संस्मरण :ममतामयी महादेवी
नेह नर्मदा धार: महीयसी महादेवी वर्मा केवल हिन्दी साहित्य नहीं अपितु विश्व वांग्मय की ऐसी धरोहर हैं जिन्हें पढने और समझने के लिए उनके धरातल तक उठना होगा। उनका विराट व्यक्तित्व और उदात्त कृतित्व उन्हें एक दिव्य आभा से मंडित करता तो उनकी निरभिमानता, सहजता और ममतामय दृष्टि नैकट्य की अनुभूति कराता। सफलता, यश और मान्यता के शिखर पर भी उनमें जैसी सरलता। सहजता, विनम्रता और सत्य के प्रति दृढ़ता थी वह अब दुर्लभ है। पूज्य बुआश्री ने जिन मूल्यों का सृजन किया उन्हें अपने जीवन में मूर्तिमंत भी किया। 'नारी तुम केवल श्रृद्धा हो' लिखनेवाली कलम की स्वामिनी का लम्बा सामाजिक-साहित्यिक कार्यकाल अविवादित और निष्कलुष रहा। उनहोंने सबको स्नेह-सम्मान दिया और शतगुण पाया। उनके निकट हर अंतर्विरोध इस तरह विलीन हो जाता था जैसे पावस में पावक। हर बड़ा-छोटा, साहित्यकार-कलाकार, समाजसेवी-राजनेता, वशिष्ट-सामान्य, भाषा-भूषा, पंथ-संप्रदाय, क्षेत्र-प्रान्त, मत-विमत का अंतर भूलकर उनके निकट आते ही उनके पारिवारिक सदस्य की तरह नेह-नर्मदा में अवगाहन कर धन्यता की प्रतीति कर पाता था।
महीयसी ने महाकवि प्रसाद, दद्दा (मैथिलीशरण गुप्त), दादा (माखन लाल चतुर्वेदी), महापंडित राहुल जी, महाप्राण निराला, युगकवि पन्त, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, आचार्य नन्द दुलारे वाजपेयी, दिनकर, इलाचंद्र जोशी, अमृतलाल नागर, भगवतीचरण वर्मा, यशपाल, फणीश्वर नाथ 'रेणू', नवीन, सुमन, भारती, उग्र आदि तीन पीढियों के सरस्वती सुतों को अपने ममत्व और वात्सल्य से सराबोर किया। समस्त साहित्यिक-सामाजिक-राजनैतिक अंतर्विरोध उनकी उपस्थिति में स्वत विलीन या क्षीण हो जाते थे। उन्हें बापू और जवाहर से आशीष मिला तो अटल जी और इंदिरा जी से आत्मीयता और सम्मान।
ममता की शुचि मूर्ति वे, नेह नर्मदा धार।
माँ वसुधा का रत्न थीं, श्वासों का श्रृंगार॥
अपनेपन की चाह : महादेवी जी में चिरंतन आदर्शों को जीवंत करने की ललक के साथ नव परम्पराओं से सृजित करने की पुलक भी थी। वे समग्रता की उपासक थीं। गौरवमयी विरासत के साथ सामयिक समस्याओं के सम्यक समाधान में उनकी तत्परता स्तुत्य थी। वे अपने सृजन संसार में लीन रहते हुए भी राष्ट्रीय, सामाजिक, पारिवारिक नातों तथा अपने उत्स के प्रति सतत सचेष्ट रहती थीं। उनका परिवार रक्त संबंधों नहीं, स्नेह संबंधों से बना था। अजनबी से अपने बने लेने में उनका सानी नहीं था। वे प्रशंसा का अमृत, आलोचना का गरल, सुख की धूप, दुःख की छाँव समभाव से ग्रहण कर निर्लिप्त रहती थीं। सनातन सलिला नर्मदा तट पर स्थित संस्कारधानी जबलपुर उन्हें प्रिय रहा। जब भी अवसर मिलता वे जबलपुर आतीं और यहाँ के रचनाकारों पर आशीष बरसातीं। इस निकटता का प्रत्यक्ष कारण स्व। रामानुज लाल श्रीवास्तव 'ऊँट बिलहरीवी', नर्मदा प्रसाद खरे तथा उनकी प्राणप्रिय सखी सुभद्रा कुमारी चौहान थीं जो अपने पति ठाकुर लक्ष्मण सिंह चौहान के साथ स्वतंत्रता सत्याग्रहों की अलख जलाये थीं। दादा भी कर्मवीर के सिलसिले में बहुधा जबलपुर रहते।
मूल की तलाश: जबलपुर से लगाव का परोक्ष कारण महादेवी जी की ननिहाल थी जो घटनाओं के प्रवाह में छूट चुकी थी। दो पीढियों के मध्य का अन्तराल नयी पीढियों का अपरिचय बन गया। वे किसी से कुछ न कहतीं पर मन से चाहतीं की बिछुडे परिजन कभी मिल सकें। अंततः,अपने अंतिम जबलपुर प्रवास में उनके धैर्य का बाँध टूट गया। उन्होंने सुभद्रा जी की मूर्ति के समीप हुए कवि सम्मेलन से संबोधित करते हुए जबलपुर में अपने ननिहाल होने की जानकारी दी तथा अपेक्षा की की उस परिवार में से कोई हो तो मिले। साप्ताहिक हिंदुस्तान के होली विशेषांक में उनका एक साक्षात्कार छपा। प्रसिद्ध पत्रकार पी। डी। टन्डन से चर्चा करते हुए उन्होंने पुनः परिवार की बिखरी शाखा से मिलने-जुड़ने की कामना व्यक्त की। कहते हैं 'जहाँ चाह, वहाँ राह' उनकी यह चाह किसी निज हित के कारण नहीं स्नेह संबंध की उस टूटी कड़ी से जोड़ने की थी जिसे उनकी माताश्री प्रयास करने पर भी नहीं जोड़ सकीं थीं। शायद वे अपनी माँ की अधूरी इच्छा से पूरा करना चाह रही थीं। नियति से उनकी चाह के आगे झुकना पड़ा। रहीम ने कहा है- 'रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय। टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गाँठ पड़ जाय।' महादेवी जी की जिजीविषा ने टूटे धागे से जोड़ ही दिया। उनके ये दोनों वक्तव्य मैंने पढ़े। मैं आजीविका से अभियंता तथा शासकीय सेवा में होने पर भी उन दिनों पत्रकारिता में डिप्लोमा कर रहा था। महादेवी जी द्वारा बताया विवरण परिवार से मेल खाता था। उत्सुकतावश मैंने परिवार के बुजुर्गों से चर्चा की। उन दिनों का अनुशासन... कहीं डांट पडी, कहीं से अधूरी जानकारी... अधिकांश अनभिज्ञ थे। कुछ निराशा के बाद मैंने अपने परिवार का वंश-वृक्ष (शजरा) बनाया, इसमें महादेवी जी या उनके माता-पिता का नाम कहीं नहीं था। ऐसा लगा कि यह परिवार वह नहीं है जिसे महीयसी खोज रही हैं। अन्दर का पत्रकार कुलबुलाता रहा... खोजबीन जारी रही... एक दिन जितनी जानकारी मिली थी वह महीयसी से भेजते हुए निवेदन किया कि कुछ बड़े आपसे रिश्ता होने से स्वीकारते हैं पर नहीं जानते कि क्या नाता है? मुझे नहीं मालूम किस संबोधन से आपको पुकारूँ? आपके आव्हान पर जो जुटा सका भेज रहा हूँ। आप ही कुछ बता सकें तो बताइये। मैं आपकी रचनायें पढ़कर बड़ा हुआ हूँ। इस बहाने ही सही आपका आशीर्वाद पाने के सौभाग्य से धन्य हूँ। लगभग एक सप्ताह बाद एक लिफाफे में प्रातः स्मरणीय महादेवी जी का ४ पृष्ठों का पत्र मिला। पत्र में मुझ पर आशीष बरसाते हुए उन्होंने लिखा था कि किसी समय कुछ विघ्न संतोषी सम्बन्धियों द्वारा पनपाये गए संपत्ति विवाद में एक खानदान की दो शाखाओं में ऐसी टूटन हुई कि वर्तमान पीढियाँ अपरिचित हो गयीं। उनके पत्र से विदित हुआ कि उनके नाना स्व। खैराती लाल जी मेरे परबाबा स्व। सुन्दर लाल तहसीलदार के सगे छोटे भाई थे। पिताजी जिन चिन्जा बुआ की चर्चा करते थे उनका वास्तविक नाम हेमरानी देवी था और वे महादेवी जी की माता श्री थीं। हमारे कुल में काव्य साधन के प्रति लगाव हर पीढी में रहा पर प्रतिभाएँ अवसर के अभाव में घर-आँगन तक सिमट कर रह गयीं। सुन्दर लाल व खैराती लाल शिव भक्त थे। शिव भक्ति के स्तोत्र रचते-गाते। उनसे यह विरासत हेमरानी को मिली। बचपन में हेमरानी को भजन रचते-गाते देख-सुनकर महादेवी जी ने पहली कविता लिखी- माँ के ठाकुर जी भोले हैं। ठंडे पानी से नहलातीं। गीला चन्दन उन्हें लगतीं। उनका भोग हमें दे जातीं। फिर भी कभी नहीं बोले हैं। माँ के ठाकुर जी भोले हैं... माँ से शिव-पार्वती, नर्मदा, सीता-राम, राधा-कृष्ण के भजन-आरती, तथा पर्वों पर बुन्देली गीत सुनकर बचपन से ही महादेवी जी को काव्य तथा हिन्दी के प्रति लगाव के संस्कार मिले। माँ की अपने मायके से बिछड़ने की पीडा अवचेतन में पोसे हुए महादेवी जी अंततः टूटी कड़ी से जुड़ सकीं। पूर्व जन्मों के पुण्य कर्मों का सुफल मुझे इस रूप में मिला कि मैं उनके असीम स्नेह का भाजन बना। जो महान उसमें पले, अपनेपन की चाह। क्षुद्र मनस जलता रहे, मन में रखकर डाह। बिंदु सिन्धु से जा मिला: कबीर ने लिखा है: जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ। जो बौरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ। पूज्य बुआश्री से मिलने की उत्कंठा मुझे इलाहाबाद ले गयी। आवास पर पहुँचा तो ज्ञात हुआ कि वे बाबा विश्वनाथ की नगरी वाराणसी गयी हैं किसी को जानता था नहीं। निराश लौटने को हुआ कि एक कार को रुकते देख ठिठक गया। पलटकर देखा एक तरुणी वृद्धा को सहारा देकर कार से उतारने का जतन कर रही है। मैं तत्क्षण कार के निकट पहुँचा तब तक वृद्धा जमीन पर पैर रखते हुए हाथ सहारे के लिए बढा रहीं थीं। पहले कभी न देखने पर भी मन ने कहा हो न हो यही बुआ श्री हैं। मैंने चरण स्पर्शकर उन्हें सहारा दिया। एक अजनबी युवा को निकट देख तरुणी संकुचाई, 'खुश रहो' कहते हुए बुआजी ने हाथ थामकर दृष्टि उठाई और पहचानने का यत्न करने लगीं कि कौन है? तब तक घर से एक महिला और पुरुष आ गए थे। लम्बी यात्रा से लौटी श्रांत-क्लांत महीयसी को थामे अजनबी को देख कर उनके मन की उलझन स्वाभाविक थी। मैं परिचय दूँ इसके पहले ही वे बोलीं 'चलो, अन्दर चलो', मैंने कहा-'बुआजी! मैं संजीव' सुनते ही उनके चेहरे पर जिस चमक, हर्ष और उल्लास की झलक देखी वह अविस्मर्णीय है। उन्होंने भुजाओं में भरते हुए मस्तक चूमा। पूछा- 'कब आया?' सब विस्मित कि यह कौन अजनबी इतने निकट आने की धृष्टता कर बैठा और उसे हटाया भी नहीं जा रहा। बुआ जी जैसे सबकी उलझन का आनंद ले रहीं हो, कुछ पल मौन रहकर बोलीं- 'ये संजीव है, मेरा भतीजा...जबलपुर से आया है।सबका अभिवादन किया। उन्होंने सबका परिचय कराते हुए कहा 'ये मेरे बेटे की तरह रामजी, ये बहु, ये भतीजी आरती...चल अन्दर ले चल' मैं उन्हें थामे हुए घर में अन्दर ले आया। अन्दर कमरे में एक तख्त पर उजली सफ़ेद चादर बिछी थी, सिरहाने की ओर भगवान श्री कृष्ण की सुन्दर श्वेत बाल रूप की मूर्ति थी। बुआ जी बैठ गयीं। मुझे अपनी बगल में बैठा लिया, ऐसा लगा किसी तपस्विनी की शीतल वात्सल्यमयी छाया में हूँ। तभी स्नेह सिक्त वाणी सुनी- 'बेटा! थक गया होगा, चाय-पानी कर आराम कर। फिर तुझसे बहुत सी बातें करना है। सामान कहाँ है?' तब तक आरती पानी ले आयी थी। मैंने पानी पिया, बताया चाय नहीं पीता, सुनकर कुछ विस्मित प्रसन्न हुईं, मेरे मन करने पर भी दूध पिलवाकर ही मानीं। मुझे चेत हुआ कि वे स्वयं सुदूर यात्रा कर थकी लौटी हैं। उन्होंने आरती को स्नान आदि की व्यस्वस्थ करने को कहा तो मैंने बताया कि मैं निवृत्त हो चुका हूँ। मैं धीरे से तखत के समीप बैठकर उनके पैर दबाने लगा... उन्होंने मना किया पर मैंने मना लिया कि वे थकी हैं कुछ आराम मिलेगा। बुआ जी अपनी उत्कंठा को अधिक देर तक दबा नहीं सकीं। पूछा: कौन-कौन हैं घर-परिवार में? मैंने धीरे-धीरे सब जानकारी दी। मेरे मँझले ताऊ जी स्व. ज्वालाप्रसाद वर्मा ने स्व. द्वारका प्रसाद मिश्र, सेठ गोविन्द दास और व्यौहार राजेंद्र सिंह के साथ स्वतंत्रता सत्याग्रह में सक्रिय भूमिका निभायी, नानाजी राय बहादुर माता प्रसाद सिन्हा 'रईस', मैनपुरी ने ऑनरेरी मजिस्ट्रेट का पद व खिताब ठुकराकर बापू के आव्हान पर विदेशी वस्त्रों की होली जलाकर नेहरु जी के साथ त्रिपुरी कांग्रेस में भाग लिया और तभी इन दोनों की भेंट से मेरे पिताजी और माताजी का विवाह हुआ- यह सुनकर वे हँसी और बोलीं 'यह तो कहानी की तरह रोचक है। मेरे एक फूफा जी १९३९ में हिन्दू महासभा के राष्ट्रीय महामंत्री थे तथा कैप्टेन मुंजे व डॉ. हेडगेवार के साथ राम सेना व शिव सेना नामक सशस्त्र संगठनों के माध्यम से दंगों में अपहृत हन्दू युवतियों को मुक्तकर उनकी शुद्धि तथा सामाजिक स्वीकृति कराते थे । यह जानकर वे बोलीं- 'रास्ता कोई भी हो, भरत माता की सेवा ही असली बात है।' बुआ श्री ने १८५७ के स्वातंत्र्य समर में अपने पूर्वजों के योगदान और संघर्ष की चर्चा की। आरती ने उनसे स्नानकर भोजन करने का अनुरोध किया तो बोलीं- 'संजीव की थाली लगाकर यहीं ले आ, इसे अपने सामने ही खिलाऊँगी। बाद में नहा लूँगी।' मैंने निवेदन किया कि वे स्नान कर लें तब साथ ही खा लेंगे तो बोलीं 'जब तक तुझे खिला न लूँ, पूजा में मन न लगेगा, चिंता रहेगी कि तूने कुछ नहीं खाया। उनके स्नेहपूर्ण आदेश का सम्मान करते हुए मुझे सामने ही बैठाया। एक रोटी अपने हाथों से खिलायी। भोजन के मध्य आरती से कह-कहकर सामग्री मंगाती रहीं। मेरा मन उनके स्नेह-सागर में अवगाहन कर तृप्त हो गया। उनके हाथों से घी लगी एक-एक रोटी अमृत जैसा स्वाद दे रही थी। फुल्के, दल, सब्जी, आचार, पापड़ जैसी सामान्यतः नित्य मिलनेवाली भोजन सामग्री में उस दिन जैसी मिठास फिर कभी नहीं मिली। पेट भर जाने पर भी आग्रह कर-कर के २ रोटी और खिलाईं, फिर मिठाई... बीच में लगातार बातें...फिर बोलीं- 'अब तुम आराम करो, नहाकर -पूजा करेगी।' लगभग आधे घंटे में स्नान-ध्यान से निवृत्त होकर आयीं तो तखत पर विराजते ही मैं फिर समीप ही बैठ गया। उनके पैर दबाते-दबाते कितनी ही बातें हुईं...काश तब आज जैसे यंत्र होते तो वह सब अंकित कर लिया जा सकता। परिवार के बाद अब वे मेरे बारे में पूछ रहीं थीं...क्या-क्या पढ़ लिया?, क्या कर रहा हूँ?, किन विधाओं में लिखता हूँ?, कौन-कौन से कवि-लेखक तथा पुस्तकें पसंद हैं?, घर में किसकी क्या रूचि है?, उनकी कौन-कौन सी कृतियाँ मैंने पढीं हैं? कौन सी सबसे ज्यादा पसंद है? यामा देखे या नहीं?, कौनसा चित्र अधिक अच्छ लगा? प्रश्न ही प्रश्न... जैसे सब कुछ जान लेना चाहती हों, वह सब जो समय-चक्र ने इतने सालों तक नहीं जानने दिया। मैं अनुभव कर सका कि उनके मन में कितना ममत्व है, अदेखे-अनजाने नातों के लिए। शायद मानव और महामानव के बीच की सीमा रेखा होती है कि महा मानव सब पर स्नेह अमृत बरसाते हैं। मेरे बहुत आग्रह पर आराम करने को तैयार हुईं... तू क्या करेगा?,ऊब तो नहीं जायेगा? आश्वस्त किया कि मैं भैया (डॉ.पाण्डेय) - भाभी से गप्प कर रहा हूँ, आप विश्राम कर लें। कुछ देर बाद उठीं तो फिर बातचीत का सिलसिला चला। मुझसे पूछा- 'तू अपना उपनाम 'सलिल' क्यों लिखता है?' मैंने कभी गहराई से सोचा ही न था, क्या बताता? मौन देखकर बोलीं- 'सलिल माने पानी... पानी जिन्दगी के लिए जरूरी है...पर गंगा में हो या नाले में दोनों ही सलिल होते हैं। बहता पानी निर्मला... सो तो ठीक है पर... उनका आशय था कि नाम सबसे अच्छा हो तो काम भी अच्छा करने की प्रवृत्ति होगी। वे स्वयं नाम से ही नहीं वास्तव में भी महादेवी ही थीं। बातचीत के बीच-बीच में वे आरती की प्रशंसा करतीं तो वह संकुचा जाती। मैं भी सुबह से देख रहा था कि वह कितनी ममता से बुआश्री की सेवा में जुटी थी। बुआजी डॉ. पाण्डेय व भाभी जी की भी बार-बार प्रशंसा करती रहीं। कुछ देर बाद कहा- 'तू क्या पूछना चाहता है पूछ न ? सुबह से मैं ही बोल रही हूँ। अब तू पूछ...जो मन चाहे...मैं तेरी माँ जैसी हूँ... माँ से कोई संकोच करता है? पूछ...' न कैसे अनुमान लगाया कि मेरे मन में कुछ जिज्ञासाएँ हैं। पत्रकारिता में पढ़ते समय वरिष्ठ पत्रकार स्व. कालिकाप्रसाद दीक्षित 'कुसुमाकर' विभागाध्यक्ष थे। उनकी धारणा थी कि महादेवी जी ने निराला जी का अर्थ शोषण किया, मैं असहमति व्यक्त करता तो कहते 'तुम क्या जानो?' आज अवसर था लेकिन पूछूँ तो कैसे? बुआ जी के प्रोत्साहित करने पर मैंने कहा- 'निराला जी के बारे में कुछ बताइए।?' 'वे महाप्राण थे विषपायी...बुआजी के चेहरे पर प्रसन्नता के भाव आये, ऐसा लगा कि उनकी रूचि का प्रसंग है...कुछ क्षण आँखें मूँद कर जैसे उन पलों को जी रहीं हों जब निराला साथ थे। फिर बोलीं क्या कहूँ?...कितना कहूँ? ऐसा आदमी न पहले कभी हुआ... न आगे होगा... वो मानव नहीं महामानव थे...विषपायी थे। उनके बाद मेरी राखी सूनी हो गयी... उस एक ही पल में मैं समझ गया कि कुसुमाकर जी कि धारणा निराधार थी। 'निराला जी आम लोगों की तरह दुनियादारी से कोई मतलब नहीं रखते थे। प्रकाशक उनकी किताबें छापकर अमीर हो गए पर वे फकीर ही रह गये। एक बार हम लोगों ने बहुत कठिनाई से दुलारे लाल भार्गव से उन्हें रोयल्टी की राशि दिलवाई, वे मेरे पास छोड़कर जाने लगे मुश्किल से अपने साथ ले जाने को तैयार हुए, मैं खुश थी कि अब वे हमेशा रहनेवाले आर्थिक संकट से कुछ दिनों तक मुक्त रहेंगे। कुछ दिनों बाद आये तो बोले कुछ रुपये चाहिए। मुझे अचरज हुआ कि इतने रुपये कहाँ गए? पूछा तो बोले उस दिन तुम्हारे पास से गया तो भूख से परेशान एक बुढिया को भीख मांगते देखा। जेब से एक नोट निकलकर उसके हाथ पर रखकर पूछा कि अब तो भीख नहीं मांगेगी। बुढिया बोली जब तक इनसे काम चलेगा नहीं मांगूगी। निराला जी ने एक गड्डी निकल कर उसके हाथों में रखकर पूछ अब कब तक भीख नहीं मांगेगी? बुढिया बोली 'बहुत दिनों तक।' निराला जी ने सब गड्डियाँ भिखारिन की झोली में डालकर पूछा- 'अब?' 'कभी नहीं' बुढिया बोली। निराला जी खाली हाथ घर चले गए। जब खाने को कुछ न बचा तथा बनिए ने उधार देने से मना कर दिया तो मेरे पास आ गए थे। ऐसे थे भैया। कुछ देर रुकीं...शायद कुछ याद कर रहीं थी...फिर बोलीं एक बार कश्मीर में मेरा सम्मान कर पश्मीना की शाल उढाई गयी। मेरे लौटने की खबर पाकर भैया मिलाने आये। ठण्ड के दिनों में भी उघारे बदन, मैंने सब हाल बताया तथा शाल उन्हें उढा दी कि अब ठण्ड से बचे रहेंगे। कुछ दिन बाद ठण्ड से जड़ते हुए आये। मैंने पूछा शाल कहाँ है? पहले तो सर झुकाए चुप बैठे रहे। दोबारा पूछने पर बताया कि रास्ते में ठण्ड से पीड़ित किसी भिखारी को कांपते देख उसे उढा दी। बोल देखा है कोई दूसरा ऐसा अवढरदानी ? वाणी मौन थी और कान व्याकुल। चर्चा...और चर्चा, प्रसंग से प्रसंग... निराला और नेहरु, निराला और पन्त, निराला और इलाचंद्र जोशी,, निराला और राजेंद्र प्रसाद, निराला और हिंदी, निराला और रामकृष्ण, निराला और आकाशवाणी, आदि...कभी कंठ रुद्ध हो जाता... कभी आँखें भर आतीं...कभी सर गर्व से उठ जाता... निराला और राखी की चर्चा करते हुए बताया कि निराला और इलाचंद्र जोशी में होड़ होती कि कौन पहले राखी बंधवाये? निराला राखी बाँधने के पहले रूपये मांगते फिर राखी बंधने पर वही दे देते क्योकि उनके पास कुछ होता ही नहीं था और खाली हाथ राखी बंधवाना उन्हें गवारा नहीं होता था। स्मृतियों के महासागर में डूबती-तिरती बुआश्री का अगला पड़ाव था दद्दा और जिया... चिरगांव की राखी। दद्दा का संसद में कवितामय बजट भाषण...हिन्दी संबन्धी आन्दोलन... फिर प्रसाद और कामायनी की चर्चा। फिर दिनकर... फिर नन्द दुलारे वाजपेई... हजारी प्रसाद द्विवेदी... नवीन... सुमन... जवाहर लाल नेहरु... इंदिरा जी, द्वारका प्रसाद मिश्र... पत्रकार पी. डी. टंडन अनेक नाम... अनेक प्रसंग... अनंत कोष स्मृतियों का। मैंने प्रसंग परिवर्तन के लिए कहा- 'कुछ अपने बारे में बताइए। 'क्या बताऊँ? अपने बारे में क्या कहूं? मैं तो अधूरी रह गयी हूँ उसके बिना...' मैं अवाक् था। किसकी कथा सुनने को मिलेगी? ...कौन है वह महाभाग? 'वह तो थी ही विद्रोहिणी... बचपन से ही... निर्भीक, निस्संकोच, वात्सल्यमयी, सेवाभावी, रूढी भंजक...फिर प्रारंभ हुआ सुभद्रा पुराण... स्कूल में भेंट... दोनों का कविता लिखना, चूडी बदलना... लक्ष्मण प्रसाद जी से भेंट... दोनों का विवाह... पर्दा प्रथा को तोड़ना... दुधमुंहे बच्चों को छोड़कर सत्याग्रह में भाग लेना-जेल यात्रा... फिर सुभद्रा जी के विधायक बनने में सेठ गोविन्द दास द्वारा बाधा... सरदार पटेल द्वारा समर्थन... गाँधी जी के अस्थि विसर्जन में सुभद्रा जी द्वारा झुग्गीवासियों को लेकर जाना...अंत में मोटर दुर्घटना में निधन... की चर्चा कर रो पडी...खुद को सम्हाला...आंसू पोंछे...पानी पिया...प्रकृतिस्थ हुईं... 'थक गया न ? जा आराम कर।' 'नहीं बुआजी! बहुत अच्छा लग रहा है...ऐसा अवसर फिर न जाने कब मिले?...तो क्या सुनना है अब?...इतनी कथा तो पंडित दक्षिणा लेकर भी नहीं कहता'... 'बुआ जी आपके कृष्ण जी!'...; ' मेरे नहीं... कृष्ण तो सबके हैं जो उन्हें जिस भाव से भज ले...उन्हें वही स्वीकार। तू न जानता होगा...एक बार पं. द्वारका प्रसाद और मोरार जी देसाई में प्रतिद्वंदिता हो गयी कि बड़ा कृष्ण-भक्त कौन है? पूरा प्रसंग सुनाया फिर बोलीं- भगवन! ऐसा भ्रम कभी न दे।' अब भी मुझे आगे सुनने के लिए उत्सुक पाया तो बोलीं तू अभी तक नहीं थका?...पी. डी. टन्डन का नाम सुना है? एक बार साक्षात्कार लेने आया तो बोला आज बहुत खतरनाक सवाल पूछने आया हूँ। मैनें कहा पूछो तो बोला अपनी शादी के बारे में बताइये। मैनें कहा- 'बाप रे, यह तो आज तक किसी ने नहीं पूछा। क्या करेगा जानकर?' बुआ जी बताइए न, मैं भी जानना चाहता हूँ।' -मेरे मुंह से निकला, 'तू भी कम शैतान नहीं है...चल सुन...फिर अपने बचपन...बाल विवाह...गाँधी जी व् बौद्ध धर्म के प्रभाव, दीक्षा के अनुभव, मोह भंग, प्रभावतीजी से मित्रता, जे. पी. के संस्मरण... अपने बाल विवाह के पति से भेंट... गृहस्थ जीवन के लिए आमंत्रण, बापू को दिया वचन गार्हस्थ से विराग आदि प्रसंग उन्होंने पूरी निस्संगता से सुनाये। उनके निकट लगभग ६ घंटे किसी चलचित्र की भांति कब कटे पता ही न चला...मुझे घड़ी देखते पाया तो बोलीं- 'तू जायेगा ही? रुक नहीं सकता? तेरे साथ एक पूरा युग फिर से जी लिया मैंने।' सबेरे वे अपनी नाराजगी जता चुकी थीं कि इतने कम समय में क्यों जा रहा हूँ?, रुकता क्यों नहीं? पर इस समय शांत थीं...उनका वह वात्सल्य...वह स्पर्श...वह स्नेह...अब तक रोमांचित कर देता है...बाद में ३-४ बार और बुआ जी का शुभाशीष पाया। कभी ईश्वर मिले और वर माँगने को कहे तो मैं बुआ जी के साथ के वही पल फिर से जीना चाहूँगा। *************************
लेबल: इंदिरा, जे. पी., निराला, नेहरू, पन्त, संस्मरण: ममतामयी महादेवी-संजीव 'सलिल'
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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शनिवार, 23 मई 2009
संस्मरण : ममतामयी महादेवी -संजीव 'सलिल'
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आचार्य संजीव वर्मा सलिल
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30 टिप्पणियां:
vinaybihari singh ✆ मुझे को
विवरण दिखाएँ १४:२१ (4 घंटों पहले) उत्तर दें
सलिल जी
नमस्कार
महादेवी वर्मा पर लिखे आपके सस्मरणों ने मुग्धा कर दिया. मेरा आग्रह ही कि आप संस्मरणों कि एक पुस्तक लिखें ताकि इस महान कवयित्री के अन्य विलक्षण पक्षों के बारे में भी लोग जान सकें.
आपको इस लेख के लिए बधाई.
जीवंत संस्मरण...आप सौभाग्यशाली हैं महीयसी के दर्शन ही नहीं शुभाशीश से भी धन्य हुए.
" बढ़िया आलेख प्रस्तुतीकरण आभार.
समयचक्र - महेन्द्र मिश्र May 23, 2009 7:34 PM को पोस्ट किया गया
२३ मई २००९ २१:३५ को, Udan Tashtari ने लिखा:
रोमांचित करता आपका संस्मरण-साथ साथ बहते रहे. एक बार फिर से पढ़ना होगा इन्मिनान से. बहुत आभार हम सबके साथ साझा करने के लिए.
Satish Saroj मुझे, rk, rk, sanjeev, aarti को
विवरण दिखाएँ २०:४६ (1 घंटे पहले) उत्तर दें
my dr sanjeev we r proud of yur name & fame in HINDI SAHITYA yu r earning name & fame to the family of OUR PARBABA SHRI SUNDER LAL TEHSILDAR MAY GOD BLESS U WITH BEST WISHES & ASHIRBAD YURS BHAIYA /BHABHI
--- On Mon, 5/18/09
हिन्दी साहित्य सम्मेलन , प्रयाग के शताब्दी वर्ष समारोह में आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी को ''वागविदांवर सम्मान'' से विभूषित किए जाने पर बधाई एवं शुभकामनाएं .. पुरस्कार प्राप्त करनेवाले अन्य विद्वानों को बहुत बहुत बधाई।
May 21, 2009 10:15 AM
संजीव जी,
आपकी साहित्य-सेवा को शत-शत नमन्
मैं भी इंजीनियर हूँ। आपसे प्रेरणा मिलती है।
May 23, 2009 12:45 AM
सलिल जी को बहुत-बहुत बधाई!
हिन्दी साहित्य सम्मेलन का हिन्दी को योगदान कभी भी भुलाया नहीं जा सकता। यदि अन्तरजाल के इस युग में यदि हिन्दी साहित्य सम्मेलन भी इससे जु।द जाय तो नये युग में "आभासी" सम्मेलनों के द्वारा हिन्दी का प्रचार-प्रसार किया जा सकता है।
May 23, 2009 7:12 PM
आचार्य संजीव सलिल जी को हार्दिक बधाई। हिन्दी और साहित्य की सेवा के लिये आपने जो मशाल थाम रखी है उससे उम्मीद जगी है। आप जैसे विद्वान मार्ग दर्शक हैं।
हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग को उद्देश्यपूर्ण आयोजन का धन्यवाद।
May 23, 2009 7:35 PM
गौतम राजरिशी
सलिल जी को करोड़ों बधाईयां...मेरे विचार से तो ये पुरूस्कार का भी सम्मान हुआ है।
May 23, 2009 8:39 PM
आचार्य जी को इस सम्मान के लिए हार्दिक शुभकामनाएं ... हिंदी के उत्थान के जिस पुन्य कार्य में आप लिप्त हैं वह निश्चय ही प्रशंसनीय है और आप ऐसे सम्मानों के अधिकारी
May 23, 2009 9:25 PM
सलिल जी को बहुत-बहुत बधाई
May 23, 2009 10:08 PM
Respected Sanjeev Chachaji,
Heartiest congratulations on this tremendous achievement! It is a richly deserved recognition. We are all truly proud of you and your great work.
Our sincerest regards,
Rajiv Malini
Sarvesh and Ratna
mhiysi ji ko pathay pstko mehi jana tha kintu aapne jis antragta se unka prichay diya hai to aatm santushti huai hai .ak bar fir se mhadeviji ke sahity ko pdhne ki utkantha jagai hai .dhnywad.
गुणग्राही हैं आप सब, स्वीकारें आभार.
रहे "सलिल" पर बरसता, सदा आपका प्यार..
badhiya sansmaran.
You are very lucky.
दादा प्रणाम
आप बहुत सौभाग्यशाली है जो आपको ऐसे दिन देखने को नसीब हुए. पढकर आनन्द आ गया.
August 4, 2009 7:28 AM
एक ही साँस में तल्लीनता के साथ संस्मरण पढ़ा, हमें भी गर्व का अनुभव हो रहा है कि हमने महादेवी जी का सान्निध्य नहीं पाया तो क्या, हमारे गुरुवत आचार्य जी हैं। बहुत ही श्रेष्ठ संस्मरण, ऐसे ही प्रसंगों से अवगत कराते रहें। आभार।
August 4, 2009 8:16 AM
बहुत ही श्रेष्ठ संस्मरण है, ऐसे ही प्रसंगों से अवगत कराते रहें। आभार।
August 4, 2009 11:35 AM
सलिल जी |संस्मरण पढ़ कर आनंदित हुआ |आप भाग्यशाली हैं | आपकी भाषा शैली = सफलता ,यश ,मान्यता का शिखर ......नव परम्पराओं से सृजित करने की पुलक .......प्रशंसा का अमृत ,आलोचना का गरल ,सुख की धूप सुख की छाँव .कहाँ तक लिखूं ,दो बार पढ़ा ,सलिल क्यों लिखते हो पढ़ कर आनंदित हुआ
August 4, 2009 6:03 PM
आचार्य जी,
वीती शताब्दी की मूर्तिमान सम्वेदना से मुलाकात के सन्समरण ना सिर्फ़ आपकी सुमधुर यादे़ है़ बल्कि उस युग के साहित्यकारो़ के आपसी सम्बन्धो़ पर भी प्रकाश डालते है.
August 4, 2009 7:09 PM
बढ़िया आलेक प्रस्तुतीकरण. आभार.
रोमांचित करता आपका संस्मरण. साथ-साथ बहते रहे. एक बार फिर से पढना होगा, इत्मीनान से. बहुत आभार हम सबके साथ साझा करने के लिए.
salil ji,
man ka mail saaf ho gaya. aatmeeyata bhara sansmaran. mnmohak laga. Mahadevi ji ka Farrukhabad men huaa tha. main bhee Farrukhabaad ka hoon. Mahadevi ji meri priy kavyitri rahi hain. aap ki buaa theen, mn ko yah janka rkhushi mili. shandar, badhaai.
सुरेश यादव …
सलिल जी,स्मृति दीर्घा में रोचक और सहज विस्वसनीय संस्मरण के लिए आप को बधाई .सूशील कुमार जी को इस रचनात्मक कार्य के लिए धन्यवाद
August 4, 2009 9:56 PM
ममता की मूर्ति हिन्दी भाषा की सरस्वती शक्ति महीयसी महादेवी जी को शत शत प्रणाम - आपने जितना भी लिखा है एक एक अक्षर
बहुमूल्य हीरे ज़वाहरात से अधिक है आचार्य श्री ...
सादर
--
- लावण्या
August 5, 2009 2:45 AM
संस्मरण पढ़ कर मन भीग गया।
August 5, 2009 11:36 AM
एक बहुत ही अच्छा संस्मरण
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August 5, 2009 12:40 PM
बेहद अच्छा लगा ये संस्मरण पढ़ना ..! महादेवी जी की कवितायें तथा अन्य लेखन से थोड़ी -सी परिचित हूँ ...लेकिन ये आत्मीय ,अंतरंग जानकारियाँ नही थीं ...लगा जैसे ,आप सामने बैठ बात कर रहें हैं ..और ज़ियादा पढने का मन होता रहा ..साथ , साथ येभी लगा ,कि , काश आप और मिल पते ...या पहले मिल पते उनसे ..लेकिन जितना भी मिले , वही यादगार बन गया ..काश ऐसा कुछ मौक़ा इश्वर मुझे भी कभी देता ..!
आपकी मेहनत रंग लाई...
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August 5, 2009 7:38 PM
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