कुल पेज दृश्य

लाओत्से लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
लाओत्से लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

रविवार, 5 मई 2024

मई ५, छंद जग, नवगीत, विधाता छंद, ओशो चिंतन, लाओत्से, कुमार रवीन्द्र, दोहा दुनिया

 ओशो चिंतन: दोहा मंथन १.

लाओत्से ने कहा है, भोजन में लो स्वाद।
सुन्दर सी पोशाक में, हो घर में आबाद।।
रीति का मजा खूब लो
*
लाओत्से ने बताया, नहीं सरलता व्यर्थ।
रस बिन भोजन का नहीं, सत्य समझ कुछ अर्थ।।
रस न लिया; रस-वासना, अस्वाभाविक रूप।
ले विकृत हो जाएगी, जैसे अँधा कूप।।
छोटी-छोटी बात में, रस लेना मत भूल।
करो सलिल-स्पर्श तो, लगे खिले शत फ़ूल।
जल-प्रपात जल-धार की, शीतलता अनुकूल।।
जीवन रस का कोष है, नहीं मोक्ष की फ़िक्र।
जीवन से रस खो करें, लोग मोक्ष का ज़िक्र।।
मंदिर-मस्जिद की करे, चिंता कौन अकाम।
घर को मंदिर बना लो, हो संतुष्ट सकाम।।
छोटा घर संतोष से, भर होता प्रभु-धाम।
तृप्ति आदमी को मिले, घर ही तीरथ-धाम।।
महलों में तुम पाओगे, जगह नहीं है शेष।
सौख्य और संतोष का, नाम न बाकी लेश।।
जहाँ वासना लबालब, असंतोष का वास।
बड़ा महल भी तृप्ति बिन, हो छोटा ज्यों दास।।
क्या चाहोगे? महल या, छोटा घर; हो तृप्त?
रसमय घर या वरोगे, महल विराट अतृप्त।।
लाओत्से ने कहा है:, "भोजन रस की खान।
सुन्दर कपड़े पहनिए, जीवन हो रसवान।।"
लाओ नैसर्गिक बहुत, स्वाभाविक है बात।
मोर नाचता; पंख पर, रंगों की बारात।।
तितली-तितली झूमती, प्रकृति बहुत रंगीन।
प्रकृति-पुत्र मानव कहो, क्यों हो रंग-विहीन?
पशु-पक्षी तक ले रहे, रंगों से आनंद।
मानव ले; तो क्या बुरा, झूमे-गाए छंद।।
वस्त्राभूषण पहनते, थे पहले के लोग।
अब न पहनते; क्यों लगा, नाहक ही यह रोग?
स्त्री सुंदर पहनती, क्यों सुंदर पोशाक।
नहीं प्राकृतिक यह चलन, रखिए इसको ताक।।
पंख मोर के; किंतु है, मादा पंख-विहीन।
गाता कोयल नर; मिले, मादा कूक विहीन।।
नर भी आभूषण वसन, बहुरंगी ले धार।
रंग न मँहगे, फूल से, करे सुखद सिंगार।।
लाओ कहता: पहनना, सुन्दर वस्त्र हमेश।
दुश्मन रस के साधु हैं, कहें: 'न सुख लो लेश।।'
लाओ कहता: 'जो सहज, मानो उसको ठीक।'
मुनि कठोर पाबंद हैं, कहें न तोड़ो लीक।।
मन-वैज्ञानिक कहेंगे:, 'मना न होली व्यर्थ।
दीवाली पर मत जला, दीप रस्म बेअर्थ।।'
खाल बाल की निकालें, यह ही उनका काम।
खुशी न मिल पाए तनिक, करते काम तमाम।।
अपने जैसे सभी का, जीवन करें खराब।
मन-वैज्ञानिक शूल चुन, फेंके फूल गुलाब।।
लाओ कहता: 'रीति का, मत सोचो क्या अर्थ?
मजा मिला; यह बहुत है, शेष फ़िक्र है व्यर्थ।।
होली-दीवाली मना, दीपक रंग-गुलाल।
सबका लो आनंद तुम, नहीं बजाओ गाल।।
***
५-५-२०१८, १८.२०
दोहा मुक्तक
लता-लता पर छा रहा, नव वासंती रंग।
ताल ताल पर ताल दें, मछली सहित तरंग।।
नेह-नर्मदा में नहा, भ्रमर-तितलियाँ मौन-
कली-फूल पी मस्त हैं, मानो मद की भंग।।
५.५.२०१८
कृति चर्चा-
'अप्प दीपो भव' प्रथम नवगीतिकाव्य
चर्चाकार- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण- अप्प दीपो भव, कुमार रवीन्द्र, नवगीतीय प्रबंध काव्य, आवरण बहुरंगी,सजिल्द जेकेट सहित, आकार २२ से.मी. x १४.५ से.मी., पृष्ठ ११२, मूल्य ३००/-, उत्तरायण प्रकाशन के ३९७ आशियाना, लखनऊ २२६०१२, ९८३९८२५०६२, रचनाकार संपर्क- क्षितिज ३१०, अर्बन स्टेट २ हिसार हरयाणा ०१६६२२४७३४७]
*
'अप्प दीपो भव' भगवान बुद्ध का सन्देश और बौद्ध धर्म का सार है। इसका अर्थ है अपने आत्म को दीप की तरह प्रकाशवान बनाओ। कृति का शीर्षक और मुखपृष्ठ पर अंकित विशेष चित्र से कृति का गौतम बुद्ध पर केन्द्रित होना इंगित होता है। वृक्ष की जड़ों के बीच से झाँकती मंद स्मितयुक्त बुद्ध-छवि ध्यान में लीन है। कृति पढ़ लेने पर ऐसा लगता है कि लगभग सात दशकीय नवगीत के मूल में अन्तर्निहित मानवीय संवेदनाओं से संपृक्तता के मूल और अचर्चित मानक की तरह नवगीतानुरूप अभिनव कहन, शिल्प तथा कथ्य से समृद्ध नवगीति काव्य का अंकुर मूर्तिमंत हुआ है।
कुमार रवीन्द्र समकालिक नव गीतकारों में श्रेष्ठ और ज्येष्ठ हैं। नवगीत के प्रति समीक्षकों की रूढ़ दृष्टि का पूर्वानुमान करते हुए रवीन्द्र जी ने स्वयं ही इसे नवगीतीय प्रबंधकाव्य न कहकर नवगीत संग्रह मात्र कहा है। एक अन्य वरिष्ठ नवगीतकार मधुकर अष्ठाना जी ने विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर द्वारा आयोजित संगोष्ठी में इसे 'काव्य नाटक' कहा है । अष्ठाना जी के अनुसार रचनाओं की प्रस्तुति नवगीत के शिल्प में तो है किन्तु कथ्य और भाषा नवगीत के अनुरूप नहीं है। यह स्वाभाविक है। जब भी कोई नया प्रयोग किया जाता है तो उसके संदर्भ में विविध धारणाएँ और मत उस कृति को चर्चा का केंद्र बनाकर उस परंपरा के विकास में सहायक होते हैं जबकि मत वैभिन्न्य न हो तो समुचित चर्चा न होने पर कृति परंपरा का निर्माण नहीं कर पाती।
एक और वरिष्ठ नवगीतकार निर्मल शुक्ल जी इसे नवगीत संग्रह कहा है। सामान्यत: नवगीत अपने आप में स्वतंत्र और पूर्ण होने के कारण मुक्तक काव्य संवर्ग में वर्गीकृत किया जाता है। इस कृति का वैशिष्ट्य यह है कि सभी गीत बुद्ध के जीवन प्रसंगों से जुड़े होने के साथ-साथ अपने आपमें हर गीत पूर्ण और अन्यों से स्वतंत्र है। बुद्ध के जीवन के सभी महत्वपूर्ण प्रसंगों पर रचित नवगीत बुद्ध तथा अन्य पात्रों के माध्यम से सामने आते हुए घटनाक्रम और कथावस्तु को पाठक तक पूरी संवेदना के साथ पहुँचाते हैं। नवगीत के मानकों और शिल्प से रचनाकार न केवल परिचित है अपितु उनको प्रयोग करने में प्रवीण भी है। यदि आरंभिक मानकों से हटकर उसने नवगीत रचे हैं तो यह कोई कमी नहीं, नवगीत लेखन के नव आयामों का अन्वेषण है।
काव्य नाटक साहित्य का वह रूप है जिसमें काव्यत्व और नाट्यत्व का सम्मिलन होता है। काव्य तत्व नाटक की आत्मा तथा नाट्य तत्व रूप व कलेवर का निर्माण करता है। काव्य तत्व भावात्मकता, रसात्मकता तथा आनुभूतिक तीव्रता का वाहक होता है जबकि नाट्य तत्व कथानक, घटनाक्रम व पात्रों का। अंग्रेजी साहित्य कोश के अनुसार ''पद्य में रचित नाटक को 'पोयटिक ड्रामा' कहते हैं। इनमें कथानक संक्षिप्त और चरित्र संख्या सीमित होती है। यहाँ कविता अपनी स्वतंत्र सत्ता खोकर अपने आपको नाटकीयता में विलीन कर देती है।१ टी. एस. इलियट के अनुसार कविता केवल अलंकरण और श्रवण-आनंद की वाहक हो तो व्यर्थ है।२ एबरकोम्बी के अनुसार कविता नाटक में पात्र स्वयं काव्य बन जाता है।३ डॉ. नगेन्द्र के मत में कविता नाटकों में अभिनेयता का तत्व महत्वपूर्ण होता है।४, पीकोक के अनुसार नाटकीयता के साथ तनाव व द्वंद भी आवश्यक है।५ डॉ. श्याम शर्मा मिथकीय प्रतीकों के माध्यम से आधुनिक युगबोध व्यंजित करना काव्य-नाटक का वैशिष्ट्य कहते हैं६ जबकि डॉ. सिद्धनाथ कुमार इसे दुर्बलता मानते हैं।७. डॉ. लाल काव्य नाटक का लक्षण बाह्य संघर्ष के स्थान पर मानसिक द्वन्द को मानते हैं।८.
भारतीय परंपरा में काव्य दृश्य और श्रव्य दो वर्गों में वर्गीकृत है। दृश्य काव्य मंचित किए जा सकते हैं। दृश्य काव्य में परिवेश, वेशभूषा, पात्रों के क्रियाकलाप आदि महत्वपूर्ण होते हैं। विवेच्य कृति में चाक्षुष विवरणों का अभाव है। 'अप्प दीपो भव' को काव्य नाटक मानने पर इसकी कथावस्तु और प्रस्तुतीकरण को रंगमंचीय व्यवस्थाओं के सन्दर्भ में भी आकलित करना होगा। कृति में कहीं भी रंगमंच संबंधी निर्देश या संकेत नहीं हैं। विविध प्रसंगों में पात्र कहीं-कहीं आत्मालाप तो करते हैं किन्तु संवाद या वार्तालाप नहीं हैं। नवगीतकार द्वारा पात्रों की मन: स्थितियों को सूक्ष्म संकेतों द्वारा इंगित किया गया है। कथा को कितने अंकों में मंचित किया जाए, कहीं संकेत नहीं है। स्पष्ट है कि यह काव्य नाटक नहीं है। यदि इसे मंचित करने का विचार करें तो कई परिवर्तन करना होंगे। अत:, इसे दृश्य काव्य या काव्य नाटक नहीं कहा जा सकता।
श्रव्य काव्य शब्दों द्वारा पाठकों और श्रोताओं के हृदय में रस का संचार करता है। पद्य, गद्य और चम्पू श्रव्यकाव्य हैं। गत्यर्थक में 'पद्' धातु से निष्पन ‘पद्य’ शब्द गति प्रधान है। पद्यकाव्य में ताल, लय और छन्द की व्यवस्था होती है। पद्यकाव्य के दो उपभेद महाकाव्य और खण्डकाव्य हैं। खण्डकाव्य को ‘मुक्तकाव्य’ भी कहते हैं। खण्डकाव्य में महाकाव्य के समान जीवन का सम्पूर्ण इतिवृत्त न होकर किसी एक अंश का वर्णन किया जाता है— खण्डकाव्यं भवेत्काव्यस्यैकदेशानुसारि च। – साहित्यदर्पण।
कवित्व व संगीतात्मकता का समान महत्व होने से खण्डकाव्य को ‘गीतिकाव्य’ भी कहते हैं। ‘गीति’ का अर्थ हृदय की रागात्मक भावना को छन्दोबद्ध रूप में प्रकट करना है। गीति की आत्मा भावातिरेक है। अपनी रागात्मक अनुभूति और कल्पना के कवि वर्ण्यवस्तु को भावात्मक बना देता है। गीतिकाव्य में काव्यशास्त्रीय रूढ़ियों और परम्पराओं से मुक्त होकर वैयक्तिक अनुभव को सरलता से अभिव्यक्त किया जाता है। स्वरूपत: गीतिकाव्य का आकार-प्रकार महाकाव्य से छोटा होता है। इस निकष पर 'अप्प दीपो भव' नव गीतात्मक गीतिकाव्य है। संस्कृत में गीतिकाव्य मुक्तक और प्रबन्ध दोनों रूपों में प्राप्त होता है। प्रबन्धात्मक गीतिकाव्य मेघदूत है। मुक्तक काव्य में प्रत्येक पद्य अपने आप में स्वतंत्र होता है। इसके उदाहरण अमरूकशतक और भतृहरिशतकत्रय हैं। संगीतमय छन्द व मधुर पदावली गीतिकाव्य का लक्षण है। इन लक्षणों की उपस्थित्ति 'अप्प दीपो भव' में देखते हुए इसे नवगीति काव्य कहना उपयुक्त है। निस्संदेह यह हिंदी साहित्य में एक नयी लीक का आरम्भ करती कृति है।
हिंदी में गीत या नवगीत में प्रबंध कृति का विधान न होने तथा प्रसाद कृत 'आँसू' तथा बच्चन रचित 'मधुशाला' के अतिरिक्त अन्य महत्त्वपूर्ण कृति न लिखे जाने से उपजी शून्यता को 'अप्प दीपो भव' भंग करती है। किसी चरिते के मनोजगत को उद्घाटित करते समय इतिवृत्तात्मक लेखन अस्वाभाविक लगेगा। अवचेतन को प्रस्तुत करती कृति में घटनाक्रम को पृष्ठभूमि में संकेतित किया जाना पर्याप्त है। घटना प्रमुख होते ही मन-मंथन गौड़ हो जाएगा। कृतिकार ने इसीलिये इस नवगीतिकाव्य में मानवीय अनुभूतियों को प्राधान्य देने हेतु एक नयी शैली को अन्वेषित किया है। इस हेतु लुमार रवीन्द्र साधुवाद के पात्र हैं।
बुद्ध को विष्णु का अवतार स्वीकारे जाने पर भी पर स्व. मैथिलीशरण गुप्त रचित यशोधरा खंडकाव्य के अतिरिक्त अन्य महत्वपूर्ण काव्य कृति नहीं है जबकि महावीर को विष्णु का अवतार न माने जाने पर भी कई कवत कृतियाँ हैं। कुमार रवीन्द्र ने बुद्ध तथा उनके जीवन काल में महत्वपूर्ण भूमिका निर्वाह करनेवाले पात्रों में अंतर्मन में झाँककर तात्कालिक दुविधाओं, शंकाओं, विसंगतियों, विडंबनाओं, उनसे उपजी त्रासदियों से साक्षात कर उनके समाधान के घटनाक्रम में पाठक को संश्लिष्ट करने में सफलता पाई है। तथागत ११, नन्द ५, यशोधरा ५, राहुल ५, शुद्धोदन ५, गौतमी २, बिम्बसार २, अंगुलिमाल २, आम्रपाली ३, सुजाता ३, देवदत्त १, आनंद ४ प्रस्तुतियों के माध्यम से अपने मानस को उद्घाटित करते हैं। परिनिर्वाण, उपसंहार तथा उत्तर कथन शीर्षकान्तार्गत रचनाकार साक्षीभाव से बुद्धोत्तर प्रभावों की प्रस्तुति स्वीकारते हुए कलम को विराम देता है।
गृह त्याग पश्चात बुद्ध के मन में विगत स्मृतियों के छाने से आरम्भ कृति के हर नवगीत में उनके मन की एक परत खुलती है. पाठक जब तक पिछली स्मृति से तादात्म्य बैठा पाए, एक नयी स्मृति से दो-चार होता है। आदि से अंत तक औत्सुक्य-प्रवाह कहीं भंग नहीं होता। कम से कम शब्दों में गहरी से गहरी मन:स्थिति को शब्दित करने में कुमार रवीन्द्र को महारथ हासिल है। जन्म, माँ की मृत्यु, पिता द्वारा भौतिक सुख वर्षा, हंस की प्राण-रक्षा, विवाह, पुत्रजन्म, गृह-त्याग, तप से बेसुध, सुजाता की खीर से प्राण-रक्षा, भावसमाधि और बोध- 'गौतम थे / तम से थे घिरे रहे / सूर्य हुए / उतर गए पल भर में / कंधों पर लदे-हुए सभी जुए', 'देह के परे वे आकाश हुए', 'दुःख का वह संस्कार / साँसों में व्यापा', 'सूर्य उगा / आरती हुई सॉंसें', ''देहराग टूटा / पर गौतम / अन्तर्वीणा साध न पाए', 'महासिंधु उमड़ा / या देह बही / निर्झर में' / 'सभी ओर / लगा उगी कोंपलें / हवाओं में पतझर में', 'बुद्ध हुए मौन / शब्द हो गया मुखर / राग-द्वेष / दोनों से हुए परे / सड़े हुए लुगड़े से / मोह झरे / करुना ही शेष रही / जो है अक्षर / अंतहीन साँसों का / चक्र रुका / कष्टों के आगे / सिर नहीं झुका / गूँजे धम्म-मन्त्रों से / गाँव-गली-घर / ऋषियों की भूमि रही / सारनाथ / करुणा का वहीं उठा / वरद हाथ / क्षितिजों को बेध गए / बुद्धों के स्वर'
गागर में सागर समेटती अभिव्यक्ति पाठक को मोहे रखती है। एक-एक शब्द मुक्तामाल के मोती सदृश्य चुन-चुन कर रखा गया है। सन्यस्त बुद्ध के आगमन पर यशोधरा की अकथ व्यथा का संकेतन देखें 'यशोधरा की / आँख नहीं / यह खारे जल से भरा ताल है... यशोधरा की / देह नहीं / यह राख हुआ इक बुझा ज्वाल है... यशोधरा की / बाँह नहीं / यह किसी ठूँठ की कटी डाल है... यशोधरा की / सांस नहीं / यह नारी का अंतिम सवाल है'। अभिव्यक्ति सामर्थ्य और शब्द शक्ति की जय-जयकार करती ऐसी अभिव्यक्तियों से समृद्ध-संपन्न पाठक को धन्यता की प्रतीति कराती है। पाठक स्वयं को बुद्ध, यशोधरा, नंद, राहुल आदि पात्रों में महसूसता हुआ सांस रोके कृति में डूबा रहता है।
कुमार रवींद्र का काव्य मानकों पर परखे जाने का विषय नहीं, मानकों को परिमार्जित किये जाने की प्रेरणा बनता है। हिंदी गीतिकाव्य के हर पाठक और हर रचनाकार को इस कृति का वाचन बार-बार करना चाहिए।
--------------------------------
संदर्भ- १. दामोदर अग्रवाल, अंग्रेजी साहित्य कोश, पृष्ठ ३१४।२. टी. एस. इलियट, सलेक्ट प्रोज, पृष्ठ ६८। ३. एबरकोम्बी, इंग्लिश क्रिटिक एसेज, पृष्ठ २५८। ४. डॉ. नगेंद्र, अरस्तू का काव्य शास्त्र, पृष्ठ ७४। ५. आर. पीकोक, द आर्ट ऑफ़ ड्रामा, पृष्ठ १६०। ६. डॉ. श्याम शर्मा, आधुनिक हिंदी नाटकों में नायक, पृष्ठ १५५। ७. डॉ. सिद्धनाथ कुमार, माध्यम, वर्ष १ अंक १०, पृष्ठ ९६। ८. डॉ. लक्ष्मी नारायण लाल, आधुनिक हिंदी नाटक और रंगमंच, पृष्ठ १०। ९.
***
दोहा दुनिया
*
सरहद पर सर काट कर, करते हैं हद पार
क्यों लातों के देव पर, हों बातों के वार?
*
गोस्वामी से प्रभु कहें, गो स्वामी मार्केट
पिज्जा-बर्जर भोग में, लाओ न होना लेट
*
भोग लिए ठाकुर खड़ा, करता दंड प्रणाम
ठाकुर जी मुस्का रहे, आज पड़ा फिर काम
*
कहें अजन्मा मनाकर, जन्म दिवस क्यों लोग?
भले अमर सुर, मना लो मरण दिवस कर सोग
*
ना-ना कर नाना दिए, है आकार-प्रकार
निराकार पछता रहा, कर खुद के दीदार
५-५-२०१७
***
मुक्तिका
*
वार्णिक छंद: अथाष्टि जातीय छंद
मात्रिक छंद: यौगिक जातीय विधाता छंद
1 2 2 2 , 1 2 2 2 , 1 2 2 2 , 1 2 2 2.
मुफ़ाईलुन,मुफ़ाईलुन, मुफ़ाईलुन,मुफ़ाईलुन।
बहरे हज़ज मुसम्मन सालिम।।
*
दियों में तेल या बाती नहीं हो तो करोगे क्या?
लिखोगे प्रेम में पाती नहीं भी तो मरोगे क्या?
.
बुलाता देश है, आओ! भुला दो दूरियाँ सारी
बिना गंगा बहाए खून की, बोलो तरोगे क्या?
.
पसीना ही न जो बोया, रुकेगी रेत ये कैसे?
न होगा घाट तो बोलो नदी सूखी रखोगे क्या?
.
परों को ही न फैलाया, नपेगा आसमां कैसे?
न हाथों से करोगे काम, ख्वाबों को चरोगे क्या?
.
न ज़िंदा कौम को भाती कभी भी भीख की बोटी
न पौधे रोप पाए तो कहीं फूलो-फलोगे क्या?
...
इस बह्र में कुछ प्रचलित गीत
१. तेरी दुनिया में आकर के ये दीवाने कहाँ जाएँ
मुहब्बत हो गई जिनको वो परवाने कहाँ जाएँ
२. मुझे तेरी मुहब्बत का सहारा मिल गया होता
३. चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाए हम दोनों
४. खुदा भी आसमाँ से जब जमीं पर देखता होगा
५. सुहानी रात ढल चुकी न जाने तुम कब आओगेे
६. कभी तन्हाइयों में भी हमारी याद आएगी
७. है अपना दिल तो अावारा न जाने किस पे आएगा
८. बहारों फूल बरसाओ मेरा महबूब आया है
९. सजन रे! झूठ मत बोलो खुदा के पास जाना है
५-५-२०१७
***
दोहा प्रश्नोत्तर
कविता का है मूल क्या?,
और आप हैं कौन?
उत्तर दोनों प्रश्न का,
'सलिल' एक है- 'मौन'..
नवगीत:
*
जिन्स बना
बिक रहा आजकल
ढाई आखर
.
दाँत दूध के टूट न पाये
पर वयस्क हैं.
नहीं सुंदरी नर्स इसलिए
अनमयस्क हैं.
चूस रहे अंगूठा लेकिन
आँख मारते
बाल भारती पढ़ न सके
डेटिंग परस्त हैं
हर उद्यान
काम-क्रीड़ा हित
इनको बाखर
जिन्स बना
बिक रहा आजकल
ढाई आखर
.
मकरध्वज घुट्टी में शायद
गयी पिलायी
वात्स्यायन की खोज
गर्भ में गयी सुनायी
मान देह को माटी माटी से
मिलते हैं
कीचड किया, न शतदल कलिका
गयी खिलायी
मन अनजाना
तन इनको केवल
जलसाघर
जिन्स बना
बिक रहा आजकल
ढाई आखर
५-५-२०१५
***
छंद सलिला:
जग छंद
*
छंद-लक्षण: जाति रौद्राक, प्रति चरण मात्रा २३ मात्रा, यति १० - ८ - ५, चरणान्त गुरु लघु (तगण, जगण) ।
लक्षण छंद:
कदम-कदम मंज़िल / को छू पायें / पग आज
कोशिश-शीश रखेँ / अनथक श्रम कर / हम ताज
यति दस आठ पाँच / पर, गुरु लघु हो / चरणांत
तेइस मात्री जग / रच कवि पा यश / इस व्याज
उदाहरण:
१. धूप-छाँव, सुख-दुःख / धीरज धरकर / ले झेल
मन मत विचलित हो / है यह प्रभु / का खेल
सच्चे शुभ चिंतक / को दुर्दिन मेँ / पहचान
संग रहे तम मेँ / जो- हितचिंतक / मतिमान
२. चित्रगुप्त परब्रम्ह / ही निराकार / साकार
कंकर-कंकर मेँ / बसते लेकर / आकार
घट-घटवासी हैं / तन में आत्मा / ज्यों गुप्त
जागृत देव सदैव / होते न कभी / भी सुप्त
३. हम सबको रहना / है मिलकर हर/दम साथ
कभी न छोड़ेंगे / हमने थामे / हैं हाथ
एक-नेक होँ हम / सब भेद करें/गे दूर
'सलिल' न झुकने दें/गे हम भारत / का माथ
५-५-२०१४
***
मुखपुस्तकी गपशप- स्त्री विमर्श
women are like vehicles, everyone appreciate the outside beauty, but the inner beauty is embraced by her owner- - पायल शर्मा
*
संजीव
'स्त्री वाहन नहीं, संस्कृति की वाहक है.
मानव मूल्यों की स्त्री ही तो चालक है..
वाहन की चाबी कोई भी ले सकता है.
चाबी लगा घुमा कर उसको खे सकता है.
स्त्री चाबी बना पुरुष को सदा घुमाती.
जब जी चाहे रोके, उठा उसे दौडाती.
विधि-हरि-हर पर शारद-रमा-उमा हावी हैं.
नव दुर्गा बन पुजती स्त्री ही भावी है'
*
नवीन चतुर्वेदी, मुम्बई- आपकी भाषा जानी पहचानी सी लगती है |
*
राज भाटिया- बहुत सुंदर लगी आप की यह कविता
*
संजीव
स्त्री सदा 'नवीन' है, पुरुष सदा प्राचीन.
'राज' करे नाराज हो, यह उँगली वह बीन..
कौन 'चतुर्वेदी' जिसे, यह चतुरा न नचाय.
भाट बने जो 'भाटिया', का ख़िताब वह पाय..
नाच इशारों पर 'सलिल', तभी रहेगी खैर.
देव न दानव बच सके, स्त्री से कर बैर..
*
नवींन चतुर्वेदी
बात करें यूँ सार की, लगती मगर अजीब |
उनका ही तो नाम है, वर्मा सलिल संजीव ||
*
संजीव
बात सार की चाहता, करता जगत असार.
मतभेदों को पोसते, 'सलिल' न पालें प्यार..
है 'नवीन' जो आज वह, कल होता प्राचीन.
'राज' स्वराज विराजता, पर जनगण है दीन..
*
५.५.२०१०
प्रश्नोत्तर
कविता का है मूल क्या?,
कवि होता है कौन?
उत्तर दोनों प्रश्न का,
'सलिल' एक है- 'मौन'..
५-५-२०१०

बुधवार, 8 मार्च 2023

ओशो,लाओत्से,क्षणिका,महिला,सुधारानी श्रीवास्तव,सॉनेट,तुम,मुक्तिका, श्रृंगार गीत,

होली सलिला 
*
अबकी फागुन में शरारत ये मेरे साथ हुई
मोदी-ममता की लगावट, हुई खटास मुई
युद्ध बंगाल का कुरुक्षेत्र से संगीन अधिक
तीर-तलवार चला कह रहे, चुभा न सुई
रंगे हाथों न पकड़ जाएँ, कभी इस खातिर
दिल की रंगीनियों ने, दिमागी ज़मीं न छुई
*
मुक्तिका 
होली मने 
*
भावना बच पाए तो होली मने
भाव ना बढ़ पाएँ तो होली मने
*
काम ना मिल सके तो त्यौहार क्या
कामना हो पूर्ण तो होली मने
*
साधना की सिद्धि ही होली सखे!
साध ना पाए तो क्या होली मने?
*
वासना से दूर हो होली सदा
वास ना हो दूर तो होली मने
*
झाड़ ना काटो-जलाओ अब कभी
झाड़ना विद्वेष तो होली मने
*
लालना बृज का मिले तो मन खिले
लाल ना भटके तभी होली मने
*
साज ना छोड़े बजाना मन कभी
साजना हो साथ तो होली मने
*   
होली सलिला
होरी के जे हुरहुरे
*
होरी के जे हुरहुरे, लिये स्नेह-सौगात
कौनऊ सुन मुसक्या रहे, कौनऊ दिल सहलात
कौनऊ दिल सहलात, किन्हऊ खों चढ़ि गओ पारा,
जिन खों पारा चढ़े, होय उनखों मूं कारा
जोगीरा सा रा रा रा
*
मुठिया भरे गुलाल से, लै पिचकारी रंग।
शारद ब्रह्मा को रंगें, देखे सब जग दंग।।
जोगीरा सा रा रा रा.....
*  
काली जी पर कोई भी, चढ़ा न पाया रंग।
हुए लाल-पीले तुनक, शिव जी पीकर भंग।।
जोगीरा सा रा रा रा.....
*  
मुठिया भरे गुलाल से, लै पिचकारी रंग।
शारद गणपति को रंगें, रिद्धि-सिद्धि है दंग।।
जोगीरा सा रा रा रा.....
*  
भांग भवानी से भरे, सूँढ गजानन मौन।
पिएँ गटागट रोक दे, कहिए कैसे कौन।।
जोगीरा सा रा रा रा.....
*
गुप्त चित्र पर डलेगा, कैसे कहिए रंग।
चित्रगुप्त की चतुरता, देखें देव अनंग।।
जोगीरा सा रा रा रा.....
*  
सिय बिन मूरत राम की, लगे अवध में आज।
होली कैसे मनाएँ, कहिए योगिराज।।
जोगीरा सा रा रा रा.....
***  
ओशो चिंतन: दोहा मंथन १.
*
लाओत्से ने कहा है, भोजन में लो स्वाद।
सुन्दर सी पोशाक में, हो घर में आबाद।।
लाओत्से ने बताया, नहीं सरलता व्यर्थ।
रस बिन भोजन का नहीं, सत्य समझ कुछ अर्थ।।
रस न लिया; रस-वासना, अस्वाभाविक रूप।
ले विकृत हो जाएगी, जैसे अँधा कूप।।
छोटी-छोटी बात में, रस लेना मत भूल।
करो सलिल-स्पर्श तो, लगे खिले शत फ़ूल।
जल-प्रपात जल-धार की, शीतलता अनुकूल।।
जीवन रस का कोष है, नहीं मोक्ष की फ़िक्र।
जीवन से रस खो करें, लोग मोक्ष का ज़िक्र।।
मंदिर-मस्जिद की करे, चिंता कौन अकाम।
घर को मंदिर बना लो, हो संतुष्ट सकाम।।
छोटा घर संतोष से, भर होता प्रभु-धाम।
तृप्ति आदमी को मिले, घर ही तीरथ-धाम।।
महलों में तुम पाओगे, जगह नहीं है शेष।
सौख्य और संतोष का, नाम न बाकी लेश।।
जहाँ वासना लबालब, असंतोष का वास।
बड़ा महल भी तृप्ति बिन, हो छोटा ज्यों दास।।
क्या चाहोगे? महल या, छोटा घर; हो तृप्त?
रसमय घर या वरोगे, महल विराट अतृप्त।।
लाओत्से ने कहा है:, "भोजन रस की खान।
सुन्दर कपड़े पहनिए, जीवन हो रसवान।।"
लाओ नैसर्गिक बहुत, स्वाभाविक है बात।
मोर नाचता; पंख पर, रंगों की बारात।।
तितली-तितली झूमती, प्रकृति बहुत रंगीन।
प्रकृति-पुत्र मानव कहो, क्यों हो रंग-विहीन?
पशु-पक्षी तक ले रहे, रंगों से आनंद।
मानव ले; तो क्या बुरा, झूमे-गाए छंद।।
वस्त्राभूषण पहनते, थे पहले के लोग।
अब न पहनते; क्यों लगा, नाहक ही यह रोग?
स्त्री सुंदर पहनती, क्यों सुंदर पोशाक।
नहीं प्राकृतिक यह चलन, रखिए इसको ताक।।
पंख मोर के; किंतु है, मादा पंख-विहीन।
गाता कोयल नर; मिले, मादा कूक विहीन।।
नर भी आभूषण वसन, बहुरंगी ले धार।
रंग न मँहगे, फूल से, करे सुखद सिंगार।।
लाओ कहता: पहनना, सुन्दर वस्त्र हमेश।
दुश्मन रस के साधु हैं, कहें: 'न सुख लो लेश।।'
लाओ कहता: 'जो सहज, मानो उसको ठीक।'
मुनि कठोर पाबंद हैं, कहें न तोड़ो लीक।।
मन-वैज्ञानिक कहेंगे:, 'मना न होली व्यर्थ।
दीवाली पर मत जला, दीप रस्म बेअर्थ।।'
खाल बाल की निकालें, यह ही उनका काम।
खुशी न मिल पाए तनिक, करते काम तमाम।।
अपने जैसे सभी का, जीवन करें खराब।
मन-वैज्ञानिक शूल चुन, फेंके फूल गुलाब।।
लाओ कहता: 'रीति का, मत सोचो क्या अर्थ?
मजा मिला; यह बहुत है, शेष फ़िक्र है व्यर्थ।।
होली-दीवाली मना, दीपक रंग-गुलाल।
सबका लो आनंद तुम, नहीं बजाओ गाल।।
***
क्षणिका
महिला
*
खुश हो तो
खुशी से दुनिया दे हिला
नाखुश हो तो
नाखुशी से लोहा दे पिघला
खुश है या नाखुश
विधाता को भी न पता चला
अनबूझ पहेली
अनन्य सखी-सहेली है महिला
***

सॉनेट
तुम
*
ट्रेन सरीखी लहरातीं तुम।
पुल जैसे मैं थरथर होता।
अपनों जैसे भरमातीं तुम।।
मैं सपनों सा बेघर होता।।
तुम जुमलों जैसे मन भातीं।
मैं सचाई सम कडुवा लगता।
न्यूज़ सरीखी तुम बहकातीं।।
ठगा गया मैं; खुद को ठगता।।
कहतीं मन की बात, न सुनतीं।
जन की बात अनकही रहती।
ईश न जाने क्या तुम गुनतीं।।
सुधियों की चादर नित तहती।।
तुम केवल तुम, कोई न तुम सा।
तुम में हूँ मैं खुद भी गुम सा।।
८-३-२०२२
***
मुक्तिका
*
झुका आँखें कहर ढाए
मिला नज़रें फतह पाए
चलाए तीर जब दिल पर
न कोई दिल ठहर पाए
गहन गंभीर सागर सी
पवन चंचल भी शर्माए
धरा सम धैर्य धारणकर
बदरियों सी बरस जाए
करे शुभ भगवती हो यह
अशुभ हो तो कहर ढाए
कभी अबला, कभी सबला
बला हर पल में हर गाए
न दोधारी, नहीं आरी
सुनारी सभी को भाए
८-३-२०२०
***
महिला दिवस पर विशेष
बहुमुखी प्रतिभा की धनी विधि पंडिता सुधारानी श्रीवास्तव
श्रीमती सुधारानी श्रीवास्तव का महाप्रस्थान रंग पर्व के रंगों की चमक कम कर गया है। इल बहुमुखी बहुआयामी प्रतिभा का सम्यक् मूल्यांकन समय और समाज नहीं कर सका। वे बुंदेली और भारतीय पारंपरिक परंपराओं की जानकार, पाककला में निष्णात, प्रबंधन कला में पटु, वाग्वैदग्धय की धनी, शिष्ट हास-परिहासपूर्ण व्यक्तित्व की धनी, प्रखर व्यंग्यकार, प्रकांड विधिवेत्ता, कुशल कवयित्री, संस्कृत, हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू साहित्य की गंभीर अध्येता, संगीत की बारीकियों को समझनेवाली सुरुचिपूर्ण गरिमामयी नारी हैं। अनेकरूपा सुधा दीदी संबंधों को जीने में विश्वास करती रहीं। उन जैसे व्यक्तित्व काल कवलित नहीं होते, कालातीत होकर अगणित मनों में बस जाते हैं।
सुधा दीदी १९ जनवरी १९३२ को मैहर राज्य के दीवान बहादुर रामचंद्र सहाय व कुंतीदेवी की आत्मजा होकर जन्मीं। माँ शारदा की कृपा उन पर हमेशा रही। संस्कृत में विशारद, हिंदी में साहित्य रत्न, अंग्रेजी में एम.ए.तथा विधि स्नातक सुधा जी मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में अधिवक्ता रहीं। विधि साक्षरता के प्रति सजग-समर्पित सुधा जी १९९५ से लगातार दो दशकों तक मन-प्राण से समर्पित रहीं। सारल्य, सौजन्य, ममत्व और जनहित को जीवन का ध्येय मानकर सुधा जी ने शिक्षा, साहित्य और संगीत की त्रिवेणी को बुंदेली जीवनशैली की नर्मदा में मिलाकर जीवनानंद पाया-बाँटा।
वे नारी के अधिकारों तथा कर्तव्यों को एक दूसरे का पूरक मानती रहीं। तथाकथित स्त्रीविमर्शवादियों की उन्मुक्तता को उच्छृंखलता को नापसंद करती सुधा जी, भारतीय नारी की गरिमा की जीवंत प्रतीक रहीं। सुधा दीदी और उन्हें भौजी माननेवाले विद्वान अधिवक्ता राजेंद्र तिवारी की सरस नोंक-झोंक जिन्होंने सुनी है, वे आजीवन भूल नहीं सकते। गंभीरता, विद्वता, स्नेह, सम्मान और हास्य-व्यंग्य की ऐसी सरस वार्ता अब दुर्लभ है। कैशोर्य में
संस्कारधानी के दो मूर्धन्य गाँधीवादी हिंदी प्रेमी व्यक्तित्वों ब्यौहार राजेंद्र सिंह व सेठ गोविंददास द्वारा संविधान में हिंदी को स्थान दिलाने के लिए किए गए प्रयासों में सुधा जी ने निरंतर अधिकाधिक सहयोग देकर उनका स्नेहाशीष पाया।
अधिवक्ता और विधिवेत्ता -
१३ अप्रैल १९७५ को महान हिंदी साहित्यकार, स्त्री अधिकारों की पहरुआ,महीयसी महादेवी जी लोकमाता महारानी दुर्गावती की संगमर्मरी प्रतिमा का अनावरण करने पधारीं। तब किसी मुस्लिम महिला पर अत्याचार का समाचार सामने आया था। महादेवी जी ने मिलने पहुँची सुधा जी से पूछा- "सुधा! वकील होकर तू महिलाओं के लिए क्या कर रही है?" महीयसी की बात मन में चुभ गयी। सुधा दीदी ने इलाहाबाद जाकर सर्वाधिक लोकप्रिय पत्रिका मनोरमा के संपादक को प्रेरित कर महिला अधिकार स्तंभ आरंभ किया। शुरू में ४ अंकों में पत्र और उत्तर दोनों वे खुद ही लिखती रहीं। बाद में यह स्तंभ इतना अधिक लोकप्रिय हुआ कि रोज ही पत्रों का अंबार लगने लगा। यह स्तंभ १९८१ तक चला। विधिक प्रकरणों, पुस्तक लेखन तथा अन्य व्यस्तताओं के कारण इसे बंद किया गया। १९८६ से १९८८ तक दैनिक नवीन दुनिया के साप्ताहिक परिशिष्ट नारी निकुंज में "समाधान" शीर्षक से सुधा जी ने विधिक परामर्श दिया।
स्त्री अधिकार संरक्षक -
सामान्य महिलाओं को विधिक प्रावधानों के प्रति सजग करने के लिए सुधा जी ने मनोरमा, धर्मयुग, नूतन कहानियाँ, वामा, अवकाश, विधि साहित्य समाचार, दैनिक भास्कर आदि में बाल अपराध, किशोर न्यायालय, विवाह विच्छेद, स्त्री पुरुष संबंध, न्याय व्यवस्था, वैवाहिक विवाद, महिला भरण-पोषण अधिकार, धर्म परिवर्तन, नागरिक अधिरार और कर्तव्य, तलाक, मुस्लिम महिला अधिकार, समानता, भरण-पोषण अधिकार, पैतृक संपत्ति अधिकार, स्वार्जित संपत्ति अधिकार, विधिक सहायता, जीवनाधिकार, जनहित विवाद, न्याय प्रक्रिया, नागरिक अधिकार, मताधिकार, दुहरी अस्वीकृति, सहकारिता, महिला उत्पीड़न, मानवाधिकार, महिलाओं की वैधानिक स्थिति, उपभोक्ता संरक्षण, उपभोक्ता अधिकार आदि ज्वलंत विषयों पर शताधिक लेख लिखे। कई विषयों पर उन्होंने सबसे पहले लिखा।
विधिक लघुकथा लेखन-
१९८७ में सुधा जी ने म.प्र.राज्य संसाधन केंद्र (प्रौढ़ शिक्षा) इंदौर के लिए कार्यशालाओं का आयोजन कर नव साक्षर प्रौढ़ों के लिए न्याय का घर, भरण-पोषण कानून, अमन की राह पर, वैवाहिक सुखों के अधिकार, सौ हाथ सुहानी बात, माँ मरियम ने राह सुझाई, भूमि के अधिकार आदि पुस्तकों में विधिक लघुकथाओं के माध्यम से हिंदू, मुस्लिम, ईसाई कानूनों का प्राथमिक ग्यान दिया।
उपभोक्ता हित संरक्षण
१९८६ में उपभोक्ता हित संरक्षण कानून बनते ही सुधा जी ने इसका झंडा थाम लिया और १९९२ में "उपभोक्ता संरक्षण : एक अध्ययन" पुस्तक लिखी। भारत सरकार के नागरिक आपूर्ति और उपभोक्ता मामले मंत्रालय ने इसे पुरस्कृत किया।
मानवाधिकार संरक्षण
वर्ष १९९३ में मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम बना। सुधा जी इसके अध्ययन में जुट गईं। भारतीय सामाजिक अनुसंधान परिषद दिल्ली के सहयोग से शोध परियोजना "मानवाधिकार और महिला उत्पीड़न" पर कार्य कर २००१ में पुस्तकाकार में प्रकाशित कराया। इसके पूर्व म.प्र.हिंदी ग्रंथ अकादमी ने सुधा जी लिखित "मानवाधिकार'' ग्रंथ प्रकाशित किया।
विधिक लेखन
सुधा दीदी ने अपने जीवन का बहुमूल्य समय विधिक लेखन को देकर ११ पुस्तकों (भारत में महिलाओं की वैधानिक स्थिति, सोशियो लीगल अास्पेक्ट ऑन कन्ज्यूमरिज्म, उपभोक्ता संरक्षण एक अध्ययन, महिलाओं के प्रति अपराध, वीमेन इन इंडिया, मीनवाधिकार, महिला उत्पीड़न और मानवाधिकार, उपभोक्ता संरक्षण, भारत में मानवाधिकार की अवधारणा, मानवाधिरार और महिला शोषण, ह्यूमैनिटी एंड ह्यूमन राइट्स) का प्रणयन किया।
सशक्त व्यंग्यकार -
सुधा दीदी रचित वकील का खोपड़ा, दिमाग के पाँव तथा दिमाग में बकरा युद्ध तीन व्यंग्य संग्रह तथा ग़ज़ल-ए-सुधा (दीवान) ने सहृदयों से प्रशंसा पाई।
नर्मदा तट सनातन साधनास्थली है। सुधा दीदी ने आजीवन सृजन साधना कर हिंदी माँ के साहित्य कोष को समृद्ध किया है। दलीय राजनीति प्रधान व्यवस्था में उनके अवदान का सम्यक् मूल्यांकन नहीं हुआ। उन्होंने जो मापदंड स्थापित किए हैं, वे अपनी मिसाल आप हैं। सुधा जी जैसे व्यक्तित्व मरते नहीं, अमर हो जाते हैं। मेरा सौभाग्य है कि मुझे उनका स्नेहाशीष और सराहना निरंतर मिलती रही।
८-३-२०२०
***
गीत 
महिला दिवस
*
एक दिवस क्या
माँ ने हर पल, हर दिन
महिला दिवस मनाया।
*
अलस सवेरे उठी पिता सँग
स्नान-ध्यान कर भोग लगाया।
खुश लड्डू गोपाल हुए तो
चाय बनाकर, हमें उठाया।
चूड़ी खनकी, पायल बाजी
गरमागरम रोटियाँ फूली
खिला, आप खा, कंडे थापे
पड़ोसिनों में रंग जमाया।
विद्यालय से हम,
कार्यालय से
जब वापिस हुए पिताजी
माँ ने भोजन गरम कराया।
*
ज्वार-बाजरा-बिर्रा, मक्का
चाहे जो रोटी बनवा लो।
पापड़, बड़ी, अचार, मुरब्बा
माँ से जो चाहे डलवा लो।
कपड़े सिल दे, करे कढ़ाई,
बाटी-भर्ता, गुझिया, लड्डू
माँ के हाथों में अमृत था
पचता सब, जितना जी खा लो।
माथे पर
नित सूर्य सजाकर
अधरों पर
मृदु हास रचाया।
*
क्रोध पिता का, जिद बच्चों की
गटक हलाहल, देती अमृत।
विपदाओं में राहत होती
बीमारी में माँ थी राहत।
अन्नपूर्णा कम साधन में
ज्यादा काम साध लेती थी
चाहे जितने अतिथि पधारें
सबका स्वागत करती झटपट।
नर क्या,
ईश्वर को भी
माँ ने
सोंठ-हरीरा भोग लगाया।
*
आँचल-पल्लू कभी न ढलका
मेंहदी और महावर के सँग।
माँ के अधरों पर फबता था
बंगला पानों का कत्था रँग।
गली-मोहल्ले के हर घर में
बहुओं को मिलती थी शिक्षा
मैंनपुरी वाली से सीखो
तनक गिरस्थी के कुछ रँग-ढंग।
कर्तव्यों की
चिता जलाकर
अधिकारों को
नहीं भुनाया।
८-३-२०१७
***
श्रृंगार गीत
रहवासी
*
ओ मन-मन्दिर की रहवासी!
तुम बिन घर
क्यों भवन हो रहा?
*
खनक-झनक सुनने के आदी
कान तुम्हारे बिन व्याकुल हैं।
''ए जी! ओ जी!!'' मंत्र-ऋचा बिन
कहा नहीं पर प्राण विकल हैं।
नाकाफी लगती है कॉफ़ी
फीके क्यों लगते गुड-शक्कर?
बिना काम क्यों शयन कक्ष के
लगा रहा चक्कर घनचक्कर?
खबर न रुचती, चर्चा नीरस
गीत अगीत हुए जाते हैं
बिन मुखड़ा हर एक अंतरा
लय-गति-रस
आधार खो रहा
ओ मन-मन्दिर की रहवासी!
तुम बिन घर
क्यों भवन हो रहा?
*
डाले लेकिन गौरैया आ
बैठ मुँडेरे चुगे न दाना।
दरवाजे पर डाली रोटी
नहीं गाय का मगर ठिकाना।
बिना गुहारे चला गया है
भिक्षुक भी मुझको निराश कर
मन न हो रहा दफ्तर छोडूँ
जल्दी से जल्दी जाऊँ घर।
अधिकारी हो चकित पूछता
कहो, आज क्या घडी बंद है?
क्या बतलाऊँ उसे लघुकथा
का भूली है
कलम ककरहा
ओ मन-मन्दिर की रहवासी!
तुम बिन घर
क्यों भवन हो रहा?
*
सब्जी नमक हलाल नहीं है
खाने लायक दाल नहीं है।
चाँवल की संसद में कंकर
दाँत कौन बेहाल नहीं है?
राम राज्य आना है शायद
बही दूध की नदी आज भी।
असल डूबना हुआ सुनिश्चित
हाथ न लगता कुफ़्र ब्याज भी।
अर्थशास्त्र फिकरे कसता है
हार गया रे गीतकार तू!
तेरे बस में नहीं रहा कुछ
क्यों पत्थर पर
फसल बो रहा?
ओ मन-मन्दिर की रहवासी!
तुम बिन घर
क्यों भवन हो रहा?
८-३-२०१६
***
कविता महिला दिवस पर :
धरती
*
धरती काम करने
कहीं नहीं जाती
पर वह कभी भी
बेकाम नहीं होती.
बादल बरसता है
चुक जाता है.
सूरज सुलगता है
ढल जाता है.
समंदर गरजता है
बँध जाता है.
पवन चलता है
थम जाता है.
न बरसती है,
न सुलगती है,
न गरजती है,
न चलती है
लेकिन धरती
चुकती, ढलती,
बंधती या थमती नहीं.
धरती जन्म देती है
सभ्यता-संस्कृति को,
धरती जन्म देती है
तभी ज़िंदगी
बंदगी बन पाती है.
धरती कामगार नहीं
कामगारों की माँ होती है.
इसीलिये इंसानियत ही नहीं
भगवानियत भी
उसके पैर धोती है..
८-३-२०११
***
मुक्तिका
*
भुज पाशों में कसता क्या है?
अंतर्मन में बसता क्या है?
*
जितना चाहा फेंक निकालूँ
उतना भीतर धँसता क्या है?
*
ऊपर से तो ठीक-ठाक है
भीतर-भीतर रिसता क्या है?
*
दिल ही दिल में रो लेता है.
फिर होठों से हँसता क्या है?
*
दाने हुए नसीब न जिनको
उनके घर में पिसता क्या है?
*
'सलिल' न पाई खलिश अगर तो
क्यों है मौन?, सिसकता क्या है?
८-३-२०१०
***