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शुक्रवार, 11 जुलाई 2025

जून २५, दीप्ति, दोहा गीत, त्रिप्रमाणिका सवैया, सरस्वती, राम, पिता, सॉनेट, अखिलेश, नयन

सलिल सृजन जून २५
*
नयनावली 
नयन न मन की सुन रहे, करें नमन दिन-रैन। 
नयन नयन से मिल हुए, चैन गँवा बेचैन।। 
नयन चार जबसे हुए, भूल गए हैं द्वैत। 
जब तक नैना चार हैं, तब तक प्रिय अद्वैत।। 
नय न नयन को याद अब, नयन अनयन एक। 
नयन न सुनते क्या कहें, अनुभव बुद्धि विवेक।। 
नयन देखकर रूप को, कैसे करें बखान। 
जिव्हा न देखे रूप को, पर करती गुणगान।। 
नयन बोलते अबोले, देख न देखें सत्य। 
भोगें चुप परिणाम पर, आप न करते कृत्य।। 
.
शारद-शक्ति नयन बसें, नयन लक्ष्मी भक्त। 
वाक् अवाक निहारती, किसको कहे सशक्त।। 
नयन डूबकर नयन में, हो जाते भव पार। 
जो नैना डूबन डरे, क्या जाने मझधार।। 
नयन लड़े झुक उठ मिले, करे न युद्ध विराम। 
साथ न होकर साथ हो, बन गुलाम बेदाम।। 
२६.५.२०२५
***
सोनेट
नर्तन
*
नर्तन करते खुद को भूल शिव ले डमरू, विषधर झूम,
सलिल करे अभिषेक, पखारे पद प्रलयंकर के हो धन्य,
नाद अनाहद सुनें उमा माँ बाजे घुँघरू, तिक तिक धूम,
गणपति कार्तिक नंदी मूषक सिंह नाचते दृश्य अनन्य।
शारद वीणा सुने पवन नभ धरा दिशा दिगंत जीवंत,
ग्रह-उपग्रह नक्षत्र सितारे, हुए परिक्रमित रचने सृष्टि,
शंख-नाद हरि करें, रमा की वाणी का माधुर्य अनंत,
मंत्र मुग्ध विधि, सकल सिद्धि दे शारद कहे रखो सम दृष्टि।
वादन-गायन करें कान्ह नटवर, नटराज विलोक प्रसन्न,
राग-ताल ठाणे कर जोड़े, राग-रागिनी जन्म सफल,
रसानंद की छंद कहे जय, गोपी-गोप मुग्ध आसन्न,
चित्र गुप्त अनहद अरु अनुपम, ह्रदय विराजित अचल अटल।
नर्तन परिवर्तन का साक्षी, दर्शन करे सुदर्शन का
दूर विकर्षण पल में कर, नैकट्य रचे आकर्षण का।
२५-६-२०२३
***
मुक्तक
निंगा देव मूल भारत के लिंगायत ले परम विराग
प्रकृति-पुरुष को बोल शिवा-शिव सृष्टि वृद्धि हित वरते राग
सिर पर अमृत, कंठ गरल धर, सलिल धार दे प्यास मिटा,
वृषभ कृषक, सिंह वन्यबंधु, मूषक लघु सबका अमर सुहाग
२५-६-२०२३
***
सॉनेट
अखिलेश
घटघटवासी औघड़दानी
हे अखिलेश! तुम्हारी जय जय।
विषपायी बाबा शमशानी
करो कृपा जिस पर हो निर्भय।
हे कामारि! कलाविद तुमसा
अन्य न कोई हुआ, न होगा।
शशिधर डमरूधर उमेश हे!
भक्त करें वंदन नित यश गा।
अखिल विश्व के भाग्यनियंता
सकल सृष्टि संप्राणित तुमसे।
लेकिन यह भी तो सच ही है
जगतपूज्य हो प्रभु तुम हमसे।
हें ओंकारनाथ! विपदा हर
हर्षित कर, गाए जन हर हर।
२५-६-२०२२
•••
दोहा सलिला
गीता पढ़कर नित पिता, रहे पढ़ाते पाठ
सदानंद कर्त्तव्य से, मिले करो हंस ठाठ
*
विभा-रश्मि जब साथ हो, तब न तिमिर को भूल
भूमि रेणु से जो जुड़े, वह सरला मति फूल
*
पिता शिवानी पूजते, माँ शंकर की भक्त
भोर दुपहरी रीझती, संध्या थी अनुरक्त
*
करते भजन रमेश का, थे न रमा आधीन
शेख मान शहजाद सम, दें आदर बन दीन
*
राहुल और यशोधरा, साथ रहे बन बुद्ध
थे अनुराग-विराग के मूर्त रूप सन्नद्ध
*
प्रतिमा मन में पिता की, शोभित माँ के साथ
जीव हुआ संजीव तब, धर पग में नत माथ
*
श्वास आस माता पिता, हैं श्रद्धा-विश्वास
इंद्र-इंदिरा ले गए, अब है शेष उजास
२५-६-२०२१
****
विमर्श:
कब हुए थे राम?
भारतीय कालगणना के अनुसार सृष्टि निर्मित हुए १ ९६ ०८ ५३ १२१ वर्ष हो चुके हैं। पाश्चात्य वैज्ञानिक गणना कालांश से पीछे भी जाते है। वे काल गणना ईसा के जन्म से मानते रहे जब देखा कि भारत का इतिहास इससे भी पुराना है, तब इन्होंने AD( anno Domini) ईसा के बाद, BC (Before christ)ईसा पूर्व की कल्पना गढ़ी।
आज से ५५५० वर्ष पूर्व द्वापर युग के अंत में महाभारत युद्ध हुआ था।रामायण त्रेतायुग में हुई थी जिसका काल वर्तमान वैवस्वत मन्वंतर की २८ वीं चतुर्युगी के त्रेतायुग का है। वैदिक गणित/विज्ञान के अनुसार सृष्टि १४ मन्वंतर तक चलती है। प्रत्येक मन्वंतर में ७१ चतुर्युग होते हैं। एक चतुर्युग में ४ युग- सत,त्रेता,द्वापर एवं कलियुग होते है। ७ वाँ मन्वंतर वैवस्वत मन्वंतर चल रहा है।
सतयुग १७,२८,००० वर्ष का, त्रेतायुग १२ ९६,००० वर्ष का, द्वापरयुग ८,६४,००० वर्ष एवं कलियुग ४,३२,००० वर्ष का कालखंड है। वर्तमान मे २८ वे चतुर्युग का कलियुग चल रहा है अर्थात् श्रीराम के जन्म होने और हमारे समय के बीच ८,६४,००० वर्ष का द्वापरयुग तथा कलियुग के लगभग ५२०० वर्ष बीत चुके हैं। महान गणितज्ञ एवं ज्योतिष वराहमिहिर जी के अनुसार -
असन्मथासु मुनय: शासति पृथिवी: युधिष्ठिरै नृपतौ:
षड्द्विकपञ्चद्वियुत शककालस्य राज्ञश्च:
युधिष्ठिर के शासनकाल मे सप्तऋषि मघा नक्षत्र में थे। भारतीय ज्योतिष में २७ नक्षत्र होते हैं, सप्तऋषि प्रत्येक नक्षत्र मे १०० वर्ष रहते है`। यह चक्र चलता रहता है। युधिष्ठिर के समय सप्तऋषियों के २७ चक्र, उसके बाद २४, कुल मिलाकर ५१ चक्र अर्थात् ५,१०० वर्ष हो चुके हैं। युधिष्ठिर ने लगभग ३८ वर्ष शासन किया। उसके कुछ समय बाद आरंभ कलियुग के ५१५५ वर्ष बीत चुके हैं।
इस प्रकार कलियुग से द्वापरयुग तक ८,६९,१५५ वर्ष।
श्रीराम का जन्म हुआ था त्रेतायुग के अंत में। इस प्रकार कम से कम ९ लाख वर्ष के आसपास श्रीराम और रामायण का काल आता है।
रामायण सुन्दरकांड सर्ग ५, श्लोक १२ मे महर्षि वाल्मीकि जी लिखते हैं-
वारणैश्चै चतुर्दन्तै श्वैताभ्रनिचयोपमे
भूषितं रूचिद्वारं मन्तैश्च मृगपक्षिभि:||
अर्थात् जब हनुमान जी वन में श्रीराम और लक्ष्मण के पास जाते हैं तब सफेद रंग और ४ दाँतोंवाले हाथी को देखते हैं। ऐसे हाथी के जीवाश्म सन १८७७० मे॔ मिले थे। कार्बन डेटिंग पद्धति से इनकी आयु लगभग १० लाख से ५० लाख के आसपास निकलती है।
वैज्ञानिक भाषा मे इस हाथी को Gomphothere नाम दिया गया। इससे रामायणकालीन घटनाएँ लगभग १० लाख साल के आसपास घटित होने का वैज्ञानिक प्रमाण उपलब्ध होता है।
•••
अक्षरस्वामिनी आप इष्ट, ईश्वरी उजालावाही,
ऊपर एकल ऐश्वर्यी ओ!, औसरदाई अंबे।
अ: कर कृपा कविता करवा, छंद सिखा जगदंबे!!
*
सलिल करे अभिषेक धन्य हो, मैया! चरण पखार।
हृदयानंदित बसा मातु छवि, आप पधारें द्वार।।
हंसवाहिनी! स्वर-सरगम दे, कीर्ति-कथा कह पाऊँ।
तार बनूँ वीणा का शारद!, तुम छेड़ो तर जाऊँ।।
निर्मलवसने! मीनाक्षी हे! पद्माननी दयाकर।
ममतामयी! मृदुल अनुकंपा कर सुत को अपनाकर।।
ढाई आखर पोथी पढ़कर भाव साधना साधूँ।
रास-लास आवास हृदय को करें, तुम्हें आराधूँ।।
ध्यान धरूँ नित नयन मूँदकर, रूप अरूप निहारूँ।
सुध-बुध खोकर विश्वमोहिनी अपलक खुद को वारूँ।।
विधि-हरि-हर की कृपा मिले, हर चित्र गुप्त चुप देखूँ।
जो न अन्य को दिखे, वही लख, अक्षर-अक्षर लेखूँ।।
भवसागर तर आ पाए सुत, अहं भूल तव द्वार।
अविचल मति दे मैया मोरी शब्द ब्रह्म-सरकार।।
नमन स्वीकार ले, कृपा कर तार दे।
बिसर अपराध मम, जननि अँकवार ले।।
***
अभिनव प्रयोग-
नवान्वेषित त्रिप्रमाणिका सवैया
*
गणसूत्र - ज र ल ग, ज र ल ग, ज र ल ग।
*
चलो ध्वजा उठा चलें, प्रयाण गीत गा चलें, सभी सुलक्ष्य पा सकें।
कहीं नहीं कमी रहे, विकास की हवा बहे, गरीब सौख्य पा सकें।
नया उगे विहान भी, नया तने वितान भी, न भेद-भाव भा सकें।
उठो! उठो!! न हारना, जहां हमें सुधारना, सुछंद नित्य गा सकें।
***
दोहा सलिला
*
लाक्षणिकता हो प्रबल, सहज व्यंजना साध्य।
गति-यति-लय पच तत्वमय दोहा ही आराध्य।
*
दोहा-सुषमा सहजता, भाषिक सलिल प्रवाह।
पाठक करता वाह हो, श्रोता भरता आह।।
*
भाव बिंब रस भाव दें, दोहा के माधुर्य।
मिथक-प्रतीक सटीक हों, किन हो क्लिष्ट-प्राचुर्य।।
*
२५-६-२०१९
***
विमर्श:
कृष्णा अग्निहोत्री: ९०% पुरुष सामंती धारणा के हैं. आपकी क्या राय है?
*
और स्त्रियाँ? शत प्रतिशत...
विवाह होते ही स्वयं को हरः स्वामिनी मानकर पति के पूरे परिवार को बदलने या बेदखल करने की कोशिश, सफल न होने पर शोषण का आरोप, सम्बन्ध न निभा पाने पर खुद को न सुधार कर शेष सब को दंडित करने की कोशिश. जन्म से मरण तक खुद को पुरुष से मदद पाने का अधिकारी मानेंगी और उसी पर निराधार आरोप भी लगाएँगी. पिता की ममता, भाई का साथ, मित्र का अपनापन, पति का संरक्षण, ससुराल की धन-संपत्ति, बच्चों का लाड़, दामाद का आदर सब स्त्री का प्राप्य है किन्तु यह देनेवाला सामन्ती, शोषक, दुर्जन और न जाने क्या-क्या है. पुरुष प्रधान समाज में एक अकेली स्त्री आकर पति गृह की स्वामिनी हो जाती है जबकि पुरुष अपनी ससुराल में केवल अतिथि ही हो पाता है. यदि स्त्री प्रधान समाज हो तो स्त्री पुरु को जन्म ही न लेने दे या जन्मते ही दफना दे. इसीलिए प्रकृति ने पुरुष का अस्तित्व बचाए रखने के लिए प्राणी जगत में पुरुष को सबल बनाया.
*
डॉ.बिपिन पाण्डेय
बिल्कुल सही कहा आपने सर
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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Kanta Roy
मुंह ना खुले तो ही अच्छा है ,नहीं तो यहाँ आप हर दूसरी नारी कृष्णा अग्निहोत्री सी ही पायेंगे, संस्कारों व् अपमान का भय,सामजिक तिरस्कार का भय, घर में वापस कैद कर लिए जाने का भय .........इस भयों के कारण ही परिवार की पसंद पर खरी उतरने वाली आचरण व् रचनाएं लिखने को मजबूर है लेखिकाएं
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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एक्टिव
संजीव वर्मा 'सलिल'
नारी अपना तन मन दोनों उघाड़ती जा रही है. पुरुष यह नहीं कर रहा इसे उसकी कमजोरी नहीं माना जाए. एक चका पंचर होने पर भी गाडी घसिटती है, दोनों पंचर हुए तो भगवान ही मालिक है.
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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3
एक्टिव
संजीव वर्मा 'सलिल' ने जवाब दिया
·
12 जवाब
डॉ. रजनी कांत पांडेय
मै सलिल जी से पूर्णत: सहमत हूँ । तरह-तरह के अपराध का ठीकरा पुरुषो पर फोडने वाली स्त्री बिना पुरुष के चल भी नही पाती है । पुरुष बिना किसी शिकायत के कोल्हू के बैल जैसा दिन-रात चलता रहता है । अपनी खुशियाँ अपनी पत्नी तथा बच्चों के लिए बरबाद कर देता है फिर भी उसका कही नाम नही होता । मेरा मानना है कि स्त्री विमर्श के नाम पर केवल पुरुष को ही दोषी ठहराना उचित नही है ।आज के आधुनिक युग मे पुरुषों से किसी माने मे स्त्रियाँ कम नही है ।
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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2
Kanta Roy
आन्हाक उपस्थिति से मोन प्रसन्न भेल
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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एडिट किया
2
Kanta Roy
ई जे हमर ज्येष्ठ छथिन संजीव जी, झगड़ा करैत रहैत छैथ हमेशा लेकिन स्नेह सय ओत प्रोत सेहो रहैत छैथ
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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2
डॉ. रजनी कांत पांडेय
तुमने कसम खायी, दिल से मुझे मिटाने की ।
तो जिद मेरी भी है, दिल से नही जाने की ।
© डा. रजनी कान्त पान्डेय
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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2
डॉ. रजनी कांत पांडेय
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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2
Kanta Roy
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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संजीव वर्मा 'सलिल' के तौर पर कमेंट करें
Kiran Shrivastava
Bilkul sahi kaha he.
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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Harihar Jha
कहा जाता था दहेज प्रथा से स्त्रियों को सताया जा रहा है। जैसे ही 498A का लाभ स्त्रियों के पक्ष में मिला, बहू ने पति और सास-ससुर पर मुकदमें ठोकने शुरू कर दिये। तो फिर इसका ठीकरा पुरूषों पर मढ़ना कहाँ तक उचित है?
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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एक्टिव
संजीव वर्मा 'सलिल'
अब तो लड़के डर के कारण विवाह ही नहीं करना चाहते. लड़कियाँ सास ससुर नहीं चाहती सो लिव इन में जीवन नष्ट कर रही हैं.
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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अरुण शर्मा
पूर्णतः सहमत सर जी।
7 वर्ष7 वर्ष पहले
बहुत पसंद
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एक्टिव
डॉ. ब्रह्मजीत गौतम
अच्छी व्याख्या है !
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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एक्टिव
संजीव वर्मा 'सलिल'
कृष्णा जी ने पुरुष को लांछित नहीं महिमा-मंडित किया है. तभी वे राजेन्द्र जी की प्रशस्ति करती हैं. एकांगी सोच पुरुष-प्रशंसा के अंशों की अनदेखी कर पुरुष-निंदा के अंश को शीर्षक और नारे बना कर उछलती रहती है जिसका उद्देश्य सस्ती लोकप्रियता और सनसनी मात्र है. सुधरने की आवश्यकता पुरुष और स्त्री दोनों में उपस्थित रुग्ण मानसिकता को है. स्त्री और पुरुष दोनों में उपस्थित विवेक, सामर्थ्य और प्रयास को दिशा चाहिए. सुधरना दोनों को है. प्रकृति, परिवेश, परिस्थितियों के अनुरूप खुद को ढलते हुए सामंजस्य बैठाने की सामर्थ्य चुकने पर अन्यों को आरोपित कर खुद को दोषमुक्त समझना सरल तो है सत्य नहीं.
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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दर्शन बेजा़र
सभी विद्वानों के अलग अलग अनुभव अलग अलग टिप्पणियां जो स्वाभाविक भी है
6 वर्ष6 वर्ष पहले
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Pushpa Saxena
स्त्री पुरुष दोनो एक दूसरे के पूरक हैं ।केवल एक के ही बल पर परिवार की रचना नही होती ।आपसी सामंजस्य स्नेह त्याग धैर्य संस्कार अच्छी सोच ही आदर्श परिवार व समाज गठित होता है ।एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप निराधार हैं ।कुंठित सोच है ।हमें उदार द्दष्टिकोण अपनाना चाहिए
***
रचना-प्रति रचना
राकेश खण्डेलवाल-आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
दिन सप्ताह महीने बीते
घिरे हुए प्रश्नों में जीते
अपने बिम्बों में अब खुद मैं
प्रश्न चिन्ह जैसा दिखता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
भावों की छलके गागरिया, पर न भरे शब्दों की आँजुर
होता नहीं अधर छूने को सरगम का कोई सुर आतुर
छन्दों की डोली पर आकर बैठ न पाये दुल्हन भाषा
बिलख बिलख कर रह जाती है सपनो की संजीवित आशा
टूटी परवाज़ें संगवा कर
पंखों के अबशेष उठाकर
नील गगन की पगडंडी को
सूनी नजरों से तकता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
पीड़ा आकर पंथ पुकारे, जागे नहीं लेखनी सोई
खंडित अभिलाषा कह देती होता वही राम रचि सोई
मंत्रबद्ध संकल्प, शरों से बिंधे शायिका पर बिखरे हैं
नागफ़नी से संबंधों के विषधर तन मन को जकड़े हैं
बुझी हुई हाथों में तीली
और पास की समिधा गीली
उठते हुए धुंए को पीता
मैं अन्दर अन्दर रिसता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
धरना देती रहीं बहारें दरवाजे की चौखट थामे
अंगनाई में वनपुष्पों की गंध सांस का दामन थामे
हर आशीष मिला, तकता है एक अपेक्षा ले नयनों में
ढूँढ़ा करता है हर लम्हा छुपे हुए उत्तर प्रश्नों में
पन्ने बिखरा रहीं हवायें
हुईं खोखली सभी दुआयें
तिनके जैसा, उंगली थामे
बही धार में मैं तिरता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
मानस में असमंजस बढ़ता, चित्र सभी हैं धुंधले धुंधले
हीरकनी की परछाईं लेकर शीशे के टुकड़े निकले
जिस पद रज को मेंहदी करके कर ली थी रंगीन हथेली
निमिष मात्र न पलकें गीली करने आई याद अकेली
परिवेशों से कटा हुआ सा
समीकरण से घटा हुआ सा
जिस पथ की मंज़िल न कोई
अब मैं उस पथ पर मिलता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
भावुकता की आहुतियां दे विश्वासों के दावानल में
धूप उगा करती है सायों के अब लहराते आँचल में
अर्थहीन हो गये दुपहरी, सन्ध्या और चाँदनी रातें
पड़ती नहीं सुनाई होतीं जो अब दिल से दिल की बातें
कभी पुकारा पनिहारी ने
कभी संभाला मनिहारी ने
चूड़ी के टुकडों जैसा मैं
पानी के भावों बिकता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
मन के बंधन कहाँ गीत के शब्दों में हैं बँधने पाये
व्यक्त कहां होती अनुभूति चाहे कोई कितना गाये
डाले हुए स्वयं को भ्रम में कब तक देता रहूँ दिलासा
नीड़ बना, बैठा पनघट पर, लेकिन मन प्यासा का प्यासा
बिखराये कर तिनके तिनके
भावों की माला के मनके
सीपी शंख बिन चुके जिससे
मैं तट की अब वह सिकता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
***
आदरणीय राकेश जी को सादर समर्पित -
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
जैसे हो तुम मन के अंदर
वैसे ही बाहर दिखते हो
बहुत बधाई तुमको भैया!
*
अब न रहा कंकर में शंकर, कण-कण में भगवान् कहाँ है?
कनककशिपु तो पग-पग पर हैं, पर प्रहलाद न कहीं यहाँ है
शील सती का भंग करें हरि, तो कैसे भगवान हम कहें?
नहीं जलंधर-हरि में अंतर, जन-निंदा में क्यों न वे दहें?
वर देते हैं शिव असुरों को
अभय दान फिर करें सुरों को
आप भवानी-भंग संग रम
प्रेरित करते नारि-नरों को
महाकाल दें दण्ड भयंकर
दया न करते किंचित दैया!
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
जन-हित राजकुमार भेजकर, सत्तासीन न करते हैं अब
कौन अहल्या को उद्धारे?, बना निर्भया हँसते हैं सब
नाक आसुरी काट न पाते, लिया कमीशन शीश झुकाते
कमजोरों को मार रहे हैं, उठा गले से अब न लगाते
हर दफ्तर में, हर कुर्सी पर
सोता कुम्भकर्ण जब जागे
थाना हो या हो न्यायालय
सदा भुखमरा रिश्वत माँगे
भोग करें, ले आड़ योग की
पेड़ काटकर छीनें छैंया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
जब तक था वह गगनबिहारी, जग ने हँस आरती उतारी
छलिये को नटनागर कहकर, ठगी गयी निष्ठा बेचारी
मटकी फोड़ी, माखन खाया, रास रचाई, नाच नचाया
चला गया रणछोड़ मोड़ मुख, युगों बाद सन्देश पठाया
कहता प्रेम-पंथ को तज कर
ज्ञान-मार्ग पर चलना बेहतर
कौन कहे पोंगा पंडित से
नहीं महल, हमने चाहा घर
रहें द्वारका में महारानी
हमें चाहिए बाबा-मैया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
असत पुज रहा देवालय में, अब न सत्य में है नारायण
नेह नर्मदा मलिन हो रही, राग-द्वेष का कर पारायण
लीलावती-कलावतियों को 'लिव इन' रहना अब मन भाया
कोई बाँह में, कोई चाह में, खुद को ठगती खुद ही माया
कोकशास्त्र केजी में पढ़ती,
नव पीढ़ी के मूल्य नये हैं
खोटे सिक्कों का कब्ज़ा है
खरे हारकर दूर हुए हैं
वैतरणी करने चुनाव की
पार, हुई है साधन गैया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
दाँत शेर के कौन गिनेगा?, देश शत्रु से कौन लड़ेगा?
बोधि वृक्ष ले राजकुँवरि को, भेज त्याग-तप मौन वरेगा?
जौहर करना सर न झुकाना, तृण-तिनकों की रोटी खाना
जीत शौर्य से राज्य आप ही, गुरु चरणों में विहँस चढ़ाना
जान जाए पर नीति न छोड़ें
धर्म-मार्ग से कदम न मोड़ें
महिषासुरमर्दिनी देश-हित
अरि-सत्ता कर नष्ट, न छोड़ें
सात जन्म के सम्बन्धों में
रोज न बदलें सजनी-सैंया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
युद्ध-अपराधी कहा उसे जिसने, सर्वाधिक त्याग किया है
जननायक ने ही जनता की, पीठ में छुरा भोंक दिया है
सत्ता हित सिद्धांत बेचते, जन-हित की करते नीलामी
जिसमें जितनी अधिक खोट है, वह नेता है उतना दामी
साथ रहे सम्पूर्ण क्रांति में
जो वे स्वार्थ साध टकराते
भूले, बंदर रोटी खाता
बिल्ले लड़ते ही रह जाते
डुबा रहे मल्लाह धार में
ले जाकर अपनी ही नैया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
कहा गरीबी दूर करेंगे, लेकिन अपनी भरी तिजोरी
धन विदेश में जमा कर दिया, सब नेता हो गए टपोरी
पति पत्नी बच्चों को कुर्सी, बैठा देश लूटते सब मिल
वादों को जुमला कह देते, पद-मद में रहते हैं गाफिल
बिन साहित्य कहें भाषा को
नेता-अफसर उद्धारेंगे
मात-पिता का जीना दूभर
कर जैसे बेटे तारेंगे
पर्व त्याग वैलेंटाइन पर
लुक-छिप चिपकें हाई-हैया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
२५-६-२०१६
***
विमर्श :
हिन्दू - मुसलमान और शिक्षा - विज्ञान
गत १५० वर्ष में हुई प्रगति में पश्चिमी देशों अर्थात यहूदी और ईसाइयों की भागीदारी बहुत अधिक है, हिन्दुओं और मुस्लिमों की अपरक्षकृत बहुत कम। इस काल खंड में हिंदू और मुसलमान सत्ता और धर्म के लिए लड़ते-मरते रहे।
इस समय में हुए १०० महान वैज्ञानिकों के नाम लिखें तो हिन्दू और मुसलमान नाम मात्र को ही मिलेंगे।
दुनिया में ६१ इस्लामी देशों की जनसंख्या लगभग १.७५ अरब और उनमें विश्वविद्यालय लगभग ४५० हैं जबकि हिन्दुओं की जनसंख्या लगभग १.५० अरब और विश्वविद्यालय लगभग ४९० हैं। अमेरिका में ३००० से अधिक और जापान में ९०० से अधिक विश्वविद्यालय हैं।
लगभग ४५ % ईसाई युवक तथा ७५ % यहूदी युवक, २०% हिन्दू युवक तथा ३% मुस्लिम युवक उच्च शिक्षा लेते हैं।
दुनिया के २०० प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में से ५४ अमेरिका, २४इंग्लेंड, १७ ऑस्ट्रेलिया, १० चीन, १० जापान, १० हॉलॅंड, ९ फ़्राँस, 8 जर्मनी, २ भारत और १ इस्लामी मुल्क में हैं।
अमेरिका का जी.डी.पी १५ ट्रिलियन डॉलर से अधिक है जबकि पूरे इस्लामिक जगत का कुल जी.डी.पी लगभग ३.५ ट्रिलियन डॉलर है और भारत का लगभग१.९ ट्रिलियन डॉलर है।
दुनिया में ३८००० मल्टिनॅशनल कम्पनियाँ हैं जिनमें से ३२००० कम्पनियाँ अमेरिका और युरोप में हैं।
दुनिया के १०,००० बड़े अविष्कारों में से ६१०३ अमेरिका में और ८४१० ईसाइयों या यहूदियों ने किये हैं।
दुनिया के ५० अमीरो में से २० अमेरिका, ५ इंग्लेंड, ३ चीन, २ मक्सिको, ३ भारत और १ अरब मुल्क से हैं।
हम हिन्दू और मुसलमान जनहित, परोपकार या समाज सेवा मे भी ईसाईयों और यहूदियों से पीछे हैं। रेडक्रॉस दुनिया का सब से बड़ा मानवीय संगठन है।
बिल गेट्स ने १० बिलियन डॉलर से बिल- मिलिंडा गेट्स फाउंडेशन की बुनियाद रखी जो कि पूरे विश्व के ८ करोड़ बच्चों की सेहत का ख्याल रखती है।
जबकि हम जानते है कि भारत में कई अरबपति हैं। मुकेश अंबानी अपना घर बनाने में ४००० करोड़ खर्च कर सकते हैं और अरब का अमीर शहज़ादा अपने स्पेशल जहाज पर ५०० मिलियन डॉलर खर्च कर सकते हैं। मगर मानवीय सहायता के लिये दोनों ही आगे नहीं आते।
ओलंपिक खेलों में अमेरिका ही सब से अधिक गोल्ड जीतता है। रूस, चीन, जापान, आदि कई देशों के बाद भारत का नाम अत है और मुस्लिम देश तो लगभग अंत में ही होते हैं। हम अतीत पर थोथा गर्व करते हैं किन्तु व्यवहार से वास्तव में व्यक्तिवादी और स्वार्थी हैं। आपस में लड़ने पर अधिक विश्वास रखते हैं। मानसिक रूप में हम हीनताग्रस्त और विदेशों खासकर पश्चिमी देशों की नकल कर गर्व अनुभव करते हैं। धर्म के नाम पर आपस में लड़ने में हम सबसे आगे हैं।
जरा सोचिये कि हमें किस तरफ अधिक ध्यान देने की जरूरत है, आपस में लड़ने या एक होकर देश और खुद को आगे बढ़ाने की? एक-दूसरे के धर्मस्थान तोड़े की या कल-कारखाने खड़े करने की। स्वर्ग और जन्नत के काल्पनिक स्वप्न देखने की या इस धरती और अपने जीवन को अधिक सुखमय बनाने की?
***
मुक्तक: दीप्ति
*
दीप्ति दुनिया की बढ़े नित, देव! यह वरदान देना,
जब कभी तूफां पठाओ, सिखा देना नाव खेना।
नहीं मोहन भोग की है चाह- लेकिन तृप्ति देना-
उदर अपना भर सकूँ, मेहमान भी पायें चबेना।।
*
दीप्ति निश-दिन हो अधिक से अधिक व्यापक,
लगें बौने हैं सभी दुनिया के मापक।
काव्यधारा रहे बहती, सत्य कहती -
दूर दुर्वासा सरीखे रहें शापक।।
*
दीप्ति चेहरे पर रहे नित नव सृजन की,
छंद में छवि देख पायें सब स्वजन की।
ह्रदय का हो हार हिंदी विश्व वाणी-
पत्रिका प्रेषित चरण में प्रभु! नमन की।।
*
दीप्ति आगत भोर का सन्देश देती,
दीप्ति दिनकर को बढ़ो आदेश देती।
दीप्ति संध्या से कहे दिन को नमन कर-
दीप्ति रजनी को सुला बांहों में लेती।।
*
दीप्ति सपनों से सतत दुनिया सजाती,
दीप्ति पाने ज़िंदगी दीपक जलाती।
दीप्ति पाले मोह किंचित कब किसी से-
दीप्ति भटके पगों को राहें दिखाती।।
*
दीप्ति की पाई विरासत धन्य भारत,
दीप्ति कर बदलाव दे, कर-कर बगावत।
दीप्ति बाँटें स्नेह सबको अथक निश-दिन-
दीप्ति से हो तम पराजित कर अदावत।।
*
दीप्ति की गाथा प्रयासों की कहानी,
दीप्ति से मैत्री नहीं होती जुबानी।।
दीप्ति कब मुहताज होती है समय की =-
दीप्ति का स्पर्श पा खिलती जवानी।।
२५.६.२०१३
***
दोहागीत :
मनुआ बेपरवाह.....
*
मन हुलसित पुलकित बदन, छूले नभ है चाह.
झूले पर पेंगें भरे, मनुआ बेपरवाह.....
*
ठेंगे पर दुनिया सकल,
जो कहना है- बोल.
अपने मन की गाँठ हर,
पंछी बनकर खोल..
गगन नाप ले पवन संग
सपनों में पर तोल.
कमसिन है लेकिन नहीं
संकल्पों में झोल.
आह भरे जग देखकर, या करता हो वाह.
झूले पर पेंगें भरे, मनुआ बेपरवाह.....
*
मौन करे कोशिश सदा,
कभी न पीटे ढोल.
जैसा है वैसा दिखे,
चाहे कोई न खोल..
बात कर रहा है खरी,
ज्ञात शब्द का मोल.
'सलिल'-धर में मीन बन,
चंचल करे किलोल.
कोमल मत समझो इसे, हँस सह ले हर दाह.
झूले पर पेंगें भरे, मनुआ बेपरवाह.....
२५.६.२०११
***
मुक्तिका:
लिखी तकदीर रब ने...
*
लिखी तकदीर रब ने फिर भी हम तदबीर करते हैं.
फलक उसने बनाया है, मगर हम रंग भरते हैं..
न हमको मौत का डर है, न जीने की तनिक चिंता-
न लाते हैं, न ले जाते मगर धन जोड़ मरते हैं..
कमाते हैं करोड़ों पाप कर, खैरात देते दस.
लगाकर भोग तुझको खुद ही खाते और तरते हैं..
कहें नेता- 'करें क्यों पुत्र अपने काम सेना में?
फसल घोटालों-घपलों की उगाते और चरते हैं..
न साधन थे तो फिरते थे बिना कपड़ों के आदम पर-
बहुत साधन मिले तो भी कहो क्यों न्यूड फिरते हैं..
न जीवन को जिया आँखें मिलाकर, सिर झुकाए क्यों?
समय जब आख़िरी आया तो खुद से खुद ही डरते हैं..
'सलिल' ने ज़िंदगी जी है, सदा जिंदादिली से ही.
मिले चट्टान तो थमते, नहीं सूराख करते हैं..
२५-६-२०१०
***


सभी रिएक्शन:11

शुक्रवार, 6 जून 2025

जून ६, गीतिका छंद, शिरीष, स्वास्थ्य दोहा, मारीशस, ऊँट, PRAYER, आम, सॉनेट, राम

सलिल सृजन जून ६
*
सॉनेट
राम-जानकी सिंहासन आसीन हुए
दस दिश मंगल-ध्वनि गूँजी, जय घोष हुआ
नाचे मुदित मयूर, कहे जय राम सुआ
मंगल गानों का स्वर नील वितान छुए।
मोद मगन षड् मातृ-नयन प्रेमाश्रु चुए
विरुद सुनाते चारण, माँगें भक्त दुआ
नज़र उतारे जन-गण, तनिक न कहीं खुआ
करतल ध्वनि कर, कर प्रसाद पा रहे पुए।।

मंत्र सुमंत्र बाँचते, वंदन करें प्रजा
भक्ति-शक्ति-अनुरक्ति त्रिवेणी बहे सदा
स्नेह-सलिल पूरित गोमती करें कल-कल।
वही घटित हो जो जब जैसी राम-रजा
शारद-रमा-उमा त्रिदेव हैं देख फिदा
नयन नयन से प्रवहित है सुरसरि छल-छल।।
६.५.२०२५
०0०
मुक्तिका
*
वो आए तो भी नींद न आई तमाम शब
आँखों से नींद उनकी उड़ाई तमाम शब
यादों के चरागों को बुझने नहीं दिया
लोभान की खुशबू सी लुटाई तमाम शब
ये चिलमनें दीदार को हैं तरसतीं हुजूर
सुनकर नक़ाब रुख से हटाई तमाम शब
दीदार से बीमार की तबियत हुई हरी
रुखसार की लाली जो चुराई तमाम शब
ले दिल न तुमने दिल दिया ये क्या सितम किया
आँखों ने सुन के आँख मिलाई तमाम शब
सूरत पे मर मिटे मगर सीरत भी कम न थी
जन्नत जमीं पे उसने बनाई तमाम शब
साँसों में साँस घोल दी, मुर्दा जिला दिया
आने न दी या निंदिया चुराई तमाम शब
६-६-२०२३
***
मुक्तिका
*
वो आए तो भी नींद न आई तमाम शब
ना जान से जाता, न वो करते सलाम रब
गो ख्वाब में वो आए या आए ही नहीं थे
जाना नहीं तो भेजता कैसे पयाम कब?
होना या ना होना मिरा कुछ मायने नहीं
मौला करूँ तेरे बिना क्यों याँ कयाम अब?
वो गौर करे या ना करे, उसका काम है
मुझको उसी से काम जो मेरा कलाम नब
आती है मिरी याद न 'संजीव' तब तलक
होती नहीं है नींद भी उनकी हराम जब
६-६-२०२३
***
PRAYER
*
O' Almighty lord Ganesh!
Words are your sword ashesh.
You are always the First.
Make best from every worst.
You are symbol of wisdom.
You are innocent and handsome.
Ultimate terror to the Demon.
Shiv and Shiva's worthy son.
You bring us all the Shubha.
You bless the devotees with Vibha.
Be kind on us mother Riddhi.
Bless us all o mother Siddhi.
O lord Ganesh the Vighnesh.
Make us success o Karunesh.
6-6-2022
***
स्मरण
रामानुज लाल श्रीवास्तव 'ऊँट बिलहरीवी'
१९ वीं सदी का हिंदी साहित्य का इतिहास बाबू रामानुज लाल श्रीवास्तव 'ऊँट बिलहरीवी' भी के उल्लेखनीय कार्य की चर्चा किए बिना नहीं हो सकता। श्री मांगीलाल जी का स्नेह पूर्ण संबोधन संस्कारधानी जबलपुर के साहित्य जगत के सशक्त स्तंभ थे श्री राम नारायण उपाध्याय द्वारा लिखित एक लेख जो धर्म युग में १९७६ में प्रकाशित हुआ के अनुसार दधीचि की तरह जलकर हिंदी साहित्य को समृद्ध करने वाले श्री रामलाल जी श्रीवास्तव जबलपुर तो क्या समस्त मध्यप्रदेश की तीन पीढ़ियों के हाथी स्वदे हृदय हार्थी वह द्विवेदी युगीन साहित्यकारों के स्नेह भजन छायावाद युगीन साहित्यकारों के मार्गदर्शक और आधुनिक पीढ़ी के मसीहा थे दिवंगत हिन्दी स्विमिंग संपादक श्याम चन्द्र सुमन पृष्ठ ४९६ कथाकार विमल मित्र भगवती चरण वर्मा हरिवंश राय बच्चन जैसी विभूतियों ने जिनकी प्रतिभा को नतमस्तक प्रणाम किया उनकी प्रतिभा किस कोटि की होगी इसका अनुमान सहज ही किया जा सकता है डॉ राजकुमार तिवारी सुमित नवीन दुनिया जबलपुर दिनांक २६ अप्रैल वास्तव में हिंदी के आंखों में मध्य प्रदेश के साहित्यकार स्वर्गीय रामू श्रीवास्तव विशिष्ट स्थान के अधिकारी हैं उच्च कोटि के कवि लेखक समालोचक तो थे ही प्रेमा के संपादक के रूप में उन्हें अनेक कवि लेखकों को जन्म और प्रोत्साहन देने का श्रेय भी है हिंदी ही नहीं उर्दू फारसी और अंग्रेजी भाषा के साहित्य सागर में वे गहराई से बैठे और जो मोतीलाल उनसे हिंदी का भंडार समृद्ध किया श्री रामानुज लाल श्रीवास्तव की सर्जना विशेष रूप से उनके गीतिकाव्य निधि रातें के अध्ययन अनुशीलन और मूल्यांकन से परिचित होना आवश्यक है कृतित्व व्यक्तित्व का ही प्रगति करें वह सदन करता की शारीरिक मानसिक बनावट अभावों प्रभाव सुविधाओं दुविधा कुरूपता सुंदरता के साथ ही उसकी रुचि रुचि और संभवत संबद्धता को भी प्रतिबंधित प्रतिबिंबित करता है श्री रामानुज लाल श्रीवास्तव का जन्म मध्य प्रदेश के जबलपुर नगर के समीप से होरा कस्बे में २८ अगस्त सन १८९८ में हुआ श्री लक्ष्मण प्रसाद श्रीवास्तव तथा श्रीमती गेंदा देवी को मां सरस्वती का यह अनुपम उपहार पुत्र रूप में प्राप्त हुआ रामायण की लाल जी का जन्म सिहोरा में हुआ कुछ दिन बिलहरी में कटे परंतु आंखें खोली राजनांदगांव में शैशव राजनांदगांव के किले या राज महल में बीता घर में माता जी रामायण और महाभारत की कहानियाँ सुनाती और भजन गाना सिखाती पिताजी अपने उर्दू प्रेम के कारण अलीबाबा और चिराग अलादीन के कहानियाँ सुनाते थे किले के सामने घर था किले में जिस उत्साह से दशहरा मनाया जाता था उसी हौसले से मोहर्रम भी राधा कृष्ण का मंदिर भी था और अटल सैयद की समाधि भी दशहरे में नीलकंठ के दर्शन किए जाते थे और मुहर्रम में ताजिया के रामानुज जी ने घर में ही वर्णमाला सीख कर पहली कक्षा में राजनांदगांव में प्रवेश किया सन उन्नीस सौ पांच में पिताजी की अस्वस्थता के कारण मां के साथ बिलहरी जाकर रहना पड़ा लगभग 1 वर्ष वहां शिक्षा प्राप्त की पिताजी के देहांत पश्चात पुनः राजनांदगांव लौटे अध्ययन से अधिक रुचि खेलकूद में थी फतेह परिणाम संतोषजनक नहीं थे सन उन्नीस सौ आठ नौ में रायपुर में दसवीं तो तीन कर 11 में पहुंचे तीसरी बार में मैट्रिक के परीक्षा द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण की रामानुज जी के अग्रज सन 1918 में जबलपुर के एडिशनल तहसीलदार होकर आए श्रीवास्तव जी ने जबलपुर आकर शॉर्टहैंड और टाइपिंग का विधिवत प्रशिक्षण प्राप्त कर तब संबंधी परीक्षा में सफलता प्राप्त की और नहर विभाग में लिपिक हो गए बाद में सीपी टाइम्स के संवाददाता का काम संभाला कटनी और रायपुर में भी कुछ समय गुजारा कोरिया रियासत में भी रहे सन 1919 से 1924 तक का समय कटनी में बिताया 1928 में अप्रैल माह में इंडियन एजेंट होकर जबलपुर आए और जीवन पर्यंत जबलपुर में ही रहे श्रीवास्तव जी के व्यक्तित्व कृतित्व जबलपुर में ही प्रवक् ता और प्रसिद्धि पाई रामानुज बाबू व्यक्तित्व संपन्न साहित्यकार थे 6 फुट 10 इंच ऊंचाई गेहुआ रंग क्लीन शेव्ड सदा से दुबले पतले कभी शाह बिल वास सूट-बूट राई कभी चूड़ीदार पजामा और हैदराबादी शेरवानी कभी धोती कुर्ता और कभी लखनवी कामदार दुप्पल्ली और मखमल का पतला कुर्ता अर्थात बनारसी सिल्क से लेकर मोटा खद्दर तक एक भाव से धारण करने वाले श्रीवास्तव जी साहित्य को तत्कालीन राजाओं महाराजाओं आला अफसरों वकील खिलाड़ियों कलाकारों व्यापारियों छत्तीसगढ़ी बुंदेलखंडी ओं से लेकर नाच गाने की महफिल तक में अपना रंग जमाने के साथ अपनी छाप छोड़ देते थे गीत गान टेनिस पुस्तक लेखन और विक्रय में समान योग्यता के धनी थी उनकी शारीरिक ऊंचाई की दृष्टि से वे संभवत भारतीय कवियों में सबसे ऊंचे थे एक सजीव और लंबी रेखा की भांति अपने कवि जीवन के प्रतीक थे विवान उधार मुक्त मनाने ही निश्चल और प्यारे मानव थी वेद दोस्ती दोस्तों के लिए दोस्ती के नाम पर सर्वस्व अर्पण करने वाले दरिया दिल दोस्तों से तभी तो प्रख्यात साहित्यकार पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी ने अपनी पुस्तक जिन्हें नहीं भूलूंगा में लिखा है अगर है तो खैरागढ़ उपन्यास है तो चंद्रकांता विद्वान है तो लाल पदमसिंह और मित्र हैं तो रामानुज रामानुज बाबू के लिए पीना इबादत थी शुक्ल अभिनंदन साहित्य के अनुसार रामजी लाल जी निहायत के जिंदादिल लेखक पूर्वजों से विरासत में प्राप्त साहित्य अनुराग और परिवार के साहित्यिक सांस्कृतिक वातावरण में रामलाल जी की कविता के अंकुरण में योग दिया उन्होंने १ तक बंदी भैया परमानंद तुम मुझसे नहीं बने लगभग ६० वर्ष की आयु में की थी सन १९१४ में खैरागढ़ में पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी का पारस स्पर्श प्राप्त हुआ लेखक और गति बढ़ी पहली रचना अनुवाद प्रकाशित मासिक पत्रिका बालवीर हिंदी मनोरंजन रचनाओं का प्रकाशन होने लगा सन १९२१ में सरस्वती में दो रचनाएं प्रकाशित हुई गुहा कभी होने की मुहर लग गई सन १९२८ में जबलपुर आए और तब से व्यक्ति प्रयन्त साहित्य साधना में रत रही प्रकाशित रचनाएं काव्य एक उंदीर आते गीत संग्रह दो चला चली में तीन जज्बात आउट हास्य व्यंग रघुवीर कथा जीवनी दो हम इश्क़ के बंदे हैं कहानी संग्रह तीन जंगल की सच्ची कहानियां चार कर्बला की कुर्बानियां एक महाकवि गालिब की गजलें दो महाकवि अनीस और उनका का संपादित विवेचनात्मक बिहार दो प्रतिनिधि शोक गीत तीन दीवाने सफर श्रीवास्तव द्वारा रचित गद्य पद्य की अनेक पांडुलिपि या मौलिक अनुवादित एवं संपादित अप्रकाशित ही रह गई
***
साक्षात्कार बाल साहित्य पर:
संजीव वर्मा 'सलिल'
30 मई 2017 ·
ला लौरा मौक़ा मारीशस में कार्यरत पत्रकार श्रीमती सविता तिवारी से एक दूर वार्ता
- सर नमस्ते
नमस्ते
= नमस्कार.
- आप बाल कविताएं काफी लिखते हैं
बाल साहित्य और बाल मनोविज्ञान पर आपके क्या विचार हैं?
= जितने लम्बे बाल उतना बढ़िया बाल साहित्यकार
-
अच्छा, यह आज के परिदृष्य पर टिप्पणी है
= बाल साहित्य के दो प्रकार है. १. विविध आयु वर्ग के बाल पाठकों के लिए और उनके द्वारा लिखा जा रहा साहित्य २. बाल साहित्य पर हो रहे शोध कार्य.
- मुझे इस विषय पर एक रेडियो कार्यक्रम करना है सोचा आपका विचार जान लेती.
= बाल साहित्य के अंतर्गत शिशु साहित्य, बाल साहित्य तथा किशोर साहित्य का वर्गीकरण आयु के आधार पर और ग्रामीण तथा नगरीय बाल साहित्य का वर्गीकरण परिवेश के आधार पर किया जा सकता है.
आप प्रश्न करें तो मैं उत्तर दूँ या अपनी ओर से ही कहूँ?
- बाल मन को बास साहित्य के जरिए कैसे प्रभावित किया जा सकता है?
= बाल मन पर प्रभाव छोड़ने के लिए रचनाकार को स्वयं बच्चे के स्तर पर उतार कर सोचना और लिखना होगा. जब वह बच्चा थी तो क्या प्रश्न उठते थे उसके मन में? उसका शब्द भण्डार कितना था? तदनुसार शब्द चयन कर कठिन बात को सरल से सरल रूप में रोचक बनाकर प्रस्तुत करना होगा.
बच्चे पर उसके स्वजनों के बाद सर्वाधिक प्रभाव साहित्य का ही होता है. खेद है कि आजकल साहित्य का स्थान दूरदर्शन और चलभाषिक एप ले रहे हैं.
- मॉरिशस जैस छोटेे देश में जहां हिदी बोलने का ही संकट है वहां इसे बच्चों में बढ़ावा देने के क्या उपाय हैं?
= जो सबका हित कर सके, कहें उसे साहित्य
तम पी जग उजियार दे, जो वह है आदित्य.
घर में नित्य बोली जा रही भाषा ही बच्चे की मातृभाषा होती है. माता, पिता, भाई, बहिनों, नौकरों तथा अतिथियों द्वारा बोले जाते शब्द और उनका प्रभाव बालम के मस्तिष्क पर अंकित होकर उसकी भाषा बनाते हैं. भारत जैस एदेश में जहाँ अंग्रेजी बोलना सामाजिक प्रतिष्ठा की पहचान है वहां बच्चे पर नर्सरी राइम के रूप में अपरिचित भाषा थोपा जाना उस पर मानसिक अत्याचार है.
मारीशस क्या भारत में भी यह संकट है. जैसे-जैसे अभिभावक मानसिक गुलामी और अंग्रेजों को श्रेष्ठ मानने की मानसिकता से मुक्त होंगे वैसे-वैसे बच्चे को उसकी वास्तविक मातृभाषा मिलती जाएगी.
इसके लिए एक जरूरत यह भी है कि मातृभाषा में रोजगार और व्यवसाय देने की सामर्थ्य हो. अभिभावक अंग्रेजी इसलिए सिखाता है कि उसके माध्यम से आजीविका के बेहतर अवसर मिल सकते हैं.
- सर! बहुत धन्यवाद आपके समय के लिए. आप सुनिएगा मेरा कार्यक्रम. मैं लिंक भेजुंगी आपको 3 june ko aayga.
अवश्य. शुभकामनाएँ. प्रणाम.
= सदा प्रसन्न रहें. भारत आयें तो मेरे पास जबलपुर भी पधारें.
वार्तालाप संवाद समाप्त |
***
स्वास्थ्य दोहावली
अमृत फल है आँवला, कर त्रिदोष का नाश।
आयुवृद्धि कर; स्वस्थ रख, कहता छू आकाश।।
*
नहा आँवला नीर से, रखें चर्म को नर्म।
पौधा रोपें; तरु बना, समझें पूजा-मर्म।।
*
अमित विटामिन सी लिए, करता तेज दिमाग।
नेत्र-ज्योति में वृद्धि हो, उपजा नव अनुराग।।
*
रक्त-शुद्धि-संचार कर, पाचन करता ठीक।
ओज-कांति को बढ़ाकर, नई बनाता लीक।।
*
जठर-अग्नि; मंदाग्नि में, फँकें आँवला चूर्ण।
शहद और घी लें मिला, भोजन पचता पूर्ण।।
*
भुनी पत्तियाँ फाँक लें, यदि मेथी के साथ।
दस्त बंद हो जाएंगे, नहीं दुखेगा माथ।।
*
फुला आँवला-चूर्ण को, आँख धोइए रोज।
त्रिफला मधु-घी खाइए, तिनका भी लें खोज।।
*
अाँतों में छाले अगर, मत हों अाप निराश।
शहद आँवला रस पिएँ, मिटे रोग का पाश।।
*
चूर्ण आँवला फाँकिए, नित भोजन के बाद।
आमाशय बेरोग हो, मिले भोज्य में स्वाद।।
*
खैरसार मुलहठी सँग, लघु इलायची कूट।
मिली अाँवला गोलियाँ, कंठ-रोग लें लूट।।
*
बढ़े पित्त-कफ; वमन हो, मत घबराएँ आप।
शहद-आँवला रस पाएँ, शक्ति सकेगी व्याप।।
५-६-२०१८
***
दोहा दुनिया
शब्द विशेष : फुलबगिया, बाग़, बगीचा, वाटिका, उपवन, उद्यान
*
फुलबगिया में कली को, देख खिला दिल खूब.
माली आया आया लट्ठ ले, तुरत गया दिल डूब..
*
गार्डन-गार्डन हार्ट है, बाग़-बाग़ दिल आज.
बगिया में कलिका खिली, भ्रमर बजाए साज..
*
बागीचा जंगल हुआ, देख-भाल बिन मौन.
उपवन के दिल में बसी, विहँस वाटिका कौन?
*
ओशो ने उद्यान में, पाई दिव्य प्रतीति.
अब तक खाली हाथ हम, निभा रहे हैं रीति..
*
ठिठक बगीचा देखता, पुलक हाथ ले हाथ.
कभी अधर धर चूमता, कभी लगाता माथ..
*
गुलशन-गुलशन गुल खिले, देखें लोग विदग्ध.
खिला रहा गुल कौन दल, जनता पूछे दग्ध..
६-६-२०१८
***
एक प्रयोग-
चलता न बस, मिलता न जस, तपकर विहँस, सच जान रे
उगता सतत, रवि मौन रह, कब चाहता, युग दाम दे
तप तू करे, संयम धरे, कब माँगता, मनु नाम दे
कल्ले बढ़ें, हिल-मिल चढ़ें, नित नव छुएँ, ऊँचाइयाँ
जंगल सजे, घाटी हँसे, गिरि पर न हों तन्हाइयाँ
परिमल बिखर, छू ले शिखर, धरती सिहर, जय-जय कहे
फल्ली खटर-खट-खट बजे, करतल सहित दूरी तजे
जब तक न मानव काट ले या गिरा दे तूफ़ान आ
तब तक खिला रह धूप - आतप सह, धरा-जंगल सजा
जयगान तेरा करेंगे कवि, पूर्णिमा के संग मिल
नव कल्पना की अल्पना लाख ज्योत्सना जायेगी खिल
***
गीत -
बाँहों में भर शिरीष
जरा मुस्कुराइए
*
धरती है अगन-कुंड, ये
फूलों से लदा है
लू-लपट सह रहा है पर
न पथ से हटा है
ये बाल-हठ दिखा रहा
न बात मानता-
भ्रमरों का नहीं आज से
सदियों से सगा है
चाहों में पा शिरीष
मिलन गीत गाइए
*
संसद की खड़खड़ाहटें
सुन बज रही फली
सरहद पे हड़बड़ाहटें
बंदूक भी चली
पत्तों ने तालियाँ बजाईं
झूमता पवन-
चिड़ियों की चहचहाहटें
लो फिर खिली कली
राहों पे पा शिरीष
भीत भूल जाइए
*
अवधूत है या भूत
नहीं डर से डर रहा
जड़ जमा कर जमीन में
आदम से लड़ रहा
तू एक काट, सौ उगाऊँ
ले रहा शपथ-
संघर्षशील है, नहीं
बिन मौत रह रहा
दाहों में पसीना बहा
तो चहचहाइए
***
आहार-----चिकित्सा!!
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१- रोगनिवारक आहार--
[ क ] प्रात:कालीन हलके भोजन के रूप में-- मौसमी -- -जैसे अमरूद, खीरा, ककड़ी, नाशपाती, पपीता, खरबूजा अथवा अंकुरित मूंग तथा मौसमी सब्जियां और सलाद का सेवन करना चाहिये या बीस मुनक्का, तीन सूखी अंजीर, तीन खुरमानी रात्रि में धोकर भिगोयी हुई प्रात: खाएं और उसके पानी को नींबूरस मिलाकर पी लें!!
[ ख ] दोपहर भोजन-- मोटे आटे की रोटी तथा एक पाँव उबली हुई हरी सब्जी एवं सलाद लें!
[ ग ] रात्रि-भोजन-- मोटे आते की रोटी तथा एक पाँव उबली हुई हरी सब्जी एवं फल [ यदि संभव हो तो ] ग्रहण करें!
आहार निर्धारित समय पर एवं उपयुकय मात्रा में लिया जाय,जिससे अगले भोजन के समय में स्वाभाविक भूक लगाने लगे! खूब अच्छी तरह चबाते हुए धीरे-धीरे शान्ति से भिजन किया जाय! इसमें तीस-चालीस मिनट अवश्य लगना चाहिये !!
भिजन के लिये गेहूँ के बारीक आटे [ मैदा ] के बदले मोटा आता [ सूजी के आकार का ] पिसवायें तथा दो तीन घंटा पहले गुँथवाकर रोटी बनावायें! इससे रेशाकी मात्रा छ: गुना, वित्तमं-बी चार गुना तथा खनिज पदार्थ की मात्रा चार गुना से भी ज्यादा मिलती है! फलस्वरूप शरीर की सफाई एवं रोगप्रतिरोधक क्षमता पैदा करने में सहयोग मिलता है और कब्ज नहीं होने देता!
कभी भी बारीक आटे की रोटी मत बनवाओ!!
***
छंद सलिला:
गीतिका छंद
*
छंद लक्षण: प्रति पद २६ मात्रा, यति १४-१२, पदांत लघु गुरु
लक्षण छंद:
लोक-राशि गति-यति भू-नभ , साथ-साथ ही रहते
लघु-गुरु गहकर हाथ- अंत , गीतिका छंद कहते
उदाहरण:
१. चौपालों में सूनापन , खेत-मेड में झगड़े
उनकी जय-जय होती जो , धन-बल में हैं तगड़े
खोट न अपनी देखें , बतला थका आइना
कोई फर्क नहीं पड़ता , अगड़े हों या पिछड़े
२. आइए, फरमाइए भी , ह्रदय में जो बात है
क्या पता कल जीत किसकी , और किसकी मात है
झेलिये धीरज धरे रह , मौन जो हालात है
एक सा रहता समय कब? , रात लाती प्रात है
३. सियासत ने कर दिया है , विरासत से दूर क्यों?
हिमाकत ने कर दिया है , अजाने मजबूर यों
विपक्षी परदेशियों से , अधिक लगते दूर हैं
दलों की दलदल न दल दे, आँख रहते सूर हैं
६-६-२०१४
***
दोहा सलिला
आम खास का खास है......
*
आम खास का खास है, खास आम का आम.
'सलिल' दाम दे आम ले, गुठली ले बेदाम..
आम न जो वह खास है, खास न जो वह आम.
आम खास है, खास है आम, नहीं बेनाम..
पन्हा अमावट आमरस, अमकलियाँ अमचूर.
चटखारे ले चाटिये, मजा मिले भरपूर..
दर्प न सहता है तनिक, बहुत विनत है आम.
अच्छे-अच्छों के करे. खट्टे दाँत- सलाम..
छककर खाएं अचार, या मधुर मुरब्बा आम .
पेड़ा बरफी कलौंजी, स्वाद अमोल-अदाम..
लंगड़ा, हापुस, दशहरी, कलमी चिनाबदाम.
सिंदूरी, नीलमपरी, चुसना आम ललाम..
चौसा बैगनपरी खा, चाहे हो जो दाम.
'सलिल' आम अनमोल है, सोच न- खर्च छदाम..
तोताचश्म न आम है, तोतापरी सुनाम.
चंचु सदृश दो नोक औ', तोते जैसा चाम..
हुआ मलीहाबाद का, सारे जग में नाम.
अमराई में विचरिये, खाकर मीठे आम..
लाल बसंती हरा या, पीत रंग निष्काम.
बढ़ता फलता मौन हो, सहे ग्रीष्म की घाम..
आम्र रसाल अमिय फल, अमिया जिसके नाम.
चढ़े देवफल भोग में, हो न विधाता वाम..
'सलिल' आम के आम ले, गुठली के भी दाम.
उदर रोग की दवा है, कोठा रहे न जाम..
चाटी अमिया बहू ने, भला करो हे राम!.
सासू जी नत सर खड़ीं, गृह मंदिर सुर-धाम..
१४-६-२०११
***

मंगलवार, 22 अप्रैल 2025

अप्रैल २२, सॉनेट, मुसाफ़िर, सोरठे, कुंडलिया, शून्य, दोहा, राम, अर्थ डे, सीता छंद, गीतिका छंद

सलिल सृजन अप्रैल २२
.
मुक्तक
नर पर दो दो मात्रा भारी।
खुश हो चलवा नर पर आरी।।
कभी न बोले 'हाँ', नित ना री!
कमजोरी ताकत भी नारी।।
सॉनेट
मुसाफ़िर
हम सब सिर्फ मुसाफिर यारो!
दुनिया प्लेटफार्म पर आए।
छीनो-झपटो व्यर्थ न प्यारो!
श्वास ट्रेन की टिकिट कटाए।।
सफर जिंदगी का हसीन हो।
हँस-बोलो तो कट जाएगा।
बजती मन में आस बीन हो।
संग न तू कुछ ले पाएगा।।
नाहक नहीं झमेला करना।
सबसे भाईचारा पालो।
नहीं टिकिटचैकर से डरना।।
जो चढ़-उतरे उसे सम्हालो।।
सफर न सफरिंग होने देना।
सर्फिंग कर भव नैया खेना।।
२२-४-२०२३●●●
मुसाफ़िरी सोरठे
*
ट्रेन कर रही ट्रेन, मुसाफिरों को सफर में।
सफर करे हमसफ़र, अगर मदद उसकी करें।।
*
जबलपूर आ गया, क्यों कहता है मुसाफिर।
आता-जाता आप, शहर जहाँ था है वहीं।।
*
करे मुसाफिर भूल, रेल रिजर्वेशन कहे।
बिछी जमीं पर रेल, बर्थ ट्रेन में सुरक्षित।।
*
बिना टिकिट चल रहे, रवि-शशि दोनों मुसाफिर।
समय ट्रेन पर रोज, टी सी नभ क्यों चुप रहे।।
*
नहीं मुसाफिर कौन, सब आते-जाते यहाँ।
प्लेटफ़ॉर्म का संग, नहीं सुहाता किसी को।।
*
देख मुसाफिर मौन, सिग्नल लाल हरा हुआ।
जा ले मंजिल खोज, प्रभु से है मेरी दुआ।।
*
सोरठा गीत
नाहक छोड़ न ठाँव।
*
रहे सुवासित श्वास,
श्रम सीकर सिंचित अगर।
मिले तृप्ति मिट प्यास,
हुई भोर उठ कर समर।।
कोयल कूके नित्य,
कागा करे न काँव
नाहक छोड़ न ठाँव।
*
टेर रही है साँझ,
नभ सिंदूरी हो रहा।
पंछी लौटे नीड़,
मानव लालच बो रहा।
थकी दुपहरी मौन
रोक कहीं तो पाँव,
नाहक छोड़ न ठाँव।
*
रात रुपहली जाग,
खनखन बजती चूड़ियाँ।
हेरे तेरी राह,
जयी न हों मजबूरियाँ।
पथिक भटक मत और
बुला रहा है गाँव।
नाहक छोड़ न ठाँव।
२२-४-२०२३
*
सॉनेट
मौसम
मौसम करवट बदल रहा है
इसका साथ निभाएँ कैसे?
इसको गले लगाएँ कैसे?
दहक रहा है, पिघल रहा है
बेगाना मन बहल रहा है
रोज आग बरसाता सूरज
धरती को धमकाता सूरज
वीरानापन टहल रहा है
संयम बेबस फिसल रहा है
है मुगालता सम्हल रहा है
यह मलबा भी महल रहा है
व्यर्थ न अपना शीश धुनो
कोरे सपने नहीं बुनो
मौसम की सिसकियाँ सुनो
२२-४-२०२२
•••
सॉनेट
महाशक्ति
महाशक्ति हूँ; दुनिया माने
जिससे रूठूँ; उसे मिटा दूँ
शत्रु शांति का; दुनिया जाने
चाहे जिसको मार उठा दूँ
मौतों का सौदागर निर्मम
गोरी चमड़ी; मन है काला
फैलाता डर दहशत मातम
लज्जित यम; मरघट की ज्वाला
नर पिशाच खूनी हत्यारा
मिटा जिंदगी खुश होता हूँ
बारूदी विष खाद मिलाकर
बीज मिसाइल के बोता हूँ
सुना नाश के रहा तराने
महाशक्ति हूँ दुनिया माने
२२-४-२०२२
•••
चिंतन ४
कैसे?
'कैसे' का विचार तभी होता है इससे पहले 'क्यों' और 'क्या' का निर्णय ले लिया गया हो।
'क्यों' करना है?
इस सवाल का जवाब कार्य का औचित्य प्रतिपादित करता है। अपनी गतिविधि से हम पाना क्या चाहते हैं?
'क्या' करना है?
इस प्रश्न का उत्तर परिवर्तन लाने की योजनाओं और प्रयासों की दिशा, गति, मंज़िल, संसाधन और सहयोगी निर्धारित करता है।
'कैसे'
सब तालों की चाबी यही है।
चमन में अमन कैसे हो?
अविनय (अहंकार) के काल में विनय (सहिष्णुता) से सहयोग कैसे मिले?
दुर्बोध हो रहे सामाजिक समीकरण सुबोध कैसे हों?
अंतर्राष्ट्रीय, वैश्विक और ब्रह्मांडीय संस्थाओं और बरसों से पदों को पकड़े पुराने चेहरों से बदलाव और बेहतरी की उम्मीद कैसे हो?
नई पीढ़ी की समस्याओं के आकलन और उनके समाधान की दिशा में सामाजिक संस्थाओं की भूमिका कितनी और कैसे हो?
नई पीढ़ी सामाजिक संस्थाओं, कार्यक्रमों और नीतियों से कैसे जुड़े?
कैसे? कैसे? कैसे?
इस यक्ष प्रश्न का उत्तर तलाशने का श्रीगणेश कैसे हो?
२२•४•२०२२
***
प्रात नमन
*
मन में लिये उमंग पधारें राधे माधव
रचना सुमन विहँस स्वीकारें राधे माधव
राह दिखाएँ मातु शारदा सीख सकें कुछ
सीखें जिससे नहीं बिसारें राधे माधव
हों बसंत मंजरी सदृश पाठक रचनाएँ
दिन-दिन लेखन अधिक सुधारें राधे-माधव
तम घिर जाए तो न तनिक भी हैरां हों हम
दीपक बन दुनिया उजियारें राधे-माधव
जीतेंगे कोविंद न कोविद जीत सकेगा
जीवन की जय-जय उच्चारें राधे-माधव
***
प्राची ऊषा सूर्य मुदित राधे माधव
मलय समीरण अमल विमल राधे माधव
पंछी कलरव करते; कोयल कूक रही
गौरैया फिर फुदक रही राधे माधव
बैठ मुँडेरे कागा टेर रहा पाहुन
बनकर तुम ही आ जाओ राधे माधव
सुना बजाते बाँसुरिया; सुन पायें हम
सँग-सँग रास रचा जाओ राधे माधव
मन मंदिर में मौन न मूरत बन रहना
माखन मिसरी लुटा जाओ राधे माधव
२१-४-२०२०
***
दोहा सलिला
नियति रखे क्या; क्या पता, बनें नहीं अवरोध
जो दे देने दें उसे, रहिए आप अबोध
*
माँगे तो आते नहीं , होकर बाध्य विचार
मन को रखिए मुक्त तो, आते पा आधार
*
सोशल माध्यम में रहें, नहीं हमेशा व्यस्त
आते नहीं विचार यदि, आप रहें संत्रस्त
*
एक भूमिका ख़त्म कर, साफ़ कीजिए स्लेट
तभी दूसरी लिख सकें,समय न करता वेट
*
रूचि है लोगों में मगर, प्रोत्साहन दें नित्य
आप करें खुद तो नहीं, मिटे कला के कृत्य
*
विश्व संस्कृति के लगें, मेले हो आनंद
जीवन को हम कला से, समझें गाकर छंद
*
भ्रमर करे गुंजार मिल, करें रश्मि में स्नान
मन में खिलते सुमन शत, सलिल प्रवाहित भान
*
हैं विराट हम अनुभूति से, हुए ईश में लीन
अचल रहें सुन सकेंगे, प्रभु की चुप रह बीन
***
मनरंजन -
आर्य भट्ट ने शून्य की खोज ६ वीं सदी में की तो लगभग ५००० वर्ष पूर्व रामायण में रावण के दस सर की गणना और त्रेता में सौ कौरवों की गिनती कैसे की गयी जबकि उस समय लोग शून्य (जीरो) को जानते ही नही थे।
*
आर्यभट्ट ने ही (शून्य / जीरो) की खोज ६ वीं सदी में की, यह एक सत्य है। आर्यभट्ट ने 0(शून्य, जीरो )की खोज *अंकों मे* की थी, *शब्दों* नहीं। उससे पहले 0 (अंक को) शब्दों में शून्य कहा जाता था। हिन्दू धर्म ग्रंथों जैसे शिव पुराण,स्कन्द पुराण आदि में आकाश को *शून्य* कहा गया है। यहाँ शून्य का अर्थ अनंत है । *रामायण व महाभारत* काल में गिनती अंकों में नहीं शब्दो में होती थी, वह भी *संस्कृत* में।
१ = प्रथम, २ = द्वितीय, ३ = तृतीय, ४ = चतुर्थ, ५ = पंचम, ६ = षष्ठं, ७ = सप्तम, ८ = अष्टम, ९= नवंम, १० = दशम आदि।
दशम में *दस* तो आ गया, लेकिन अंक का ० नहीं।
आया, ‍‍रावण को दशानन, दसकंधर, दसशीश, दसग्रीव, दशभुज कहा जाता है !!
*दशानन मतलव दश+आनन =दश सिरवाला।
त्रेता में *संस्कृत* में *कौरवो* की संख्या सौ *शत* शब्दों में बतायी गयी, अंकों में नहीं।
*शत्* संस्कृत शब्द है जिसका हिन्दी में अर्थ सौ (१००) है। *शत = सौ*
रोमन में १, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ९, ०, के स्थान पर i, ii, iii, iv, v, vi, vii, viii, ix, x आदि लिखा-पढ़ा जाता है किंतु शून्य नहीं आता।आप भी रोमन में एक से लेकर सौ की गिनती पढ़ लिख सकते है !!
आपको 0 या 00 लिखने की जरूरत भी नहीं पड़ती है।
तब गिनती को *शब्दो में* लिखा जाता था !!
उस समय अंकों का ज्ञान नहीं, था। जैसे गीता,रामायण में अध्याय १, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ९, को प्रथम अध्याय, द्वितीय अध्याय, पंचम अध्याय,दशम अध्याय... आदि लिखा-पढ़ा जाका था।
दशम अध्याय ' मतलब दशवाँ पाठ (10th lesson) होता है !!
इसमे *दश* शब्द तो आ गया !! लेकिन इस दश मे *अंको का 0* (शून्य, जीरो)" का प्रयोग नही हुआ !!
आर्यभट्ट ने शून्य के लिये आंकिक प्रतीक "०" का अन्वेषण किया जो हमारे आभामंड, पृथ्वी के परिपथ या सूर्य के आभामंडल का लघ्वाकार है।
*
२०-४-२०२०
कुंडलिया
*
नारी को नर पूजते, नारी नर की भक्त
एक दूसरे के बिना दोनों रहें अशक्त
दोनों रहें अशक्त, मिलें तो रचना करते
उनसा बनने भू पर, ईश्वर आप उतरते
यह दीपक वह ज्योत, पुजारिन और पुजारी
मन मंदिर में मौन, विराजे नर अरु नारी
२२-४-२०२०
***
दोहा-दोहा राम
*
भीतर-बाहर राम हैं, सोच न तू परिणाम
भला करे तू और का, भला करेंगे राम
*
विश्व मित्र के मित्र भी, होते परम विशिष्ट
युगों-युगों तक मनुज कुल, सीख मूल्य हो शिष्ट
*
राम-नाम है मरा में, जिया राम का नाम
सिया राम का नाम है, राम सिया का नाम
*
उलटा-सीधा कम-अधिक, नीचा-ऊँच विकार
कम न अधिक हैं राम-सिय, पूर्णकाम अविकार
*
मन मारुतसुत हो सके, सुमिर-सुमिर सिय-राम
तन हनुमत जैसा बने, हो न सके विधि वाम
*
मुनि सुतीक्ष्ण मति सुमति हो, तन हो जनक विदेह
धन सेवक हनुमंत सा, सिया-राम का गेह
*
शबरी श्रम निष्ठा लगन, सत्प्रयास अविराम
पग पखर कर कवि सलिल, चल पथ पर पा राम
*
हो मतंग तेरी कलम, स्याही बन प्रभु राम
श्वास शब्द में समाहित, गुंजित हो निष्काम
*
अत्रि व्यक्ति की उच्चता, अनुसुइया तारल्य
ज्ञान किताबी भंग शर, कर्मठ राम प्रणम्य
*
निबल सरलता अहल्या, सिया सबल निष्पाप
गौतम संयम-नियम हैं, इंद्र शक्तिमय पाप
*
नियम समर्थन लोक का, पा बन जाते शक्ति
सत्ता दण्डित हो झुके, हो सत-प्रति अनुरक्ति
*
जनगण से मिल जूझते, अगर नहीं मतिमान.
आत्मदाह करते मनुज, दनुज करें अभिमान.
*
भंग करें धनु शर-रहित, संकुच-विहँस रघुनाथ.
भंग न धनु-शर-संग हो, सलिल उठे तब माथ.
२२-४-२०१९
***
श्री श्री चिंतन दोहा मंथन
इंद्रियाग्नि:
24.7.1995, माँट्रियल आश्रम, कनाडा
*
जीवन-इंद्रिय अग्नि हैं, जो डालें हो दग्ध।
दूषित करती शुद्ध भी, अग्नि मुक्ति-निर्बंध।।
*
अग्नि जले; उत्सव मने, अग्नि जले हो शोक।
अग्नि तुम्हीं जल-जलाते, या देते आलोक।।
*
खुद जल; जग रौशन करें, होते संत कपूर।
प्रेमिल ऊष्मा बिखेरें, जीव-मित्र भरपूर।।
*
निम्न अग्नि तम-धूम्र दे, मध्यम धुआँ-उजास।
उच्च अग्नि में ऊष्णता, सह प्रकाश का वास।।
*
करें इंद्रियाँ बुराई, तिमिर-धुआँ हो खूब।
संयम दे प्रकृति बदल, जा सुख में तू डूब।।
*
करें इंद्रियाँ भलाई, फैला कीर्ति-सुवास।
जहाँ रहें सत्-जन वहाँ, सब दिश रहे उजास।।
***
12.4.2018
मुक्तक
अर्थ डे है, अर्थ दें तो अर्थ का कुछ अर्थ हो.
जेब खाली ही रहे तो काटना भी व्यर्थ हो
जेब काटे अगर दर्जी तो न मर्जी पूछता
जेबकतरा जेब काटे बिन सजा न अनर्थ हो
***
अभिनव प्रयोग
त्रिपदियाँ
(सोलह मात्रिक संस्कारी जातीय छंद, पदांत गुरु)
*
तन्मय जिसमें रहें आप वो
मूरत मन-मंदिर में भी हो
तीन तलाक न दे पाएंगे।
*
नहीं एक के अगर हुए तो
दूजी-तीजी के क्या होंगे?
खाली हाथ सदा पाएंगे।
*
बीत गए हैं दिन फतवों के
साथ समय के नहीं चले तो
आप अकेले पड़ जाएंगे।
२२-४-२०१७
*
छन्द बहर का मूल है ९
मुक्तिका:
*
पंद्रह वार्णिक, अति शर्करी जातीय सीता छंद.
छब्बीस मात्रिक महाभागवत जातीय गीतिका छंद
मात्रा क्रम -२१२.२/२१.२२/२.१२२./२१२
गण सूत्र-रतमयर
बहर- फाइलातुन फाइलातुन फाइलातुन फाइलुन
*
कामना है रौशनी की भीख दें संसार को
मनुजता को जीत का उपहार दें, हर हार को
सर्प बाधा, जिलहरी है परीक्षा सामर्थ्य की
नर्मदा सा ढार दें शिवलिंग पर जलधार को
कौन चाहे मुश्किलों से हो कभी भी सामना
नाव को दे छोड़ जब हो जूझना मँझधार को
भरोसा किस पर करें जब साथ साया छोड़ दे
नाव से खतरा हुआ है हाय रे पतवार को
आ रहे हैं दिन कहीं अच्छे सुना क्या आपने?
सूर्य ही ठगता रहा जुमले कहा उद्गार को
२३-०७-२०१५
***
नवगीत
*
सत्ता-लाश
नोचने आतुर
गिद्ध, बाज, कऊआ.
*
जनमत के लोथड़े बटोरें
पद के भूखे चंद चटोरे.
दर-दर घूम समर्थन माँगें
ले हाथों में स्वार्थ-कटोरे.
मिलीभगत
फैला अफवाहें
खड़ा करो हऊआ.
सत्ता-लाश
नोचने आतुर
गिद्ध, बाज, कऊआ.
*
बाँट रहे अनगिन आश्वासन,
जुमला कहते पाकर शासन.
टैक्स और मँहगाई बढ़ाते
माल उड़ाते, देते भाषण.
त्याग-परिश्रम
हैं अवमूल्यित
साध्य खेल-चऊआ.
सत्ता-लाश
नोचने आतुर
गिद्ध, बाज, कऊआ.
*
निर्धन हैं बेबस अधनंगे
धनी-करें फैशन अधनंगे.
लाज न ढँक पाता है मध्यम
भद्र परेशां, लुच्चे चंगे.
खाली हाथ
सभी को जाना
सुने न क्यों खऊआ?
सत्ता-लाश
नोचने आतुर
गिद्ध, बाज, कऊआ.
*
नवगीत
फतवा
*
तुमने छींका
हमें न भाया
फतवा जारी।
*
ठेकेदार
हमीं मजहब के।
खासमखास
हमई हैं रब के।
जब चाहें
कर लें निकाह फिर
दें तलाक.
क्यों रायशुमारी?
तुमने छींका
हमें न भाया
फतवा जारी।
*
सही-गलत क्या
हमें न मतलब।
मनमानी ही
अपना मजहब।
खुद्दारी से
जिए न औरत
हो जूती ही
अपनी चाहत।
ख्वाब न उसके
बनें हकीकत
है तैयारी।
तुमने छींका
हमें न भाया
फतवा जारी।
*
हमें नहीं
कानून मानना।
हठधर्मी कर
रार ठानना।
मनगढ़ंत
हम करें व्याख्या
लाइलाज है
अकल अजीरण
की बीमारी।
तुमने छींका
हमें न भाया
फतवा जारी।
*
नवगीत: बिंदु-बिंदु परिचय
*
१. नवगीत के २ हिस्से होते हैं १. मुखड़ा २. अंतरा।
२. मुखड़ा की पंक्तिसंख्या या पंक्ति में वर्ण या मात्रा संख्याका कोई बंधन नहीं होता पर मुखड़े की प्रथम या अंतिम एक पंक्ति के समान पदभार की पंक्ति अंतरे के अंत में आवश्यक है ताकि उसके बाद मुखड़े को दोहराया जा सके तो निरंतरता की प्रतीति हो।
३. सामान्यतः २ या ३ अंतरे होते हैं। अन्तरा सामान्यतः स्वतंत्र होता है पर पूर्व या पश्चात्वर्ती अंतरे से सम्बद्ध नहीं होता। अँतरे में पंक्ति या पंक्तियों में वर्ण या मात्रा का कोई बंधन नहीं होता किन्तु अंतरे की पंक्तियों में एक लय का होना तथा वही लय हर अन्तरे में दोहराई जाना आवश्यक है।
४. नवगीत में विषय, रस, भाव आदि का कोई बंधन नहीं होता।
५. संक्षिप्तता, लाक्षणिकता, मार्मिकता, बेधकता, स्पष्टता, सामयिकता, सहजता-सरलता नवगीत के गुण या विशेषतायें हैं।
६. नवगीत की भाषा में देशज शब्दों के प्रयोग से उपज टटकापन या अन्य भाषिक शब्द विशिष्टता मान्य है, जबकि लेख, निबंध में इसे दोष कहा जाता है।
७. नवगीत की भाषा सांकेतिक होती है, गीत में विस्तार होता है।
८. नवगीत में आम आदमी की या सार्वजनिक भावनाओं को अभिव्यक्ति दी जाती है जबकि गीत में गीतकार अपनी व्यक्तिगत अनुभूतियों को शब्दित करता है।
९. नवगीत में अप्रचलित छंद या नए छंद को विशेषता कहा जाता है। छंद मुक्तता भी स्वीकार्य है पर छंदहीनता नहीं।
१०. नवगीत में अलंकारों की वहीं तक स्वीकार्यता है जहाँ तक वे कथ्य की स्पष्ट-सहज अभिव्यक्ति में बाधक न हों।
११. नवगीत में प्रतीक, बिम्ब तथा रूपक भी कथ्य के सहायक के रूप में ही होते हैं।
सारत: हर नवगीत अपने आप में पूर्ण तथा गीत होता है पर हर गीत नवगीत नहीं होता। नवगीत का अपरिहार्य गुण उसका गेय होना है।
+++++++
नवगीत:
.
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें.
.
साये से भय खाते लोग
दूर न होता शक का रोग
बलिदानी को युग भूले
अवसरवादी करता भोग
सत्य न सुन
सह पाते
झूठी होती वाहें
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें.
.
उसने पाया था बहुमत
साथ उसी के था जनमत
सिद्धांतों की लेकर आड़
हुआ स्वार्थियों का जमघट
बलिदानी
कब करते
औरों की परवाहें
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें.
.
सत्य, झूठ को बतलाते
सत्ता छिने न, भय खाते
छिपते नहीं कारनामे
जन-सम्मुख आ ही जाते
जननायक
का स्वांग
पाल रहे डाहें
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें.
.
वह हलाहल रहा पीता
बिना बाजी लड़े जीता
हो विरागी की तपस्या
घट भरा वह, शेष रीता
जन के मध्य
रहा वह
चाही नहीं पनाहें
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें.
.
कोई टोंक न पाया
खुद को झोंक न पाया
उठा हुआ उसका पग
कोई रोक न पाया
सबको सत्य
बताओ, जन की
सुनो सलाहें
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें.
***
मुक्तक:
*
हम एक हों, हम नेक हों, बल दो हमें जगदंबिके!
नित प्रात हो, हम साथ हों, नत माथ हो जगवन्दिते !!
नित भोर भारत-भारती वर दें हमें सब हों सुखी
असहाय के प्रति हों सहायक हो न कोई भी दुखी
*
मत राज्य दो मत स्वर्ग दो मत जन्म दो हमको पुन:
मत नाम दो मत दाम दो मत काम दो हमको पुन:
यदि दो हमें बलिदान का यश दो, न हों जिन्दा रहें
कुछ काम मातु! न आ सके नर हो, न शर्मिंदा रहें
*
तज दे सभी अभिमान को हर आदमी गुणवान हो
हँस दे लुटा निज ज्ञान को हर लेखनी मतिमान हो
तरु हों हरे वसुधा हँसे नदियाँ सदा बहती रहें-
कर आरती माँ भारती! हम हों सुखी रसखान हों
*
फहरा ध्वजा हम शीश को अपने रखें नत हो उठा
मतभेद को मनभेद को पग के तले कुचलें बिठा
कर दो कृपा वर दो जया!हम काम भी कुछ आ सकें
तव आरती माँ भारती! हम एक होकर गा सकें
*
[छंद: हरिगीतिका, सूत्र: प्रति पंक्ति ११२१२ X ४]
२२-४-२०१५
***
षट्पदी :
*'
हिन्दी की जय बोलिए, हो हिन्दीमय आप.
हिन्दी में पढ़-लिख 'सलिल', सकें विश्व में व्याप्त..
नेह नर्मदा में नहा, निर्भय होकर डोल.
दिग-दिगंत को गुँजा दे, जी भर हिन्दी बोल..
जन-गण की आवाज़ है, भारत मान ता ताज.
हिन्दी नित बोले 'सलिल', माँ को होता नाज़..
*
२२-४-२०१०
छंद सलिला:
विशेषिका छंद
*
छंद-लक्षण: जाति महादैशिक , प्रति चरण मात्रा २० मात्रा, चरणांत तीन लघु लघु गुरु (सगण)।
लक्षण छंद:
'विशेषिका' कलाएँ बीस संग रहे
विशेष भावनाएँ कह दे बिन कहे
कमल ज्यों नर्मदा में हँस भ्रमण करे
'सलिल' चरण के अंत में सगण रहे
उदाहरण:
१. नेता जी! सीखो जनसेवा, सुधरो
रिश्वत लेना छोडो अब तो ससुरों!
जनगण ने देखे मत तोड़ो सपने
मानो कानून सभी मानक अपने
२. कान्हा रणछोड़ न जा बज मुरलिया
राधा का काँप रहा धड़कता जिया
निष्ठुर शुक मैना को छोड़ उड़ रहा
यमुना की लहरों का रंग उड़ रहा
नीलाम्बर मौन है, कदम्ब सिसकता
पीताम्बर अनकहनी कहे ठिठकता
समय महाबली नाच नचा हँस रहा
नटवर हो विवश काल-जाल फँस रहा
३. बंदर मामा पहन पजामा सजते
मामी जी पर रोब ज़माने लगते
चूहा देखा उठकर भागे घबरा
मामी मन ही मन मुस्काईं इतरा
२२-४-२०१४
*********************************************
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, ककुभ, कज्जल, कामिनीमोहन कीर्ति, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दीपकी, दोधक, नित, निधि, प्रतिभा, प्रदोष, प्रेमा, बाला, भव, मदनअवतार, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, योग, ऋद्धि, राजीव, रामा, लीला, वाणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, सरस, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हेमंत, हंसगति, हंसी)
***
मुक्तक:
नव संवत्सर मंगलमय हो.
हर दिन सूरज नया उदय हो.
सदा आप पर ईश सदय हों-
जग-जीवन में 'सलिल' विजय हो.
*
दिल चुराकर आप दिलवर बन गए.
दिल गँवाकर हम दीवाने हो गए.
दिल कुचलनेवाले दिल की क्यों सुनें?
थामकर दिल वे सयाने बन गए.
*
पीर पराई हो सगी, निज सुख भी हो गैर.
जिसको उसकी हमेशा, 'सलिल' रहेगी खैर..
सबसे करले मित्रता, बाँट सभी को स्नेह.
'सलिल' कभी मत किसी के, प्रति हो मन में बैर..
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मन मंदिर में जो बसा, उसको भी पहचान.
जग कहता भगवान पर वह भी है इंसान..
जो खुद सब में देखता है ईश्वर का अंश-
दाना है वह ही 'सलिल' शेष सभी नादान..
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'संबंधों के अनुबंधों में ही जीवन का सार है.
राधा से,मीरां से पूछो, सार भाव-व्यापार है..
साया छोडे साथ,गिला क्यों?,उसका यही स्वभाव है.
मानव वह जो हर रिश्ते से करता'सलिल'निभाव है.'
२२-४-२०१०
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