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शुक्रवार, 2 सितंबर 2011

मुक्तिका : मेहरबानी हो रही है... संजीव 'सलिल'

मुक्तिका :

मेहरबानी हो रही है...
संजीव 'सलिल'
*
मेहरबानी हो रही है मेहरबान की.
हम मर गए तो फ़िक्र हुई उन्हें जान की..

अफवाह जो उडी उसी को मानते हैं सच.
खुद लेते नहीं खबर कभी अपने कान की..

चाहते हैं घर में रहे प्यार-मुहब्बत.
नफरत बना रहे हैं नींव निज मकान की..

खेती करोगे तो न घर में सो सकोगे तुम.
कुछ फ़िक्र करो अब मियाँ अपने मचान की..

मंदिर, मठों, मस्जिद में कहाँ पाओगे उसे?
उसको न रास आती है सोहबत दुकान की..

बादल जो गरजते हैं बरसते नहीं सलिल.
ज्यों शायरी जबां है किसी बेजुबान की..

******************

सोमवार, 1 अगस्त 2011

मुक्तिका: चलो जिंदगी को मुहब्बत बना दें --संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
चलो जिंदगी को मुहब्बत बना दें
संजीव 'सलिल'
*
'सलिल' साँस को आस-सोहबत बना दें.
जो दिखलाये दर्पण हकीकत बना दें.. 

जिंदगी दोस्ती को सिखावत बना दें..
मदद गैर की अब इबादत बना दें.

दिलों तक जो जाए वो चिट्ठी लिखाकर.
कभी हो न हासिल, अदावत बना दें..

जुल्मो-सितम हँस के करते रहो तुम.
सनम क्यों न इनको इनायत बना दें?

रुकेंगे नहीं पग हमारे कभी भी.
भले खार मुश्किल बगावत बना दें..

जो खेतों में करती हैं मेहनत हमेशा.
उन्हें ताजमहलों की जीनत बना दें..

'सलिल' जिंदगी को मुहब्बत बना दें.
श्रम की सफलता से निस्बत करा दें...
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

गुरुवार, 9 जून 2011

रचना-प्रति रचना: महेश चन्द्र गुप्त ’ख़लिश’ -- संजीव 'सलिल'

रचना-प्रति रचना:
ग़ज़ल : आभार ई-कविता
उम्र गुज़र गई राहें तकते, ढल गए अंधियारे में साए---   ईकविता, ९ जून २०११
महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
७ जून २०११
उम्र गुज़र गई राहें तकते , ढल गए अंधियारे में साए
अंत समय आया पर तुमको न आना था, तुम न आए
 
दिल ने तुमको बहुत बुलाया पर तुम तक आवाज़ न पहुँची
दोष भला कैसे  दूँ तुम तो सदा अजाने से मुस्काए
 
काश कभी ये भी हो पाता, तुम अपने से चल कर आते
पर दिल में अहसास भरा हो तब ही कोई कदम बढ़ाए
 
आज तपस्या पूरी हो गई, मिले नहीं पर तप न टूटा
तुम न होते तो फिर मैं रहता किस पर विश्वास टिकाए
 
नहीं समय का बंधन है अब, धरती-नभ हो गए बराबर
जाने अब मिलना हो न हो, दूर ख़लिश वह काल बुलाए.
 *
प्रति रचना: 
मुक्तिका
 संजीव 'सलिल'
*
राह ताकते उम्र बितायी, लेकिन दिल में झाँक न पाये.
तनिक झाँकते तो मिल जाते, साथ हमारे अपने साये..

दूर न थे तो कैसे आते?, तुम ही कोई राह बताते.
क्या केवल आने की खातिर, दिल दिलको बाहर धकियाये?


सावन में दिल कहीं रहे औ', फागुन में दे साथ किसी का.
हमसे यही नहीं हो पाया, तुमको लगाते रहे पराये..



जाते-आते व्यर्थ कवायद क्यों करते, इतना बतला दो?
अहसासों का करें प्रदर्शन, मनको यह अहसास न भाये..



तप पूरा हो याकि अधूरा, तप तो तपकर ही हो पाता.
परिणामों से नहीं प्रयासों का आकलन करें-भरमाये.. 

काल-अकाल-सुकाल हमीं ने, महाकाल को कहा खलिश पा.
अलग कराये तभी मिलाये, 'सलिल' प्यास ही तृप्त कराये..

****

मंगलवार, 3 मई 2011

मुक्तिका: हौसलों को ---- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
हौसलों को
संजीव 'सलिल'
*
हौसलों को किला कर देखो.
अँगुलियों को छिला कर देखो..

ज़हर को कंठ में विहँस धारो.
कभी मुर्दे को जिला कर देखो..

आस के क्षेत्ररक्षकों को तुम
प्यास की गेंद झिला कर देखो..

साँस मटकी है मथानी कोशिश
लक्ष्य माखन को बिला कर देखो..

तभी हमदम 'सलिल' के होगे तुम
मैं को जब मूक शिला कर देखो..

*******************

सोमवार, 2 मई 2011

मुक्तिका: मैं -संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
मैं
संजीव 'सलिल'
*
पुरा-पुरातन चिर नवीन मैं, अधुनातन हूँ सच मानो.
कहा-अनकहा, सुना-अनसुना, किस्सा हूँ यह भी जानो..

क्षणभंगुरता मेरा लक्षण, लेकिन चिर स्थाई हूँ.
निराकार साकार हुआ मैं वस्तु बिम्ब परछाईं हूँ.

परे पराजय-जय के हूँ मैं, भिन्न-अभिन्न न यह भूलो.
जड़ें जमाये हुए ज़मीन में, मैं कहता नभ को छूलो..

मैं को खुद से अलग सिर्फ, तू ही तू दिखता रहा सदा. 
यह-वह केवल ध्यान हटाते, करता-मिलता रहा बदा..

क्या बतलाऊँ? किसे छिपाऊँ?, मेरा मैं भी नहीं यहाँ.
गैर न कोई, कोई न अपना, जोडूँ-छोडूँ किसे-कहाँ??

अब तब जब भी आँखें खोलीं, सब में रब मैं देख रहा.
फिर भी अपना और पराया, जाने क्यों मैं लेख रहा?

ढाई आखर जान न जानूँ, मैली कर्म चदरिया की.
मर्म धर्म का बिसर, बिसारीं राहें नर्म नगरिया की..

मातु वर्मदा, मातु शर्मदा, मातु नर्मदा 'मैं' हर लो.
तन-मन-प्राण परे जा उसको भज तज दूँ 'मैं' यह वर दो..

बिंदु सिंधु हो 'सलिल', इंदु का बिम्ब बसा हो निज मन में.
ममतामय मैया 'मैं' ले लो, 'सलिल' समेटो दामन में..
********

गुरुवार, 31 मार्च 2011

मुक्तिका: हुआ सवेरा -- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

हुआ सवेरा

संजीव 'सलिल'
*
हुआ सवेरा मिली हाथ को आज कलम फिर.
भाषा शिल्प कथानक मिलकर पीट रहे सिर..

भाव भूमि पर नभ का छंद नगाड़ा पीटे.
बिम्ब दामिनी, लय की मेघ घटा आयी घिर..

बूँद प्रतीकों की, मुहावरों की फुहार है.
तत्सम-तद्भव पुष्प-पंखुरियाँ डूब रहीं तिर..

अलंकार की छटा मनोहर उषा-साँझ सी.
शतदल-शोभित सलिल-धार ज्यों सतत रही झिर..

राजनीति के कोल्हू में जननीति वृषभ क्यों?
बिन पाये प्रतिदान रहा बरसों से है पिर..

दाल दलेंगे छाती पर कब तक आतंकी?
रिश्वत खरपतवार रहेगी कब तक यूँ थिर..

*****

एक दृष्टि:
एक गेंद के पीछे दौड़ें ग्यारह-ग्यारह लोग.
एक अरब काम तज देखें, बड़ा भयानक रोग.
राम जी मुझे बचाना...

Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

सोमवार, 21 मार्च 2011

मुक्तिका: मन तरंगित --- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:                                                                                         

मन तरंगित

संजीव 'सलिल'
*
मन तरंगित, तन तरंगित.
झूमता फागुन तरंगित..

होश ही मदहोश क्यों है?
गुन चुके, अवगुन तरंगित..

श्वास गिरवी आस रखती.
प्यास का पल-छिन तरंगित..

शहादत जो दे रहे हैं.
हैं न वे जन-मन तरंगित..

बंद है स्विस बैंक में जो
धन, न धन-स्वामी तरंगित..

सचिन ने बल्ला घुमाया.
गेंद दौड़ी रन तरंगित..

बसंती मौसम नशीला
'सलिल' संग सलिला तरंगित..

***********
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

रविवार, 20 मार्च 2011

मुक्तिका: हुई होली, हो रही, होगी हमेशा प्राण-मन की संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:                                                                                              

हुई होली, हो रही, होगी हमेशा प्राण-मन की

संजीव 'सलिल'
*
भाल पर सूरज चमकता, नयन आशा से भरे हैं.
मौन अधरों का कहे, हम प्रणयधर्मी पर खरे हैं..

श्वास ने की रास, अनकहनी कहे नथ कुछ कहे बिन.
लालिमा गालों की दहती, फागुनी किंशुक झरे हैं..

चिबुक पर तिल, दिल किसी दिलजले का कुर्बां हुआ है.
भौंह-धनु के नयन-बाणों से न हम आशिक डरे हैं?.

बाजुओं के बंधनों में कसो, जीवन दान दे दो.
केश वल्लरियों में गूथें कुसुम, भँवरे बावरे हैं..

सुर्ख लाल गाल, कुंतल श्याम, चितवन है गुलाबी.
नयन में डोरे नशीले, नयन-बाँके साँवरे हैं..

हुआ इंगित कुछ कहीं से, वर्जना तुमने करी है.
वह न माने लाज-बादल सिंदूरी फिर-फिर घिरे हैं..

पीत होती देह कम्पित, द्वैत पर अद्वैत की जय.
काम था निष्काम, रति की सुरती के पल माहुरे हैं..

हुई होली, हो रही, होगी हमेशा प्राण-मन की.
विदेहित हो देह ने, रंग-बिरंगे सपने करे हैं..

समर्पण की साधना दुष्कर, 'सलिल' होती सहज भी-
अबीरी-अँजुरी करे अर्पण बिना, हम कब टरे हैं..

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Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com