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शुक्रवार, 13 दिसंबर 2024

दिसंबर १३, मुक्तिका, सॉनेट, कामना, व्यंग्य लेख, माया, खाट, हाइकु, कपास, गीत, दोहा, भवानी प्रसाद तिवारी

सलिल सृजन दिसंबर १३
*
पूज्य पापाजी (भवानी प्रसाद तिवारी जी)के जन्म दिवस पर उन्हीं की काव्य पंक्तियों पर आधृत रचना उन्हें सादर समर्पित- तेरा तुझकोअर्पित क्या लागे मेरा?
तेरा तुझको अर्पण
एक लघु कण

'एक लघु कण है
कि जो साधो उसे
सधता नहीं है।'
विनायक का पूत
रहता मुक्त ही
बँधता नहीं है।
सियासत-साहित्य की
गंगो-जमुन से
लोकहित की सुरसती का
किया संगम।
'प्राण धारा' ने
हमेशा 'प्राण पूजा'
'कथा-वार्ता' से किया
'उत्सर्ग' चंदन।
लोकसेवा, लोकहित
पल-पल समर्पित
लोक-नेता विरुद
जन ने किया वंदन।
निनादित जल
नर्मदा का, बहा तो
रुकता नहीं है।
'एक लघु कण है
कि जो साधो उसे
सधता नहीं है।'
०००
'तमसा का पूर
अगम और अकूल
कोलाहल आर-पार।'
प्राण-मन में था
नर्मदा निनाद निर्मल
गूँजता अपार।
छायावादी शिल्प
यथार्थवादी गल्प
आत्मबोध नव विहान।
दार्शनिकता साध्य
सत्य-शिव आराध्य
मनोभाव निदान।
सहज-सरल स्वभाव
आम जन से निभाव
अडिग ज्यों चट्टान।
शिक्षा का सूर्य
तरुणाई का तूर्य
देश भक्ति धुआँधार।
'तमसा का पूर
अगम और अकूल
कोलाहल आर-पार।'

'हृदय को समझा न कोई
हृदय के क्षण-क्षण उमड़ते
प्रलय को समझा न कोई।'
परिस्थिति विपरीत में भी
सत्य निष्ठा और आस्था
कभी भी किंचित न खोई।
जागतिक संवेदनाएँ
काव्य-रचना में सुबिंबित
कथ्य-शैली है अनूठी।
उभरता सौंदर्य गति का
भावनाएँ करुण मिश्रित
नहीं उपमा चुनी जूठी।
प्रिय रहे सिद्धांत अपने
फिक्र सत्ता की नहीं की
सोच ठी मौलिक अनूठी।
समर्पण की फसल बोई
भाग ले सत्याग्रहों में
जेल की सलाख गोई।
'हृदय को समझा न कोई
हृदय के क्षण-क्षण उमड़ते
प्रलय को समझा न कोई।'
०००
'नयन का पानी न रीता
ज्वाल सा जलता हुआ सखि!
एक आतप और बीता।'
देश-हित सह कष्ट हँसकर
नित किए संघर्ष डटकर
धैर्य का घट नहीं रीता।
सात बरसों महापौरी
सहजता से-सरलता से
निभाई, पद-मद न व्यापा।
बने सांसद, मिली डी.लिट.,
पद्मश्री से हो अलंकृत
कभी खोया नहीं आपा।
दीन को थे बंधु जैसे
साथियों के पथ-प्रदर्शक
सर्वप्रिय थे जगत-पापा।
हार-जीतों में रहे सम
जन समर्थन मिला अनुपम
रही साथी हृदय गीता।
'नयन का पानी न रीता
ज्वाल सा जलता हुआ सखि!
एक आतप और बीता।'

'चला बाँध धुन, एक धुन सुन पड़ी
पिकी फिर अमर गीत दुहरा गई।'
कथा कीर्ति की छा क्षितिज तक गई
पताका दिगंतित फहरा गई।
चमत्कार लक्षित हुआ उक्ति का नव
कथन में, कहन में रहा आम जन-रव।
नहीं रोक पाया कहीं पग कभी भव
निखरता रहा घोर विपदा में वैभव।
सनातन पुरातन रहा प्रिय हमेशा
नहीं रूढ़, चिंतन प्रगत और अभिनव।
निबंधित-प्रबंधित रुकी थक घड़ी
नियति मौन दुलरा, बुला ले गई।
'चला बाँध धुन, एक धुन सुन पड़ी
पिकी फिर अमर गीत दुहरा गई।'
१३.१२.२०२४
०००
हाइकु कपास पर
कहे कपास
सह लो धूप-छाँव
न हो उदास।
खेत में उगी
पवन संग झूमी
माटी ने पाला।
जड़ें जमाईं
स्नेह सलिल पिया
सिर उठाया।
नीलाभ नभ
ओढ़ लिया आँचल
खिलखिलाई।
अठखेलियाँ
रवि रश्मियों संग
रोके न रुके।
चंद्र किरण
भरकर बाँहों में
नृत्य करती।
करे विद्रोह
न गंध, न भ्रमर
सिर उठाए।
सीखे सबक
विनत हुआ शीश
करे न सोग।
जैसी की तैसी
रखी श्वेत चादर
माँगे बिदाई।
धूप में नहीं
बाल हुए सफेद
करी तपस्या।
अकथनीय
अपनी व्यथा कथा
किससे कहे?
माली ने लूटी
जिंदगी की कमाई
बोली लगाई।
जिसने लिया
जी भरके धुना
छीने बिनौले।
ताना औ' बाना
बना बुने आदम
ढाँके बदन।
रंग दे कान्हा
अपने ही रंग में
बंधन छूटे।
हाय विधाता!
द्रोपदी पुकारती
चीर न घटे।
१३.१२.२४
०००
मुक्तिका
कर नियंत्रित कामनाएँ
हों निमंत्रित भावनाएँ
रब रखे महफूज सबको
मिटाकर सब यातनाएँ
कोशिशें अच्छी न हारें
खूब जूझें जीत जाएँ
स्नेह सुख सम्मान सम पा
खिलखिलाएँ सुत-सुताएँ
रहे निर्झर सा सलिल-मन
नेह नर्मद नित नहाएंँ
भोर अँगना में चिरैया
उतर फुदकें चहचहाएँ
साँस आखिर तक रहे दम
पसीना जमकर बहाएँ
१३.१२.२०२३
•••
सॉनेट
कामना
*
कामना हो साथ हर दम
काम ना छोड़े अधूरा
हाथ जो ले करे पूरा
कामनाएँ हों न कम
का मनाया?; का मिला है?
अनमना है; उन्मना है
क्यों इतै नाहक मुरझना?
का मना! तू कब खिला है?
काम ना- ना काम मोहे
काम ना हो तो परेशां
काम ना या काम चाहे?
भला कामी या अकामी?
बनो नामी या अनामी?
बूझता जो वही सामी
१३-१२-२२
जबलपुर, ७•०४
●●●
***
द्विपदियाँ
फ़िक्र वतन की नहीं तनिक, जुमलेबाजी का शौक
नेता को सत्ता प्यारी, जनहित से उन्हें न काम
*
कुर्सी पाकर रंग बदल, दें गिरगिट को भी मात
काम तमाम तमाम काम का, करते सुबहो-शाम
१३-१२-२०२०
***
मुक्तक
*
कुंज में पाखी कलरव करते हैं
गीत-गगन में नित उड़ान नव भरते हैं
स्नेह सलिल में अवगाहन कर हाथ मिला-
भाव-नर्मदा नहा तारते तरते हैं
*
मनोरमा है हिंदी भावी जगवाणी
सुशोभिता मम उर में शारद कल्याणी
लिपि-उच्चार अभिन्न, अनहद अक्षर है
शब्द ब्रह्म है, रस-गंगा संप्राणी है
*
जैन वही जो अमन-चैन जी-जीने दे
पिए आप संतोष सलिल नित, पीने दे
परिग्रह से हो मुक्त निरंतर बाँट सके-
तपकर सुमन सु-मन जग को रसभीने दे
*
उजाले देख नयना मूँदकर परमात्म दिख जाए नमन कर
तिमिर से प्रगट हो रवि-छवि निरख मन झूमकर गाए नमन कर
मुदित ऊषा, पुलक धरती, हुलस नभ हो रहा हर्षित चमन लख
'सलिल' छवि ले बसा उर में करे भव पार मिट जाए अमन कर
१२-१२-२०२०, ६.४५
***
व्यंग्य लेख::
माया महाठगिनी हम जानी
*
तथाकथित लोकतंत्र का राजनैतिक महापर्व संपन्न हुआ। सत्य नारायण कथा में जिस तरह सत्यनारायण को छोड़कर सब कुछ मिलता है, उसी तरह लोकतंत्र में लोक को छोड़कर सब कुछ प्राप्य है। यहाँ पल-पल 'लोक' का मान-मर्दन करने में निष्णात 'तंत्र की तूती बोलती है। कहा जाता है कि यह 'लोक का, लोक के द्वारा, लोक के लिए' है लेकिन लोक का प्रतिनिधि 'लोक' नहीं 'दल' का बंधुआ मजदूर होता है। लोकतंत्र के मूल 'लोक मत' को गरीब की लुगाई, गाँव की भौजाई मुहावरे की तरह जब-तब अपहृत और रेपित करना हर दल अपना जन्म सिद्ध अधिकार मानता है। ये दल राजनैतिक ही नहीं धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक भी हो सकते हैं। जो दल जितना अधिक दलदल मचने में माहिर होता है, उसे खबरिया जगत में उतनी ही अधिक जगह मिलती है।
हाँ, तो खबरिया जगत के अनुसार 'लोक' ने 'सेवक' चुन लिए हैं। 'लोक' ने न तो 'रिक्त स्थान की विज्ञप्ति प्रसारित की, न चीन्ह-चीन्ह कर विज्ञापन दिए, न करोड़ों रूपए आवेदन पत्रों के साथ बटोरे, न परीक्षा के प्रश्न-पत्र लीक कर वारे-न्यारे किए, न साक्षात्कार में चयन के नाम पर कोमलांगियों के साथ शयन कक्ष को गुलजार किया, न किसी का चयन किया, न किसी को ख़ारिज किया और 'सेवक' चुन लिए। अब ये तथाकथित लोकसेवक-देशसेवक 'लोक' और 'देश' की छाती पर दाल दलते हुए, ऐश-आराम, सत्तारोहण, कमीशन, घपलों, घोटालों की पंचवर्षीय पटकथाएँ लिखेंगे। उनको राह दिखाएँगे खरबूजे को देखकर खरबूजे की तरह रंग बदलने में माहिर प्रशासनिक सेवा के धुरंधर, उनकी रक्षा करेंगा देश का 'सर्वाधिक सुसंगठित खाकी वर्दीधारी गुंडातंत्र (बकौल सर्वोच्च न्यायालय), उनका गुणगान करेगा तवायफ की तरह चंद टकों और सुविधाओं के बदले अस्मत का सौदा करनेवाला खबरॉय संसार और इस सबके बाद भी कोई जेपी या अन्ना सामने आ गया तो उसके आंदोलन को गैर कानूनी बताने में न चूकनेवाला काले कोटधारी बाहुबलियों का समूह।
'लोकतंत्र' को 'लोभतंत्र' में परिवर्तित करने की चिरकालिक प्रक्रिया में चारों स्तंभों में घनघोर स्पर्धा होती रहती है। इस स्पर्धा के प्रति समर्पण और निष्ठां इतनी है की यदि इसे ओलंपिक में सम्मिलित कर लिया जाए तो स्वर्णपदक तो क्या तीनों पदकों में एक भी हमारे सिवा किसी अन्य को मिल ही नहीं सकता। दुनिया के बड़े से बड़े देश के बजट से कहीं अधिक राशि तो हमारे देश में इस अघोषित व्यवसाय में लगी हुई है। लोकतंत्र के चार खंबे ही नहीं हमारे देश के सर्वस्व तीजी साधु-संत भी इस व्यवसाय को भगवदपूजन से अह्दिक महत्व देते हैं। तभी तो घंटो से पंक्तिबद्ध खड़े भक्त खड़े ही रह जाते हैं और पुजारी की अंटी गरम करनेवाले चाट मंगनी और पैट ब्याह से भाई अधिक तेजी से दर्शन कर बाहर पहुँच जाते हैं।
लोकतंत्र में असीम संभावनाएं होती है। इसे 'कोकतंत्र' में भी सहजता से बदला जाता रहा है। टिकिट लेने, काम करने, परीक्षा उत्तीर्ण करने, शोधोपाधि पाने, नियुक्ति पाने, चुनावी टिकिट लेने, मंत्री पद पाने, न्याय पाने या कर्ज लेने में कैसी भी अनियमितता या बाधा हो, बिस्तर गरम करते ही दूर हो जाती है। और तो और नवग्रहों की बाधा, देवताओं का कोप और किस्मत की मार भी पंडित, मुल्ला या पादरी के शयनागार को आबाद कर दूर की जा सकती है। जिस तरह आप के बदले कोई और जाप कर दे तो आपके संकट दूर हो जाते हैं, वैसे ही आप किसी और को भी इस गंगा में डुबकी लगाने भेज सकते हैं। देव लोक में तो एक ही इंद्र है पर इस नर लोक में जितने भी 'काम' करनेवाले हैं वे सब 'काम' करने के बदले 'काम' होने के पहले 'काम की आराधना कर भवसागर पार उतरने का कोी मौका नहीं गँवाते।धर्म हो या दर्शन दोनों में कामिनी के बिना काम नहीं बनता।
हमारी विरासत है कि पहले 'काम' को भस्म कर दो फिर विवाह कर 'काम' के उपासक बन जाओ या 'पहले काम' को साध लो फिर संत कहलाओं। कोई-कोई पुरुषोत्तम आश्रम और मजारों की छाया में माया से ममता करने का पुरुषार्थ करते हुए भी 'रमता जोगी, बहता पानी' की तरह संग रहते हुए भी निस्संग और दागित होते हुए भी बेदाग़ रहा आता है। एक कलिकाल समानता का युग है। यहाँ नर से नारी किसी भी प्रकार पीछे रहना नहीं चाहती। सर्वोच्च न्यायालय और कुछ करे न करे, ७० साल में राम मंदिर पर निर्णय न दे सके किन्तु 'लिव इन' और 'विवाहेतर संबंधों' पर फ़ौरन से पेश्तर फैसलाकुन होने में अतिदक्ष है।
'लोक' भी 'तंत्र' बिना रह नहीं सकता। 'काम' को कामख्या से जोड़े या काम सूत्र से, 'तंत्र' को व्यवस्था से जोड़े या 'मंत्र' से, कमल उठाए या पंजा दिखाए, कही एक को रोकने के लिए, कही दूसरे को साधने के लिए 'माया' की शरण लेना ही होती है, लाख निर्मोही बनने का दवा करो, सत्ता की चौखट पर 'ममता' के दामन की आवश्यकता पड़ ही जाती है। 'लोभ' के रास्ते 'लोक' को 'तंत्र' के राह पर धकेलना हो या 'तंत्र' के द्वारा 'लोक' को रौंदना हो ममता और माया न तो साथ छोड़ती हैं, न कोई उनसे पीछा छुड़ाना चाहता है। अति संभ्रांत, संपन्न और भद्र लोक जानता है कि उसका बस अपनों को अपने तक रोकने पर न चले तो वह औरों के अपनों को अपने तक पहुँचने की राह बनाने से क्यों चूके? हवन करते हाथ जले तो खुद को दोषी न मानकर सूर हो या कबीर कहते रहे हैं 'माया महाठगिनी हम जानी।'
१३-१२-२०१८
***
द्विपदी
भय की नाम-पट्टिका पर, लिख दें साहस का नाम.
कोशिश कभी न हारेगी, बाधा को दें पैगाम.
१३-१२-२०१७
***
मुक्तिका
*
मैं समय हूँ, सत्य बोलूँगा.
जो छिपा है राज खोलूँगा.
*
अनतुले अब तक रहे हैं जो
बिना हिचके उन्हें तोलूँगा.
*
कालिया है नाग काला धन
नाच फन पर नहीं डोलूँगा.
*
रूपए नकली हैं गरल उसको
मिटा, अमृत आज घोलूँगा
*
कमीशनखोरी न बच पाए
मिटाकर मैं हाथ धो लूँगा
*
क्यों अकेली रहे सच्चाई?
सत्य के मैं साथ हो लूँगा
*
ध्वजा भारत की उठाये मैं
हिन्द की जय 'सलिल' बोलूँगा
***
गीत
खाट खड़ी है
*
बड़े-बड़ों की खाट खड़ी है
मोल बढ़ गया है छोटों का.
हल्ला-गुल्ला, शोर-शराबा
है बिन पेंदी के लोटों का.
*
नकली नोट छपे थे जितने
पल भर में बेकार हो गए.
आम आदमी को डँसने से
पहले विषधर क्षार हो गए.
ऐसी हवा चली है यारो!
उतर गया है मुँह खोटों का
बड़े-बड़ों की खाट खड़ी है
मोल बढ़ गया है छोटों का.
*
नाग कालिया काले धन का
बिन मारे बेमौत मर गया.
जला, बहा, फेंका घबराकर
जन-धन खाता कहीं भर गया.
करचोरो! हर दिन होना है
वार धर-पकड़ के सोटों का
बड़े-बड़ों की खाट खड़ी है
मोल बढ़ गया है छोटों का.
*
बिना परिश्रम जोड़ लिया धन
रिश्वत और कमीशन खाकर
सेठों के हित साधे मिलकर
निज चुनाव हित चंदे पाकर
अब हर राज उजागर होगा
नेता-अफसर की ओटों का
बड़े-बड़ों की खाट खड़ी है
मोल बढ़ गया है छोटों का.
*
१३-१२-२०१६
***
नवगीत:
*
लेटा हूँ
मखमल गादी पर
लेकिन
नींद नहीं आती है
.
इस करवट में पड़े दिखाई
कमसिन बर्तनवाली बाई
देह सांवरी नयन कटीले
अभी न हो पाई कुड़माई
मलते-मलते बर्तन
खनके चूड़ी
जाने क्या गाती है
मुझ जैसे
लक्ष्मी पुत्र को
बना भिखारी वह जाती है
.
उस करवट ने साफ़-सफाई
करनेवाली छवि दिखलाई
आहा! उलझी लट नागिन सी
नर्तित कटि ने नींद उड़ाई
कर ने झाड़ू जरा उठाई
धक-धक धड़कन
बढ़ जाती है
मुझ अफसर को
भुला अफसरी
अपना दास बना जाती है
.
चित सोया क्यों नींद उड़ाई?
ओ पाकीज़ा! तू क्यों आई?
राधे-राधे रास रचाने
प्रवचन में लीला करवाई
करदे अर्पित
सब कुछ
गुरु को
जो
वह शिष्या
मन भाती है
.
हुआ परेशां नींद गँवाई
जहँ बैठूँ तहँ थी मुस्काई
मलिन भिखारिन, युवा, किशोरी
कवयित्री, नेत्री तरुणाई
संसद में
चलभाष देखकर
आत्मा तृप्त न हो पाती है
मुझ नेता को
भुला सियासत
गले लगाना सिखलाती है
१३-१२-२०१४
***
गीत
क्षितिज-फलक पर...
*
क्षितिज-फलक पर
लिखा हुआ क्या?...
*
रजनी की कालिमा परखकर,
ऊषा की लालिमा निरख कर,
तारों शशि रवि से बातें कर-
कहदो हासिल तुम्हें हुआ क्या?
क्षितिज-फलक पर
लिखा हुआ क्या?...
*
राजहंस, वक, सारस, तोते
क्या कह जाते?, कब चुप होते?
नहीं जोड़ते, विहँस छोड़ते-
लड़ने खोजें कभी खुआ क्या?
क्षितिज-फलक पर
लिखा हुआ क्या?...
*
मेघ जल-कलश खाली करता,
भरे किस तरह फ़िक्र न करता.
धरती कब धरती कुछ बोलो-
माँ खाती खुद मालपुआ क्या?
क्षितिज-फलक पर
लिखा हुआ क्या?...
*
रमता जोगी, बहता पानी.
पवन विचरता कर मनमानी.
लगन अगन बन बाधाओं का
दहन करे अनछुआ-छुआ क्या?
क्षितिज-फलक पर
लिखा हुआ क्या?...
*
चित्र गुप्त ढाई आखर का,
आदि-अंत बिन अजरामर का.
तन पिंजरे से मुक्ति चाहता
रुके 'सलिल' मन-प्राण सुआ क्या?
क्षितिज-फलक पर
लिखा हुआ क्या?...
१३-१२-२०१२
***

सोमवार, 21 अक्टूबर 2024

सदा सुहागन,कोयल, बुलबुल, वामांगी, गीतांजलि, माया, सॉनेट, भुजंग प्रयात, सोरठा-दोहा, दोहा-सोरठा, गीत,


गीत
*
'सदा सुहागन' वर दो, घर-बगिया हरियाए
'विंका' रहे फूलती हर मौसम मुस्काए

'सदा बहार' रहें हम सब
रहें कृपालु ईश गुरु रब
सफल तभी हम हो पाएँ
करें परिश्रम जी भर जब

'पेरिविंकल' हर आँगन में खुशियाँ लाए
'सदा सुहागन' वर दो, घर-बगिया हरियाए

रक्तचाप मधुमेह मिटा
रक्त कैंसर सको हटा
यही प्रार्थना मानव की
पीड़ाएँ कुछ सको घटा

श्वेत-बैंगनी पुष्प सदा जनगण-मन भाए
'सदा सुहागन' वर दो, घर-बगिया हरियाए

रुचे दिशा दक्षिण-पश्चिम
कंठ-खराश मिटाते तुम
एंटीऑक्सीडेंट सुलभ
प्रतिरोधक हो तुम उत्तम

काढ़ा-चाय विषाणु घटाए, राहत लाए
'सदा सुहागन' वर दो, घर-बगिया हरियाए
२१.१०.२०१४
***
मेडागास्कर मूल की भारत में प्राप्त फूलदार झाड़ी 'केथारेन्थस रोजस' को सदा सुहागन, सदाबहार अपंस्कांति (उडिया), सदाकाडु मल्लिकइ (तमिल), बिल्लागैन्नेस्र् (तेलुगु), उषामालारि (मलयालम), नयनतारा/गुलफिरंगी (बांग्ला), सदाफूली (मराठी), विंका/विंकारोज़ा (अंग्रेजी) आदि नाम मिले हैं। इसकी आठ जातियाँ हर मौसम/ऋतु में खिलती हैं। इसके श्वेत तथा बैंगनी आभावाले छोटे गुच्छों से सजे सुंदर पौधे, अंडाकार ५ पत्ते और वृत्ताकार फूल हर बगिया की शोभा बढ़ाते हैं। रेशेदार दोमट मिट्टी में थोड़ी-सी कंपोस्ट खाद मिलने पर आकर्षक फूलों से लदी-फदी शाखाएक किसी काट-छाँट के बिना निष्काम योगी की तरह शांत रहती हैं। इसकी पत्तियों, जड़ तथा डंठलों से निकलनेवाला दूध विषैला होता है। इसकी फलियाँ पशुओं द्वारा खाकर या मिट्टी में मिलकर नए पौधों को जन्म देती हैं। इसकी शाखा भी गीली मिली में जड़ें उगा लेती है। यूरोप भारत चीन और अमेरिका के अनेक देशों में इस पौधे की खेती की जाती है।

इसके पौधों में विशेष क्षारीय (एल्कैलायड) रसायन होता है जो उच्च रक्तचाप को कम करता है। यह खाँसी, गले की ख़राश और फेफड़ों के संक्रमण की चिकित्सा तथा मधुमेह के उपचार में उपयोगी है। वैज्ञानिकों के अनुसार सदाबहार में मौजूद दर्जनों क्षार रक्त में शकर की मात्रा को नियंत्रित रखते हैं। सदाबहार पौधा बारूद जैसे विस्फोटक पदार्थों को पचाकर विस्फोटक-भंडारों वाली लाखों एकड़ ज़मीन को सुरक्षित एवं उपयोगी बना रहा है। भारत के 'केंद्रीय औषधीय एवं सुगंध पौधा संस्थान' द्वारा की गई खोजों से पता चला है कि 'सदाबहार' की पत्तियों में मौजूद 'विनिकरस्टीन' नामक क्षारीय पदार्थ रक्त कैंसर (ल्यूकीमिया) में बहुत उपयोगी है। यह विषाक्त पौधा संजीवनी बूटी की तरह है। १९८० तक यह फूलोंवाली क्यारियों के लिए सबसे लोकप्रिय पौधा बन चुका था, लेकिन इसके रंगों की संख्या एक ही थी- गुलाबी। १९९८ में इसके दो नए रंग ग्रेप कूलर (बैंगनी आभा वाला गुलाबी जिसके बीच की आँख गहरी गुलाबी थी) और पिपरमिंट कूलर (सफेद पंखुरियाँ, लाल आँख) विकसित किए गए।

विकसित प्रजातियाँ

१९९१ में रॉन पार्कर की कुछ नई प्रजातियाँ बाज़ार में आईं। इनमें से 'प्रिटी इन व्हाइट' और 'पैरासॉल' को आल अमेरिका सेलेक्शन पुरस्कार मिला। इन्हें पैन अमेरिका सीड कंपनी द्वारा उगाया और बेचा गया। इसी वर्ष कैलिफोर्निया में वॉलर जेनेटिक्स ने पार्कर ब्रीडिंग प्रोग्राम की ट्रॉपिकाना शृंखला को बाज़ार में उतारा। इन सदाबहार प्रजातियों के फूलों में नए रंग तो थे ही, आकार भी बड़ा था और पंखुरियाँ एक दूसरे पर चढ़ी हुई थीं। १९९३ में पार्कर जर्मप्लाज्म ने 'पैसिफ़का' नाम से कुछ नए रंग प्रस्तुत किए। जिसमें पहली बार सदाबहार को लाल रंग दिया गया। इसके बाद तो सदाबहार के रंगों की झड़ी लग गई और आज बाज़ार में लगभग हर रंग के सदाबहार पौधों की भरमार है। यह फूल सुंदर तो है ही आसानी से हर मौसम में उगता है, हर रंग में खिलता है और इसके गुणों का भी कोई जवाब नहीं, शायद यही सब देखकर नेशनल गार्डेन ब्यूरो ने सन २००२ को 'इयर आफ़ विंका' के लिए चुना। विंका या विंकारोज़ा, सदाबहार का अंग्रेज़ी नाम है।
***
सॉनेट
मित्र
*
चाहे मन नित मित्र साथ हो
भुज भर भेंटे, भूल कर गिले
लगे ह्रदय के फूल हैं खिले
हाथ हाथ में लिए हाथ हो
मन से मन, मन भर मिल पाए
बिन संकोच कर सके साझा
किस्सा कोई बासी-ताजा
सिलकर होंठ न चुप रह जाए
पाने-खोने की न फ़िक्र हो
प्यारी यारी खूब फख्र हो
इसका-उसका भी न ज़िक्र हो
बिन हिसाब लेना-देना हो
सलिल बाँट अँजुरी भर पी ले
मरुथल में नैया खेना हो
२१-१०-२०२२, १४.३०
***
Haiku
We are lucky
Being Indians
O Bharat Ma!
*
मुक्तिका
धरा पर हो धराशायी, लोग सब सोते रहो
बात मन की करे सत्ता, सुन सिसक रोते रहो
दूर दलहन, तेज तिलहन, अन्न भी मँहगा हुआ
जब तलक है साँस, बोझा साँस का ढोते रहो
गजोधर ने बिल चुकाया, बेच घर, मर भी गया
फसल काटे डॉक्टर, तुम उम्र भर बोते रहो
रस्म क्या; त्यौहार क्या, मँझधार में पतवार बिन
कहे शासन स्नान, खाते तुम भले गोते रहो
चेतना निर्जीव जन की, हो नहीं संजीव फिर
पालकी ढो एक दल की, लोक अब खोते रहो
२१-१०-२०२२, ९•४५
●●●
सॉनेट
मानस
*
रामचरित मानस शुभ सलिला
बेकल को अविकल कल देती
कलकल प्रवहित रेवा विमला
कल की कल, कल को कल देती
कल से कल को जोड़-सँवारे
उमा-उमेश-गणेश निहारे
सिय-सियपति-हनुमत जयकारे
मनु-दनु-संत जीव-जग तारे
कृष्णकांत सुर सुरेश सुनते
दास मुकुंद भाव भर भजते
आशुतोष-ज्ञानेश्वरी गुनते
जीव हुए संजीव सुमिरते
सरला मति हो मुकुल-मना नित
भव तर, सुन-गुन राम का चरित
२१-१०-२०२२,६•३८
●●●
भुजंगप्रयात छंद
यगण x ४ = यमाता x ४ = (१२२) x ४
बारह वार्णिक जगती जातीय भुजंगप्रयात छंद,
बीस मात्रिक महादैशिक जातीय छंद
बहर फऊलुं x ४
*
कभी भी, कहीं भी सुनाओ तराना
हमीं याद में हों, नहीं भूल जाना
लिखो गीत-मुक्तक, कहो नज्म चाहे
बहाने बनाना, हमीं को सुनाना
*
प्रथाएँ भुलाते चले जा रहे हैं
अदाएँ भुनाते छले जा रहे हैं
न भूलें भुनाना,न छोड़ें सताना
नहीं आ रहे हैं, नहीं जा रहे हैं
***
छंद सलिला :
माया छंद,
*
छंद विधान: मात्रिक छंद, दो पद, चार चरण, सम पदांत,
पहला-चौथा चरण : गुरु गुरु लघु-गुरु गुरु लघु-लघु गुरु लघु-गुरु गुरु,
दूसरा तीसरा चरण : लघु गुरु लघु-गुरु गुरु लघु-लघु गुरु लघु-गुरु गुरु।
उदाहरण:
१. आपा न खोयें कठिनाइयों में, न हार जाएँ रुसवाइयों में
रुला न देना तनहाइयों में, बोला अबोला तुमने कहो क्यों?
२. नादानियों का करना न चर्चा, जमा न खोना कर व्यर्थ खर्चा
सही नहीं जो मत आजमाओ, पाखंडियों की करना न अर्चा
३. मौका मिला तो न उसे गँवाओ, मिले न मौक़ा हँस भूल जाओ
गिरो न हारो उठ जूझ जाओ, चौंके ज़माना बढ़ लक्ष्य पाओ
८-१२-२०१८
हिन्दी के नये छंद- १६
गीतांजलि छंद
हिंदी के नए छंदों की श्रुंखला में अब तक आपने पढ़े- पाँच मात्रिक भवानी, राजीव, साधना, हिमालय, आचमन, ककहरा, तुहिनकण, अभियान, नर्मदा, सतपुडा छंद, षड्मात्रिक महावीर, वामांगी छंद । अब प्रस्तुत है षड्मात्रिक छंद गीतांजलि।
विधान-
१. प्रति पंक्ति ६ मात्रा।
२. प्रति पंक्ति मात्रा क्रम गुरु गुरु लघु लघु।
गीत
.
सोना मत
खोना मत
.
तोड़ो मत
फोड़ो मत।
ज्यादा कुछ
जोड़ो मत।
बोया यदि
काटो तुम।
माँगा यदि
बाँटो तुम।
नाहक दुःख
बोना मत।
सोना मत
खोना मत
.
भोगो मत
सारा सुख।
भूलो मत
भोगा दुःख।
चाहे जब
लेना मत।
चाहे बिन
देना मत।
होनी बिन
होना मत।
सोना मत
खोना मत
.
तू हो मत
आतंकित।
पाकी अरि
हो शंकित।
हो काबिल
ना वंचित।
नाकाबिल
क्यों वन्दित?
काँटे तुम
बोना मत।
सोना मत
खोना मत
.
***
हिन्दी के नये छंद- १५
वामांगी छंद
हिंदी के नए छंदों की श्रुंखला में अब तक आपने पढ़े- पाँच मात्रिक भवानी, राजीव, साधना, हिमालय, आचमन, ककहरा, तुहिनकण, अभियान, नर्मदा, सतपुडा छंद, शाद मात्रिक महावीर छंद । अब प्रस्तुत है षड्मात्रिक छंद वामांगी।
विधान-
१. प्रति पंक्ति ६ मात्रा।
२. प्रति पंक्ति मात्रा क्रम गुरु गुरु गुरु।
मुक्तिका
.
जो आता
है जाता
.
नेता जी
आए हैं।
वादे भी
लाए हैं।
ख़्वाबों को
बेचेंगे।
कौओं सा
गाएँगे।
वोटों का
है नाता
जो आता
है जाता
.
वादे हैं
सच्चे क्या?
क्यों पूछा?
बच्चे क्या?
झूठे ही
होता है।
लज्जा भी
खोता हैं।
धोखा दे
गर्वाता
जो आता
है जाता
.
पाएगा
खोएगा।
झूठा ही
रोएगा।
कुर्सी पा
गर्राता।
सत्ता खो
खो जाता।
पार्टी को
धो जाता।
जो आता
है जाता
२१-१०-२०१७
***
नवगीत:
(मुखड़ा दोहा, अन्तरा सोरठा)
.
दर्पण का दिल देखता कहिए, जग में कौन?
.
आप न कहता हाल भले रहे दिल सिसकता
करता नहीं खयाल नयन कौन सा फड़कता?
सबकी नज़र उतारतालेकर राई-नौन
.
पूछे नहीं सवाल नहीं किसी से हिचकता
कभी न देता टाल और न किंचित ललकता
रूप-अरूप निहारता लेकिन रहता मौन
.
रहता है निष्पक्ष विश्व हँसे या सिसकता
सब इसके समकक्ष जड़ चलता या फिसलता
माने सबको एक सा हो आधा या पौन …
*
अभिनव प्रयोग
सोरठा-दोहा गीत
संजीव
*
इतना ही इतिहास,
मनुज, असुर-सुर का रहा
हर्ष शोक संत्रास,
मार-पीट, जय-पराजय
*
अक्षर चुप रह देखते, क्षर करते अभिमान
एक दूसरे को सता, कहते हम मतिमान
सकल सृष्टि का कर रहा, पल-पल अनुसन्धान
किन्तु नहीं खुद को 'सलिल', किंचित पाया जान
अपनापन अनुप्रास,
श्लेष स्नेह हरदम रहा
यमक अधर धर हास,
सत्य सदा कहता अभय
*
शब्द मुखर हो बोलते, शिव का करिए गान
सुंदर वह जो सनातन, नश्वर तन-मन मान
सत चित में जब बस रहे, भाषा हो रस-खान
पा-देते आनंद तब, छंद न कर अभिमान
जीवन में परिहास,
हो भोजन में नमक सा
जब हो छल-उपहास
साध्य, तभी होती प्रलय
*
मुखड़ा संकेतित करे, रोकें नहीं उड़ान
हठ मत ठानें नापना, क्षण में सकल वितान
अंतर से अंतर मिटा, रच अंतरा सुजान
गति-यति, लय मत भंग कर, तभी सधेगी तान
कुछ कर ले सायास,
अनायास कुछ हो रहा
देखे मौन सहास
अंश पूर्ण में हो विलय
***
सोरठा - दोहा गीत
संबंधों की नाव
*
संबंधों की नाव,
पानी - पानी हो रही।
अनचाहा अलगाव,
नदी-नाव-पतवार में।।
*
स्नेह-सरोवर सूखते,
बाकी गन्दी कीच।
राजहंस परित्यक्त हैं,
पूजते कौए नीच।।
नहीं झील का चाव,
सिसक रहे पोखर दुखी।
संबंधों की नाव,
पानी - पानी हो रही।।
*
कुएँ - बावली में नहीं,
शेष रहा विश्वास।
निर्झर आवारा हुआ,
भटके ले निश्वास।।
घाट घात कर मौन,
दादुर - पीड़ा अनकही।
संबंधों की नाव,
पानी - पानी हो रही।।
*
ताल - तलैया से जुदा,
देकर तीन तलाक।
जलप्लावन ने कर दिया,
चैनो - अमन हलाक।।
गिरि खोदे, वन काट
मानव ने आफत गही।
संबंधों की नाव,
पानी - पानी हो रही।।
***
आलेख :
शब्दों की सामर्थ्य -
पिछले कुछ दशकों से यथार्थवाद के नाम पर साहित्य में अपशब्दों के खुल्लम खुल्ला प्रयोग का चलन बढ़ा है. इसके पीछे दिये जाने वाले तर्क २ हैं: प्रथम तो यथार्थवाद अर्थात रचना के पात्र जो भाषा प्रयोग करते हैं उसका प्रयोग और दूसरा यह कि समाज में इतनी गंदगी आचरण में है कि उसके आगे इन शब्दों की बिसात कुछ नहीं. सरसरी तौर से सही दुखते इन दोनों तर्कों का खोखलापन चिन्तन करते ही सामने आ जाता है.
हम जानते हैं कि विवाह के पश्चात् नव दम्पति वे बेटी-दामाद हों या बेटा-बहू शयन कक्ष में क्या करनेवाले हैं? यह यथार्थ है पर क्या इस यथार्थ का मंचन हम मंडप में देखना चाहेंगे? कदापि नहीं, इसलिए नहीं कि हम अनजान या असत्यप्रेमी पाखंडी हैं, अथवा नव दम्पति कोई अनैतिक कार्य करेने जा रहे होते हैं अपितु इसलिए कि यह मानवजनित शिष्ट, सभ्यता और संस्कारों का तकाजा है. नव दम्पति की एक मधुर चितवन ही उनके अनुराग को व्यक्त कर देती है. इसी तरह रचना के पत्रों की अशिक्षा, देहातीपन अथवा अपशब्दों के प्रयोग की आदत का संकेत बिना अपशब्दों का प्रयोग किए भी किया जा सकता है. रचनाकार की शब्द सामर्थ्य तभी ज्ञात होती है जब वह अनकहनी को बिना कहे ही सब कुछ कह जाता है, जिनमें यह सामर्थ्य नहीं होती वे रचनाकार अपशब्दों का प्रयोग करने के बाद भी वह प्रभाव नहीं छोड़ पाते जो अपेक्षित है.
दूसरा तर्क कि समाज में शब्दों से अधिक गन्दगी है, भी इनके प्रयोग का सही आधार नहीं है. साहित्य का सृजन करें के पीछे साहित्यकार का लक्ष्य क्या है? सबका हित समाहित करनेवाला सृजन ही साहित्य है. समाज में व्याप्त गन्दगी और अराजकता से क्या सबका हित, सार्वजानिक हित सम्पादित होता है? यदि होता तो उसे गन्दा नहीं माना जाता. यदि नहीं होता तो उसकी आंशिक आवृत्ति भी कैसे सही कही जा सकती है? गन्दगी का वर्णन करने पर उसे प्रोत्साहन मिलता है.
समाचार पात्र रोज भ्रष्टाचार के समाचार छापते हैं... पर वह घटता नहीं, बढ़ता जाता है. गन्दगी, वीभत्सता, अश्लीलता की जितनी अधिक चर्चा करेंगे उतने अधिक लोग उसकी ओर आकृष्ट होंगे. इन प्रवृत्तियों की नादेखी और अनसुनी करने से ये अपनी मौत मर जाती हैं. सतर्क करने के लिये संकेत मात्र पर्याप्त है.
तुलसी ने असुरों और सुरों के भोग-विलास का वर्णन किया है किन्तु उसमें अश्लीलता नहीं है. रहीम, कबीर, नानक, खुसरो अर्थात हर सामर्थ्यवान और समयजयी रचनाकार बिना कहे ही बहुत कुछ कह जाता हैं और पाठक, चिन्तक, समलोचालक उसके लिखे के अर्थ बूझते रह जाते हैं. समस्त टीका शास्त्र और समीक्षा शास्त्र रचनाकार की शब्द सामर्थ्य पर ही टिका है.
अपशब्दों के प्रयोग के पीछे सस्ती और तत्कालिल लोकप्रियता पाने या चर्चित होने की मानसिकता भी होती है. रचनाकार को समझना चाहिए कि साथी चर्चा किसी को साहित्य में अजर-अमर नहीं बनाती. आदि काल से कबीर, गारी और उर्दू में हज़ल कहने का प्रचलन रहा है किन्तु इन्हें लिखनेवाले कभी समादृत नहीं हुए. ऐसा साहित्य कभी सार्वजानिक प्रतिष्ठा नहीं पा सका. ऐसा साहित्य चोरी-चोरी भले ही लिखा और पढ़ा गया हो, चंद लोगों ने भले ही अपनी कुण्ठा अथवा कुत्सित मनोवृत्ति को संतुष्ट अनुभव किया हो किन्तु वे भी सार्वजनिक तौर पर इससे बचते ही रहे.
प्रश्न यह है कि साहित्य रच ही क्यों जाता है? साहित्य केवल मनुष्य ही क्यों रचता है?
केवल मनुष्य ही साहित्य रचता है चूंकि ध्वनियों को अंकित करने की विधा (लिपि) उसे ही ज्ञात है. यदि यही एकमात्र कारण होता तो शायद साहित्य की वह महत्ता न होती जो आज है. ध्वन्यांकन के अतिरिक्त साहित्य की महत्ता श्रेष्ठतम मानव मूल्यों को अभिव्यक्त करने, सुरक्षित रखने और संप्रेषित करने की शक्ति के कारण है. अशालीन साहित्य श्रेष्ठतम मूल्यों को नहीं निकृष्टतम मूल्यों को व्यक्त कर्ता है, इसलिए वह सदा त्याज्य माना गया और माना जाता रहेगा.
साहित्य सृजन का कार्य अक्षर और शब्द की आराधना करने की तरह है. माँ, मातृभूमि, गौ माता और धरती माता की तरह भाषा भी मनुष्य की माँ है. चित्रकार हुसैन ने सरस्वती और भारत माता की निर्वस्त्र चित्र बनाकर यथार्थ ही अंकित किया पर उसे समाज का तिरस्कार ही झेलना पड़ा. कोई भी अपनी माँ को निर्वस्त्र देखना नहीं चाहता, फिर भाषा जननी को अश्लीलता से आप्लावित करना समझ से परे है.
सारतः शब्द सामर्थ्य की कसौटी बिना कहे भी कह जाने की वह सामर्थ्य है जो अश्लील को भी श्लील बनाकर सार्वजनिक अभिव्यक्ति का साधन तो बनती है, अश्लीलता का वर्णन किए बिना ही उसके त्याज्य होने की प्रतीति भी करा देती है. इसी प्रकार यह सामर्थ्य श्रेष्ट की भी अनुभूति कराकर उसको आचरण में उतारने की प्रेरणा देती है. साहित्यकार को अभिव्यक्ति के लिये शब्द-सामर्थ्य की साधना कर स्वयं को सामर्थ्यवान बनाना चाहिए न कि स्थूल शब्दों का भोंडा प्रयोग कर साधना से बचने का प्रयास करना चाहिए.
***
बाल कविता:
कोयल-बुलबुल की बातचीत
*
कुहुक-कुहुक कोयल कहे: 'बोलो मीठे बोल'.
चहक-चहक बुलबुल कहे: 'बोल न, पहले तोल'..
यह बोली: 'प्रिय सत्य कह, कड़वी बात न बोल'.
वह बोली: 'जो बोलना उसमें मिसरी घोल'.
इसका मत: 'रख बात में कभी न अपनी झोल'.
उसका मत: 'निज गुणों का कभी न पीटो ढोल'..
इसके डैने कर रहे नभ में तैर किलोल.
वह फुदके टहनियों पर, कहे: 'कहाँ भू गोल?'..
यह पूछे: 'मानव न क्यों करता सच का मोल.
वह डांटे: 'कुछ काम कर, 'सलिल' न नाहक डोल'..
२१-१०-२०१०
***

बुधवार, 27 दिसंबर 2017

navgeet

नवगीत
*
माया महा ठगिनी हम जानी 
ममता मोहित राह भुलानी 
मल्ल मुलायम कुम्हला रए रे!
मुल्ला मत भए दाना-पानी
*
ठगे गए सिवपाल बिचारे
बेटा पड़ा बाप पर भारी
शकुनी लालू फेंकें पासा
नया महाभारत है जारी
रो-रो राहुल पगला रओ रे!
जैसे मर गई बाकी नानी
*
फारुख अब्दुल्ला बर्रा रओ
घास न डाले तन्नक कोई
कमुनिस्टों खों नींद नें आ रई
सूल चुभें, जो फसलें बोई
पोल खुल गई सम्मानों की
लौटाने की करम कहानी
*
काली रोकड़ जमा हो गई
काला मनुआ अब लौं बाकी
उगरे-निगरे पीर घनेंरी
खाली बोतल भरे नें साकी
सौ चूहे खा बिना डकारे
चैनल कर रए गलत बयानी
***
२७-१२-१६

शनिवार, 13 मई 2017

manav chhand

रसानंद दे छंद नर्मदा ८४:  
 


दोहा, ​सोरठा, रोला, ​आल्हा, सार​,​ ताटंक (चौबोला), रूपमाला (मदन), चौपाई​, ​हरिगीतिका, उल्लाला​, गीतिका, ​घनाक्षरी, बरवै, त्रिभंगी, सरसी, छप्पय, भुजंगप्रयात, कुंडलिनी, सवैया, शोभन/सिंहिका, सुमित्र, सुगीतिका , शंकर, मनहरण (कवित्त/घनाक्षरी), उपेन्द्रव
ज्रा
, इंद्रव
​​
ज्रा, 
सखी
​, 
विधाता/शुद्धगा, 
वासव
​, 
अचल धृति
​,  
अचल
​, अनुगीत, अहीर, अरुण, 
अवतार, 
​​उपमान / दृढ़पद,  
एकावली,  
अमृतध्वनि, नित, आर्द्रा, ककुभ/कुकभ, कज्जल, कमंद, कामरूप, कामिनी मोहन (मदनावतार), 
काव्य, 
वार्णिक कीर्ति, 
कुंडल, गीता, गंग, 
चण्डिका, चंद्रायण, छवि (मधुभार), जग, जाया, तांडव, तोमर, त्रिलोकी, दिग्पाल / दिक्पाल / मृदुगति, दीप, दीपकी, दोधक, निधि, निश्चल
प्लवंगम, प्रतिभा, प्रदोषप्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदनाग, 
मधुमालती, मनमोहन, मनोरम  छंदों से साक्षात के पश्चात् मिलिए मानव छंद से   

Rose    मानव 
छंद
*
छंद-लक्षण: समपाद मात्रिक छंद, जाति मानव, प्रति चरण मात्रा १४ मात्रा, चरणारंभ गुरु, चरणांत गुरु लघु लघु या लघु गुरु गुरु होता है.  
लक्षण छंद:
हैं भुवन चौदह मनोरम 
आदि गुरु हो तो मिले मग
हो हमेश अंत में अंत भय   

लक्ष्य वर लो बढ़ाओ पग
उदाहरण:
१. 
साया भी साथ न देता 
   जाया भी साथ न देता
   माया जब मन भरमाती
   
काया कब साथ निभाती 

२. सत्य तज मत 'सलिल' भागो
   कर्म कर फल तुम न माँगो
   प्राप्य तुमको खुद मिलेगा
   धर्म सच्चा समझ जागो

३. लो चलो अब तो बचाओ
   देश को दल बेच खाते
   नीति खो नेता सभी मिल
   रिश्वतें ले जोड़ते धन

४. सांसदों तज मोह-माया
   संसदीय परंपरा को 
   आज बदलो, लोक जोड़ो-
   तंत्र को जन हेतु मोड़ो
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