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शुक्रवार, 30 जून 2017

dandkala chhand


छंद सलिला:
दण्डकला छंद
संजीव
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छंद-लक्षण: जाति लाक्षणिक, प्रति चरण मात्रा ३२ मात्रा, यति १०-८-८-६, पदांत लघुगुरु, चौकल में पयोधर (लघु गुरु लघु / जगण) निषेध. श्री विभोर जी के अनुसार १, २, ४ तुक समान, तीसरी तुक शेष तीन से भिन्न हो. 
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लक्षण छंद: 
यति दण्डकला दस / आठ आठ छह / लघु गुरु सदैव / पदांत हो 
जाति लाक्षणिक गिन / रखें हर पंक्ति / बत्तिस मात्रा / सुखांत हो
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उदाहरण: 
१. 
कल कल कल प्रवहित / नर्तित प्रमुदित / रेवा मैया / मन बसिए 
निर्मल जलधारा / भय-दुःख हारा / शीतल छैयां / दे हँसिये 
कूदे पर्वत से / छप-छपाक् से / जलप्रपात रच / हँस नचिये  
चुप मंथर गति बह / पीर-व्यथा दह / सत-शिव-सुंदर / नित कहिए
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२. 
'बुन्देलखंडपति / यवननाथ अरि / अभिनन्दन असि / साधक हे! 
बल-वीर्य पराक्रम / विजय-वरण क्षम / रण-जेता अरि / नाशक हे! 
जय जय छत्रसाल / योद्धा-मराल / शत वंदन नर / नाहर हे! 
थी जाती बाजी / लाकर बाजी / जीती माँ आ/राधक हे!
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३. 
संध्या मन मोहे / गाल गुलाबी / चाल शराबी / ज्यों हिरणी  
शशि देख झूमता / लपक चूमता / सिहर उठे वह / नव घरनी 
कुण्डी खड़काये / ननद दुपहरी / सास निशा खाँ/से दहला
देवर तारागण / ससुर आसमां / पांसे फेंकें / मन बहला  
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टीप: पहले उदाहरण में चारों पंक्तियों में पदांत साम्य है. दूसरे उदाहरण में तीसरी पंक्ति के पदांत में आंशिक भिन्नता है. तीसरे उदाहरण में २-२ पंक्तियों में पदांत साम्य है. 
मेरे मात में इससे छंद परिवर्तन नहीं होता चूंकि कुल मात्रा संख्या तथा यति नियम समान हैं. 
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(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अवतार, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उड़ियाना, उपमान, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, कुकुभ, कज्जल, कामिनीमोहन, काव्य, कीर्ति, कुण्डल, कुडंली, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जग, जाया, तांडव, तोमर, त्रिलोकी, दण्डकला, दिक्पाल, दीप, दीपकी, दोधक, दृढ़पद, नित, निधि, निश्चल, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रभाती, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदन,मदनावतारी, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, मृदुगति, योग, ऋद्धि, रसामृत, रसाल, राजीव, राधिका, रामा, रूपमाला, लीला, वस्तुवदनक, वाणी, विरहणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुद्ध ध्वनि, शुभगति, शोभन, सरस, सार, सारस, सिद्धि, सिंहिका, सुखदा, सुगति, सुजान, सुमित्र, संपदा, हरि, हेमंत, हंसगति, हंसी)

बुधवार, 7 अप्रैल 2010

स्तुति: : हर-हर गंगे... संजीव 'सलिल'

स्तुति: : हर-हर गंगे...

संजीव 'सलिल'

हर-हर गंगे...,हर-हर गंगे...
*
सदियों से तुम सतत प्रवाहित
परिवर्तन की बनीं गवाही.
तुममें जीवन-शक्ति अनूठी
उसने पाई, जिसने चाही.
शतगुण जेठी रेवा का सुत-
मैया! तुमको नमन कर रहा -
'सलिल'-साधना सफल करो माँ
हर-हर गंगे...,हर-हर गंगे...
*
लहर-लहर में लहराती है
भागीरथ की कथा सुहानी.
पलीं पीढ़ियाँ कह, सुन, लिख-पढ़-
गंगा-सुत की व्यथा पुरानी.
हिमगिरि से सागर तक प्रवहित-
तार रहीं माँ भव-सागर से.
तर पायें तव कृपा-कोर पा.
हर-हर गंगे...,हर-हर गंगे...
*
पाप-ताप धो-धोकर माता!
हमने मैला नीर किया है.
उफ़ न कर रहीं धार सूखती.
हम शर्मिन्दा दर्द दिया है.
'सलिल' अमल-निर्मल हो फिर से
शुद्ध-बुद्ध हो नमन कर सकें-
विमल भक्ति दो, अचल शक्ति दो
हर-हर गंगे...,हर-हर गंगे...
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नेपाल यात्रा पर जाते समय २१.६.२००९ को वाराणसी में गंगा स्नान पश्चात् रची गयी.
http://divyanarmada.blogspot.com