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शुक्रवार, 22 सितंबर 2023

दोहा, गाँधी, बेटी, मुक्तक, नवगीत, हास्य, विमर्श, ब्राह्मण


दोहा सलिला:
गाँधी के इस देश में...
संजीव 'सलिल'
गाँधी के इस देश में, गाँधी की जयकार.
सत्ता पकड़े गोडसे, रोज कर रहा यार..
गाँधी के इस देश में, गाँधी की सरकार.
हाय गोडसे बन गया, है उसका सरदार..
गाँधी के इस देश में, गाँधी की है मौत.
सत्य अहिंसा सिसकती, हुआ स्वदेशी फौत..
गाँधी के इस देश में, हिंसा की जय बोल.
बाहुबली नेता बने, जन को धन से तोल..
गाँधी के इस देश में, गाँधी की दरकार.
सिर्फ डाकुओं को रही, शेष कहें बेकार..
गाँधी के इस देश में, हुआ तमाशा खूब.
गाँधीवादी पी सुरा, राग अलापें खूब..
गाँधी के इस देश में, डंडे का है जोर.
खेल रहे हैं डांडिया, विहँस पुलिसिए-चोर..
गाँधी के इस देश में, अंग्रेजी का दौर.
किसको है फुर्सत करे, हिन्दी पर कुछ गौर..
गाँधी के इस देश में, बोझ हुआ कानून.
न्यायालय में हो रहा, नित्य सत्य का खून..
गाँधी के इस देश में, धनी-दरिद्र समान.
उनकी फैशन ये विवश, देह हुई दूकान..
गाँधी के इस देश में, 'सलिल 'न कुछ भी ठीक.
दुनिया का बाज़ार है, देश तोड़कर लीक..
*
नवगीत:
*
गाँधी को मारा
आरोप
गाँधी को भूले
आक्रोश
भूल सुधारी
गर वंदन कर
गाँधी को छीना
प्रतिरोध
गाँधी नहीं बपौती
मानो
गाँधी सद्विचार
सच जानो
बाँधो मत सीमा में
गाँधी
गाँधी परिवर्तन की
आँधी
स्वार्थ साधते रहे
अबोध
गाँधी की मत
नकल उतारो
गाँधी को मत
पूज बिसारो
गाँधी बैठे मन
मंदिर में
तन से गाँधी को
मनुहारो
कर्म करो सत
है अनुरोध
***
हास्य रचना:
सीता-राम
*
लालू से
कालू मिला,
खुश हो किया सलाम।
बोला-
"जोड़ी जँच रही
जैसे सीता-राम।
लालू बोला-
सच?
न क्यों, रावण हरता बोल?
समा न लेती भू कहो,
क्यों लाकर भूडोल??
२२.९.२०१८
***

एक रचना
*
अनसुनी रही अब तक पुकार
मन-प्राण रहे जिसको गुहार
वह आकर भी क्यों आ न सका?
जो नहीं सका पल भर बिसार
*
वह बाहर हो तब तो आए
मनबसिया भरमा पछताए
जो खुद परवश ही रहता है
वह कैसे निज सुर में गाए?
*
जब झुका दृष्टि मन में देखा
तब उसको नयनों ने लेखा
जग समझ रहा हम रोये हैं
सुधियाँ फैलीं कज्जल-रेखा
*
बिन बोले वह क्या बोल गया
प्राणों में मिसरी घोल गया
मैं रही रोकती लेकिन मन
पल भर न रुका झट डोल गया
*
जिसको जो कहना है कह ले
खुश हो यो गुपचुप छिप दह ले
बासंती पवन झकोरा आ
मेरी सुधियाँ गह ले, तह ले
*
कर वाह न भरना अरे! आह
मन की ले पाया कौन थाह?
जो गले मिले, भुज पाश बाँध
उनके उर में ही पली डाह
*
जो बने भक्त गह चरण कभी
कर रहे भस्म दे शाप अभी
वाणी में नहीं प्रभाव बचा
सर पीट रहे निज हाथ तभी
*
मन मीरा सा, तन राधा सा,
किसने किसको कब साधा सा?
कह कौन सकेगा करुण कथा
किसने किसको आराधा सा
*
मिट गया द्वैत, अंतर न रहा
अंतर में जो मंतर न रहा
नयनों ने पुनि मन को रोका
मत बोल की प्रत्यंतर न रहा
***
मुक्तक
खुद जलकर भी सदा उजाला ज्योति जगत को देती है
जीत निराशा तरणि नित्य नव आशा की वह खेती है
रश्मि बिम्ब से सलिल-लहर भी ज्योतिमयी हो जाती है
निबिड़ तिमिर में हँस ऊषा का बीज वपन कर आती है
*
हम चाहें तो सरकारों के किरदारों को झुकना होगा
हम चाहें तो आतंकों को पीठ दिखाकर मुडना होगा
कहे कारगिल हार न हिम्मत, टकरा जाना तूफानों से-
गोरखनाथ पुकार रहे हैं,अब दुश्मन को डरना होगा
*
मजा आता न गर तो कल्पना करता नहीं कोई
मजा आता न गर तो जगत में जीता नहीं कोई
मजे में कट गयी जो शुक्रिया उसका करों यारों-
मजा आता नहीं तो मौन हो मरता नहीं कोई
*
करो मत द्वंद, काटो फंद, रचकर छंद पल-पल में
न जो मति मंद, ले आनंद, सुनकर छंद पल-पल में
रसिक मन डूबकर रस में, बजाता बाँसुरी जब-जब
बने तन राधिका, सँग श्वास गोपी नाचें पल-पल में
*
पता है लापता जिसका उसे सब खोजते हैं क्यों?
खिली कलियाँ सवेरे बाग़ में जा नोचते हैं क्यों?
चढ़ें मन्दिर में जाती सूख, खुश हो देवता कैसे?
कहो तो हाथ को अपने नहीं तुम रोकते हो क्यों?
***
एक रचना
बातें हों अब खरी-खरी
*
मुँह देखी हो चुकी बहुत
अब बातें हों कुछ खरी-खरी
जो न बात से बात मानता
लातें तबियत करें हरी
*
पाक करे नापाक हरकतें
बार-बार मत चेताओ
दहशतगर्दों को घर में घुस
मार-मार अब दफनाओ
लंका से आतंक मिटाया
राघव ने यह याद रहे
काश्मीर को बचा-मिलाया
भारत में, इतिहास कहे
बांगला देश बनाया हमने
मत भूले रावलपिडी
कीलर-सेखों की बहादुरी
देख सरहदें थीं सिहरी
मुँह देखी हो चुकी बहुत
अब बातें हों कुछ खरी-खरी
*
करगिल से पिटकर भागे थे
भूल गए क्या लतखोरों?
सेंध लगा छिपकर घुसते हो
क्यों न लजाते हो चोरों?
पाले साँप, डँस रहे तुझको
आजा शरण बचा लेंगे
ज़हर उतार अजदहे से भी
तेरी कसम बचा लेंगे
है भारत का अंग एक तू
दुहराएगा फिर इतिहास
फिर बलूच-पख्तून बिरादर
के होंठों पर होगा हास
'जिए सिंध' के नारे खोदें
कब्र दुश्मनी की गहरी
मुँह देखी हो चुकी बहुत
अब बातें हों कुछ खरी-खरी
२१-९-२०१६
***
विमर्श: श्रम और बुद्धि
ब्राम्हणों ने अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने के लिये ग्रंथों में अनेक निराधार, अवैज्ञानिक, समाज के लिए हानिप्रद और सनातन धर्म के प्रतिकूल बातें लिखकर सबका कितना अहित किया? तो पढ़िए व्यास स्मृति विविध जातियों के बारे में क्या कहती है?
जानिए और बताइये क्या हमें व्यास का सम्मान कारण चाहिए???
व्यास स्मृति, अध्याय १
वर्द्धकी नापितो गोपः आशापः कुम्भकारकः
वीवक किरात कायस्थ मालाकर कुटिम्बिनः
एते चान्ये च वहवः शूद्रा भिन्नः स्वकर्मभिः -१०
चर्मकारः भटो भिल्लो रजकः पुष्ठकारो नट:
वरटो भेद चाण्डाल दासं स्वपच कोलकाः -११
एते अन्त्यज समाख्याता ये चान्ये च गवारान:
आशाम सम्भाषणाद स्नानं दशनादरक वीक्षणम् -१२
अर्थ: बढ़ई, नाई, अहीर, आशाप, कुम्हार, वीवक, किरात, कायस्थ, मालाकार कुटुम्बी हैं। ये भिन्न-भिन्न कर्मों के कारण शूद्र हैं. चमार, भाट, भील, धोबी, पुस्तक बांधनेवाले, नट, वरट, चाण्डालों, दास, कोल आदि माँसभक्षियों अन्त्यज (अछूत) हैं. इनसे बात करने के बाद स्नान तथा देख लेने पर सूर्य दर्शन करना चाहिए।
उल्लेख्य है कि मूलतः ब्राम्हण और कायस्थ दोनों की उत्पत्ति एक ही मूल ब्रम्ह या परब्रम्ह से है। दोनों बुद्धिजीवी रहे हैं. बुद्धि का प्रयोग कर समाज को व्यवस्थित और शासित करनेवाले अर्थात राज-काज को मानव की उन्नति का माध्यम माननेवाले कायस्थ (कार्यः स्थितः सह कायस्थः) तथा बुद्धि के विकास और ज्ञान-दान को मानवोन्नति का मूल माननेवाले ब्राम्हण (ब्रम्हं जानाति सः ब्राम्हणाः) हुए।
ये दोनों पथ एक-दूसरे के पूरक हैं किन्तु अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने के लिए ब्राम्हणों ने वैसे ही निराधार प्रावधान किये जैसे आजकल खाप के फैसले और फतवे कर रहे हैं. उक्त उद्धरण में व्यास ने ब्राम्हणों के समकक्ष कायस्थों को श्रमजीवी वर्ग के समतुल्य बताया और श्रमजीवी कर्ज को हीन कह दिया। फलतः, समाज विघटित हुआ। बल और बुद्धि दोनों में श्रेष्ठ कायस्थों का पराभव केवल भुज बल को प्रमुख माननेवाले क्षत्रियों के प्रभुत्व का कारण बना। श्रमजीवी वर्ग ने अपमानित होकर साथ न दिया तो विदेशी हमलावर जीते, देश गुलाम हुआ।
इस विमर्श का आशय यह कि अतीत से सबक लें। समाज के उन्नयन में हर वर्ग का महत्त्व समझें, श्रम को सम्मान देना सीखें। धर्म-कर्म पर केवल जन्मना ब्राम्हणों का वर्चस्व न हो। होटल में ५० रु. टिप देनेवाला रिक्शेवाले से ५-१० रु. का मोल-भाव न करे, श्रमजीवी को इतना पारिश्रमिक मिले कि वह सम्मान से परिवार पाल सके। पूंजी पे लाभ की दर से श्रम का मोल अधिक हो। आपके अभिमत की प्रतीक्षा है।
२२.९.२०१४
***
मुक्तक सलिला :
बेटियाँ
*
आस हैं, अरमान हैं, वरदान हैं ये बेटियाँ
सच कहूँ माता-पिता की शान हैं ये बेटियाँ
पैर पूजो या कलेजे से लगाकर धन्य हो-
एक क्या दो-दो कुलों की आन हैं ये बेटियाँ
*
शोरगुल में कोकिला का गान हैं ये बेटियाँ
नदी की कलकल सुरीली तान हैं ये बेटियाँ
माँ, सुता, भगिनी, सखी, अर्धांगिनी बन साथ दें-
फूँक देतीं जान देकर जान भी ये बेटियाँ
*
मत कहो घर में महज मेहमान हैं ये बेटियाँ
यह न सोचो सत्य से अनजान हैं ये बेटियाँ
लेते हक लड़ के हैं लड़के, फूँक भी देते 'सलिल'-
नर्मदा जल सी, गुणों की खान हैं ये बेटियाँ
*
ज़िन्दगी की बन्दगी, पहचान हैं ये बेटियाँ
लाज की चादर, हया का थान हैं ये बेटियाँ
चाहते तुमको मिले वरदान तो वर-दान दो
अब न कहना 'सलिल कन्या-दान हैं ये बेटियाँ
*
सभ्यता की फसल उर्वर, धान हैं ये बेटियाँ
महत्ता का, श्रेष्ठता का भान हैं ये बेटियाँ
धरा हैं पगतल की बेटे, बेटियाँ छत शीश की-
भेद मत करना, नहीं असमान हैं ये बेटियाँ
***
हास्य रचना:
चना जोर गरम
*
चना जोर गरम
बाबू ! मैं लाया मजेदार
चना जोर गरम…
*
ममो मुट्ठी भर चना चबाये
संसद को नित धता बताये
रूपया गिरा देख मुस्काये-
अमरीका को शीश नवाये
चना जोर गरम…
*
नमो ने खाकर चना डकारा
शनी मिमयाता रहा बिचारा
लाम का उतर गया है पारा
लाल सियापा कर कर हांरा
चना जोर गरम…
*
मुरा की नूरा-कुश्ती नकली
शामत रामदेव की असली
चना बापू ने नहीं चबाये-
चदरिया मैली ले पछताये
चना जोर गरम…
*
मेरा चना मसालेवाला
अन्ना को करता मतवाला
जनगण-मन जपता है माला-
मेहनतकश का यही निवाला
चना जोर गरम…
२२-९-२०१३
*
ममो = मनमोहन सिंह
नमो = नरेन्द्र मोदी,
शनी = शरद यादव-नीतीश कुमार
लाम = लालू यादव-ममता
लाल = लालकृष्ण अडवानी
मुरा = मुलायम सिंह-राहुल गाँधी बापू = आसाराम

गुरुवार, 26 मई 2022

मनहरण घनाक्षरी, मुक्तिका, नवगीत, भोजपुरी हाइकु, हाइकु भोजपुरी, विमर्श, दोहा,

विमर्श :
शरद तैलंग -
 दोहों के सम चरणों के अंत में तुकांत समान होना दोष माना जाता है या नहीं?
जैसे बहुत बड़ा दुर्भाग्य है होना भारी पाँव। 
बहुत बड़ा सौभाग्य है, होना भारी पाँव ।। 
जैसे यहां दोनों सम चरणों में "पाँव" आ रहा है। 
संजीव वर्मा 'सलिल' 
दोहा का सम चरण सम तुकान्ती गुरु-लघु (२ १) होना अनिवार्य है। सम चरण के पदांत में एक ही शब्द की आवृत्ति तभी हो जब उससे भिन्नार्थ सूचित हो अर्थात यमक हो। यहाँ पाँव भारी होना मुहावरे को दो विविधार्थों में प्रयोग किया गया है। दुर्भाग्य तब जब हाथी पाँव रोग हो, सौभाग्य तब जब स्त्री गर्भवती हो। इसमें दोष नहीं है। 
शरद - 
पात्र और सुपात्र हो या दोनों जगहों पर होय, होय, हो जिसका अर्थ भी समान हो तो क्या मान्य है ? 
संजीव वर्मा 'सलिल' 
सार्थक है तो मान्य, निरर्थक है तो अमान्य। 
कथाकार का लक्ष्य है, गढ़ना समुचित पात्र। 
पाठक कहे सुपात्र या, कह दे उसे कुपात्र।। 
या,
मुख्य पात्र के हाथ में, हो यदि भिक्षा पात्र। 
क्षात्र कहे करवाल ले, गात्र धर्म है; मात्र।। 
पाठक अपनी राय दें।
***
मुक्तिका
तेरे लिए
(१९ मात्रिक महापौराणिकजातीय आनंदवर्धक छंद)
*
जी रहा हूँ श्वास हर तेरे लिए
पी रहा हूँ प्यास हर तेरे लिए
*
हर ख़ुशी-आनंद है तेरे लिए
मीत! मेरा छंद है तेरे लिए
*
मधुर अनहद नाद है तेरे लिए
भोग, रसना, स्वाद है तेरे लिए
*
वाक् है, संवाद है तेरे लिए
प्रभु सुने फ़रियाद है तेरे लिए
*
जिंदगी का भान है तेरे लिए
बन्दगी में गान है तेरे लिए
*
सावनी जलधार है तेरे लिए
फागुनी सिंगार है तेरे लिए
*
खिला हरसिंगार है तेरे लिए
सनम ये भुजहार है तेरे लिए
२६-५-२०१७
***
नवगीत
*
तन पर
पहरेदार बिठा दो
चाहे जितने,
मन पाखी को
कैद कर सके
किसका बूता?
*
तनता-झुकता
बढ़ता-रुकता
तन ही हरदम।
हारे ज्ञानी
झुका न पाये
मन का परचम।
बाखर-छानी
रोक सकी कब
पानी चूता?
मन पाखी को
कैद कर सके
किसका बूता?
*
ताना-बाना
बुने कबीरा
ढाई आखर।
ज्यों की त्यों ही
धर जाता है
अपनी चादर।
पैर पटककर
सना धूल में
नाहक जूता।
मन पाखी को
कैद कर सके
किसका बूता?
*
चढ़ी शीश पर
नहीं उतरती
क़र्ज़ गठरिया।
आस-मदारी
नचा रहा है
श्वास बँदरिया।
आसमान में
छिपा न मिलता
इब्नबतूता।
मन पाखी को
कैद कर सके
किसका बूता?
२६-५-२०१६
***
नवगीत:
*
श्वास मुखड़े
संग गूथें
आस के कुछ अंतरे
*
जिंदगी नवगीत बनकर
सर उठाने जब लगी
भाव रंगित कथ्य की
मुद्रा लुभाने तब लगी
गुनगुनाकर छंद ने लय
कहा: 'बन जा संत रे!'
श्वास मुखड़े
संग गूथें
आस के कुछ अंतरे
*
बिम्ब ने प्रतिबिम्ब को
हँसकर लगाया जब गले
अलंकारों ने कहा:
रस सँग ललित सपने पले
खिलखिलाकर लहर ने उठ
कहा: 'जग में तंत रे!'
*
बन्दगी इंसान की
भगवान ने जब-जब करी
स्वेद-सलिला में नहाकर
सृष्टि खुद तब-तब तरी
झिलमिलाकर रौशनी ने
अंधेरों को कस कहा:
भास्कर है कंत रे!
श्वास मुखड़े
संग गूथें
आस के कुछ अंतरे
२५-५-२०१५
*
***
रसानंद दे छंद नर्मदा ३१ : मनहरण (कवित्त/घनाक्षरी)
दोहा, सोरठा, रोला, आल्हा, सार, ताटंक, रूपमाला (मदन), चौपाई, हरिगीतिका, उल्लाला,गीतिका,घनाक्षरी, बरवै, त्रिभंगी, सरसी, छप्पय, भुजंगप्रयात, कुंडलिनी, सवैया, शोभन या सिंहिका, सुमित्र, सुगीतिका, शंकर तथा मनहरण (कवित्त/घनाक्षरी)छंदों से साक्षात के पश्चात् मिलिए उपेन्द्रवज्रा छन्द से
उपेन्द्र वज्रा *
छंद-लक्षण:
उपेन्द्र वज्रा द्विपदिक मात्रिक छंद है. इसके हर पद में क्रमश: जगण तगण जगण २ गुरु अर्थात ११ वर्ण और १७
मात्राएँ होती हैं.
उपेन्द्रवज्रा एक पद = जगण तगण जगण गुरु गुरु = १२१ / २२१ / १२१ / २२
उदाहरण:
१. सरोज तालाब गया नहाया
सरोद सायास गया बजाया
न हाथ रोका नत माथ बोला
तड़ाग झूमा नभ मुस्कुराया
२. हथेलियों ने जुड़ना न सीखा
हवेलियों ने झुकना न सीखा।
मिटा दिया है सहसा हवा ने-
फरेबियों से बचना न सीखा
३. जहाँ-जहाँ फूल खिलें वहाँ ही,
जहाँ-जहाँ शूल, चुभें वहाँ भी,
रखें जमा पैर, हटा न पाये-
भले महाकाल हमें मनायें।
२६-५-२०१६
***
दोहा सलिला
जनगण ने प्रतिनिधि चुने, कर पायें वे काम
जो इसमें बाधक बने, वह भोगे परिणाम
*
सकल भूमि सरकार की, किसके हैं ये लोग?
जाएँ कहाँ बताइए?, तज घड़ियाली सोग
***
कृति चर्चा:
संवेदनाओं के स्वर : कहानीकार की कवितायेँ
[कृति विवरण: संवेदनाओं के स्वर, काव्य संग्रह, मनोज शुक्ल 'मनोज', आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ १४४, मूल्य १५० रु., प्रज्ञा प्रकाशन २४ जग्दिश्पुरम, लखनऊ मार्ग, त्रिपुला चौराहा रायबरेली]
*
मनोज शुक्ल 'मनोज' मूलतः कहानीकार हैं. कहानी पर उनकी पकड़ कविता की तुलना में बेहतर है. इस काव्य संकलन में विविध विधाओं, विषयों तथा छन्दों की त्रिवेणी प्रवाहित की गयी है. आरम्भ में हिंदी वांग्मय के कालजयी हस्ताक्षर स्व. हरिशंकर परसाई का शुभाशीष कृति की गौरव वृद्धि करते हुए मनोज जी व्यापक संवेदनशीलता को इंगित करता है. संवेदनशीलता समाज की विसंगतियों और विषमताओं से जुड़ने का आधार देती है.
मनोज सरल व्यक्तित्व के धनी हैं. कहानीकार पिता स्व. रामनाथ शुक्ल से विरासत में मिले साहित्यिक संस्कारों को उन्होंने सतत पल्लवित किया है. विवेच्य कृति में डॉ. कृष्णकांत चतुर्वेदी, सनातन कुमार बाजपेयी 'सनातन' ने वरिष्ठ तथा विजय तिवारी 'किसलय' ने सम कालिक कनिष्ठ रचनाधर्मियों का प्रतिनिधित्व करते हुए संकलन की विशेषताओं का वर्णन किया है. बाजपेयी जी के अनुसार भाषा की सहजता, भावों की प्रबलता, आडम्बरविहीनता मनोज जी के कवि का वैशिष्ट्य है. चतुर्वेदी जी ने साधारण की असाधारणता के प्रति कवि के स्नेह, दीर्घ जीवनानुभवों तथा विषय वैविध्य को इंगित करते हुए ठीक ही कहा है कि 'राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है, कोई कवि बन जाए स्वयं संभाव्य है' तथा ' कवि न होऊँ अति चतुर कहूं, मति अनुरूप राम-गुन गाऊँ' में राम के स्थान पर 'भाव' कर दिया जाए तो आज की (कवि की भी) आकुल-व्याकुलता सहज स्पष्ट हो जाती है. फिर जो उच्छ्वास प्रगट होता है वह स्थापित काव्य-प्रतिमानों में भले ही न ढल पाता हो पर मानव मन की विविधवर्णी अभिव्यक्ति उसमें अधिक सहज और आदम भाव से प्रगट होती है.'
निस्संदेह वीणावादिनी वन्दना से आरम्भ संकलन की ७२ कवितायें परंपरा निर्वहन के साथ-साथ बदलते समय के परिवर्तनों को रेखांकित कर सकी हैं. इस कृति के पूर्व कहानी संग्रह क्रांति समर्पण व एक पाँव की जिंदगी तथा काव्य संकलन याद तुम्हें मैं आऊँगा प्रस्तुत कर चुके मनोज जी छान्दस-अछान्दस कविताओं का बहुरंगी-बहुसुरभि संपन्न गुलदस्ता संवेदनाओं के स्वर में लाये हैं. शिल्प पर कथ्य को वरीयता देती ये काव्य रचनाएं पाठक को सामायिक सत्य की प्रतीति करने के साथ-साथ कवि के अंतर्मन से जुड़ने का अवसर भी उपलब्ध कराती हैं. जाय, होंय, रोय, ना, हुये, राखिये, भई, आंय, बिताँय जैसे देशज क्रिया रूप आधुनिक हिंदी में अशुद्धि माने जाने के बाद भी कवि के जुड़ाव को इंगित करते हैं. संत साहित्य में यह भाषा रूप सहज स्वीकार्य है चूँकि तब वर्तमान हिंदी या उसके मानक शब्द रूप थे ही नहीं. बैंक अधिकारी रहे मनोज इस तथ्य से सुपरिचित होने पर भी काव्याभिव्यक्ति के लिये अपने जमीनी जुड़ाव को वरीयता देते हैं.
मनोज जी को दोहा छंद का प्रिय है. वे दोहा में अपने मनोभाव सहजता से स्पष्ट कर पाते हैं. कुछ दोहे देखें:
ऊँचाई की चाह में, हुए घरों से दूर
मन का पंछी अब कहे, खट्टे हैं अंगूर
.
पाप-पुन्य उनके लिए, जो करते बस पाप
लेकिन सज्जन पुण्य कर, हो जाते निष्पाप
.
जंगल में हाथी नहीं, मिलते कभी सफेद
हैं सत्ता में अनगिनत, बगुले भगत सफेद
.
दोहों में चन्द्रमा के दाग की तरह मात्राधिक्य (हो गए डंडीमार, बनो ना उसके दास, चतुर गिद्ध और बाज, मायावती भी आज १२ मात्राएँ), वचन दोष (होता इनमें उलझकर, तन-मन ही बीमार) आदि खीर में कंकर की तरह खलते हैं.
अछांदस रचनाओं में मनोज जी अधिक कुशलता से अपने मनोभावों को व्यक्त कर सके हैं. कलयुगी रावण, आतंकवादी, पुरुषोत्तम, माँ की ममता त्रिकोण सास बहू बेटे का, पत्नी परमेश्वर, मेरे आँगन की तुलसी आदि रचनाएँ पठनीय हैं. गांधी संग्रहालय से एक साक्षात्कार शीर्षक रचना अनेक विचारणीय प्रश्न उठाती है. मनोज का संवेदनशील कवि इन रचनाओं में सहज हो सका है.
संझा बिरिया जब-जब होवे, तुलसी तेरे घर-आँगन में, फागुन के स्वर गूँज उठे, ओ दीप तुझे जलना होगा, प्रलय तांडव कर दिया आदि रचनाएँ इस संग्रह के पाठक को बाँधने में समर्थ हैं.
२६-५-२०१५
***
पर्यावरण गीत:
किस तरह आये बसंत
*
मानव लूट रहा प्रकृति को
किस तरह आये बसंत?...
*
होरी कैसे छाये टपरिया?
धनिया कैसे भरे गगरिया?
गाँव लील कर हँसे नगरिया,
राजमार्ग बन गयी डगरिया
राधा को छल रहा सँवरिया
सुत भूला माँ हुई बँवरिया
अंतर्मन रो रहा निरंतर
किस तरह गाये बसंत?...
*
सूखी नदिया कहाँ नहायें?
बोल जानवर कहाँ चरायें?
पनघट सूने अश्रु बहायें,
राई-आल्हा कौन सुनायें?
नुक्कड़ पर नित गुटका खायें.
खलिहानों से आँख चुरायें.
जड़विहीन सूखा पलाश लाख
किस तरह भाये बसंत?...
*
तीन-पाँच करते दो दूनी.
टूटी बागड़ गायब थूनी.
ना कपास, तकली ना पूनी.
यांत्रिकता की दाढ़ें खूनी.
वैश्विकता ने खुशिया छीनी.
नेह नरमदा सूखी-सूनी.
शांति-व्यवस्था मिटी गाँव की
किस तरह लाये बसंत?...
***
भोजपुरी हाइकु:
*
आपन बोली
आ ओकर सुभाव
मैया क लोरी.
*
खूबी-खामी के
कवनो लोकभासा
पहचानल.
*
तिरिया जन्म
दमन आ शोषण
चक्की पिसात.
*
बामनवाद
कुक्कुरन के राज
खोखलापन.
*
छटपटात
अउरत-दलित
सदियन से.
*
राग अलापे
हरियल दूब प
मन-माफिक.
*
गहरी जड़
देहात के जीवन
मोह-ममता.
२६-५-२०१३
*

रविवार, 17 अक्टूबर 2021

विमर्श : मानक हिंदी वर्तनी

विमर्श : मानक हिंदी वर्तनी  
डॉ. राजरानी शर्मा 
*
केंद्रीय हिंदी निदेशालय ने वर्ष 2003 में देवनागरी लिपि तथा हिंदी वर्तनी के मानकीकरण के लिए अखिल भारतीय संगोष्ठी का आयोजन किया था। इस संगोष्ठी में निम्नलिखित नियम निर्धारित किए गए थे :
2. संयुक्‍त वर्ण
2.1.1 खड़ी पाई वाले व्यंजन
खड़ी पाई वाले व्यंजनों के संयुक्‍त रूप परंपरागत तरीके से खड़ी पाई को हटाकर ही बनाए जाएँ। यथा:–
ख्याति, लग्न, विघ्न
कच्चा, छज्जा
नगण्य
कुत्‍ता, पथ्य, ध्वनि, न्यास
प्यास, डिब्बा, सभ्य, रम्य
शय्या
उल्लेख
व्यास
श्‍लोक
राष्ट्रीय
स्वीकृति
यक्ष्मा
त्र्यंबक
2.1.2 अन्य व्यंजन
2.1.2.1 क और फ/फ़ के संयुक्‍ताक्षर:–
संयुक्‍त, पक्का, दफ़्तर आदि की तरह बनाए जाएँ, न कि संयुक्त, पक्का की तरह।
2.1.2.2 ङ, छ, ट, ड, ढ, द और ह के संयुक्‍ताक्षर हल् चिह्‍न लगाकर ही बनाए जाएँ। यथा:–
वाङ्‍मय, लट्टू, बुड्ढा, विद्‍या, चिह्‍न, ब्रह्‍मा आदि।
(वाङ्मय, बुड्ढा, विद्या, चिह्न, ब्रह्मा नहीं)
2.1.2.3 संयुक्‍त ‘र’ के प्रचलित तीनों रूप यथावत् रहेंगे। यथा:–
प्रकार, धर्म, राष्ट्र।
2.1.2.4 श्र का प्रचलित रूप ही मान्य होगा। इसे ... (इसे मैं टाइप नहीं कर पा रहा हूँ। क्र में क के बदले श लिखा मान लें) के रूप में नहीं लिखा जाएगा। त+र के संयुक्‍त रूप के लिए पहले त्र और ... (इसे मैं टाइप नहीं कर पा रहा हूँ। क्र में क के बदले त लिखा मान लें) दोनों रूपों में से किसी एक के प्रयोग की छूट दी गई थी। परंतु अब इसका परंपरागत रूप त्र ही मानक माना जाए। श्र और त्र के अतिरिक्‍त अन्य व्यंजन+र के संयुक्‍ताक्षर 2.1.2.3 के नियमानुसार बनेंगे। जैसे :– क्र, प्र, ब्र, स्र, ह्र आदि।
2.1.2.5 हल् चिह्‍न युक्‍त वर्ण से बनने वाले संयुक्‍ताक्षर के द्‍‌वितीय व्यंजन के साथ इ की मात्रा का प्रयोग संबंधित व्यंजन के तत्काल पूर्व ही किया जाएगा, न कि पूरे युग्म से पूर्व। यथा:– कुट्‌टिम, चिट्‌ठियाँ, द्‌वितीय, बुद्‌धिमान, चिह्‌नित आदि (कुट्टिम, चिट्ठियाँ, द्‍‌वितीय, बुद्‍धिमान, चिह्‍नित नहीं)।
टिप्पणी : संस्कृत भाषा के मूल श्‍लोकों को उद्‍धृत करते समय संयुक्‍ताक्षर पुरानी शैली से भी लिखे जा सकेंगे। जैसे:– संयुक्त, चिह्न, विद्या, विद्वान, वृद्ध, द्वितीय, बुद्धि आदि। किंतु यदि इन्हें भी उपर्युक्‍त नियमों के अनुसार ही लिखा जाए तो कोई आपत्‍ति नहीं होगी।
2.2 कारक चिह्‍न
2.2.1 हिंदी के कारक चिह्‍न सभी प्रकार के संज्ञा शब्दों में प्रातिपदिक से पृथक् लिखे जाएँ। जैसे :– राम ने, राम को, राम से, स्त्री का, स्त्री से, सेवा में आदि। सर्वनाम शब्दों में ये चिह्‍न प्रातिपादिक के साथ मिलाकर लिखे जाएँ। जैसे :– तूने, आपने, तुमसे, उसने, उसको, उससे, उसपर आदि (मेरेको,मेरेसे आदि रूप व्याकरण सम्मत नहीं हैं)।
2.2.2 सर्वनाम के साथ यदि दो कारक चिह्‍न हों तो उनमें से पहला मिलाकर और दूसरा पृथक् लिखा जाए। जैसे :– उसके लिए, इसमें से।
2.2.3 सर्वनाम और कारक चिह्‍न के बीच 'ही', 'तक' आदि का निपात हो तो कारक चिह्‍न को पृथक् लिखा जाए। जैसे :– आप ही के लिए, मुझ तक को।
2.3 क्रिया पद
संयुक्‍त क्रिया पदों में सभी अंगीभूत क्रियाएँ पृथक्-पृथक् लिखी जाएँ। जैसे :– पढ़ा करता है, आ सकता है, जाया करता है, खाया करता है, जा सकता है, कर सकता है, किया करता था, पढ़ा करता था, खेला करेगा, घूमता रहेगा, बढ़ते चले जा रहे हैं आदि।
2.4 हाइफ़न (योजक चिह्‍न)
2.4.0 हाइफ़न का विधान स्पष्टता के लिए किया गया है।
2.4.1 द्‍वंद्‍व समास में पदों के बीच हाइफ़न रखा जाए। जैसे :– राम-लक्ष्मण, शिव-पार्वती संवाद, देख-रेख, चाल-चलन, हँसी-मज़ाक, लेन-देन, पढ़ना-लिखना, खाना-पीना, खेलना-कूदना आदि।
2.4.2 सा, जैसा आदि से पूर्व हाइफ़न रखा जाए। जैसे :– तुम-सा, राम-जैसा, चाकू-से तीखे।
2.4.3 तत्पुरुष समास में हाइफ़न का प्रयोग केवल वहीं किया जाए जहाँ उसके बिना भ्रम होने की संभावना हो, अन्यथा नहीं। जैसे :– भू-तत्व। सामान्यत:तत्पुरुष समास में हाइफ़न लगाने की आवश्यकता नहीं है। जैसे :– रामराज्य, राजकुमार, गंगाजल, ग्रामवासी, आत्महत्या आदि।
2.4.3.1 इसी तरह यदि 'अ-निख' (बिना नख का) समस्त पद में हाइफ़न न लगाया जाए तो उसे 'अनख' पढ़े जाने से 'क्रोध' का अर्थ भी निकल सकता है। अ-नति (नम्रता का अभाव) : अनति (थोड़ा), अ-परस (जिसे किसी ने न छुआ हो) : अपरस (एक चर्म रोग), भू-तत्व (पृथ्वी-तत्व) : भूतत्व (भूत होने का भाव) आदि समस्त पदों की भी यही स्थिति है। ये सभी युग्म वर्तनी और अर्थ दोनों दृष्टियों से भिन्न-भिन्न शब्द हैं।
2.4.4 कठिन संधियों से बचने के लिए भी हाइफ़न का प्रयोग किया जा सकता है। जैसे :– द्‍‌वि-अक्षर (द्व्यक्षर), द्‍‌वि-अर्थक (द्व्यर्थक) आदि।
2.5 अव्यय
2.5.1 'तक', 'साथ' आदि अव्यय सदा पृथक् लिखे जाएँ। जैसे :– यहाँ तक, आपके साथ।
2.5.2 आह, ओह, अहा, ऐ, ही, तो, सो, भी, न, जब, तब, कब, यहाँ, वहाँ, कहाँ, सदा, क्या, श्री, जी, तक, भर, मात्र, साथ, कि, किंतु, मगर, लेकिन, चाहे, या, अथवा, तथा, यथा, और आदि अनेक प्रकार के भावों का बोध कराने वाले अव्यय हैं। कुछ अव्ययों के आगे कारक चिह्‍न भी आते हैं। जैसे :– अब से, तब से, यहाँ से, वहाँ से, सदा से आदि। नियम के अनुसार अव्यय सदा पृथक् लिखे जाने चाहिए। जैसे :– आप ही के लिए, मुझ तक को, आपके साथ, गज़ भर कपड़ा, देश भर, रात भर, दिन भर, वह इतना भर कर दे, मुझे जाने तो दो, काम भी नहीं बना, पचास रुपए मात्र आदि।
2.5.3 सम्मानार्थक 'श्री' और 'जी' अव्यय भी पृथक् लिखे जाएँ। जैसे श्री श्रीराम, कन्हैयालाल जी, महात्मा जी आदि (यदि श्री, जी आदि व्यक्‍तिवाची संज्ञा के ही भाग हों तो मिलाकर लिखे जाएँ। जैसे :– श्रीराम, रामजी लाल, सोमयाजी आदि)।
2.5.4 समस्त पदों में प्रति, मात्र, यथा आदि अव्यय जोड़कर लिखे जाएँ (यानी पृथक् नहीं लिखे जाएँ)। जैसे - प्रतिदिन, प्रतिशत, मानवमात्र, निमित्‍तमात्र, यथासमय, यथोचित आदि। यह सर्वविदित नियम है कि समास न होने पर समस्त पद एक माना जाता है। अत उसे व्यस्त रूप में न लिखकर एक साथ लिखना ही संगत है। 'दस रुपए मात्र', 'मात्र दो व्यक्‍ति' में पदबंध की रचना है। यहाँ मात्र अलग से लिखा जाए (यानी मिलाकर नहीं लिखें)।
2.6 अनुस्वार (शिरोबिंदु/बिंदी) तथा अनुनासिकता चिह्‍न (चंद्रबिंदु)
2.6.0 अनुस्वार व्यंजन है और अनुनासिकता स्वर का नासिक्‍य विकार। हिंदी में ये दोनों अर्थभेदक भी हैं। अत हिंदी में अनुस्वार (ं) और अनुनासिकता चिह्‍न (ँ) दोनों ही प्रचलित रहेंगे।
2.6.1 अनुस्वार
2.6.1.1 संस्कृत शब्दों का अनुस्वार अन्यवर्गीय वर्णों से पहले यथावत् रहेगा। जैसे - संयोग, संरक्षण, संलग्न, संवाद, कंस, हिंस्र आदि।
2.6.1.2 संयुक्‍त व्यंजन के रूप में जहाँ पंचम वर्ण (पंचमाक्षर) के बाद सवर्गीय शेष चार वर्णों में से कोई वर्ण हो तो एकरूपता और मुद्रण/लेखन की सुविधा के लिए अनुस्वार का ही प्रयोग करना चाहिए। जैसे - पंकज, गंगा, चंचल, कंजूस, कंठ, ठंडा, संत, संध्या, मंदिर, संपादक, संबंध आदि (पङ्कज, गङ्गा, चञ्चल, कञ्जूस, कण्ठ, ठण्डा, सन्त, मन्दिर, सन्ध्या, सम्पादक, सम्बन्ध वाले रूप नहीं)। बंधनी में रखे हुए रूप संस्कृत के उद्‍धरणों में ही मान्य होंगे। हिंदी में बिंदी (अनुस्वार) का प्रयोग करना ही उचित होगा।
2.6.1.3 यदि पंचमाक्षर के बाद किसी अन्य वर्ग का कोई वर्ण आए तो पंचमाक्षर अनुस्वार के रूप में परिवर्तित नहीं होगा। जैसे :– वाङ्‍मय, अन्य, चिन्मय, उन्मुख आदि (वांमय, अंय, चिंमय, उंमुख आदि रूप ग्राह्‍य नहीं होंगे)।
2.6.1.4 पंचम वर्ण यदि द्‍‌वित्व रूप में (दुबारा) आए तो पंचम वर्ण अनुस्वार में परिवर्तित नहीं होगा। जैसे - अन्न, सम्मेलन, सम्मति आदि (अंन, संमेलन, संमति रूप ग्राह्‍य नहीं होंगे)।
2.6.1.5 अंग्रेज़ी, उर्दू से गृहीत शब्दों में आधे वर्ण या अनुस्वार के भ्रम को दूर करने के लिए नासिक्‍य व्यंजन को पूरा लिखना अच्छा रहेगा। जैसे :–लिमका, तनखाह, तिनका, तमगा, कमसिन आदि।
2.6.1.6 संस्कृत के कुछ तत्सम शब्दों के अंत में अनुस्वार का प्रयोग म् का सूचक है। जैसे - अहं (अहम्), एवं (एवम्), परं (परम्), शिवं (शिवम्)।
2.6.2 अनुनासिकता (चंद्रबिंदु)
2.6.2.1 हिंदी के शब्दों में उचित ढंग से चंद्रबिंदु का प्रयोग अनिवार्य होगा।
2.6.2.2 अनुनासिकता व्यंजन नहीं है, स्वरों का ध्वनिगुण है। अनुनासिक स्वरों के उच्चारण में नाक से भी हवा निकलती है। जैसे :– आँ, ऊँ, एँ, माँ, हूँ, आएँ।
2.6.2.3 चंद्रबिंदु के बिना प्राय: अर्थ में भ्रम की गुंजाइश रहती है। जैसे :– हंस : हँस, अंगना : अँगना, स्वांग (स्व+अंग): स्वाँग आदि में। अतएव ऐसे भ्रम को दूर करने के लिए चंद्रबिंदु का प्रयोग अवश्य किया जाना चाहिए। किंतु जहाँ (विशेषकर शिरोरेखा के ऊपर जुड़ने वाली मात्रा के साथ) चंद्रबिंदु के प्रयोग से छपाई आदि में बहुत कठिनाई हो और चंद्रबिंदु के स्थान पर बिंदु का (अनुस्वार चिहन का) प्रयोग किसी प्रकार का भ्रम उत्पन्न न करे, वहाँ चंद्रबिंदु के स्थान पर बिंदु के प्रयोग की छूट रहेगी। जैसे :– नहीं, में, मैं आदि। कविता आदि के प्रसंग में छंद की दृष्टि से चंद्रबिंदु का यथास्थान अवश्‍य प्रयोग किया जाए। इसी प्रकार छोटे बच्चों की प्रवेशिकाओं में जहाँ चंद्रबिंदु का उच्चारण अभीष्ट हो, वहाँ मोटे अक्षरों में उसका यथास्थान सर्वत्र प्रयोग किया जाए। जैसे :– कहाँ, हँसना, आँगन, सँवारना, मेँ, मैँ, नहीँ आदि।
2.7 विसर्ग )
2.7.1 संस्कृत के जिन शब्दों में विसर्ग का प्रयोग होता है, वे यदि तत्सम रूप में प्रयुक्‍त हों तो विसर्ग का प्रयोग अवश्य किया जाए। जैसे :–‘दु:खानुभूति’ में। यदि उस शब्द के तद्‍भव रूप में विसर्ग का लोप हो चुका हो तो उस रूप में विसर्ग के बिना भी काम चल जाएगा। जैसे :– ‘दुख-सुख के साथी’।
2.7.2 तत्सम शब्दों के अंत में प्रयुक्‍त विसर्ग का प्रयोग अनिवार्य है। यथा :– अत:, पुन:, स्वत:, प्राय:, पूर्णत:, मूलत:, अंतत:, वस्तुत:, क्रमश: आदि।
2.7.3 'ह' का अघोष उच्चरित रूप विसर्ग है, अत: उसके स्थान पर (स)घोष 'ह' का लेखन किसी हालत में न किया जाए (अत:, पुन: आदि के स्थान पर अतह, पुनह आदि लिखना अशुद्‍ध वर्तनी का उदाहरण माना जाएगा)।
2.7.4 दु:साहस/दुस्साहस, नि:शब्द/निश्शब्द के उभय रूप मान्य होंगे। इनमें द्‍‌वित्व वाले रूप को प्राथमिकता दी जाए।
2.7.4.1 निस्तेज, निर्वचन, निश्‍चल आदि शब्दों में विसर्ग वाला रूप (नि:तेज, नि:वचन, नि:चल) न लिखा जाए।
2.7.4.2 अंत:करण, अंत:पुर, प्रात:काल आदि शब्द विसर्ग के साथ ही लिखे जाएँ।
2.7.5 तद्‍भव/देशी शब्दों में विसर्ग का प्रयोग न किया जाए। इस आधार पर छ: लिखना गलत होगा। छह लिखना ही ठीक होगा।
2.7.6 प्रायद्‍वीप, समाप्तप्राय आदि शब्दों में तत्सम रूप में भी विसर्ग नहीं है।
2.7.7 विसर्ग को वर्ण के साथ मिलाकर लिखा जाए, जबकि कोलन चिह्‍न (उपविराम शब्द से कुछ दूरी पर हो। जैसे :– अत:, यों है :–
2.8 हल् चिह्‍न (्)
2.8.1 (्) को हल् चिह्‍न कहा जाए न कि हलंत। व्यंजन के नीचे लगा हल् चिह्‍न उस व्यंजन के स्वर रहित होने की सूचना देता है, यानी वह व्यंजन विशुद्‍ध रूप से व्यंजन है। इस तरह से 'जगत्' हलंत शब्द कहा जाएगा क्योंकि यह शब्द व्यंजनांत है, स्वरांत नहीं।
2.8.2 संयुक्‍ताक्षर बनाने के नियम 2.1.2.2 के अनुसार ड् छ् ट् ठ् ड् ढ् द् ह् में हल् चिह्‍न का ही प्रयोग होगा। जैसे :– चिह्‍न, बुड्ढा, विद्‍वान आदि में।
2.8.3 तत्‍सम शब्दों का प्रयोग वांछनीय हो तब हलंत रूपों का ही प्रयोग किया जाए; विशेष रूप से तब जब उनसे समस्त पद या व्युत्पन्न शब्द बनते हों। यथा प्राक् :– (प्रागैतिहासिक), वाक्-(वाग्देवी), सत्-(सत्साहित्य), भगवन्-(भगवद्‍भक्‍ति), साक्षात्-(साक्षात्कार), जगत्-(जगन्नाथ), तेजस्-(तेजस्वी), विद्‍युत्-(विद्‍युल्लता) आदि। तत्सम संबोधन में हे राजन्, हे भगवन् रूप ही स्वीकृत होंगे। हिंदी शैली में हे राजा, हे भगवान लिखे जाएँ। जिन शब्दों में हल् चिहन लुप्‍त हो चुका हो, उनमें उसे फिर से लगाने का प्रयत्‍न न किया जाए। जैसे - महान, विद्‍वान आदि; क्योंकि हिंदी में अब 'महान' से 'महानता' और 'विद्‍वानों' जैसे रूप प्रचलित हो चुके हैं।
2.8.4 व्याकरण ग्रंथों में व्यंजन संधि समझाते हुए केवल उतने ही शब्द दिए जाएँ, जो शब्द रचना को समझने के लिए आवश्‍यक हों (उत् + नयन = उन्नयन, उत् + लास = उल्लास) या अर्थ की दृष्टि से उपयोगी हों (जगदीश, जगन्माता, जगज्जननी)।
2.8.5 हिंदी में ह्रदयंगम (ह्रदयम् + गम), उद्‍धरण (उत्/उद् + हरण), संचित (सम् + चित्) आदि शब्दों का संधि-विच्छेद समझाने की आवश्‍यकता प्रतीत नहीं होती। इसी तरह 'साक्षात्कार', 'जगदीश', 'षट्कोश' जैसे शब्दों के अर्थ को समझाने की आवश्‍यकता हो तभी उनकी संधि का हवाला दिया जाए। हिंदी में इन्हें स्वतंत्र शब्दों के रूप में ग्रहण करना ही अच्छा होगा।
2.9 स्वन परिवर्तन
2.9.1 संस्कृतमूलक तत्सम शब्दों की वर्तनी को ज्यों-का-त्यों ग्रहण किया जाए। अत: 'ब्रह्‍मा' को 'ब्रम्हा', 'चिह्‍न' को 'चिन्ह', 'उऋण' को 'उरिण' में बदलना उचित नहीं होगा। इसी प्रकार ग्रहीत, दृष्टव्य, प्रदर्शिनी, अत्याधिक, अनाधिकार आदि अशुद्‍ध प्रयोग ग्राह्‍य नहीं हैं। इनके स्थान पर क्रमश: गृहीत, द्रष्टव्य, प्रदर्शिनी, अत्यधिक, अनधिकार ही लिखना चाहिए।
2.9.2 जिन तत्सम शब्दों में तीन व्यंजनों के संयोग की स्थिति में एक द्‍‌वित्वमूलक व्यंजन लुप्त हो गया है उसे न लिखने की छूट है। जैसे :– अर्द्‌ध > अर्ध, तत्‍त्व > तत्व आदि।
2.10 'ऐ', 'औ' का प्रयोग
2.10.1 हिंदी में ऐ (ै), औ (ौ) का प्रयोग दो प्रकार के उच्चारण को व्यक्‍त करने के लिए होता है। पहले प्रकार का उच्चारण 'है', 'और' आदि में मूल स्वरों की तरह होने लगा है; जबकि दूसरे प्रकार का उच्चारण 'गवैया', 'कौवा' आदि शब्दों में संध्यक्षरों के रूप में आज भी सुरक्षित है। दोनों ही प्रकार के उच्चारणों को व्यक्‍त करने के लिए इन्हीं चिह्‍नों (ऐ, ै, औ, ौ) का प्रयोग किया जाए। 'गवय्या', 'कव्वा' आदि संशोधनों की आवश्‍यकता नहीं है। अन्य उदाहरण हैं :– भैया, सैयद, तैयार, हौवा आदि।
2.10.2 दक्षिण के अय्यर, नय्यर, रामय्या आदि व्यक्‍तिनामों को हिंदी उच्चारण के अनुसार ऐयर, नैयर, रामैया आदि न लिखा जाए, क्योंकि मूलभाषा में इसका उच्चारण भिन्न है।
2.10.3 अव्वल, कव्वाल, कव्वाली जैसे शब्द प्रचलित हैं। इन्हें लेखन में यथावत् रखा जाए।
2.10.4 संस्कृत के तत्सम शब्द 'शय्या' को 'शैया' न लिखा जाए।
2.11 पूर्वकालिक कृदंत प्रत्‍यय 'कर'
2.11.1 पूर्वकालिक कृदंत प्रत्यय 'कर' क्रिया से मिलाकर लिखा जाए। जैसे :– मिलाकर, खा-पीकर, रो-रोकर आदि।
2.11.2 कर + कर से 'करके' और करा + कर से 'कराके' बनेगा।
2.12 वाला
2.12.1 क्रिया रूपों में 'करने वाला', 'आने वाला', 'बोलने वाला' आदि को अलग लिखा जाए। जैसे :– मैं घर जाने वाला हूँ, जाने वाले लोग।
2.12.2 योजक प्रत्‍यय के रूप में 'घरवाला', 'टोपीवाला' (टोपी बेचने वाला), दिलवाला, दूधवाला आदि एक शब्द के समान ही लिखे जाएँगे।
2.12.3 'वाला' जब प्रत्यय के रूप में आएगा तब तो 2.12.2 के अनुसार मिलाकर लिखा जाएगा; अन्यथा अलग से। यह वाला, यह वाली, पहले वाला, अच्छा वाला, लाल वाला, कल वाली बात आदि में वाला निर्देशक शब्द है। अत इसे अलग ही लिखा जाए। इसी तरह लंबे बालों वाली लड़की, दाढ़ी वाला आदमी आदि शब्दों में भी वाला अलग लिखा जाएगा। इससे हम रचना के स्तर पर अंतर कर सकते हैं। जैसे :–
गाँववाला - villager गाँव वाला मकान - village house
2.13 श्रुतिमूलक 'य', 'व'
2.13.1 जहाँ श्रुतिमूलक य, व का प्रयोग विकल्प से होता है वहाँ न किया जाए, अर्थात् किए : किये, नई : नयी, हुआ : हुवा आदि में से पहले (स्वरात्मक) रूपों का प्रयोग किया जाए। यह नियम क्रिया, विशेषण, अव्यय आदि सभी रूपों और स्थितियों में लागू माना जाए। जैसे :– दिखाए गए, राम के लिए, पुस्तक लिए हुए, नई दिल्ली आदि।
2.13.2 जहाँ 'य' श्रुतिमूलक व्याकरणिक परिवर्तन न होकर शब्द का ही मूल तत्व हो वहाँ वैकल्पिक श्रुतिमूलक स्वरात्मक परिवर्तन करने की आवश्‍यकता नहीं है। जैसे :– स्थायी, अव्ययीभाव, दायित्व आदि (अर्थात् यहाँ स्थाई, अव्यईभाव, दाइत्व नहीं लिखा जाएगा)।
2.14 विदेशी ध्वनियाँ
2.14.1 उर्दू शब्द
उर्दू से आए अरबी-फ़ारसी मूलक वे शब्द जो हिंदी के अंग बन चुके हैं और जिनकी विदेशी ध्वनियों का हिंदी ध्वनियों में रूपांतर हो चुका है, हिंदी रूप में ही स्वीकार किए जा सकते हैं। जैसे :– कलम, किला, दाग आदि (क़लम, क़िला, दाग़ नहीं)। पर जहाँ उनका शुद्‍ध विदेशी रूप में प्रयोग अभीष्ट हो अथवा उच्चारणगत भेद बताना आवश्‍यक हो, वहाँ उनके हिंदी में प्रचलित रूपों में यथास्थान नुक्‍ते लगाए जाएँ। जैसे :– खाना : ख़ाना, राज : राज़, फन : हाइफ़न आदि।
2.14.2 अंग्रेज़ी शब्द
अंग्रेज़ी के जिन शब्दों में अर्धविवृत 'ओ' ध्वनि का प्रयोग होता है, उनके शुद्‍ध रूप का हिंदी में प्रयोग अभीष्ट होने पर 'आ' की मात्रा के ऊपर अर्धचंद्र का प्रयोग किया जाए (ऑ, ॉ)। जहाँ तक अंग्रेज़ी और अन्य विदेशी भाषाओं से नए शब्द ग्रहण करने और उनके देवनागरी लिप्यंतरण का संबंध है, अगस्त-सितंबर, 1962 में वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग द्‍वारा वैज्ञानिक शब्दावली पर आयोजित भाषाविदों की संगोष्ठी में अंतरराष्ट्रीय शब्दावली के देवनागरी लिप्यंतरण के संबंध में की गई सिफ़ारिश उल्लेखनीय है। उसमें यह कहा गया है कि अंग्रेज़ी शब्दों का देवनागरी लिप्यंतरण इतना क्लिष्ट नहीं होना चाहिए कि उसके वर्तमान देवनागरी वर्णों में अनेक नए संकेत-चिह्‍न लगाने पड़ें। अंग्रेज़ी शब्दों का देवनागरी लिप्यंतरण मानक अंग्रेज़ी उच्चारण के अधिक-से-अधिक निकट होना चाहिए।
2.14.3 द्‍‌विधा रूप वर्तनी
हिंदी में कुछ प्रचलित शब्द ऐसे हैं जिनकी वर्तनी के दो-दो रूप बराबर चल रहे हैं। विद्‍वत्समाज में दोनों रूपों की एक-सी मान्यता है। कुछ उदाहरण हैं :–गरदन/गर्दन, गरमी/गर्मी, बरफ़/बर्फ़, बिलकुल/बिल्कुल, सरदी/सर्दी, कुरसी/कुर्सी, भरती/भर्ती, फ़ुरसत/फ़ुर्सत, बरदाश्त/बर्दाश्त, वापस/वापिस, आखिरकार/आखीरकार, बरतन/बर्तन, दुबारा/दोबारा, दुकान/दूकान, बीमारी/बिमारी आदि। इन वैकल्पिक रूपों में से पहले वाले रूप को प्राथमिकता दी जाए। विस्तार के लिए देखिए - परिशिष्ट 4 (पृष्ठ 32-35)
2.15 अन्य नियम
2.15.1 शिरोरेखा का प्रयोग प्रचलित रहेगा।
2.15.2 फ़ुलस्टॉप (पूर्ण विराम) को छोड़कर शेष विरामादि चिह्‍न वही ग्रहण कर लिए गए हैं जो अंग्रेज़ी में प्रचलित हैं। यथा :– - (हाइफ़न/योजक चिह्‍न), – (डैश/निर्देशक चिह्‍न), :– (कोलन एंड डेश/विवरण चिह्‍न), , (कोमा/अल्पविराम), ; (सेमीकोलन/अर्धविराम), : (कोलन/उपविराम), ? (क्वश्‍चनमार्क/प्रश्‍न चिह्‍न), ! (साइन ऑफ़ इंटेरोगेशन/विस्मयसूचक चिह्‍न), ' (अपोस्ट्राफ़ी/ऊर्ध्व अल्प विराम), " " (डबल इन्वर्टेड कोमाज़/उद्‍धरण चिह्‍न), ' ' (सिंगल इन्वर्टेड कोमा/शब्द चिह्‍न). ( ), { }, [ ] (तीनों कोष्ठक), ... (लोप चिह्‍न), (संक्षेपसूचक चिह्‍न)/(हंसपद)। विस्तृत नियमों के लिए देखिए- परिशिष्ट - 5 (पृष्ठ 36-47)
2.15.3 विसर्ग के चिह्‍न को ही कोलन का चिह्‍न मान लिया गया है। पर दोनों में यह अंतर रखा गया है कि विसर्ग वर्ण से सटाकर और कोलन शब्द से कुछ दूरी पर रहे। (पूर्व संदर्भ 2.7.7 और 2.7.7.1)

2.15.4 पूर्ण विराम के लिए खड़ी पाई (।) का ही प्रयोग किया जाए। वाक्य के अंत में बिंदु (अंग्रेज़ी फ़ुलस्टॉप .) का नहीं।

बुधवार, 6 अक्टूबर 2021

विमर्श मैया की स्वर्ण समाधि

विमर्श 
मैया की स्वर्ण समाधि 
बचपन में सुना था ईश्वर दीनबंधु है, माँ पतित पावनी हैं।
आजकल मंदिरों के राजप्रासादों की तरह वैभवशाली बनाने और सोने से मढ़ देने की होड़ है।
माँ दुर्गा को स्वर्ण समाधि देने का समाचार विचलित कर गया।
इतिहास साक्षी है देवस्थान अपनी अकूत संपत्ति के कारण ही लूट को शिकार हुए।
मंदिरों की जमीन-जायदाद पुजारियों ने ही खुर्द-बुर्द कर दी।
सनातन धर्म कंकर कंकर में शंकर देखता है।
वैष्णो देवी, विंध्यवासिनी, कामाख्या देवी आदि प्राचीन मंदिरों में पिंड या पिंडियाँ ही विराजमान हैं।
परम शक्ति अमूर्त ऊर्जा है किसी प्रसूतिका गृह में उसका जन्म नहीं होता, किसी श्मशान घाट में उसका दाह भी नहीं किया जा सकता।
थर्मोडायनामिक्स के अनुसार इनर्जी कैन नीदर बी क्रिएटेड नॉर बी डिस्ट्रायड, कैन ओनली बी ट्रांसफार्म्ड।
अर्थात ऊर्जा का निर्माण या विनाश नहीं केवल रूपांतरण संभव है।
ईश्वर तो परम ऊर्जा है, उसकी जयंती मनाएँ तो पुण्यतिथि भी मनानी होगी।
निराकार के साकार रूप की कल्पना अबोध बालकों को अनुभूति कराने हेतु उचित है किंतु मात्र वहीं तक सीमित रह जाना कितना उचित है?
माँ के करोड़ों बच्चे बाढ़ में सर्वस्व गँवा चुके हैं, अर्थ व्यवस्था के असंतुलन से रोजगार का संकट है, सरकारें जनता से सहायता हेतु अपीलें कर रही हैं और उन्हें चुननेवाली जनता का अरबों-खरबों रुपया प्रदर्शन के नाम पर स्वाहा किया जा रहा है।
एक समय प्रधान मंत्री को अनुरोध पर सोमवार अपराह्न भोजन छोड़कर जनता जनार्दन ने सहयोग किया था। आज अनावश्यक साज-सज्जा छोड़ने के लिए भी तैयार न होना कितना उचित है?
क्या सादगीपूर्ण सात्विक पूजन कर अपार राशि से असंख्य वंचितों को सहारा दिया जाना बेहतर न होगा?
संतानों का घर-गृहस्थी नष्ट होते देखकर माँ स्वर्णमंडित होकर प्रसन्न होंगी या रुष्ट?

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रविवार, 12 सितंबर 2021

विमर्श : गणेशोत्सव, गणपति और गणतंत्र

विमर्श : 
गणेशोत्सव, गणपति और गणतंत्र  
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भाद्रपद मास पर्वों का मास है। आजकल जनगण गणपति, गणेश या गणनायक की पूजाराधना करने में निमग्न है।

शिव पुराण में वर्णित आख्यान के अनुसार गृहस्वामिनी पार्वती ने स्नान करने जाते समय, अपनी और गृह की सुरक्षा तथा किसी अवांछित का प्रवेश रोकने के लिए अपने उबटन (अंश) से पुतला बनाकर उसमें प्राण डाले और उसे रक्षक के रूप में नियुक्त किया। पार्वती स्नान कर पातीं इसके पूर्व ही गृहपति शिव वापिस लौटे। रक्षक ने उन्हें प्रवेश करने से रोका। शिव ने बलात प्रवेश का प्रयास किया, द्व्न्द हुआ, अंतत: क्रुद्ध शिव ने रक्षक का मस्तक काट कर गृह में प्रवेश किया। पार्वती स्नान कर बाहर आईं तो शिव के क्रोध कारण जानना चाहा और सकल वृत्तांत जानकार अपनी संरचना के अकाल काल के गाल में सामने पर शोक संतप्त हो गईं। शिव ने गणों (सेवकों) को आदेश दिया की जो माता अपनी नवजात शिशु से मुँह फेरकर शयन कर रही हो उसके शिशु का मस्तक काट कर ले आएँ। गण एक गजशिशु का मस्तक ले आए जिसे शिव ने पार्वती-पुत्र के धड़ से संयुक्त कर उसे पुनर्जीवित कर दिया। दोनों ने इसे अनेक शक्तियों से संपन्न होने का वर दिया। 

शिव-पार्वती कौन हैं? वे पुतले और निर्जीव में प्राण कैसे डाल देते हैं? इन कथाओं का मर्म क्या है? क्या मात्र वही जो इस कथाओं को रूढ़ रूप में लेने पर ज्ञात होता है या इनमें कुछ और कथ्य प्रतीक रूप में कहा गया है, जिसे सामान्यत: हम ग्रहण नहीं कर पाते। 

शिव-पार्वती जगतपिता और जगतजननी हैं। तुलसी अधिक स्पष्ट करते हैं- 'भवानी शंकरौ वंदे श्रद्धा-विश्वास रुपिणौ'। श्रद्धा और विश्वास साथ-साथ हों तो ही शुभ होता है। जब-जब विश्वास पर विश्वास न कर श्रद्धा भिन्न पथ अपनाती है तब अनिष्ट होता है। सती द्वारा राम की परीक्षा लेने और शिव-वर्जना की अनदेखी कर दक्ष यज्ञ में भाग लेने के दुष्परिणाम इस निष्कर्ष की पुष्टि करते हैं। जब विश्वास श्रद्धा को छोड़कर अलग जाता है तब भी अनिष्ट ही होता है, यह गजानन-कथा से विदित होता है। यह निर्विवाद है कि श्रद्धा और विश्वास अभिन्न हों तभी कल्याण है। पति-पत्नी दैनंदिन जीवन में श्रद्धा-विश्वास हों तो कुछ अशुभ घट ही नहीं सकता। नागरिक और सरकार (शासन-प्रशासन) के मध्य श्रद्धा-विश्वास का संबंध हो तो इससे अधिक मंगलमय कुछ और नहीं हो सकता। ऐसा क्यों नहीं होता?, कैसे हो सकता है?, यह चिंतन करने का अवसर ही गणेश जन्मोत्सव है। 

यह प्रसंग जीवन के कई रहस्य उद्घाटित करता है। श्रद्धा की संतान पर विश्वास को विश्वास करना ही चाहिए अन्यथा विश्वास 'विष-वास' हो जाएगा, जीवन से सुख-समृद्धि दूर हो जाएगी। इसके विपरीत यदि विश्वास की आत्मा (आत्मज) पर श्रद्धा न कर, श्रद्धा स्वयं अश्रद्धा जाएगी। सांसारिक जीवन में श्रद्धा पर श्रद्धा होने और विश्वास विश्वास खोने के कारण कितनी ही गृहस्थियाँ नष्ट होने के समाचार छपते हैं। तिनका आँख के अति निकट हो तो उसके पीछे सूर्य भी छिप जाता है। शंका का डंका बजते ही श्रद्धा-विश्वास दोनों मौन हो जाते हैं, संवाद बंद हो जाता है और शेष रह जाता है केवल विवाद। संसद और विधान सभाओं में  पक्ष-विपक्ष, श्रद्धा-विश्वास कर एक-दूसरे के पूरक हों तो ही सार्थक विमर्श  सहमतिकारक नीतियाँ बनाकर जन-हित और देश हित साधा जा सकता है। श्रद्धा-विश्वास के अभाव में संसद, विधान सभा ही नहीं, संयुक्त राष्ट्र संघ भी परस्पर दाँव-पेंच का अखाड़ा मात्र होकर रह गया है। 

एक अन्य आख्यान के अनुसार शिव-संतान कार्तिकेय और पार्वती-तनय तनय गजानन के मध्य श्रेष्ठता संबंधी विवाद होने पर सृष्टि परिक्रमा करने की कसौटी पर सकल ब्रह्माण्ड की परिक्रमा करने गए कार्तिकेय पराजित होते हैं जबकि अपने जनक-जननी शिव-पार्वती की परिक्रमा का गजानन विजयी होकर प्रथम पूज्य होने का वरदान पाकर गणेश, गजानन या गणनायक हो जाते हैं।

यहाँ भी बात श्रद्धा-विश्वास की ही है। गजानन के लिए जन्मदात्री और प्राणदाता समूचा संसार  हैं, उनके बिना  सकल सृष्टि का कुछ अर्थ नहीं है। इसीलिए वे श्रद्धा और विश्वास  परिक्रमा कर समझते हैं कि सृष्टि परिक्रमा हो गई। उनका जन्म ही श्रद्धा है इसलिए श्रद्धा (पार्वती) पर श्रद्धा हो यह स्वाभाविक है किन्तु वे अपने प्राणहर्ता विश्वास (शिव) में विष का वास (नीलकंठ, सर्प) होने पर भी उन पर अखंड विश्वास कर पाते हैं, यही उनका वैशिष्ट्य है। दूसरी ओर कार्तिकेय मूलत: विश्वास (शिव) की संतान हैं वे विश्वास पर विश्वास न कर, श्रद्धा पर श्रद्धा खो देते हैं और अपना बल आजमाने निकल पड़ते हैं। यही नहीं वे जीवन की सबसे अधिक कठिन परीक्षा को सबसे अधिक सरल परीक्षा मानकर जाते समय श्रद्धा और विश्वास का शुभाशीष भी नहीं प्राप्त करते जबकि गजानन आरंभ और अंत दोनों समय यह करते हैं। 

गजानन और कार्तिकेय की वृत्ति का यह अंतर उनके द्वारा वाहन चयन में भी दृष्टव्य है। गजानन मंदगामी मूषक को वाहन चुनते हैं जो शिव के कंठहार सर्प का भोज्य है, उन्हें विश्वास है कि शिव सदय हैं तो कुछ अनिष्ट नहीं सकता। दूसरी ओर कार्तिकेय क्षिप्रगति मयूर का चयन करते हैं जो शिव के कंठहार सर्प का शिकार करता है। कार्तिकेय शंका करते हैं, गजानन विश्वास। 'विश्वासं फलदायकं' इसलिए गजानन प्राप्ति होती है। 'श्रद्धावान लभते ज्ञानं' इसीलिए गजानन को ज्ञान और ज्ञान से रिद्धि-सिद्धि प्राप्त होती हैं। लोकोक्ति है 'जहाँ काम आवै सुई, कहा करै तरवार'। कार्तिकेय बल (तरवार) पर भरोसा करते हैं, गजानन बुद्धि (सुई पर)। जीवन में बुद्धि और बल दोनों आवश्यक हैं। 'जो जस करहिं सो तस फल चाखा', बल के बल पर कार्तिकेय देवताओं के बलाध्यक्ष (सेनापति) बन पाते हैं जबकि बुद्धि पर श्रद्धा-विश्वास करनेवाले गजानन देवों में प्रथम पूज्य बन जाते हैं। बुद्धि की श्रेष्ठता बल से अधिक है यह जानने के बाद भी दैनिक लोक व्यवहार में सर्वत्र बल प्रयोग की चाह और राह ही सकल क्लेश का कारण है। प्रथम पूज्य होने पर गजानन गणेश, गणपति, गणनायक आदि विरुदों से विभूषित किए जाते हैं। रिद्धि-सिद्धि उन्हें विघ्नेश्वर बनाती हैं।  
 
गण द्वारा संचालित गणतंत्र को गणनायक पूजक भारत अपनाए यह सहज-स्वाभाविक है। विसंगति यह हो गई है कि गण पर तंत्र हावी हो गया है। गण प्रतिनिधि ही गण से दूर हैं।चयन का कार्य गण नहीं दल कर रहे हैं। फलत:, मतभेदों के दलदल, दल बदल के कंटक और सदल बल जनआकांक्षों पर दलीय हितों को वरीयता देने के कारण प्रतिनिधि जनगण पर श्रद्धा और जनगण प्रतिनिधयों पर विश्वास खो चुके हैं। इस दुष्चक्र का लाभ उठाकर जनसेवक गणस्वामी बनकर  पद के मद में मस्त है। गण स्वामी कहा जाता है पर वास्तव में सेवक मात्र है। तंत्र गण के काम न आकर गण से काम ले रहा है। विधि-विधान बनानेवाले ही विधि-विधान की हत्या कर रहे हैं। पंच ज्ञानेन्द्रियों और पंच कर्मेन्द्रियों के साथ बुद्धि-विवेक कर न्याय दिए जाने के स्थान पर, आँखों पर पट्टी बाँधकर न्याय को तौला जा रहा है। इस संक्रमणकाल लोक को आराध्य माननेवाले कृष्ण के जन्मोत्सव के तुरंत बाद  गणदेवता जन्मोत्सव मनाया जाना पूरी तरह सामयिक और समीचीन है। जनगण परंपरा-पालन के साथ-साथ उनका वास्तविक मर्म भी ग्रहण कर सके तो लोक, जन, गण और प्रजा पर तंत्र हावी न होकर उसका सेवक होगा, तभी वास्तविक लोकतंत्र, जनतंत्र, गणतंत्र और प्रजातंत्र मूर्त हो सकेगा। 
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सोमवार, 6 सितंबर 2021

विमर्श: शिष्य दिवस

विमर्श:
शिष्य दिवस क्यों नहीं?
संजीव
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अभी-अभी शिक्षक दिवस गया... क्या इसी तरह शिष्य दिवस भी नहीं मनाया जाना चाहिए? यदि शिष्य दिवस मनाया जाए तो किसकी स्मृति में? राम, कृष्ण के शिष्य रूप आदर्श कहनेवाले बहुत मिलेंगे किन्तु मुझे लगता है आदर्श शिष्य के रूप में इनसे बेहतर आरुणि, कर्ण और एकलव्य हैं. यदि किसी एक नाम का चयन करना हो तो एकलव्य। क्यों?
सोचिए?
किसी अन्य को पात्र मानते हों तो उसकी चर्चा करें ....

सोमवार, 23 अगस्त 2021

विमर्श, वरमाल या जयमाल

विमर्श,
अनावश्यक कुप्रथा: वरमाल या जयमाल???
संजीव
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आजकल विवाह के पूर्व वर-वधु बड़ा हार पहनाते हैं। क्यों? इस समय वर के मिटे हुल्लड़ कर उसे उठा लेते हैं ताकि वधु माला न पहना सके। प्रत्युत्तर में वधु पक्ष भी यही प्रक्रिया दोहराता है।
दुष्परिणाम:
वहाँ उपस्थित सज्जन विवाह के समर्थक होते हैं और विवाह की साक्षी देने पधारते हैं तो वे बाधा क्यों उपस्थित करते हैं? इस कुप्रथा के दुपरिणाम देखने में आये हैं, वर या वधु आपाधापी में गिरकर घायल हुए तो रंग में भंग हो गया और चिकित्सा की व्यवस्था करनी पडी। सारा कार्यक्रम गड़बड़ा गया. इस प्रसंग में वधु को उठाते समय उसकी साज-सज्जा और वस्त्र अस्त-व्यस्त हो जाते हैं. कोई असामाजिक या दुष्ट प्रकृति का व्यक्ति हो तो उसे छेड़-छाड़ का अवसर मिलता है. यह प्रक्रिया धार्मिक, सामाजिक या विधिक (कानूनी) किसी भी दृष्टि से अनिवार्य नहीं है.
औचित्य:
यदि जयमाल के तत्काल बाद वर-वधु में से किसी एक का निधन हो जाए या या किसी विवाद के कारण विवाह न हो सके तो क्या स्थिति होगी? सप्तपदी, सिंदूर दान या वचनों का आदान-प्रदान न हुआ तो क्या केवल माला को अदला-बदली को विवाह माना जायेगा?हिन्दू विवाह अधिनियम ऐसा नहीं मानता।ऐसी स्थिति में वधु को वर की पत्नी के अधिकार और कर्तव्य (चल-अचल संपत्ति पर अधिकार, अनुकम्पा नियुक्ति या पेंशन, वर का दूसरा विवाह हो तो उसकी संतान के पालन-पोषण का अधिकार) नहीं मिलते।सामाजिक रूप से भी उसे अविवाहित माना जाता है, विवाहित नहीं। धार्मिक दृष्टि से भी वरमाल को विवाह की पूर्ति अन्यथा बाद की प्रक्रियाओं का महत्त्व ही नहीं रहता।
कारण:
धर्म, समाज तथा विधि तीनों दृष्टियों से अनावश्यक इस प्रक्रिया का प्रचलन क्यों, कब और कैसे हुआ?
सर्वाधिक लोकप्रिय राम-सीता जयमाल प्रसंग का उल्लेख राम-सीता के जीवनकाल में रचित वाल्मीकि रामायण में नहीं है. रामचरित मानस में तुलसीदास प्रसंग का मनोहारी चित्रण किया है। तभी श्री राम के ३ भाइयों के विवाह सीता जी की ३ बहनों के साथ संपन्न हुए किन्तु उनकी जयमाल का वर्णन नही है।
श्री कृष्ण के काल में द्रौपदी स्वयंवर में ब्राम्हण वेषधारी अर्जुन ने मत्स्य वेध किया। जिसके बाद द्रौपदी ने उन्हें जयमाल पहनायी किन्तु वह ५ पांडवों की पत्नी हुईं अर्थात जयमाल न पहननेवाले अर्जुन के ४ भाई भी द्रौपदी के पति हुए। स्पष्ट है कि जयमाल और विवाह का कोई सम्बन्ध नहीं है। रुक्मिणी का श्रीकृष्ण ने और सुभद्रा का अर्जुन के पूर्व अपहरण कर लिया था। जायमाला कैसी होती?
ऐतिहासिक प्रसंगों में पृथ्वीराज चौहा और संयोगिता का प्रसंग उल्लेखनीय है। पृथ्वीराज चौहान और जयचंद रिश्तेदार होते हुए भी एक दूसरे के शत्रु थे। जयचंद की पुत्री संयोगिता के स्वयंवर के समय पृथ्वीराज द्वारपाल का वेश बनाकर खड़े हो गये। संयोगिता जयमाल लेकर आयी तो आमंत्रित राजाओं को छोड़कर पृथ्वीराज के गले में माल पहना दी और पृथ्वीराज चौहान संयोगिता को लेकर भाग गये। इस प्रसंग से बढ़ी शत्रुता ने जयचंद के हाथों गजनी के मो. गोरी को भारत आक्रमण के लिए प्रेरित कराया, पृथ्वीराज चौहान पराजितकर बंदी बनाये गये, देश गुलाम हुआ।
स्पष्ट है कि जब विवाहेच्छुक राजाओं में से कोई एक अन्य को हराकर अथवा निर्धारित शर्त पूरी कर वधु को जीतता था तभी जयमाल होता था अन्यथा नहीं।
मनमानी व्याख्या:
तुलसी ने राम को मर्यादपुषोत्तम मुग़लों द्वारा उत्साह जगाने के लिए कई प्रसंगों की रचना की। प्रवचन कारों ने प्रमाणिकता का विचार किये बिना उनकी चमत्कारपूर्ण सरस व्याख्याएँ चढ़ोत्री बढ़े। वरमाल तब भी विवाह का अनिवार्य अंग नहीं थी। तब भी केवल वधु ही वर को माला पहनाती थी, वर द्वारा वधु को माला नहीं पहनायी जाती थी। यह प्रचलन रामलीलाओं से प्रारम्भ हुआ। वहां भी सीता की वरमाला को स्वीकारने के लिये उनसे लम्बे राम अपना मस्तक शालीनता के साथ नीचे करते हैं। कोई उन्हें ऊपर नहीं उठाता, न ही वे सर ऊँचा रखकर सीता को उचकाने के लिए विवश करते हैं।
कुप्रथा बंद हो:
जयमाला वधु द्वारा वर डाली जाने के कारण वरमाला कही जाने लगी। रामलीलाओं में जान-मन-रंजन के लिये और सीता को जगजननी बताने के लिये उनके गले में राम द्वारा माला पहनवा दी गयी किन्तु यह धार्मिक रीति न थी, न है। आज के प्रसंग में विचार करें तो विवाह अत्यधिक अपव्ययी और दिखावे के आयोजन हो गए हैं। दोनों पक्ष वर्षों की बचत खर्च कर अथवा क़र्ज़ लेकर यह तड़क-भड़क करते हैं। हार भी कई सौ से कई हजार रुपयों के आते हैं। मंच, उजाला, ध्वनिविस्तारक सैकड़ों कुसियों और शामियाना तथा सैकड़ों चित्र खींचना, वीडियो बनाना आदि पर बड़ी राशि खर्चकर एक माला पहनाई जाना हास्यास्पद नहीं तो और क्या है?
इस कुप्रथा का दूसरा पहलू यह है की लाघग सभी स्थानीयजन तुरंत बाद भोजन कर चले जाते हैं जिससे वे न तो विवाह सम्बन्ध के साक्षी बन पते हैं, न वर-वधु को आशीष दे हैं, न व्धु को मिला स्त्रीधन पाते हैं। उन्हें के २ कारण विवाह का साक्षी बनना तथा विवाह पश्चात नव दम्पति को आशीष देना ही होते हैं। जयमाला के तुरंत बाद चलेजाने पर ये उद्देश्य पूर्ण नहीं हो पाते। अतः, विवेकशीलता की मांग है की जयमाला की कुप्रथा का त्याग किया जाए। नारी समानता के पक्षधर वर द्वारा वधु को जीतने के चिन्ह रूप में जयमाला को कैसे स्वीकार सकते हैं? इसी कारण विवाह पश्चात वार वधु से समानता का व्यवहार न कर उसे अपनी अर्धांगिनी नहीं अनुगामिनी और आज्ञानुवर्ती मानता है। यह प्रथा नारी समानता और नारी सम्मान के विपरीत और अपव्यय है। इसे तत्काल बंद किया जाना उचित होगा।

मंगलवार, 10 अगस्त 2021

विमर्श: साधना, बुद्धिमान

विमर्श:
साधना क्या है....
पत्थर पर एकाएक बहुत सा पानी डाल दिया जाए तो पत्थर केवल भीगेगा, फिर पानी बह जाएगा और पत्थर सूख जाएगा किन्तु वह पानी पत्थर पर एक ही जगह पर बूँद-बूँद गिरता रहेगा, तो पत्थर में छेद होगा और कुछ दिनों बाद पत्थर टूट भी जाएगा। कुएं में पानी भरते समय एक ही स्थान पर रस्सी की रगड़ से पत्थर और लोहे पर निशान पड़कर अंत में वह टूट जाता है 'रसरी आवत जात ते सिल पर परत निसान'। इसी प्रकार निश्चित स्थान पर ध्यान की साधना की जाएगी तो उसका परिणाम अधिक होता है ।
चक्की में दो पाटे होते हैं। उनमें यदि एक स्थिर रहकर, दूसरा घूमता रहे तो अनाज पिस जाता है और आटा बाहर आ जाता है। यदि दोनों पाटे एक साथ घूमते रहेंगे तो अनाज नहीं पिसेगा और परिश्रम व्यर्थ होगा। इसी प्रकार मनुष्य में भी दो पाटे हैं; एक मन और दूसरा शरीर। उसमें मन स्थिर पाटा है और शरीर घूमने वाला पाटा है।
अपने मन को ध्यान द्वारा स्थिर किया जाए और शरीर से सांसारिक कार्य करें। प्रारब्ध रूपी खूँटा शरीर रूपी पाटे में बैठकर उसे घूमाता है और घूमाता रहेगा लेकिन मन रूपी पाटे को सिर्फ भगवान के प्रति स्थिर रखना है। देह को प्रारब्ध पर छोड़ दिया जाए और मन को ध्यान में मग्न कर दिया जाए; यही साधना है।
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विमर्श : बुद्धिमान कौन?
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बिल्ली के सामने मिट्टी या पत्थर का चूहा बना कर रख दें, वह उस पर नहीं झपटती जबकि इंसान मिट्टी-पत्थर की मूरत बनाकर उसके सामने गिड़गिड़ाता रहता है और इसे धर्म कहता है।
कबीरदास कह गए -
काँकर-पाथर जोड़ के मस्जिद लई बनाय
ता चढ़ मुल्ला बांग दे बहिरा हुआ खुदाय
पाहन पूजे हरी मिले तो मैं पूजूँ पहार
ताते या चाकी भली पीस खाय संसार
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मेरे हाथों का बनाया हुआ
पत्थर का है बुत
कौन भगवान है सोचा जाय?
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कंकर कंकर में बसे हैं शंकर भगवान
फिर मूरत क्यों बनाता, रे! मानव नादान?
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बुधवार, 28 जुलाई 2021

विमर्श, जात, कायस्थ

विमर्श  -
'जात' क्रिया (जना/जाया=जन्म दिया, जाया=जगजननी का एक नाम) से आशय 'जन्मना' होता है, जन्म देने की क्रिया को 'जातक कर्म', जन्म लिये बच्चे को 'जातक', जन्म देनेवाली को 'जच्चा' कह्ते हैं। जन्मे बच्चे के गुण-अवगुण उसकी जाति निर्धारित करते हैं. बुद्ध की जातक कथाओं में विविध योनियों में जन्म लिये बुद्ध के ईश्वरत्व की चर्चा है। जाति जन्मना नहीं कर्मणा होती है. जब कोई सज्जन दिखनेवाला व्यक्ति कुछ निम्न हर्कात कर दे तो बुंदेली में एक लोकोक्ति कही जाती है- 'जात दिखा गया'. यहाँ भी जात का अर्थ उसकी असलियत या सच्चाई से है। सामान्यतः समान जाति का अर्थ समान गुणों, योग्यता या अभिरुचि से है। 

आप ही नहीं हर जीव कायस्थ है।  पुराणकार के अनुसार "कायास्थितः सः कायस्थः"

अर्थात वह (निराकार परम्ब्रम्ह) जब किसी काया का निर्माण कर अपने अन्शरूप (आत्मा) से उसमें स्थित होता है, तब कायस्थ कहा जाता है।  व्यावहारिक अर्थ में जो इस सत्य को जानते-मानते हैं वे खुद को कायस्थ कहने लगे, शेष कायस्थ होते हुए भी खुद को अन्य जाति का कहते रहे।दुर्भाग्य से लंबे आपदा काल में कायस्थ भी इस सच को भूल गये या आचरण में नहीं ला सके। कंकर-कंकर में शंकर, कण-कण में भगवान, आत्मा सो परमात्मा आदि इसी सत्य की घोषणा करते हैं। 

जातिवाद का वास्तविक अर्थ अपने गुणों-ग्यान आदि अन्यों को सिखाना है ताकि वह भी समान योग्यता या जाति का हो सके। 
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रविवार, 25 जुलाई 2021

विमर्श मौलिकता, मुक्तक

विमर्श 
क्या यह मौलिक सृजन है???
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मुख पुस्तक पर एक द्विपदी पढ़ी. इसे सराहना भी मिल रही है.
मैं सराहना तो दूर इसे देख कर क्षुब्ध हो रहा हूँ.
आप की क्या राय है?
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Arvind Kumar
उनके दर्शन से जो बढ़ जाती है मुख की शोभा
वोह समझते हैँ कि रोगी की दशा उत्तम है
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उनके देखे से जो आ जाती है मुँह पे रौनक
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है - मिर्ज़ा ग़ालिब
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मुक्तक:
संजीव
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मापनी: २११ २११ २११ २२
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आँख मिलाकर आँख झुकाते
आँख झुकाकर आँख उठाते
आँख मारकर घायल करते
आँख दिखाकर मौन कराते
*
मापनी: १ २ २ १ २ २ १ २ २ १२२
*
न जाओ, न जाओ जरा पास आओ
न बातें बनाओ, न आँखें चुराओ
बहुत हो गया है, न तरसा, न तरसो
कहानी सुनो या कहानी सुनाओ
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२५-६-२०१५