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शुक्रवार, 11 जुलाई 2025

मार्च २३, सोनेट, भक्ति, रश्मि, वर्ड्सवर्थ, मनहरण घनाक्षरी, राजा अवस्थी, कज्जल छंद, होली,

सलिल सृजन २३ मार्च 
*
२३ मार्च - कब क्या?
- शहीद दिवस भारत १९३१ (शहीद भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव को फाँसी), विश्व मौसम विज्ञान दिवस, संविधान दिवस पाकिस्तान १९५६.  
- राम मनोहर लोहिया जन्म १९१०, स्वतंत्रता सत्याग्रही, समाजवादी नेता 
-  हेमू कालाणी जन्म १९२३, भारतीय क्रांतिकारी एवं स्वतंत्रता सेनानी
- सहजीवन (लिव इन) दिवस (सर्वोच्च न्यायालय ३ सदस्यीय खंड पीठ ने सह जियावन को अपराध नहीं माना) 

सोनेट
*
नहीं भक्ति का मार्ग सहज,
भज प्रभु को तज माया-मोह,
सांसारिक दुनिया पग-रज,
मन में तनिक न रखना द्रोह।
साथ नहीं कुछ जाएगा,
पाया-खोया जो सम जान,
ठाठ यहीं रह जाएगा,
है समान मान-अपमान।
मन मत हो उन्मन किंचित,
तन्मय रहकर ले प्रभु नाम,
हो मत हरि छाया-वंचित,
काम सभी कर हो निष्काम।
अगम भक्ति का मार्ग सहज,
श्वास-श्वास में प्रभु को भज।
२३.३.२०२४
***
सॉनेट
रश्मि
रश्मि तिमिर का पाश काटती
कण-कण करता है अभिनंदन
करतल ध्वनि हो अक्षत चंदन
नव आशा निशि-दिवस बाँटती
रश्मि सलिल लहरों सँग खेले
सिकता-कण कनकाभित होते
नित नव अनगिन सपने बोते
रविकर पल पल लगें नवेले
रश्मि रचे रचना हर रुचिकर
धूप-छाँव कर, मन बहलाए
शुभ प्रयास की जय जय गाए
रश्मिरथी सबके मन में हो
किरण करे किसलय हर पोषित
तुहिन कणों को करे न शोषित
२४-३-२०२३
•••
भाषा सेतु
अंग्रेजी हिंदी
*
William Wordsworth - daffodils विलियम वर्ड्सवर्थ - डैफोडिल
I wandered lonely as a cloud मैं एकाकी बादल जैसे भटक रहा था
That floats on high o'er vales and hills, जो उड़ता है ऊपर घाटी अरु पर्वत के
When all at once I saw a crowd, एकाएक झुण्ड देखा मैंने जब एक
A host, of golden daffodils, आतिथेय ज्यों एक सुनहरे डैफोडिल का
Beside the lake, beneath the trees, बाजू में सरवर के; पेड़ों की छाया में
Fluttering and dancing in the breeze. झूम- झूमकर नाच रहा साथ पवन के।
Continuous as the stars that shine लगातार जैसे तारे चमका करते हैं
And twinkle on the milky way, झिलमिल करते आकाशी गंगा के पथ में
They stretch'd in never-ending line बँधे हुए वे अंतहीन रेखा में जैसे
Along the margin of a bay: साथ-साथ खाड़ी की तटरेखा के मैंने
Ten thousand saw I at a glance दस हजार को देखा एक साथ ही मैंने
Tossing their heads in sprightly dance. झूमा रहे अपने सर होकर मुदित, नाचते।
The waves beside them danced, but they लहरें उनके बाजू में नाचीं लेकिन वे
Out-did the sparkling waves in glee:-- अनदेखा करते लहरों को निज मस्ती में
A Poet could not but be gay एक कवि हो सकता नहीं और नाकारा
In such a jocund company! ऐसी अद्भुत और अलौकिक प्रिय संगति में
I gazed--and gazed--but little thought देखा रहा देखता तुक फिर मैंने सोचा
What wealth the show to me had brought; क्या निधि दृश्य अनोखा मुझ तक ले आया है।
For oft, when on my couch I lie जब फुरसत में लेटा होता हूँ मैं कोच पर
In vacant or in pensive mood, खालीपन में या चिंतन में लीन हुआ मैं
They flash upon that inward eye वे दमक करते मेरी अंतर्दृष्टि में
Which is the bliss of solitude; जो वरदान अकेलेपन का मैंने पाया
And then my heart with pleasure fills तब मेरा हृद प्रफुल्लता से पूर्ण भर गया
And dances with the daffodils. और उठा मैं नाच संग में डैफोडिल के।
हिंदी काव्यानुवाद : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
२३-३-२०२२
***
मनहरण घनाक्षरी (३१ वर्ण)
*
मनहरण घनाक्षरी में १६,१५ वर्ण पर यति तथा चरणांत में गुरू होता है।
शालिनी हो, माननी हो, नहीं अभिमाननी हो,
श्वास-आस स्वामिनी हो मीत मेरी कविता
गति यति लय रस भाव बिंब रूप जस,
प्राण मन आत्मा हो प्रीत मेरी कविता
साधना हो वंदंना हो प्रार्थना हो अर्चना हो
मोहिनी आराधना हो रीत मेरी कविता
शब्द शब्द हो निशब्द सुनें सभी श्रोता गण
हो अतीत अव्यतीत गीत मेरी कविता
२३-३-२०१९
***
पुस्तक सलिला:
'जिस जगह यह नाव है' नवगीत का वह घाट है
*
[कृति विवरण- जिस जगह यह नाव है, नवगीत संग्रह, राजा अवस्थी, वर्ष २००६, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द, बहुरंगी, जैकेट सहित, पृष्ठ १३६, मूल्य १२०रु., अनुभव प्रकाशन, ई २८ लाजपत नगर, साहिबाबाद, गाज़ियाबाद २०१००५, ०१२० ४११२२१०, रचनाकार संपर्क- गाटरघाट मार्ग, आजाद चौक, कटनी ४८३५०१, चलभाष ९६१७९१३२८७}
*
सनातन सलिला नर्मदा के अंचल में आधुनिक हिंदी के उद्भव काल से ही साहित्य की हर विधा में सतत सत्साहित्य का सृजन होता रहा है। वर्तमान पीढ़ी के सृजनशील नवगीतकारों में राजा अवस्थी का नाम साहित्य सृजन को सारस्वत पूजन की तरह समर्पित भाव से निरंतर कर रहे रचनाकारों में सम्मिलित है। हिंदी साहित्य के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ हस्ताक्षर डॉ. देवेन्द्र शर्मा 'इंद्र' तथा नर्मदांचल के वरिष्ठ साहित्य साधक श्यामनारायण मिश्र द्वारा आशीषित 'जिस जगह यह नाव है' ७८ समसामयिक, सरस नवगीतों का पठनीय संग्रह है। मध्य प्रदेश के बड़े जंक्शन कटनी में बसे राजा के नवगीत विंध्याटवी के नैसर्गिक सौंदर्य, ग्राम्यांचल के संघर्ष, नगरीकरण की घुटन, राजनीति के दिशाभ्रम, आम जन के अंतर्द्वंद तथा युवाओं के सपनों के बहुदिशायी रेलगाड़ियों में यात्रारत मनोभावों को मन में बसाते हैं। करुणा और व्यथा काव्य का उत्स है. गाँव की माटी की व्यथा-कथा गाँव के बेटों तक न पहुँचे यह कैसे संभव है?
आज गाँव की व्यथा बाँचती / चिट्ठी मेरे नाम मिली
विधवा हुई रमोली की भी / किस्मत कैसी फूटी
जेठ-ससुर की मैली नज़रें / अब टूटीं, तब टूटीं
तमाम विसंगतियों से लड़ते-जूझते हुए भी अक्षर आराधना किसी सैनिक के पराक्रम से कम नहीं है।
चंदन वन काट-काट / शव का श्रृंगार करें
शिशुओं को दें शव सा जीवन
यौवन में सन्नाटा / मरघट सा छाता है
आस-ओस दुर्लभ आजीवन
यश अर्जन को होता
भूख को हमारी, साहित्य में उतारना
माँ शारदा को क्षुधा-दीप समर्पित करती कलम का संघर्ष गाँव और शहर हर जगह एक सा है। विडम्बनाओं व विसंगतियों से जूझना ही नियति है-
स्वार्थ-पोषित आचरण को / यंत्रवत निष्ठुर शहर को / सौपने बैठा
भाव की पहचान भूले / चेहरे पढ़ना कठिन है
धुंध, सन्नाटा, अँधेरा / और बहरापन कठिन है
विवशताएँ, व्यस्तताएँ / ह्रदय में छल वर्जनाएं / थोपने बैठा
अनचाही पीड़ाएँ प्रकृति प्रदत्त कम, मनुष्य रचित अधिक हैं-
गाँव के पंचों ने मिलकर / फिर खड़ी दीवार की
फिर वही हालत, नियति / वह ही प्रकृति के प्यार की
किशनवा-रधिया की / घुटती साँस का मौसम।
किसी समाज के सामने सर्वाधिक चिंतनीय स्थिति तब होती है जब बिखराव के कारण मानव-मन दूर होने लगें। राजा इस परिस्थिति का अनुमान कर अपनी चिंता नवगीत में उड़ेल देते हैं-
अंतस के समतल की / चिकनाई गायब अब
रोज बढ़े, फैले, ज़हरीला बिखराव
रिश्तों का ताप चुका / आ बैठा ठंडापन
चहक-पुलक में में पसरा जाता ठहराव
कैसी इच्छाओं के / ज्वार और भाटे ये
दूर हुए जाते मन, सदियों के द्वीप
विषमताओं के कुम्भ में सपनों की आहट बेमानी प्रतीत होने लगे तो नवगीत मन की पीड़ा को स्वर देता है -
किसलिए सजें / सपने, तो बस विशुद्ध रेत हैं
नरभक्षी पौधों से / आश्रय की आशा क्या?
सब के सब इक जैसे / टोला क्या, माशा क्या?
कोई भी अमृत फल / इन पर आ पायेगा?
छोडो भी आशा, ये बेंत हैं
बेशर्मी जेहन से / आँखों में उतरी
ढंकेंगी कब तक / ये पोशाकें सुथरी
बच पाना मुश्किल है / ये भोंडे संस्कार
दम लेंगे हंसकर ही, ये करैत हैं
राजा केवल नाम के ही नहीं अनुभूतियों और अभिव्यक्ति-क्षमता के भी राजा हैं। लोकतंत्र में भी सामंतवादी प्रवृत्तियों का बढ़ते जाना, प्रगति की मरीचिका मैं आम आदमी का दर्द बढ़ते जाना उनके मन की पीड़ा को बढ़ाता है-
फिर उसी सामंतवादी / जड़ प्रकृति को रोपता
एक विध्वंसक समय को / हाथ बाँधे न्योतता
जड़ तमाचे पर तमाचे / अमन के मुँह पर
पढ़ कसीदे पर कसीदे / दमन के मुँह पर
गर्व से मुस्की दबाये / है प्रगति का देवता
मुहावरेदार भाषा राजा अवस्थी के नवगीतों की जान है। रेवड़ी बेभाव बाँटी / प्रगति को दे दी धता, ढिबरी का तेल चुका / फैला अँधियार, खेतिहर बिजूकों से / भय खाएं राम, मस्तक में बोकर नासूर / टोपी के ये नकली बाल क्या सँवारना?, संविधान के मकड़जाल में / उलझा अक्सर न्याय हमारा, तार पर दे जीवन आघात / बेसुरे सुर दे रहे धता, कुँवारी इच्छाएं ऐसी / खिले ज्यों हरसिंगार के फूल जैसी अभिव्यक्तियाँ कम शब्दों में अधिक अनुभूतियों से पाठक का साक्षात करा देती हैं।
ग्राम्यांचली पृष्ठभूमि राजा अवस्थी को देशज शब्दों के उस ख़ज़ाने से संपन्न करती है जो शहरों के कोंवेंटी कवि के लिए आकाश कुसुम है। बरुआ, ठकुरवा, छप्पर, छुअन, झरोखा, निठुराई, बिजूका, झोपड़, जांगर. कहतें, पांग, बढ़ानी, हिय, पर्भाती, सुग्गे, ढिबरी, किशनवा, कुछबन्दियों, खटती, बहुँटा, अंकुई, दलिद्दर, चरित्तर, पैताने आदि ग्रामीण शब्दों के साथ उर्दू लफ्ज़ खातिर, रैयत, खबर, गुजरे, बैर, ज़ुल्मों, खस्ताहाल, नज़रें, ख्याल, आमद, बदन, यकीन, ज़ेहन, नुस्खे, नासूर, इन्तिज़ार, ज़हर, आफत, एहसान, तकादा, एहसान, चस्पा, लफ़्फ़ाज़ी आदि मिलकर उस गंगो-जमुनी जीवन की बानगी पेश करते हैं जिसमें शुद्ध हिंदी के अनुपूरित, प्रतिकार, अंतर्मन, उल्लास, ग्रसित, व्याल, आतंकित, प्रतिबंधित, मराल, भ्रान्ति, आलिंगन, उत्कंठा, वीथिकाएँ, वर्जनाएं,अंतस, निष्कलुष, बड़वानल, हिमगलित, संभरण आदि पुलाव में मेवे की तरह प्रतीत होते हैं। राजा अवस्थी ने शब्द-युग्मों की शक्ति और उपदेयता को पहचाना और उपयोग किया है। खबर-दबर, जेठ-ससुर, माँ-दद्दा, रात-दिन, हम-तुम, मन-मान, आस-ओस, उठना-गिरना, साँझ-सँझवाती, लड़ी-फड़ी, डगर-मगर, सुख-दुःख, घर-गाँव, सुबह-शाम, दोपहरी-रात, नून-तेल, आस-पास, दूध-भात, मरते-कटते, चोर-लबार, अमन-चैन, चहक-पुलक, सीलन-सन्नाटे, दंभ-छ्ल्, है-मेल, हवा-पानी, प्रीति-गीति-रीति, मोह-ममता-नेह, तन-मन-जेहन आदि शब्द युगन इन नवगीतों की भाषा को जीवंतता देते हैं।
राजा अवस्थी की प्रयोगधर्मी वृत्ति फाइलबाजों, कंठ-लावनी, वर्ण-कंपित, हिटलरी डकार, श्रध्दाशा, ममता की अलगनी, सुधियों की डोर, काँटों की गलियाँ, मुस्कानों के झोंके, शब्दों का संत्रास, पीड़ाओं के शिलाखंड जैसे शब्दावलियों से पाठक को बाँध पाये हैं। शब्द-सामर्थ्य, भाषा-शैली, नव बिम्ब, नए प्रतीक, मौलिक कथ्य की कसौटी पर ये गीत खरे उतरते हैं। इन नवगीतों में मात्रिक छंदों का प्रयोग किया गया है। दो से लेकर चार पंक्तियों तक के मुखड़े तथा आठ पंक्तियों तक के अंतरे प्रयुक्त हुए हैं। नवगीतों में अंतरों की संख्या दो या तीन है।
हिंदी के समर्थ समीक्षक डॉ. विजय बहादुर सिंह ने इन गीतों में 'समकालीन जीवन व् उसके यथार्थ के प्रति अत्यधिक सजगता एवं संवेदनशीलता, स्थानीयता के रंगों से कुछ अधिक रंगीनियत' ठीक ही लक्षित की है। इस कृति के प्रकाशन के एक दशक बाद राजा अवस्थी की कलम अधिक पैनी हुई है, उनके नवगीतों के नये संकलन की प्रतीक्षा स्वाभाविक है।
२३-३-२०१६
***
छंद सलिला:
कज्जल छंद
*
लक्षण: सममात्रिक छंद, जाति मानव, प्रति चरण मात्रा १४ मात्रा, चरणांत लघु-गुरु
लक्षण छंद:
कज्जल कोर निहार मौन,
चौदह रत्न न चाह कौन?
गुरु-लघु अंत रखें समान,
रचिए छंद सरस सुजान
उदाहरण:
१. देव! निहार मेरी ओर,
रखें कर में जीवन-डोर
शांत रहे मन भूल शोर,
नयी आस दे नित्य भोर
२. कोई नहीं तुमसा ईश
तुम्हीं नदीश, तुम्ही गिरीश।
अगनि गगन तुम्हीं पृथीश
मनुज हो सके प्रभु मनीष।
३. करेंगे हिंदी में काम
तभी हो भारत का नाम
तजिए मत लें धैर्य थाम
समय ठीक या रहे वाम
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, ककुभ, कज्जल, कीर्ति, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दोधक, नित, निधि, प्रदोष, प्रेमा, बाला, भव, मधुभार, मनहरण घनाक्षरी, मानव, माली, माया, माला, ऋद्धि, राजीव, रामा, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शिव, शुभगति, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हंसी)
२३-३-२०१४
***
विज्ञापन या ठगी ??????
1) घोटालों से परेशान ना हों, Tata की चाय पीयें, इससे देश बदल
जाएगा|
2) पानी की जगह Coca Cola और Pepsi पीयें और प्यास बुझायें|
3) Lifebuoy और Dettol 99.9% कीटाणु मारते है पर 0.1 %
पुनः प्रजनन के लिए छोड़ ही देते हैं|
4) महिलाओं को बचाने और बटन खुले होने
की चेतावनी देने का ठेका केवल Akshay Kumar ने लिया है|
5) अगर आप Sprite पीते हैं तो लड़की पटाना आपके बाये हाँथ
का खेल है|
6) Salman Khan के अनुसार
महीने भर का Wheel Detergent ले आओ
और कई किलो सोने के मालिक बन जाओ.
आपको नौकरी करने की कोई जरुरत नहीं|
7) Saif Ali Khan और Kreena Kapoor ने शादी एक दुसरे के सर
का Dandruff देख कर की है|
8)यदि किसी के Toothpaste में नमक है तो; यह पूछने के लिए आप
किसी के भी घर का बाथरूम तोड़ सकते हैं|
9) Samsung Galaxy S3 फोन के
अलावा बाकी सभी फोन बंदरों के लिए बने हैं| केवल यही फ़ोन
इंसानों के लिए है!
10) Mountain Dew पीकर पहाड़ से कूद जाइये, कुछ नहीं होगा|
11) Cadbury Dairy Milk Silk Chocolate खाएं कम और मुंह
पर ज्यादा लगायें|
12) Happident चबाइए और बिजली का कनेक्शन कटवा लीजिये|
13) आपके insurance Agents को अपने पापा से
ज्यादा आपकी फ़िक्र रहती हैं|
14) फलमंडी से ज्यादा फल आपके Shampoo में होते हैं|
15) अपने घर का Toilet सदा साफ़ रखें अन्यथा एक Handsome
सा लड़का Harpic और Camera लेकर आपकेToilet की सफाई
का Live Broadcast
करने लगेगा|
16) अगर आपने घर में Asian Paints किया है तो आप दुनिया के
सबसे Intelligent इन्सान हैं|
17) अगर आपने Lux Cozy Big Shot
नहीं पहनी तो आपको मर्द कहलाने काकोई हक़ नहीं|
18) अगर तुम्हारा बेटा Bournvita
नहीं पीता तो वो मंदबुद्धि हो जायेगा|
***
होली की कुण्डलियाँ:
मनायें जमकर होली
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
होली अनहोली न हो, रखिए इसका ध्यान.
मही पाल बन जायेंगे, खायें भंग का पान..
खायें भंग का पान, मान का पान न छोड़ें.
छान पियें ठंडाई, गत रिकोर्ड को तोड़ें..
कहे 'सलिल' कविराय, टेंट में खोंसे गोली.
भोली से लग गले, मनायें जमकर होली..
*
होली ने खोली सभी, नेताओं की पोल.
जिसका जैसा ढोल है, वैसी उसकी पोल..
वैसी उसकी पोल, तोलकर करता बातें.
लेकिन भीतर ही भीतर करता हैं घातें..
नकली कुश्ती देख भ्रनित है जनता भोली.
एक साथ मिल भत्ते बढ़वा करते होली..
*
होली में फीका पड़ा, सेवा का हर रंग.
माया को भाई सदा, सत्ता खातिर जंग..
सत्ता खातिर जंग, सोनिया को भी भाया.
जया, उमा, ममता, स्मृति का भारी पाया..
मर्दों पर भारी है, महिलाओं की टोली.
पुरुष सम्हालें चूल्हा-चक्की अबकी होली..
***
फागुन के मुक्तक
*
बसा है आपके ही दिल में प्रिय कब से हमारा दिल.
बनाया उसको माशूका जो बिल देने के है काबिल..
चढ़ायी भाँग करके स्वांग उससे गले मिल लेंगे-
रहे अब तक न लेकिन अब रहेंगे हम तनिक गाफिल..
*
दिया होता नहीं तो दिया दिल का ही जला लेते.
अगर सजती नहीं सजनी न उससे दिल मिला लेते..
वज़न उसका अधिक या मेक-अप का कौन बतलाये?
करा खुद पैक-अप हम क्यों न उसको बिल दिला लेते..
*
फागुन में गुन भुलाइए बेगुन हुजूर हों.
किशमिश न बनिए आप अब सूखा खजूर हों..
माशूक को रंग दीजिए रंग से, गुलाल से-
भागिए मत रंग छुड़ाने खुद मजूर हों..
२३-३-२०१३
*
पर्वत शिखरों पर बसी, धूप-छाँव सँग शाम.
वृक्षों पर कलरव करें, नभचर आ आराम..
गीत
*
वक़्त ने दिल को दिए हैं
घाव कितने?...
*
हम समझ ही नहीं पाए
कौन क्या है?
और तुमने यह न समझा
मौन क्या है?
साथ रहकर भी रहे क्यों
दूर हरदम?
कौन जाने हैं अजाने
भाव कितने?
वक़्त ने दिल को दिए हैं
घाव कितने?...
*
चाहकर भी तुम न हमको
चाह पाए.
दाहकर भी हम न तुमको
दाह पाए.
बाँह में थी बाँह लेकिन
राह भूले-
छिपे तन-मन में रहे
अलगाव कितने?
वक़्त ने दिल को दिए हैं
घाव कितने?...
*
अ-सुर-बेसुर से नहीं,
किंचित शिकायत.
स-सुर सुर की भुलाई है
क्यों रवायत?
नफासत से जहालत क्यों
जीतती है?
बगावत क्यों सह रही
अभाव इतने?
वक़्त ने दिल को दिए हैं
घाव कितने?...
*
खड़े हैं विषधर, चुनें तो
क्यों चुनें हम?
नींद गायब तो सपन
कैसे बुनें हम?
बेबसी में शीश निज अपना
धुनें हम-
भाव नभ पर, धरा पर
बेभाव कितने?
वक़्त ने दिल को दिए हैं
घाव कितने?...
*
साँझ सूरज-चंद्रमा सँग
खेलती है.
उषा रुसवाई, न कुछ कह
झेलती है.
हजारों तारे निशा के
दिवाने है-
'सलिल' निर्मल पर पड़े
प्रभाव कितने?
वक़्त ने दिल को दिए हैं
घाव कितने?...
***
नवगीत
विडंबना
*
कोई न चाहे
पुत्र बने निज
भगत गुरु सुखदेव.
नेता जी से पूछो भाई .
व्यापारी से पूछो भाई .
अधिकारी से पूछो भाई .
न्यायमूर्ति से पूछो भाई
वकील साब से पूछो भाई
सब चाहें केवल यश गाना.
भाषण देना चित्र छपाना.
कोई न चाहे
पुत्र बने निज
भगत गुरु सुखदेव.
*
कोई न चाहे
पत्नि-सुता हो
रानी लक्ष्मी बाई.
नेता जी से पूछो भाई .
व्यापारी से पूछो भाई .
अधिकारी से पूछो भाई .
न्यायमूर्ति से पूछो भाई
वकील साब से पूछो भाई
सब चाहें केवल यश गाना.
भाषण देना चित्र छपाना.
कोई न चाहे
पत्नि-सुता हो
रानी लक्ष्मी बाई.
*
मेरे घर में
रहे लक्ष्मी
तेरे घर में काली.
तू ले ले वनवास विरासत
सत्ता मैंने पा ली.
वादे किये न पूरे लेकिन
मुझसे तू मत पूछ.
मुँह मत खोल भले ही मैंने
दी जी भर कर गाली.
चार साल की पूछ न बातें
सत्तर की बतला दे.
अपना वोट मुझे दे दे
जुमलेबाजी बिसरा दे.
२३-३-२०१०
***

शनिवार, 29 मार्च 2025

मार्च २९, पियानो, रामकिंकर, रंगमंच, होली, संस्कार छंद, रस, रात्रि सूक्त, चिंतन, फागुन

सलिल सृजन मार्च २९
पियानो दिवस
*
चिंतन 
- मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया
हर फ़िक्र को धुएँ में उड़ाता चला गया
- 'धुएँ' की जगह 'हवा' कर लें तो यह सूत्र बहुत काम का है।
- मन 'सामान सौ बरस का है, कल की खबर नहीं' का सच स्वीकार ले तो गरीबी में भी अभाव नहीं होगा। 
- मनुष्य की सब समस्याओं का कारण संचय-वृत्ति है।
- पूत सपूत तो क्यों धन संचय?                       पूत कपूत तो क्यों धन संचय?
-  सपूत खुद कमा लेगा, कपूत सब मिटा देगा।
- यह सच सब जानते हैं पर मानते नहीं, मान लें तो सब समस्याएँ खत्म हो जाएँ।
- 'न कोई रहा है, न कोई रहेगा' यह सनातन सच भी सबको मालूम है पर हर बशर खुद को अजर-अमर कर देना चाहता है। 
- स्मारक, मूर्तियाँ, नामकरण, नाम परिवर्तन आदि की निरर्थक जद्दोजहद सरकारों की नीति बन जाए तो देश दिशाहीनता की ओर तेजी से बढ़ने लगता है।
- नागरिक जागें, जानें और मानें तो सबका कल्याण संभव है।
स्मरण युग तुलसी
कहमुकरी
स्वार्थ बिना नित सेवा करता,
प्रभु का ध्यान हमेशा धरता।
हँसे इष्ट का कष्ट सभी हर,
क्या हरि-चाकर? नहिं सखि किंकर।
रामचन्द्र का बहुत दुलारा,
राम नाम प्राणाधिक प्यारा।
मानस मीमांसक अजरामर,
क्या सखि शंकर?, नहिं री! किंकर।
शब्द शब्द को अर्थ नए दे,
भक्ति नर्मदा, भजन नाव खे।
भवसागर से पार कराता,
सखी! विधाता?, किंकर त्राता।
•••
सॉनेट
रंगमंच
रंगमंच धरती जीवन एकांकी,
निर्देशक यवनिका उठा छिप जाता,
श्वास-आस संवाद न हो एकाकी,
मनचाहा घट हास अधर पर लाता।
मन उन्मन हो तो न ठीक हो अभिनय,
पोशाकें ऋतु चक्र बदलता रहता,
पीड़ा पल में पात्र करें प्रभु अनुनय,
आनंदित हो कर घमंड दुख गहता।
मिलन-विरह, सुख-दुख पल आते-जाते,
सुमन झरें बिखराकर सुरभि जगत में,
कामदेव-रति मन में मोह जगाते,
सपने आगत, यादें फिरें विगत में।
रंचमात्र भी झोल न आने देना,
रंगमंच पर नाव सँभलकर खेना।
२९•३•२०२४
•••
मुक्तक
पग के छाले बोल रहे हैं, शूल भरे पथ का स्वागत है।
तबियत हरी हुई मरुथल में, देख थपेड़े -लू आगत है।।
किरचों चुभो हृदय में मेरे, तुम्हें कसम है रहम न करना।
करी दर्द से कुड़माई खुद, पीर न पीर हमें हँस वरना।।
(छंद - लाक्षणिक जातीय संस्कार छंद, बत्तीस मात्रिक सवैया, यति १६-१६, पदांत सगण )
•••
कार्यशाला : कुण्डलिया
*
अन्तर्मन से आ रही आज एक आवाज़।
सक्षम मानव आज का बने ग़रीबनिवाज़।। -रामदेव लाल 'विभोर'
बने गरीबनिवाज़, गैर के पोंछे आँसू।
खाए रोटी बाँट, बने हर निर्बल धाँसू।।
कोरोना से भीत, अकेला डरे न पुरजन।
धन बिन भूखा रहे, न कोई जग अंतर्मन।। - संजीव वर्मा 'सलिल'
***
मुक्तिका
होली मने
*
भावना बच पाए तो होली मने
भाव ना बढ़ पाएँ तो होली मने
*
काम ना मिल सके तो त्यौहार क्या
कामना हो पूर्ण तो होली मने
*
साधना की सिद्धि ही होली सखे!
साध ना पाए तो क्या होली मने?
*
वासना से दूर हो होली सदा
वास ना हो दूर तो होली मने
*
झाड़ ना काटो-जलाओ अब कभी
झाड़ना विद्वेष तो होली मने
*
लालना बृज का मिले तो मन खिले
लाल ना भटके तभी होली मने
*
साज ना छोड़े बजाना मन कभी
साजना हो साथ तो होली मने
२९.३.२०२१
***
।। अथ वेदोक्त रात्रि सूक्तं ।।
।। वेदोक्त रात्रि सूक्त।।
*
ॐ रात्री व्यख्यदायती पुरुत्रा देव्यक्षभि:। विश्र्वा अधिश्रियोधित ।१।
। ॐ रात्रि! विश्रांतिदायिनी जगत आश्रित। सब कर्मों को देखें, फल दें।१।
*
ओर्वप्रा अमर्त्या निवतो देव्युद्वत:। ज्योतिषा बाधते तम:।२।
।। देवी अमरा व्याप विश्व में, नष्ट करें अज्ञान तिमिर को ज्ञान ज्योति से ।२।
*
निरु स्वसारमस्कृतोषसं देव्येति। अपेदु हासते तम: ।३।
। पराशक्ति रूपा रजनी प्रगटा दें ऊषा, नष्ट अविद्या तिमिर स्वत्: हो। ३।
*
सा नो अद्य यस्या वयं नि ते यामन्नाविक्ष्महि। वृक्षे न वसतिं वय:।४।
।रात्रि देवी पधारें हों मुदित , सो सकें हम खग सदृश निज घोंसले में।४।
*
नि ग्रामासो अविक्षत नि पद्वन्तो नि पक्षिण:। नि श्येना सश्चिदर्थिन:।५।
। सोते सुख से ग्राम्य जन, पशु, जीव-जंतु,खग, रात्रि अंक में।५।
*
यावया वृक्यं वृकं यवय स्तेनमूर्म्ये। अथा न: सुतरा भव। ६।
।रात्रि देवी! पाप वृक वासना वृकी को, दूर कर सुखदायिनी हो।६।
*
उप मा पेपिशत्तम: कृष्णं व्यक्तमस्थित। उष ऋणेव् यातय। ७।
।घेरे अज्ञान तिमिर ज्ञान दे कर दूर, उषा! उऋण करतीं मुझे दे धन। ७।
*
उप ते गा इवाकरं वृणीष्व दुहितर्दिव:। रात्रि स्तोमं न जिग्युषे। ८।
। पयप्रदा गौ सदृश रजनी!, व्योमकन्या!! हविष्य ले लो।३।
२९.३.२०२०
***
चिंतन
विश्वास या विष-वास?
*
= 'विश्वासं फलदायकम्' भारतीय चिंतन धारा का मूलमंत्र है।
= 'श्रद्धावान लभते ग्यानम्' व्यवहार जगत में विश्वास की महत्ता प्रतिपादित करता है।
बिना विश्वास के श्रद्धा हो ही नहीं सकती। शंकाओं का कसौटियों पर अनगिनत बार लगातार विश्वास खरा उतरे, तब श्रद्धा उपजती है।
= श्रद्धा अंध-श्रद्धा बनकर त्याज्य हो जाती है।
= स्वार्थ पर आधारित श्रद्धा, श्रद्धा नहीं दिखावा मात्र होती है।
= तुलसी 'भवानी शंकर वंदे, श्रद्धा विश्वास रूपिणौ' कहकर श्रद्धा और विश्वास के अंतर्संबंध को स्पष्ट कर देते हैं।
शिशु के लिए जन्मदात्री माँ से अधिक विश्वसनीय और कौन है सकता है? भवानी को श्रद्धा कहकर तुलसी ा कहे ही कह देते हैं कि वे सकल सृष्टिकर्त्री आदि प्रकृति महामाया हैं।
तुलसी शंकर को विश्वास बताते हैं। शंकर हैं शंकारि, शंकाओं के शत्रु। शंका का उन्मूलन करनेवाला ही तो विश्वास का भाजन होगा।
= यहाँ एक और महत्वपूर्ण सूत्र है जिसे जानना जरूरी है। अरि अर्थात शत्रु, शत्रुता नकारात्मक ऊर्जा है। संदेह हो सकता है कि क्या नकारात्मकता भी साध्य, वरेण्य हो सकती है? उत्तर हाँ है। यदि नकारात्मकता न हो तो सकारात्मकता को पहचानोगे कैसे? खट्टा, नमकीन, चरपरा, तीखा न हो मीठा भी आनंदहीन हो जाएगा।
सृष्टि की सृष्टि ही अँधेरे के गर्भ से होती है। निशा का निबिड़ अंधकार ही उषा के उजास को जन्म देता है। अमावस का घनेरा अँधेरा न हो तो दिये जलाकर उजाला का पर्व मनाने का आनंद ही न रहेगा।
= शत्रुता या नकारात्मकता आवश्यक तो है पर वह विनाशकारी है, विध्वंसक है, उसे सुप्त रहना चाहिए। वह तभी जागृत हो, तभी सक्रिय हो जब विश्वास और श्रद्धा की स्थापना अपरिहार्य हो। जीर्णोध्दार करने के लिए जीर्ण को मिटाना जरूरी है।
= भव अर्थात संसार, भव को अस्तित्व में लाने वाली भवानी, शून्य से- सर्वस्व का सृजन करनेवाली भवानी सकारात्मक ऊर्जा हैं। वे श्रद्धा हैं।
= विश्वास के बिना श्रद्धा अजन्मा और श्रद्धा के बिना विश्वास निष्क्रिय है। इसीलिए शिव तपस्यारत हैं। शत्रुता विस्मृति के गर्त में रहे तभी कल्याण है किंतु भवानी सक्रिय हैं, सचेष्ट हैं। यही नहीं वे शिव को निष्क्रिय कुलीन भी नहीं रहने देती, तपस्या को भंग करा देती हैं भले ही शिव की रौद्रता काम का विनाश कर दे।
= काम क्या है? काम रति का स्वामी है। रति कौन है? रति है ऊर्जा। काम और रति का दिशा-हीन मिलन वासना, मोह और भोग को प्रधानता देता है। यही काम निष्काम हो तो कल्याणकारी हो जाता है। रति यदि विरति हो तो सृजन ही न होगा, कुरति हो विनाश कर देगी, सुरति है तो सुगतिदात्री होगी।
= काम को मार कर फिर जिलाना शंका उपजाता है। मारा तो जिलाया क्यों? जिलाना था तो मारा क्यों? शंका का समाधान न हो तो विश्वास बिना मारे मर जाएगा।
किसी वास्तुकार से पूछो- जीर्णोध्दार के लिए बनाने से पहले गिराना होता है या नहीं? ऊगनेवाला सूर्य न डूबे तो देगा कैसे? तुम कहो कि ऊगना ही है तो डूबना क्यों या डूबना ही है तो ऊगना क्यों? तो इसका उत्तर यही है कि ऊगना इसलिए कि डूबना है, डूबना इसलिए कि भगवा है। जन्मना इसलिए कि मरना है, मरना इसलिए कि जन्मना है।
= शिव की सुप्त शक्ति पर विश्वास कर उसको जागृत करने-रखने वाली ही शिवा है। शिवारहित शिव शव सदृश्य हैं, मृत नहीं निरानंदी हैं। शिवा रे काम को शांत कर ममता में बदलनेवाले ही शिव हैं। शिवारहित शिवा तामसी नहीं तामसी हैं, उपवासी हैं, अपर्णा हैं। पतझर के बाद अपर्णा प्रकृति सपर्णा न हो तो सृष्टि न होगी इसलिए अपर्णा का लक्ष्य सपर्णा और सपर्णा का लक्ष्य अपर्णा है ।
= विश्वास और श्रद्धा भी शिव और शिवा का तरह अन्योन्याश्रित हैं। शंकाओं के गिरि से- उत्पन्न गिरिजा विश्वास के शंकर का वरण कर गर्भ से जन्मती हैं वरद, दयालु, नन्हें को गणनायक गणेश को जिनसे आ मिलते हैं षडानन और तुलसी करते हैं जय जय-
जय जय गिरिवर राज किसोरी, जय महेश मुख चंद्र चकोरी।
जय गजल-नजम षडानन माता, जगत जननि दामिनी द्युति दाता।।
नहिं तव आदि मध्य अलसाना, अमित प्रभाव वेद नहिं जाना।।
= विश्वास और श्रद्धा के बिना गण और गणतंत्र के गणपति बनने के अभिलाषी तब जान लें कि काम-सिद्धि को साध्य मानने की परिणाम क्षार होने में होता है। पक्ष-विपक्ष शत्रु नहीं पूरक हैं। एक दूसरे के प्रति विश्वास और गण के प्रति श्रद्धा ही उन्हें गणनायक बना सकती है अन्यथा जनशक्ति का शिव उन्हें सत्ता सौंप सकता है तो जनाक्रोश का रुद्र उन्हें मिट्टी में भी मिला सकता है।
= विश्वास और श्रद्धा का वरण कर जनता जनार्दन नोटा के तीसरे नेत्र का उपयोग कर सत्ता प्राप्ति के काम के प्रति रति रखनेवाले आपराधिक प्रवृत्तिवाले प्रत्याशियों और उन्हें मैदान में उतारनेवाले दलों को क्षार कर, जनसेवा के प्रति समर्पित जनप्रतिनिधियों को नवजीवन देने से पीछे नहीं हटेगी।
२९.३.२०१९
***
श्री दुर्गा सप्तशती : पाठ- पूजन विधि
भुवनेश्वरी संहिता में कहा गया है- जिस प्रकार से ''वेद'' अनादि है, उसी प्रकार ''सप्तशती'' भी अनादि है। श्री व्यास जी द्वारा रचित महापुराणों में ''मार्कण्डेय पुराण'' के माध्यम से मानव मात्र के कल्याण के लिए इसकी रचना की गई है। जिस प्रकार योग का सर्वोत्तम ग्रंथ गीता है उसी प्रकार ''दुर्गा सप्तशती'' शक्ति उपासना का श्रेष्ठ ग्रंथ है | 'दुर्गा सप्तशती'के सात सौ श्लोकों को तीन भागों प्रथम चरित्र (महाकाली), मध्यम चरित्र (महालक्ष्मी) तथा उत्तम चरित्र (महा सरस्वती) में विभाजित किया गया है। प्रत्येक चरित्र में सात-सात देवियों का स्तोत्र में उल्लेख मिलता है प्रथम चरित्र में काली, तारा, छिन्नमस्ता, सुमुखी, भुवनेश्वरी, बाला, कुब्जा, द्वितीय चरित्र में लक्ष्मी, ललिता, काली, दुर्गा, गायत्री, अरुन्धती, सरस्वती तथा तृतीय चरित्र में ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, नारसिंही तथा चामुंडा (शिवा) इस प्रकार कुल २१ देवियों के महात्म्य व प्रयोग इन तीन चरित्रों में दिए गये हैं। नन्दा, शाकम्भरी, भीमा ये तीन सप्तशती पाठ की महाशक्तियां तथा दुर्गा, रक्तदन्तिका व भ्रामरी को सप्तशती स्तोत्र का बीज कहा गया है। तंत्र में शक्ति के तीन रूप प्रतिमा, यंत्र तथा बीजाक्षर माने गए हैं। शक्ति की साधना हेतु इन तीनों रूपों का पद्धति अनुसार समन्वय आवश्यक माना जाता है। सप्तशती के सात सौ श्लोकों को तेरह अध्यायों में बांटा गया है प्रथम चरित्र में केवल पहला अध्याय, मध्यम चरित्र में दूसरा, तीसरा व चौथा अध्याय तथा शेष सभी अध्याय उत्तम चरित्र में रखे गये हैं। प्रथम चरित्र में महाकाली का बीजाक्षर रूप ऊँ 'एं है। मध्यम चरित्र (महालक्ष्मी) का बीजाक्षर रूप 'हृी' तथा तीसरे उत्तम चरित्र महासरस्वती का बीजाक्षर रूप 'क्लीं' है। अन्य तांत्रिक साधनाओं में 'ऐं' मंत्र सरस्वती का, 'हृीं' महालक्ष्मी का तथा 'क्लीं' महाकाली बीज है। तीनों बीजाक्षर ऐं ह्रीं क्लीं किसी भी तंत्र साधना हेतु आवश्यक तथा आधार माने गये हैं। तंत्र मुखयतः वेदों से लिया गया है ऋग्वेद से शाक्त तंत्र, यजुर्वेद से शैव तंत्र तथा सामवेद से वैष्णव तंत्र का अविर्भाव हुआ है यह तीनों वेद तीनों महाशक्तियों के स्वरूप हैं तथा यह तीनों तंत्र देवियों के तीनों स्वरूप की अभिव्यक्ति हैं।
'दुर्गा सप्तशती' के सात सौ श्लोकों का प्रयोग विवरण इस प्रकार से है।
प्रयोगाणां तु नवति मारणे मोहनेऽत्र तु।
उच्चाटे सतम्भने वापि प्रयोगाणां शतद्वयम्॥
मध्यमेऽश चरित्रे स्यातृतीयेऽथ चरित्र के।
विद्धेषवश्ययोश्चात्र प्रयोगरिकृते मताः॥
एवं सप्तशत चात्र प्रयोगाः संप्त- कीर्तिताः॥
तत्मात्सप्तशतीत्मेव प्रोकं व्यासेन धीमता॥
अर्थात इस सप्तशती में मारण के नब्बे, मोहन के नब्बे, उच्चाटन के दो सौ, स्तंभन के दो सौ तथा वशीकरण और विद्वेषण के साठ प्रयोग दिए गये हैं। इस प्रकार यह कुल ७०० श्लोक ७०० प्रयोगों के समान माने गये हैं।
दुर्गा सप्तशती पाठ विधि-
नवार्ण मंत्र जप और सप्तशती न्यास के बाद तेरह अध्यायों का क्रमशः पाठ, प्राचीन काल में कीलक, कवच और अर्गला का पाठ भी सप्तशती के मूल मंत्रों के साथ ही किया जाता रहा है। आज इसमें अथर्वशीर्ष, कुंजिका मंत्र, वेदोक्त रात्रि देवी सूक्त आदि का पाठ भी समाहित है जिससे साधक एक घंटे में देवी पाठ करते हैं।
दुर्गा सप्तशती वाकार विधि :
यह विधि अत्यंत सरल मानी गयी है। इस विधि में प्रथम दिन एक पाठ प्रथम अध्याय, दूसरे दिन दो पाठ द्वितीय, तृतीय अध्याय, तीसरे दिन एक पाठ चतुर्थ अध्याय, चौथे दिन चार पाठ पंचम, षष्ठ, सप्तम व अष्टम अध्याय, पांचवें दिन दो अध्यायों का पाठ नवम, दशम अध्याय, छठे दिन ग्यारहवां अध्याय, सातवें दिन दो पाठ द्वादश एवं त्रयोदश अध्याय करके एक आवृति सप्तशती की होती है।
दुर्गा सप्तशती संपुट पाठ विधि :
किसी विशेष प्रयोजन हेतु विशेष मंत्र से एक बार ऊपर तथा एक नीचे बांधना उदाहरण हेतु संपुट मंत्र मूलमंत्र-१, संपुट मंत्र फिर मूलमंत्र अंत में पुनः संपुट मंत्र आदि इस विधि में समय अधिक लगता है।
दुर्गा सप्तशती सार्ध नवचण्डी विधि :
इस विधि में नौ ब्राह्मण साधारण विधि द्वारा पाठ करते हैं। एक ब्राह्मण सप्तशती का आधा पाठ करता है। (जिसका अर्थ है- एक से चार अध्याय का संपूर्ण पाठ, पांचवे अध्याय में ''देवा उचुः- नमो देव्ये महादेव्यै'' से आरंभ कर ऋषिरुवाच तक, एकादश अध्याय का नारायण स्तुति, बारहवां तथा तेरहवां अध्याय संपूर्ण) इस आधे पाठ को करने से ही संपूर्ण कार्य की पूर्णता मानी जाती है। एक अन्य ब्राह्मण द्वारा षडंग रुद्राष्टाध्यायी का पाठ किया जाता है। इस प्रकार कुल ग्यारह ब्राह्मणों द्वारा नवचण्डी विधि द्वारा सप्तशती का पाठ होता है। पाठ पश्चात् उत्तरांग करके अग्नि स्थापना कर पूर्णाहुति देते हुए हवन किया जाता है जिसमें नवग्रह समिधाओं से ग्रहयोग, सप्तशती के पूर्ण मंत्र, श्री सूक्त वाहन तथा शिवमंत्र 'सद्सूक्त का प्रयोग होता है जिसके बाद ब्राह्मण भोजन,' कुमारी का भोजन आदि किया जाता है। वाराही तंत्र में कहा गया है कि जो ''सार्धनवचण्डी'' प्रयोग को संपन्न करता है वह प्राणमुक्त होने तक भयमुक्त रहता है, राज्य, श्री व संपत्ति प्राप्त करता है।
दुर्गा सप्तशती शतचण्डी विधि :
मां की प्रसन्नता हेतु किसी भी दुर्गा मंदिर के समीप सुंदर मण्डप व हवन कुंड स्थापित करके (पश्चिम या मध्य भाग में) दस उत्तम ब्राह्मणों (योग्य) को बुलाकर उन सभी के द्वारा पृथक-पृथक मार्कण्डेय पुराणोक्त श्री दुर्गा सप्तशती का दस बार पाठ करवाएं। इसके अलावा प्रत्येक ब्राह्मण से एक-एक हजार नवार्ण मंत्र भी करवाने चाहिए। शक्ति संप्रदाय वाले शतचण्डी (१०८) पाठ विधि हेतु अष्टमी, नवमी, चतुर्दशी तथा पूर्णिमा का दिन शुभ मानते हैं। इस अनुष्ठान विधि में नौ कुमारियों का पूजन करना चाहिए जो दो से दस वर्ष तक की होनी चाहिए तथा इन कन्याओं को क्रमशः कुमारी, त्रिमूर्ति, कल्याणी, रोहिणी, कालिका, शाम्भवी, दुर्गा, चंडिका तथा मुद्रा नाम मंत्रों से पूजना चाहिए। इस कन्या पूजन में संपूर्ण मनोरथ सिद्धि हेतु ब्राह्मण कन्या, यश हेतु क्षत्रिय कन्या, धन के लिए वेश्य तथा पुत्र प्राप्ति हेतु शूद्र कन्या का पूजन करें। इन सभी कन्याओं का आवाहन प्रत्येक देवी का नाम लेकर यथा ''मैं मंत्राक्षरमयी लक्ष्मीरुपिणी, मातृरुपधारिणी तथा साक्षात् नव दुर्गा स्वरूपिणी कन्याओं का आवाहन करता हूं तथा प्रत्येक देवी को नमस्कार करता हूं।'' इस प्रकार से प्रार्थना करनी चाहिए। वेदी पर सर्वतोभद्र मण्डल बनाकर कलश स्थापना कर पूजन करें। शतचण्डी विधि अनुष्ठान में यंत्रस्थ कलश, श्री गणेश, नवग्रह, मातृका, वास्तु, सप्तऋषी, सप्तचिरंजीव, 64 योगिनी ५० क्षेत्रपाल तथा अन्याय देवताओं का वैदिक पूजन होता है। जिसके पश्चात् चार दिनों तक पूजा सहित पाठ करना चाहिए। पांचवें दिन हवन होता है।
इन सब विधियों (अनुष्ठानों) के अतिरिक्त प्रतिलोम विधि, कृष्ण विधि, चतुर्दशीविधि, अष्टमी विधि, सहस्त्रचण्डी विधि (१००८) पाठ, ददाति विधि, प्रतिगृहणाति विधि आदि अत्यंत गोपनीय विधियां भी हैं जिनसे साधक इच्छित वस्तुओं की प्राप्ति कर सकता है।
दुर्गा सप्तशती/ श्री दुर्गासप्तशती महायज्ञ / अनुष्ठान विधि
भगवती मां दुर्गाजी की प्रसन्नता के लिए जो अनुष्ठान किये जाते हैं उनमें दुर्गा सप्तशती का अनुष्ठान विशेष कल्याणकारी माना गया है। इस अनुष्ठान को ही शक्ति साधना भी कहा जाता है। शक्ति मानव के दैनन्दिन व्यावहारिक जीवन की आपदाओं का निवारण कर ज्ञान, बल, क्रिया शक्ति आदि प्रदान कर उसकी धर्म-अर्थ काममूलक इच्छाओं को पूर्ण करती है एवं अंत में आलौकिक परमानंद का अधिकारी बनाकर उसे मोक्ष प्रदान करती है। दुर्गा सप्तशती एक तांत्रिक पुस्तक होने का गौरव भी प्राप्त करती है। भगवती शक्ति एक होकर भी लोक कल्याण के लिए अनेक रूपों को धारण करती है। श्वेतांबर उपनिषद के अनुसार यही आद्या शक्ति त्रिशक्ति अर्थात महाकाली, महालक्ष्मी एवं महासरस्वती के रूप में प्रकट होती है। इस प्रकार पराशक्ति त्रिशक्ति, नवदुर्गा, दश महाविद्या और ऐसे ही अनंत नामों से परम पूज्य है। श्री दुर्गा सप्तशती नारायणावतार श्री व्यासजी द्वारा रचित महा पुराणों में मार्कण्डेयपुराण से ली गयी है। इसम सात सौ पद्यों का समावेश होने के कारण इसे सप्तशती का नाम दिया गया है। तंत्र शास्त्रों में इसका सर्वाधिक महत्व प्रतिपादित है और तांत्रिक प्रक्रियाओं का इसके पाठ में बहुधा उपयोग होता आया है। पूरे दुर्गा सप्तशती में ३६० शक्तियों का वर्णन है। इस पुस्तक में तेरह अध्याय हैं। शास्त्रों के अनुसार शक्ति पूजन के साथ भैरव पूजन भी अनिवार्य माना गया है। अतः अष्टोत्तरशतनाम रूप बटुक भैरव की नामावली का पाठ भी दुर्गासप्तशती के अंगों में जोड़ दिया जाता है। इसका प्रयोग तीन प्रकार से होता है।
[ १.] नवार्ण मंत्र के जप से पहले भैरवो भूतनाथश्च से प्रभविष्णुरितीवरितक या नमोऽत्त नामबली या भैरवजी के मूल मंत्र का १०८ बार जप।
[ २.] प्रत्येक चरित्र के आद्यान्त में पाठ।
[ ३.] प्रत्येक उवाचमंत्र के आस-पास संपुट देकर पाठ। नैवेद्य का प्रयोग अपनी कामनापूर्ति हेतु दैनिक पूजा में नित्य किया जा सकता है। यदि मां दुर्गाजी की प्रतिमा कांसे की हो तो विशेष फलदायिनी होती है।
दुर्गा सप्तशती का अनुष्ठान कैसे करें।
१. कलश स्थापना, २ . गौरी गणेश पूजन, ३. नवग्रह पूजन, ४. षोडश मातृकाओं का पूजन, ५. कुल देवी का पूजन, ६. माँ दुर्गा जी का पूजन निम्न प्रकार से करें-
आवाहन : आवाहनार्थे पुष्पांजली सर्मपयामि।
आसन : आसनार्थे पुष्पाणि समर्पयामि।
पाद : पाद्यर्यो : पाद्य समर्पयामि।
अर्घ्य : हस्तयो : अर्घ्य स्नानः ।
आचमन : आचमन समर्पयामि।
स्नान : स्नानादि जलं समर्पयामि।
स्नानांग : आचमन : स्नानन्ते पुनराचमनीयं जलं समर्पयामि।
दुधि स्नान : दुग्ध स्नान समर्पयामि।
दहि स्नान : दधि स्नानं समर्पयामि।
घृत स्नान : घृतस्नानं समर्पयामि।
शहद स्नान : मधु स्नानं सर्मपयामि।
शर्करा स्नान : शर्करा स्नानं समर्पयामि।
पंचामृत स्नान : पंचामृत स्नानं समर्पयामि।
गन्धोदक स्नान : गन्धोदक स्नानं समर्पयामि
शुद्धोदक स्नान : शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि
वस्त्र : वस्त्रं समर्पयामि
***
चित्र अलंकार पताका काव्य
*
हूँ
भीरु,
डरता
हूँ पाप से. .
न हो सकता
भारत का नेता
डरता हूँ आप से.
*
है
कौन
जो रोके,
मेरा मन
मुझको टोंके,
गलती सुधार.
भयभीत मत हो.
*
जो
करे
फायर
दनादन
बेबस पर.
बहादुर नहीं
आतंकी है कायर.
*
हूँ
नहीं
सुरेश,
न नरेश,
आम आदमी.
थोडा डरपोंक
कुछ बहादुर भी.
*
मैं
देखूँ
सपने.
असाहसी
कतई नहीं.
बनाता उनको
हकीकत हमेशा.
***
दोहा सलिला:
*
मले उषा के गाल पर, सूरज छेड़ गुलाल
बादल पिचकारी लिए, फगुआ हुआ कमाल.
*
नीता कहती नैन से, कहे सुनीता-सैन.
विनत विनीता चुप नहीं, बोले मीठे बैन.
*
दोहा ने मोहा दिखा, भाव-भंगिमा खूब.
गति-यति-लय को रिझा कर, गया रास में डूब.
*
रोगी सिय द्वारे खड़ा, है लंकेश बुखार.
भिक्षा सुई-दवाई पा, झट से हुआ फरार.
*
शैया पर ही हो रहे, सारे तीरथ-धाम.
नर्स उमा शिव डॉक्टर, दर्द हरें निष्काम
*
बीमा? री! क्यों कराऊँ?, बीमारी है दूर.
झट बीमारी आ कहे:, 'नैनोंवाले सूर.'
*
लाली पकड़े पेट तो, लालू पूछें हाल.
'हैडेक' होता पेट में, सुन हँस सब बेहाल.
*
'फ्रीडमता' 'लेडियों' को, काए न देते लोग?
देख विश्व हैरान है, यह अंगरेजी रोग.
२९.३.२०१८
***
हास्य रचना:
उल्लू उवाच
मुतके दिन मा जब दिखो, हमखों उल्लू एक.
हमने पूछी: "कित हते बिलमे? बोलो नेंक"
बा बोलो: "मुतके इते करते रैत पढ़ाई.
दो रोटी दे नई सके, बो सिच्छा मन भाई.
बिन्सें ज्यादा बड़े हैं उल्लू जो लें क्लास.
इनसें सोई ज्यादा बड़े, धरें परिच्छा खास.
इनसें बड़े निकालते पेपर करते लीक.
औरई बड़े खरीदते कैते धंधा ठीक.
करें परीच्छा कैंसिल बिन्सें बड़े तपाक.
टीवी पे इनसें बड़े, बैठ भौंकते आप.
बिन्सें बड़े करा रए लीक काण्ड की जाँच.
फिर से लेंगे परिच्छा, और बड़े रए बाँच
इतने उल्लुन बीच में अपनी का औकात?
एई काजे लुके रए, जान बचाखें भ्रात.
२९.३.२०१८
***
नवगीत-
दरक न पाऐँ दीवारें
हम में हर एक तीसमारखाॅं
कोई नहीं किसी से कम ।
हम आपस में उलझ-उलझकर
दिखा रहे हैं अपनी दम ।
देख छिपकली डर जाते पर
कहते डरा न सकता यम ।
आॅंख के अंधे देख-न देखें
दरक रही हैं दीवारें ।
*
फूटी आॅंखों नहीं सुहाती
हमें, हमारी ही सूरत ।
मन ही मन में मनमाफि़क
गढ़ लेते हैं सच की मूूरत ।
कुदरत देती दंड, न लेकिन
बदल रही अपनी फितरत ।
पर्वत डोले, सागर गरजे
टूट न जाएॅं दीवारें ।
*
लिये शपथ सब संविधान की
देश देवता है सबका ।
देश हितों से करो न सौदा
तुम्हें वास्ता है रब का ।
सत्ता, नेता, दल, पद झपटो
करो न सौदा जनहित का ।
भार करों का इतना ही हो
दरक न पाएँ दीवारें ।
ग्रेनेडियर्स प्रिंटिंग प्रैस, १५़३०
२१.३.२०१६
***
विशेष आलेख
दोहा दोहा काव्य रस
संजीव
दोहा भास्कर काव्य नभ, दस दिश रश्मि उजास ‌
गागर में सागर भरे, छलके हर्ष हुलास ‌ ‌
रस, भाव, संधि, बिम्ब, प्रतीक, शैली, अलंकार आदि काव्य तत्वों की चर्चा करने का उद्देश्य यह है कि दोहों में इन तत्वों को पहचानने और सराहने के साथ दोहा रचते समय इन तत्वों का यथोचित समावेश कर किया जा सके। ‌
रसः
काव्य को पढ़ने या सुनने से मिलनेवाला आनंद ही रस है। काव्य मानव मन में छिपे भावों को जगाकर रस की अनुभूति कराता है। भरत मुनि के अनुसार "विभावानुभाव संचारी संयोगाद्रसनिष्पत्तिः" अर्थात् विभाव, अनुभाव व संचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। रस के ४ अंग स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव व संचारी भाव हैं-
स्थायी भावः मानव ह्र्दय में हमेशा विद्यमान, छिपाये न जा सकनेवाले, अपरिवर्तनीय भावों को स्थायी भाव कहा जाता है।
रस: १. श्रृंगार, २. हास्य, ३. करुण, ४. रौद्र, ५. वीर, ६. भयानक, ७. वीभत्स, ८. अद्भुत, ९. शांत, १०. वात्सल्य, ११. भक्ति।
क्रमश:स्थायी भाव: १. रति, २. हास, ३. शोक, ४. क्रोध, ५. उत्साह, ६. भय, ७. घृणा, ८. विस्मय, निर्वेद, ९. १०. संतान प्रेम, ११. समर्पण।
विभावः
किसी व्यक्ति के मन में स्थायी भाव उत्पन्न करनेवाले कारण को विभाव कहते हैं। व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति भी विभाव हो सकती है। ‌विभाव के दो प्रकार आलंबन व उद्दीपन हैं। ‌
आलंबन विभाव के सहारे रस निष्पत्ति होती है। इसके दो भेद आश्रय व विषय हैं ‌
आश्रयः
जिस व्यक्ति में स्थायी भाव स्थिर रहता है उसे आश्रय कहते हैं। ‌श्रृंगार रस में नायक नायिका एक दूसरे के आश्रय होंगे।‌
विषयः
जिसके प्रति आश्रय के मन में रति आदि स्थायी भाव उत्पन्न हो, उसे विषय कहते हैं ‌ "क" को "ख" के प्रति प्रेम हो तो "क" आश्रय तथा "ख" विषय होगा।‌
उद्दीपन विभाव:
आलंबन द्वारा उत्पन्न भावों को तीव्र करनेवाले कारण उद्दीपन विभाव कहे जाते हैं। जिसके दो भेद बाह्य वातावरण व बाह्य चेष्टाएँ हैं। वन में सिंह गर्जन सुनकर डरनेवाला व्यक्ति आश्रय, सिंह विषय, निर्जन वन, अँधेरा, गर्जन आदि उद्दीपन विभाव तथा सिंह का मुँह फैलाना आदि विषय की बाह्य चेष्टाएँ हैं ।
अनुभावः
आश्रय की बाह्य चेष्टाओं को अनुभाव या अभिनय कहते हैं। भयभीत व्यक्ति का काँपना, चीखना, भागना आदि अनुभाव हैं। ‌
संचारी भावः
आश्रय के चित्त में क्षणिक रूप से उत्पन्न अथवा नष्ट मनोविकारों या भावों को संचारी भाव कहते हैं। भयग्रस्त व्यक्ति के मन में उत्पन्न शंका, चिंता, मोह, उन्माद आदि संचारी भाव हैं। मुख्य ३३ संचारी भाव निर्वेद, ग्लानि, मद, स्मृति, शंका, आलस्य, चिंता, दैन्य, मोह, चपलता, हर्ष, धृति, त्रास, उग्रता, उन्माद, असूया, श्रम, क्रीड़ा, आवेग, गर्व, विषाद, औत्सुक्य, निद्रा, अपस्मार, स्वप्न, विबोध, अवमर्ष, अवहित्था, मति, व्याथि, मरण, त्रास व वितर्क हैं।
रस
१. श्रृंगार
अ. संयोग श्रृंगार:
तुमने छेड़े प्रेम के, ऐसे राग हुजूर
बजते रहते हैं सदा, तन-मन में संतूर
- अशोक अंजुम, नई सदी के प्रतिनिधि दोहाकार
आ. वियोग श्रृंगार:
हाथ छुटा तो अश्रु से, भीग गये थे गाल ‌
गाड़ी चल दी देर तक, हिला एक रूमाल
- चंद्रसेन "विराट", चुटकी चुटकी चाँदनी
२. हास्यः
आफिस में फाइल चले, कछुए की रफ्तार ‌
बाबू बैठा सर्प सा, बीच कुंडली मार
- राजेश अरोरा"शलभ", हास्य पर टैक्स नहीं
व्यंग्यः
अंकित है हर पृष्ठ पर, बाँच सके तो बाँच ‌
सोलह दूनी आठ है, अब इस युग का साँच
- जय चक्रवर्ती, संदर्भों की आग
३. करुणः
हाय, भूख की बेबसी, हाय, अभागे पेट ‌
बचपन चाकर बन गया, धोता है कप-प्लेट
- डॉ. अनंतराम मिश्र "अनंत", उग आयी फिर दूब
४. रौद्रः
शिखर कारगिल पर मचल, फड़क रहे भुजपाश ‌
जान हथेली पर लिये, अरि को करते लाश
- संजीव
५. वीरः
रणभेरी जब-जब बजे, जगे युद्ध संगीत ‌
कण-कण माटी का लिखे, बलिदानों के गीत
- डॉ. रामसनेहीलाल शर्मा "यायावर", आँसू का अनुवाद
६. भयानकः
उफनाती नदियाँ चलीं, क्रुद्ध खोलकर केश ‌
वर्षा में धारण किया, रणचंडी का वेश
- आचार्य भगवत दुबे, शब्दों के संवाद
७. वीभत्सः
हा, पशुओं की लाश को, नोचें कौए गिद्ध ‌
हा, पीते जन-रक्त फिर, नेता अफसर सिद्ध
- संजीव
८. अद्भुतः
पांडुपुत्र ने उसी क्षण, उस तन में शत बार ‌
पृथक-पृथक संपूर्ण जग, देखे विविध प्रकार
- डॉ. उदयभानु तिवारी "मधुकर", श्री गीता मानस
९. शांतः
जिसको यह जग घर लगे, वह ठहरा नादान ‌
समझे इसे सराय जो, वह है चतुर सुजान
- डॉ. श्यामानंद सरस्वती "रौशन", होते ही अंतर्मुखी
१० . वात्सल्यः
छौने को दिल से लगा, हिरनी चाटे खाल ‌
पान करा पय मनाती, चिरजीवी हो लाल
-संजीव
११. भक्तिः
दूब दबाये शुण्ड में, लंबोदर गजमुण्ड ‌
बुद्धि विनायक हे प्रभो!, हरो विघ्न के झुण्ड
- भानुदत्त त्रिपाठी "मधुरेश", दोहा कुंज
दोहा में हर रस को अभिव्यक्त करने की सामर्थ्य है। आशा है दोहाकार अपनी रुचि के अनुकूल खड़ी बोली या टकसाली हिंदी में दोहे रचने की चुनौती को स्वीकारेंगे। हिंदी के अन्य भाषिक रूपों यथा उर्दू, बृज, अवधी, बुन्देली, भोजपुरी, मैथिली, अंगिका, बज्जिका, छत्तीसगढ़ी, मालवी, निमाड़ी, बघेली, कठियावाड़ी, शेखावाटी, मारवाड़ी, हरयाणवी आदि तथा अन्य भाषाओँ गुजराती, मराठी, गुरुमुखी, उड़िया, बांगला, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, डोगरी, असमीआदि तथा अभारतीय भाषाओँ अंग्रेजी इत्यादि में दोहा भेजते समय उसका उल्लेख किया जाना उपयुक्त होगा ताकि उस रूप / भाषा विशेष में प्रयुक्त शब्दरूप व क्रियापद को अशुद्धि न समझा जाए।
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छंद सलिला:
मनमोहन छंद
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लक्षण: जाति मानव, प्रति चरण मात्रा १४ मात्रा, यति ८-६, चरणांत लघु लघु लघु (नगण) होता है.
लक्षण छंद:
रासविहारी, कमलनयन
अष्ट-षष्ठ यति, छंद रतन
अंत धरे लघु तीन कदम
नतमस्तक बलि, मिटे भरम.
उदाहरण:
१. हे गोपालक!, हे गिरिधर!!
हे जसुदासुत!, हे नटवर!!
हरो मुरारी! कष्ट सकल
प्रभु! प्रयास हर करो सफल.
२. राधा-कृष्णा सखी प्रवर
पार्थ-सुदामा सखा सुघर
दो माँ-बाबा, सँग हलधर
लाड लड़ाते जी भरकर
३. कंकर-कंकर शंकर हर
पग-पग चलकर मंज़िल वर
बाधा-संकट से मर डर
नीलकंठ सम पियो ज़हर
२९.३.२०१४
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होली की कुण्डलियाँ:
मनायें जमकर होली
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होली अनहोली न हो, रखिए इसका ध्यान.
मही पाल बन जायेंगे, खायें भंग का पान..
खायें भंग का पान, मान का पान न छोड़ें.
छान पियें ठंडाई, गत रिकोर्ड को तोड़ें..
कहे 'सलिल' कविराय, टेंट में खोंसे गोली.
भोली से लग गले, मनायें जमकर होली..
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होली ने खोली सभी, नेताओं की पोल.
जिसका जैसा ढोल है, वैसी उसकी पोल..
वैसी उसकी पोल, तोलकर करता बातें.
लेकिन भीतर ही भीतर करता हैं घातें..
नकली कुश्ती देख भ्रनित है जनता भोली.
एक साथ मिल भत्ते बढ़वा करते होली..
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होली में फीका पड़ा, सेवा का हर रंग.
माया को भायी सदा, सत्ता खातिर जंग..
सत्ता खातिर जंग, सोनिया को भी भाया.
जया, उमा, ममता, सुषमा का भारी पाया..
मर्दों पर भारी है, महिलाओं की टोली.
पुरुष सम्हालें चूल्हा-चक्की अबकी होली..
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फागुन के मुक्तक
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बसा है आपके ही दिल में प्रिय कब से हमारा दिल.
बनाया उसको माशूका जो बिल देने के है काबिल..
चढ़ायी भाँग करके स्वांग उससे गले मिल लेंगे-
रहे अब तक न लेकिन अब रहेंगे हम तनिक गाफिल..
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दिया होता नहीं तो दिया दिल का ही जला लेते.
अगर सजती नहीं सजनी न उससे दिल मिला लेते..
वज़न उसका अधिक या मेक-अप का कौन बतलाये?
करा खुद पैक-अप हम क्यों न उसको बिल दिला लेते..
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फागुन में गुन भुलाइए बेगुन हुजूर हों.
किशमिश न बनिए आप अब सूखा खजूर हों..
माशूक को रंग दीजिए रंग से, गुलाल से-
भागिए मत रंग छुड़ाने खुद मजूर हों..
२९.३.२०१३

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