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बुधवार, 5 फ़रवरी 2014

chhand salila: bala chhand -sanjiv

छंद सलिला:
बाला छंद 
संजीव 
*
(अब तक प्रस्तुत छंद: अग्र, अचल, अचल धृति, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, एकावली, कीर्ति, घनाक्षरी, छवि, तांडव, तोमर, दीप, दोधक, निधि, प्रेमा, बाला, मधुभार, माला, रामा, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शिव, शुभगति, सार, सुगति, सुजान, हंसी)
*
बाला छंद में प्रथम तीन चरण इंद्र वज्रा छंद के तथा चतुर्थ उपेन्द्र वज्रा छंद के होते हैं. 
उदाहरण:
१. आओ, बुलाया मन है हमारा, मानो न मानो दिल से पुकारा 
   बोलो न बोलो, हमने सुना है, किया अजाने किसने इशारा?
२. लोकापवादों युग से कही है, गाथा सदा ही जन ने अनोखी 
    खोटी रही तो दिल को दुखाया, सुनी कहानी कुछ खूब चोखी
३. डाला न ताला जिसने जुबां पे, भोग बुरा ही उसने हमेशा 
   रोका न टोका जिसको बड़ों ने, होगा न अच्छा उसका नसीबा 
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गुरुवार, 30 जनवरी 2014

chhand salila: leela chhand -sanjiv

छंद सलिला:   
लीला छंद
संजीव
*
(अब तक प्रस्तुत छंद: अग्र, अचल, अचल धृति, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, कीर्ति, घनाक्षरी, छवि, तांडव, तोमर, दीप, दोधक, निधि, प्रेमा, मधुभार,माला, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शाला, शिव, शुभगति, सार, सुगति, सुजान, हंसी)
 लीला द्वादश मात्रिक छंद है. इसमें चरणान्त में जगण होता है. 
उदाहरण:
१. लीला किसकी पुनीत, गत-आगत-आज मीत 
   बारह आदित्य  प्रीत,करें धरा से अभीत 
   लघु-गुरु-लघु दिग्दिगंत, जन्म-मृत्यु-जन्म तंत 
   जग गण जनतंत्र-कंत, शासक हो 'सलिल' संत 
२. चाहा था लोक तंत्र, पाया है लोभ तंत्र
   नष्ट करो कोक तंत्र, हों न कहीं शोक तंत्र 
   जन-हित मत रोक तंत्र, है कुतंत्र हो सुतंत्र 
   जन-हित जब बने मंत्र, तब ही हो प्रजा तंत्र
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शनिवार, 13 अगस्त 2011

छंद सलिला: बुंदेलखंड के लोक मानस में प्रतिष्ठित आल्हा या वीर छंद -- संजीव 'सलिल'

छंद सलिला:      
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बुंदेलखंड के लोक मानस में प्रतिष्ठित आल्हा या वीर छंद
                                                                  संजीव 'सलिल'
*
                     आल्हा या वीर छन्द अर्ध सम मात्रिक छंद है जिसके हर पद (पंक्ति) में क्रमशः १६-१६  मात्राएँ, चरणान्त क्रमशः दीर्घ-लघु होता है. यह छंद वीर रस से ओत-प्रोत होता है. इस छंद में अतिशयोक्ति अलंकार का प्रचुरता से प्रयोग होता है.                                                                                  
छंद विधान:
   
सोलह-पंद्रह यति रखे, आल्हा मात्रिक छंद
ओज-शौर्य युत सवैया, दे असीम आनंद
गुरु-गुरु लघु हो विषम-सम, चरण-अंत दें ध्यान
जगनिक आल्हा छंद के, रचनाकार महान 

आल्हा मात्रिक छंद सवैया, सोलह-पन्द्रह यति अनिवार्य.     
गुरु-लघु चरण अंत में रखिये, सिर्फ वीरता हो स्वीकार्य..
    अलंकार अतिशयताकारक, करे राई को तुरत पहाड़.
    
ज्यों मिमयाती बकरी सोचे, गुँजा रही वन लगा दहाड़..
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                    महाकवि जगनिक रचित आल्हा-खण्ड इस छंद का कालजयी ग्रन्थ है जिसका गायन समूचे बुंदेलखंड, बघेलखंड, रूहेलखंड में वर्ष काल में गाँव-गाँव में चौपालों पर होता है. प्राचीन समय में युद्धादि के समय इस छंद का नगाड़ों के साथ गायन होता था जिसे सुनकर योद्धा जोश में भरकर जान हथेली पर रखकर प्राण-प्रण से जूझ जाते थे. महाकाव्य आल्हा-खण्ड में दो महावीर बुन्देल युवाओं आल्हा-ऊदल के पराक्रम की गाथा है. विविध प्रसंगों में विविध रसों की कुछ पंक्तियाँ देखें:   

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    पहिल बचनियां है माता की, बेटा बाघ मारि घर लाउ.
    आजु बाघ कल बैरी मारउ, मोर छतिया कै डाह बुझाउ..  ('मोर' का उच्चारण 'मुर' की तरह)
    बिन अहेर के हम ना जावैं, चाहे कोटिन करो उपाय.
    जिसका बेटा कायर निकले, माता बैठि-बैठि मर जाय..
                        
        *
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    टँगी खुपड़िया बाप-चचा की, मांडौगढ़ बरगद की डार.
    आधी रतिया की बेला में, खोपड़ी कहे पुकार-पुकार..  ('खोपड़ी' का उच्चारण 'खुपड़ी')
    कहवाँ आल्हा कहवाँ मलखे, कहवाँ ऊदल लडैते लाल. ('ऊदल' का उच्चारण 'उदल')
    बचि कै आना मांडौगढ़ में, राज बघेल जिए कै काल..
                                      *
    अभी उमर है बारी भोरी, बेटा खाउ दूध औ भात.
    चढ़ै जवानी जब बाँहन पै, तब के दैहै तोके मात..
                                      *
    एक तो सूघर लड़कैंयां कै, दूसर देवी कै वरदान. ('सूघर' का उच्चारण 'सुघर')
    नैन सनीचर है ऊदल के, औ बेह्फैया बसे लिलार..
    महुवरि बाजि रही आँगन मां, जुबती देखि-देखि ठगि जाँय.
    राग-रागिनी ऊदल गावैं, पक्के महल दरारा खाँय..
                                      *
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चित्र परिचय: आल्हा ऊदल मंदिर मैहर, वीरवर उदल, वीरवर आल्हा, आल्हा-उदल की उपास्य माँ शारदा का मंदिर, आल्हा-उदल का अखाड़ा तथा तालाब. जनश्रुति है कि आल्हा-उदल आज भी मंदिर खुलने के पूर्व तालाब में स्नान कर माँ शारदा का पूजन करते हैं. चित्र आभार: गूगल.
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Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

   



बुधवार, 3 नवंबर 2010

छंद सलिला: १ सांगोपांग सिंहावलोकन छंद : नवीन सी. चतुर्वेदी

छंद सलिला: १

 ३ नवम्बर २०१०... धन तेरस आइये, आज एक नया स्तम्भ प्रारंभ करें 'छंद सलिला'. इस स्तम्भ में  हिन्दी काव्य शास्त्र की मणि-मुक्ताओं की चमक-दमक से आपका परिचय होगा. श्री गणेश कर रहे हैं श्री नवीन सी. चतुर्वेदी. आप जिक छंद से परिचित हों उसे लिख-भेजें...

सांगोपांग सिंहावलोकन छंद   : नवीन सी. चतुर्वेदी
(घनाक्षरी कवित्त)

कवित्त का विधान:
कुल ४ पंक्तियाँ
हर पंक्ति ४ भागों / चरणों में विभाजित
पहले, दूसरे और तीसरे चरण में ८ वर्ण
चौथे चरण में ७ वर्ण
इस तरह हर पंक्ति में ३१ वर्ण

सिंहावलोकन का विधान
कवित्त के शुरू और अंत में समान शब्द
जैसे प्रस्तुत कवित्त शुरू होता है "लाए हैं" से और समाप्त भी होता है "लाए हैं" से

सांगोपांग विधान
ये मुझे प्रात:स्मरणीय गुरुवर स्व. श्री यमुना प्रसाद चतुर्वेदी 'प्रीतम' जी ने बताया कि छंद के अंदर भी हर पंक्ति जिस शब्द / शब्दों से समाप्त हो, अगली पंक्ति उसी शब्द / शब्दों से शुरू हो तो छंद की शोभा और बढ़ जाती है| वे इस विधान के छंन्द को सांगोपांग सिंहावलोकन छंद कहते थे|


कवित्त:
लाए हैं बाजार से दीप भाँति भाँति के हम,
द्वार औ दरीचों पे कतार से सजाए हैं|
सजाए हैं बाजार हाट लोगों ने, जिन्हें देख-
बाल बच्चे खुशी से फूले ना समाए हैं|
समाए हैं संदेशे सौहार्द के दीपावली में,
युगों से इसे हम मनाते चले आए हैं|
आए हैं जलाने दीप खुशियों के जमाने में,
प्यार की सौगात भी अपने साथ लाए हैं||

यदि किसी मित्र के मन में कुछ शंका हो तो कृपया निस्संकोच पूछने की कृपा करें| जितना मालुम है, आप सभी के साथ बाँटने में आनंद आएगा| जो हम नहीं जानते, अगर कोई और बता सके, तो बड़ी ही प्रसन्नता होगी|

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