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बुधवार, 10 जुलाई 2019

कार्यशाला : दोहा - कुण्डलिया

कार्यशाला : दोहा - कुण्डलिया
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अपना तो कुछ है नहीं,सब हैं माया जाल। 
धन दौलत की चाह में,रूचि न सुख की दाल।।  -शशि पुरवार 
रुची न सुख की दाल, विधाता दे पछताया।
मूर्ख मनुज क्या हितकर यह पहचान न पाया।।
सत्य देख मुँह फेर, देखता मिथ्या सपना।

चाह न सुख संतोष, मानता धन को नपना।।  संजीव 'सलिल'

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कुण्डलिया के विविध अंत: 

पहली पंक्ति का उलट फेर 


सब हैं माया जाल, नहीं है कुछ भी अपना

एक चरण 

सत्य देख मुख फेर, दुःख पाता फिर-फिर वहीं 

कहते ऋषि मुनि संत, अपना तो कुछ है नहीं 

शब्द समूह 

सत्य देख मुख फेर, सदा माला जपना तो 

बनता अपना जगत, नहीं कुछ भी अपना तो 

एक शब्द

देता धोखा वही, बन रहा है जो अपना 

एक अक्षर 

खाता धोखा देख, अहर्निश मूरख सपना 

एक मात्रा 

रो-पछताता वही, नहीं जो जाग सम्हलता

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मंगलवार, 11 सितंबर 2018

दोहा-कुण्डलिया

कार्यशाला-
दोहा से कुण्डलिया
रीता सिवानी-संजीव 'सलिल
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धागा टूटा नेह का, बंजर हुई ज़मीन।
अब तो बनकर रह गया, मानव एक मशीन
मानव एक मशीन, न जिसमें कुछ विवेक है
वहीं लुढ़कता जहाँ, स्वार्थ की मिली टेक है
रीता जैसे कलश, पियासा बैठा कागा
कंकर भर थक गया, न पानी मिला अभागा
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१०-९-२०१८