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शुक्रवार, 17 जून 2022

रेल गीत, शिशु गीत, सरस्वती, पिता, लक्ष्मीबाई, बुंदेली दोहे, राकेश खंडेलवाल, नवगीत, मुक्तिका, बाल गीत

रेल गीत (पश्चिम मध्य जोन जबलपुर) १

गीतकार : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
9425183244
*
निश-दिन दौड़े सरपट रेल, कहती सबसे रखना मेल।
लेकर टिकिट सफर करना, नहीं स्वच्छता-रक्षा खेल।।
*
पश्चिम-मध्य रेल्वे अनुपम, नव विकास की सबल धुरी।
जबलपुर, भोपाल व कोटा, धरती मोहक हरी-भरी।।
विंध्य-सतपुड़ा-मेकल पर्वत, रेवा-चंबल सलिलाएँ।
कान्हा, रणथंभौर, भरतपुर, बांधवगढ़, साँची भाएँ।।
दुर्गा, कमला, कामकंदला, कीर्ति अमर ज्यों जगमग ज्वेल
*
भीमबेटका,  आदमगढ़ के शैलचित्र इतिहास कहे।
जाबाली, महेश योगी, ओशो, शकुंतला  संत रहे।।
है चूना, सीमेंट, कोयला, आयुध निर्माणी पहचान।
राजासौरस नर्मडेंसिस, घुघवा फॉसिल अद्भुत शान।।
जंक्शन कटनी अरु इटारसी, रेलों की है रेलमपेल
*
जबलपुर कमलापति स्टेशन, अपनी आप मिसाल है।
कोचिंग हब कोटा जबलपुर, बरगी बाँध कमाल है।।
निशातपुरा की कोच फैक्ट्री, नव निर्माण सतत करती।
शारद मैया, आल्हा-ऊदल, जगनिक ईसुरि की धरती।।
जोड़ 'सलिल' मालवा-विंध्य को, लक्ष्य वरे हर बाधा झेल
*

गीत २  
पश्चिम मध्य रेलवे मंडल, करे अहर्निश जन सेवा।
करता यात्री-माल ढुलाई, श्रम-कौशल इसके देवा..... 
*
मुख्यालय है नगर जबलपुर, संस्कारधानी प्यारी। 
नंदीकेश, जाबाली, योगी, ओशो की छवि है न्यारी।।
जीवाश्मों-डायनासौरों का, ठौर नर्मदा की घाटी। 
स्वतन्त्रता संघर्ष विरासत, शौर्य अमर है परिपाटी।।
आदिवासियों ने पूजा है नागदेव-निंगा देवा।
पश्चिम मध्य रेलवे मंडल, करे अहर्निश जन सेवा.....  
*
कमलापति, भोपाल, मालवा, महाकाल क्षिप्रा, साँची। 
कोटा, रणथंभौर बाँकुरा, देशभक्ति पुस्तक बाँची।।
पक्षी अभ्यारण्य भरतपुर, कृष्ण नाथद्वारा बैठे।  
जगनिक-ईसुर, आल्हा-फागें, गाँव-गाँव घर-घर पैठे।।
ज्वार-बाजरा, अरहर-मक्का, कोदो महुआ है मेवा। 
पश्चिम मध्य रेलवे मंडल, करे अहर्निश जन सेवा.....
*
कोच फैक्ट्री, कोच रेस्तरां, रेल-पाठों का नव निर्माण। 
ब्रॉडगेज-विद्युतीकरण ने, परिपथ में फूँके हैं प्राण।।
साफ़-सफाई, हरियाली अरु, वेग वृद्धि से समय-बचत। 
जनभाषा में हो जन-शिक्षण, 'सलिल' बचे खरचा-लागत।।
नव विकास के नव सपनों का, कोइ नहीं हम सा लेवा। 
पश्चिम मध्य रेलवे मंडल, करे अहर्निश जन सेवा.....    
***
शिशु गीत सलिला

भालू
आया भालू।
खाता आलू।।
बंदर कहता-
उसको कालू।।
*

बंदर

बंदर नाच दिखाता है।
सबके मन को भाता है।।
दौड़ झाड़ पर चढ़ जाता-
हाथ नहीं फिर आता है।।
*

बिल्ली

बिल्ली बोले म्याऊँ-म्याऊँ।
चूहा पाकर झट खा जाऊँ।।
नटखट चूहा हाथ न आया।
बचकर ठेंगा दिखा चिढ़ाया।।
*

माँ

मेरी माँ प्यारी-न्यारी।
मुझ पर जाती है वारी।।
मैं भी खूब दुलार करूँ-
गोदी में छिप प्यार करूँ।।

*

बहिन

बहिन पढ़ेगी रोज किताब।
सदा करेगी सही हिसाब।।
बात भाई तब मानेगा।
रार न नाहक ठानेगा।।

*

भाई

भाई करता है ऊधम।
कहता नहीं किसी से कम।
बातें खूब बनाता है -
करे नाक में सबकी दम।।
१७-६-२०२२
***

शारद वंदन
*
शारद मैया शस्त्र उठाओ,
हंस छोड़ सिंह पर सज आओ...
सीमा पर दुश्मन आया है, ले हथियार रहा ललकार।
वीणा पर हो राग भैरवी, भैरव जाग भरें हुंकार।।
रुद्र बने हर सैनिक अपना, चौंसठ योगिनी खप्पर ले।
पिएँ शत्रु का रक्त तृप्त हो,
गुँजा जयघोषों से जग दें।।
नव दुर्गे! सैनिक बन जाओ
शारद मैया! शस्त्र उठाओ...
एक वार दो को मारे फिर, मरे तीसरा दहशत से।
दुनिया को लड़ मुक्त कराओ, चीनी दनुजों के भय से।।
जाप महामृत्युंजय का कर, हस्त सुमिरनी हाे अविचल।
शंखघोष कर वक्ष चीर दो,
भूलुंठित हों अरि के दल।।
रणचंडी दस दिश थर्राओ,
शारद मैया शस्त्र उठाओ...
कोरोना दाता यह राक्षस,
मानवता का शत्रु बना।
हिमगिरि पर अब शांति-शत्रु संग, शांति-सुतों का समर ठना।।
भरत कनिष्क समुद्रगुप्त दुर्गा राणा लछमीबाई।
चेन्नम्मा ललिता हमीद सेंखों सा शौर्य जगा माई।।
घुस दुश्मन के किले ढहाओ,
शारद मैया! शस्त्र उठाओ...
***
१७-६-२०२०
***
शिशु गीत सलिला :
*
पापा-
पापा लाड़ लड़ाते खूब,
जाते हम खुशियों में डूब।
उन्हें बना लेता घोड़ा-
हँसती, देख बाग़ की दूब।।
*
पापा चलना सिखलाते,
सारी दुनिया दिखलाते।
रोज बिठाकर कंधे पर-
सैर कराते मुस्काते।।
*
गलती हो जाए तो भी,
मुझे नहीं खोना आपा।
सीख-सुधारो, खुद सुधारो-
सीख सिखाते थे पापा।।

***

पिता पर दोहे:
*
पिता कभी वट वृक्ष है, कभी छाँव-आकाश.
कंधा, अँगुली हैं पिता, हुए न कभी हताश.
*
पूरा कुनबा पालकर, कभी न की उफ़-हाय.
दो बच्चों को पालकर, हम क्यों हैं निरुपाय?
*
थके, न हारे थे कभी, रहे निभाते फर्ज.
पूत चुका सकते नहीं, कभी पिता का कर्ज.
*
गिरने से रोका नहीं, चुपा; कहा: 'जा घूम'.
कर समर्थ सन्तान को, लिया पिता ने चूम.
*
माँ ममतामय चाँदनी, पिता सूर्य की धूप.
दोनों से मिलकर बना, जीवन का शुभ रूप.
*
पिता न उँगली थामते, होते नहीं सहाय.
तो हम चल पाते नहीं, रह जाते असहाय.
*
माता का सिंदूर थे, बब्बा का अरमान.
रक्षा बंधन बुआ का, पिता हमारी शान.
*
दीवाली पर दिया थे, होली पर थे रंग.
पिता किताबें-फीस थे, रक्षा हित बजरंग.
*
पिता नमन शत-शत करें, संतानें नत माथ.
गये न जाकर भी कहीं, श्वास-श्वास हो साथ.
*
१७.६.२०१८, ७९९९५५९६१८
salil.sanjiv@gmail.com
***
मुक्तक
*
महाकाल भी काल के, वश में कहें महेश
उदित भोर में, साँझ ढल, सूर्य न दीखता लेश
जो न दिखे अस्तित्व है, उसका उसमें प्राण
दो दिखता निष्प्राण हो कभी, कभी संप्राण
*
नि:सृत सलिल महेश शीश से, पग-प्रक्षालन करे धन्य हो
पिएं हलाहल तनिक न हिचकें, पूजित जग में हे! अनन्य हो
धार कंठ में सर्प अभय हो, करें अहैतुक कृपा रात-दिन
जगजननी को ह्रदय बसाए, जगत्पिता सचमुच प्रणम्य हो
*
१६-६-२०१६
***
विरासत :
कहाँ-कैसे हैं रानी लक्ष्मीबाई के वंशज
इतिहास की ताकतवर महिलाओं में शुमार रानी लक्ष्मी बाई के बेटे का जिक्र इतिहास में भी बहुत कम हुआ है। यही वजह है कि यह असलियत लोगों के सामने नहीं आ पाई। रानी के शहीद होने के बाद अंग्रेजों ने उन्हें इंदौर भेज दिया था। उन्होंने बेहद गरीबी में अपना जीवन बिताया। अंग्रेजों की उनपर हर पल नजर रहती थीं। दामोदर के बारे में कहा जाता है कि इंदौर के ब्राह्मण परिवार ने उनका लालन-पालन किया था।
इतिहास में जब भी पहले स्वतंत्रता संग्राम की बात होती है तो झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का जिक्र सबसे पहले होता है। रानी लक्ष्मीबाई के परिजन आज भी गुमनामी का जीवन जी रहे हैं। १७ जून १८५८ में ग्वालियर में रानी शहीद हो गई थी। रानी के शहीद होते ही वह राजकुमार गुमनामी के अंधेरे में खो गया जिसको पीठ बांधकर उन्होंने अंग्रेजो से युद्ध लड़ा था। इतिहासकार कहते हैं कि रानी लक्ष्मीबाई का परिवार आज भी गुमनामी की जिंदगी जी रहा है। दामोदर राव का असली नाम आनंद राव था। इसे भी बहुत कम लोग जानते हैं। उनका जन्म झांसी के राजा गंगाधर राव के खानदान में ही हुआ था।
५०० पठान थे अंगरक्षक
दामोदर राव जब भी अपनी मां झांसी की रानी के साथ महालक्ष्मी मंदिर जाते थे, तो ५०० पठान अंगरक्षक उनके साथ होते थे। रानी के शहीद होने के बाद राजकुमार दामोदर को मेजर प्लीक ने इंदौर भेज दिया था। ५ मई १८६० को इंदौर के रेजिडेंट रिचमंड शेक्सपियर ने दामोदर राव का लालन-पालन मीर मुंशी पंडित धर्मनारायण कश्मीरी को सौंप दिया। दामोदर राव को सिर्फ १५० रुपए महीने पेंशन दी जाती थी।
२८ मई १९०६ को इंदौर में हुआ था दामोदर का निधन
लोगों का यह भी कहना है कि दामोदर राव कभी 25 लाख रुपए की सालाना रियासत के मालिक थे, जबकि दामोदर के असली पिता वासुदेव राव नेवालकर के पास खुद चार से पांच लाख रुपए सालाना की जागीर थी। बेहद संघर्षों में जिंदगी जीने वाली दामोदर राव १८४८ में पैदा हुए थे। उनका निधन २८ मई १९०६ को इंदौर में बताया जाता है।
इंदौर में हुआ था दामोदर राव का विवाह
रानी लक्ष्मीबाई के बेटे के निधन के बाद १९ नवंबर १८५३ को पांच वर्षीय दामोदर राव को गोद लिया गया था। दामोदर के पिता वासुदेव थे। वह बाद में जब इंदौर रहने लगे तो वहां पर ही उनका विवाह हो गया दामोदर राव के बेटे का नाम लक्ष्मण राव था। लक्ष्मण राव के बेटे कृष्ण राव और चंद्रकांत राव हुए। कृष्ण राव के दो पुत्र मनोहर राव, अरूण राव तथा चंद्रकांत के तीन पुत्र अक्षय चंद्रकांत राव, अतुल चंद्रकांत राव और शांति प्रमोद चंद्रकांत राव हुए।
लक्ष्मण राव को बाहर जाने की नहीं थी इजाजत
२३ अक्टूबर वर्ष १८७९ में जन्मे दामोदर राव के पुत्र लक्ष्मण राव का चार मई १९५९ को निधन हो गया। लक्ष्मण राव को इंदौर के बाहर जाने की इजाजत नहीं थी। इंदौर रेजिडेंसी से २०० रुपए मासिक पेंशन आती थी, लेकिन पिता दामोदर के निधन के बाद यह पेंशन १०० रुपए हो गई। वर्ष १९२३ में ५० रुपए हो गई। १९५१ में यूपी सरकार ने रानी के नाती यानी दामोदर राव के पुत्र को ५० रुपए मासिक सहायता आवेदन करने पर दी थी, जो बाद में ७५ रुपए कर दी गई।
जंगल में भटकते रहे दामोदर राव
इतिहासकार ओम शंकर असर के अनुसार, रानी लक्ष्मीबाई दामोदर राव को पीठ से बाँधकर चार अप्रैल १८५८ को झाँसी से कूच कर गई थीं। १७ जून १८५८ को तक यह बालक सोता-जागता रहा। युद्ध के अंतिम दिनों में तेज होती लड़ाई के बीच महारानी ने अपने विश्वास पात्र सरदार रामचंद्र राव देशमुख को दामोदर राव की जिम्मेदारी सौंप दी। दो वर्षों तक वह दामोदर को अपने साथ लिए रहे। वह दामोदर राव को लेकर ललितपुर जिले के जंगलों में भटके।
पहले किया गिरफ्तार फिर भेजा इंदौर
दामोदर राव के दल के सदस्य भेष बदलकर राशन का सामान लाते थे। दामोदर के दल में कुछ उंट और घोड़े थे। इनमें से कुछ घोड़े देने की शर्त पर उन्हें शरण मिलती थी। शिवपुरी के पास जिला पाटन में एक नदी के पास छिपे दामोदर राव को अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर उन्हें मई, १८६० में अंग्रेजों ने इंदौर भेज दिया गया था। बताया जाता है कि रानी लक्ष्मीबाई के परिजन आज भी इंदौर में गुमनामी की जिंदगी जी रहे हैं। परिवार के सदस्य प्रदेश के पुलिस विभाग में अपनी सेवाएं दे रहे हैं।
***
बुन्देली दोहे
महुआ फूरन सों चढ़ो, गौर धना पे रंग।
भाग सराहें पवन के, चूम रहो अॅंग-अंग।।
मादल-थापों सॅंग परंे, जब गैला में पैर।
धड़कन बाॅंकों की बढ़े, राम राखियो खैर।।
हमें सुमिर तुम हो रईं, गोरी लाल गुलाल।
तुमें देख हम हो रए, कैसें कएॅं निहाल।।
मन म्रिदंग सम झूम रौ, सुन पायल झंकार।
रूप छटा नें छेड़ दै, दिल सितार कें तार।।
नेह नरमदा में परे, कंकर घाईं बोल।
चाह पखेरू कूक दौ, बानी-मिसरी घोल।।
सैन धनुस लै बेधते, लच्छ नैन बन बान।
निकरन चाहें पै नईं, निकर पा रए प्रान।।
तड़प रई मन मछरिया, नेह-नरमदा चाह।
तन भरमाना घाट पे, जल जल दे रौ दाह।।
अंग-अंग अलसा रओ, पोर-पोर में पीर।
बैरन ननदी बलम सें, चिपटी छूटत धीर।।
कोयल कूके चैत मा, देख बरे बैसाख।
जेठ जिठानी बिन तपे, सूरज फेंके आग।।
४-४-२०१६
***

नवगीत
*
चूल्हा, चक्की, आटा, दाल
लाते-दूर करें भूचाल
.
जिसका जितना अधिक रसूख
उसकी उतनी ज्यादा भूख
छाँह नहीं, फल-फूल नहीं
दे जो- जाए भाड़ में रूख
गरजे मेघ, नाचता देख
जग को देता खुशी मयूख
उलझ न झुँझला
न हो निढाल
हल कर जितने उठे सवाल
चूल्हा, चक्की, आटा, दाल
लाते-दूर करें भूचाल
.
पेट मिला है केवल एक
पर न भर सकें यत्न अनेक
लगन, परिश्रम, कोशिश कर
हार न माने कभी विवेक
समय-परीक्षक खरा-कड़ा
टेक न सर, कर पूरी टेक
कूद समुद में
खोज प्रवाल
मानवता को करो निहाल
चूल्हा, चक्की, आटा, दाल
लाते-दूर करें भूचाल
.
मिट-मिटकर जो बनता है
कर्म कहानी जनता है
घूरे को सोना करता
उजड़-उजड़ कर बस्ता है
छलिया औरों को कम पर
खुद को ज्यादा छलता है
चुप रह, करो
न कोई बबाल
हो न तुम्हारा कहीं हवाल
चूल्हा, चक्की, आटा, दाल
लाते-दूर करें भूचाल
*
१३-१-२०१५
४०१ जीत होटल बिलासपुर
***
एक गीत:
राकेश खंडेलवाल
आदरणीय संजीव सलिल की रचना ( अच्छे दिन आयेंगे सुनकर जी लिये
नोट भी पायेंगे सुनकर जी लिये ) से प्रेरित
*
प्यास सुलगती, घिरा अंधेरा
बस कुछ पल हैं इनका डेरा
सावन यहाँ अभी घिरता है
और दीप जलने वाले हैं
नगर ढिंढोरा पीट, शाम को तानसेन गाने वाले हैं
रे मन धीरज रख ले कुछ पल, अच्छे दिन आने वाले हैं
बँधी महाजन की बहियों में उलझी हुई जन्म कुंडलियाँ
होंगी मुक्त, व्यूह को इनके अभिमन्यु आकर तोड़ेगा
पनघट पर मिट्टी पीतल के कलशों में जो खिंची दरारें
समदर्शी धारा का रेला, आज इन्हें फ़िर से जोड़ेगा
सूनी एकाकी गलियों में
विकच गंधहीना कलियों में
भरने गन्ध, चूमने पग से
होड़ मचेगी अब अलियों में
बीत चुका वनवास, शीघ्र ही राम अवध आने वाले हैं
रे मन धीरज रख ले कुछ पल, अच्छे दिन आने वाले हैं
फिर से होंगी पूज्य नारियाँ,रमें देवता आकर भू पर
लोलुपता के बाँध नहीं फिर तोड़ेगा कोई दुर्योधन
एकलव्य के दायें कर का नहीं अँगूठा पुन: कटेगा
राजा और प्रजा में होगा सबन्धों का मृदु संयोजन
लगा जागने सोया गुरुकुल
दिखते हैं शुभ सारे संकुल
मन के आंगन से बिछुड़ेगा
संतापों का पूरा ही कुल
फूल गुलाबों के जीवन की गलियाँ महकाने वाले हैं
रे मन धीरज रख ले कुछ पल, अच्छे दिन आने वाले हैं
अर्थहीन हो चुके शब्द ये, आश्वासन में ढलते ढलते
बदल गई पीढ़ी इक पूरी, इन सपनों के फ़ीकेपन में
सुखद कोई अनुभूति आज तक द्वारे पर आकर न ठहरी
भटका किया निरंतर जन गण, जयघोषों के सूने पन में
आ कोई परिवर्तन छू रे
बरसों में बदले हैं घूरे
यहाँ फूल की क्यारी में भी
उगते आये सिर्फ़ धतूरे
हमें पता हैं यह सब नारे, मन को बहकाने वाले हैं
राहें बन्द हो चुकी सारी अच्छे दिन आने वाले हैं ?
***
मुक्तिका:
*
तुम गलत पर हम सही कहते रहे हैं
इसलिए ही दूरियाँ सहते रहे हैं
.
ज़माने ने उजाड़ा हमको हमेशा
मगर फिर-फिर हम यहीं रहते रहे हैं
.
एक भी पूरा हुआ तो कम नहीं है
महल सपनों के अगिन ढहते रहे हैं
.
प्रथाओं को तुम बदलना चाहते हो
पृथाओं से कर्ण हम गहते रहे हैं
.
बिसारी तुमने भले यादें हमारी
सुधि तुम्हारी हम सतत तहते रहे हैं
.
पलाशों की पीर जग ने की अदेखी
व्यथित होकर 'सलिल' चुप दहते रहे हैं
.
हम किनारों पर ठहर कब्जा न चाहें
इसलिए होकर 'सलिल' बहते रहे हैं.
१७-६-२०१५
***
बाल गीत:
पाखी की बिल्ली
*
पाखी ने बिल्ली पाली.
सौंपी घर की रखवाली..
फिर पाखी बाज़ार गयी.
लाये किताबें नयी-नयी
तनिक देर जागी बिल्ली.
हुई तबीयत फिर ढिल्ली..
लगी ऊंघने फिर सोयी.
सुख सपनों में थी खोयी..
मिट्ठू ने अवसर पाया.
गेंद उठाकर ले आया..
गेंद नचाना मन भाया.
निज करतब पर इठलाया..
घर में चूहा आया एक.
नहीं इरादे उसके नेक..
चुरा मिठाई खाऊँगा.
ऊधम खूब मचाऊँगा..
आहट सुन बिल्ली जागी.
चूहे के पीछे भागी..
झट चूहे को जा पकड़ा.
भागा चूहा दे झटका..
बिल्ली खीझी, खिसियाई.
मन ही मन में पछताई..
१७-६-२०१२
***

शुक्रवार, 11 सितंबर 2020

बुंदेली दोहे

बुंदेली दोहांजलि
संजीव
*
जब लौं बऊ-दद्दा जिए, भगत रए सुत दूर
अब काए खों कलपते?, काए हते तब सूर?
*
खूबई तौ खिसियात ते, दाबे कबऊं न गोड़
टँसुआ रोक न पा रए, गए डुकर जग छोड़
*
बने बिजूका मूँड़ पर, झेलें बरखा-घाम
छाँह छीन काए लई, काए बिधाता बाम
*
ए जी!, ओ जी!, पिता जी, सुन खें कान पिराय
'बेटा' सुनबे खों जिया, हुड़क-हुड़क अकुलाय
*

मंगलवार, 14 जुलाई 2020

पुस्तक चर्चा: 'बुंदेली दोहे'


फ़ोटो का कोई वर्णन उपलब्ध नहीं है.पुस्तक चर्चा:
'बुंदेली दोहे' सांस्कृतिक शब्द छवियाँ मन मोहे
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: बुंदेली दोहे, दोहा संग्रह , आचार्य भगवत दुबे, प्रथम संस्करण २०१६, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ १५२, मूल्य ५०/-, ISBN ९७८-९३-८३८९९-१८-०, प्रकाशक आदिवासी लोक कला एवं बोली विकास अकादमी, म. प्र. संस्कृति परिषद्, श्यामला हिल्स, भोपाल ४६२००२, कृतिकार संपर्क- ९३००६१३९७५]
*
विश्ववाणी हिंदी का कालजयी छंद दोहा अपनी मिसाल आप है। संक्षिप्तता, सारगर्भितता, लाक्षणिकता, मर्मबेधकता, कालजयिता, उपयोगिता तथा लोकप्रियता के सप्त सोपानी निकष पर दोहा जन सामान्य से लेकर विद्वज्जनों तक अपनी प्रासंगिकता निरंतर बनाए रख सका है। बुंदेली के लोककवियों ने दोहे का महत्त्व पहचान कर नीतिपरक दोहे कहे. घाघ-भड्डरी, ईसुरी, जगनिक, केशव, जायसी, घनानंद, राय प्रवीण प्रभृति कवियों ने दोहा के माध्यम से बुंदेली साहित्य को समृद्ध किया। आधुनिक काल के बुंदेली दोहकारों में अग्रगण्य रामनारायण दास बौखल ने नारायण अंजलि भाग १ में ४०८३ तथा भाग २ में ३३८५ दोहों के माध्यम से साहित्य और आध्यात्म का अद्भुत समागम करने में सफलता अर्जित की है।
चित्र में ये शामिल हो सकता है: 2 लोगबौखल जी की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए बहुमुखी प्रतिभा और बहुविधायी स्तरीय कृतियों के प्रणेता आचार्य भगवत दुबे ने विवेच्य कृति में बुंदेली लोक जीवन और लोक संस्कृति के वैविध्य को उद्घाटित किया है। इसके पूर्व दुबे जी 'शब्दों के संवाद' दोहा संकलन में शुद्ध साहित्यिक हिंदी के अभिव्यंजनात्मक दोहे रचकर समकालिक दोहकारों की अग्रपंक्ति में स्थापित हो चुके हैं। यह दोहा संग्रह दुबे जी को बुंदेली का प्रथम सांस्कृतिक दोहाकार के रूप में प्रस्तुत करता है। 'किरपा करियो शारदे' शीर्षक अध्याय में कवि ने ईशवंदना करने के साथ-साथ लोकपूज्य खेडापति, जागेसुर, दुल्हादेव तथा साहित्यिक पुरखों लोककवियों ईसुरी, गंगाधर, जगनिक, केशव, बिहारी, भूषण, राय प्रवीण, आदि का स्मरण कर अभिनव परंपरा का सूत्रपात किया है।
'बुंदेली नौनी लगे' शीर्षक के अंतर्गत 'बुंदेली बोली सरस', 'बुंदेली में लोच है', 'ई में भरी मिठास', 'अपनेपन कौ भान' आदि अभिव्यक्तियों के माध्यम से दोहाकार ने बुंदेली के भाषिक वैशिष्ट्य को उजागर किया है। पाश्चात्य संस्कृति तथा नगरीकरण के दुष्प्रभावों से नवपीढ़ी की रक्षार्थ पारंपरिक जीवन-मूल्यों, पारिवारिक मान-मर्यादाओं, सामाजिक सहकार भाव का संरक्षण किये जाने की महती आवश्यकता है। दुबे जी ने ने यह कार्य दोहों के माध्यम से संपन्न किया है किन्तु बुंदेली को संयुक्त राष्ट्र संघ तक पहुँचाने की कामना अतिरेकी उत्साह भाव प्रतीत होता है। आंचलिक बोलिओं का महत्त्व प्रतिपादित करते समय यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि वे हिंदी के उन्नयन पथ में बाधक न हों। वर्तमान में भोजपुरी, राजस्थानी, छत्तीसगढ़ी आदि के समर्थकों द्वारा अपनी क्षेत्रीय बोलि हिंदी पर वरीयता दिए जाने और उस कारण हिंदी बोलनेवालों की संख्या में कमी आने से विश्व में प्रथम स्थान से च्युत होकर तृतीय होने को देखते हुए ऐसी कामना न की जाए तो हिंदी के लिए बेहतर होगा।
इस कृति में 'जेवर हैं बुन्देल के' शीर्षक अध्याय में कवि ने लापता होते जा रहे पारंपरिक आभूषणों को तलाशकर दोहों में नगों की तरह जड़ दिया है। इनमें से अधिकांश जेवर ग्राम्यांचलों में आज भी प्रचलित हैं किन्तु नगरीकरण के प्रभाव ने उन्हें युवाओं के लिए अलभ्य बना दिया है।
नौ गज की धुतिया गसैं, लगै ओई की काँछ।
खींसा बारो पोलका, धरें नोट दस-पाँच।।
*
सोन पुतरिया बीच में, मुतियन की गुनहार।
पहरै मंगलसूत जो, हर अहिबाती नार।।
*
बीच-बीच में कौडियाँ, उर घुमची के बीज।
पहरैं गुरिया पोत के, औ' गंडा-ताबीज़।।
*
इन दोहों में बुंदेली समाज के विविध आर्थिक स्तरों पर जी रहे लोगों की जीवंत झलक के साथ-साथ जीवन-स्तर का अंतर भी शब्दित हुआ है। 'बनी मजूरी करत हैं' अध्याय में श्रमजीवी वर्ग की पीड़ा, चिंता, संघर्ष, अभाव, अवदान तथा वैशिष्ट्य पंक्ति-पंक्ति में अन्तर्निहित है-
कोदों-कुटकी, बाजरा, समा, मका औ' ज्वार।
गुजर इनई में करत हैं, जुरैं न चाउर-दार।।
*
महुआ वन की लकडियाँ, हर्र बहेरा टोर।
और चिरौंजी चार की, बेचें जोर-तंगोर।।
*
खावैं सूखी रोटियाँ, नून मिर्च सँग प्याज।
हट्टे-कट्टे जे रहें,महनत ई को राज।।
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चंद्र, मंगल और अब सूर्य तक यान भेजनेवाले देश में श्रमिक वर्ग की विपन्नावस्था चिंतनीय है। बैद हकीमों खें रओ' शीर्षक के अंतर्गत पारंपरिक जड़ी-बूटी चिकित्सा, 'बनन लगत पकवान' में उत्सवधर्मी जीवनपद्धति, 'कई नेंग-दस्तूर', 'जब बरात घर सें कढ़े', 'खेलें बाबा-बाइयें', 'बधू खें चढ़े चढ़ाव', 'पाँव पखारे जांय', 'गारी गावै औरतें', 'सासू जी परछन करैं', 'गोद भराई होत है', 'मोंड़ा हों या मोंड़ियाँ', आदि अध्यायों में बुंदेली जन-जीवन की जीवंत पारिवारिक झलकियाँ मन मोह लेती हैं। दोहाकार ने चतुरतापूर्वक रीति-रिवाजों के साथ-साथ दहेज़ निषेध, कन्या संरक्षण, पक्षी संरक्षण, पौधारोपण, प्रदुषण निवारण जैसे समाज सुधारक विचारों को दोहा में पिरोकर 'सहकार में कुनैन लपेटकर खिलाने और मलेरिया को दूर करने का सार्थक और प्रभावी प्रयोग किया है।
'नौनिहाल कीआँख में', 'काजर आंजे नन्द', 'मामा करैं उपासनी', 'बुआ झालिया लेय', बुआ-सरहजें देत हैं', बाजे बजा बधाव' आदि में रिश्तों की मिठास घुली है। 'तुलसी चौरा स्वच्छ हो', 'सजे सातिया द्वार', 'आँखों से शीतल करैं', 'हरी छिछ्लती दूब', 'गौरैया फुदकत रहे', मिट्ठू सीताराम कह', 'पोसें कुत्ता-बिल्लियाँ', गाय-बैल बांधे जहाँ', 'कहूँ होय अखंड रामान', 'बुंदेली कुस्ती कला', 'गिल्ली नदा डाबरी चर्रा खो-खो खेल' आदि में जन जीवन की मोहक और जीवंत झलकियाँ हैं। 'बोनी करैं किसान', 'भटा टमाटर बरबटी', 'चढ़ा मलीदा खेत में', 'करैं पन्हैया चर्र चू', 'फूलें जेठ-असाढ़ में', 'खेतों में पानी भरे', 'पशुओं खें छापा-तिलक' आदि अध्यायों में खेती-किसानी से सम्बद्ध छवियाँ मूर्तिमंत हुई हैं। आचार्य भगवत दुबे जी बुंदेली जन-जीवन, परम्पराओं, जीवन-मूल्यों ही नहीं क्षेत्रीय वैशिष्ट्य आदि के भी मर्मज्ञ हैं। बंजारी मनिया बरम, दतिया की पीताम्बरा, खजराहो जाहर भयो, मैया को दरबार आदि अध्यायों का धार्मिक-अध्यात्मिक दृष्टि से ही नहीं पर्यटन की दृष्टि से भी महत्त्व है। इस संग्रह के हर दोहे में कथ्य, शिल्प, कहन, सारल्य तथा मौलिकता के पंच तत्व इन्हें पठनीय और संग्रहनीय बनाते हैं। ऐसी महत्वपूर्ण कृति के प्रकाशन हेतु आदिवासी लोक कला एवं बोली विकास परिषद् अकादमी भी बधाई की पात्र है।
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