माहियों की छटा
प्राण शर्मा
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तेरी ये पहुनाई
कानों में घोले
रस जैसे शहनाई
मोहा पहुनाई से
साजन ने लूटा
मन किस चतुराई से
माना तू अपना है
तुझसे तो प्यारा
तेरा हर सपना है
फूलों जैसी रंगत
क्यों न लगे प्यारी
मुझको तेरी संगत
हर बार नहीं करते
अपनों का न्योता
इनकार नहीं करते
रस्ते अनजाने हैं
खोने का डर है
साथी बेगाने हैं
आँखों में ख्वाब तो हो
फूलों के जैसा
चेहरे पे आब तो हो
इक जैसी रात नहीं
इक सा नहीं बादल
इक सी बरसात नहीं
तकदीर बना न सका
तूली के बिन मैं
तस्वीर बना न सका
हम घर को जाएँ क्या
बीच में बोलते हो
हम हाल सुनाएँ क्या
मैं - मैं ना कर माहिया
ऐंठ नहीं चंगी
रब से कुछ डर माहिया
नादान नहीं बनते
सब कुछ जानके भी
अनजान नहीं बनते
झगड़ा न हुआ होता
सुन्दर सा अपना
घरबार बना होता
पल का मुस्काना न हो
ए मेरे साथी
झूठा याराना न हो
कुछ अपनी सुना माहिया
मेरी भी कुछ सुन
यूँ प्यार जगा माहिया
आँखों में नीर न हो
प्रीत ही क्या जिस में
मीरा की पीर न हो
आओ इक हो जाएँ
प्रीत की दुनिया में
दोनों ही खो जाएँ
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