कुल पेज दृश्य

अनुकरणीय लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
अनुकरणीय लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

सोमवार, 31 अक्टूबर 2011

clip_image001
बापू का एक पाप
DSCN1502एक दिन बापू शाम की प्रार्थना सभा में बोलते-बोलते बहुत ही व्यथित हो गए। उन्होंने कहा, “जो ग़लती मुझसे हुई है, वह असाधरण और अक्षम्य है। कई बरस पहले मुझे इसका पता लगा, पर तभी मैंने इस ओर ध्यान नहीं दिया। इस कारण से कई वर्ष नष्ट हो गए। मुझसे बहुत बड़ा पाप हो गया है। अपनी गफ़लत से मैंने अपनी उस ग़लती को देख कर भी नहीं देखा। उससे फ़ायदा नहीं उठाया। दरिद्रनारायण की सेवा का जिसने व्रत ले रखा हो, उससे इस प्रकार की ग़फ़लत और लापरवाही किसी तरह भी नहीं होनी चाहिए। अगर उस दिन ही मैंने यह ग़लती सुधार लिया होता, तो इन बीते सालों में दरिद्रनारायण की जो क्षति उस ग़फ़लत के कारण हुई है, वह न हो पाती।”
सभा में सब लोग सन्न होकर बापू के व्यथित स्वर और आत्मग्लानि से भरे हुए शब्दों को सुन रहे थे। लोगों के मन में यह प्रश्न स्वाभाविक था कि कौन-सी वह बात है जिसके लिए बापू को इतनी लम्बी और कठोर भूमिका बांधनी पड़ रही है। बापू ने कौन-सा ऐसा काम कर डाला कि उसे वे पाप की संज्ञा दे रहे हैं।
बापू ने अपना पाप बताया। लोग रोज़ जो दातून इस्तेमाल करके फेंक देते हैं, उनको भी काम में लाया जा सकता है। यह विचार कुछ साल पहले उनके मन में आया था। पर उस विचार को कार्य रूप में परिणत करना वे भूल गए थे। यह उनकी दृष्टि में अक्षम्य अपराध था। एक भयंकर पाप था! उस दिन अचानक उनका ध्यान उस ओर गया। बापू साधारण से साधारण कामों में यह देखते थे कि किस तरह से कम से कम ख़र्च जो। कैसे अधिक से अधिक बचत हो। ताकि दरिद्र ग्रामवासी उस आदर्श को अपना कर अपनी ग़रीबी का बोझ कुछ कम कर सकें।
उस दिन उन्होंने इस्तेमाल की गई दातून का सदुपयोग करने का आदेश आश्रमवासियों को दिया। उन्होंने बताया कि इस्तेमाल की हुई दातून को धोकर साफ़ कर लिया जाय और फिर उसे धूप में सुखा कर रख दिया जाए। इस तरह सुखाई हुई दातून मज़े में ईंधन के काम आ सकती है।
बापू ने कुछ लोगों के चेहरे पर शंका मिश्रित आश्चर्य को पढ़ लिया। शंका का समाधान करते हुए उन्होंने कहा, “यह सोचना ग़लत है कि फेंकी हुई दातून का ईंधन एकदम नगण्य होगा। यहां के कुछ दिन के ही प्रवास में मेरे और दल के चार-पांच लोगों ने अपनी-अपनी दातूनों को सुखा कर जितना ईंधन इकट्ठा किया था, उसी से मेरे लिए स्नान के लिए एक लोटा पानी गरम हो गया। अब यदि यहां रहने वाले सभी भाई-बहन साल भर की दातून इकट्ठा कर लें तो कुछ दिनों की रसोई पकाने लायक़ ईंधन तो इकट्ठा हो ही जाएगी। और अगर साल में एक दिन के ईंधन की भी इस तरह से बचत हो जाए तो क्या वह कुछ भी नहीं?”
बापू ने आगे कहा, “गांव वाले की ग़रीबी के बोझ को थोड़ा-थोड़ा भी अगर कम किया जाय, बेकार समझ कर फेंक दी जाने वाली चीज़ों का भी अगर सोच-समझ कर कुछ न कुछ उपयोग निकाला जाय, तो धीरे-धीरे उनका बोझ बहुत कम हो जाएगा, और वे कूड़े को भी सोने में बदलने लगेंगे।”
उसी दिन से कुएँ के पास एक बाल्टी टांग दी गई और उसमें सभी लोग अपनी-अपनी इस्तेमाल की गई दातून अच्छी तरह धोकर डाल देते। उसे धूप में सुखा दिया जाता।

सोमवार, 30 मार्च 2009

चिन्तन-सलिला

महात्मा सच्च्चे


डॉ. रामकृष्ण सराफ, भोपाल

एक जंगल में एक महात्मा रहा करते थे. जंगल में रहते हुए वे सदा त्यागमय जीवन व्यतीत करते थे. संसार की किसी भी वस्तु के प्रति उनके मन में कोई आकांक्षा नहीं थी. उनका सारा समय हरी नाम स्मरण तथा दूसरों के कल्याण कार्य में व्यतीत होता था.

महात्मा जे प्रतिदिन दिन में तीन बार प्रातः काल, मध्यान्ह तथा संध्या समय गंगा में स्नान करने जाते थे. मार्ग में एक गणिका का निवास स्थान पड़ता था. जब भी महात्मा जी वहां से निकलते, गणिका अपने घर से निकलती और महात्मा जी को प्रणाम करती. महात्मा जी उसे आशीर्वाद देते. उसके बाद गणिका उनसे एक ही प्रश्न किया करती थी- 'महात्मा जी सच्चे की झूठे?' महात्मा जी प्रतिदिन गणिका के इस प्रश्न को सुनते और बिना कुछ कहे आगे बढ़ जाते. यही क्रम बराबर चलता रहा.

कुछ समय बीता, महात्मा जी बीमार पड़े. उनका स्वास्थ्य निरंतर गिरता गया. वे मरणासन्न हो गए. तब उनहोंने भक्तों से गणिका को बुलाने के लिए कहा. गणिका आयी. उसने देखा की महात्मा जी अपने जीवन की अंतिम घडियां गिन रहे थे. वह स्तब्ध अवाक् रह गयी. उसने महात्मा जी को प्रणाम किया. इस बार गणिका ने कोई प्रश्न नहीं किया किन्तु महात्मा जी ने आज गणिका के दीर्घकालीन अनुत्त्ररित प्रश्न का उत्तर स्वयं दिया और कहा- 'महात्मा जी सच्चे'. इस उत्तर को सुनकर गणिका की आँखें खुलीं और महात्मा जी ने अपनी आँखें सदा के लिए मूँद लीं.

महात्मा जी और गणिका के इस वृत्त में सच्चाई जो भी हो किन्तु एक महत्त्वपूर्ण तथ्य निश्चित रूप से यहाँ उद्घाटित होता है. अपने चरित्र को यावज्जीवन निर्मल बनाये रखना वास्तव में एक महान और कठिन कार्य है.

कोई भी मनुष्य कितने ही प्रतिष्ठित , उच्च अथवा महत्त्वपूर्ण पद पर क्यों न हो, उसका उस पद पर विद्यमान होना मात्र, उसके चरित्र के विषय में कोई संकेत नहीं देता. उसका चरित्र निर्मल भी हो सकता है और अन्यथा भी हो सकता है. किसी भी व्यक्ति के चरित्र के विषय में बाहर से कोई भी निश्चित धरना नहीं बनाई जा सकती.

हमारा सारा जीवन चुनौतियों से भरा हुआ है. इन चुनौतियों के बीच चरित्र रक्षा एक बहुत बड़ा और कठिन कार्य है. पग-पग पर हमारे सामने विभिन्न प्रकार के आकर्षण और प्रलोभन हैं, जिनके बीच हमारे चरित्र की परीक्षा हो रही है. हमें अपने चरित्र से डिगने की परिस्थितियां हमारे चारों और विद्यमान हैं. इनसे अपने को बचाते हुए आगे बढ़ते जाना ही हमारे विवेक को चुनौती है. ऐसे उदाहरण हमारे सामने अनेक हैं जहाँ हमने बड़े-बड़े महर्षियों को नीचे गिरते और डूबते देखा है. उनके सारे जीवन की उपलब्धियों को धूल में मिलते देखा है.

अपने सारे जीवन को बिना किसी प्रकार की आँच आये निष्कलंक बचा ले जाना वास्तव में एक दुष्कर कार्य है. इस कार्य में हमारी सतत परीक्षा होती रहती है. कभी भी हम इधर-उधर गए कि सारे जीवन के सब किये कराये पर पानी फिर गया. इसीलिये इसके सम्बन्ध में हमें सतत सचेष्ट रहना पड़ता है. अपने चरित्र की परीक्षा में हम जीवन के प्रत्येक क्षण में सतत जागरूक रहकर ही उत्तीर्ण हो सकते हैं इसीलिये महात्मा जी ने अपने जीवन के अंतिम क्षण में ही गणिका के उस प्रश्न का उत्तर देना उचित समझा. भले ही इस प्रश्न का उत्तर देना उनके लिए कभी भी कोई कठिन कार्य नहीं था किन्तु अपने उत्तर को जीवन के अंतिम क्षण तक तलने के पीछे महात्मा जी का उद्देश्य संभवतः यही बताना था कि संसत यही समझ ले कि अपने चरित्र की जीवन भर मर्यादा में रहते हुए रक्षा करना सामान्य काम नहीं है.

ससार में विभिन्न आकर्षणों एवं चुनौतियों के बीच अपने चंचल मन को वश में रखते हुए अपने चरित्र कि जो रक्षा कर सके वही सच्चा महात्मा है, फिर चाहे वह वन में रहे या महल में.

***********************************************