मुक्तिका :
मेहरबानी हो रही है...
संजीव 'सलिल'
*
अफवाह जो उडी उसी को मानते हैं सच.
खुद लेते नहीं खबर कभी अपने कान की..
चाहते हैं घर में रहे प्यार-मुहब्बत.
नफरत बना रहे हैं नींव निज मकान की..
खेती करोगे तो न घर में सो सकोगे तुम.
कुछ फ़िक्र करो अब मियाँ अपने मचान की..
मंदिर, मठों, मस्जिद में कहाँ पाओगे उसे?
उसको न रास आती है सोहबत दुकान की..
बादल जो गरजते हैं बरसते नहीं सलिल.
ज्यों शायरी जबां है किसी बेजुबान की..
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मेहरबानी हो रही है...
संजीव 'सलिल'
*
मेहरबानी हो रही है मेहरबान की.
हम मर गए तो फ़िक्र हुई उन्हें जान की..अफवाह जो उडी उसी को मानते हैं सच.
खुद लेते नहीं खबर कभी अपने कान की..
चाहते हैं घर में रहे प्यार-मुहब्बत.
नफरत बना रहे हैं नींव निज मकान की..
खेती करोगे तो न घर में सो सकोगे तुम.
कुछ फ़िक्र करो अब मियाँ अपने मचान की..
मंदिर, मठों, मस्जिद में कहाँ पाओगे उसे?
उसको न रास आती है सोहबत दुकान की..
बादल जो गरजते हैं बरसते नहीं सलिल.
ज्यों शायरी जबां है किसी बेजुबान की..
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