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गुरुवार, 30 अक्टूबर 2025

अक्टूबर ३०, सॉनेट, भारत आरती, लघुकथा, नवगीत, त्रिभंगी छंद,

सलिल सृजन अक्टूबर ३०
*
कविता
काश कभी
श्वास धरा पर
आस गगन ने
सपनों की बरखा की।
त्रास-पीर दे
कभी धीर दे
अपनों ने साक्षी दी।
जब जो पाया
पड़ा न पूरा
थका ईश्वर देकर।
मंदिर-मस्जिद-
गुरुद्वारे जा
रुके नहीं हम लेकर।
इसको मारें
उसको पीटें
सब कुछ सबसे छीनें।
लिए खजाना
हम कुबेर का
सीप न छोड़ें, बीनें।
महाशक्ति कम
खुद को कहते
पल-पल हैं आशंकित।
महाबली हैं
मन भ्रम पाले
सदा अशुभ से दंशित।
पटक रहे बम
तनिक नहीं गम
मनु को मनु ही मारे।
दसों दिशाएँ
देख रही हैं
किसको कौन उबारे।
ईश्वर ईसा
अल्ला गुरु भी
समझा समझा हारे।
खुद ही खुद से
डरे हुए हम
क्रोध-द्वेष के मारे।
समय कभी तो
समय दिखाए
हम पाएँ डर जीत।
काश कभी तो
हो पाएँ हम
सब, हम सब के मीत।
३० अक्टूबर २०२५
०००
सॉनेट
रूप
*
रूप अरूप सुरूप हो
करें वंदना मीत मिल
उषा काल की धूप हो
छाँव डिठौना या कि तिल।
मादक-मारक रूप की
कभी न बैठें छाँव में
संगत करिए सूप की
रह न पराई ठाँव में।
अंतर्मन न कुरूप हो
अमल विमल निर्मल रखें
रचना अगर अनूप हो
वाह वाह कहकर झुकें।
गर्व न दुख कर रूप पर
और न नकली रूप धर
३०.१०.२०२४
***
सॉनेट
भोर
*
भोर भई जागो रे भाई!
बिदा करो, अरविंद जा रहा।
सुनो प्रभाती, सूर्य आ रहा।।
प्राची पर छाई अरुणाई।।
गौरैया मुँडेर पर चहकी।
फल कुतरे झट झपट गिलहरी।
टिट् टिट् मिलती गले टिटहरी।।
फुलबगिया मुस्काई-महकी।।
चंपा पर रीझा है गेंदा।
जुही-चमेली लख सकुँचाई
सदा सुहागिन सोहे बेंदा।।
नेह नर्मदा कूद नहाएँ
चपल रश्मियाँ छप् छपाक् कर
सोनपरी हो लहर सिहाए।।
३०-१०-२०२२, ९•११
●●●
सॉनेट
बारिश तुम फिर
१.
बारिश तुम फिर रूठ गई हो।
तरस रहा जग होकर प्यासा।
दुबराया ज्यों शिशु अठमासा।।
मुरझाई हो ठूठ गई हो।।
कुएँ-बावली बिलकुल खाली।
नेह नर्मदा नीर नहीं है।
बेकल मन में धीर नहीं है।।
मुँह फेरे राधा-वनमाली।।
दादुर बैठे हैं मुँह सिलकर।
अंकुर मरते हैं तिल-तिलकर।
झींगुर संग नहीं हिल-मिलकर।
बीरबहूटी हुई लापता।
गर्मी सबको रही है सता।
जंगल काटे, मनुज की खता।।
*
२.
मान गई हो, बारिश तुम फिर।
सदा सुहागिन सी हरियाईं।
मेघ घटाएँ नाचें घिर-घिर।।
बरसीं मंद-मंद हर्षाईं।।
आसमान में बिजली चमकी।
मन भाई आधी घरवाली।
गिरी जोर से बिजली तड़की।।
भड़क हुई शोला घरवाली।।
तन्वंगी भीगी दिल मचले।
कनक कामिनी देह सुचिक्कन।
दृष्टि न ठहरे, मचले-फिसले।।
अनगिन सपने देखे साजन।।
सुलग गई हो बारिश तुम फिर।
पिघल गई हो बारिश तुम फिर।।
*
३.
क्रुद्ध हुई हो बारिश तुम फिर।
सघन अँधेरा आया घिर घिर।।
बरस रही हो, गरज-मचल कर।
ठाना रख दो थस-नहस कर।।
पर्वत ढहते, धरती कंपित।
नदियाँ उफनाई हो शापित।।
पवन हो गया क्या उन्मादित?
जीव-जंतु-मनु होते कंपित।।
प्रलय न लाओ, कहर न ढाओ।
रूद्र सुता हे! कुछ सुस्ताओ।।
थोड़ा हरषो, थोड़ा बरसो।
जीवन विकसे, थोड़ा सरसो।।
भ्रांत न हो हे बारिश! तुम फिर।
शांत रही हे बारिश! हँस फिर।।
३०-१०-२०२२
***
भारत आरती
*
आरती भारत माता की
पुण्य भू जग विख्याता की
*
सूर्य ऊषा वंदन करते
चाँदनी चाँद नमन करते
सितारे गगन कीर्ति गाते
पवन यश दस दिश गुंजाते
देवगण पुलक, कर रहे तिलक
ब्रह्म हरि शिव उद्गाता की
आरती भारत माता की
*
हिमालय मुकुट शीश सोहे
चरण सागर पल पल धोए
नर्मदा कावेरी गंगा
ब्रह्मनद सिंधु करें चंगा
असुर सुर मानव त्राता की
आरती भारत माता की
*
करें शृंगार सकल मौसम
कहें मैं-तू मिलकर हों हम
ऋचाएँ कहें सनातन सच
सत्य-शिव-सुंदर कह-सुन रच
अगिन जनगण सुखदाता की
आरती भारत माता की
*
द्वीप जंबू छवि मनहारी
छटा आर्यावर्ती न्यारी
गोंडवाना है हिंदुस्तान
इंडिया भारत देश महान
जीव संजीव विधाता की
आरती भारत माता की
*
मिल अनल भू नभ पवन सलिल
रचें सब सृष्टि रहें अविचल
अगिन पंछी करते कलरव
कृषक श्रम कर वरते वैभव
ज्ञान-सुख-शांति प्रदाता की
आरती भारत माता की
३०-१०-२०२०
***
लघुकथा
कौन जाने कब?
*
'बब्बा! भाग्य बड़ा होता है या कर्म?' पोते ने पूछा।
''बेटा! दोनों का अपना-अपना महत्व है, दोनों में से किसी एक को बड़ा और दूसरे को छोटा नहीं कहा जा सकता।''
'दोनों की जरूरत ही क्या है? क्या एक से काम नहीं चल सकता?'
''तुम्हारे पापा-मम्मी का बैंक में लॉकर है न?''
'हाँ, है।'
''लॉकर की क्या जरूरत है?''
'मम्मी ने बताया था कि घर में रखने से कीमती सामान की चोरी हो सकती है। इसलिए बैंक में सुरक्षित स्थान लेकर वहाँ कीमती सामान रखते हैं।'
'' शाबाश! लॉकर की चाबी किसके पास होती हैं?''
'पापा से पूछा था मैंने। पापा ने बताया कि लॉकर में दो ताले होते हैं। एक की चाबी बैंक के प्रबंधक तथा दूसरी की लॉकर खोलने वाले के पास होती है।'
''ऐसा क्यों?''
'क्या बब्बा! आपको कुछ भी नहीं मालूम क्या?, मैं आपसे पूछने आया था आप मुझसे ही पूछते जा रहे हो।'
''तुम इस सवाल का जवाब बताओ, फिर मैं तुम्हारे सवाल का जवाब दूँगा।''
'ठीक है, सवाल जरूर बताना। यह यह नहीं कि मुझसे पूछ लो और फिर मेरे सवाल का जवाब न बताओ।'
''नहीं, तुम्हारे सवाल का जवाब जरूर बताऊँगा।''
'ठीक है, फिर सुनों। मम्मी-पापा जब लॉकर खोलने जाते हैं, तब मैनेजर पहले अपनी चाबी लगाकर एक ताला खोलता है और चला जाता है, तब मम्मी-पापा अपनी चाबी से दूसरा ताला खोलकर सामान रखते-निकालते हैं, फिर लॉकर बंद कर देते हैं। तब मैनेजर अपनी चाबी से दूसरा लॉकर बंद करता है।'
''वाह, तुम तो बहुत होशियार हो। अब आखिरी प्रश्न का उत्तर दो। दो ताले क्यों जरूरी हैं?''
'इसलिए कि मम्मी-पापा सामान रख दें तो मैनेजर या कोई दूसरा चुपचाप निकल न सके। दूसरी तरफ कोइ ग्राहक चुपचाप सामान निकालकर बैंक पर चोरी का आरोप लगाकर सामान न माँगने लगे।'
''क्या बात है? अब तो तुम्हारे प्रश्न का उत्तर तुमने ही दे दिया है।''
'वह कैसे?'
''वह ऐसे कि बैंक मैनेजर के पास जो चाबी है वह है भाग्य। तुम्हारे मम्मी-पापा के पास जो चाबी है, वह है कर्म। कर्म और भाग्य दोनों चाबी एक साथ लगाए बिना लॉकर नहीं खुलता।''
'यह तो आप ठीक कह रहे हैं, पर मेरा सवाल?'
''यही तो तुम्हारे सवाल का जवाब है। तुम्हारी तुम जो पाना चाहते हो वह है लॉकर, मेहनत एक चाबी है जो तुम्हारे पास है और भाग्य दूसरी चाबी है जो भगवान या किस्मत के पास है। चाहत का लॉकर खोलने के लिए दोनों चाबियाँ लगाना जरूरी है। भगवान या किस्मत अपनी चाबी कब लगाएगी तुम्हें नहीं मालूम। तुम उनसे चाबी लगवा भी नहीं सकते। लेकिन जब वह चाबी लगे तब भी चाहत का लॉकर नहीं खुलेगा यदि तुम्हारी कोशिश की चाबी न लगी हो।''
'समझ गया, समझ गया। आप कह रहे हो कि मैं चाहत का लॉकर खोलने के लिए, कोशिश की चाबी बार-बार लगाता रहूँ। जैसे ही किस्मत की चाबी लगेगी, चाहत का लॉकर खुल जाएगा। समझ गया, अच्छा बब्बा चलता हूँ।'
''कहाँ चल दिए?''
'और कहाँ?, अपना बस्ता लेकर गणित का सवाल हल करने की कोशिश करने। परीक्षा परिणाम का लॉकर खोलना है न। खुलेगा ही लेकिन कौन जाने कब?'
***
लघु कथा:
सच्चा उत्सव
*
उपहार तथा शुभकामना देकर स्वरुचि भोज में पहुँचा, हाथों में थमी प्लेटों में कहीं मुरब्बा दही-बड़े से गले मिल रहा था, कहीं रोटी पापड़ के गाल पर दाल मल रही थी, कहीं भटा भिन्डी से नैन मटक्का कर रहा था और कहीं इडली-सांभर को गुत्थमगुत्था देखकर डोसा मुँह फुलाये था।
इनकी गाथा छोड़ चले हम मीठे के मैदान में वहाँ रबड़ी के किले में जलेबी सेंध लगा रही थी, दूसरे दौने में गोलगप्पे आलूचाप को ठेंगा दिखा रहे थे।
जितने अतिथि उतने प्रकार की प्लेटें और दौने, जिस तरह सारे धर्म एक ईश्वर के पास ले जाते हैं वैसे ही सब प्लेटें और दौने कम खाकर अधिक फेंके गये स्वादिष्ट सामान को वेटर उठाकर बाहर कचरे के ढेर पर पहुँचा रहे थे।
हेलो-हाय करते हुए बाहर निकला तो देखा चिथड़े पहने कई बड़े-बच्चे और श्वान-शूकर उस भंडारे में अपना भाग पाने में एकाग्रचित्त निमग्न थे, उनके चेहरों की तृप्ति बता रही थी की यही है सच्चा उत्सव।
***
नव प्रयोग
*
छंद सूत्र: य न ल
*
मुक्तक-
मिलोगी जब तुम,
मिटेंगे तब गम।
खिलेंगे नित गुल
हँसेंगे मिल हम।।
***
मुक्तिका -
हँसा है दिनकर
उषा का गह कर।
*
कहेगी सरगम
चिरैया छिपकर।
*
अँधेरा डरकर
गया है मरकर।
*
पिएगा जल हँस
मजूरा उठकर।
*
न नेता सुखकर
न कोई अफसर।
*
सुसिंधु सलिलज
सुमेघ जलधर।
*
कबीर सच कह
अमीर धन धर।
३०-१०-२०१८
***
:नवगीत:
राम रे!
*
राम रे!
तनकऊ नई मलाल???
*
भोर-साँझ लौ
गोड़ तोड़ रै
काम चोर बे कैते
पसरे रैत
ब्यास गादी पे
भगतन संग लपेटे
काम-पुजारी
गीता बाँचे
हेरें गोप निहाल।
आँधर ठोकें ताल
राम रे!
बारो डाल पुआल।
राम रे!
तनकऊ नई मलाल???
*
झिमिर-झिमिर-झम
बूँदें टपकें
रिस रए छप्पर-छानी
मैली कर दई रैटाइन की
किन्नें धोती धानी?
लज्जा ढाँपे
सिसके-कलपे
ठोंके आप कपाल
मुए हाल-बेहाल
राम रे!
कैसा निर्दय काल?
राम रे!
तनकऊ नई मलाल???
*
भट्टी-देह न देत दबाई
पैले मांगें पैसा
अस्पताल मा
घुसे कसाई
ठाणे-अरना भैंसा
काले कोट
कचैरी घेरे
बकरा करें हलाल
नेता भए बबाल
राम रे!
लूट बजा रए गाल
राम रे!
तनकऊ नई मलाल???
३०-१०-२०१५
***
चंद अश'आर
दिल
*
इस दिल की बेदिली का आलम न पूछिए
तूफ़ान सह गया मगर क़तरे में बह गया
*
दिलदारों की इस बस्ती में दिलवाला बेमौत मरा
दिल के सौदागर बन हँसते मिले दिलजले हमें यहाँ
*
दिल पर रीझा दिल लेकिन बिल देख नशा काफूर हुआ
दिए दिवाली के जैसे ही बुझे रह गया शेष धुँआ
*
दिलकश ने ही दिल दहलाया दिल ले कर दिल नहीं दिया
बैठा है हर दिल अज़ीज़ ले चाक गरेबां नहीं सिया
*
नवगीत:
सांध्य सुंदरी
तनिक न विस्मित
न्योतें नहीं इमाम
जो शरीफ हैं नाम का
उसको भेजा न्योता
सरहद-करगिल पर काँटों की
फसलें है जो बोता
मेहनतकश की
थकन हरूँ मैं
चुप रहकर हर शाम
नमक किसी का, वफ़ा किसी से
कैसी फितरत है
दम कूकुर की रहे न सीधी
यह ही कुदरत है
खबरों में
लाती ही क्यों हैं
चैनल उसे तमाम?
साथ न उसके मुसलमान हैं
बंदा गंदा है
बिना बात करना विवाद ही
उसका धंधा है
थूको भी मत
उसे देख, मत
करना दुआ-सलाम
***
नवगीत:
राष्ट्रलक्ष्मी!
श्रम सीकर है
तुम्हें समर्पित
खेत, फसल, खलिहान
प्रणत है
अभियन्ता, तकनीक
विनत है
बाँध-कारखाने
नव तीरथ
हुए समर्पित
कण-कण, तृण-तृण
बिंदु-सिंधु भी
भू नभ सलिला
दिशा, इंदु भी
सुख-समृद्धि हित
कर-पग, मन-तन
समय समर्पित
पंछी कलरव
सुबह दुपहरी
संध्या रजनी
कोशिश ठहरी
आसें-श्वासें
झूमें-खांसें
अभय समर्पित
शैशव-बचपन
यौवन सपने
महल-झोपड़ी
मानक नापने
सूरज-चंदा
पटका-बेंदा
मिलन समर्पित
***
नवगीत:
हर चेहरा है
एक सवाल
शंकाकुल मन
राहत चाहे
कहीं न मिलती.
शूल चुभें शत
आशा की नव
कली न खिलती
प्रश्न सभी
देते हैं टाल
क्या कसूर,
क्यों व्याधि घेरती,
बेबस करती?
तन-मन-धन को
हानि अपरिमित
पहुँचा छलती
आत्म मनोबल
बनता ढाल
मँहगा बहुत
दवाई-इलाज
दिवाला निकले
कोशिश करें
सम्हलने की पर
पग फिर फिसले
किसे बताएं
दिल का हाल?
संजीवनी अस्पताल, रायपुर
२९-११-२०१४
***
गीत:
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए…
*
पलो आँख में स्वप्न बनकर सदा तुम
नयन-जल में काजल कहीं बह न जाए.
जलो दीप बनकर अमावस में ऐसे
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए…
*
अपनों ने अपना सदा रंग दिखाया,
न नपनों ने नपने को दिल में बसाया.
लगन लग गयी तो अगन ही सगन को
सहन कर न पायी पलीता लगाया.
दिलवर का दिल वर लो, दिल में छिपा लो
जले दिलजले जलजले आ न पाए...
*
कुटिया ही महलों को देती उजाला
कंकर के शंकर को पूजे शिवाला.
मुट्ठी बँधी बाँधती कर्म-बंधन
खोलो न मोले तनिक काम-कंचन.
बहो, जड़ बनो मत शिलाओं सरीखे
नरमदा सपरना न मन भूल जाए...
*
सहो पीर धर धीर बनकर फकीरा
तभी हो सको सूर मीरा कबीरा.
पढ़ो ढाई आखर, नहा स्नेह-सागर
भरो फेफड़ों में सुवासित समीरा.
मगन हो गगन को निहारो, सुनाओ
'सलिल' नाद अनहद कहीं खो जाए...
*
सगन = शगुन, जलजला = भूकंप, नरमदा = नर्मदा, सपरना = स्नान करना
***
त्रिभंगी सलिला:
हम हैं अभियंता
*
(छंद विधान: १० ८ ८ ६ = ३२ x ४)
*
हम हैं अभियंता नीति नियंता, अपना देश सँवारेंगे
हर संकट हर हर मंज़िल वर, सबका भाग्य निखारेंगे
पथ की बाधाएँ दूर हटाएँ, खुद को सब पर वारेंगे
भारत माँ पावन जन मन भावन, श्रम-सीकर चरण पखारेंगे
*
अभियंता मिलकर आगे चलकर, पथ दिखलायें जग देखे
कंकर को शंकर कर दें हँसकर मंज़िल पाएं कर लेखे
शशि-मंगल छूलें, धरा न भूलें, दर्द दीन का हरना है
आँसू न बहायें , जन-गण गाये, पंथ वही तो वरना है
*
श्रम-स्वेद बहाकर, लगन लगाकर, स्वप्न सभी साकार करें
गणना कर परखें, पुनि-पुनि निरखें, त्रुटि न तनिक भी कहीं वरें
उपकरण जुटाएं, यंत्र बनायें, नव तकनीक चुनें न रुकें
आधुनिक प्रविधियाँ, मनहर छवियाँ, उन्नत देश करें
*
नव कथा लिखेंगे, पग न थकेंगे, हाथ करेंगे काम काम सदा
किस्मत बदलेंगे, नभ छू लेंगे, पर न कहेंगे 'यही बदा'
प्रभु भू पर आयें, हाथ बटायें, अभियंता संग-साथ रहें
श्रम की जयगाथा, उन्नत माथा, सत नारायण कथा कहें
३०-१०-२०१३
***

शुक्रवार, 21 मार्च 2025

मार्च २१, सॉनेट, रंग, हाइकु, गीत, मुक्तिका, कुण्डलिया, त्रिभंगी छंद, देवी गीत, पूर्णिका, पानी

सलिल सृजन मार्च २१
पूर्णिका
पानी
किसी आँख से बहे न पानी
सूखे नहीं आँख का पानी
.
बिन पानी सूनी सब दुनिया
पानी बहा न कर नादानी
.
मानव मोती मृदा चून की
पानी ने कीमत पहचानी
.
'पानी पत राखो गिरधारी'
करे प्रार्थना मीरा स्यानी
.
पानी गंदा करें नराधम
बिन पानी दुनिया बेगानी
.
सलिल नीर जल वाटर निर्मल
बचा रखो न्यामत लासानी
२१.३.२०२५
०००
सॉनेट
रंग
रंगरहित बेरंग न कोई।
श्याम जन्मता सदा श्वेत को।
प्रगटाए पाषाण रेत को।।
रंगों ने नव आशा बोई।।
रंगोत्सव सब झूम मनाते।
रंग लगाना बस अपनों को।
छोड़ न देते क्यों नपनों को?
राग-रागिनी, गीत गुँजाते।।
रंग बिखेरें सूरज-चंदा।
नहीं बटोरें घर-घर चंदा।
यश न कभी भी होता मंदा।।
रंगों को बदरंग मत करो।
श्वेत-श्याम को संग नित वरो।
नवरंगों को हृदय में धरो।।
०००
देवी गीत
*
मैया पधारी दुआरे
रे भैया! झूम-झूम गावा
*
घर-घर बिराजी मतारी हैं मैंया!
माँ, भू, गौ, भाषा प्यारी हैं मैया!
अब लौं न पैयाँ पखारे रे हमने
काहे रहा मन भुलावा
रे भैया! झूम-झूम गावा
*
आसा है, श्वासा भतारी है मैया!
अँगना-रसोई, किवारी है मैया!
बिरथा पड़ोसन खों ताकत रहत ते,
भटका हुआ लौट आवा
रे भैया! झूम-झूम गावा
*
राखी है, बहिना दुलारी रे मैया!
ममता बिखरे गुहारी रे भैया!
कूटे ला-ला भटकटाई -
सवनवा बहुतै सुहावा
रे भैया! झूम-झूम गावा
*
बहुतै लड़ैती पिआरी रे मैया!
बिटिया हो दुनिया उजारी रे मैया!
'बज्जी चलो' बैठ काँधे कहत रे!
चिज्जी ले ठेंगा दिखावा
रे भैया! झूम-झूम गावा
*
तोहरे लिए भए भिखारी रे मैया!
सूनी थी बखरी, उजारी रे मैया!
तार दये दो-दो कुल तैंने
घर भर खों सुरग बनावा
रे भैया! झूम-झूम गावा
२१-३ -२०२२
•••
शारद विनय
*
सरसुति सुरसति सब सुख दैनी,
हंस चढ़त लटकावति बैनी।
बीना थामे सुर गुंजाँय-
कर किरपा कुछ मातु सुनैनी।।
*
सरन तुमाई आय हम, ठुकराओ न मैया!
सिर पै कर धर आसिस, बरसाओ न मैया!
हैं संतान तिहारी सच बिसर गओ जब
भव बाधा ने घेरो सुख बिखर गओ सब
दर पर आ टेर लगाई, अपनाओ न मैया!
सरन तुमाई आय हम, ठुकराओ न मैया!
*
अपढ़-अनाड़ी ठैरे, आ दरसन देओ
इत-उत भटके, ईसें सेवा में लेओ
उबर सके संकट सें ऊ जिसे उबारो
एक आसरो तुमरो, ऐ माँ न बिसारो
ओ माँ! औसर देओ, अंबे अ: मैया!
सरन तुमाई आय हम, ठुकराओ न मैया!
*
आखर सबद न सरगम, जाने सिखला दो
नाद अनाहद तन्नक मैया! सुनवा दो
कलकल-कलरव ब्यापी माँ बीनापानी
भवसागर सें तारो हमखों कल्यानी
चरन सरन स्वीकारो ठुकराओ न दैया!
सरन तुमाई आय हम, ठुकराओ न मैया!
***
दोहा
हिंदू मरते हों मरें, नहीं कहीं भी जिक्र।
काँटा चुभे न अन्य को, नेताजी को फ़िक्र।।
***
मुक्तक कविता दिवस पर
कवि जी! मत बोलिये 'कविता से प्यार है'
भूले से भी मत कहें 'इस पे जां निसार है'
जिद्द अब न कीजिए मुश्किल में जान है
कविता का बाप बहुत सख्त थानेदार है
२१-३-२०२१
***
एक रचना
*
विश्व में कविता समाहित
या कविता में विश्व?
देखें कंकर में शंकर
या शंकर में प्रलयंकर
नाद ताल ध्वनि लय रस मिश्रित
शक्ति-भक्ति अभ्यंकर
अक्षर क्षर का गान करे जब
हँसें उषा सँग सविता
तभी जन्म ले कविता
शब्द अशब्द निशब्द हुए जब
अलंकार साकार हुए सब
बिंब प्रतीक मिथक मिल नर्तित
अर्चित चर्चित कविता हो तब
सत्-शिव का प्रतिमान रचे जब
मन मंदिर की सुषमा
शिव-सुंदर हो कविता
मन ही मन में मन की कहती
पीर मौन रह मन में तहती
नेह नर्मदा कलकल-कलरव
छप्-छपाक् लहरित हो बहती
गिरि-शिखरों से कूद-फलाँगे
उद्धारे जग-पतिता
युग वंदित हो कविता
***
इब्नबतूता
*
इब्नबतूता भूल के जूता
कोरोना से डर भागा
नहीं किसी को शकल दिखाता
घर के अंदर बंद हुआ है
राम राम करता दूरी से
ज्यों पिंजरे में कोई सुआ है
गले मत मिला, हाथ मत मिलो
कुरता सिलता बिन धागा
इब्नबतूता भूल के जूता
कोरोना से डर भागा
सगा न कोई रहा किसी का
हाय न कोई गैर है
सबको पड़े जान के लाले
नहीं किसी की खैर है
सोना चाहे; नींद न आए
आँख न खुलती पर जागा
इब्नबतूता भूल के जूता
कोरोना से डर भागा
***
नवगीत
क्या होएगा?
*
इब्नबतूता
पूछे: 'कूता?
क्या होएगा?'
.
काय को रोना?
मूँ ढँक सोना
खुली आँख भी
सपने बोना
आयसोलेशन
परखे पैशन
दुनिया कमरे का है कोना
येन-केन जो
जोड़ धरा है
सब खोएगा
.
मेहनतकश जो
तन के पक्के
रहे इरादे
जिनके सच्चे
व्यर्थ न भटकें
घर के बाहर
जिनके मन निर्मल
ज्यों बच्चे
बाल नहीं
बाँका होएगा
.
भगता क्योंहै?
डरता क्यों है?
बिन मारे ही
मरता क्यों है?
पैनिक मत कर
हाथ साफ रख
हाथ साफ कर अब मत प्यारे!
वह पाएगा
जो बोएगा
२१-३-२०२०
***
हाइकु गीत
*
आया वसंत
इन्द्रधनुषी हुए
दिशा-दिगंत..
शोभा अनंत
हुए मोहित,
सुर-मानव संत..
*
प्रीत के गीत
गुनगुनाती धूप
बनालो मीत.
जलाते दिए
एक-दूजे के लिए
कामिनी-कंत..
*
पीताभी पर्ण
संभावित जननी
जैसे विवर्ण..
हो हरियाली
मिलेगी खुशहाली
होगे श्रीमंत..
*
चूमता कली
मधुकर गुंजार
लजाती लली..
सूरज हुआ
उषा पर निसार
लाली अनंत..
*
प्रीत की रीत
जानकर न जाने
नीत-अनीत.
क्यों कन्यादान?
'सलिल' वरदान
दें एकदंत..
***
कुण्डलिया
*
कुंडल पहना कान में, कुंडलिनी ने आज
कान न देती, कान पर कुण्डलिनी लट साज
कुण्डलिनी लट साज, राज करती कुंडल पर
मौन कमंडल बैठ, भेजता हाथी को घर
पंजा-साइकिल सर धुनते, गिरते जा दलदल
खिला कमल हँस पड़ा, फन लो तीनों कुंडल
*
रूठी राधा से कहें, इठलाकर घनश्याम
मैंने अपना दिल किया, गोपी तेरे नाम
गोपी तेरे नाम, राधिका बोली जा-जा
काला दिल ले श्याम, निकट मेरे मत आ, जा
झूठा है तू ग्वाल, प्रीत भी तेरी झूठी
ठेंगा दिखा न भाग, खिजाती राधा रूठी
२१-३-२०१७
***
विमर्श : कुछ सवाल-
१. मिथुनरत नर क्रौंच के वध पश्चात क्रौंची के आर्तनाद को सुनकर विश्व की पहली कविता कही गयी। क्या कविता में केवल विलाप और कारुण्य हो, शेष रसों या अनुभूतियाँ के लिये कोई जगह न हो?
२. यदि विलाप से उत्पन्न कविता में आनंद का स्थान हो सकता है तो अभाव और विसंगति प्रधान नवगीत में पर्वजनित अनुभूतियाँ क्यों नहीं हो सकतीं?
३. यदि नवगीत केवल और केवल पीड़ा, दर्द, अभाव की अभिव्यक्ति हेतु है तो क्यों ने उसे शोक गीत कहा जाए?
४. क्या इसका अर्थ यह है कि नवगीत में दर्द के अलावा अन्य अनुभूतियों के लिये कोई स्थान नहीं और उन्हें केंद्र में रखकर रची गयी गीति रचनाओं के लिये कोई नया नाम खोज जाए?
५. यदि नवगीत सिर्फ और सिर्फ दलित और दरिद्र वर्ग की विधा है तो उसमें उस वर्ग में प्रचलित गीति विधाओं कबीरा, ढिमरयाई, आल्हा, बटोही, कजरी, फाग, रास आदि तथा उस वर्ग विशेष में प्रचलित शब्दावली का स्थान क्यों नहीं है?
६. क्या समीक्षा करने का एकाधिकार विचारधारा विशेष के समीक्षकों का है?
७. समीक्षा व्यक्तिगत विचारधारा और आग्रहों के अनुसार हो या रचना के गुण-धर्म पर? क्या समीक्षक अपनी व्यक्तिगत विचारधारा से विपरीत विचारधारा की श्रेष्ठ कृति को सराहे या उसकी निंदा करे?
८. रचनाकार समीक्षक और समीक्षक रचनाकार हो सकता है या नहीं?
९. साहित्य समग्र समाज के कल्याण हेतु है या केवल सर्वहारा वर्ग के अधिकारों का घोषणापत्र है?
***
त्रिभंगी छंद:
*
ऋतु फागुन आये, मस्ती लाये, हर मन भाये, यह मौसम।
अमुआ बौराये, महुआ भाये, टेसू गाये, को मो सम।।
होलिका जलायें, फागें गायें, विधि-हर शारद-रमा मगन-
बौरा सँग गौरा, भूँजें होरा, डमरू बाजे, डिम डिम डम।।
२१-३-२०१३
***
मुक्तिका:
हुई होली, हो रही, होगी हमेशा प्राण-मन की
*
भाल पर सूरज चमकता, नयन आशा से भरे हैं.
मौन अधरों का कहे, हम प्रणयधर्मी पर खरे हैं..
श्वास ने की रास, अनकहनी कहे नथ कुछ कहे बिन.
लालिमा गालों की दहती, फागुनी किंशुक झरे हैं..
चिबुक पर तिल, दिल किसी दिलजले का कुर्बां हुआ है.
भौंह-धनु के नयन-बाणों से न हम आशिक डरे हैं?.
बाजुओं के बंधनों में कसो, जीवन दान दे दो.
केश वल्लरियों में गूथें कुसुम, भँवरे बावरे हैं..
सुर्ख लाल गाल, कुंतल श्याम, चितवन है गुलाबी.
नयन में डोरे नशीले, नयन-बाँके साँवरे हैं..
हुआ इंगित कुछ कहीं से, वर्जना तुमने करी है.
वह न माने लाज-बादल सिंदूरी फिर-फिर घिरे हैं..
पीत होती देह कम्पित, द्वैत पर अद्वैत की जय.
काम था निष्काम, रति की सुरती के पल माहुरे हैं..
हुई होली, हो रही, होगी हमेशा प्राण-मन की.
विदेहित हो देह ने, रंग-बिरंगे सपने करे हैं..
समर्पण की साधना दुष्कर, 'सलिल' होती सहज भी-
अबीरी-अँजुरी करे अर्पण बिना, हम कब टरे हैं..
२१-३-२०११
***
हाइकु मुक्तिका
*
आया वसंत, / इन्द्रधनुषी हुए / दिशा-दिगंत..
शोभा अनंत / हुए मोहित, सुर / मानव संत..
*
प्रीत के गीत / गुनगुनाती धूप / बनालो मीत.
जलाते दिए / एक-दूजे के लिए / कामिनी-कंत..
*
पीताभी पर्ण / संभावित जननी / जैसे विवर्ण..
हो हरियाली / मिलेगी खुशहाली / होगे श्रीमंत..
*
चूमता कली / मधुकर गुंजार / लजाती लली..
सूरज हुआ / उषा पर निसार / लाली अनंत..
*
प्रीत की रीत / जानकार न जाने / नीत-अनीत.
क्यों कन्यादान? / 'सलिल' वरदान / दें एकदंत..
***
मुक्तिका
*
खर्चे अधिक आय है कम.
दिल रोता आँखें हैं नम..
पाला शौक तमाखू का.
बना मौत का फंदा यम्..
जो करता जग उजियारा
उस दीपक के नीचे तम..
सीमाओं की फ़िक्र नहीं.
ठोंक रहे संसद में ख़म..
जब पाया तो खुश न हुए.
खोया तो करते क्यों गम?
टन-टन रुचे न मन्दिर की.
रुचती कोठे की छम-छम..
वीर भोग्या वसुंधरा
'सलिल' रखो हाथों में दम..
***
मुक्तक
मौन वह कहता जिसे आवाज कह पाती नहीं.
क्या क्षितिज से उषा-संध्या मौन हो गाती नहीं.
शोरगुल से शीघ्र ही मन ऊब जाता है 'सलिल'-
निशा जो स्तब्ध हो तो क्या तुम्हें भाती नहीं?
२१-३-२०१०
*

सोमवार, 30 अक्टूबर 2023

सॉनेट, भोर, बारिश, भारत आरती, लघुकथा, मुक्तिका, नवगीत, अश'आर, दिल, अभियंता, त्रिभंगी छंद

सॉनेट

भोर
*
भोर भई जागो रे भाई!
बिदा करो, अरविंद जा रहा।
सुनो प्रभाती, सूर्य आ रहा।।
प्राची पर छाई अरुणाई।।
गौरैया मुँडेर पर चहकी।
फल कुतरे झट झपट गिलहरी।
टिट् टिट् मिलती गले टिटहरी।।
फुलबगिया मुस्काई-महकी।।
चंपा पर रीझा है गेंदा।
जुही-चमेली लख सकुँचाई
सदा सुहागिन सोहे बेंदा।।
नेह नर्मदा कूद नहाएँ
चपल रश्मियाँ छप् छपाक् कर
सोनपरी हो लहर सिहाए।।
३०-१०-२०२२, ९•११
●●●
सॉनेट
बारिश तुम फिर
१.
बारिश तुम फिर रूठ गई हो।
तरस रहा जग होकर प्यासा।
दुबराया ज्यों शिशु अठमासा।।
मुरझाई हो ठूठ गई हो।।
कुएँ-बावली बिलकुल खाली।
नेह नर्मदा नीर नहीं है।
बेकल मन में धीर नहीं है।।
मुँह फेरे राधा-वनमाली।।
दादुर बैठे हैं मुँह सिलकर।
अंकुर मरते हैं तिल-तिलकर।
झींगुर संग नहीं हिल-मिलकर।
बीरबहूटी हुई लापता।
गर्मी सबको रही है सता।
जंगल काटे, मनुज की खता।।
*
२.
मान गई हो, बारिश तुम फिर।
सदा सुहागिन सी हरियाईं।
मेघ घटाएँ नाचें घिर-घिर।।
बरसीं मंद-मंद हर्षाईं।।
आसमान में बिजली चमकी।
मन भाई आधी घरवाली।
गिरी जोर से बिजली तड़की।।
भड़क हुई शोला घरवाली।।
तन्वंगी भीगी दिल मचले।
कनक कामिनी देह सुचिक्कन।
दृष्टि न ठहरे, मचले-फिसले।।
अनगिन सपने देखे साजन।।
सुलग गई हो बारिश तुम फिर।
पिघल गई हो बारिश तुम फिर।।
*
३.
क्रुद्ध हुई हो बारिश तुम फिर।
सघन अँधेरा आया घिर घिर।।
बरस रही हो, गरज-मचल कर।
ठाना रख दो थस-नहस कर।।
पर्वत ढहते, धरती कंपित।
नदियाँ उफनाई हो शापित।।
पवन हो गया क्या उन्मादित?
जीव-जंतु-मनु होते कंपित।।
प्रलय न लाओ, कहर न ढाओ।
रूद्र सुता हे! कुछ सुस्ताओ।।
थोड़ा हरषो, थोड़ा बरसो।
जीवन विकसे, थोड़ा सरसो।।
भ्रांत न हो हे बारिश! तुम फिर।
शांत रही हे बारिश! हँस फिर।।
३०-१०-२०२२
***
भारत आरती
संजीव
*
आरती भारत माता की
पुण्य भू जग विख्याता की
*
सूर्य ऊषा वंदन करते
चाँदनी चाँद नमन करते
सितारे गगन कीर्ति गाते
पवन यश दस दिश गुंजाते
देवगण पुलक, कर रहे तिलक
ब्रह्म हरि शिव उद्गाता की
आरती भारत माता की
*
हिमालय मुकुट शीश सोहे
चरण सागर पल पल धोए
नर्मदा कावेरी गंगा
ब्रह्मनद सिंधु करें चंगा
असुर सुर मानव त्राता की
आरती भारत माता की
*
करें शृंगार सकल मौसम
कहें मैं-तू मिलकर हों हम
ऋचाएँ कहें सनातन सच
सत्य-शिव-सुंदर कह-सुन रच
अगिन जनगण सुखदाता की
आरती भारत माता की
*
द्वीप जंबू छवि मनहारी
छटा आर्यावर्ती न्यारी
गोंडवाना है हिंदुस्तान
इंडिया भारत देश महान
जीव संजीव विधाता की
आरती भारत माता की
*
मिल अनल भू नभ पवन सलिल
रचें सब सृष्टि रहें अविचल
अगिन पंछी करते कलरव
कृषक श्रम कर वरते वैभव
ज्ञान-सुख-शांति प्रदाता की
आरती भारत माता की
३०-१०-२०२०
***
लघुकथा
कौन जाने कब?
*
'बब्बा! भाग्य बड़ा होता है या कर्म?' पोते ने पूछा।
''बेटा! दोनों का अपना-अपना महत्व है, दोनों में से किसी एक को बड़ा और दूसरे को छोटा नहीं कहा जा सकता।''
'दोनों की जरूरत ही क्या है? क्या एक से काम नहीं चल सकता?'
''तुम्हारे पापा-मम्मी का बैंक में लॉकर है न?''
'हाँ, है।'
''लॉकर की क्या जरूरत है?''
'मम्मी ने बताया था कि घर में रखने से कीमती सामान की चोरी हो सकती है। इसलिए बैंक में सुरक्षित स्थान लेकर वहाँ कीमती सामान रखते हैं।'
'' शाबाश! लॉकर की चाबी किसके पास होती हैं?''
'पापा से पूछा था मैंने। पापा ने बताया कि लॉकर में दो ताले होते हैं। एक की चाबी बैंक के प्रबंधक तथा दूसरी की लॉकर खोलने वाले के पास होती है।'
''ऐसा क्यों?''
'क्या बब्बा! आपको कुछ भी नहीं मालूम क्या?, मैं आपसे पूछने आया था आप मुझसे ही पूछते जा रहे हो।'
''तुम इस सवाल का जवाब बताओ, फिर मैं तुम्हारे सवाल का जवाब दूँगा।''
'ठीक है, सवाल जरूर बताना। यह यह नहीं कि मुझसे पूछ लो और फिर मेरे सवाल का जवाब न बताओ।'
''नहीं, तुम्हारे सवाल का जवाब जरूर बताऊँगा।''
'ठीक है, फिर सुनों। मम्मी-पापा जब लॉकर खोलने जाते हैं, तब मैनेजर पहले अपनी चाबी लगाकर एक ताला खोलता है और चला जाता है, तब मम्मी-पापा अपनी चाबी से दूसरा ताला खोलकर सामान रखते-निकालते हैं, फिर लॉकर बंद कर देते हैं। तब मैनेजर अपनी चाबी से दूसरा लॉकर बंद करता है।'
''वाह, तुम तो बहुत होशियार हो। अब आखिरी प्रश्न का उत्तर दो। दो ताले क्यों जरूरी हैं?''
'इसलिए कि मम्मी-पापा सामान रख दें तो मैनेजर या कोई दूसरा चुपचाप निकल न सके। दूसरी तरफ कोइ ग्राहक चुपचाप सामान निकालकर बैंक पर चोरी का आरोप लगाकर सामान न माँगने लगे।'
''क्या बात है? अब तो तुम्हारे प्रश्न का उत्तर तुमने ही दे दिया है।''
'वह कैसे?'
''वह ऐसे कि बैंक मैनेजर के पास जो चाबी है वह है भाग्य। तुम्हारे मम्मी-पापा के पास जो चाबी है, वह है कर्म। कर्म और भाग्य दोनों चाबी एक साथ लगाए बिना लॉकर नहीं खुलता।''
'यह तो आप ठीक कह रहे हैं, पर मेरा सवाल?'
''यही तो तुम्हारे सवाल का जवाब है। तुम्हारी तुम जो पाना चाहते हो वह है लॉकर, मेहनत एक चाबी है जो तुम्हारे पास है और भाग्य दूसरी चाबी है जो भगवान या किस्मत के पास है। चाहत का लॉकर खोलने के लिए दोनों चाबियाँ लगाना जरूरी है। भगवान या किस्मत अपनी चाबी कब लगाएगी तुम्हें नहीं मालूम। तुम उनसे चाबी लगवा भी नहीं सकते। लेकिन जब वह चाबी लगे तब भी चाहत का लॉकर नहीं खुलेगा यदि तुम्हारी कोशिश की चाबी न लगी हो।''
'समझ गया, समझ गया। आप कह रहे हो कि मैं चाहत का लॉकर खोलने के लिए, कोशिश की चाबी बार-बार लगाता रहूँ। जैसे ही किस्मत की चाबी लगेगी, चाहत का लॉकर खुल जाएगा। समझ गया, अच्छा बब्बा चलता हूँ।'
''कहाँ चल दिए?''
'और कहाँ?, अपना बस्ता लेकर गणित का सवाल हल करने की कोशिश करने। परीक्षा परिणाम का लॉकर खोलना है न। खुलेगा ही लेकिन कौन जाने कब?'
***
लघु कथा:
सच्चा उत्सव
*
उपहार तथा शुभकामना देकर स्वरुचि भोज में पहुँचा, हाथों में थमी प्लेटों में कहीं मुरब्बा दही-बड़े से गले मिल रहा था, कहीं रोटी पापड़ के गाल पर दाल मल रही थी, कहीं भटा भिन्डी से नैन मटक्का कर रहा था और कहीं इडली-सांभर को गुत्थमगुत्था देखकर डोसा मुँह फुलाये था।
इनकी गाथा छोड़ चले हम मीठे के मैदान में वहाँ रबड़ी के किले में जलेबी सेंध लगा रही थी, दूसरे दौने में गोलगप्पे आलूचाप को ठेंगा दिखा रहे थे।
जितने अतिथि उतने प्रकार की प्लेटें और दौने, जिस तरह सारे धर्म एक ईश्वर के पास ले जाते हैं वैसे ही सब प्लेटें और दौने कम खाकर अधिक फेंके गये स्वादिष्ट सामान को वेटर उठाकर बाहर कचरे के ढेर पर पहुँचा रहे थे।
हेलो-हाय करते हुए बाहर निकला तो देखा चिथड़े पहने कई बड़े-बच्चे और श्वान-शूकर उस भंडारे में अपना भाग पाने में एकाग्रचित्त निमग्न थे, उनके चेहरों की तृप्ति बता रही थी की यही है सच्चा उत्सव।
***
नव प्रयोग
*
छंद सूत्र: य न ल
*
मुक्तक-
मिलोगी जब तुम,
मिटेंगे तब गम।
खिलेंगे नित गुल
हँसेंगे मिल हम।।
***
मुक्तिका -
हँसा है दिनकर
उषा का गह कर।
*
कहेगी सरगम
चिरैया छिपकर।
*
अँधेरा डरकर
गया है मरकर।
*
पियेगा जल नित
मजूरा उठकर।
*
न नेता सुखकर
न कोई अफसर।
*
सुसिंधु सलिलज
सुमेघ जलधर।
*
कबीर सच कह
अमीर धन धर।
३०-१०-२०१८
***
:नवगीत:
राम रे!
*
राम रे!
तनकऊ नई मलाल???
*
भोर-साँझ लौ
गोड़ तोड़ रै
काम चोर बे कैते
पसरे रैत
ब्यास गादी पे
भगतन संग लपेटे
काम-पुजारी
गीता बाँचे
हेरें गोप निहाल।
आँधर ठोकें ताल
राम रे!
बारो डाल पुआल।
राम रे!
तनकऊ नई मलाल???
*
झिमिर-झिमिर-झम
बूँदें टपकें
रिस रए छप्पर-छानी
मैली कर दई रैटाइन की
किन्नें धोती धानी?
लज्जा ढाँपे
सिसके-कलपे
ठोंके आप कपाल
मुए हाल-बेहाल
राम रे!
कैसा निर्दय काल?
राम रे!
तनकऊ नई मलाल???
*
भट्टी-देह न देत दबाई
पैले मांगें पैसा
अस्पताल मा
घुसे कसाई
ठाणे-अरना भैंसा
काले कोट
कचैरी घेरे
बकरा करें हलाल
नेता भए बबाल
राम रे!
लूट बजा रए गाल
राम रे!
तनकऊ नई मलाल???
३०-१०-२०१५
***
चंद अश'आर
दिल
*
इस दिल की बेदिली का आलम न पूछिए
तूफ़ान सह गया मगर क़तरे में बह गया
*
दिलदारों की इस बस्ती में दिलवाला बेमौत मरा
दिल के सौदागर बन हँसते मिले दिलजले हमें यहाँ
*
दिल पर रीझा दिल लेकिन बिल देख नशा काफूर हुआ
दिए दिवाली के जैसे ही बुझे रह गया शेष धुँआ
*
दिलकश ने ही दिल दहलाया दिल ले कर दिल नहीं दिया
बैठा है हर दिल अज़ीज़ ले चाक गरेबां नहीं सिया
*
नवगीत:
सांध्य सुंदरी
तनिक न विस्मित
न्योतें नहीं इमाम
जो शरीफ हैं नाम का
उसको भेजा न्योता
सरहद-करगिल पर काँटों की
फसलें है जो बोता
मेहनतकश की
थकन हरूँ मैं
चुप रहकर हर शाम
नमक किसी का, वफ़ा किसी से
कैसी फितरत है
दम कूकुर की रहे न सीधी
यह ही कुदरत है
खबरों में
लाती ही क्यों हैं
चैनल उसे तमाम?
साथ न उसके मुसलमान हैं
बंदा गंदा है
बिना बात करना विवाद ही
उसका धंधा है
थूको भी मत
उसे देख, मत
करना दुआ-सलाम
***
नवगीत:
राष्ट्रलक्ष्मी!
श्रम सीकर है
तुम्हें समर्पित
खेत, फसल, खलिहान
प्रणत है
अभियन्ता, तकनीक
विनत है
बाँध-कारखाने
नव तीरथ
हुए समर्पित
कण-कण, तृण-तृण
बिंदु-सिंधु भी
भू नभ सलिला
दिशा, इंदु भी
सुख-समृद्धि हित
कर-पग, मन-तन
समय समर्पित
पंछी कलरव
सुबह दुपहरी
संध्या रजनी
कोशिश ठहरी
आसें-श्वासें
झूमें-खांसें
अभय समर्पित
शैशव-बचपन
यौवन सपने
महल-झोपड़ी
मानक नापने
सूरज-चंदा
पटका-बेंदा
मिलन समर्पित
***
नवगीत:
हर चेहरा है
एक सवाल
शंकाकुल मन
राहत चाहे
कहीं न मिलती.
शूल चुभें शत
आशा की नव
कली न खिलती
प्रश्न सभी
देते हैं टाल
क्या कसूर,
क्यों व्याधि घेरती,
बेबस करती?
तन-मन-धन को
हानि अपरिमित
पहुँचा छलती
आत्म मनोबल
बनता ढाल
मँहगा बहुत
दवाई-इलाज
दिवाला निकले
कोशिश करें
सम्हलने की पर
पग फिर फिसले
किसे बताएं
दिल का हाल?
***
संजीवनी अस्पताल, रायपुर

२९-११-२०१४ 

***
गीत:
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए…
*
पलो आँख में स्वप्न बनकर सदा तुम
नयन-जल में काजल कहीं बह न जाए.
जलो दीप बनकर अमावस में ऐसे
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए…
*
अपनों ने अपना सदा रंग दिखाया,
न नपनों ने नपने को दिल में बसाया.
लगन लग गयी तो अगन ही सगन को
सहन कर न पायी पलीता लगाया.
दिलवर का दिल वर लो, दिल में छिपा लो
जले दिलजले जलजले आ न पाए...
*
कुटिया ही महलों को देती उजाला
कंकर के शंकर को पूजे शिवाला.
मुट्ठी बँधी बाँधती कर्म-बंधन
खोलो न मोले तनिक काम-कंचन.
बहो, जड़ बनो मत शिलाओं सरीखे
नरमदा सपरना न मन भूल जाए...
*
सहो पीर धर धीर बनकर फकीरा
तभी हो सको सूर मीरा कबीरा.
पढ़ो ढाई आखर, नहा स्नेह-सागर
भरो फेफड़ों में सुवासित समीरा.
मगन हो गगन को निहारो, सुनाओ
'सलिल' नाद अनहद कहीं खो जाए...
*
सगन = शगुन, जलजला = भूकंप, नरमदा = नर्मदा, सपरना = स्नान करना
त्रिभंगी सलिला:
हम हैं अभियंता
*
(छंद विधान: १० ८ ८ ६ = ३२ x ४)
*
हम हैं अभियंता नीति नियंता, अपना देश सँवारेंगे
हर संकट हर हर मंज़िल वर, सबका भाग्य निखारेंगे
पथ की बाधाएँ दूर हटाएँ, खुद को सब पर वारेंगे
भारत माँ पावन जन मन भावन, श्रम-सीकर चरण पखारेंगे
*
अभियंता मिलकर आगे चलकर, पथ दिखलायें जग देखे
कंकर को शंकर कर दें हँसकर मंज़िल पाएं कर लेखे
शशि-मंगल छूलें, धरा न भूलें, दर्द दीन का हरना है
आँसू न बहायें , जन-गण गाये, पंथ वही तो वरना है
*
श्रम-स्वेद बहाकर, लगन लगाकर, स्वप्न सभी साकार करें
गणना कर परखें, पुनि-पुनि निरखें, त्रुटि न तनिक भी कहीं वरें
उपकरण जुटाएं, यंत्र बनायें, नव तकनीक चुनें न रुकें
आधुनिक प्रविधियाँ, मनहर छवियाँ, उन्नत देश करें
*
नव कथा लिखेंगे, पग न थकेंगे, हाथ करेंगे काम काम सदा
किस्मत बदलेंगे, नभ छू लेंगे, पर न कहेंगे 'यही बदा'
प्रभु भू पर आयें, हाथ बटायें, अभियंता संग-साथ रहें
श्रम की जयगाथा, उन्नत माथा, सत नारायण कथा कहें
३०-१०-२०१३
***

बुधवार, 1 जुलाई 2020

त्रिभंगी छंद


छंद सलिला:
त्रिभंगी छंद
संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति लाक्षणिक, प्रति चरण मात्रा ३२ मात्रा, यति १०-८-८-६, पदांत गुरु, चौकल में पयोधर (लघु गुरु लघु / जगण) निषेध।
लक्षण छंद:
रच छंद त्रिभंगी / रस अनुषंगी / जन-मन संगी / कलम सदा
दस आठ आठ छह / यति गति मति सह / गुरु पदांत कह / सुकवि सदा
उदाहरण:
१. भारत माँ परायी / जग से न्यारी / सब संसारी नमन करें
सुंदर फुलवारी / महके क्यारी / सत आगारी / चमन करें
मत हों व्यापारी / नगद-उधारी / स्वार्थविहारी / तनिक डरें
हों सद आचारी / नीति पुजारी / भू सिंगारी / धर्म धरें
२. मिल कदम बढ़ायें / नग़मे गायें / मंज़िल पायें / बिना थके
'मिल सकें हम गले / नील नभ तले / ऊग रवि ढ़ले / बिना रुके
नित नमन सत्य को / नाद नृत्य को / सुकृत कृत्य को / बिना चुके
शत दीप जलाएं / तिमिर हटायें / भोर उगायें / बिना झुके
३. वैराग-राग जी / तुहिन-आग जी / भजन-फाग जी / अविचल हो
कर दे मन्वन्तर / दुःख छूमंतर / शुचि अभ्यंतर अविकल हो
बन दीप जलेंगे / स्वप्न पलेंगे / कर न मलेंगे / उन्मन हो
मिल स्वेद बहाने / लगन लगाने / अमिय बनाने / मंथन हो
----------
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अवतार, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उड़ियाना, उपमान, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, कुकुभ, कज्जल, कामिनीमोहन, काव्य, कीर्ति, कुण्डल, कुडंली, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जग, जाया, तांडव, तोमर, त्रिभंगी, त्रिलोकी, दण्डकला, दिक्पाल, दीप, दीपकी, दोधक, दृढ़पद, नित, निधि, निश्चल, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रभाती, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदन,मदनावतारी, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, मृदुगति, योग, ऋद्धि, रसामृत, रसाल, राजीव, राधिका, रामा, रूपमाला, लीला, वस्तुवदनक, वाणी, विरहणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुद्ध ध्वनि, शुभगति, शोभन, सरस, सार, सारस, सिद्धि, सिंहिका, सुखदा, सुगति, सुजान, सुमित्र, संपदा, हरि, हेमंत, हंसगति, हंसी)

शनिवार, 21 मार्च 2020

त्रिभंगी छंद

त्रिभंगी छंद:
संजीव 'सलिल'
*
ऋतु फागुन आये, मस्ती लाये, हर मन भाये, यह मौसम।
अमुआ बौराये, महुआ भाये, टेसू गाये, को मो सम।।
होलिका जलायें, फागें गायें, विधि-हर शारद-रमा मगन-
बौरा सँग गौरा, भूँजें होरा, डमरू बाजे, डिम डिम डम।।
२१.३.२०१३ 
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शुक्रवार, 19 जुलाई 2019

त्रिभंगी सलिला: हम हैं अभियंता

त्रिभंगी सलिला:
हम हैं अभियंता
संजीव
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(छंद विधान: १० ८ ८ ६ = ३२ x ४)
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हम हैं अभियंता नीति नियंता, अपना देश सँवारेंगे
हर संकट हर हर मंज़िल वर, सबका भाग्य निखारेंगे
पथ की बाधाएँ दूर हटाएँ, खुद को सब पर वारेंगे
भारत माँ पावन जन मन भावन, श्रम-सीकर चरण पखारेंगे
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अभियंता मिलकर आगे चलकर, पथ दिखलायें जग देखे
कंकर को शंकर कर दें हँसकर मंज़िल पाएं कर लेखे
शशि-मंगल छूलें, धरा न भूलें, दर्द दीन का हरना है
आँसू न बहायें , जन-गण गाये, पंथ वही तो वरना है
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श्रम-स्वेद बहाकर, लगन लगाकर, स्वप्न सभी साकार करें
गणना कर परखें, पुनि-पुनि निरखें, त्रुटि न तनिक भी कहीं वरें
उपकरण जुटाएं, यंत्र बनायें, नव तकनीक चुनें न रुकें
आधुनिक प्रविधियाँ, मनहर छवियाँ, उन्नत देश करें
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नव कथा लिखेंगे, पग न थकेंगे, हाथ करेंगे काम काम सदा
किस्मत बदलेंगे, नभ छू लेंगे, पर न कहेंगे 'यही बदा'
प्रभु भू पर आयें, हाथ बटायें, अभियंता संग-साथ रहें
श्रम की जयगाथा, उन्नत माथा, सत नारायण कथा कहें
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Sanjiv verma 'Salil'
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'salil'