिक प्रेमिका नहीं, आद्या मातृ शक्ति को उनके द्वारा दिया गया सम्बोधन मानते हैं:
जौ जी रजऊ रजऊ के लाने, का काऊ से कानें
जौलों रहने रहत जिंदगी, रजऊ के हेत कमाने
पैलां भोजन करैं रजौआ, पाछूं के मोय खाने
रजऊ रजऊ कौ नाम ईसुरी, लेत-लेत मर जाने
ईसुरी रचित सहस्त्रों फागें चार कड़ियों (पंक्तियों) में बँधी होने के कारन चौकड़िया फागें कही जाती हैं। इनमें सौंदर्य को पाने के साथ-साथ पूजने और उसके प्रति मन-प्राण से समर्पित होने के आध्यात्मजनित भावों की सलिला प्रवाहित है।
रचना विधान:
ये फागें ४ पंक्तियों में निबद्ध हैं। हर पंक्ति में २ चरण हैं। विषम चरण (१, ३, ५, ७ ) में १६ तथा सम चरण (२, ४, ६, ८) में १२ मात्राएँ हैं। चरणांत में प्रायः गुरु मात्राएँ हैं किन्तु कहीं-कहीं २ लघु मात्राएँ भी मिलती हैं। ये फागें छंद प्रभाकर के अनुसार महाभागवत जातीय नरेंद्र छंद में निबद्ध हैं। इस छंद में खड़ी हिंदी में रचनाएँ मेरे पढ़ने में अब तक नहीं आयी हैं। ईसुरी की एक फाग का खड़ी हिंदी में रूपांतरण देखिए:
किस चतुरा ने छोटी गूँथी, लगतीं बेहद प्यारी
किंचित छोटी-बड़ी न उठ-गिर, रहीं सांस सम न्यारी
मुकुट समान शीश पर शोभित, कृष्ण मेघ सी कारी
लिये ले रही जान केश-छवि, जब से दिखी उघारी
नरेंद्र छंद में एक चतुष्पदी देखिए:
बात बनाई किसने कैसी, कौन निभाये वादे?
सब सच समझ रही है जनता, कहाँ फुदकते प्यादे?
राजा कौन? वज़ीर कौन?, किसके बद-नेक इरादे?
जिसको चाहे 'सलिल' जिता, मत चाहे उसे हरा दे
२५-२-२०१५
***
नवगीत:
.
उम्र भर
अक्सर रुलातीं
हसरतें.
.
इल्म की
लाठी सहारा
हो अगर
राह से
भटका न पातीं
गफलतें.
.
कम नहीं
होतीं कभी
दुश्वारियाँ.
हौसलों
की कम न होतीं
हरकतें.
नेकनियती
हो सुबह से
सुबह तक.
अता करता
है तभी वह
बरकतें
२५.२.२०१५
***
दोहा मुक्तिका (दोहा ग़ज़ल):
दोहा का रंग होली के संग :
*
होली हो ली हो रहा, अब तो बंटाधार.
मँहगाई ने लील ली, होली की रस-धार..
*
अन्यायी पर न्याय की, जीत हुई हर बार..
होली यही बता रही, चेत सके सरकार..
*
आम-खास सब एक है, करें सत्य स्वीकार.
दिल के द्वारे पर करें, हँस सबका सत्कार..
*
ससुर-जेठ देवर लगें, करें विहँस सहकार.
हँसी-ठिठोली कर रही, बहू बनी हुरियार..
*
कचरा-कूड़ा दो जला, साफ़ रहे संसार.
दिल से दिल का मेल ही, साँसों का सिंगार..
*
जाति, धर्म, भाषा, वसन, सबके भिन्न विचार.
हँसी-ठहाके एक हैं, नाचो-गाओ यार..
*
गुझिया खाते-खिलाते, गले मिलें नर-नार.
होरी-फागें गा रहे, हर मतभेद बिसार..
*
तन-मन पुलकित हुआ जब, पड़ी रंग की धार.
मूँछें रंगें गुलाल से, मेंहदी कर इसरार..
*
यह भागी, उसने पकड़, डाला रंग निहार.
उस पर यह भी हो गयी, बिन बोले बलिहार..
*
नैन लड़े, झुक, उठ, मिले, कर न सके इंकार.
गाल गुलाबी हो गए, नयन शराबी चार..
*
दिलवर को दिलरुबा ने, तरसाया इस बार.
सखियों बीच छिपी रही, पिचकारी से मार..
*
बौरा-गौरा ने किये, तन-मन-प्राण निसार.
द्वैत मिटा अद्वैत वर, जीवन लिया सँवार..
*
रतिपति की गति याद कर, किंशुक है अंगार.
दिल की आग बुझा रहा, खिल-खिल बरसा प्यार..
*
मन्मथ मन मथ थक गया, छेड़ प्रीत-झंकार.
तन ने नत होकर किया, बंद कामना-द्वार..
*
'सलिल' सकल जग का करे, स्नेह-प्रेम उद्धार.
युगों-युगों मनता रहे, होली का त्यौहार..
२५-२-२०११
***
रंगों का नव पर्व बसंती
*
गीत
रंगों का नव पर्व बसंती
सतरंगा आया
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया
आशा पंछी को खोजे से
ठौर नहीं मिलती.
महानगर में शिव-पूजन को
बौर नहीं मिलती.
चकित अपर्णा देख, अपर्णा
है भू की काया.
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया
कागा-कोयल का अंतर अब
जाने कैसे कौन?
चित्र किताबों में देखें,
बोली अनुमानें मौन.
भजन भुला कर डिस्को-गाना
मंदिर में गाया.
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया
है अबीर से उन्हें एलर्जी,
रंगों से है बैर
गले न लगते, हग करते हैं
मना जान की खैर
जड़ विहीन जड़-जीवन लखकर
'सलिल' मुस्कुराया
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया
२४-२-२०१०
***

मंगलवार, 13 अप्रैल 2021

जैनेन्द्र कुमार

 जैनेन्द्र कुमार के कहा था :

1. भाषा के बारे में कोई कुछ भी सुझाव दे, ध्यान मत दो ।
2. जिस लेखक को तिरस्कार मिलता है, वह उससे बेहत्तर लिखता है, जिसे जल्द पुरस्कार मिल जाता है ।

Ratan Tata says

Ratan Tata says- 
रतन टाटा के सुविचार (दोहानुवाद 'सलिल') 
1. None can destroy iron, but its own rust can!
Likewise, none can destroy a person, but his own mindset can.
१. नाश न लोहे का करे, अन्य किन्तु निज जंग
अन्य नहीं मस्तिष्क निज, करें व्यक्ति को तंग
2. Ups and downs in life are very important to keep us going, because a straight line even in an E.C.G. means we are not alive.
२. ऊँच-नीच से ही मिले, जीवन में आनंद
ई.सी.जी. में पंक्ति यदि, सीधी धड़कन बंद
3. F-E-A-R : has two meanings :
1. Forget Everything And Run
2. Face Everything And Rise.
३. भय के दो ही अर्थ हैं, भूल भुलाकर भाग
या डटकर कर सामना, जूझ लगा दे आग
***

मंगलवार, 16 जुलाई 2019

सुभाषित / कहावत

सुभाषित  
*
श्लोक:
"विषभारसहस्रेण गर्वं नाऽऽयाति वासुकिः। 
वृश्चिको बिन्दुमात्रेण ऊर्ध्वं वहति कण्टकम्।।"
*
दोहानुवाद:
अतुलित विष गह वासुकी, गर्व न कर चुपचाप।
ज़हर-बूँद बिच्छू लिए, डंक उठाए नाप।।
*
अर्थ:
वासुकी बिच्छू की तुलना में हजार गुना अधिक ज़हर होने पर भी गर्व नहीं करता। बिच्छू ज़हर की एक बूँद का प्रदर्शन डंक ऊपर उठा कर करता है।
*
कहावत: थोथा चना बाजे घना
*
भावार्थ: ऐश्वर्यवान अपनी प्रचुर संपदा का भी प्रदर्शन नहीं करते जबकि नवधनाढ्य अल्प संपत्ति होते ही उसका भोंडा प्रदर्शन करते हैं।
*

रविवार, 16 जुलाई 2017

jivan sootra

जीवन सूत्र
*
श्लोक:
"विषभारसहस्रेण गर्वं नाऽऽयाति वासुकिः।
वृश्चिको बिन्दुमात्रेण ऊर्ध्वं वहति कण्टकम्।।"
*
दोहानुवाद:
अतुलित विष गह वासुकी, गर्व न कर चुपचाप।
ज़हर-बूँद बिच्छू लिए, डंक उठाए नाप।।
*
अर्थ:
वासुकी बिच्छू की तुलना में हजार गुना अधिक ज़हर होने पर भी गर्व नहीं करता। बिच्छू ज़हर की एक बूँद का प्रदर्शन डंक ऊपर उठा कर करता है।
*
कहावत: थोथा चना बाजे घना
*
भावार्थ: ऐश्वर्यवान अपनी प्रचुर संपदा का भी प्रदर्शन नहीं करते जबकि नवधनाढ्य अल्प संपत्ति होते ही उसका भोंडा प्रदर्शन करते हैं।
*
#दिव्यनर्मदा
#हिंदी_ब्लॉगर

गुरुवार, 6 सितंबर 2012

सूक्ति, सुभाषित, उद्धरण



सूक्ति, सुभाषित, उद्धरण, quotations  

विजय निकोर Vijay Nikore
संजीव 'सलिल' sanjiv 'salil' 
*
-- ''people rose with the rising of the sun and slept with the setting of the sun
     – plants and animals continue to be in tune with Creation."
        - Acharya Vivek ji (head of Chinmaya Mission, Niagara Falls, Canada)
 == जग, श्रमकर, विश्राम ले, भोर दुपहरी रात.
      सत-रज-तम का समन्वय, नवजीवन दे तात..

-- “Computers are useless. They can only give you answers.” -Pablo Picasso
== यंत्र-संगणक दें तुझे, उत्तर पर बेकार.
     स्वप्न न कोई देखकर, कर पाते साकार..

-- “Being happy doesn't mean that everything is perfect. It means that you've
     decided to look beyond the imperfections.” - Aristotle
== हुए सुखी मत मानना, हो पाये सम्पूर्ण.
     तुम अपूर्णता के परे, देख रहे परिपूर्ण..

-- “Any fool can criticize, condemn, and complain but it takes character and
    self control to be understanding and forgiving.” -Dale carnegy
== मूर्ख करें आलोचना, निंदा-शिकवा नित्य.
     समझ नियंत्रण क्षमा ही, सत्चरित्रमय कृत्य..

-- “Let your mind start a journey thru a strange new world.
     Leave all thoughts of the world you knew before.
     Let your soul take you where you long to be...
     Close your eyes let your spirit start to soar,
     and you'll live as you've never lived before.” -Erich Fromm
== तज सुज्ञात मस्तिष्क- वर, जो अज्ञात है आज.
     नयन मूँदकर आत्म में डूब, न करना लाज..
     आत्म वहाँ ले जाये जो, तेरा गृह चिर काल.
     अब तक जिया न जिस तरह, वैसे जी तत्काल..
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