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बुधवार, 15 जनवरी 2025

रातरानी, हिंदी गजल, मुक्तिका

हिंदी गजल  

मन लुभाए रातरानी आह भर। 
छिप बुलाए रात रानी बाम पर।। 
खत पठाए इशारों में बात कर। 
रुख छिपाए चिलमनों से झाँककर।। 
कहीं जाए तो पलट देखे इधर 
यों जताए देखती है वो उधर।। 
खिलखिलाए लूट मन का चैन ले। 
तिलमिलाए दाँत से लब काटकर।। 
जो न पाए तो बुलावा भेज दे। 
सो न जाए रातरानी जागकर।। 
हाथ आए या न आए क्या पता? 
साथ आए बेखबर हो बाखबर॥ 
आ लुभाए लाल हो  गुलनार सी 
रू-ब-रू हों ख्वाब औ' सच बाँह भर।। 
पूर्णिमा में पूर्णिका 'संजीव' की  
गुनगुनाए झुका नजरें रात भर।।
१५.१.२०२५ 
०००  

सोमवार, 8 अप्रैल 2024

अप्रैल ८, हास्य, दोहा, नवगीत, सुमन श्री, अम्मी, हिंदी गजल,

सलिल सृजन ८ अप्रैल 

मुक्तक
जो हमारा है उसी की चाहकर।
जो न अपना तनिक मत परवाह कर।।
जो मिला उसको सहेजो उम्र भर-
गैर की खातिर न नाहक आह भर।।
***
पत्रिका सलिला
साहित्य संस्कार - पठनीय महिला कथाकार अंक
संस्कारधानी जबलपुर से प्रकाशित त्रैमासिकी साहित्य संस्कार का जनवरी-मार्च अंक 'महिला कथाकार अंक' के रूप में प्रकाशित हुआ है। ५६ पृष्ठीय पत्रिका में ४ लेख, ८ महानियाँ, २ संस्मरण, ७ लघुकथाएँ, ४ कवितायें, १ व्यंग्य लेख, २ समीक्षाएँ तथा २ संपादकीय समाहित हैं। प्रधान संपादक श्री शरद अग्रवाल 'आत्म निर्भर भारत' शीर्षक संपादकीय में भारत को किस्से-कहानियों का देश कहते हुए अपनी जड़ों से जुड़ने को अपरिहार्य बताते हैं। वे हिंदी की प्रथम महिला कहानीकार जबलपुर निवासी उषा देवी मित्रा जी तथा विद्रोहिणी सुभद्रा कुमारी चौहान जी को स्मरण करते हुए भारत के विकास का जिक्र करते हैं। 'कहानियाँ कभी खत्म नहीं होतीं' शीर्षक संपादकीय में अभियंता सुरेंद्र पवार आंग्ल भाषा चालित संस्था इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स द्वारा प्रकाशित वार्षिकांक 'अभियंता बंधु' के दक्षिण भारत में हुए विमोचन की चर्चा कर जान सामान्य से जीवंत संपर्क का उल्लेख करते हैं।
हिंदी कहानी के विकास पर डॉ. अनिल कुमार का आलेख पठनीय है। शशि खरे जी 'नई कहानी और महिला कथाकार' में जरूरी प्रश्न पूछती हैं- 'क्या महिला कहानीकार की कहानियाँ कहानी जगत में अलग परिचय रखती हैं अथवा कहानी, कहानी है पुरुष या स्त्री लेखक किसी ने भी लिखी हो?' सबका हित साधनेवाले साहित्य का मूल्याङ्कन उसकी गुणवत्ता के आधार पर हो या रचनाकार के लिंग, जाति, धर्म, व्यवसाय आधी के आधार पर? शशि जी ने सवाल पाठकों के चिंतन हेतु उठाया किन्तु इस पर विमर्श नहीं किया। एक लेख में सभी महिला कथाकारों पर चर्चा संभव नहीं हो सकती। शशि जी ने तीन पीढ़ियों की ३ महिला कथाकारों नासिरा शर्मा, नमिता सिंह तथा अमिता श्रीवास्तव की कहानी कला पर प्रकाश डाला है। 'कालजयी कहानीकार उषादेवी मित्रा' शीर्षक लेख में आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने उषा देवी जी के जीवन की विषम परिस्थतियों, कठिन संघर्ष, कर्मठता, सृजनशीलता, कृतियों तथा सम्मान आदि पर संक्षिप्त पर सामान्यत: अनुपलब्ध सारगर्भित जानकारी दी है। अपने साहित्य को अपनी ही चिता पर जला दिए जाने की अंतिम अभिलाषा व्यक्त करनेवाली उषा देवी के कार्य पर हिंदीभाषी अंचल के हिंदी प्राध्यापकों ने अब तक शोध न कराकर अक्षम्य कृतघ्नता का परिचय दिया है जबकि दक्षिण भारत में सेंट थॉमस कॉलेज पाला की छात्रा प्रीति आर. ने वर्ष २०१४ में ;उषा देवी मित्रा के साहित्य में नारी जीवन के बदलते स्वरूप' विषय पर शोध किया है। उपेक्षा की हद तो यह कि उषा देवी जी का एक चित्र तक उपलब्ध नहीं है। 'मालवा की मीरा - मालती जोशी' शीर्षक लेखा में प्रतिमा अखिलेश ने गागर में सागर भरने का सफल प्रयास किया है।
अंक की कहानियों में जया जादवानी की कहानी 'हमसफर' परिणय सूत्र में बँधने जा रहे स्त्री-पुरुष के वार्तालाप में जिआवन के विविध पहलुओं पर केंद्रित हैं। दोनों के अतीत के विविध पहलुओं की चर्चा में अंग्रेजी भाषा का अत्यधिक प्रयोग और विस्तार खटकता है। अर्चना मलैया की छोटी कहानी 'चीख' मर्मस्पर्शी है। अंक की सर्वाधिक प्रभावी कहानी 'वृद्धाश्रम' में सरस दरबारी ने पद के मद में डूबे सेवानिवृत्त उच्चधिकारी के अहंकार के कारण हुए पारिवारिक विघटन के सटीक चित्रण किया है। अनीता श्रीवास्तव की कहानी 'कवि सम्मेलन' साहित्यिक मंचों पर छाए बाजारूपन पर प्रहार करती है। गीता भट्टाचार्य लिखित 'नारी तेरे रूप अनेक' में कहानी और संस्मरण का मिश्रण है। पुष्पा चिले की कहने 'मुक्ति' में प्रेम की पवित्रता स्थापित की गई है। 'लिव इन' में टुकड़े-टुकड़े होती श्रद्धा के इस दौर में ऐसी कहानी किशोरों और युवाओं को राह दिखा सकती है। उभरती कहानीकार वैष्णवी मोहन पुराणिक का कहानी 'प्यार का अहसास' देहातीत प्रेम की सात्विकता प्रतिपादित करती है।
मालती जोशी तथा लता तेजेश्वर 'रेणुका' लिखित संस्मरण सरस हैं।डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव के कहानी संग्रह 'जिजीविषा' की डॉ. साधना वर्मा द्वारा प्रस्तुत समीक्षा में नीर-क्षीर विवेचन किया गया है। डॉ. सरोज गुप्ता द्वारा लिखित 'कि याद जो करें सभी' पुस्तक पर समीक्षा संतुलित तथा पठनीय है।
गीतिका श्रीवास्तव के व्यंग्य लेख 'रोम जलता रहा, नीरो बाँसुरी बजाता रहा' में अभियांत्रिकी शिक्षा और अभियंताओं की दुर्दशा उद्घाटित की गई है। डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव की तीन लघुकथाएँ 'गारंटी', 'प्रतिशोध' तथा 'मरकर भी' विधा तथा अंक की श्रीवृद्धि करती हैं। लघुकथांतर्गत छाया सक्सेना की 'बरसों बाद', श्रद्धा निगम की 'ये हुई न बात' तथा मीना पंवार की 'बेटे की शादी में जरूर आऊँगी' अच्छे प्रयास हैं। कविता कानन के कुसुम गुच्छ में सुवदनी देवी रचित 'उपकार', अंकुर सिंह रचित 'माँ मुझे जन्म लेने दो', आरती रचित 'आतंकवाद' तथा गरिमा सिंह रचित 'निश्छल प्रेम' नवांकुरित प्रयास हैं।
सारत: साहित्य संस्कार का सोलहवाँ अंक इसके कैशोर्य प्रवेश पर्व का निनाद कर रहा है। आगामी अंक इसे तरुणाई की ओर ले जाएँगे। शहीद भगत सिंह के देश के किशोर को क्रांतिधर्मा होना चाहिए। मेरा सुझाव है कि महिला कथाकारअंक के पश्चात् आगामी अंक 'पुरुष विमर्श विशेषांक' के रूप में प्रकाशित किया जाए जिसमें स्त्री विमर्श के रूप में हो रहे इकतरफा आंदोलनों के दुष्प्रभावों, पुरुष के अवदान, विवशता, त्याग, समर्पण आदि पर केंद्रित रचनाओं का प्रकाशन हो। पत्रिका के स्थायित्व के लिए आगामी कुछ अंकों के विषय निर्धारण करसम्यक-प्रामाणिक सामग्री जुटाई जा सकती है। बुंदेला विद्रोह १८४२, स्वातंत्र्य समर १८५७ में बुंदेलखंड का योगदान, बुंदेली साहित्य कल और आज, महकौशल में पर्यटन, विकास कार्य, तकनीकी शिक्षण, साहित्य, कला, उद्योग आदि पर क्रमश: विशेषांक हों तो वे संग्रहणीय होंगे। प्रकाशक और संपादक मंडल साधुवाद का पर्याय है।
८-४-२०२३
***
दोहा सलिला
*
शुभ प्रभात होता नहीं, बिन आभा है सत्य
आ भा ऊषा से कहे, पुलकित वसुधा नित्य
*
मार्निंग गुड होगी तभी, जब पहनेंगे मास्क
सोशल डिस्टेंसिंग रखें, मीत सरल है टास्क
*
भाप लाभदायक बहुत, लें दिन में दो बार
पीकर पानी कुनकुना, हों निरोग हर वार
*
कोल्ड ड्रिंक से कीजिए, बाय बाय कर दूर
आइसक्रीम न टेस्ट कर, रहिए स्वस्थ्य हुजूर
*
नीबू रस दो बूँद लें, आप नाक में डाल
करें गरारे दूर हो, कोरोना बेहाल
*
जिंजर गार्लिक टरमरिक, रियल आपके फ्रैंड्स
इन सँग डेली बाँधिए, फ्रैंड्स फ्रेंडशिप बैंड्स
*
सूर्य रश्मि से स्नानकर, सुबह शाम हों धन्य
घूमें ताजी हवा में, पाएँ खुशी अनन्य
*
हार्म करे एक सी बहुत, घटती है ओजोन
बिना सुरक्षा पर्त के, जीवन चाहे क्लोन
*
दूर शीतला माँ हुईं, कोरोना माँ पास
रक्षित रह रखिए सुखी, करें नहीं उपहास
*
हग कल्चर से दूर रह, करिए नमन प्रणाम
ब्लैसिंग लें दें दूर से, करिए दोस्त सलाम
*
कोविद माता सिखातीं, अनुशासन का पाठ
धन्यवाद कह स्वस्थ्य रह, करिए यारों ठाठ
८-४-२०२१
***
दोहा सलिला
पानी-पानी हो गया, पानी मिटी न प्यास।
जंगल पर्वत नदी-तल, गायब रही न आस।।
*
दो कौड़ी का आदमी, पशु का थोड़ा मोल।
मोल न जिसका वह खुदा, चुप रह पोल न खोल।।
*
तू मारे या छोड़ दे, है तेरा उपकार।
न्याय-प्रशासन खड़ा है, हाथ बाँधकर द्वार।।
*
आज कदर है उसी की, जो दमदार दबंग।
इस पल भाईजान हो, उस पल हो बजरंग।।
*
सवा अरब है आदमी, कुचल घटाया भार।
पशु कम मारे कर कृपा, स्वीकारो उपकार।।
*
हम फिल्मी तुम नागरिक, आम न समता एक।
खल बन रुकते हम यहाँ, मरे बने रह नेक।।
८.४.२०१८
***
नवगीत:
.
कुनबा
गीति विधा का है यह
.
महाकाव्य बब्बा की मूँछें, उजली पगड़ी
खण्डकाव्य नाना के नाना किस्से रोचक
दादी-नानी बन प्रबंध करती हैं बतरस
सुन अंग्रेजी-गिटपिट करते बच्चे भौंचक
ईंट कहीं की, रोड़ा आया और कहीं से
अपना
आप विधाता है यह
कुनबा
गीति विधा का है यह
.
लक्षाधिक है छंद सरस जो चाहें रचिए
छंदहीन नीरस शब्दों को काव्य न कहिए
कथ्य सरस लययुक्त सारगर्भित मन मोहे
फिर-फिर मुड़कर अलंकार का रूप निरखिए
बिम्ब-प्रतीक सलोने कमसिन सपनों जैसे
निश-दिन
खूब दिखाता है यह
कुनबा
गीति विधा का है यह
.
दृश्य-श्रव्य-चंपू काव्यों से भाई-भतीजे
द्विपदी, त्रिपदी, मुक्तक अपनेपन से भीजे
ऊषा, दुपहर, संध्या, निशा करें बरजोरी
पुरवैया-पछुवा कुण्डलि का फल सुन खीजे
बौद्धिकता से बोझिल कविता
पढ़ता
पर बिसराता है यह
कुनबा
गीति विधा का है यह
.
गीत प्रगीत अगीत नाम कितने भी धर लो
रच अनुगीत मुक्तिका युग-पीड़ा को स्वर दो
तेवरी या नवगीत शाख सब एक वृक्ष की
जड़ को सींचों, माँ शारद से रचना-वर लो
खुद से
खुद बतियाता है यह
कुनबा
गीति विधा का है यह
८.४.२०१७
...
एक गीत
धत्तेरे की
*
धत्तेरे की
चप्पलबाज।
*
पद-मद चढ़ा, न रहा आदमी
है असभ्य मत कहो आदमी
चुल्लू भर पानी में डूबे
मुँह काला कर
चप्पलबाज
धत्तेरे की
चप्पलबाज।
*
हाय! जंगली-दुष्ट आदमी
पगलाया है भ्रष्ट आदमी
अपना ही थूका चाटे फिर
झूठ उचारे
चप्पलबाज
धत्तेरे की
चप्पलबाज।
*
गलती करता अगर आदमी
क्षमा माँगता तुरत आदमी
गुंडा-लुच्चा क्षमा न माँगे
क्या हो बोलो
चप्पलबाज?
धत्तेरे की
चप्पलबाज।
८.४.२०१७
***
पुस्तक सलिला-
‘सरे राह’ मुखौटे उतारती कहानियाॅ
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
[पुस्तक परिचय- सरे राह, कहानी संग्रह, डाॅं. सुमनलता श्रीवास्तव, प्रथम संस्करण २०१५, आकार २१.५ से.मी. x १४ से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक लेमिनेटेड जैकट सहित, मूल्य १५० रु., त्रिवेणी परिषद प्रकाशन, ११२१ विवेकानंद वार्ड, जबलपुर, कहानीकार संपर्क १०७ इंद्रपुरी, नर्मदा मार्ग, जबलपुर।]
0
‘कहना’ मानव के अस्तित्व का अपरिहार्य अंग है। ‘सुनना’,‘गुनना’ और ‘करना’ इसके अगले चरण हैं। इन चार चरणों ने ही मनुष्य को न केवल पशु-पक्षियों अपितु सुर, असुर, किन्नर, गंधर्व आदि जातियों पर जय दिलाकर मानव सभ्यता के विकास का पथ प्रशस्त किया। ‘कहना’ अनुशासन और उद्दंेश्य सहित हो तो ‘कहानी’ हो जाता है। जो कहा जंाए वह कहानी, क्या कहा जाए?, वह जो कहे जाने योग्य हो, कहे जाने योग्य क्या है?, वह जो सबके लिये हितकर है। जो सबके हित सहित है वही ‘साहित्य’ है। सबके हित की कामना से जो कथन किया गया वह ‘कथा’ है। भारतीय संस्कृति के प्राणतत्वों संस्कृत और संगीत को हृदयंगम कर विशेष दक्षता अर्जित करनेवाली विदुषी डाॅ. सुमनलता श्रीवास्तव की चैथी कृति और दूसरा कहानी संग्रह ‘सरे राह’ उनकी प्रयोगधर्मी मनोवृत्ति का परिचाायक है।
विवेच्य कृति मुग्धा नायिका, पाॅवर आॅफ मदर, सहानुभूति, अभिलषित, ऐसे ही लोग, सेवार्थी, तालीम, अहतियात, फूलोंवाली सुबह, तीमारदारी, उदीयमान, आधुनिका, विष-वास, चश्मेबद्दूर, क्या वे स्वयं, आत्मरक्षा, मंजर, विच्छेद, शुद्धि, पर्व-त्यौहार, योजनगंधा, सफेदपोश, मंगल में अमंगल, सोच के दायरे, लाॅस्ट एंड फाउंड, सुखांत, जीत की हार तथा उड़नपरी 28 छोटी पठनीय कहानियों का संग्रह है।
इस संकलन की सभी कहानियाॅं कहानीकार कम आॅटोरिक्शा में बैठने और आॅटोरिक्शा सम उतरने के अंतराल में घटित होती हैं। यह शिल्यगत प्रयोग सहज तो है पर सरल नहीं है। आॅटोरिक्शा नगर में एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुॅंचाने में जो अल्प समय लेता है, उसके मध्य कहानी के तत्वों कथावस्तु, चरित्रचित्रण, पात्र योजना, कथेपकथन या संवाद, परिवेश, उद्देश्य तथा शैली का समावेश आसान नहीं है। इस कारण बहुधा कथावस्तु के चार चरण आरंभ, आरोह, चरम और अवरोह कां अलग-अलग विस्तार देे सकना संभव न हो सकने पर भी कहानीकार की कहन-कला के कौशल ने किसी तत्व के साथ अन्याय नहीं होने दिया है। शिल्पगत प्रयोग ने अधिकांश कहानियों को घटना प्रधान बना दिया है तथापि चरित्र, भाव और वातावरण यथावश्यक-यथास्थान अपनी उपस्थिति दर्शाते हैं।
कहानीकार प्रतिष्ठित-सुशिक्षित पृष्ठभूमि से है, इस कारण शब्द-चयन सटीक और भाषा संस्कारित है। तत्सम-तद्भव शब्दों का स्वाभविकता के साथ प्रयोग किया गया है। संस्कृत में शोधोपाधि प्राप्त लेखिका ने आम पाठक का ध्यानकर दैनंदिन जीवन में प्रयोग की जा रही भाषा का प्रयोग किया है। ठुली, फिरंगी, होंड़ते, गुब्दुल्ला, खैनी, हीले, जीमने, जच्चा, हूॅंक, हुमकना, धूरि जैसे शब्दकोष में अप्राप्त किंतु लोकजीवन में प्रचलित शब्द, कस्बाई, मकसद, दीदे, कब्जे, तनख्वाह, जुनून, कोफ्त, दस्तखत, अहतियात, कूवत आदि उर्दू शब्द, आॅफिस, आॅेडिट, ब्लडप्रैशर, स्टाॅप, मेडिकल रिप्रजेन्टेटिव, एक्सीडेंट, केमिस्ट, मिक्स्ड जैसे अंग्रेजी शब्द गंगो-जमनी तहजीब का नजारा पेश करते हैं किंतु कहीं-कहंी समुचित-प्रचलित हिंदी शब्द होते हुए भी अंग्रेजी शब्द का प्रयोग भाषिक प्रदूषण प्रतीत होतं है। मदर, मेन रोड, आफिस आदि के हिंदी पर्याय प्रचलित भी है और सर्वमान्य भी किंतु वे प्रयोग नहीं किये गये। लेखिका ने भाषिक प्रवाह के लिये शब्द-युग्मों चक्कर-वक्कर, जच्चा-बच्चा, ओढ़ने-बिछाने-पहनने, सिलाई-कढ़ाई, लोटे-थालियाॅं, चहल-पहल, सूर-तुलसी, सुविधा-असुविधा, दस-बारह, रोजी-रोटी, चिल्ल-पों, खोज-खबर, चोरी-चकारी, तरो-ताजा, मुड़ा-चुड़ा, रोक-टोक, मिल-जुल, रंग-बिरंगा, शक्लो-सूरत, टांका-टाकी आदि का कुशलतापूर्वक प्रयोग किया है।
किसी भाषा का विकास साहित्य से ही होता है। हिंदी विश्वभाषा बनने का सपना तभी साकार कर सकती है जब उसके साहित्य में भाषा का मानक रूप हो। लेखिका सुशिक्षित ही नहीं सुसंस्कृत भी हैं, उनकी भाषा अन्यों के लिये मानक होगी। विवेच्य कृति में बहुवचन शब्दों में एकरूपता नहीं है। ‘महिलाएॅं’ में हिंदी शब्दरूप है तो ‘खवातीन’ में उर्दू शब्दरूप, जबकि ‘रिहर्सलों’ में अंग्रेजी शब्द को हिंदी व्याकरण-नियमानुसार बहुवचन किया ंगया है।
सुमन जी की इन कहानियों की शक्ति उनमें अंतर्निहित रोचकता है। इनमें ‘उसने कहा था’ और ‘ताई’ से ली गयी प्रेरणा देखी जा सकती है। कहानी की कोई रूढ़ परिभाषा नहीं हो सकती। संग्रह की हर कहानी में कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में लेखिका और आॅटोरिक्शा है, सूत्रधार, सहयात्री, दर्शक, रिपोर्टर अथवा पात्र के रूप में वह घटना की साक्ष्य है। वह घटनाक्रम में सक्रिय भूमिका न निभाते हुए भी पा़त्र रूपी कठपुतलियों की डोरी थामे रहती है जबकि आॅटोेरिक्शा रंगमंच बन जाता है। हर कहानी चलचित्र के द्श्य की तरह सामने आती है। अपने पात्रों के माघ्यम से कुछ कहती है और जब तक पाठक कोई प्रतिकिया दे, समाप्त हो जाती है। समाज के श्वेत-श्याम दोनों रंग पात्रों के माघ्यम ेंसे सामने आते हैं।
अनेकता में एकता भारतीय समाज और संस्कृति दोनों की विशेषता है। यहाॅं आॅटोरिक्शा और कहानीकार एकता तथा घटनाएॅं और पात्र अनेकता के वाहक है। इन कहानियों में लघुकथा, संस्मरण, रिपोर्ताज और गपशप का पुट इन्हें रुचिकर बनाता है। ये कहानियाॅं किसी वाद, विचार या आंदोलन के खाॅंचे में नहीं रखी जा सकतीं तथापि समाज सुधार का भाव इनमें अंतर्निहित है। ये कहानियाॅं बच्चों नहीं बड़ों, विपन्नों नहीं संपन्नों के मुखौटों के पीछे छिपे चेहरों को सामने लाती हैं, उन्हें लांछित नहीं करतीं। ‘योजनगंधा’ और ‘उदीयमान’ जमीन पर खड़े होकर गगन छूने, ‘विष वास’, ‘सफेदपोश’, ‘उड़नपरी’, ‘चश्मेबद्दूर आदि में श्रमजीवी वर्ग के सदाचार, ‘सहानूभूति’, ‘ऐसे ही लोग’, ‘शुद्धि’, ‘मंगल में अमंगल’ आदि में विसंगति-निवारण, ‘तालीम’ और ‘सेवार्थी’ में बाल मनोविज्ञान, ‘अहतियात’ तथा ‘फूलोंवाली सुबह’में संस्कारहीनता, ‘तीमारदारी’, ‘विच्छेद’ आदि में दायित्वहीनता, ‘आत्मरक्षा’ में स्वावलंबन, ‘मुग्धानायिका’ में अंधमोह को केंद्र में रखकर कहानीकार ने सकारात्मक संदेष दिया है।
सुमन जी की कहानियों का वैशिष्ट्य उनमें व्याप्त शुभत्व है। वे गुण-अवगुण के चित्रण में अतिरेकी नहीं होतीं। कालिमा की न तो अनदेखी करती हैं, न भयावह चित्रण कर डराती हैं अपितु कालिमा के गर्भ में छिपी लालिमा का संकेत कर ‘सत-शिव-सुंदर’ की ओर उन्मुख होने का अवसर पाने की इच्छा पाठक में जगााती हैं। उनकी आगामी कृति में उनके कथा-कौशल का रचनामृत पाने की प्रतीक्षा पाठक कम मन में अनायास जग जाती है, यह उनकी सफलता है।
८.४.२०१६
...
मुक्तिका:
.
दिल में पड़ी जो गिरह उसे खोल डालिए
हो बाँस की गिरह सी गिरह तो सम्हालिए
रखिये न वज्न दिल पे ज़रा बात मानिए
जो बात सच है हँस के उसे बोल डालिए
है प्यार कठिन, दुश्मनी करना बहुत सरल
जो भाये न उस बात को मन से बिसारिये
संदेह-शुबह-शक न कभी पालिए मन में
क्या-कैसा-कौन है विचार, तौल डालिए
जिसकों भुलाना आपको मुश्किल लगे 'सलिल'
उसको न जाने दीजिए दिल से पुकारिए
दूरी को पाट सकना हमेशा हुआ कठिन
दूरी न आ सके तनिक तो झोल डालिए
कर्जा किसी तरह का हो, आये न रास तो
दुश्वारियाँ कितनी भी हों कर्जा उतारिये
***
मुक्तिका:
.
मंझधार में हो नाव तो हिम्मत न हारिए
ले बाँस की पतवार घाट पर उतारिए
मन में किसी के फाँस चुभे तो निकाल दें
लें साँस चैन की, न खाँसिए-खखारिए
जो वंशलोचनी है वही नेह नर्मदा
बन कांस सुरभि-रज्जु से जीवन संवारिए
बस हाड़-माँस-चाम नहीं, नारि शक्ति है
कर भक्ति प्रेम से 'सलिल' जीवन गुजारिए
तम सघन हो तो निकट मान लीजिए प्रकाश
उठ-जाग कोशिशों से भोर को पुकारिए
८.४.२०१५
***
मुक्तिका
अम्मी
0
माहताब की जुन्हाई में
झलक तुम्हारी पाई अम्मी
दरवाजे, कमरे आँगन में
हरदम पडी दिखाई अम्मी
कौन बताये कहाँ गयीं तुम
अब्बा की सूनी आँखों में
जब भी झाँका पडी दिखाई
तेरी ही परछाईं अम्मी
भावज जी भर गले लगाती
पर तेरी कुछ बात और थी
तुझसे घर अपना लगता था
अब बाकी पहुनाई अम्मी
बसा सासरे केवल तन है
मन तो तेरे साथ रह गया
इत्मीनान हमेशा रखना-
बिटिया नहीं परायी अम्मी
अब्बा में तुझको देखा है
तू ही बेटी-बेटों में है
सच कहती हूँ, तू ही दिखती
भाई और भौजाई अम्मी.
तू दीवाली, तू ही ईदी
तू रमजान फाग होली है
मेरी तो हर श्वास-आस में
तू ही मिली समाई अम्मी
000
दोहा सलिला
ठिठुर रहा था तुम मिलीं, जीवन हुआ बसंत
दूर हुईं पतझड़ हुआ, हेरूँ हर पल कन्त
तुम मैके मैं सासरे, हों तो हो आनंद
मैं मैके तुम सासरे, हों तो गाएँ छन्द
तू-तू मैं-मैं तभी तक, जब तक हों मन दूर
तू-मैं ज्यों ही हम हुए, साँस हुई संतूर
0
दो हाथों में हाथ या, लो हाथों में हाथ
अधरों पर मुस्कान हो, तभी सार्थक साथ
0
नयन मिला छवि बंदकर, मून्दे नयना-द्वार
जयी चार, दो रह गये, नयना खुद को हार
८.४.२०१३
000
नवगीत:
समाचार है...
*
बैठ मुड़ेरे चिड़िया चहके'
समाचार है.
सोप-क्रीम से जवां दिख रही
दुष्प्रचार है...
*
बिन खोले- अख़बार जान लो,
कुछ अच्छा, कुछ बुरा मान लो.
फर्ज़ भुला, अधिकार माँगना-
यदि न मिले तो जिद्द ठान लो..
मुख्य शीर्षक अनाचार है.
और दूसरा दुराचार है.
सफे-सफे पर कदाचार है-
बना हाशिया सदाचार है....
पैठ घरों में टी. वी. दहके
मन निसार है...
*
अब भी धूप खिल रही उज्जवल.
श्यामल बादल, बरखा निर्मल.
वनचर-नभचर करते क्रंदन-
रोते पर्वत, सिसके जंगल..
घर-घर में फैला बजार है.
अवगुन का गाहक हजार है.
नहीं सत्य का चाहक कोई-
श्रम सिक्के का बिका चार है..
मस्ती, मौज-मजे का वाहक
नित उधर, अ-असरदार है...
*
लाज-हया अब तलक लेश है.
चुका नहीं सब, बहुत शेष है.
मत निराश हो बढ़े चलो रे-
कोशिश अब करनी विशेष है..
अलस्सुबह शीतल बयार है.
खिलता मनहर हरसिंगार है.
मन दर्पण की धूल हटायें-
चेहरे-चेहरे पर निखार है..
एक साथ मिल मुष्टि बाँधकर
संकल्पित करना प्रहार है...
८.४.२०११
***
हास्य दोहे:
*
बेचो घोड़े-गधे भी, सोओ होकर मस्त.
खर्राटे ऊँचे भरो, सब जग को कर त्रस्त..
*
कौन किसी का सगा है, और पराया कौन?
जब भी चाहा जानना, उत्तर पाया मौन
*
दूर रहो उससे सदा, जो धोता हो हाथ.
गर पीछे पड़ जायेगा, मुश्किल होगा साथ..
*
टाँग अड़ाना है 'सलिल', जन्म सिद्ध अधिकार.
समझ सको कुछ या नहीं, दो सलाह हर बार..
*
देवी इतनी प्रार्थना, रहे हमेशा होश
काम 'सलिल' करता रहे, घटे न किंचित जोश
*
देवी दर्शन कीजिए, भंडारे के रोज
देवी खुश हो जब मिले, बिना पकाए भोज

*
हर ऊँची दूकान के, फीके हैं पकवान
भाषण सुन कर हो गया, बच्चों को भी ज्ञान
*
नोट वोट नोटा मिलें, जब हों आम चुनाव
शेष दिनों मारा गया, वोटर मिले न भाव
८.४.२०१०
***

सोमवार, 26 जून 2023

नवीन सी. चतुर्वेदी, हिंदी गजल, धानी चुनर

कृति चर्चा
'धानी चुनर' : हिंदी गजल का लाजवाब हुनर
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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(कृति विवरण- धानी चुनर, हिंदी ग़ज़ल संग्रह, नवीन सी. चतुर्वेदी, प्रथम संस्करण 2022, पृष्ठ 95, मूल्य ₹150, आवरण पेपरबैक, बहुरंगी, प्रकाशक आर. के. पब्लिकेशन मुंबई)
                      हिंदी में ग़ज़ल मूलतः फारसी से आयातित साहित्यिक सृजन विधा है जिसे हिंदी ने आत्मार्पित किया है। ग़ज़ल का शिल्प और विधान दोनों फारसी से आते हैं। हर भाषा की अपने कुछ खासियतें होती हैं। फारसी से आने के कारण ग़ज़ल में भी फारसी की विशेषताएँ अंतर्निहित हैं। जब एक भाषा की साहित्यिक विधा को दूसरी भाषा स्वीकार करती है तो स्वाभाविक रूप से उसमें अपनी प्रवृत्ति, संस्कार, व्याकरण और पिंगल को आरोपित करती है। हिंदी ग़ज़ल भी इसी प्रक्रिया से गुजर रही है। भारत के पश्चिमोत्तर प्रांतों की भाषाओं और फारसी के मिश्रण से जो जुबान सैनिक छावनियों में विकसित हुई वह 'लश्करी' कही गई। आम लोगों से बातचीत के लिए यह जुबान देशज शब्द-संपदा ग्रहण कर रोजमर्रा के काम-काज की भाषा 'उर्दू' हो गई। ग़ज़ल को हिंदी में कबीर और खुसरो आम लोगों तक पहुँचाया। हिंदी में ग़ज़ल ने कई मुकाम हासिल किए। इस दौरान उसे गीतिका, मुक्तिका, तेवरी, सजल, पूर्णिका, अनुगीत इत्यादि नाम दिए गए और आगे भी कई नाम दिए जाएंगे। इसका मूल कारण यह है कि गजल हर रचनाकार को अपनी सी लगती है और इस अपनेपन को वह एक नया नाम देकर जाहिर करता है पर ग़ज़ल तो ग़ज़ल थी, है और रहेगी। 

हिंदी ग़ज़ल को 'तंग गली' कहनेवाले मिर्जा गालिब और 'कोल्हू का बैल' कहकर नापसंद करनेवाले कहनेवाले शायरों को भी ग़ज़ल कहनी पड़ी और वक्त ने उन्हें ग़ज़लकार के रूप में ही याद रखा। कहते हैं 'मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना'। हिंदी ग़ज़ल को मैंने इस रूप में समझा है -

ब्रह्म से ब्रह्मांश का संवाद है हिंदी ग़ज़ल
आत्म की परमात्म से फरियाद है हिंदी ग़ज़ल
मत 'गजाला चश्म' कहना, यह 'कसीदा' भी नहीं
छंद गण लय रसों की औलाद है हिंदी ग़ज़ल

बकौल नवीन चतुर्वेदी- 

ओढ़कर धानी चुनर हिंदी ग़ज़ल
बढ़ रही सन्मार्ग पर हिंदी ग़ज़ल
विश्व कविता ने चुना जिस पंथ को
है उसी पर अग्रसर हिंदी ग़ज़ल
भीड़ ने जिस पंथ को रस्ता कहा
लिख रही उसको डगर हिंदी ग़ज़ल
हत हुई गरिमा तो मन आहत हुआ
उठ खड़ी होकर मुखर हिंदी ग़ज़ल
देव भाषा की सलोनी संगिनी 
मूल स्वर में है प्रबल हिंदी ग़ज़ल

19 मात्रिक महापौराणिक जातीय छंद में दी गई ग़ज़ल की यह परिभाषा वास्तव में सटीक है।  'धानी चुनर' की ग़ज़लों की भाषा संस्कृत निष्ठ हिंदी है जबकि ग़ज़ल की कहन फारसी की बह्रों पर आधारित है। मैंने ऐसे कई हिंदी ग़ज़ल संकलन देखे हैं जिनमें इसके सर्वथा विपरीत फारसी शब्द बाहुल्य की रचनाएँ हिंदी छंदों में मिली हैं। मुझे हिंदी ग़ज़ल के इन दो रूपों में अंतर्विरोध नहीं दिखता अपितु वह एक दूसरे की पूरक प्रतीत होती हैं

नवीन जी की गजलों की खासियत गज़लियत और शेरियत से युक्त होना है। आमतौर पर गजल के नाम पर या तो अत्यधिक वैचारिक रचनाएं प्राप्त होती हैं अथवा केवल तुकबंदी। संतोष है कि नवीन जी की ये गजलें दोनों दोषों से मुक्त अपनी ही तरह की हैं जिनकी समानता किसी अन्य से स्थापित कर पाना सहज नहीं। इन ग़ज़लों की हर द्विपदी (शेर) सार्थक है। ये ग़ज़लें शब्दों को उसके शब्दकोशीय अर्थ से परे नवीन अर्थ में स्थापित करती हैं।  
  
नवीन जी की एक ग़ज़ल जो महापुराणजातीय दिंडी छंद में लिखी गई है उस का आनंद लें-
 
नदी के पार उतरना है गुरुजी 
हमें यह काम करना है गुरु जी 
विनय पथ का वरण करके हृदय का 
सकल संताप हरना है गुरुजी 
घुमाएँ आप अपनी चाक फिर से 
हमें बनना-सँवरना है गुरुजी

इस कंप्यूटर काल में 'चाक' की चर्चा कर नवीन जी उस समय की सार्थकता बताना चाहते हैं जहाँ ऑनलाइन कक्षाएँ नहीं होती थीं,  गुरु और शिष्य साथ में बैठकर शिक्षा देते और लेते थे। 

एक और गजल देखें यह गजल विभिन्न पंक्तियों में अलग-अलग पदभार समाहित करती है और इसकी अलग-अलग पंक्तियों में अलग-अलग छंद हैं। 

हृदय को सर्वप्रथम निर्विकार करना था 
तदोपरांत विषय पर विचार करना था 
कदापि ध्यान में थी ही नहीं दशा उसकी 
नदी में हमको तो बस जलविहार करना था

वर्तमान राजनीति में जनहित की ओर कोई ध्यान न होने और नेताओं के द्वारा जनसेवा का पाखंड करने को नवीन ने जलविहार के माध्यम से बहुत अच्छी तरह व्यक्त किया है। 

यौगिक जातीय विधाता छंद में रची गई एक और रचना देखें जिसमें सामाजिक पाखंड को उद्घाटित किया गया है- 

व्यर्थ साधो बन रहे हो कामना तो कर चुके हो 
उर्वशी से प्रेम की तुम याचना तो कर चुके हो 
पंच तत्वों से विनिर्मित जग नियम ही से चलेगा 
वर्जना के हेतु समझो गर्जना तो कर चुके हो

यहां नवीन जी सामाजिक संदर्भ में 'वर्जना' के द्वारा मानवीय आचरण के प्रति चेतावनी देते हैं।  यह ग़ज़ल 'मुस्तफउलन' की चार आवृत्तियों या 'फ़ाइलातुन' की चार आवृत्तियों के माध्यम से रची जा सकती है। इससे  प्रमाणित होता है कि उर्दू की बहरें, मूलत: भारतीय छंदों से ही नि:सृत हैं। 

प्रेम और करुणा को एक साथ मिलाते हुए नवीन जी महाभागवत जातीय छंद में कहते हैं-
 
मीरा और गिरधर जैसी गरिमा से छूना था 
प्रीत अगर सच्ची थी तो करुणा से छूना था 
जैसे नटनागर ने स्पर्श किया राधा का मन 
उसका अंतस वैसी ही शुचिता से छूना था

नवीन जी  महाभागवत जाति के विष्णुपद छंद का प्रयोग करते हुए इस ग़ज़ल में पर्यावरण और राजनीति के प्रति अपनी चिंता व्यक्त करते हैं- 

जब जब जंगल के मंगल पर कंटक आते हैं 
विश्वामित्र व्यवस्थाओं पर प्रश्न उठाते हैं 
सहसभुजी जब-जब जनधन हरकर ले जाते हैं 
भृगुवंशी जैसे योद्धा कर्तव्य निभाते हैं 
जब-जब सत्ता धृतराष्ट्रों की दासी बनती है 
तब तब शरशैया पर भीष्म लिटाए जाते हैं 

इस ग़ज़ल में 'सहसभुजी' शब्द का प्रयोग, देशज शब्दों के प्रति नवीन जी के लगाव को जाहिर करता है जबकि विश्वामित्र, भगवान, श्री जगदीश दुष्यंत, शकुंतला, चरक इत्यादि पौराणिक पात्रों के माध्यम से नवीन इस युग की समस्याओं को उठाते हैं। 

महापुराण जातीय सुमेरु छंद में नवीन की यह ग़ज़ल मानवीय संवेदना और संभावनाओं को उद्घाटित कर दोनों का अंतरसंबंध बताती है- 

जहां संवेदना संभव नहीं है 
वहां संभावना संभव नहीं है 
जड़ों को त्यागना संभव नहीं है 
नियति की वर्जना संभव नहीं है 
स्वयं जगदीश की हो या मनुज  की 
सतत आराधना संभव नहीं है 

महा पौराणिक जाति का दिंडी छंद नवीन का प्रिय छंद है। इसी छंद में वे व्यंजना में अपनी बात करते हैं- 

इस कला में हम परम विश्वस्त हैं 
काम तो कुछ भी नहीं पर व्यस्त हैं 
मित्र यह उपलब्धि साधारण नहीं 
त्रस्त होकर भी अहर्निश मस्त हैं 
आप सिंहासन सुशोभित कीजिए 
हम पराजय के लिए आश्वस्त हैं 

यहाँ नवीन जी राजनीतिक वातावरण को जिस तरह संकेतित करते हैं, वह दुष्यंत कुमार की याद दिलाता है। 

महाभागवत जातीय गीतिका छंद में नवीन जी मानवीय प्रयासों की महिमा स्थापित करते हैं-

कर्मवीरों के प्रयासों को डिगा सकते नहीं 
शब्द संधानी पहाड़ों को हिला सकते नहीं 
अस्मिता का अर्थ बस उपलब्धि हो जिनके लिए 
इस तरह के झुंड निज गौरव बचा सकते नहीं

नवीन जी की ग़ज़लों में भाषिक प्रवाह, भाव बौली तथा रस वैविध्य उल्लेखनीय है-

प्रश्न करना किसी विषय के मंथन का सबसे अच्छा तरीका है। यौगिक जातीय सार छंद में रचित इस रचना में नवीन प्रश्नों के माध्यम से ही अपनी बात कहते हैं-

मान्यवर का प्रश्न है दिन रात का आधार क्या है 
और ये दिन-रात हैं इस बात का आधार क्या है 
एक और अद्भुत अनोखा प्रश्न है श्रीमान जी का 
ज्ञात का आधार क्या अज्ञात का आधार क्या है 
एक हैं जयचंद वे भी  पूछते हैं प्रश्न अद्भुत 
हमको यह बताओ भितरघात का आधार क्या है

नवीन चतुर्वेदी की हर ग़ज़ल पाठक को ना केवल बाँधती है अपितु चिंताऔर चिंतन की ओर प्रवृत्त करती है। हिंदी ग़ज़ल को सिर्फ मनोरंजन की दृष्टि से नहीं देखा जा सकता।  एक और ग़ज़ल में नवीन यौगिक जातीय विद्या छंद में अपनी बात कहते हैं- 

तुच्छ बरसाती नदी गंगा नदी जैसी लगी है 
मोह में तो बेसुरी भी बाँसुरी जैसी लगे है
जामुनी हो या गुलाबी गौर हो या श्याम वर्णा  
यामिनी में कामिनी सौदामिनी जैसी लगी है

'यामिनी', 'कामिनी', 'सौदामिनी' जैसे शब्दों का चयन नवीन जी का शब्द-सामर्थ्य  बताता है और पाठक को अनुप्रास अलंकार का रसानंद  करा देता है।  नवीन शब्दों के जादूगर हैं, वह शब्दों के माध्यम से वह सब कह पाते हैं जो कहना चाहते हैं।  बहुधा शब्द की शब्दकोशीय मर्यादा को बौना करते हुए नवीन अधिक गहरा अर्थ अपनी गजलों के माध्यम से देते हैं। योगेश जातीय विद्या छंद में ही उनकी एक और ग़ज़ल देखें- 
आकलन की बात थी सो मौन रहना ही उचित था 
अध्ययन की बात थी सो मौन रहना ही उचित था 
तीन डग में विष्णु ने तीनों भवन को नाप डाला 
आयतन की बात थी सो मौन रहना ही उचित था

नवीन जी अनुचित कार्योंको देखते हुए भी अनदेखा करने की आम जन की रीति-नीति और सत्ता व्यवस्था को व्यंजना के माध्यम से अभिव्यक्त करते है। यह व्यंजना मन को छू जाती है। कहते हैं राजनीति किसी की सगी नहीं होती। नवीन की गजलों में राजनीति पर कई जगह केवल कटाक्ष नहीं किए गए हैं अपितु राजनीति का सत्य सामने लाया गया है। एक उदाहरण  देखें-  

आधुनिक संग्राम के कुछ उद्धरण ऐसे भी हैं 
शांति समझौते किए ग्रह युद्ध करवाया गया 
पहले तो जमकर हुआ उनका अनादर और फिर 
जो कहा करते थे सबसे बुद्ध करवाया गया

इसी ग़ज़ल के अंतिम शेर में नवीन जी 'दुर्गा' शब्द का उपयोग कर अपनी बात अनूठे ढंग से कहते हैं-

दुर्गा भवानी यूं ही थोड़ी ही बनी 
सीधी-सादी नारियों से युद्ध करवाया गया

स्पष्ट है दृश्य जैसा दिखता है वैसा होता नहीं, वैसा दिखाने के लिए चतुरों द्वारा अनेक जतन किए जाते हैं और नवीन अपनी गजलों के माध्यम से इन्हीं चतुरों की चतुराई को बिना बख्शे उस पर शब्दाघाट करते हैं। इस संक्रांतिकाल में जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर 'आस्था पर चोट' की आड़ में हमले किए जा रहे हैं, अनुभूत सत्य की बेलाग अभिव्यक्ति के लिए साहस आवश्यक है। नवीन जी अभिनंदनीय हैं कि वे खतरा उठाकर भी युग सत्य सामने ला रहे हैं।   

बहुधा हम अपने आप को उन सब गुणों का भंडार मान लेते हैं जो हम में होते नहीं हैं। इस भ्रम का उद्घाटन करते हुए नवीन जी कहते हैं -

गंध से सुरभित सकल उद्यान हैं 
पुष्प को लगता है वह गुणवान है 
जब स्वयं जगदीश को भी है नहीं 
आपको किस बात का अभिमान है 

इसी गजल के अंतिम शेर में नवीन कहते हैं- 

रूद्र बनना है तो बन पर भूल मत 
शंभु के प्रारब्ध में विषपान है

स्पष्ट ही ग़ज़लकार बताना चाहता है कि जो लोग बहुत सुखी दिखते हैं वास्तव में होते नहीं। नवीन जी की यह गजलें पंक्ति पंक्ति में योजनाओं को विडंबनाओं को उद्घाटित करती हैं, विसंगतियों पर कटाक्ष करती हैं- 

मूर्तियों के अंग अंग ही न मात्र भग्न थे 
मूर्तियों को भग्न करनेवाले भी कृतघ्न थे 
उनकी रक्त धमनियों में राक्षसी प्रमाद था
क्या बताएँ उनके संस्कार ही प्रभग्न थे 

इस संकलन का शीर्षक 'धानी चुनर' बहुत कुछ कहता है।  चुनर लाज को ढकती है, चुनर की ओट में अनेक सपने पलते हैं और जब यह चुनर अपनों के द्वारा तार-तार की जाती है तब कोई द्रौपदी किसी कृष्ण का आह्वान करने को विवश होती है। गज़लकार कहता है- 

मान्यवरों! जनता के हित को ताक पर रखना अनुचित है 
भोले भाले जन-जीवों को मूर्ख समझना अनुचित है 
भरी सभा के मध्य निहत्थे कृष्ण यही दोहराते हैं 
प्रजा दुखी हो तो गद्दी से चिपके रहना अनुचित है

वर्तमान परिवेश में आकाश छूती मँहगाईऔर आम आदमी के खाली जेबों  के परिप्रेक्ष्य में सत्तासीनों के लिए यह शेर वास्तव में चिंतनीय होना चाहिए- 

यदा-कदा यदि विलासिता पर कर का भार बड़े तो ठीक 
खाद्य पदार्थों के भागों का अनहद बढ़ना अनुचित है 

यहाँ 'अनहद' शब्द का प्रयोग नवीन की भाषिक दक्षता का प्रमाण है। सामान्य तौर पर 'अनहद' (नाद) के द्वारा हम आध्यात्मिक संदर्भ में बात करते हैं लेकिन उस 'अनहद' शब्द को यहाँ मँहगाई के संदर्भ में उपयोग करना वास्तव में एक मौलिक प्रयोग हो जो मैंने इसके पहले कभी कहीं नहीं पढ़ा है।  

नवीन की 'धानी चुनर' का हर पृष्ठ नवीन भावनाओं को उद्घाटित करता है ,नवीन विसंगतियां सामने लाता है और बिना कहे ही नवीन समाधान का संकेत करता है- 

भव्य भावनाओं को व्यक्त सब करते नहीं 
निज उपासनाओं को व्यक्त सब करते नहीं 
सब को ठेस लगती है सब को कष्ट होता है 
किंतु यातनाओं को व्यक्त सब करते नहीं
सबके पास कौशल है, सब के पास दलबल है 
किंतु योजनाओं को व्यक्त सब करते नहीं 

ख़ास ही नहीं आमजन से भी नवीन का शायर आंख में आंख मिलाकर बात करता है- 

दिग्भ्रमित जग से उलझ कर क्या मिला है क्या मिलेगा 
आत्म चिंतन कीजिए श्रीमान श्रेयस्कर यही है 

यह आत्म चिंतन करने की इस युग में सबसे अधिक आवश्यकता हम सभी को है और नवीन इस बात को बेधड़क कहते हैं, ताल ठोंकर कहते हैं।  

छांदस ग़ज़ल की संरचना में प्रवीण नवीन जी ने छोटी मापनी की एक ग़ज़ल में गागर में सागर भर दिया है-

ज्योति की उन्नायिका ने 
हर लिया तुम वर्तिका ने 
पृष्ठ तो पूरा धवल था 
रंग उकेरे तूलिका ने 
चक्षु मन के खुल गए हैं 
भेद खोले पुस्तिका ने  
संतुलन को भूलना मत 
कह दिया है चर्चिका ने 

यहाँ 'चर्चिका' शब्द का प्रयोग नवीन के शब्द भंडार को इंगित करता है। चर्चिका का अर्थ है शिव की तीसरी आंख और यह शब्द अलप प्रचलित है जिसे नवीन जी ने बहुत अच्छी तरह उपयोग किया है। इसी तरह एक और शब्द है जिसका प्रयोग बहुत कम होता है और वह है 'बिपाशा' जिसका अर्थ होता है नदी। नवीन जी ने इस शब्द का भी प्रयोग सार्थक तरीके से किया है- भोर का सुख लगे हैं बिपाशा सदृश।  

'धानी चुनर' का धानीपन उसकी रसीली एवं रचनात्मक हिंदी गजलों में है। ये ग़ज़लें वास्तव में हिंदी ग़ज़ल के पाठकों को रस आनंद से भावविभोर करने में समर्थ हैं। यह विस्मय की बात है कि 2022 में प्रकाशित इस संकलन की चर्चा लगभग नहीं हुई है।  मैं हिंदी ग़ज़ल के हर कद्रदान से यह कहना चाहूंगा कि वह 'धानी चुनर' की एक प्रति खरीद कर जरूर पढ़े। उसे इस दीवान में एक संभावना पूर्ण ग़ज़लकार ही नहीं मिलेगा, गजल के उद्यान में खिले हुए विभिन्न रंगों के सुमन ओ की मनोहारी सुगंध भी मिलेगी जो उसके मन प्राण को रस आनंद के माध्यम से परमानंद तक ले जाने में समर्थ है।  
*
संपर्क- आचार्य ' सलिल', सभापति विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, वॉट्सऐप ९४२५१८३२४४, ईमेल salil.sanjiv@gmail.com 

बुधवार, 20 जुलाई 2022

सॉनेट, हिंदी गजल

[20/7, 16:09] आचार्य संजीव वर्मा "सलिल": सॉनेट 
मधुर 
मधुर मधुर मुस्कान मनोहर
है गोपाल कृष्ण कण-कण में
छलिया छिपा हुआ तृण-तृण में
नटखट नटवर धरा धरोहर

पथिक  न जिसने थकना जाना
तरुण अरुण सम श्याम सलौना 
उस बिन जीवन लगे अलौना
दुनिया दिखी मुसाफ़िरखाना

रास-हास पर्याय कृपालु
धेनु धरा धुन धर्म रसालु
रेणु-वेणु सँग रमा दयालु

धारा राधा ने अँसुअन में
राधा को धारा चुप मन में
व्यथा छिपा खंजन नैनन में 
२०-७-२०२२
•••
[20/7, 16:09] आचार्य संजीव वर्मा "सलिल": मुक्तिका
हिंदी गजल
सत्य की पहचान है हिंदी गजल
राम है, रहमान है हिंदी गजल

स्वेद श्रम कोशिश सफलता विफलता
मनुज का अरमान है हिंदी गजल

कथा कविता गीत वेद पुराण के
कथ्य का गुणगान है हिंदी गजल

सुर असुर नर यक्ष किन्नर आदि की
संस्कृति का मान है हिंदी गजल

देश खातिर सिर कटाती रह विहँस
शहीदी बलिदान है हिंदी गजल

नदी वन गिरि खेत पनघट डगर है
फैक्ट्री-खलिहान है हिंदी गजल

भू सलिल नभ पवन पावक सृष्टि है
दृष्टि का वरदान है हिंदी गजल

छंद रस लय अलंकारों से सजी
सुगृहणी मतिमान है हिंदी गजल

सत्य-शिव-सुंदर, सच्चिदानंद भी
ज्ञान है, विज्ञान है हिंदी गजल
२०-७-२०२२
•••

बुधवार, 21 अक्टूबर 2020

समीक्षा - रात अभी स्याह नहीं, अरुण अर्णव खरे, हिंदी गजल

पुस्तक सलिला –
‘रात अभी स्याह नहीं’ आशा से भरपूर गजलें
आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
*
[पुस्तक विवरण –
रात अभी स्याह नहीं, अरुण अर्णव खरे, हिंदी गजल संग्रह, प्रथम संस्करण २०१५, ISBN९७८-८१-९२५२१८-५-५, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी, पेपरबैक, पृष्ठ ८०, मूल्य १५०/-, गुफ्तगू प्रकाशन१२३ ए /१, ७ हरवारा, धूमनगंज, इलाहाबाद२११०११, दूरभाष ०७५५ ४२४३४४५, रचनाकार सम्पर्क – डी १/३५ दानिश नगर, होशंगाबाद मार्ग भोपाल २६, चलभाष ९८९३००७७४४]
*
मानव और अमानव के मध्य मूल अंतर अनुभूतियों को व्यवस्थित तरीके से व्यक्त कर पण और न कर पाना है. अनुभूतियों को व्यक्त करने का माध्यम भाषा है. गद्य और पद्य दो विधाएँ हैं जिनके माध्यम से अनुभूति को व्यक्त किया जाता है. आरम्भ में वाचिक अभिव्यक्ति ही अपनी बात प्रस्तुत करने का एक मात्र तरीका था किंतु लिपि विकसित होने के साथ-साथ अभिव्यक्ति का अंकन भी संभव हो सका. क्रमश: व्याकरण और पिंगल का विकास हुआ. पिंगल ने विविध पद्य प्रारूपों और छंदों को वर्गीकृत कर लेखन के नियमादि निर्धारित किये. विद्वज्जन भले ही लेखन का मूल्यांकन नियम-पालन के आधार पर करें, जनगण तो अनुभूतियों की अभिव्यक्ति और व्यक्त अनुभूतियों की मर्मस्पर्शिता को ही अधिक महत्व देता है. ‘लेखन के लिए नियम’ या ‘नियम के लिए लेखन’? ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता’ की तरह इस विमर्श का भी कोई अंत नहीं है.
विवेच्य कृति ‘रात अभी स्याह नहीं’ गजल शिल्प की अभिव्यक्ति प्रधान ७० रचनाओं तथा कुछ दोहों को समेटे है. रचनाकार अभियंता अरुण अर्णव खरे अनुभूति के प्रागट्य को प्रधान तथा शैल्पिक विधानों को द्वितीयिक वरीयता देते हुए, हिंदी के भाषिक संस्कार के अनुरूप रचना करते हैं. गजल कई भाषाओँ में लिखी जानेवाली विधा है. अंग्रेजी, जापानी, जर्मन, रुसी, चीनी, तमिल, तेलुगु आदि भाषाओँ में गजल लिखी जाते समय तुकांत-पदांत के उच्चारण साम्य को पर्याप्त माना जाता है किन्तु हिंदी गजल की बात सामने आते ही अरबी-फारसी के अक्षरों, व्याकरण-नियमों तथा मान्यताओं के निकष पर मूल्यांकित कर विवेचक अपनी विद्वता और रचनाकार की असामर्थ्य प्रमाणित करने का प्रयास करते हैं. अरुण जी आत्म-कथन में नम्रतापूर्वक किन्तु स्पष्टता के साथ अनुभवों की अभिव्यक्ति से प्राप्त आत्म-संतोष को अपने काव्य-लेखन का उद्देश्य बताते हैं.
डॉ.राहत इंदौरी के अनुसार ‘शायरी के बनाए हुए फ्रेम और ग्रामर पर वो ज्यादा तवज्जो नहीं देते’. यह ग्रामर कौन सा है? अगर उर्दू का है तो हिंदी रचनाकार उसकी परवाह क्यों करे? यदि हिंदी का है तो उसका उल्लंघन कहाँ-कितना है? यह उर्दू शायर नहीं हिंदी व्याकरण का जानकार तय करेगा. इम्त्याज़ अहमद गाज़ी नय्यर आक़िल के हवाले से हिन्दीवालों पर ‘गज़ल के व्याकरण का पालन करने में असफल’ रहने का आरोप लगते हैं. हिंदीवाले उर्दू ग़ज़लों को हिंदी व्याकरण और पिंगल के निकष पर कसें तो वे सब दोषपूर्ण सिद्ध होंगी. उर्दू में तक्तीअ करने और हिंदी में मात्र गिनने की नियम अलग-अलग हैं. उर्दू में मात्रा गिराने की प्रथा को हिंदी में दोष है. हिंदी वर्णमाला में ‘ह’ की ध्वनि के लिए केवल एक वर्ण ‘ह’ है उर्दू में २ ‘हे’ और ‘हम्ज़ा’. दो पदांतों में दो ‘ह’ ध्वनि के दो शब्द जिनमें ‘हे’ और ‘हम्ज़ा’ हों का प्रयोग हिंदी व्याकरण के अनुसार सही है जबकि उर्दू के अनुसार गलत. हिंदी गजलकार से उर्दू-अरबी-फारसी जानने की आशा कैसे की जा सकती है?
अरुण जी की हिंदी गज़लें रस-प्रधान हैं –
सपनों में बतियानेवाले, भला बता तू कौन,
मेरी नींद चुरानेवाले, भला बता तू कौन.
बेटी’ पर २ रचनाओं में उनका वात्सल्य उभरता है-
मुझको होती है सचमुच हैरानी बेटी
इतनी जल्दी कैसे हुई सयानी बेटी?
*
गीत राग संगीत रागिनी
वीणा और सितार बेटी
सामाजिक जीवन में अनुत्तरदायित्वपूर्ण आचरण को स्वविवेक तथा आत्म-संयम से ही नियंत्रित किया जा सकता है-
मस्ती-मस्ती में दिल की मर्यादा बनी रहे
लेनी होगी तुमको भी यह जिम्मेदारी फाग में
अरुण जी की विचारप्रधानता इन रचनाओं में पंक्ति-पंक्ति पर मुखर है. वे जो होते देखते हैं, उसका मूल्यांकन कर प्रतिक्रिया रूप में कवू कविता रचते हैं. छंद के तत्वों (रस, मात्राभार, गण, अलंकार, बिम्ब, प्रतीक) आदि का सम्यक संतुलन उनकी रचनाओं में रवानगी पैदा करेगा. उर्दू के व्यामोह से मुक्त होकर हिंदी छ्न्दाधारित रचनाएँ उन्हें सहज-साध्य और सरस अभिव्यक्ति में अधिक प्रभावी बनाएगी. सहज भावाभिव्यक्ति अरुण जी की विशेषता है.
तुमने आँखों के इशारे से बुलाया होगा
तब ही वह खुद में सिमट, इतना लजाया होगा
खोल दो खिड़कियाँ ताज़ी हवा तो आये, बिचारा बूढ़ा बरगद बड़ा उदास है, ऊँचा उठा तो जमीन पर फिर लौटा ही नहीं, हर बात पर बेबाकी अच्छी नहीं लगती अदि अभिव्यक्तियाँ सम्बव्नाओं की और इंगित करती हैं.
परिशिष्ट के अंतर्गत बब्बा जी, दादी अम्मा, मम्मी, पापा और भैया से साथ न होकर बेटी सबसे विशिष्ट होने के कारण अलग है. 
फूलों-बीच छिड़ी बहस, किसका मोहक रूप
कौन-कौन श्रंगार के, पूजा के अनुरूप
*
सांस-सांस केसर घुली, अंग-अंग मकरंद
अनपढ़ मन कहने लगा, गीत गजल और छंद
अरुण जी के दोहे अधिक प्रभावी हैं. अधिक लिखने पर क्रमश: निखार आयेगा.
संपर्क आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com

मंगलवार, 7 मार्च 2017

muktika

मुक्तिका
पदभार २६ मात्रा
छंद- महाभागवत जातीय
पदांत- रगण, यति १७-९
*
स्वार्थ को परमार्थ या सर्वार्थ कहना आ गया     २६
निज हितों पर देश हित कुर्बान करना भा गया
.
मतलबी हैं हम, न कहना मतलबी हर शख्स है
जब जिसे अवसर मिला वह बिन डकारे खा गया
.
सियासत से सिया-सत की व्यर्थ क्यों उम्मीद है?
हर बशर खुदगर्ज़ है, जो वोट लेने आ गया
.
ऋण उठाकर घी पियें या कर्ज़ की हम मय पियें*
अदा करना ही नहीं है, माल्या सिखला गया
.
जानवर मारें, कुचल दें आदमी तो क्या हुआ?
गवाहों को मिटाकर बचना 'सलिल जी' भा गया
***
* ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत- चर्वाक पन्थ
    कर्ज़ की पीते थे मय - ग़ालिब


शुक्रवार, 18 मार्च 2016

muktika

मुक्तिका
जो लिखा
*
जो लिखा, दिल से लिखा, जैसा दिखा, सच्चा लिखा
किये श्रद्धा सुमन अर्पित, फ़र्ज़ का चिट्ठा लिखा
समय की सूखी नदी पर आँसुओं की अँगुलियों से
दिल ने बेहद बेदिली से, दर्द का किस्सा लिखा
कौन आया-गया कब-क्यों?, क्या किसी को वास्ता?
गाँव अपने, दाँव अपने, कुश्तियाँ-घिस्सा लिखा
किससे क्या बोलें कहों हम?, मौन भी कैसे रहें?
याद की लेकर विरासत, नेह का हिस्सा लिखा
आँख मूँदे, जोड़ कर कर, सिर झुका कर-कर नमन
है न मन, पर नम नयन ले, पुराना रिश्ता लिखा
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गुरुवार, 3 मार्च 2016

muktika

मुक्तिका:
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जब भी होती है हव्वा बेघर 
आदम रोता है मेरे भीतर
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आरक्षण की फाँस बनी बंदूक
जले घोंसले, मरे विवश तीतर 
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बगुले तालाबों को दे धाढ़स  
मार रहे मछली घुसकर भीतर 
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नहीं चेतना-चिंतन संसद में 
बजट निचोड़े खूं थोपे जब कर 
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खुद के हाथ तमाचा गालों पर 
मार रहे जनतंत्र अश्रु से तर 
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पीड़ा-लाश सियासत का औज़ार 
शांति-कपोतों के कतरें नित पर 
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भक्षक के पहरे पर रक्षक दीन 
तक्षक कुंडली मार बना अफसर 
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बुधवार, 2 मार्च 2016

muktika

मुक्तिका:
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तुम कैसे जादू कर देती हो 
भवन-मकां में आ, घर देती हो 
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रिश्तों के वीराने मरुथल को 
मंदिर होने का वर देती हो 
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चीख-पुकार-शोर से आहत मन 
मरहम, संतूरी सुर देती हो 
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खुद भूखी रह, अपनी भी रोटी 
मेरी थाली में धर देती हो 
*
जब खंडित होते देखा विश्वास  
नव आशा निशि-वासर देती हो 
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नहीं जानतीं गीत, ग़ज़ल, नवगीत 
किन्तु भाव को आखर देती हो 
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'सलिल'-साधना सफल तुम्हीं से है 
पत्थर पल को निर्झर देती हो 
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शुक्रवार, 1 जनवरी 2016

muktika

मुक्तिका
निराला हो
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जैसे हुए, न वैसा ही हो, अब यह साल निराला हो
मेंहनतकश ही हाथों में, अब लिये सफलता प्याला हो
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उजले वसन और तन जिनके, उनकी अग्निपरीक्षा है
सावधान हों सत्ता-धन-बल, मन न तनिक भी काला हो
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चित्र गुप्त जिस परम शक्ति का, उसके पुतले खड़े न कर
मंदिर-मस्जिद के झगड़ों में, देव न अल्लाताला हो
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कल को देख कलम कल का निर्माण आज ही करती है
किलकिल तज कलकल वरता मन-मंदिर शांत शिवाला हो
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माटी तन माटी का दीपक बनकर तिमिर पिये हर पल
आये-रहे-जाए जब भी तब चारों ओर उजाला हो
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क्षर हो अक्षर को आराधें, शब्द-ब्रम्ह की जय बोलें
काव्य-कामिनी रसगगरी, कवि-आत्म छंद का प्याला हो
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हाथ हथौड़ा कन्नी करछुल कलम थाम, आराम तजे
जब जैसा हो जहाँ 'सलिल' कुछ नया रचे, मतवाला हो
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मंगलवार, 15 दिसंबर 2015

muktika

 एक मुक्तिका:
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शब्द का अक्षरों से निवेदन है
काव्य है कर्म दूरी के विलय का
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महक अन्याय की है न्याय लाया
तपिश हो खूब ज्यों हिस्सा मलय का
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राज रोकर न, रुलाकर करें जो
राज क्या बोलिए उनकी विजय का?
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सभ्य ऐसा हुआ है देश सारा
करे वन्दन सतत मिलकर अनय का
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बाढ़ तूफ़ान पर्वत धँस रहे हैं
सामना किस तरह करिए प्रलय का?
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