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गुरुवार, 7 अगस्त 2025

अगस्त ७, सॉनेट, लघुकथा, चित्रगुप्त, मैं, तुम, ज्योतिष जन्म लग्न, पूर्णिका

सलिल सृजन अगस्त ७
*
पूर्णिका
.
कहिए कम, पढ़िए अधिक
सत् के प्रति रखिए ललक
,.
मंज़िल पाने के लिए
हँसकर श्रम करिए अथक
.
सिर पर चढ़कर बोलती
सुरा पिएँ यदि आप तक
.
सँकुचे-मुरझाए कली
भ्रमर तके घर एकटक
.
अगर शत्रु से सामना
भाई से मत हों पृथक
.
करें फैसले सोचकर
सही न होते यक-ब-यक
.
अपनापन संजीवनी
‌हरता मन का चैन शक
७.८.२०२५
०००
ज्योतिष
जन्म लग्न, रोग और भोजन पात्र -
मेष, सिंह, वृश्चिक लग्न- ताँबे के बर्तन पित्त, गुरदा, ह्रदय, श्रम भगंदर, यक्ष्मा आदि रोगों से बचायेंगे।
मिथुन, कन्या, धनु, मीन लग्न- स्टील के बर्तनों से अनिद्रा, गठिया, जोड़ दर्द, तनाव, अम्लता, आंत्र दोष की संभावना। कांसे के बर्तन लाभदायक।
वृष, कर्क, तुला लग्न - स्टील के बर्तनों से आँख, कान, गले, श्वास, मस्तिष्क संबंधी रोग हो सकते हैं। चाँदी - पीतल मिश्र धातु का प्रयोग लाभप्रद।
मकर लग्न - किसी धातु के साथ लकड़ी के पात्र का प्रयोग वायु दोष, चर्म रोग, तिल्ली, उर्वरता, स्मरण शक्ति हेतु फायदे मन्द।
कुम्भ लग्न - स्टील पात्र लाभप्रद, मिट्टी के पात्र में केवड़ा मिला जल लाभदायक।
***
सॉनेट
असली-नकली
असली-नकली चित-पट जैसे,
रहते साथ, न साथ निभाते,
दृश्य दिखाते कैसे-कैसे,
कभी नाचते, कभी नचाते।
जब मिलते लड़ते टें-टें कर,
यह उसको है धता बताता,
पक्ष-विपक्ष सदृश चें-चें कर
वह इसको है जीभ चिढ़ाता।
नूरा कुश्ती करते रहते,
ताल ठोंकते, ताली मारें,
नीर-क्षीर सम कभी न मिलते,
यह चिंघाड़े, वह फुंँफकारे।
खोटी मुद्रा कब्जा करती।
खरी न टिक पाती है डरती।।
७-८-२०२३
•••
कृतिचर्चा :
'रेत हुआ दिन' गीत के बिन
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण : रेत हुआ दिन, नवगीत संग्रह, जयप्रकाश श्रीवास्तव, प्रथम संस्करण अगस्त २०२०, आकार २१.५ से.मी. x १४ से.मी., पृष्ठ संख्या १२४, आवरण बहुरंगी पेपरबैक लेमिनेटेड, मूल्य १५०/-, युगधारा प्रकाशन लखनऊ, गीतकार संपर्क : ७८६९१ ९३९२७, ९७१३५ ४४६४२।]
*
मनुष्य का गीत से प्रथम परिचय माँ की लोरी के मध्यम से होता है। गर्भ में लोरता (करवट बदलता) गुनगुनाहट की प्रतीति से हर्षित होता है। अभिमन्यु ने चक्रव्यूह प्रवेश की विद्या माँ सुभद्रा के गर्भ में ही सीखी थी। इस पौराणिक आख्यान की पुष्टि आधुनिक विज्ञान भी करता है। श्वास-प्रश्वास की लय के साथ माँ के कंठ से नि:सृत गीत को शिशु जन्म पूर्व ही पहचान लेता है और जन्मोपरांत सुन कर रोते-रोते चुप हो जाता है। वाचिक लय बद्ध गीतिकाव्य लिपिबद्ध होने पर वार्णिक-मात्रिक छंद के रूप में पहचाना जाकर 'गीत' कहलाता है। गीत के अनिवार्य तत्व कथ्य, रस, छंद, अलंकार, बिम्ब, प्रतीक, मिथक, शैली आदि हैं। गीत के किसी तत्व में 'नवता' होने पर उसे 'नवगीत' कहा जाना चाहिए जैसे यौवन में प्रवेश करते युवा को 'नवयुवक' कहा जाता है। 'नवता' रूढ़ नहीं हो सकती, वह सतत परिवर्तित होती चेतना है। हिंदी में नवगीत को आंदोलन की तरह अधिरोपित करने का प्रयास साम्यवाद के प्रति प्रतिबध्द गीतकारों ने लगभग आठ दशक पूर्व किया। तब जिसने जैसी परिभाषा प्रस्तुत की उसे रूढ़ मानकर आज भी नवगीत रचे जा रहे हैं। अंतर मात्र यह है कि आरंभ में जो विषय और विचार नए थे, वे अब घिसते-घिसते जराजीर्ण होकर नवता का उपहास करते प्रतीत होते हैं। सामाजिक विसंगतियों, विडंबनाओं और टटकेपन के नाम पर नवगीत को नकारात्मक ऊर्जा का भंडार बना दिया गया है। भारतीय लोक मनीषा उत्सव धर्मी है। वह अभावों में भी हँसना जानती है, लोकदेवता शिव विष पीकर भी अमर हो जाते हैं। ऋतु परिवर्तन, कृषि जन्य बीज बोने, रोपे लगाने, फसल देखने-काटने आदि ही नहीं भोर और साँझ होने पर भी गीत गायन लोक जीवन का अंग है। सरस गीतों को गाकर जिजीविषाजयी होते लोक को तथाकथित नवगीतीय शोकमुद्रा रास नहीं आई। फलत:, नवगीत लोक से कटकर नवगीतकारों के खेमे तक सीमित रहकर दम तोड़ने लगा।
नवगीत को इस विवशता से मुक्ति देकर नवजीवन देने के लिए सतत सृजनरत कलमों में एक कलम है जयप्रकाश श्रीवास्तव की। संयोगवश उनका नाम ही प्रकाश का जयघोष करता है और यह भी कि नवगीत को 'श्री' वास्तव में तभी मिल सकती है जब वह प्रकाश की जय बोले, जीवन में रस घोले, जिसे गुनगुनाकर कोई आमजन किसी नदी-निर्झर के किनारे डोले। रचनात्मक परिवर्तन एकाएक और पूरी तरह एक बार में नहीं होता, वह क्रमिक रूप से सामने आता है। पहली दो गीत कृतियों मन का साकेत और परिंदे संवेदना के में जयप्रकाश के गीत विविध रसों में स्नान करते प्रति होते हैं जबकि तीसरा संग्रह 'शब्द वर्तमान' के गीत विसंगति-विडंबना प्रधान हैं। जय प्रकाश का 'शिक्षक' जानता है उजाला और अँधेरा सहोदर होते हैं किंतु पर्व 'अँधेरे का नहीं, उजाले का मनाया जाता है और यह भी कि अँधेरा स्वयमेव हो जाता है, उजाला करना होता है। वे अपने चौथी गीत कृति 'रेत हुआ दिन' में गीतों के माध्यम से उजाला करने की ओर कदम बढ़ाते हैं।
आँगनों की धूप
छत की मुँडेरों पर
बैठ दिन को भेज रही है।
यहाँ किसी एक आँगन की नहीं, आँगनों की जा रही है, धूप दिन को भज रही है, दिन कर्मठता का आह्वान करता है। गीतकार धूप के माध्यम से कर्मयोग का संकेत करता है।
सुबह की ठिठुरन
रजाई में दुबकी
रात भरती उसाँसें
लेती है झपकी
सिहरते से रूप
काजल कोर बहती
आँख सपने तज रही है।
यह अन्तरा विश्राम करती रात और सुबह की ठिठुरन से उबरकर आँख को सपने तजकर सच से साक्षात करने की प्रेरणा दे रहा है। अगले अन्तरे में कर्म-संदेश और उभरता है आलस अंगड़ाई लेकर हँसते हुए फटकने-बुहारने का काम करने को उद्यत होता है।
अलस अँगड़ाई
उठा घूँघट खड़ी है
झटकती सी सिर
हँसी होंठों जड़ी है
फटकती है सूप
झाड़ू से बुहारे
भोर उजली सज रही है।
अंतिम अंतरे में सुआ बटलोई चढ़ाकर चित्रकोटी पढ़ रहा है, कूप जग गए हैं, पनघट टेर रहा है और पायल छनक रही है। स्पष्ट: समूचा गीत, नकारात्मकता पर सकारात्मकता का विजय नाद गुँजा रहा है। यह नवता ही नवगीत को नवजीवन देने में समर्थ होगी। अभिव्यक्ति ही जन-गण के मन को श्रम सीकर बहाने की प्रेरणा देगा।
जयप्रकाश विसंगतियों का महिममण्डन नहीं करते, वे व्यवस्था के सामने सवाल उठाते हैं -
क्यों हैं चिड़िया गुमसुम बैठी?
क्यों आँगन खामोश हुआ है?
गीत की १४ पंक्तियाँ 'क्यों' के माध्यम से, बिना कहे पाठक के मन में बदलाव की चिंगारी सुलगाने के लिए ईंधन का काम करती हैं। घिसे-पिटे नवगीतों का वैषम्य-विलाप यहाँ नहीं है।
नवगीतों के कलेवर को और अधिक स्पष्ट और प्रेरक हुए जयप्रकाश आशावादिता, हर्ष और हुलास को नवगीत का कलेवर बनाते हुए 'आओ तो' शीर्षक गीत में श्रृंगार सुरभि से नवगीत का सत्कार करते हैं-
कुछ सपनों ने
जन्म लिया है
तुम आओ तो आँखें खोलें।
नींद सुलाकर
गई अभी है
चंदा ने गाई है लोरी
रात झुलाती रही पालना
दूध-भात की लिए कटोरी
फूलों ने है
गंध बिखेरी
तुम हँस दो तो दर्पन बोलें।
किरन डोर से बँधे उजाले लेकर आती भोर, धूप उगाता सूरज, मंदिर में बजती घंटियाँ, पंछियों के कलरव, सुवासित समीर में अमृत घोलते भजन-आरती आदि को प्रतिबद्ध विचारधारा के बंदी मठाधीशों ने बहिष्कृत कर रखा था। 'काल है संक्रांति का' से नवगीतों की जमीन में लोक छंदों और लोक गीतों को रोपने के जिस कार्य का श्री गणेश किया गया था, उसे जयप्रकाश जी ने आगे बढ़ाया है। विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर की नवगीत कार्यशालाओं के अभिन्न अंग के रूप में जयप्रकाश जी नवगीत के जमीनी जुड़ाव को भाषिक टटकापन तक सीमित न रखकर लोक जीवन से संश्लिष्ट रखने के पक्षधर रहे हैं।
जीतने की ज़िद और जीने की जिजीविषा को नवगीत में लाता है नवगीत 'एक जंगल'-
एक जंगल
खड़ा है चुपचाप
पीकर आग का दरिया
है अभी जीवित
सदी मुझमें
हरापन बोलता है
जड़ों से लेकर
शिराओं में
लहू बन डोलता है
चहकती है
सुन नई पदचाप
आँगन गंध गौरैया।
'फटेहाल / सी रहा ज़िंदगी / बैठ मेड़ पर रमुआ' कोशिश करते रहने का संदेश देता नवगीत है।
नवगीत में 'जगती आस / पत्ते नयापन बुनते', 'डालियों पर / फुदकते संलाप', 'अंकुरित फिर से / हुआ है बीज' शब्दावली मरुथल में ताजी सावनी बयार के झोंके की तरह जान में जान फूँकने में समर्थ है।
नवगीत में प्रेम को वर्ज्य मानने की जड़ता पर शब्द प्रहार करते जयप्रकाश 'चलो प्रेम की ऊँगली थामें / कुछ दूरी तक साथ चलें', 'आओ, स्नेह भरे बालों से / मन के सब कल्मष धोलें', 'माटी सोंधी अपनेपन की / बोयें खुशियों की फसलें' पर ही न रुककर नवगीत को सकारात्मक सोद्देश्यता देते हुए 'घुट-घुटकर जीने से अच्छा / पल दो पल गालें। हँस लें' का जय घोष करते हैं।
विसंगति और त्रासदी में भी जीवट और जिजीविषा को मरने न देना इन नवगीतों का वैशिष्ट्य है।
वह लड़की
कचरे के ढेर में
खोजे टुकड़े सपनों के।
काँधे पर लादे
सूरज की गठरी
परे हटा जागे
अंधियारी कथरी
बढ़ती कुछ
पाने के फेर में
काम आए जो अपनों के।
नवगीतों में संदेशपरकता, बोधात्मकता तथा संप्रेषणीयता का सम्यक तालमेल जयप्रकाश कर सके हैं। 'हमने साथ / भीड़-भाड़ से/ हरकर चलना सीख लिया', 'मत डराओ / खौलती खामोशियों से / हमने कोलाहल पिया है', 'आओ मिल-बैठकर / सुलझाएँ गुत्थियाँ / धो डालें मन के सब मैल' आदि दृष्टव्य हैं।
नवगीतों में पारिवारिक सहजता और स्नेहपरकता घोलकर उसे सहजग्राह्य बनाने में विनोद निगम का सानी नहीं है। जयप्रकाश भी पीछे नहीं है- 'तुम आँगन में / स्वेटर बुनती / मैं पढ़ता अखबार / वहीं धूप अठखेली करती', 'फिर यादों के / नीम झरोखे में आ बैठा / दादी का सपना', तुम नहीं आए / तुम्हारी याद आई / आँख से आँसू झरे'।
'रेत हुआ दिन' नवगीतकार जयप्रकाश श्रीवास्तव के नए तेवरों से समृद्ध ऐसा नवगीत संकलन है जो नई कलमों को नैराश्य के दंडकारण्य से निकाल कर उल्लास के सतपुड़ा-वनों में, हरसिंगारी पौधरोपण की प्रेरणा देकर नवगीत को 'स्यापा गीत' बनने से बचाकर, सोहर, चैती या राई के निकट ले जाएगा। इन नवगीतों में आह्वान गीत की छुअन, मिलन गीत का हुलास, बोध गीत की संदेशपरकता, जागरण गीत की सोद्देश्यता का परस इन्हें हर दिन छाप रहे नवगीतों की भीड़ से अलग खड़ा करता है। स्वाभाविक है कि लकीर के फकीर मठाधीशों को यह स्वर सहज स्वीकार न हो किन्तु बहुसंख्यक पाठक और नवगीतकार इनमें डूब-उतरा कर फिर-फिर रसास्वादन करने के साथ-साथ अगले संकलन की प्रतीक्षा करेंगे।
७-८-२०२१
***
भावांजलि
*
शारद सुता विदा हुई, माँ शारद के लोक
धरती माँ व्याकुल हुई, चाह न सकती रोक
*
सुषमा से सुषमा मिली, कमल खिला अनमोल
मानवता का पढ़ सकीं, थीं तुम ही भूगोल
*
हर पीड़ित की मदद कर, रचा नया इतिहास
सुषमा नारी शक्ति का, करा सकीं आभास
*
पा सुराज लेकर विदा, है स्वराज इतिहास
सब स्वराज हित ही जिएँ, निश-दिन किए प्रयास
*
राजनीति में विमलता, विहँस करी साकार
ओजस्वी वक्तव्य से, दे ममता कर वार
*
वाक् कला पटु ही नहीं, कौशल का पर्याय
लिखे कुशलता के कई, कौशलमय अध्याय
*
राजनीति को दे दिया, सुषमामय आयाम
भुला न सकता देश यह, अमर तुम्हारा नाम
*
शब्द-शब्द अंगार था, शीतल सलिल-फुहार
नवरस का आगार तुम, अरि-हित घातक वार
*
कर्म-कुशलता के कई, मानक रचे अनन्य
सुषमा जी शत-शत नमन, पाकर जनगण धन्य
*
शब्दों को संजीव कर, फूँके उनमें प्राण
दल-हित से जन-हित सधे, लोकतंत्र संप्राण
*
महिमामयी महीयसी, जैसा शुचि व्यक्तित्व
फिर आओ झट लौटकर, रटने नव भवितव्य
*
चिर अभिलाषा पूर्ति से, होकर परम प्रसन्न
निबल देह तुमने तजी, हम हो गए विपन्न
*
युग तुमसे ले प्रेरणा, रखे लक्ष्य पर दृष्टि
परमेश्वर फिर-फिर रचे, नव सुषमामय सृष्टि
७-८-२०१९
***
लघुकथा
दूषित वातावरण
*
अपने दल की महिला नेत्री की आलोचना को नारी अपमान बताते हुए आलोचक की माँ, पत्नि, बहन और बेटी के प्रति अपमानजनक शब्दों की बौछार करते चमचों ने पूरे शहर में जुलूस निकाला। दूरदर्शन पर दृश्य और समाचार देख के बुरी माँ सदमें में बीमार हो गयी जबकि बेटी दहशत के मारे विद्यालय भी न जा सकी। यह देख पत्नी और बहन ने हिम्मत कर कुछ पत्रकारों से भेंट कर विषम स्थिति की जानकारी देते हुए महिला नेत्री और उनके दलीय कार्यकर्ताओं को कटघरे में खड़ा किया।
कुछ वकीलों की मदद से क़ानूनी कार्यवाही आरम्भ की। उनकी गंभीरता देखकर शासन - प्रशासन को सक्रिय होना पड़ा, कई प्रतिबन्ध लगा दिए गए ताकि शांति को खतरा न हो। इस बहस के बीच रोज कमाने-खानेवालों के सामने संकट उपस्थित कर गया दूषित वातावरण।
***
लघुकथा
निज स्वामित्व
*
आप लघुकथा में वातावरण, परिवेश या पृष्ठ भूमि क्यों नहीं जोड़ते? दिग्गज हस्ताक्षर इसे आवश्यक बताते हैं।
यदि विस्तार में जाए बिना कथ्य पाठक तक पहुँच रहा है तो अनावश्यक विस्तार क्यों देना चाहिए? लघुकथा तो कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक कहने की विधा है न? मैं किसी अन्य विचारों को अपने लेखन पर बन्धन क्यों बनने दूँ। किसी विधा पर कैसे हो सकता है कुछ समीक्षकों या रचनाकारों का निज स्वामित्व?
***
लघुकथा
शर संधान
*
आजकल स्त्री विमर्श पर खूब लिख रही हो। 'लिव इन' की जमकर वकालत कर रहे हैं तुम्हारी रचनाओं के पात्र। मैं समझ सकती हूँ।
तू मुझे नहीं समझेगी तो और कौन समझेगा?
अच्छा है, इनको पढ़कर परिवारजनों और मित्रों की मानसिकता ऐसे रिश्ते को स्वीकारने की बन जाए उसके बाद बताना कि तुम भी ऐसा करने जा रही हो। सफल हो तुम्हारा शर-संधान।
***
लघुकथा
बेपेंदी का लोटा
*
'आज कल किसी का भरोसा नहीं, जो कुर्सी पर आया लोग उसी के गुणगान करने लगते हैं और स्वार्थ साधने की कोशिश करते हैं। मनुष्य को एक बात पर स्थिर रहना चाहिए।' पंडित जी नैतिकता का पाठ पढ़ा रहे थे।
प्रवचन से ऊब चूका बेटा बोल पड़ा- 'आप कहते तो ठीक हैं लेकिन एक यजमान के घर कथा में सत्यनारायण भगवान की जयकार करते हैं, दूसरे के यहाँ रुद्राभिषेक में शंकर जी की जयकार करते हैं, तीसरे के निवास पर जन्माष्टमी में कृष्ण जी का कीर्तन करते हैं, चौथे से अखंड रामायण करने के लिए कह कर राम जी को सर झुकाते हैं, किसी अन्य से नवदुर्गा का हवन करने के लिए कहते हैं। परमात्मा आपको भी तो कहता होंगे बेपेंदी का लोटा।'
७-८-२०१६
***
जन्म लग्न, रोग और भोजन पात्र -
मेष, सिंह, वृश्चिक लग्न- ताँबे के बर्तन पित्त, गुरदा, ह्रदय, श्रम भगंदर, यक्ष्मा आदि रोगों से बचायेंगे।
मिथुन, कन्या, धनु, मीन लग्न- स्टील के बर्तनों से अनिद्रा, गठिया, जोड़ दर्द, तनाव, अम्लता, आंत्र दोष की संभावना। कांसे के बर्तन लाभदायक।
वृष, कर्क, तुला लग्न - स्टील के बर्तनों से आँख, कान, गले, श्वास, मस्तिष्क संबंधी रोग हो सकते हैं। चाँदी - पीतल मिश्र धातु का प्रयोग लाभप्रद।
मकर लग्न - किसी धातु के साथ लकड़ी के पात्र का प्रयोग वायु दोष, चर्म रोग, तिल्ली, उर्वरता, स्मरण शक्ति हेतु फायदे मन्द।
कुम्भ लग्न - स्टील पात्र लाभप्रद, मिट्टी के पात्र में केवड़ा मिला जल लाभदायक।
***
चित्रगुप्त पूजन क्यों और कैसे?
श्री चित्रगुप्त का पूजन कायस्थों में प्रतिदिन प्रातः-संध्या में तथा विशेषकर यम द्वितीया को किया जाता है। कायस्थ उदार प्रवृत्ति के सनातन (जो सदा था, है और रहेगा) धर्मी हैं। उनकी विशेषता सत्य की खोज करना है इसलिए सत्य की तलाश में वे हर धर्म और पंथ में मिल जाते हैं। कायस्थ यह जानता और मानता है कि परमात्मा निराकार-निर्गुण है इसलिए उसका कोई चित्र या मूर्ति नहीं है, उसका चित्र गुप्त है। वह हर चित्त में गुप्त है अर्थात हर देहधारी में उसका अंश होने पर भी वह अदृश्य है। जिस तरह खाने की थाली में पानी न होने पर भी हर खाद्यान्न में पानी होता है उसी तरह समस्त देहधारियों में चित्रगुप्त अपने अंश आत्मा रूप में विराजमान होते हैं।
चित्रगुप्त ही सकल सृष्टि के मूल तथा निर्माणकर्ता हैं:
सृष्टि में ब्रम्हांड के निर्माण, पालन तथा विनाश हेतु उनके अंश ब्रम्हा-महासरस्वती, विष्णु-महालक्ष्मी तथा शिव-महाशक्ति के रूप में सक्रिय होते हैं। सर्वाधिक चेतन जीव मनुष्य की आत्मा परमात्मा का ही अंश है। मनुष्य जीवन का उद्देश्य परम सत्य परमात्मा की प्राप्ति कर उसमें विलीन हो जाना है। अपनी इस चितन धारा के अनुरूप ही कायस्थजन यम द्वितीय पर चित्रगुप्त पूजन करते हैं। सृष्टि निर्माण और विकास का रहस्य: आध्यात्म के अनुसार सृष्टिकर्ता की उपस्थिति अनहद नाद से जानी जाती है। यह अनहद नाद सिद्ध योगियों के कानों में प्रति पल भँवरे की गुनगुन की तरह गूँजता हुआ कहा जाता है। इसे 'ॐ' से अभिव्यक्त किया जाता है। विज्ञान सम्मत बिग बैंग थ्योरी के अनुसार ब्रम्हांड का निर्माण एक विशाल विस्फोट से हुआ जिसका मूल यही अनहद नाद है। इससे उत्पन्न ध्वनि तरंगें संघनित होकर कण (बोसान पार्टिकल) तथा क्रमश: शेष ब्रम्हांड बना।
यम द्वितीया पर कायस्थ एक कोरा सफ़ेद कागज़ लेकर उस पर चन्दन, हल्दी, रोली, केसर के तरल 'ॐ' अंकित करते हैं। यह अंतरिक्ष में परमात्मा चित्रगुप्त की उपस्थिति दर्शाता है। 'ॐ' परमात्मा का निराकार रूप है। निराकार के साकार होने की क्रिया को इंगित करने के लिये 'ॐ' को सृष्टि की सर्वश्रेष्ठ काया मानव का रूप देने के लिये उसमें हाथ, पैर, नेत्र आदि बनाये जाते हैं। तत्पश्चात ज्ञान की प्रतीक शिखा मस्तक से जोड़ी जाती है। शिखा का मुक्त छोर ऊर्ध्वमुखी (ऊपर की ओर उठा) रखा जाता है जिसका आशय यह है कि हमें ज्ञान प्राप्त कर परमात्मा में विलीन (मुक्त) होना है।
७-८-२०१४
***
दोहा सलिला:
'मैं'-'मैं' मिल जब 'हम' हुए...
*
'मैं'-'मैं' मिल जब 'हम' हुए, 'तुम' जा बैठा दूर.
जो न देख पाया रहा, आँखें रहते सूर..
*
'मैं' में 'तुम' जब हो गया, अपने आप विलीन.
व्याप गयी घर में खुशी, हर पल 'सलिल' नवीन..
*
'तुम' से 'मैं' की गैरियत, है जी का जंजाल.
'सलिल' इसी में खैरियत, 'हम' बन हों खुशहाल..
*
'मैं' ने 'मैं' को कब दिया, याद नहीं उपहार?
'मैं' गुमसुम 'तुम' हो गयी, रूठीं 'सलिल' बहार..
*
'मैं' 'तुम' 'यह' 'वह' प्यार से, भू पर लाते स्वर्ग.
'सलिल' करें तकरार तो, दूर रहे अपवर्ग..
*
'मैं' की आँखों में बसा, 'तू' बनकर मधुमास.
जिस-तिस की क्यों फ़िक्र हो, आया सावन मास..
*
'तू' 'मैं' के दो चक्र पर, गृह-वाहन गतिशील.
'हम' ईधन गति-दिशा दे, बाधा सके न लील..
*
'तू' 'तू' है, 'मैं' 'मैं' रहा, हो न सके जब एक.
तू-तू मैं-मैं न्योत कर, विपदा लाईं अनेक..
*
'मैं' 'तुम' हँस हमदम हुए, ह्रदय हर्ष से चूर.
गाल गुलाबी हो गये, नत नयनों में नूर..
*
'मैं' में 'मैं' का मिलन ही, 'मैं'-तम करे समाप्त.
'हम'-रवि की प्रेमिल किरण, हो घर भर में व्याप्त..
७-८-२०१२
***

रविवार, 8 अगस्त 2021

सोरठा सलिला

सोरठा सलिला:बजे श्वास-संतूर...
संजीव 'सलिल'
*
'तुम' जा बैठा दूर, 'मैं'-'मैं' मिल जब 'हम' हुए।
आँखें रहते सूर, जो न देख पाया रहा।।
*
अपने आप विलीन, 'मैं' में 'तुम' जब हो गया।
हर पल 'सलिल' नवीन, व्याप गई घर में खुशी।।
*
है जी का जंजाल, 'तुम' से 'मैं' की गैरियत।
'हम' बन हों खुशहाल, 'सलिल' इसी में खैरियत।।
*
याद नहीं उपहार, 'मैं' ने 'मैं' को कब दिया?
रूठीं 'सलिल' बहार, 'मैं' गुमसुम 'तुम' हो गई।।
*
भू पर लाते स्वर्ग, 'मैं' 'तुम' 'यह' 'वह' प्यार से।
दूर रहे अपवर्ग, 'सलिल' करें तकरार यदि।।
*
'तू' बनकर मधुमास, 'मैं' की आँखों में बसा।
आया सावन मास, जिस-तिस की क्यों फ़िक्र हो?
*
गृह-वाहन गतिशील, 'तू' 'मैं' के दो चक्र पर।
बाधा सके न लील, 'हम' ईधन गति-दिशा दे।।
*
हो न सके जब एक, 'तू' 'तू' है, 'मैं' 'मैं' रहा।
विपदा लिए अनेक, तू-तू मैं-मैं न्योत कर।।
*
ह्रदय हर्ष से चूर, 'मैं' 'तुम' हँस हमदम हुए।
नत नयनों में नूर, गाल गुलाबी हैं सलज।।
*
'मैं'-तम करे समाप्त, 'मैं' में 'मैं' का मिलन ही।
हो घर भर में व्याप्त, 'हम'-रवि की प्रेमिल किरण।।
*
'तू' शशि 'मैं' हो नूर, 'हम' बन करते बंदगी।
बजे श्वास-संतूर, शरत्पूर्णिमा ज़िंदगी।।
***

रविवार, 28 मार्च 2021

मुक्तिका

मुक्तिका
संजीव
*
मुझमें कितने 'मैं' बैठे हैं?, किससे आँख मिलाऊँ मैं?
क्या जाने क्यों कब किस-किससे बरबस आँख चुराऊँ मैं??
*
खुद ही खुद में लीन हुआ 'मैं', तो 'पर' को देखे कैसे?
बेपर की भरता उड़ान पर, पर को तौल न पाऊँ मैं.
*
बंद करूँ जब आँख, सामना तुमसे होता है तब ही
कहीं न होकर सदा यहीं हो, किस-किस को समझाऊँ मैं?
*
मैं नादां बाकी सब दाना, दाना रहे जुटाते हँस
पाकर-खोया, खोकर-पाया, खो खुद को पा जाऊँ मैं
*
बोल न अपने ही सुनता मन, व्यर्थ सुनाता औरों को
भूल कुबोल-अबोल सकूँ जब तब तुमको सुन पाऊँ मैं
*
देह गेह है जिसका उसको, मन मंदिर में देख सकूँ
ज्यों कि त्यों धर पाऊँ चादर, तब तो आँख उठाऊँ मैं.
*
आँख दिखाता रहा जमाना, बेगाना है बेगाना
अपना कौन पराया किसको, कह खुद को समझाऊँ मैं?
२८-३-२०१४ 
***

शनिवार, 28 मार्च 2020

मुक्तिका

मुक्तिका
संजीव
*
मुझमें कितने 'मैं' बैठे हैं?, किससे आँख मिलाऊँ मैं?
क्या जाने क्यों कब किस-किससे बरबस आँख चुराऊँ मैं??
*
खुद ही खुद में लीन हुआ 'मैं', तो 'पर' को देखे कैसे?
बेपर की भरता उड़ान पर, पर को तौल न पाऊँ मैं.
*
बंद करूँ जब आँख, सामना तुमसे होता है तब ही
कहीं न होकर सदा यहीं हो, किस-किस को समझाऊँ मैं?
*
मैं नादां बाकी सब दाना, दाना रहे जुटाते हँस
पाकर-खोया, खोकर-पाया, खो खुद को पा जाऊँ मैं
*
बोल न अपने ही सुनता मन, व्यर्थ सुनाता औरों को
भूल कुबोल-अबोल सकूँ जब तब तुमको सुन पाऊँ मैं
*
देह गेह है जिसका उसको, मन मंदिर में देख सकूँ
ज्यों कि त्यों धर पाऊँ चादर, तब तो आँख उठाऊँ मैं.
*
आँख दिखाता रहा जमाना, बेगाना है बेगाना
अपना कौन पराया किसको, कह खुद को समझाऊँ मैं?
२८-३-२०१४ 
***

रविवार, 19 नवंबर 2017

ghanaksharee

घनाक्षरी
मेरा सच्चा परिचय, केवल इतना बेटा, हिंदी माता का हूँ बेटा, गाता हिंदी गीत हमेशा। चारण हूँ अक्षर का, सेवक शब्द-शब्द का, दास विनम्र छंद का, पाली प्रीत हमेशा।। नेह नरमदा नहा, गही कविता की छैया, रस गंगा जल पीता, जीता रीत हमेशा। भाव प्रतीक बिंब हैं, साथी-सखा अनगिने, पाठक-श्रोता बाँधव, पाले नीत हमेशा।।
*

बुधवार, 15 नवंबर 2017

geet

गीत 
मैं नहीं....

संजीव 'सलिल'
*
मैं नहीं पीछे हटूँगा,
ना चुनौती से डरूँगा.
जानता हूँ, समय से पहले
न मारे से मरूँगा.....
*
जूझना ही ज़िंदगी है,
बूझना ही बंदगी है.
समस्याएँ जटिल हैं,
हल सूझना पाबंदगी है.
तुम सहायक हो न हो
खातिर तुम्हारी मैं लडूँगा.
जानता हूँ, समय से पहले
न मारे से मरूँगा.....
*
राह के रोड़े हटाना,
मुझे लगता है सुहाना.
कोशिशोंका धनी हूँ मैं, 
शूल वरकर, फूल तुम पर
वार निष्कंटक करूँगा.
जानता हूँ, समय से पहले
न मारे से मरूँगा.....
*
जो चला है, वह गिरा है,
जो गिरा है, वह उठा है.
जो उठा, आगे बढ़ा है-
उसी ने कल को गढ़ा है.
विगत से आगत तलक
अनथक तुम्हारे सँग चलूँगा.
जानता हूँ, समय से पहले
न मारे से मरूँगा.....

शनिवार, 19 अगस्त 2017

geet

गीत :                                                                     
मैं अकेली लड़ रही थी
- संजीव 'सलिल'



*
मैं अकेली लड़ रही थी 
पर न तुम पहचान पाये.....
*
सामने सागर मिला तो, थम गये थे पग तुम्हारे.
सिया को खोकर कहो सच, हुए थे कितने बिचारे?
जो मिला सब खो दिया, जब रजक का आरोप माना-
डूब सरयू में गये, क्यों रुक न पाये पग किनारे?
छूट मर्यादा गयी कब
क्यों नहीं अनुमान पाये???.....
*
समय को तुमने सदा, निज प्रशंसा ही सुनाई है.
जान यह पाये नहीं कि, हुई जग में हँसाई है..
सामने तव द्रुपदसुत थे, किन्तु पीछे थे धनञ्जय.
विधिनियंता थे-न थे पर, राह तुमने दिखायी है..
जानते थे सच न क्यों
सच का कभी कर गान पाये???.....
*
हथेली पर जान लेकर, क्रांति जो नित रहे करते.
विदेशी आक्रान्ता को मारकर जो रहे मरते..
नींव उनकी थी, इमारत तुमने अपनी है बनायी-
हाय! होकर बागबां खेती रहे खुद आप चरते..
श्रम-समर्पण का न प्रण क्यों
देश के हित ठान पाये.....
*
'आम' के प्रतिनिधि बने पर, 'खास' की खातिर जिए हो.
चीन्ह् कर बाँटी हमेशा, रेवड़ी- पद-मद पिए हो..
सत्य कर नीलाम सत्ता वरी, धन आराध्य माना.
झूठ हर पल बोलते हो, सच की खातिर लब सिये हो..
बन मियाँ मिट्ठू प्रशंसा के
स्वयं ही गान गाये......
*
मैं तुम्हारी अस्मिता हूँ, आस्था-निष्ठा अजय हूँ.
आत्मा हूँ अमर-अक्षय, सृजन संधारण प्रलय हूँ.
पवन धरती अग्नि नभ हूँ, 'सलिल' हूँ संचेतना मैं-
द्वैत मैं, अद्वैत मैं, परमात्म में होती विलय हूँ..
कर सके साक्षात् मुझसे
तीर कब संधान पाए?.....
*
मैं अकेली लड़ रही थी
पर न तुम पहचान पाये.....
*

****
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#हिंदी_ब्लॉगर

रविवार, 26 अगस्त 2012

कविता : मैं संतोष भाऊवाला

कविता :
मैं
 संतोष भाऊवाला 
*
मैं ..... अदना सा कण
या फिर एक बिंदु
या छोटा सा बीज
मैं  .... एक शब्द  भर
कर देता नि:शब्द पर
इसके अनेक विकार
स्वार्थ,इर्ष्या,अहंकार
कण से विराट
बिंदु से सिन्धु  
बीज से  वृक्ष
तक के  सफ़र में
मैं के अनेक रूप
बदलते स्वरुप
इसी मैं  के कारण
हुए घमासान युद्ध
इसे छोड़ा जब तो
हुए महात्मा बुद्ध
पर कोई अछूता रह न पाये
लक्ष्मीपति हो या लंकापति
इस मै से छुट ना पाये
जीवन भर पछताये
यह मै छोड़े से भी छुटता नहीं
पर जिस दिन छुट गया
मनुज महात्मा बन जाये
समझो तर जाये
बिना मांगे ,मोक्ष पाये  
 
*******

मंगलवार, 7 अगस्त 2012

दोहा सलिला: 'मैं'-'मैं' मिल जब 'हम' हुए... संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
'मैं'-'मैं' मिल जब 'हम' हुए...
संजीव 'सलिल'
*
'मैं'-'मैं' मिल जब 'हम' हुए, 'तुम' जा बैठा दूर.
जो न देख पाया रहा, आँखें रहते सूर..
*
'मैं' में 'तुम' जब हो गया, अपने आप विलीन.
व्याप गयी घर में खुशी, हर पल 'सलिल' नवीन..
*
'तुम' से 'मैं' की गैरियत, है जी का जंजाल.
'सलिल' इसी में खैरियत, 'हम' बन हों खुशहाल..
*
'मैं' ने 'मैं' को कब दिया, याद नहीं उपहार?
'मैं' गुमसुम 'तुम' हो गयी, रूठीं 'सलिल' बहार..
*
'मैं' 'तुम' 'यह' 'वह' प्यार से, भू पर लाते स्वर्ग.
'सलिल' करें तकरार तो, दूर रहे अपवर्ग..
*
'मैं' की आँखों में बसा, 'तू' बनकर मधुमास.
जिस-तिस की क्यों फ़िक्र हो, आया सावन मास..
*
'तू' 'मैं' के दो चक्र पर, गृह-वाहन गतिशील.
'हम' ईधन गति-दिशा दे, बाधा सके न लील..
*
'तू' 'तू' है, 'मैं' 'मैं' रहा, हो न सके जब एक.
तू-तू मैं-मैं न्योत कर, विपदा लाईं अनेक..
*
'मैं' 'तुम' हँस हमदम हुए, ह्रदय हर्ष से चूर.
गाल गुलाबी हो गये, नत नयनों में नूर..
*
'मैं' में 'मैं' का मिलन ही, 'मैं'-तम करे समाप्त.
'हम'-रवि की प्रेमिल किरण, हो घर भर में व्याप्त..
*
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
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गुरुवार, 2 अगस्त 2012

कविता: मैं --संजीव 'सलिल'

कविता:



मैं

संजीव 'सलिल'
*
सच कहूँ?
देखकर नहीं देखा.
उसको जाना
मगर नहीं जाना.
आपा-धापी में
सदा व्यस्त रहा,
साथ रहकर भी
नहीं पहचाना.

जब भी तनहा हुआ,
उदास हुआ.
तब अचानक
वो मेरे पास हुआ.
जब कदम
मैंने बढ़ाये आगे.
साया उसका भी
साथ ही भागे.

वो नहीं अक्स है
न परछाईं.
मुझसे किंचित नहीं
जुदा भाई.
साथ सुख-दु:ख
सदा ही सहता है.
गिला-शिकवा
न कुछ भी करता है.

मेरे नगमे
वही तो गाता है.
दोहे, गजलें भी
गुनगुनाता है.
चोट मुझको लगे
तो वह रोये.
पैर मैले हुए
तो हँस धोये.

मेरा ईमान है,
ज़मीर है वह.
कभी फकीर है,
अमीर है वह.
सच को उससे
छिपा नहीं पाता.
साथ चलता
रुका नहीं जाता.

मैं थकूँ तो
है हौसला देता.
मुझसे कुछ भी
कभी नहीं लेता.
डूबता हूँ तो
बचाये वह ही.
टूटता हूँ तो
सम्हाले वह ही.

कभी हो पाक
वह भगवान लगे.
कभी हैरां करे,
शैतान लगे.
कभी नटखट,
कभी उदास लगे.
मुझे अक्सर तो
वह इंसान लगे.

तुमने जाना उसे
या ना जाना?
मेरा अपना है वह,
न बेगाना.
नहीं मुमकिन
कहीं वह और कहीं मैं.
वह मेंरी रूह है,
वही हूँ मैं.
********
Acharya Sanjiv verma 'Salil'http://divyanarmada.blogspot.com
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