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बुधवार, 6 जून 2012

दोहा मुक्तिका: पल पल हो मधुमास... -- संजीव 'सलिल'



दोहा मुक्तिका: 

पल पल हो मधुमास... 

--संजीव 'सलिल'


*
आसमान में मेघ ने, फैला रखी कपास.
कहीं-कहीं श्यामल छटा, झलके कहीं उजास..
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श्याम छटा घन श्याम में, घनश्यामी आभास.
वह नटखट छलिया छिपे, तुरत मिले आ पास..
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सुमन-सुमन में 'सलिल' को, उसकी मिली सुवास.
जिसे न पाया कभी भी, किंचित कभी उदास..
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उसकी मृदु मुस्कान से, प्रेरित सफल प्रयास.
कर्म-धर्म का मर्म दे, अधर-अधर को हास.
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पूछ रहा मन मौन वह, क्यों करता परिहास.
क्यों दे पीड़ा उन्हीं को, जिन्हें मानता खास..
*
मोहन भोग कभी मिले, कभी किये उपवास.
दोनों में जो सम रहे, वह खासों में खास..
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सज्जन पायें शांति-सुख, दुर्जन पायें त्रास.
मूरत उसकी एक पर, भिन्न-भिन्न अहसास..
*
गौओं के संग विचरता, पद-तल कोमल घास.
सिहर सराहे भाग्य निज,  पल-लप हो मधुमास..
*
कभी अधर पर मुरलिया, कभी सरस मृदु हास.
'सलिल' अधर पर धर नहीं, कभी सत्य-उपहास..
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