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शनिवार, 17 सितंबर 2011

युग की विभूति: "स्वर्गीय हनुमान प्रसाद पोद्दार !" प्रियांजलि शर्मा

स्मृति शेष:                                                      
"स्वर्गीय हनुमान प्रसाद पोद्दार !"
प्रियांजलि शर्मा 

 इस देश में संत महात्माओं की कमी नहीं, शाही जिंदगी जीने वाले और कॉरेपोरेट घरानों के लिए कथा करने वाले इन संत- महात्माओं ने अपने ऑडिओ-वीडिओ जारी करने, अपनी शोभा यात्राएं निकालने, अपने नाम और फोटो के साथ पत्रिकाएं प्रकाशित करने और टीवी चैनलों पर समय खरीदकर अपना चेहरा दिखाकर जन मानस में अपना प्रचार करने के अलावा कुछ नहीं किया। मगर इस देश के सभी संत और महात्मा मिलकर भी गीता प्रेस गोरखपुर के संस्थापक कर्मयोगी स्वर्गीय हनुमान प्रसाद पोद्दार की जगह नहीं ले सकते। शायद आज की पीढ़ी को तो पता ही नहीं होगा कि भारतीय अध्यात्मिक जगत पर हनुमान पसाद पोद्दार नामका एक ऐसा सूरज उदय हुआ जिसकी वजह से देश के घर-घर में गीता, रामायण, वेद और पुराण जैसे ग्रंथ पहुँचे सके।

आज `गीता प्रेस गोरखपुर' का नाम किसी भी भारतीय के लिए अनजाना नहीं है। सनातन हिंदू संस्कृति में आस्था रखने वाला दुनिया में शायद ही कोई ऐसा परिवार होगा जो गीता प्रेस गोरखपुर के नाम से परिचित नहीं होगा। इस देश में और दुनिया के हर कोने में रामायण, गीता, वेद, पुराण और उपनिषद से लेकर प्राचीन भारत के ऋषियों -मुनियों की कथाओं को पहुँचाने का एक मात्र श्रेय गीता प्रेस गोरखपुर के संस्थापक भाईजी हनुमान प्रसाद पोद्दार को है। प्रचार-प्रसार से दूर रहकर एक अकिंचन सेवक और निष्काम कर्मयोगी की तरह भाईजी ने हिंदू संस्कृति की मान्यताओं को घर-घर तक पहुँचाने में जो योगदान दिया है, इतिहास में उसकी मिसाल मिलना ही मुश्किल है। भारतीय पंचांग के अनुसार विक्रम संवत के वर्ष १९४९ में अश्विन कृष्ण की प्रदोष के दिन उनका जन्म हुआ। इस वर्ष यह तिथि शनिवार, 6 अक्टूबर को है।                                                                                         

राजस्थान के रतनगढ़ में लाला भीमराज अग्रवाल और उनकी पत्नी रिखीबाई हनुमान के भक्त थे, तो उन्होंने अपने पुत्र का नाम हनुमान प्रसाद रख दिया। दो वर्ष की आयु में ही इनकी माता का स्वर्गवास हो जाने पर इनका पालन-पोषण दादी माँ ने किया। दादी माँ के धार्मिक संस्कारों के बीच बालक हनुमान को बचपन से ही गीता, रामायण वेद, उपनिषद और पुराणों की कहानियाँ पढ़न-सुनने को मिली। इन संस्कारों का बालक पर गहरा असर पड़ा। बचपन में ही इन्हें हनुमान कवच का पाठ सिखाया गया। निंबार्क संप्रदाय के संत ब्रजदास जी ने बालक को दीक्षा दी।

उस समय देश गुलामी की जंजीरों मे जकड़ा हुआ था। इनके पिता अपने कारोबार का वजह से कलकत्ता में थे और ये अपने दादाजी के साथ असम में। कलकत्ता में ये स्वतंत्रता आंदोलन के क्रांतिकारियों अरविंद घोष, देशबंधु चितरंजन दास, पं, झाबरमल शर्मा के संपर्क में आए और आज़ादी आंदोलन में कूद पड़े। इसके बाद लोकमान्य तिलक और गोपालकृष्ण गोखले जब कलकत्ता आए तो भाई जी उनके संपर्क में आए इसके बाद उनकी मुलाकात गाँधीजी से हुई। वीर सावकरकर द्वारा लिखे गए `१८५७ का स्वातंत्र्य समर ग्रंथ' से भाई जी बहुत प्रभावित हुए और १९३८ में वे वीर सावरकर से मिलने के लिए मुंबई चले आए। १९०६ में उन्होंने कपड़ों में गाय की चर्बी के प्रयोग किए जाने के खिलाफ आंदोलन चलाया और विदेशी वस्तुओं और विदेशी कपड़ों के बहिष्कार के लिए संघर्ष छेड़ दिया। युवावस्था में ही उन्होंने खादी और स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग करना शुरु कर दिया। विक्रम संवत १९७१ में जब महामना पं. मदन मोहन मालवीय बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए धन संग्रह करने के उद्देश्य से कलकत्ता आए तो भाईजी ने कई लोगों से मिलकर इस कार्य के लिए दान-राशि दिलवाई।

कलकत्ता में आजादी आंदोलन और क्रांतिकारियों के साथ काम करने के एक मामले में तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने हनुमान प्रसाद पोद्दार सहित कई प्रमुख व्यापारियों को राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। इन लोगों ने ब्रिटिश सरकार के हथियारों के एक जखीरे को लूटकर उसे छिपाने में मदद की थी। जेल में भाईजी ने हनुमान जी की आराधना करना शुरु करदी। बाद में उन्हें अलीपुर जेल में नज़रबंद कर दिया गया। नज़रबंदी के दौरान भाईजी ने समय का भरपूर सदुपयोग किया वहाँ वे अपनी दिनचर्या सुबह तीन बजे शुरु करते थे और पूरा समय परमात्मा का ध्यान करने में ही बिताते थे। बाद में उन्हें नजरबंद रखते हुए पंजाब की शिमलपाल जेल में भेज दिया गया। वहाँ कैदी मरीजों के स्वास्थ्य की जाँच के लिए एक होम्योपैथिक चिकित्सक जेल में आते थे, भाई जी ने इस चिकित्सक से होम्योपैथी की बारीकियाँ सीख ली और होम्योपैथी की किताबों का अध्ययन करने के बाद खुद ही मरीजों का इलाज करने लगे। बाद में वे जमनालाल बजाज की प्रेरणा से मुंबई चले आए। यहाँ वे वीर सावरकर, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, महादेव देसाई और कृष्णदास जाजू जैसी विभूतियों के निकट संपर्क में आए।

मुंबई में उन्होंने अग्रवाल नवयुवकों को संगठित कर मारवाड़ी खादी प्रचार मंडल की स्थापना की। इसके बाद वे प्रसिध्द संगीताचार्य विष्णु दिगंबर के सत्संग में आए और उनके हृदय में संगीत का झरना बह निकला। फिर उन्होंने भक्ति गीत लिखे जो `पत्र-पुष्प' के नाम से प्रकाशित हुए। मुंबई में वे अपने मौसेरे भाई जयदयाल गोयन्का जी के गीता पाठ से बहुत प्रभावित थे। उनके गीता के प्रति प्रेम और लोगों की गीता को लेकर जिज्ञासा को देखते हुए भाई जी ने इस बात का प्रण किया कि वे श्रीमद् भागवद्गीता को कम से कम मूल्य पर लोगों को उपलब्ध कराएंगे। फिर उन्होंने गीता पर एक टीका लिखी और उसे कलकत्ता के वाणिक प्रेस में छपवाई। पहले ही संस्करण की पाँच हजार प्रतियाँ बिक गई। लेकिन भाईजी को इस बात का दु:ख था कि इस पुस्तक में ढेरों गलतियाँ थी। इसके बाद उन्होंने इसका संशोधित संस्करण निकाला मगर इसमें भी गलतियाँ दोहरा गई थी। इस बात से भाई जी के मन को गहरी ठेस लगी और उन्होंने तय किया कि जब तक अपना खुद का प्रेस नहीं होगा, यह कार्य आगे नहीं बढ़ेगा। बस यही एक छोटा सा संकल्प गीता प्रेस गोरखपुर की स्थापना का आधार बना। उनके भाई गोयन्का जी व्यापार तब बांकुड़ा (बंगाल ) में था और वे गीता पर प्रवचन के सिलसिले में प्राय: बाहर ही रहा करते थे। तब समस्या यह थी कि प्रेस कहाँ लगाई जाए। उनके मित्र घनश्याम दास जालान गोरखपुर में ही व्यापार करते थे। उन्होने प्रेस गोरखपुर में ही लगाए जाने और इस कार्य में भरपूर सहयोग देने का आश्वासन दिया। इसके बाद मई १९२२ में गीता प्रेस का स्थापना की गई।

१९२६ में मारवाड़ी अग्रवाल महासभा का अधिवेशन दिल्ली में था सेठ जमनालाल बजाज अधिवेशन के सभापति थे। इस अवसर पर सेठ घनश्यामदास बिड़ला भी मौजूद थे। बिड़लाजी ने भाई जी द्वारा गीता के प्रचार-प्रसार के लिए किए जा रहे कार्यों की सराहना करते हुए उनसे आग्रह किया कि सनातन धर्म के प्रचार और सद्विचारों को लोगों तक पहुँचाने के लिए एक संपूर्ण पत्रिका का प्रकाशन होना चाहिए। बिड़ला जी के इन्हीं वाक्यों ने भाई जी को कल्याण नाम की पत्रिका के प्रकाशन के लिए प्रेरित किया।

इसके बाद भाई जी ने मुंबई पहुँचकर अपने मित्र और धार्मिक पुस्तकों के उस समय के एक मात्र प्रकाशक खेमराज श्री कृष्णदास के मालिक कृष्णदास जी से `कल्याण' के प्रकाशन की योजना पर चर्चा की। इस पर उन्होंने भाई जी से कहा आप इसके लिए सामग्री एकत्रित करें इसके प्रकाशन की जिम्मेदारी मैं सम्हाल लूंगा। इसके बाद अगस्त १९५५ में कल्याण का पहला प्रवेशांक निकला। कहना न होगा कि इसके बाद `कल्याण' भारतीय परिवारों के बीच एक लोकप्रिय ही नहीं बल्कि एक संपूर्ण पत्रिका के रुप में स्थापित होगई और आज भी धार्मिक जागरण में कल्याण एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। `कल्याण' तेरह माह तक मुंबई से प्रकाशित होती रही। इसके बाद अगस्त १९२६ से गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित होने लगा।

भाईजी ने कल्याण को एक आदर्श और रुचिकर पत्रिका का रुप देने के लिए तब देश भर के महात्माओं धार्मिक विषयों में दखल रखने वाले लेखकों और संतों आदि को पत्र लिखकर इसके लिए विविध विषयों पर लेख आमंत्रित किए। इसके साथ ही उन्होंने श्रेष्ठतम कलाकारों से देवी-देवताओं के आकर्षक चित्र बनवाए और उनको कल्याण में प्रकाशित किया। भाई जी इस कार्य में इतने तल्लीन हो गए कि वे अपना पूरा समय इसके लिए देने लगे। कल्याण की सामग्री के संपादन से लेकर उसके रंग-रुप को अंतिम रुप देने का कार्य भी भाईजी ही देखते थे। इसके लिए वे प्रतिदिन अठारह घंटे देते थे। कल्याण को उन्होंने मात्र हिंदू धर्म की ही पत्रिका के रुप में पहचान देने की बजाय उसमे सभी धर्मों के आचार्यों, जैन मुनियों, रामानुज, निंबार्क, माध्व आदि संप्रदायों के विद्वानों के लेखों का प्रकाशन किया।

भाईजी ने अपने जीवन काल में गीता प्रेस गोरखपुर में पौने छ: सौ से ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित की। इसके साथ ही उन्होंने इस बात का भी ध्यान रखा कि पाठकों को ये पुस्तकें लागत मूल्य पर ही उपलब्ध हों। कल्याण को और भी रोचक व ज्ञानवर्धक बनाने के लिए समय-समय पर इसके अलग-अलग विषयों पर विशेषांक प्रकाशित किए गए। भाई जी ने अपने जीवन काल में प्रचार-प्रसार से दूर रहकर ऐसे ऐसे कार्यों को अंजाम दिया जिसकी बस कल्पना ही की जा सकती है। १९३६ में गोरखपुर में भयंकर बाढ़ आगई थी। बाढ़ पीड़ित क्षेत्र के निरीक्षण के लिए पं. जवाहरलाल नेहरु -जब गोरखपुर आए तो तत्कालीन अंग्रेज सरकार के दबाव में उन्हें वहाँ किसी भी व्यक्ति ने कार उपलब्ध नहीं कराई, क्योंकि अंग्रेज कलेक्टर ने सभी लोगों को धौंस दे रखी थी कि जो भी नेहरु जी को कार देगा उसका नाम विद्रोहियों की सूची में लिख दिया जाएगा। लेकिन भाई जी ने अपनी कार नेहरु जी को दे दी।

१९३८ में जब राजस्तथान में भयंकर अकाल पड़ा तो भाई जी अकाल पीड़ित क्षेत्र में पहुँचे और उन्होंने अकाल पीड़ितों के साथ ही मवेशियों के लिए भी चारे की व्यवस्था करवाई। बद्रीनाथ, जगन्नाथपुरी, रामेश्वरम, द्वारका, कालड़ी श्रीरंगम आदि स्थानों पर वेद-भवन तथा विद्यालयों की स्थापना में भाईजी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अपने जीवन-काल में भाई जी ने २५ हजार से ज्यादा पृष्ठों का साहित्य-सृजन किया।

फिल्मों का समाज पर कैसा दुष्परिणाम आने वाला है इन बातों की चेतावनी भाई जी ने अपनी पुस्तक `सिनेमा मनोरंजन या विनाश' में देदी थी। दहेज के नाम पर नारी उत्पीड़न को लेकर भाई जी ने `विवाह में दहेज' जैसी एक प्रेरक पुस्तक लिखकर इस बुराई पर अपने गंभीर विचार व्यक्त किए थे। महिलाओं की शिक्षा के पक्षधर भाई जी ने `नारी शिक्षा' के नाम से और शिक्षा-पध्दति में सुधार के लिए वर्तमान शिक्षा के नाम से एक पुस्तक लिखी। गोरक्षा आंदोलन में भी भाई जी ने भरपूर योगदान दिया। भाई जी के जीवन से कई चमत्कारिक और प्रेरक घटनाएं जुड़ी हुई है। लेकिन उनके जीवन की सबसे महत्वपूर्ण बात यही है कि एक संपन्न परिवार से संबंध रखने और अपने जीवन काल में कई महत्वपूर्ण लोगों से जुड़े होने और उनकी निकटता प्राप्त करने के बावजूद भाई जी को अभिमान छू तक नहीं गया था। वे आजीवन आम आदमी के लिए सोचते रहे। इस देश में सनातन धर्म और धार्मिक साहित्य के प्रचार और प्रसार में उनका योगदान उल्लेखनीय है। गीता प्रेस गोरखपुर से पुस्तकों के प्रकाशन से होने वाली आमदनी में से उन्होंने एक हिस्सा भी नहीं लिया और इस बात का लिखित दस्तावेज बनाया कि उनके परिवार का कोई भी सदस्य इसकी आमदनी में हिस्सेदार नहीं रहेगा। अंग्रेजों के जमाने में गोरखपुर में उनकी धर्म व साहित्य सेवा तथा उनकी लोकप्रियता को देखते हुए तत्कालीन अंग्रेज कलेक्टर पेडले ने उन्हें `राय साहब' की उपाधि से अलंकृत करने का प्रस्ताव रखा था, लेकिन भाई जी ने विनम्रतापूर्वक इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। इसके बाद अंग्रेज कमिश्नर होबर्ट ने `राय बहादुर' की उपाधि देने का प्रस्ताव रखा लेकिन भाई जी ने इस प्रस्ताव को भी स्वीकार नहीं किया। देश की स्वाधीनता के बाद डॉ, संपूर्णानंद, कन्हैयालाल मुंशी और अन्य लोगों के परामर्श से तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री गोविंद वल्लभ पंत ने भाई जी को `भारत रत्न' की उपाधि से अलंकृत करने का प्रस्ताव रखा लेकिन भाई जी ने इसमें भी कोई रुचि नहीं दिखाई। २२ मार्च १९७१ को भाई जी ने इस नश्वर शरीर का त्याग कर दिया और अपने पीछे वे `गीता प्रेस गोरखपुर' के नाम से एक ऐसा केंद्र छोड़ गए, जो हमारी संस्कृति को पूरे विश्व में फैलाने में एक अग्रणी भूमिका निभा रहा है.

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रविवार, 11 सितंबर 2011

मुक्तिका: प्रिय के नाम सुबह लिख दी... -- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
प्रिय के नाम सुबह लिख दी...
संजीव 'सलिल'
*
प्रिय के नाम सुबह लिख दी है, प्रिय में भी बैठा रब है.
'सलिल' दिख रहा दूर, मगर वह तुझसे दूर हुआ कब है??

जब-जब तुझको हो प्रतीत यह, तेरा कुछ भी नहीं बचा.
तब-तब सच इतना ही होगा, रहा न शेष मिला सब है..

कल करना जो कभी न होगा, कब आया कल बतलाओ?
जो करना है आज करो- वह होता जो कि हुआ अब है..

राजा तो केवल चाकर है, जो चाकर वह राजा है.
चाकर का चाकर वह चाहे, जग जाने उसमें नब है..

दुनिया का क्या तौर-तरीकों की बंदी वह 'सलिल' रही.
जिसको उसकी चाह हुई, उसको कहते सब बेढब है..

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Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

बुधवार, 13 जुलाई 2011

एक कविता: सीखते संज्ञा रहे... -संजीव 'सलिल'

एक कविता:
सीखते संज्ञा रहे...
संजीव 'सलिल'
*
सीखते संज्ञा रहे हम.
बन गये हैं सर्वनाम.
क्रिया कैसी?
क्या विशेषण?
कहाँ है कर्ता अनाम?

कर न पाये
साधना हम
वंदना ना प्रार्थना.
किरण आशा की लिये
करते रहे शब्द-अर्चना.

साथ सुषमा को लिये
पुष्पा रहे रचना कमल.
प्रेरणा देती रहें
नित भावनाएँ नित नवल.

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Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

शनिवार, 13 नवंबर 2010

समयजयी सिद्धसंत देवरहा बाबा अभियंता सतीशचन्द्र वर्मा, भोपाल.

समयजयी सिद्धसंत देवरहा बाबा 

अभियंता सतीशचन्द्र वर्मा, भोपाल.
*
देव भूमि भारत आदिकाल से संतों-महात्माओं की साधना स्थली है. हर पल समाधिस्थ रहनेवाले समयजयी सिद्ध दंत देवरहा बाबा संसार-सरोवर में कमल की तरह रहते हुए पूर्णतः निर्लिप्त थे.

आचार्य शंकर ने जीवन की इस मुक्तावस्था के सम्बन्ध में कहा है:

समाधिनानेन समस्तवासना ग्रंथेर्विनाशोsकर्मनाशः.
अंतर्वहि सर्वत्र एवं सर्वदा स्वरूपवि स्फूर्तिरयत्नतः स्यात..

अर्थात समाधि से समस्त वासना-ग्रंथियाँ नष्ट हो जाती हैं. वासनाओं के नाश से कर्मों का विनाश हो जाता है, जिससे स्वरूप-स्थिति हो जाती है. अग्नि के ताप से जिस तरह स्वर्ण शुद्ध हो जाता है, उसी प्रकार समाधि से सत्व-राज-तम रूप मल का निवारण हो जाता है. हरि ॐ तत्सत...

बाबा मेरे जन्म-जन्मान्तर के गुरु हैं, वे विदेह हैं. अनादि काल से अनवरत चली आ रही भारतीय सिद्ध साधन बाबा में मूर्त है. धूप, सीत, वर्षा आदि संसारीं चक्रों से सर्वथा अप्रभावित, अष्टसिद्ध योगी बाबा सबपर सदा समान भाव से दया-दृष्टि बरसाते रहते थे. वे सच्चे अर्थ में दिगम्बर थे अर्थात दिशाएँ ही उनका अम्बर (वस्त्र) थीं. वे वास्तव में धरती का बिछौना बिछाते थे, आकाश की चादर ओढ़ते थे. शुद्ध जीवात्मायें उनकी दृष्टि मात्र से अध्यात्म-साधन के पथ पर अग्रसर हो जाती थीं. वे सदैव परमानंद में निमग्न रहकर सर्वात्मभाव से सभी जीवों को कल्याण की राह दिखाते हैं. 

जय अनादि,जय अनंत,
जय-जय-जय सिद्ध संत.                                      
देवरहा बाबाजी,
यश प्रसरित दिग-दिगंत.........
*
धरा को बिछौनाकर, नील गगन-चादर ले.
वस्त्रकर दिशाओं को, अमृत मन्त्र बोलते..

सत-चित-आनंदलीन, समयजयी चिर नवीन.
साधक-आराधक हे!, देव-लीन, थिर-अदीन..

नश्वर-निस्सार जगत,
एकमात्र ईश कंत..
देवरहा बाबाजी,
यश प्रसरित दिग-दिगंत.........
*
''दे मत, कर दर्शन नित, प्रभु में हो लीन चित.''
देते उपदेश विमल, मौन अधिक, वाणी मित..

योगिराज त्यागी हे!, प्रभु-पद-अनुरागी हे!
सतयुग से कलियुग तक, जीवित धनभागी हे..

'सलिल' अनिल अनल धरा,
नभ तुममें मूर्तिमंत.
देवरहा बाबाजी,
यश प्रसरित दिग-दिगंत.........
*

पूज्यपाद बाबाजी द्वारा लिखाया गया और 'योगिराज देवरहा बाबा के चमत्कार' शीर्षक पुस्तक में प्रकाशित लेख का कुछ अंश बाबाश्री के आशीर्वाद-स्वरूप प्रस्तुत है:

''धारणा, ध्यान और समाधि- इन तीनों का सामूहिक नाम संयम है. संयम से अनेक प्रकार की विभूतियाँ प्राप्त होती हैं परन्तु योगी का लक्ष्य विभूति-प्राप्ति नहीं है, परवैराग्य प्राप्ति है. 'योग दर्शन' में विभूतियों का वर्णन केवल इसलिए किया गया है कि योगी इनके यथार्थ रूप को समझकर उनसे आकृष्ट न हो. योगदर्शन का विभूतिपाद साधनपाद की ही कड़ी है..... विभूतिपाद में इसी प्रकार की विभूतियों का विस्तार से वर्णन हुआ है-जैसे सब प्राणियों की वाणी का ज्ञान, परचित्त ज्ञान, मृत्यु का ज्ञान, लोक-लोकान्तरों का ज्ञान, आपने शरीर का ज्ञान, चित्त के स्वरूप का ज्ञान इत्यादि. संयम के ही द्वारा योगी अंतर्ध्यान हो सकता है, अधिक से अधिक शक्ति प्राप्त कर सकता है, परकाया में प्रवेश कर सकता है, लोक-लोकान्तरों में भ्रमण कर सकता है और अष्टसिद्धियों और नवनिधियों को प्राप्तकर सकता है. 

बच्चा! योग एक बड़ी दुर्लभ और विचित्र अवस्था है. योगी की शक्ति और ज्ञान अपरिमित होते हैं. उसके लिये विश्व की कोई भी वस्तु असंभव नहीं है. ईश्वर की शक्ति माया है और योगी की शक्ति योगमाया है. 'सर्वम' के सिद्धांत को योगी कभी भी प्रत्यक्ष कर सकता है. आज विज्ञान ने जिस शक्ति का संपादन किया है, वह योगशक्ति का शतांश या सहस्त्रांश भी नहीं है. योगी के लिये बाह्य उपादानों की अपेक्षा नहीं है. 

मैं तो यह कहता हूँ कि यदि योगी चाहे तो अपने सत्य-संकल्प से सृष्टि का भी निर्माण कर सकता है. वह ईश्वर के समान सर्वव्यापक है. अष्टसिद्धियाँ भी उसके लिये नगण्य हैं. वह अपनी संकल्प-शक्ति से एक ही समय में अनेक स्थानों पर अनेक रूपों में प्रकट हो सकता है. उसे शरीर से कहीं आना-जाना नहीं पड़ता.

बच्चा! योगी को न विश्वास की परवाह है, न प्रदर्शन की आवश्यकता है, जो सिद्धियों का प्रदर्शन करता है, उसे योगी कहना ही नहीं चाहिए.

एक कथा है: आपने किसी योगिराज गुरुसे योग की शिक्षा प्राप्तकर एक महात्मा योग-साधना करने लगे. कुछ समय पश्चात् महात्मा को सिद्धियाँ प्राप्त होने लगीं. महात्मा एक दिन आपने गुरुदेव के दर्शन करने के लिये चल दिए. योगिराज का आश्रम एक नदी के दूसरे किनारे पर था. नदी में बड़ी बाढ़ थी और चारों ओर तूफ़ान था. महात्मा को नदी पारकर आश्रम में पहुँचना था. अपनी सिद्धि के बलपर महात्मा योंही जलपर चल दिए और नदी को पारकर आश्रम में पहुँचे. गुरुदेव ने नदी पार करने के  साधन के सम्बन्ध में पूछा तो महात्मा ने अपनी सिद्धि का फल बता दिया. योगिराज ने कहा कि तुमने दो पैसे के बदले अपनी वर्षों की तपस्या समाप्त कर ली. तुम योग-साधन के योग्य नहीं हो.                                         .....क्रमशः

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- ए ४३६ शाहपुरा, भोपाल ४६२०३९ चलभाष: ९४२५० २०८१९ .



शुक्रवार, 15 अक्टूबर 2010

विजयादशमी पर विशेष : आओ हम सब राम बनें --- डॉ. अ. कीर्तिवर्धन

विजयादशमी पर विशेष :
 
आओ हम सब राम बनें
 
डॉ. अ. कीर्तिवर्धन, मुजफ्फरपुर
*
त्रेता युग मे राम हुए थे
रावण का संहार किया
द्वापर मे श्री कृष्ण आ गए
कंस का बंटाधार किया ।
कलियुग भी है राह देखता
किसी राम कृष्ण के आने की
भारत की पावन धरती से
दुष्टों को मार भगाने की।
आओ हम सब राम बनें
कुछ लक्ष्मण सा भाव भरें
नैतिकता और बाहुबल से
आतंकवाद को खत्म करें।
एक नहीं लाखों रावण हैं
जो संग हमारे रहते
दहेज -गरीबी- अ शिक्षा का
कवच चढाये बैठे हैं।
कुम्भकरण से नेता बैठे
स्वार्थों की रुई कान मे डाल
मारीच से छली अनेकों
राष्ट्र प्रेम का नही है ख्याल ।
शीघ्र एक विभिक्षण ढूँढो
नाभि का पता बताएगा
देश भक्ति के एक बाण से
रावण का नाश कराएगा।
******
09911323732

शुक्रवार, 6 अगस्त 2010

हिन्दी वैभव: संकलन : संजीव 'सलिल'

हिन्दी वैभव:  
हिन्दी को कम आंकनेवालों को चुनौती है कि वे विश्व की किसी भी अन्य भाषा में हिन्दी की तरह अगणित रूप और उन रूपों में विविध विधाओं में सकारात्मक-सृजनात्मक-सामयिक लेखन के उदाहरण दें. शब्दों को ग्रहण करने, पचाने और विधाओं को अपने संस्कार के अनुरूप ढालकर मूल से अधिक प्रभावी और बहुआयामी बनाने की अपनी अभूतपूर्व क्षमता के कारण हिन्दी ही भावी विश्व-वाणी है. इस अटल सत्य को स्वीकार कर जितनी जल्दी हम अपनी ऊर्जा हिन्दी में हिंदीतर साहित्य और संगणकीय तकनीक को आत्मसात करेंगे, अपना और हिन्दी का उतना ही अधिक भला करेंगे.



*
*
मगही में मातृभूमि वंदना

डॉ. रामाश्रय झा, बख्तियारपुर पटना.
*
मातृभूमि हे! हमर प्रनाम.
सरगो से बढ़कर के सुन्दर, तोहर सोभा ललित ललाम....
*
हरियर बाग़-बगीचा धरती, एको देग कहौं नन परती.
अन-धन से परिपूर्ण मनोहर, जनगन-मन पाबे विश्राम...
*
सागर जेकर चरन पखारे, हरदम गौरव-गीत उचारे.
तीरथ राज प्रयाग बनल हे, मनहर-पावन चारों धाम...
*
अनुपम वेद, रामायण, गीता, धर्म सुसंस्कृति परम पुनीता.
सुधा सरिस गंगा-यमुना जल, कर दे मन के पूरनकाम...
*
जय-जय-जय हे भारत माता, तोरा से जलमों के नाता.
मरूं-जिऊँ तो ई माटी में, मुँह मा पर बस तोरे नाम...
*
सोभे पर्वतराज हिमालय, पावन मन्दिर अउर शिवालय.
गऊ-गणेश के पूजा घर-घर, विजय मन्त्र हे जय श्री राम...

**********

भोजपुरी में मुक्तिका

ओमप्रकाश केसरी, बंगाली टोला, बक्सर.

बयार अलगाँव के चले लागल.
घरे में गली दर गली खले लागल..

रहे आस जवना दिया पे हमरा.
उहे दिया से घरवा जले लागल..

आ गइल अइसन दरार रिश्तन में.
आपन, अपने छले लागल..

हो गइल हे मुसीबत के अइसन चलन.
किनारा भी देख के गले लागल..

रास ना आइल इश्क के दुलार.
भूखल आँत के मले लागल..

कहवाँ ठौर मिली 'पवन नन्दन'
जिनगी के सवाल गले लागल..

*****************

अंगिका में मुक्तिका :

राजकुमार, बालकृष्ण नगर, भागलपुर

आदमी छै कहाँ?, जो छै तs सहमलs डरलs
आरो हुनख थपेड़ से खै दुबलल डढ़लs..

जहाँ भी जाय छी पाबै छी भयानक जंगल.
कुंद चन्दन छै, कुल्हाड़ी रs मान छै बढ़लs..

बाघ-भालू भीरी भेलs छै आद्लौ बौना.
हुनख नाखून छै बदलs, कपोत पर पड़लs..

आय काबिज़ हुनी सागर, आकाश धरती पर.
जाल हुनखs छै, फ्रेप में भी छै हुती मढ़लs..

राज लागै छ बगदलs छै समुन्दर अबको.
आग लगत छै लहर छै कमान पर चढ़ल..

******************

बघेली में हाइकु गीत

श्रुतिवंत प्रसाद दुबे 'विजन', डगा बरगवां, सीधी.

बोले मुरैला
पहरे डहारे मा
बन मस्तान.
*
पानी बरसा
दुआरे बगारे मा
धूरी पटान.
*
नदिया बाढ़ी
कहा किनारे मा
मने उफान.
*
हथलपकी
गोरिया अंगन से
रे बिदुरान.
*

उर्दू में ग़ज़ल

चंद्रभान भारद्वाज, १६४ श्रीनगर, इंदौर.

साँकल को भरमानेवाले.
बाँटे दिन भर चाबी-ताले.

हर भूखे को भेजा न्यौता
घर में केवल चार निवाले.

नंगों की बस्ती में बेचें
सपनों के रंगीन दुशाले.

आशाएँ सड़कों को सौंपी
सपने फुटपाथों पर पाले.

खिड़की-दरवाजों के पीछे
बुनतीं रोज़ मकड़ियाँ जाले.

चाकू गोली आग बमों की
दहशत के हम हुए हवाले.

आँगन में बबूल बोये तो
चुभते काँटे कौन निकाले?

भाड़े की कुछ भीड़ जुटाकर
सिर्फ हवा में शब्द उछाले.

मिली वक़्त से हमें वसीयत
फटी बिमाई, रिसते छाले.
*
खड़ी बोली में हाइकु मुक्तिका:

संजीव 'सलिल'

जग माटी का
एक खिलौना, फेंका
बिखरा-खोया.

फल सबने
चाहे पापों को नहीं
किसी ने ढोया.
*
गठरी लादे
संबंधों-अनुबंधों
की, थक-हारा.

मैं ढोता, चुप
रहा- किसी ने नहीं
मुझे क्यों ढोया?
*
करें भरोसा
किस पर कितना,
कौन बताये?

लुटे कलियाँ
बेरहमी से माली
भंवरा रोया..
*
राह किसी की
कहाँ देखता वक्त
नहीं रुकता.

अस्त उसी का
देता चलता सदा
नहीं जो सोया.
*
दोष विधाता
को मत देना गर
न जीत पाओ.

मिलता वही
'सलिल' उसको जो
जिसने बोया.
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बुधवार, 17 मार्च 2010

कविता: सिद्धि -श्यामलाल उपाध्याय

पूना का रेजिमेंट

जिसमें कथा की

पूर्णाहुति.

व्यास महाराज को

यथाशक्ति दान-दक्षिणा,

इसे बीच श्वेत

अधिकारी का प्रवेश

श्रद्धावनत विनयभाव

व्यास की अनुमति से

जिज्ञासा जनित एक प्रश्न-

मात्र स्थानान्तरण का.



व्यास कथा-वाचक का

मौन मूक चिंतन और

श्वास पर आधारित

लग्न-वेला-मेलापक पर

शांत सस्वर उत्तर-

कार्य-सिद्धि

मात्र सप्ताह में-

अंतिम निर्णय.



श्वेत अधिकारी का

कमीशंड अधिकारी को

इंगिति-

व्यास की व्यस्था और

श्वेत अधिकारी का

साभार प्रस्थान.

व्यास के मस्तिष्क में

विचारों के आरोह-अवरोह

जीवन संकट-ग्रस्त प्रभो!

धारित अवधि में यदि

कार्य-सिद्धि न हुई-

मात्र एक प्रश्न से आक्रांत,

पर वेला में आहुति के

कोई भी वचन मृषा

होता भी तो कैसे/

फिर भी यदि साधना

हुई न साकार.


जागा विवेक

सुन उद्घोष अंतर का

चित्त एकाग्र और

वालिश वृत्ति त्यागकर

ध्यान कर दुर्गा का.



व्यास ने संध्या को

ग्रहण किया आसान

प्रतीची मुख ध्यान में

प्रारंभ किया जप को

प्रातः उठ प्राच्य मुख

न्यौछावर कर सर्वस्व

दुर्गा मातेश्वरी को

ध्यान किया ब्राम्हण ने

एकनिष्ठ भाव से,

पर आशंका पिशाचिन की

विकल करती व्यास को.

साधना में सिद्धि का

अभाव रहा किंचित

तो पथ-भ्रष्ट, पदच्युत

प्रवंचना अनर्थ और

लोक-वेद च्युति

देव योग अथवा

एकाग्रता ने व्यास की

द्वादश प्रहर अंतराल पहुँचाया

एक पत्र उस रेजिमेंट में.



श्वेत अधिकारी नाम-

रेजिमेंट का स्थानान्तरण

मात्र चौबीस घंटों में

जर्मन-फ्रांस सीमा पार.

श्वेत अधिकारी

अपने सहायक को

शीघ्र सावधान कर

चला पास ब्राम्हण के.

विनय-युक्त भाव से

टोपी उतारकर

बोल उठा- महाराज!

आपने तपोबल से

कर दी मेरी कामना पूर्ण,

साधना की सिद्धि

जो प्राप्त हुई मुझको.

श्वेत अधिकारी ने

विदा दी ब्राम्हण को

और मंत्रसिक्त जल से

संवेग मार्जन कर

व्यास ने तिलक दिया-

शुभास्ते पन्थानं .

भारत के मंत्र-तंत्र

अध्यात्म, साधनाबल

करते हठात आव्हान

निज ईश का

इनकी अनुरक्ति-भक्ति

होती इतनी प्रबल

कि देव वर्ग होता

बलात उनके वश में.

देखे मैंने कितने देश

घूमे देशांतर

पर ऐसा देश, ऐसा स्थान

मिला नहीं मुझको .


देश का आकर्षण

और ममता इस देश की

भूलता फिर कैसे?

यही मेरी अंतिम इच्छा

पाऊँ अन्य जन्म यदि

गाऊँ गीत ईश के

बिकाकर हाथ दुर्गा के.

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