रचना और रचनाकार:
जन कवि बाबा नागार्जुन
मूल नाम: वैद्यनाथ मिश्र, अन्य नाम: यात्री, मूल ग्राम तरौनी, दरभंगा बिहार.
जन्म: ३० जून १९११, ननिहाल ग्राम सतलखा, जिला मधुबनी, बिहार.
निधन: ५ नवम्बर १९९८, ख्वाजा सराय, जिला दरभंगा, बिहार.
सृजन विधाएँ: कविता, निबंध, यात्रा वृत्त, उपन्यास.
रचना काल: १९३० - १९९४.
जीवन संगिनी:अपराजिता देवी. संतान: ६.
पुरस्कार: 'पत्रहीन नंगा गाछ' पर साहित्य अकादमी पुरस्कार १९६९, उत्तर प्रदेश शासन द्वारा साहित्यिक अवदान हेतु १९८३ में भारत भारती पुरस्कार, साहित्य अकादमी फैलोशिप १९९४.

जन्मना ब्राम्हण कालांतर में बौद्ध मतावलम्बी. ३ वर्ष की अल्पायु में माँ निधन. छात्रवृत्ति तथा रिश्तेदारों की सहायता से संस्कृत पाठशाला में अध्ययन प्रारंभ हुआ. तत्पश्चात संस्कृत, पाली तथा प्राकृत का अध्ययन वाराणसी तथा कलकत्ता में. न्स्कृत में साहित्य आचार्य की उपाधि प्राप्त की. १९३० में यात्री उपनाम से मैथिली तथा हिंदी में काव्य लेखन. कुछ समय सहारनपुर उत्तर प्रदेश में शिक्षक. १९३५ में बौद्ध धर्म का अध्ययन करने हेतु केलनिया श्रीलंका में नागार्जुन नाम धारण कर बौद्ध भिक्षु बने. १९३८ में लेनिनवाद और मार्क्सवाद का अध्ययन कर किसान सभा के संस्थापक स्वामी सहजानंद द्वारा आयोजित राजनैतिक पथशाला में भाग लिया. मूलतः यायावरी वृत्ति के नागार्जुन १९३० से १९४० के मध्य भारत के विविध अंचलों का भ्रमण करते रहे. उन्होंने जन जागरण के अनेक कार्यक्रमों में हिस्सेदारी की. १९३९ से १९४२ के मध्य किसान आन्दोलन के लिये अंग्रेजों ने उन्हें कारावास दिया. स्वतंत्र भारत में वे लंबे समय तक पत्रकार रहे. १९७५ - ७७ की समयावधि में वे लोकनायक जयप्रकाश नारायण प्रणीत सम्पूर्ण क्रांति में प्राण-प्राण से समर्पित रहे तथा ११ महा का कारावास भी काटा.
उनकी रचनाओं में प्रगाढ़ जन संवेदना, आम आदमी का दर्द, सत्ता प्रतिष्ठान के प्रति आक्रोश, सामयिक-राजनैतिक परिवेश के लिये घोर प्रताड़ना के भाव अन्तर्निहित हैं. उनकी प्रसिद्ध रचना 'बादल को घिरते देखा है' में उनकी यायावरी वृत्ति, 'मंत्र' में समूचे जनमानस के मनोभावों की अभिव्यक्ति, 'आओ रानी हम ढोयेंगे पालकी' में रानी एलिज़ाबेथ के भारत आगमन पर पं. नेहरु द्वारा स्वागत जनि विद्रूपता के प्रति जनाक्रोश की अभिव्यक्ति है. उन्होंने मादा सूअर पर 'पैंने दांतोंवाली' कविता लिखी. 'कटहल' जैसे अपारंपरिक विषय पर कविता श्रंखला की रचना उन्हीं के वश की बात थी. निराला के पश्चात् झोपडी से महलों तक अपनी कविताओं के माध्यम से पैठने का बूटा नागार्जुन में ही था. वे बांग्ला भाषा तथा पत्रकारिता से भी जुड़े थे. उन्होंने कंचन कुमारी को मलय रोय चौधरी की लम्बी काव्य रचना 'ज़ख़्म' के हिंदी अनुवाद में सहायता की थी. म. गाँधी की हत्या के पश्चात् लिखी गयी उनकी कविता को सरकार ने अशांति फैलने के भय से प्रतिबंधित कर दिया था. १९६२ में भारत पर चीन के हमले के बाद बाबा का साम्यवादियों से मोहभंग हो गया था.
साहित्यिक रचनाएँ:
प्रथम रचना: १९३० यात्री नाम से, १९३५ नागार्जुन नाम से.
पद्य: युगधारा, सतरंगे पंखोंवाली, तालाब की मछलियाँ, खिचड़ी विप्लव देखा हमने, हजार-हजार बांहोंवाली, पुरानी जूलियों का कोरस, तुमने कहा था, आखिर ऐसा क्या कह दिया मैंने, इस गुबारे की छाया में, ये दन्तुरित मुस्कान, मैं मिलिट्री का बूढ़ा घोडा, रत्नगर्भा, ऐसे भी हम क्या, भूल जाओ पुराने सपने, अपने खेत में चंदना.
उपन्यास: रतिनाथ की चाची, बलचनमा, बाबा बटेसरनाथ, नई पौध, वरुण के बेटे, दुखमोचन, उग्रतारा, जमनिया का बाबा, कुन्भी पाक, पारो और आसमान में चंदा तरे, अभिनन्दन, इमरतिया.
निबन्ध संग्रह: अंत हीनं क्रियानं, बम भोलेनाथ, अयोध्या का राजा.
मैथिली रचनाएँ: काव्यसंग्रह पत्रहीन नंगा गाछ, सितारा. उपन्यास पारो, नव तुरिया, बलचनमा .
सांस्कृतिक लेख: देश दशकम, कृषक दशकम.
अपने सिद्धांतों के प्रति अडिग रहनेवाले बाबा ने सत्ता से सदा दूरी बना कर रखी. उन्होंने ३ बार बिहार विधान परिषद् तथा १ बार राज्य सभा का सदस्य मनोनीत किए जाने के प्रस्तावों को पूरी निस्पृहता से ठुकरा दिया.

नागार्जुन जमीं से जुड़े रहनेवाले तथा अभिन्न अंतरंगता को जीनेवाले जीवट के धनी व्यक्ति थे, प्रस्तुत चित्र में बाईं ओर बाबा के पुत्र शोभाकांत की पत्नि तथा दायीं ओर कथाकार धीरेन्द्र अस्थाना की पत्नि ललिता अस्थाना बाबा से कान खिंचवाकर स्नेह सलिला में अवगाहन का दुर्लभ सुख ले-दे रहे हैं.
दमा रोग से पीड़ित बाबा का जीवन अर्थाभाव से ग्रस्त रहा. उनके अंतिम दिनों में ज्येष्ठ पुत्रवधू ने हिंदीप्रेमियों से बाबा की चिकित्सा हेतु सहायता हेतु अनुरोध भी किया था किन्तु अपने अपने में मगन रहनेवाले कुछ न कर सके. .
बाबा की कलम से :
जी हाँ, लिख रहा हूँ ...
बहुत कुछ ! बहोत बहोत !!
ढ़ेर ढ़ेर सा लिख रहा हूँ !
मगर, आप उसे पढ़ नहीं पाओगे ...
देख नहीं सकोगे, उसे आप !
दरअसल बात यह है कि
इन दिनों अपनी लिखावट
आप भी मैं कहॉ पढ़ पाता हूँ
नियोन-राड पर उभरती पंक्तियों की
तरह वो अगले कि क्षण गुम हो जाती हैं
चेतना के 'की-बोर्ड' पर वो
बस दो-चार सेकेंड तक ही टिकती है ....
कभी-कभार ही अपनी इस लिखावट को कागज़ पर नोट कर पाता हूँ
स्पन्दनशील संवेदन की क्षण-भंगुर लड़ियाँ
सहेजकर उन्हें और तक पहुँचाना !
बाप रे , कितना मुश्किल है !
आप तो 'फोर-फिगर' मासिक -वेतन वाले उच्च-अधिकारी ठहरे,
मन-ही-मन तो हसोंगे ही,
कि भला यह भी कोईकाम हुआ , कि अनाप-शनाप ख़यालों की
महीन लफ्फाजी ही करता चले कोई - यह भी कोई काम हुआ भला !
*****
जन कवि बाबा नागार्जुन
जन्म: ३० जून १९११, ननिहाल ग्राम सतलखा, जिला मधुबनी, बिहार.
निधन: ५ नवम्बर १९९८, ख्वाजा सराय, जिला दरभंगा, बिहार.
सृजन विधाएँ: कविता, निबंध, यात्रा वृत्त, उपन्यास.
रचना काल: १९३० - १९९४.
जीवन संगिनी:अपराजिता देवी. संतान: ६.
पुरस्कार: 'पत्रहीन नंगा गाछ' पर साहित्य अकादमी पुरस्कार १९६९, उत्तर प्रदेश शासन द्वारा साहित्यिक अवदान हेतु १९८३ में भारत भारती पुरस्कार, साहित्य अकादमी फैलोशिप १९९४.

जन्मना ब्राम्हण कालांतर में बौद्ध मतावलम्बी. ३ वर्ष की अल्पायु में माँ निधन. छात्रवृत्ति तथा रिश्तेदारों की सहायता से संस्कृत पाठशाला में अध्ययन प्रारंभ हुआ. तत्पश्चात संस्कृत, पाली तथा प्राकृत का अध्ययन वाराणसी तथा कलकत्ता में. न्स्कृत में साहित्य आचार्य की उपाधि प्राप्त की. १९३० में यात्री उपनाम से मैथिली तथा हिंदी में काव्य लेखन. कुछ समय सहारनपुर उत्तर प्रदेश में शिक्षक. १९३५ में बौद्ध धर्म का अध्ययन करने हेतु केलनिया श्रीलंका में नागार्जुन नाम धारण कर बौद्ध भिक्षु बने. १९३८ में लेनिनवाद और मार्क्सवाद का अध्ययन कर किसान सभा के संस्थापक स्वामी सहजानंद द्वारा आयोजित राजनैतिक पथशाला में भाग लिया. मूलतः यायावरी वृत्ति के नागार्जुन १९३० से १९४० के मध्य भारत के विविध अंचलों का भ्रमण करते रहे. उन्होंने जन जागरण के अनेक कार्यक्रमों में हिस्सेदारी की. १९३९ से १९४२ के मध्य किसान आन्दोलन के लिये अंग्रेजों ने उन्हें कारावास दिया. स्वतंत्र भारत में वे लंबे समय तक पत्रकार रहे. १९७५ - ७७ की समयावधि में वे लोकनायक जयप्रकाश नारायण प्रणीत सम्पूर्ण क्रांति में प्राण-प्राण से समर्पित रहे तथा ११ महा का कारावास भी काटा.
उनकी रचनाओं में प्रगाढ़ जन संवेदना, आम आदमी का दर्द, सत्ता प्रतिष्ठान के प्रति आक्रोश, सामयिक-राजनैतिक परिवेश के लिये घोर प्रताड़ना के भाव अन्तर्निहित हैं. उनकी प्रसिद्ध रचना 'बादल को घिरते देखा है' में उनकी यायावरी वृत्ति, 'मंत्र' में समूचे जनमानस के मनोभावों की अभिव्यक्ति, 'आओ रानी हम ढोयेंगे पालकी' में रानी एलिज़ाबेथ के भारत आगमन पर पं. नेहरु द्वारा स्वागत जनि विद्रूपता के प्रति जनाक्रोश की अभिव्यक्ति है. उन्होंने मादा सूअर पर 'पैंने दांतोंवाली' कविता लिखी. 'कटहल' जैसे अपारंपरिक विषय पर कविता श्रंखला की रचना उन्हीं के वश की बात थी. निराला के पश्चात् झोपडी से महलों तक अपनी कविताओं के माध्यम से पैठने का बूटा नागार्जुन में ही था. वे बांग्ला भाषा तथा पत्रकारिता से भी जुड़े थे. उन्होंने कंचन कुमारी को मलय रोय चौधरी की लम्बी काव्य रचना 'ज़ख़्म' के हिंदी अनुवाद में सहायता की थी. म. गाँधी की हत्या के पश्चात् लिखी गयी उनकी कविता को सरकार ने अशांति फैलने के भय से प्रतिबंधित कर दिया था. १९६२ में भारत पर चीन के हमले के बाद बाबा का साम्यवादियों से मोहभंग हो गया था.
साहित्यिक रचनाएँ:
प्रथम रचना: १९३० यात्री नाम से, १९३५ नागार्जुन नाम से.
पद्य: युगधारा, सतरंगे पंखोंवाली, तालाब की मछलियाँ, खिचड़ी विप्लव देखा हमने, हजार-हजार बांहोंवाली, पुरानी जूलियों का कोरस, तुमने कहा था, आखिर ऐसा क्या कह दिया मैंने, इस गुबारे की छाया में, ये दन्तुरित मुस्कान, मैं मिलिट्री का बूढ़ा घोडा, रत्नगर्भा, ऐसे भी हम क्या, भूल जाओ पुराने सपने, अपने खेत में चंदना.
उपन्यास: रतिनाथ की चाची, बलचनमा, बाबा बटेसरनाथ, नई पौध, वरुण के बेटे, दुखमोचन, उग्रतारा, जमनिया का बाबा, कुन्भी पाक, पारो और आसमान में चंदा तरे, अभिनन्दन, इमरतिया.
निबन्ध संग्रह: अंत हीनं क्रियानं, बम भोलेनाथ, अयोध्या का राजा.
मैथिली रचनाएँ: काव्यसंग्रह पत्रहीन नंगा गाछ, सितारा. उपन्यास पारो, नव तुरिया, बलचनमा .
सांस्कृतिक लेख: देश दशकम, कृषक दशकम.
अपने सिद्धांतों के प्रति अडिग रहनेवाले बाबा ने सत्ता से सदा दूरी बना कर रखी. उन्होंने ३ बार बिहार विधान परिषद् तथा १ बार राज्य सभा का सदस्य मनोनीत किए जाने के प्रस्तावों को पूरी निस्पृहता से ठुकरा दिया.

नागार्जुन जमीं से जुड़े रहनेवाले तथा अभिन्न अंतरंगता को जीनेवाले जीवट के धनी व्यक्ति थे, प्रस्तुत चित्र में बाईं ओर बाबा के पुत्र शोभाकांत की पत्नि तथा दायीं ओर कथाकार धीरेन्द्र अस्थाना की पत्नि ललिता अस्थाना बाबा से कान खिंचवाकर स्नेह सलिला में अवगाहन का दुर्लभ सुख ले-दे रहे हैं.
दमा रोग से पीड़ित बाबा का जीवन अर्थाभाव से ग्रस्त रहा. उनके अंतिम दिनों में ज्येष्ठ पुत्रवधू ने हिंदीप्रेमियों से बाबा की चिकित्सा हेतु सहायता हेतु अनुरोध भी किया था किन्तु अपने अपने में मगन रहनेवाले कुछ न कर सके. .
बाबा की कलम से :
जी हाँ, लिख रहा हूँ ...
बहुत कुछ ! बहोत बहोत !!
ढ़ेर ढ़ेर सा लिख रहा हूँ !
मगर, आप उसे पढ़ नहीं पाओगे ...
देख नहीं सकोगे, उसे आप !
दरअसल बात यह है कि
इन दिनों अपनी लिखावट
आप भी मैं कहॉ पढ़ पाता हूँ
नियोन-राड पर उभरती पंक्तियों की
तरह वो अगले कि क्षण गुम हो जाती हैं
चेतना के 'की-बोर्ड' पर वो
बस दो-चार सेकेंड तक ही टिकती है ....
कभी-कभार ही अपनी इस लिखावट को कागज़ पर नोट कर पाता हूँ
स्पन्दनशील संवेदन की क्षण-भंगुर लड़ियाँ
सहेजकर उन्हें और तक पहुँचाना !
बाप रे , कितना मुश्किल है !
आप तो 'फोर-फिगर' मासिक -वेतन वाले उच्च-अधिकारी ठहरे,
मन-ही-मन तो हसोंगे ही,
कि भला यह भी कोईकाम हुआ , कि अनाप-शनाप ख़यालों की
महीन लफ्फाजी ही करता चले कोई - यह भी कोई काम हुआ भला !
