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गुरुवार, 30 अप्रैल 2009

शब्द-यात्रा: सब्ज़ -अजित वडनेरकर

हिन्दी में आमतौर पर प्रचलित सब्जी और तरकारी लफ्ज फारसी के हैं और बरास्ता उर्दू ये हिन्दी में प्रचलित हो गए। मोटे तौर पर देखा जाए तो तरकारी और सब्जी के मायने एक ही समझे जाते हैं यानी सागभाजी। मगर अर्थ एक होने के बावजूद भाव दोनों का अलग-अलग है। हालांकि तरकारी शब्द संस्कृत मूल से निकला है। मगर पहले बात सब्जी की।फारसी का एक शब्द है सब्ज: यानी सब्जा जिसका मतलब है हरी घास, हरियाली, हरे रंग का या सांवला। इसी से बना सब्जी लफ्ज जिसका मतलब है साग भाजी, तरकारी, हरे पत्ते, हरियालापन या भांग आदि। जाहिर है कि सब्ज यानी हरे रंग से संबंधित होने की वजह से सब्जी का मूल अर्थ हरे पत्तों से ही था यानी पालक, बथुआ, मेथी, चौलाई जैसी तरकारी जिनका सब्जी के अर्थ में प्रयोग एकदम सटीक है । मगर अब तो सब्जी का मतलब सिर्फ तरकारी भर रह गया है। हालत सब्ज: यानी सब्जा जिसका मतलब है हरी घास, हरियाली, हरे रंग का या सांवलाये है कि अब आलू गोभी समेत पीले रंग का कद्दू, लाल रंग का टमाटर बैंगनी बैंगन, या सफेद मूली सब कुछ सामान्य सब्जी है और पालक मेथी ,बथुआ और पत्तों वाली सब्ज़ियां हरी सब्जी कहलाती हैं। गौरतलब है कि हरा रंग सुख समृद्धि का प्रतीक है जिसमें खुशहाली, सौभाग्य के साफ संकेत हैं। साधारण जीवनस्तर का संकेत अक्सर खान पान के जरिये भी दिया जाता है मसलन दाल रोटी खाकर गुजारा करना। इसका साफ मतलब है कि सब्जी खाना समृद्धि की निशानी है और यह आम आदमी को आसानी से मयस्सर नहीं है। प्रकृति विभिन्न रंगों में अपने भाव प्रकट करती है। जीव जगत के लिए जो रंग सर्वाधिक अनुकूल है वह है हरा रंग क्योंकि सभी प्रकार के जीवों का मुख्य आहार है वनस्पतियां जो हरे रंग की ही होती हैं। इसीलिए मनुष्य ने हरे रंग को सौभाग्य और मंगलकारी माना है। सब्जः से बने कुछ और भी शब्द हैं जो उर्दू में ज्यादा प्रचलित हैं जैसे सब्जरू यानी जिसकी दाढ़ी-मूछें उग रही हों, सब्जकार यानी जो कुशलता से काम करे। सब्जबख्त यानी सौभाग्य शाली। खुशहाली और अच्छे दिनों के लिए कहा जाता है हराभरा होना। मोटे तौर पर सब्जीखोर शब्द के मायने होंगे वह शख्स जो तरकारी यानी सब्जी ज्यादा खाता हो। मगर फारसी में इसका सही मतलब होता है शाकाहारी। हरितिमा, हराभरा या हरियाली से भरपूर माहौल को सब्जख़ेज कहा जाता है। अब बात तरकारी की। यह शब्द बना है फ़ारसी के तर: से जिसका मतलब है सागभाजी। इसी तरह फ़ारसी का ही एक शब्द है तर जिसका मतलब है नया, आर्द्र यानी गीला, एकदम ताजा, लथपथ , संतुष्ट वगैरह। जाहिर है पानी से भीगा होना और एकदम ताजा होना ही साग सब्जी की खासियत है। यह तर बना है संस्कृत की तृप् धातु से जिससे बने तृप्त-परितृप्त शब्द का अर्थ भी यही है यानी प्रसन्न, संतुष्ट। इससे बने तर से हिन्दी उर्दू में कई शब्द आम हैं जैसे तरबतर, खूबतर और तरमाल आदि। अब बात साग-भाजी की। साग शब्द संस्कृत के शाक: या शाकम् से बना है जिसका अर्थ है भोजन के लिए उपयोग में आने वाले हरे पत्ते या कंद, मूल, फल आदि। इस साग-भाजी को कहीं-कहीं साक या शाक भी कहते हैं। रूखे-सूखे भोजन के किये साग-पात शब्द भी चलता है।

शुक्रवार, 24 अप्रैल 2009

शब्द यात्रा : अजित वडनेरकर - पूरी-कचौडी

दावतों में पूरियां न हों तो आनंद नहीं आता। भारतीय पूरियों की धूम पूरी दुनिया में है। रोज़ के खानपान में जो भूमिका रोटी दाल की हुआ करती है वही भूमिका पर्व त्योहारों पर बनने वाले विशिष्ट भोजन में पूरी सब्जी की होती है। आम दिनों भी में चपाती-रोटी के शौकीन बदलाव के लिए पूरी खाना पसंद करते हैं। पूरी शब्द बना है पूरिका से। पूरी के मूल में है संस्कृत धातु पूर् जिसमें समाने, भरने, का भाव है। इससे ही बना है पूर्ण शब्द जिसका अर्थ होता है भरना, संतुष्ट होना। समझा जा सकता है कि सम्पूर्णता में ही संतोष और संतुष्टि है। व्यंजन के रूप में पूरी नाम के पीछे उसका पूर्ण आकार नहीं बल्कि उसकी स्टफिंग से हैं। गौरतलब है की आमतौर पर बनाई जाने वाली पूरी के अंदर कोई भरावन नहीं होती है जबकि पूरी या पूरिका से अभिप्राय ऐसे खाद्य पदार्थ से ही है जो भरावन से बनाया गया है। पूरी बनाने के लिए आटे या मैदे की लोई में गढ़ा बनाया जाता है और फिर उसे मसाले से पूरा जाता है। यही है पूरना। इस तरह पूरने की क्रिया से बनती है कचौरियांतैयार कचौरीप्याज कचौरीपूरी। रोटी और पूरी में एक फर्क और है वह यह कि रोटी को तवे पर सेंका जाता है जबकि पूरी को पकाने की क्रिया तेल में सम्पन्न होती है अर्थात उसे तला जाता है। सामान्य तौर पर जो पूरियां बनाई जाती हैं उन्हें सादी पूरी कहना ज्यादा सही होगा। पूरियां कई प्रकार की होती हैं मगर उन सभी में आमतौर पर उड़द की दाल का ही भरावन होता है। आटे में पालक, बथुआ या मेथी गूंथकर भी पूरियां बनाई जाती है। नाश्ते में कचौरी भी लोकप्रिय हैं। बेहद लोकप्रिय और लज़ीज़ कचौरियां भी कई प्रकार की होती हैं और इसकी रिश्तेदारी भी पूरी से ही है। कचौरी शब्द बना है कच+पूरिका से। क्रम कुछ यूं रहा- कचपूरिका > कचपूरिआ > कचउरिआ > कचौरी जिसे कई लोग कचौड़ी भी कहते हैं। संस्कृत में कच का अर्थ होता है बंधन, या बांधना। दरअसल प्राचीनकाल में कचौरी पूरी की आकृति की न बन कर मोदक के आकार की बनती थी जिसमें खूब सारा मसाला भर कर उपर से लोई को उमेठ कर बांध दिया जाता था। इसीलिए इसे कचपूरिका कहा गया। मध्यप्रदेश के मालवान्तर्गत आने वाले सीहोर में आज भी मोदक के आकार की ही लौंग के स्वाद वाली कचौरियां बनती हैं जो इसके कचपूरिका नाम को सार्थक करती हैं। एक अन्य व्युत्पत्ति के अनुसार तमिल भाषा में दाल को कच कहते हैं इस तरह कच+पूरिका से बनी कचौरी। वैसे देखा जाए तो तमिल में दाल के लिए अगर कच शब्द है तो दक्षिण भारत में भी कचौरी बहुत लोकप्रिय होनी चाहिए, मगर इसे हम उत्तर भारतीय पदार्थ के रूप में ही जानते हैं। दूसरी बात यह कि पूरिका शब्द में स्वयं ही भरावन का भाव आ रहा है और सामान्यतः उत्तर भारत में घरों में बननेवाली पूरियां भी दाल के बहुत हल्के भरावन से ही बनती है जिन्हें कचौरी भी कहते हैं। कचौरी मूलतः उड़द की दाल की भरावन से ही बनती है मगर छिलका मूंग और धुली मूंगदाल से भी ज़ायकेदार कचौरियां बनती हैं। सावन के मौसम में मालवा में हींग की सुवास वाली भुट्टे की कचौरियां लाजवाब होती हैं। कचौरी और पूरी में एक फर्क यह भी है कि पूरी को बेला जाता है जबकि कचोरी को बेला नहीं जाता बल्कि लोई में मसाला भर कर उसे हाथ से आकार दिया जाता है। कचौरी के आकार को अगर देखें तो यह पूरी की ही तरह से फूली हुई होती है अलबत्ता इनका आकार अलग अलग होता है तथा कचोरी के मैदे में खूब मोहन डाला जाता है ताकि यह खस्ता बन सके। कचौरियां जितनी खस्ता होंगी उतनी ही ज़ायकेदार होती हैं। उत्तर भारत में जोधपुर की प्याज की कचौरी, कोटा की हींग वाली कचौरी और समूचे अवध क्षेत्र की उड़द दाल की कचोरियां मशहूर हैं।