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शनिवार, 28 जून 2025

जून २८, सॉनेट, चंद्र छंद, सुलोचना, दोहा, मोगरा, लघु कथा, कमल, तुम, अमलतास,

सलिल सृजन जून २८
सॉनेट
साँझ
*
साँझ सपने सजा निहाल हुई,
देख छैला करे मधुर बतियाँ,
आँख रतनार हो सवाल हुई,
दूर रहना, न हम कुम्हड़बतियाँ।
काम दिन भर करे न रुकती है,
रात भर जाग बाँचती पुस्तक,
कोशिशें कर कभी न थकती है,
भाग्य के द्वार दे रही दस्तक।
आप अपनी कही कहानी है,
मुश्किलों से तनिक नहीं डरती,
न, किसी की न निगहबानी है,
तारती है, न आप ही तरती।
बात सच्ची कहूँ कमाल हुई,
साँझ सबके लिए मिसाल हुई।
(महासंस्कारी जातीय, चंद्र छंद)
२८-६-२०२३
***
सती सुलोचना
सुलोचना वासुकी नाग की पुत्री और लंका के राजा रावण के पुत्र मेघनाद की पत्नी थी।
कायस्थों के मूल श्री चित्रगुप्त जी के १२ पुत्रों के विवाह नागराज वासुकि की १२ कन्याओं ही हुए थे। इस नाते मेघनाद कायस्थों का साढ़ू होता था। मेघनाद द्वारा लक्ष्मण पर शक्ति प्रहार के बाद कायस्थ वैद्य सुषेण ने ही लक्ष्मण की प्राण रक्षा की थी। अयोध्या में चारों भाइयों की श्रेष्ठ शिक्षा-दीक्षा करनेवाली राजमाता कैकेई भी कायस्थ थीं। कायस्थों को अपनी कन्याओं के नाम कैकेई और सुलोचना के नाम पर रखकर इन नारी रत्नों की जयंतियाँ मनानी चाहिए, उनके नाम पर अलंकरण देने चाहिए।
रावण के महापराक्रमी पुत्र इन्द्रजीत (मेघनाद) का वध करने की प्रतिज्ञा लेकर लक्ष्मण जिस समय युद्ध भूमि में जाने के लिये प्रस्तुत हुए, तब राम उनसे कहते हैं- "लक्ष्मण, रण में जाकर तुम अपनी वीरता और रणकौशल से रावण-पुत्र मेघनाद का वध कर दोगे, इसमें मुझे कोई संदेह नहीं है परंतु एक बात का विशेष ध्यान रखना कि मेघनाद का मस्तक भूमि पर किसी भी प्रकार न गिरे। क्योंकि मेघनाद एकनारी-व्रत का पालक है और उसकी पत्नी परम पतिव्रता है। ऐसी साध्वी के पति का मस्तक अगर पृथ्वी पर गिर पड़ा तो हमारी सारी सेना का ध्वंस हो जाएगा और युद्ध में विजय की आशा त्याग देनी पड़ेगी। लक्ष्मण अपनी सैना लेकर चल पड़े। युद्ध में अपने बाणों से उन्होंने मेघनाद का मस्तक उतार लिया, पर उसे पृथ्वी पर नहीं गिरने दिया। हनुमान उस मस्तक को राम के पास ले आए।
मेघनाद की दाहिनी भुजा आकाश में उड़ती हुई उसकी पत्नी सुलोचना के पास जाकर गिरी। सुलोचना चकित हो गयी। दूसरे ही क्षण अन्यंत दु:ख से कातर होकर विलाप करने लगी पर उसने भुजा को स्पर्श नहीं किया। उसने सोचा, सम्भव है यह भुजा किसी अन्य व्यक्ति की हो। ऐसी दशा में पर-पुरुष के स्पर्श का दोष मुझे लगेगा। निर्णय करने के लिये उसने भुजा से कहा- "यदि तू मेरे स्वामी की भुजा है, तो मेरे पतिव्रत की शक्ति से युद्ध का सारा वृत्तांत लिख दे। भुजा में दासी ने लेखनी पकड़ा दी। लेखिनी ने लिख दिया- "प्राणप्रिये, यह भुजा मेरी ही है। युद्ध भूमि में श्रीराम के भाई लक्ष्मण से मेरा युद्ध हुआ। लक्ष्मण ने कई वर्षों से पत्नी, अन्न और निद्रा छोड़ रखी है। वे तेजस्वी तथा समस्त दैवी गुणों से सम्पन्न है। संग्राम में उनके साथ मेरी एक नहीं चली। अन्त में उन्हीं के बाणों से विद्ध होने से मेरा प्राणान्त हो गया। मेरा शीश श्रीराम के पास है।
पति की भुजा-लिखित पंक्तियाँ पढ़ते ही सुलोचना व्याकुल हो गई। पुत्र-वधु के विलाप को सुनकर लंकापति रावण ने आकर कहा- 'शोक न कर पुत्री। प्रात: होते ही सहस्त्रों मस्तक मेरे बाणों से कट-कट कर पृथ्वी पर लोट जाऐंगे। मैं रक्त की नदियाँ बहा दूंगा। करुण चीत्कार करती हुई सुलोचना बोली- "पर इससे मेरा क्या लाभ होगा? सहस्त्रों नहीं, करोड़ों शीश भी मेरे स्वामी के शीश के अभाव की पूर्ति नहीं कर सकेंगे। सुलोचना ने निश्चय किया कि 'उसे सती हो जाना चाहिए किंतु पति का शव तो राम-दल में पड़ा हुआ था। फिर वह कैसे सती होती? जब अपने ससुर रावण से उसने अपना अभिप्राय कहकर अपने पति का शव मँगवाने के लिए कहा, तब रावण ने उत्तर दिया- "देवी ! तुम स्वयं ही राम-दल में जाकर अपने पति का शव प्राप्त करो।''
जिस समाज में बाल ब्रह्मचारी हनुमान, परम जितेन्द्रिय लक्ष्मण तथा एक पत्नीव्रती श्रीराम विद्यमान हैं, उस समाज में तुम्हें जाने से डरना नहीं चाहिए। मुझे विश्वास है कि इन स्तुत्य महापुरुषों के द्वारा तुम निराश नहीं लौटाई जाओगी।"
सुलोचना के आने का समाचार सुनते ही श्रीराम खड़े हो गए और स्वयं चलकर सुलोचना के पास आए और बोले- "देवी! तुम्हारे पति विश्व के अन्यतम योद्धा और पराक्रमी थे। उनमें बहुत-से सद्गुण थे; किंतु विधि की लिखी को कौन बदल सकता है? आज तुम्हें इस तरह देखकर मेरे मन में पीड़ा हो रही है।'' सुलोचना भगवान की स्तुति करने लगी।
श्रीराम ने उसे बीच में ही टोकते हुए कहा- "देवी, मुझे लज्जित न करो। पतिव्रता की महिमा अपार है, उसकी शक्ति की तुलना नहीं है। मैं जानता हूँ कि तुम परम सती हो। तुम्हारे सतीत्व से तो विश्व भी थर्राता है। बताओ कि मैं तुम्हारी किस प्रकार सहायता कर सकता हूँ?''
सुलोचना ने अश्रुपूरित नयनों से प्रभु की ओर देखा और बोली- "राघवेन्द्र, मैं सती होने के लिये अपने पति का मस्तक लेने के लिये यहाँ पर आई हूँ।'' श्रीराम ने शीघ्र ही ससम्मान मेघनाद का शीश मँगवाया और सुलोचना को दे दिया।
पति का छिन्न शीश देखते ही सुलोचना का हृदय अत्यधिक द्रवित हो गया। उसकी आँखें जोरों से बरसने लगीं। रोते-रोते उसने पास खड़े लक्ष्मण की ओर देखा और कहा- "सुमित्रानन्दन, तुम भूलकर भी गर्व मत करना कि इनका वध तुमने किया है। मेरे स्वामी को धराशायी करने की शक्ति विश्व में किसी के पास नहीं थी। यह तो दो पतिव्रता नारियों का भाग्य था। आपकी पत्नी भी पतिव्रता हैं और मैं भी पति चरणों में अनुरक्ती रखनेवाली उनकी अनन्य उपसिका हूँ। दुर्भाग्य से मेरे पति पतिव्रता नारी का अपहरण करनेवाले पिता का अन्न खाते थे और उन्हीं के लिये युद्ध में उतरे थे, इसी कारण मेरे जीवनधन परलोक सिधारे।''
सभी योद्धा सुलोचना को राम शिविर में देखकर चकित थे। वे यह नहीं समझ पा रहे थे कि सुलोचना को यह कैसे पता चला कि उसके पति का शीश भगवान राम के पास है। जिज्ञासा शान्त करने के लिये सुग्रीव ने पूछ ही लिया कि यह बात उन्हें कैसे ज्ञात हुई कि मेघनाद का शीश श्रीराम के शिविर में है। सुलोचना ने स्पष्टता से बता दिया- "मेरे पति की भुजा युद्ध भूमि से उड़ती हुई मेरे पास चली गई थी। उसी ने लिखकर मुझे बता दिया।''
व्यंग्य भरे शब्दों में सुग्रीव बोल उठे- "निष्प्राण भुजा यदि लिख सकती है फिर तो यह कटा हुआ सिर भी हँस सकता है।''
श्रीराम ने कहा- "व्यर्थ बातें मन करो मित्र! पतिव्रता के माहात्म्य को तुम नहीं जानते।''
सुग्रीव की मुखाकृति देखकर सुलोचना उनके भावों को समझ गई कि सुग्रीव को तब भी विश्वास नहीं हुआ था।। उसने कहा- "यदि मैं मन, वचन और कर्म से पति को देवता मानती हूँ, तो मेरे पति का यह निर्जीव मस्तक हँस उठे।'' सुलोचना की बात पूरी भी नहीं हुई थी कि कटा हुआ मस्तक जोरों से हँसने लगा।
यह देखकर सभी दंग रह गये। सभी ने पतिव्रता सुलोचना को प्रणाम किया। सभी पतिव्रता की महिमा से परिचित हो गये थे। चलते समय सुलोचना ने श्रीराम से प्रार्थना की- "भगवन! आज मेरे पति की अन्त्येष्टि क्रिया है और मैं उनकी सहचरी उनसे मिलने जा रही हूँ। आज युद्ध बंद रहे।'' श्रीराम ने सुलोचना की प्रार्थना स्वीकार कर ली। सुलोचना पति का सिर लेकर वापस लंका आ गई। लंका में समुद्र के तट पर एक चंदन की चिता तैयार की गयी। पति का शीश गोद में लेकर सुलोचना चिता पर बैठी और धधकती हुई अग्नि में कुछ ही क्षणों में सती हो गई।
***
कालजयी गीतकार गोपाल सिंह नेपाली
चीनी आक्रमण के समय अपने ओजपूर्ण गीत एवं कविताओं द्वारा जनांदोलन का शंख फूँकनेवाले तथा ''चौवालिस करोड़ को हिमालय ने पुकारा'' के रचयिता आधुनिक काल के जनप्रिय हिंदी कवि और गीतों के राजकुमार गोपाल सिंह नेपाली का जन्म ११ अगस्त, १९११ ई. को बिहार राज्य के पश्चिम चम्पारण जिले के कारी दरबार में हुआ था। एक फौजी पिता की संतान के रूप में जगह-जगह भटकते रहने के कारण आपकी स्कूली शिक्षा बहुत कम हो पायी थी। आप मात्र प्रवेशिका तक ही पढ़ पाए थे, परन्तु आपने आम लोगों की भावनाओं को खूब पढ़ा और उनकी अपेक्षाओं एवं आकांक्षाओं को आवाज दी।
साधारण वेश-भूषा, पतला चश्मा, थोड़े घुँघराले बाल, रंग साँवला और कोई गंभीर्य नहीं। विनोदपूर्ण और सरल व्यक्तित्व के स्वामी गोपाल सिंह नेपाली लहरों के विपरीत चलकर सफलता के झण्डे गाड़ने वाले अपराजेय योद्धा थे। आप साहित्य की प्राय: सभी विधाओं में पारंगत थे। आपकी रचना पाठ का एक अलग ही अनूठा अंदाज होता था। यही वजह थी कि आप जिस भी आयोजन में जाते, उसके प्राण हो जाते थे। आपके द्वारा गाये गीत तुरंत लोगों के दिलो-दिमाग पर छा जाते थे और लोग उन्हें बरबस गुनगुनाने लगते थे-
'जिस पथ से शहीद जाते है, वही डगरिया रंग दे रे/ अजर अमर प्राचीन देश की, नई उमरिया रंग दे रे। / मौसम है रंगरेज गुलाबी, गांव-नगरिया रंग दे रे। / तीस करोड़ बसे धरती की, हरी चदरिया रंग दे रे॥'
१९६५ ई. में पाकिस्तानी फौज की अचानक गोली-बारी में हमारे देश के शांतिप्रिय मेजर बुधवार और उनके साथी शहीद हो गए तो केंद्र में बैठे देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को संबोधित कर कविवर नेपाली ने लिखा था- 'ओ राही! दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से, चरखा चलता हाथों से, शासन चलता तलवार से।' कविवर नेपाली का नाम सिर्फ हिन्दी साहित्य में ही नहीं बल्कि सिने जगत के इतिहास में भी अविस्मरणीय है। आप १९४४ई. में बम्बई की फिल्म कम्पनी फिल्मिस्तान में गीतकार के रूप में पहुँचे और सर्वप्रथम 'मजदूर' जैसी ऐतिहासिक फिल्म के गीत लिखे, जिसके कथाकार स्वयं कथा सम्राट मुंशी प्रेमचन्द थे और संवाद लेखन किया था उपेन्द्र नाथ 'अश्क' ने। गीत इतने लोकप्रिय हुए कि बंगाल फिल्म जर्नलिस्ट एसोसिएशन की ओर से नेपाली जी को सन् १९४५ का सर्वश्रेष्ठ गीतकार का पुरस्कार मिला। भारत पर चीनी हमले से पूर्व तक आप बम्बई में रहे और करीब चार दर्जन से भी अधिक फिल्मों में एक से एक लोकप्रिय गीत लिखे, फिल्म तुलसीदास का वह गीत आज भी हमारे लिए उस महाकवि का एक उद्बोधन-सा ही लगता है- 'सच मानो तुलसी न होते, तो हिन्दी कहीं पड़ी होती, उसके माथे पर रामायण की बिन्दी नहीं जड़ी होती।'
आपने खुद की एक फिल्म-कम्पनी 'हिमालय-फिल्मस' के नाम से बनाई थी, जिसके तहत 'नजराना' और 'खुशबू' जैसी फिल्में बनी थीं। फिल्म में लिखे इनके गीत, चली आना हमारे अँगना, तुम न कभी आओगे पिया, दिल लेके तुम्हीं जीते दिल देके हमी हारे, दूर पपीहा बोल, ओ नाग कहीं जा बसियो रे मेरे पिया को न डसियो रे, इक रात को पकड़े गये दोनों जंजीर में जकड़े गये दोनों, रोटी न किसी को मोतियों का ढेर भगवान तेरे राज में अंधेर है अंधेर तथा प्यासी ही रह गई पिया मिलन को अँखियाँ राम जी कैसे अनेक गीत इतने लोकप्रिय हुए कि आज भी 'रीमिक्स' के जमाने में कभी-कभार सुनने को मिल जाते है तो बरबस नेपाली जी की याद दिलो दिमाग को कचोट जाती है। फिल्म नागपंचमी का वह गीत जो आज भी लोगों के ओठों पर बसा है- 'आरती करो हरिहर की, करो नटवर की, भोले शंकर की, आरती करो नटवर की..'
देश पर चीनी आक्रमण के दिनों में नेपाली जी लगातार समूचे देश का साहित्यिक दौरा करते हुए, आमजन को चीनी हमले के विरुद्ध जगा रहे थे- 'युद्ध में पछाड़ दो दुष्ट लाल चीन को, मारकर खदेड़ दो तोप से कमीन को, मुक्त करो साथियों हिन्द की जमीन को, देश के शरीर में नवीन खून डाल दो।'और इसी प्रकार लोगों को जगाते-जगाते अचानक १७ अप्रैल, १९६३ को दिन के करीब ११ बजे जीवन के अंतिम कवि सम्मेलन से कविता पाठ कर लौटते समय भागलपुर रेलवे जंक्शन के प्लेटफार्म नं. २ पर सदा के लिए सो गये। उनके पार्थिव शरीर को लोगों के दर्शनार्थ स्थानीय मारवाड़ी पाठशाला में करीब बीस घंटे तक रखा गया, वहीं से इनकी ऐतिहासिक शवयात्रा निकली, जिसमें जनसैलाब उमड़ पड़ा था। भागलपुर के ही बरारी घाट पर उन्हें पाँच साहित्यकारों ने संयुक्त रूप से मुखाग्नि दी और तब उनकी चिता जलाई गई। नेपाली के गीतों के साथ जनता की आकांक्षाएँ और कल्पनाएँ गुथीं हुई थीं। तभी तो नेपाली जी ने साहित्य में उभरती हुई राजनीति और चापलूसी को देखकर बहुत दु:ख प्रकट करते हुए लिखा था- 'तुझ सा लहरों में बह लेता तो मैं भी सत्ता गह लेता। ईमान बेचता चलता तो मैं भी महलों में रह लेता। तू दलबंदी पर मरे, यहाँ लिखने में है तल्लीन कलम, मेरा धन है स्वाधीन कलम।'
हिन्दी साहित्य जगत में गोपाल सिंह नेपाली के योगदान का महत्व इसी बात से लगाया जा सकता है कि इनकी मौत के बाद उस समय की कई प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं ने इनके जीवन और कृतित्व पर विशेषांकों की झड़ी-सी लगा दी थी। नेपाली जी के ऐसे अनेक साहित्यिक गीत है जो आज भी सुनने वालों के मन प्राण को अभिभूत कर देते है, खासकर- नौ लाख सितारों ने लूटा, दो तुम्हारे नयन दो हमारे नयन, तथा तन का दिया रूप की बाती, दीपक जलता रहा रातभर आदि गीत काफी अनूठे है।
आज हम उस महान जनप्रिय कवि गीतकार को याद करे न करे पर उनकी कृतियाँ- उमंग, पंछी, रागिनी, पंचमी, नवीन, हिमालय ने पुकारा, पीपल का पेड़, कल्पना, नीलिमा और तूफानों को आवाज दो जैसी कालजयी रचनाओं के माध्यम से साहित्य इतिहास में सदा-सदा अमर रहेगे। अंत में उन्हीं की पंक्तियों के साथ- 'बाबुल तुम बगिया के तरुवर, हम तरुवर की चिड़ियाँ, दाना चुगते उड़ जाएँ हम, पिया मिलन की घड़ियाँ।'
***
दोहा दोहा चिकित्सा
गर्म दूध-गुड़ नित पिएँ, त्वचा नर्म हो आप
हर विकार मिट वजन घट, रोग न पाए व्याप
नित गुड़ अदरक चबाएँ, जोड़ दर्द हो दूर
मासिक समय न दर्द हो, केश बढ़ें भरपूर
श्वास फूलती है अगर, दवा श्रेष्ठ अंजीर
कफ-बलगम कर दूर यह, शीघ्र मिटाए पीर
रात फुला अंजीर त्रय, पानी में खा भोर
पानी पी लें माह भर, करें न नाहक शोर
काढ़ा तुलसी सौंठ का, श्वसन तंत्र का मीत
श्वास फूलने दमा में, सेवन उत्तम रीत
सोंठ चूर्ण चुटकी, नमक काला, काली मिर्च
सेवन से खांसी मिटे, व्यर्थ न करिए खर्च
तुलसी पत्ते पाँच सँग, काला नमक उबाल
काली मिर्ची सौंठ सँग, सेवन करे कमाल
अजवाइन को पीसकर, पानी संग उबाल
पिएँ भाप लें यदि दमा, मिटे न करे निढाल
तिल का तेल गरम मलें, छाती पर लें सेक
दमा श्वास पीड़ा मिटे, है सलाह यह नेक
श्वास दमा पीड़ा घटे, खाएँ फल अंगूर
अंगूरी से दूर हों, लाभ मिले भरपूर
चौलाई रस-शहद पी, नित्य खाइए साग
कष्ट न दे हो दूर झट, श्वास रोग खटराग
तीन कली लहसुन डला, दूध उबालें मीत
शयन पूर्व पी लीजिए, श्वास रोग लें जीत
काढ़ा सेवन सौंफ का, बलगम करता दूर
श्वसन रोग से मुक्ति पा, बजे श्वास संतूर
लौंग-शहद काढ़ा बना, पीते रहें हुजूर
श्वसन तंत्र मजबूत हो, श्वास मिले भरपूर
शहद-दालचीनी मिला, पिएँ गुनगुना नीर
या पी लें गोमूत्र तो, घटे श्वास की पीर
हींग-शहद चुप चाटिए, चार बार रह शांत
साँस फूलने से मिले, मुक्ति न रहें अशांत
नीबू रस पानी गरम, पिएँ मिले आराम
केला सेवन मत करें, लेती श्वास विराम
गुड़-सरसों के तेल में, डाल मिला लें मौन
नित करिए सेवन मलें, रोग न जाने कौन
ताजे फल सब्जी हरी, चने अंकुरित श्रेष्ठ
चिकनाई एसिड तजें, कार्बोहाइड्रेट नेष्ठ
२८.६.२०२०
***
दोहा मुक्तिका:
काम न आता प्यार
काम न आता प्यार यदि, क्यों करता करतार।।
जो दिल बस; ले दिल बसा, वह सच्चा दिलदार।।
*
जां की बाजी लगे तो, काम न आता प्यार।
सरहद पर अरि शीश ले, पहले 'सलिल' उतार।।
*
तूफानों में थाम लो, दृढ़ता से पतवार।
काम न आता प्यार गर, घिरे हुए मझधार।।
*
गैरों को अपना बना, दूर करें तकरार।
कभी न घर में रह कहें, काम न आता प्यार।।
*
बिना बोले ही बोलना, अगर हुआ स्वीकार।
'सलिल' नहीं कह सकोगे, काम न आता प्यार।।
*
मिले नहीं बाज़ार में, दो कौड़ी भी दाम।
काम न आता प्यार जब, रहे विधाता वाम।।
*
राजनीति में कभी भी, काम न आता प्यार।
दाँव-पेंच; छल-कपट से, जीवन हो निस्सार।।
*
काम न आता प्यार कह, करें नहीं तकरार।
कहीं काम मनुहार दे, कहीं काम इसरार।।
*
२८.६.२०१८, ७९९९५५९६१८
***
दोहा संवाद:
बिना कहे कहना 'सलिल', सिखला देता वक्त।
सुन औरों की बात पर, कर मन की कमबख्त।।
*
आवन जावन जगत में,सब कुछ स्वप्न समान।
मैं गिरधर के रंग रंगी, मान सके तो मान।। - लता यादव
*
लता न गिरि को धर सके, गिरि पर लता अनेक।
दोहा पढ़कर हँस रहे, गिरिधर गिरि वर एक।। -संजीव
*
मैं मोहन की राधिका, नित उठ करूँ गुहार।
चरण शरण रख लो मुझे, सुनकर नाथ पुकार।। - लता यादव
*
मोहन मोह न अब मुझे, कर माया से मुक्त।
कहे राधिका साधिका, कर मत मुझे वियुक्त।। -संजीव
*
ना मैं जानूँ साधना, ना जानूँ कुछ रीत।
मन ही मन मनका फिरे,कैसी है ये प्रीत।। - लता यादव
*
करे साधना साधना, मिट जाती हर व्याध।
करे काम ना कामना, स्वार्थ रही आराध।। -संजीव
*
सोच सोच हारी सखी, सूझे तनिक न युक्ति ।
जन्म-मरण के फेर से, दिलवा दे जो मुक्ति।। -लता यादव
*
नित्य भोर हो जन फिर, नित्य रात हो मौत।
तन सो-जगता मन मगर, मौन हो रहा फौत।। -संजीव
*
वाणी पर संयम रखूँ, मुझको दो आशीष।
दोहे उत्तम रच सकूँ, कृपा करो जगदीश।। -लता यादव
*
हरि न मौन होते कभी, शब्द-शब्द में व्याप्त।
गीता-वचन उचारते, विश्व सुने चुप आप्त।। -संजीव
*
२८-६-२०१८, ७९९९५५९६१८
***
दोहा सलिला:
*
हर्ष; खुशी; उल्लास; सुख, या आनंद-प्रमोद।
हैं आकाश-कुसुम 'सलिल', अब आल्हाद विनोद।।
*
कहीं न हैपीनेस है, हुआ लापता जॉय।
हाथों में हालात के, ह्युमन बीइंग टॉय।।
*
एक दूसरे से मिलें, जब मन जाए झूम।
तब जीवन का अर्थ हो, सही हमें मालूम।।
*
मेरे अधरों पर खिले, तुझे देख मुस्कान।
तेरे लब यदि हँस पड़ें, पड़े जान में जान।।
*
तू-तू मैं-मैं भुलकर, मैं तू हम हों मीत।
तो हर मुश्किल जीत लें, यह जीवन की रीत।।
*
श्वास-आस संबंध बो, हरिया जीवन-खेत।
राग-द्वेष कंटक हटा, मतभेदों की रेत।।
*
२८.६.२०१८, ७९९९५५९६१८
***
दोहा दुनिया
चंपा तुझ में तीन गुण ,रूप ,रंग और बास
अवगुण केवल एक है ,भ्रमर ना आवै पास
चंपा बदनी राधिका भ्रमर कृष्ण का दास
निज जननी अनुहार के भ्रमर न जाये पास
इन दोनों दोहों के दोहाकारों के नाम भूल गया हूँ. बताइये
***

नवगीत
खिला मोगरा
*
खिला मोगरा
जब-जब, तब-तब
याद किसी की आई।
महक उठा मन
श्वास-श्वास में
गूँज उठी शहनाई।
*
हरी-भरी कोमल पंखुड़ियाँ
आशा-डाल लचीली।
मादक चितवन कली-कली की
ज्यों घर आई नवेली।
माँ के आँचल सी सुगंध ने
दी ममता-परछाई।
खिला मोगरा
जब-जब, तब-तब
याद किसी की आई।
*
ननदी तितली ताने मारे
छेड़ें भँवरे देवर।
भौजी के अधरों पर सोहें
मुस्कानों के जेवर।
ससुर गगन ने
विहँस बहू की
की है मुँह दिखलाई।
खिला मोगरा
जब-जब, तब-तब
याद किसी की आई।
*
सजन पवन जब अंग लगा तो
बिसरा मैका-अँगना।
द्वैत मिटा, अद्वैत वर लिया
खनके पायल-कँगना।
घर-उपवन में
स्वर्ग बसाकर
कली न फूल समाई।
खिला मोगरा
जब-जब, मुझको
याद किसी की आई।
***
गीत-
*
भूल नहीं पल भर को भी यह चेतन का संक्रान्तिकाल है
राकेशी ज्योत्सना न शीतल, लिये क्रांति की नव मशाल है
*
अचल रहे संकल्प, विकल्पों पर विचार का समय नहीं है
हुई व्यवस्था ही प्रधान, जो करे व्यवस्था अभय नहीं है
*
कल तक रही विदेशी सत्ता, क्षति पहुँचाना लगा सार्थक
आज स्वदेशी चुने हुए से टकराने का दृश्य मार्मिक
कुरुक्षेत्र की सीख यही है, दु:शासन से लड़ना होगा
धृतराष्ट्री है न्याय व्यवस्था मिलकर इसे बदलना होगा
वादों के अम्बार लगे हैं, गांधारी है न्यायपीठ पर
दुर्योधन देते दलील, चुक गये भीष्म, पर चलना होगा
आप बढ़ा जी टकराने अब उसका तिलकित नहीं भाल है
भूल नहीं पल भर को भी यह चेतन का संक्रान्तिकाल है
*
हाथ हथौड़ा तिनका हाथी लालटेन साइकिल पथ भूले
कमल मध्य को कुचल, उच्च का हाथ थाम सपनों में झूले
निम्न कटोरा लिये हाथ में, अनुचित-उचित न देख पा रहा
मूल्य समर्थन में, फंदा बन कसा गले में कहर ढा रहा
दाल टमाटर प्याज रुलाये, खाकर हवा न जी सकता जन
पानी-पानी स्वाभिमान है, चारण सत्ता-गान गा रहा
छाते राहत-मेघ न बरसें, टैक्स-सूर्य का व्याल-जाल है
भूल नहीं पल भर को भी यह चेतन का संक्रान्तिकाल है
*
महाकाल जा कुंभ करायें, क्षिप्रा में नर्मदा बहायें
उमा बिना शिव-राज अधूरा, नंदी चैन किस तरह पायें
सिर्फ कुबेरों की चाँदी है, श्रम का कोई मोल नहीं है
टके-तीन अभियंता बिकते, कहे व्यवस्था झोल नहीं है
छले जा रहे अपनों से ही, सपनों- नपनों से दुःख पाया
शानदार हैं मकां, न रिश्ते जानदार कुछ तोल नहीं है
जल पलाश सम 'सलिल', बदल दे अब न सहन के योग्य हाल है
भूल नहीं पल भर को भी यह चेतन का संक्रान्तिकाल है
२८.६.२०१६
***
मुक्तिका:
संजीव
*
पढ़ेंगे खुदका लिखा खुद निहाल होना है
पढ़े जो और तो उसको निढाल होना है
*
हुई है बात सलीके की कुछ सियासत में
तभी से तय है कि जमकर बबाल होना है
*
कहा जो हमने वही सबको मानना होगा
यही जम्हूरियत की अब मिसाल होना है
*
दियों से दुश्मनी, बाती से अदावत जिनको
उन्हीं के हाथों में जलती मशाल होना है
*
कहाँ से आये मियाँ और कहाँ जाते हो?
न इससे ज्यादा कठिन कुछ सवाल होना है
***
दोहा मुक्तिका:
*
उगते सूरज की करे, जगत वंदना जाग
जाग न सकता जो रहा, उसका सोया भाग
*
दिन कर दिनकर ने कहा, वरो कर्म-अनुराग
संध्या हो निर्लिप्त सच, बोला: 'माया त्याग'
*
तपे दुपहरी में सतत, नित्य उगलता आग
कहे: 'न श्रम से भागकर, बाँधो सर पर पाग
*
उषा दुपहरी साँझ के, संग खेलता फाग
दामन पर लेकिन लगा, कभी न किंचित दाग
*
निशा-गोद में सर छिपा, करता अचल सुहाग
चंद्र-चंद्रिका को मिला, हँसे- पूर्ण शुभ याग
*
भू भगिनी को भेंट दे, मार तिमिर का नाग
बैठ मुँड़ेरे भोर में, बोले आकर काग
*
'सलिल'-धार में नहाये, बहा थकन की झाग
जग-बगिया महका रहा, जैसे माली बाग़
२८.६.२०१५
***
लघु कथा:
बाँस
.
गेंड़ी पर नाचते नर्तक की गति और कौशल से मुग्ध जनसमूह ने करतल ध्वनि की. नर्तक ने मस्तक झुकाया और तेजी से एक गली में खो गया।
आश्चर्य हुआ प्रशंसा पाने के लिये लोग क्या-क्या नहीं करते? चंद करतल ध्वनियों के लिये रैली, भाषण, सभा, समारोह, यहाँ ताक की खुद प्रायोजित भी कराते हैं। यह अनाम नर्तक इसकी उपेक्षा कर चला गया जबकि विरागी-संत भी तालियों के मोह से मुक्त नहीं हो पाते। मंदिर से संसद तक और कोठों से अमरोहों तक तालियों और गालियों का ही राज्य है।
संयोगवश अगले ही दिन वह नर्तक फिर मिला गया। आज वह पीठ पर एक शिशु को बाँधे हाथ में लंबा बाँस लिये रस्से पर चल रहा था और बज रही थीं तालियाँ लेकिन वह फिर गायब हो गया।
कुछ दिन बाद नुक्कड़ पर फिर दिख गया वह... इस बार कंधे पर रखे बाँस के दोनों ओर जलावन के गट्ठर टँगे थे जिन्हें वह बेचने जा रहा था।
मैंने पुकारा तो वह रुक गया। मैंने उसके नृत्य और रस्से पर चलने की कला की प्रशंसा कर पूछा कि इतना अच्छा कलाकार होने के बाद भी वह अपनी प्रशंसा से दूर क्यों चला जाता है? कला साधना के स्थान पर अन्य कार्यों को समय क्यों देता है?
कुछ पल वह मुझे देखता रहा फिर लम्बी साँस भरकर बोला : 'क्या कहूँ? कला साधना और प्रशंसा तो मुझे भी मन भाती है पर पेट की आग न तो कला से, न प्रशंसा से बुझती है। तालियों की आवाज़ में रमा रहूँ तो बच्चे भूखे रह जायेंगे.' मैंने जरूरत न होते हुए भी जलावन ले ली... उसे परछी में बैठाकर पानी पिलाया और रुपये दिए तो वह बोल पड़ा: 'सब किस्मत का खेल है।अच्छा-खासा व्यापार करता था। पिता को किसी से टक्कर मार दी। उनके इलाज में हुए खर्च में लिये कर्ज को चुकाने में पूँजी ख़त्म हो गयी। बचपन का साथी बाँस और उस पर सीखे खेल ही पेट पालने का जरिया बन गये।' इससे पहले कि मैं उसे हिम्मत देता वह फिर बोला: 'फ़िक्र न करें, वे दिन न रहे तो ये भी न रहेंगे। अभी तो मुझे कहीं झुककर, कहीं तनकर बाँस की तरह परिस्थितियों से जूझना ही नहीं उन्हें जीतना भी है।' और वह तेजी से आगे बढ़ गया। मैं देखता रह गया उसके हाथ में झूलता बाँस।
***
* ब्रम्ह कमल
* कमल, कुमुद, व कमलिनी का प्रयोग कहीं-कहीं भिन्न पुष्प प्रजातियों के रूप में है, कहीं-कहीं एक ही प्रजाति के पुष्प के पर्याय के रूप में. कमल के रक्तकमल, नीलकमल तथा श्वेतकमल तीन प्रकार रंग के आधार पर वर्णित हैं. कमल-कमलिनी का विभाजन बड़े-छोटे आकार के आधार पर प्रतीत होता है. कुमुद को कहीं कमल, कहीं कमलिनी कहा गया है. कुमद के साथ कुमुदिनी का भी प्रयोग हुआ है. कमल सूर्य के साथ उदित होता है, उसे सूर्यमुखी, सूर्यकान्ति, रविप्रिया आदि कहा गया है. रात में खिलनेवाली कमलिनी को शशिमुखी, चन्द्रकान्ति, रजनीकांत, कहा गया है. रक्तकमल के लाल रंग की श्री तथा हरि के कर-पद पल्लवों से समानता के कारण हरिपद, श्रीकर जैसे पर्याय बने हैं, सूर्य, चन्द्र, विष्णु, लक्ष्मी, जल, नदी, समुद्र, सरोवर आदि से जन्म के आधार पर बने पर्यायों के साथ जोड़ने पर कमल के अनेक और पर्यायी शब्द बनते हैं. मुझसे अनुरोध था कि कमल के सभी पर्यायों को गूँथकर रचना करूँ. माँ शारदा के श्री चरणों में यह कमल-माल अर्पित कर आभारी हूँ. सभी पर्यायों को गूंथने पर रचना लंबी होगी. पाठकों की प्रतिक्रिया ही बताएगी कि गीतकार निकष पर खरा उतर सका या नहीं?
गीत
शतदल पंकज कमल
*
शतदल, पंकज, कमल, सूर्यमुख
श्रम-सीकर से स्नान कर रहा.
शूल चुभा सुरभित गुलाब का फूल-
कली-मन म्लान कर रहा...
*
जंगल काट, पहाड़ खोदकर
ताल पाटता महल न जाने.
भू करवट बदले तो पल में-
मिट जायेंगे सब अफसाने..
सरवर सलिल समुद्र नदी में
खिल इन्दीवर कुई बताता
हरिपद-श्रीकर, श्रीपद-हरिकर
कृपा करें पर भेद न माने..
कुंद कुमुद क्षीरज नीरज नित
सौगन्धिक का गान कर रहा.
सरसिज, अलिप्रिय, अब्ज, रोचना
श्रम-सीकर से स्नान कर रहा.....
*
पुण्डरीक सिंधुज वारिज
तोयज उदधिज नव आस जगाता.
कुमुदिनि, कमलिनि, अरविन्दिनी के
अधरों पर शशिहास सजाता..
पनघट चौपालों अमराई
खलिहानों से अपनापन रख-
नीला लाल सफ़ेद जलज हँस
सुख-दुःख एक सदृश बतलाता.
उत्पल पुंग पद्म राजिव
कब निर्मलता का भान कर रहा.
जलरुह अम्बुज अम्भज कैरव
श्रम-सीकर से स्नान कर रहा.....
*
बिसिनी नलिन सरोज कोकनद
जाति-धर्म के भेद न मानें.
मन मिल जाए ब्याह रचायें-
एक गोत्र का खेद न जानें..
दलदल में पल दल न बनाते,
ना पंचायत, ना चुनाव ही.
शशिमुख-रविमुख रह अमिताम्बुज
बैर नहीं आपस ठानें..
अमलतास हो या पलाश
पुहकर पुष्कर का गान कर रहा.
सौगन्धिक पुन्नाग अलोही
श्रम-सीकर से
स्नान कर
*
१०-७-२०१०
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अभिनव प्रयोग-
१९. कमल-कमलिनी विवाह
*
* रक्त कमल
अंबुज शतदल कमल
अब्ज हर्षाया रे!
कुई कमलिनी का कर
गहने आया रे!...
**
हिमकमल
अंभज शीतल उत्पल देख रहा सपने
बिसिनी उत्पलिनी अरविन्दिनी सँग हँसने
कुंद कुमुद क्षीरज अंभज नीरज के सँग-
नीलाम्बुज नीलोत्पल नीलोफर भी दंग.
कँवल जलज अंबोज नलिन पुहुकर पुष्कर
अर्कबन्धु जलरुह राजिव वारिज सुंदर
मृणालिनी अंबजा अनीकिनी वधु मनहर
यह उसके, वह भी
इसके मन भाया रे!...
*
* नील कमल
बाबुल ताल, तलैया मैया हँस-रोयें
शशिप्रभ कुमुद्वती कैरविणी को खोयें.
निशापुष्प कौमुदी-करों मेंहदी सोहे.
शारंग पंकज पुण्डरीक मुकुलित मोहें.
बन्ना-बन्नी, गारी गायें विष्णुप्रिया.
पद्म पुंग पुन्नाग शीतलक लिये हिया.
रविप्रिय श्रीकर कैरव को बेचैन किया
अंभोजिनी अंबुजा
हृदय अकुलाया रे!...
**
श्वेत कमल
चंद्रमुखी-रविमुखी हाथ में हाथ लिये
कर्णपूर सौगन्धिक श्रीपद साथ लिये.
इन्दीवर सरसिज सरोज फेरे लेते.
मौन अलोही अलिप्रिय सात वचन देते.
असिताम्बुज असितोत्पल-शोभा कौन कहे?
सोमभगिनी शशिकांति-कंत सँग मौन रहे.
'सलिल'ज हँसते नयन मगर जलधार बहे
श्रीपद ने हरिकर को
पूर्ण बनाया रे!...
*
२०-७-२०१२
* कमल हर कीचड़ में नहीं खिलता. गंदे नालों में कमल नहीं दिखेगा भले ही कीचड़ हो. कमल का उद्गम जल से है इसलिए वह नीरज, जलज, सलिलज, वारिज, अम्बुज, तोयज, पानिज, आबज, अब्ज है. जल का आगर नदी, समुद्र, तालाब हैं... अतः कमल सिंधुज, उदधिज, पयोधिज, नदिज, सागरज, निर्झरज, सरोवरज, तालज भी है. जल के तल में मिट्टी है, वहीं जल और मिट्टी में मेल से कीचड़ या पंक में कमल का बीज जड़ जमता है इसलिए कमल को पंकज कहा जाता है. पंक की मूल वृत्ति मलिनता है किन्तु कमल के सत्संग में वह विमलता का कारक हो जाता है. क्षीरसागर में उत्पन्न होने से वह क्षीरज है. इसका क्षीर (मिष्ठान्न खीर) से कोई लेना-देना नहीं है. श्री (लक्ष्मी) तथा विष्णु की हथेली तथा तलवों की लालिमा से रंग मिलने के कारण रक्त कमल हरि कर, हरि पद, श्री कर, श्री पद भी कहा जाता किन्तु अन्य कमलों को यह विशेषण नहीं दिया जा सकता. पद्मजा लक्ष्मी के हाथ, पैर, आँखें तथा सकल काया कमल सदृश कही गयी है. पद्माक्षी, कमलाक्षी या कमलनयना के नेत्र गुलाबी भी हो सकते हैं, नीले भी. सीता तथा द्रौपदी के नेत्र क्रमशः गुलाबी व् नीले कहे गए हैं और दोनों को पद्माक्षी, कमलाक्षी या कमलनयना विशेषण दिए गये हैं. करकमल और चरणकमल विशेषण करपल्लव तथा पदपल्लव की लालिमा व् कोमलता को लक्ष्य कर कहा जाना चाहिए किन्तु आजकल चाटुकार कठोर-काले हाथोंवाले लोगों के लिये प्रयोग कर इन विशेषणों की हत्या कर देते हैं. श्री राम, श्री कृष्ण के श्यामल होने पर भी उनके नेत्र नीलकमल तथा कर-पद रक्तता के कारण करकमल-पदकमल कहे गये. रीतिकालिक कवियों को नायिका के अन्गोंपांगों के सौष्ठव के प्रतीक रूप में कमल से अधिक उपयुक्त अन्य प्रतीक नहीं लगा. श्वेत कमल से समता रखते चरित्रों को भी कमल से जुड़े विशेषण मिले हैं. मेरे पढ़ने में ब्रम्हकमल, हिमकमल से जुड़े विशेषण नहीं आये... शायद इसका कारण इनका दुर्लभ होना है. इंद्र कमल (चंपा) के रंग चम्पई (श्वेत-पीत का मिश्रण) से जुड़े विशेषण नायिकाओं के लिये गर्व के प्रतीक हैं किन्तु पुरुष को मिलें तो निर्बलता, अक्षमता, नपुंसकता या पाण्डुरोग (पीलिया ) इंगित करते हैं. कुंती तथा कर्ण के पैर कोमलता तथा गुलाबीपन में साम्यता रखते थे तथा इस आधार पर ही परित्यक्त पुत्र कर्ण को रणांगन में अर्जुन के सामने देख-पहचानकर वे बेसुध हो गयी थीं.
*
हिम कमल
विकिपीडिया, एक मुक्त ज्ञानकोष से
चीन के सिन्चांग वेवूर स्वायत्त प्रदेश में खड़ी थ्येनशान पर्वत माले में समुद्र सतह से तीन हजार मीटर ऊंची सीधी खड़ी चट्टानों पर एक विशेष किस्म की वनस्पति उगती है, जो हिम कमल के नाम से चीन भर में मशहूर है। हिम कमल का फूल एक प्रकार की दुर्लभ मूल्यवान जड़ी बूटी है, जिस का चीनी परम्परागत औषधि में खूब प्रयोग किया जाता है। विशेष रूप से ट्यूमर के उपचार में, लेकिन इधर के सालों में हिम कमल की चोरी की घटनाएं बहुत हुआ करती है, इस से थ्येन शान पहाड़ी क्षेत्र में उस की मात्रा में तेजी से गिरावट आयी। वर्ष 2004 से हिम कमल संरक्षण के लिए व्यापक जनता की चेतना उन्नत करने के लिए प्रयत्न शुरू किए गए जिसके फलस्वरूप पहले हिम कमल को चोरी से खोदने वाले पहाड़ी किसान और चरवाहे भी अब हिम कमल के संरक्षक बन गए हैं।
***
प्रस्तुत है एक रचना - प्रतिरचना आप इस क्रम में अपनी रचना टिप्पणी में प्रस्तुत कर सकते हैं.
रचना - प्रति रचना : इंदिरा प्रताप / संजीव 'सलिल'
*
रचना:
अमलतास का पेड़
इंदिरा प्रताप
*
वर्षों बाद लौटने पर घर
आँखें अब भी ढूँढ रही हैं
पेड़ पुराना अमलतास का,
सड़क किनारे यहीं खड़ा था
लदा हुआ पीले फूलों से|
पहली सूरज की किरणों से
सजग नीड़ का कोना–कोना,
पत्तों के झुरमुट के पीछे,
कलरव की धुन में गाता था,
शिशु विहगों का मौन मुखर हो|
आँखें अब भी ढूँढ रही हैं
तेरी–मेरी
पेड़ पुराना अमलतास का
लदा हुआ पीले फूलों से
कुछ दिन पहले यहीं खड़ा था|
गुरुवार, २३ अगस्त २०१२
*****
Indira Pratap <pindira77@yahoo.co.in
प्रतिरचना:
अमलतास का पेड़
संजीव 'सलिल'
**
तुम कहते हो ढूँढ रहे हो
पेड़ पुराना अमलतास का।
*
जाकर लकड़ी-घर में देखो
सिसक रही हैं चंद टहनियाँ,
कचरा-घर में रोती कलियाँ,
बिखरे फूल सड़क पर करते
चीत्कार पर कोई न सुनता।
करो अनसुना.
अपने अंतर्मन से पूछो:
क्यों सन्नाटा फैला-पसरा
है जीवन में?
घर-आंगन में??
*
हुआ अंकुरित मैं- तुम जन्मे,
मैं विकसा तुम खेल-बढ़े थे।
हुईं पल्लवित शाखाएँ जब
तुमने सपने नये गढ़े थे।
कलियाँ महकीं, कँगना खनके
फूल खिले, किलकारी गूँजी।
बचपन में जोड़ा जो नाता
तोड़ा सुन सिक्कों की खनखन।
तभी हुई थी घर में अनबन।
*
मुझसे जितना दूर हुए तुम,
तुमसे अपने दूर हो गए।
मन दुखता है यह सच कहते
आँखें रहते सूर हो गए।
अब भी चेतो-
व्यर्थ न खोजो,
जो मिट गया नहीं आता है।
उठो, फिर नया पौधा रोपो,
टूट गये जो नाते जोड़ो.
पुरवैया के साथ झूमकर
ऊषा संध्या निशा साथ हँस
स्वर्गिक सुख धरती पर भोगो
बैठ छाँव में अमलतास की.
*
salil.sanjiv@gmail.com
***
श्रृंगार-गीत :
तुम
*
तुम मुस्काईं
तो ऊषा के
हुए गुलाबी गाल।
*
सूरज करता ताका-झाँकी
मन में आँकें सूरत बाँकी
नाच रहे बरगद बब्बा भी
झूम दे रहे ताल।
तुम इठलाईं
तो पनघट पे
कूकी मौन रसाल।
तुम मुस्काईं
तो ऊषा के
हुए गुलाबी गाल।
*
सद्यस्नाता बूँदें बरसें
देख बदरिया हरषे-तरसे
पवन छेड़ता श्यामल कुंतल
उलझें-सुलझे बाल।
तुम खिसियाईं
पल्लू थामे
झिझक न करो मलाल।
तुम मुस्काईं
तो ऊषा के
हुए गुलाबी गाल।
*
बजी घंटियाँ मन मंदिर में
करी अर्चना कोकिल स्वर में
रीझ रहे नटराज उमा पर
पहना, पहनी माल।
तुम भरमाईं
तो राधा लख
नटवर हुए निहाल।
तुम मुस्काईं
तो ऊषा के
हुए गुलाबी गाल।
*
करछुल-चम्मच बाजी छुनछन
बटलोई करती है भुनभुन
लौकी हाथ लगाए हल्दी
मुकुट टमाटर लाल।
तुम पछताईं
नमक अधिक चख
स्वेद सुशोभित भाल।
तुम मुस्काईं
तो ऊषा के
हुए गुलाबी गाल।
*
पूर्वा सँकुची कली नवेली
हुई दुपहरी प्रखर हठीली
संध्या सुंदर, कलरव सस्वर
निशा नशीली चाल।
तुम हुलसाईं
अपने सपने
पूरे किये कमाल।
तुम मुस्काईं
तो ऊषा के
हुए गुलाबी गाल।
२८-६-२०१७
***
गीत-
*
भूल नहीं पल भर को भी यह चेतन का संक्रान्तिकाल है
राकेशी ज्योत्सना न शीतल, लिये क्रांति की नव मशाल है
*
अचल रहे संकल्प, विकल्पों पर विचार का समय नहीं है
हुई व्यवस्था ही प्रधान, जो करे व्यवस्था अभय नहीं है
*
कल तक रही विदेशी सत्ता, क्षति पहुँचाना लगा सार्थक
आज स्वदेशी चुने हुए से टकराने का दृश्य मार्मिक
कुरुक्षेत्र की सीख यही है, दु:शासन से लड़ना होगा
धृतराष्ट्री है न्याय व्यवस्था मिलकर इसे बदलना होगा
वादों के अम्बार लगे हैं, गांधारी है न्यायपीठ पर
दुर्योधन देते दलील, चुक गये भीष्म, पर चलना होगा
आप बढ़ा जी टकराने अब उसका तिलकित नहीं भाल है
भूल नहीं पल भर को भी यह चेतन का संक्रान्तिकाल है
*
हाथ हथौड़ा तिनका हाथी लालटेन साइकिल पथ भूले
कमल मध्य को कुचल, उच्च का हाथ थाम सपनों में झूले
निम्न कटोरा लिये हाथ में, अनुचित-उचित न देख पा रहा
मूल्य समर्थन में, फंदा बन कसा गले में कहर ढा रहा
दाल टमाटर प्याज रुलाये, खाकर हवा न जी सकता जन
पानी-पानी स्वाभिमान है, चारण सत्ता-गान गा रहा
छाते राहत-मेघ न बरसें, टैक्स-सूर्य का व्याल-जाल है
भूल नहीं पल भर को भी यह चेतन का संक्रान्तिकाल है
*
महाकाल जा कुंभ करायें, क्षिप्रा में नर्मदा बहायें
उमा बिना शिव-राज अधूरा, नंदी चैन किस तरह पायें
सिर्फ कुबेरों की चाँदी है, श्रम का कोई मोल नहीं है
टके-तीन अभियंता बिकते, कहे व्यवस्था झोल नहीं है
छले जा रहे अपनों से ही, सपनों- नपनों से दुःख पाया
शानदार हैं मकां, न रिश्ते जानदार कुछ तोल नहीं है
जल पलाश सम 'सलिल', बदल दे अब न सहन के योग्य हाल है
भूल नहीं पल भर को भी यह चेतन का संक्रान्तिकाल है
***
१८-६-२०१६
***
नवगीत
खिला मोगरा
*
खिला मोगरा
जब-जब, तब-तब
याद किसी की आई।
महक उठा मन
श्वास-श्वास में
गूँज उठी शहनाई।
*
हरी-भरी कोमल पंखुड़ियाँ
आशा-डाल लचीली।
मादक चितवन कली-कली की
ज्यों घर आई नवेली।
माँ के आँचल सी सुगंध ने
दी ममता-परछाई।
खिला मोगरा
जब-जब, तब-तब
याद किसी की आई।
*
ननदी तितली ताने मारे
छेड़ें भँवरे देवर।
भौजी के अधरों पर सोहें
मुस्कानों के जेवर।
ससुर गगन ने
विहँस बहू की
की है मुँह दिखलाई।
खिला मोगरा
जब-जब, तब-तब
याद किसी की आई।
*
सजन पवन जब अंग लगा तो
बिसरा मैका-अँगना।
द्वैत मिटा, अद्वैत वर लिया
खनके पायल-कँगना।
घर-उपवन में
स्वर्ग बसाकर
कली न फूल समाई।
खिला मोगरा
जब-जब, मुझको
याद किसी की आई।
***
२८-६-२०१६
***
मुक्तिका:
*
पढ़ेंगे खुदका लिखा खुद निहाल होना है
पढ़े जो और तो उसको निढाल होना है
*
हुई है बात सलीके की कुछ सियासत में
तभी से तय है कि जमकर बबाल होना है
*
कहा जो हमने वही सबको मानना होगा
यही जम्हूरियत की अब मिसाल होना है
*
दियों से दुश्मनी, बाती से अदावत जिनको
उन्हीं के हाथों में जलती मशाल होना है
*
कहाँ से आये मियाँ और कहाँ जाते हो?
न इससे ज्यादा कठिन कुछ सवाल होना है
*
***
दोहा मुक्तिका:
*
उगते सूरज की करे, जगत वंदना जाग
जाग न सकता जो रहा, उसका सोया भाग
*
दिन कर दिनकर ने कहा, वरो कर्म-अनुराग
संध्या हो निर्लिप्त सच, बोला: 'माया त्याग'
*
तपे दुपहरी में सतत, नित्य उगलता आग
कहे: 'न श्रम से भागकर, बाँधो सर पर पाग
*
उषा दुपहरी साँझ के, संग खेलता फाग
दामन पर लेकिन लगा, कभी न किंचित दाग
*
निशा-गोद में सर छिपा, करता अचल सुहाग
चंद्र-चंद्रिका को मिला, हँसे- पूर्ण शुभ याग
*
भू भगिनी को भेंट दे, मार तिमिर का नाग
बैठ मुँड़ेरे भोर में, बोले आकर काग
*
'सलिल'-धार में नहाये, बहा थकन की झाग
जग-बगिया महका रहा, जैसे माली बाग़
२८-६-२०१५
***
विमर्श -
जन का पैगाम - जन नायक के नाम
प्रिय नरेंद्र जी, उमा जी
सादर वन्दे मातरम
मुझे आपका ध्यान नदी घाटियों के दोषपूर्ण विकास की ओर आकृष्ट करना है।
मूलतः नदियाँ गहरी तथा किनारे ऊँचे पहाड़ियों की तरह और वनों से आच्छादित थे। कालिदास का नर्मदा तट वर्णन देखें। मानव ने जंगल काटकर किनारों की चट्टानें, पत्थर और रेत खोद लिये तो नदी का तक और किनारों का अंतर बहुत कम बचा। इससे भरनेवाले पानी की मात्रा और बहाव घाट गया, नदी में कचरा बहाने की क्षमता न रही, प्रदूषण फैलने लगा, जरा से बरसात में बाढ़ आने लगी, उपजाऊ मिट्टी बाह जाने से खेत में फसल घट गई, गाँव तबाह हुए।
इस विभीषिका से निबटने हेतु कृपया, निम्न सुझावों पर विचार कर विकास कार्यक्रम में यथोचित परिवर्तन करने हेतु विचार करें:
१. नदी के तल को लगभग १० - १२ मीटर गहरा, बहाव की दिशा में ढाल देते हुए, ऊपर अधिक चौड़ा तथा नीचे तल में कम चौड़ा खोदा जाए।
२. खुदाई में निकली सामग्री से नदी तट से १-२ किलोमीटर दूर संपर्क मार्ग तथा किनारों को पक्का बनाया जाए ताकि वर्षा और बाढ़ में किनारे न बहें।
३. घाट तक आने के लिये सड़क की चौड़ाई छोड़कर शेष किनारों पर घने जंगल लगाए जाएँ जिन्हें घेरकर प्राकृतिक वातावरण में पशु-पक्षी रहें मनुष्य दूर से देख आनंदित हो सके।
४. गहरी हुई बड़ी नदियों में बड़ी नावों और छोटे जलयानों से यात्री और छोटी नदियों में नावों से यातायात और परिवहन बहुत सस्ता और सुलभ हो सकेगा। बहाव की दिशा में तो नदी ही अल्प ईंधन में पहुंचा देगी। सौर ऊर्जा चलित नावों से वर्ष में ८-९ माह पेट्रोल -डीज़ल की तुलना में लगभग एक बटे दस धुलाई व्यय होगा। प्राचीन भारत में जल संसाधन का प्रचुर प्रयोग होता था।
५. घाटों पर नदी धार से ३००-५०० मीटर दूर स्नानागार-स्नान कुण्ड तथा पूजनस्थल हों जहाँ जलपात्र या नल से नदी उपलब्ध हो। नदी के दर्शन करते हुए पूजन-तर्पण हो। प्रयुक्त दूषित जल व् अन्य सामग्री घाट पर बने लघु शोधन संयंत्र में उपचारित का शुद्ध जल में परिवर्तित की जाने के बाद नदी के तल में छोड़ा जाए। तथा नदी का प्रदुषण समाप्त होगा तथा जान सामान्य की आस्था भी बनी सकेगी। इस परिवर्तन के लिये संतों-पंडों तथा स्थानी जनों को पूर्व सहमत करने से जन विरोध नहीं होगा।
६. नदी के समीप हर शहर, गाँव, कस्बे, कारखाने, शिक्षा संस्थान, अस्पताल आदि में लघु जल-मल निस्तारण केंद्र हो। पूरे शहर के लिए एक वृहद जल-नल केंद्र मँहगा, जटिल तथा अव्यवहार्य है जबकि लघु ईकाइयां कम देखरेख में सुविधा से संचालित होने के साथ स्थानीय रोजगार भी सृजित करेंगी। इनके द्वारा उपचारित जल नदियों में छोड़ना सुरक्षित होगा।
७. एक राज्यों में बहने वाली नदियों पर विकास योजना केंद्र सरकार की देख-रेख और बजट से हो जबकि एक राज्य की सीमा में बह रही नदियों की योजनों की देखरेख और बजट राज्य सरकारें देखें।जिन स्थानों पर निवासी २५ प्रतिशत जन सहयोग दान करें उन्हें प्राथमिकता दी जाए। हिस्सों में स्थानीय जनों ने बाँध बनाकर या पहाड़ खोदकर बिना सरकारी सहायता के अपनी समस्या का निदान खोज लिया है और इनसे लगाव के कारण वे इनकी रक्षा व मरम्मत भी खुद करते है जबकि सरकारी मदद से बनी योजनाओं को आम जन ही लगाव न होने से हानि पहुंचाते हैं। इसलिए श्रमदान अवश्य हो। ७० के दशक में सरकारी विकास योजनाओं पर ५० प्रतिशत श्रमदान की शर्त थी, जो क्रमशः काम कर शून्य कर दी गयी तो आमजन लगाव ख़त्म हो जाने के कारण सामग्री की चोरी करने लगे और कमीशन माँगा जाने लगा।श्रमदान करनेवालों को रोजगार मिलेगा।
८. नर्मदा में गुजरात से जबलपुर तक, गंगा में बंगाल से हरिद्वार तक तथा राजस्थान, महाकौशल, बुंदेलखंड और बघेलखण्ड में छोटी नदियों से जल यातायात होने पर इन पिछड़े क्षेत्रों का कायाकल्प हो जाएगा।
९. इससे भूजल स्तर बढ़ेगा और सदियों के लिए पेय जल की समस्या हल हो जाएगी।भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ेगी।
कृपया, इन बिन्दुओं पर गंभीरतापूर्वक विचारण कर, क्रियान्वयन की दिशा में कदम उठाये जाने हेतु निवेदन है।
संजीव वर्मा
एक नागरिक
२८-६-२०१४

रविवार, 22 दिसंबर 2024

आंकिक मुहावरे, मुहावरों में अंक, अमलतास

दोहे अमलतास के 

गोल्डन शॉवर सुवर्णक, व्याधिघात कृतमाल।
कर्णिकार परजिंग स्टिक, आरग्वध तरुपाल।। 

*
राजवृक्ष शम्पाक तरु, चतुरङ्गुल परिव्याध।   
व्याधिघात स्वर्णांग शुभ, आरेवत हर व्याध।।   
*
कावानी कनियार सह, है कैसिया सुनाम। 
द्रुमोत्पल सोनाली भी, औषध आए काम।।  
*
बंदरलाठी करंगल, सोनाली अनमोल। 
पर्ण फूल फल छल जड़, रग हरे बिन मोल।। 
*
टक धूप सह खिल रहा, अमलतास है धन्य।
गही पलाशी विरासत, सुमन न ऐसा अन्य।।
*
कनकाभित सौंदर्यमय, अमलतास शुभ भव्य।
कली-पुष्प पीताभ लख, करिए कविता नव्य।।
*
अमलतास हँसता रहा, अंतर का दुःख भूल.
जो बीता अप्रिय लगा, उस पर डालो धूल..
*

राष्ट्रीय गणित दिवस पर आंकिक मुहावरे
मुहावरा मूलत: अरबी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है बातचीत करना या उत्तर देना। मुहावरे वे  शाब्दिक अभिव्यक्तियाँ हैं जो आम जनों के मुँह से बहुधा विशिष्ट अर्थ में कही जाती हैं। जब किसी शब्द या शब्द-समूह का सामान्य अर्थ में प्रयोग होता है, तब वहाँ उसकी अभिधा शक्ति होती है। लक्षण आधारित अभिव्यक्तियाँ लक्षणा शक्ति का प्रयोग करती हैं। व्यंग्यपार्क अभिव्यक्तियाँ व्यंजना शक्ति प्रेरित होती हैं। मुहावरों में सादृश्य, विरोध अथवा स्मृति अंतर्निहित होते हैं, मुहावरों में अलंकार लालित्य वृद्धि करते हैं। मुहावरों में मिथकों, प्रतीकों, परंपराओं आदि का प्रयोग उन्हें लोकप्रिय बनाता है।  
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औने पौने करना - मूल्य कम आँकना 
एक अनार सौ बीमार - वस्तु कम और चाहने वाले अधिक
एक और एक ग्यारह होना - एकता में शक्ति होना
एक आँख न भाना - अच्छा न लगना 
एक आँख से देखना - प्रत्येक के साथ समान व्यवहार करना
एक एक कौड़ी का हिसाब लेना - बहुत बारीकी करना 
एक के दस बनाना - झूठी बातें मिलाना, अतिशयोक्ति 
एक पंथ दो काज - एक कार्य करते समय दूसरा कार्य हो जाना 
एक प्राण दो शरीर - घनिष्ठ मित्र
एक म्यान दो तलवार - एक स्थान के दो दावेदार 
एक दिन की बादशाहत - क्षणिक सुख 
एक लाठी से हाँकना - यथोचित सम्मान न देना 
एक हाथ से ताली न बजना - किसी एक की गलती न होना 
एक एक ग्यारह होना - एकता में शक्ति 
एक टाँग पर खड़े होना - हमेशा तत्पर रहना 
आकाश पाताल एक करना - अत्यधिक प्रयत्न करना / बहुत परिश्रम करना
खून पसीना एक करना - अत्यधिक परिश्रम करना
दिन-रात एक करना - कठिन परिश्रम करना
डेढ़ चावल की खिचड़ी पकाना - मिलकर कार्य न करना, सबसे अलग रहना
दिन दूनी रात चौगुनी - बहुत तेज गति से 
दूज का चाँद होना- बहुत दिनों बाद दिखना 
दो गज लंबी जुबान होना - अधिक और निरर्थक बात करना 
दो जिस्म एक जान - अंतरंग, आत्मीय, अत्यधिक निकट  
दो-दो चार करना - जोड़ना  
दो और दो पाँच करना - गलत बात कहना 
दो कौड़ी का होना - मूल्यहीन होना 
दो टूक बात कहना - साफ कहना / स्पष्ट बात करना
दो दिन का मेहमान - शीघ्र मरने वाला
दो दो हाथ करना - लड़ना, टकराना 
दो नावों पर पैर रखना - दो विरोधी कार्य एक साथ करना
दिन दूना रात चौगुना होना - अत्यधिक प्रगति होना 
टके के तीन - बहुत सस्ता, मूल्यहीन 
तीन पाँच करना / तिया-पाँचा करना -  
तीन तिगाड़ा काम बिगाड़ा -  अधिक लोगों में उत्तरदायित्व का अभाव 
तीन तिलंगे - तीन मित्रों का समूह  
तीन - तेरह करना - तितर - बितर करना / इधर - उधर फैला देना
न तीन में न तेरह में - असंबद्ध, महत्वहीन 
ढाक के तीन पात - ज्यों का त्यों रहना 
कौड़ी के तीन होना - बहुत सस्ता होना / बेकदर होना
चार चाँद लगाना - प्रतिष्ठा बढ़ाना / मान बढ़ाना / शोभा बढ़ाना
चार दिन की चाँदनी, फिर अँधियारी रात - थोड़े दिन का सुख फिर दुख 
चार बुलाए चौदह आए - बिन बुलाए मेहमान 
चार सौ बीसी करना - छल-कपट या धोखा करना
चारों खाने चित गिरना - पूरी तरह से पस्त होना
चांडाल चौकड़ी - उद्दंड जनों का समूह 
आँखें चार होना - प्रेम होना
चार चाँद लगना - शोभा बढ़ना 
चार दिन की चाँदनी - कुछ दिन का सुख 
चार पैसे आना - आजीविका चलना, आय होना 
चारों खाने चित करना - पराजित करना 
चारों खाने चित्त होना - हारना 
नजरें चार होना - आँखें मिलना, आमने-सामने होना 
पाँचों उँगलिया घी में होना - खूब सुख-आनंद की स्थिति होना
पाँचों उँगलियाँ बराबर न होना- भिन्नता होना 
छठी का दूध याद आना - बहुत घबरा जाना / बुरा हाल होना
छठी का दूध याद दिलाना - औकात दिखाना 
दिमाग सातवें आसमान पर होना - बहुत अधिक घमंड होना
सात परदों में/के पीछे - गोपनीय 
आठों पहर की चिंता - बहुत फिक्र करना 
न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी - न साधन होंगे, न काम होगा 
नौ दिन चले अढ़ाई कोस - आलसी हीना, मंद गति से काम करना 
नौ दो ग्यारह होना - भाग जाना या पलायन कर जाना
नौ नक़द न तेरह उधार - कम मिलना अधिक मिलने के वायदे से बेहतर 
पौ बारह होना - अत्यधिक लाभ होना
बारह बजना - संकट आना, दिमाग खराब होना  
चौदहवीं का चाँद होना - बहुत दिनों बाद दिखना 
सोलह आने सही होना - शत प्रतिशत या पूरी तरह ठीक होना 
उन्नीस बीस का अंतर होना - बहुत थोड़ा अंतर होना
बत्तीसी दिखाना - उपहास करना 
छत्तीस का आँकड़ा - आपस में अनबन रहना या किसी से ना बनाना
तिरेसठ होना - एक दूसरे के अनुकूल होना 
निन्यानवें के फेर में पड़ना - धन जमा करने की चिंता में रहना
सौ सुनार की एक लुहार की - कई कमजोरों पर एक बलवान की जीत  
चार सौ बीस - धोखेबाज 
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बुधवार, 18 दिसंबर 2024

दिसंबर १८, नवगीत, पेशावर, लघुकथा, सरायकी हाइकु, सरस्वती, बृज, सॉनेट, चित्रगुप्त, अमलतास

सलिल सृजन दिसंबर १८
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दोहे अमलतास के 
चटक धूप सह खिल रहा, अमलतास है धन्य। 
गही पलाशी विरासत, सुमन न ऐसा अन्य।। 
कनकाभित सौंदर्यमय, अमलतास शुभ भव्य। 
कली-पुष्प पीताभ लख, करिए कविता नव्य।। 
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रोग अनेक औषधि एक : अमलतास
अमलतास का पेड़ प्रायः सड़कों के किनारे या बाग-बगीचे में दिखते हैं। पहाड़ियों पर इसके पीले-सुनहरे मालाकार मनमोहक फूल सौंदर्य वृद्ध करते हैं। इन फूलों को गृह-सज्जा हेतु भी प्रयोग किया जाता है। अमलतास एक औषधी भी है। मार्च-अप्रैल में वृक्षों की पत्तियां झड़ने के बाद नई पत्तियाँ और पीले फूलों के बाद लम्बी गोल और नुकीली फली लगती है जो वर्ष भर लटकी रहती है।

सेजैलपिनिएसी (Caesalpiniaceae) कुल के अमलतास का वानस्पतिक नाम कैसिया फिस्टुला (Cassia fistula L., Syn-Cassia rhombifolia Roxb., Cassia excelsa Kunth.) है, इसे हिंदी में अमलतास, सोनहाली, सियरलाठी, अंग्रेजी में कैसिया (Cassia), गोल्डन शॉवर (Golden shower), इण्डियन लेबरनम (Indian laburnum), परजिंग स्टिक (Purging stick), पॅरजिंग कैसिया (Purging cassia), संस्कृत मेंआरग्वध, राजवृक्ष, शम्पाक, चतुरङ्गुल, आरेवत, व्याधिघात, कृतमाल, सुवर्णक, कर्णिकार, परिव्याध, द्रुमोत्पल, दीर्घफल, स्वर्णाङ्ग, स्वर्णफल, ओड़िया में सुनारी, असमी में सोनारू, कन्नड में कक्केमरा, गुजराती में, गर्मालो, तमिल में कोन्डरो (Kondro), कावानी (Kavani), सरकोन्नै (Sarakonnai), कोरैकाय (Karaikaya), तेलुगु मेंआरग्वधामु (Aragvadhamu), सम्पकमु (Sampakamu), बांग्ला में सोनाली (Sonali), सोनूलु (Sonulu), बन्दरलाठी (Bandarlati), अमुलतास (Amultas), पंजाबी में अमलतास (Amaltas), करङ्गल (Karangal), कनियार (Kaniar), मराठी में बाहवा (Bahawa), मलयालम में कणिकोन्ना (Kanikkonna), अरेबिक में खियार-शन्बर (Khiyar-shanbar), फारसी में ख्यार-शन्बर (Khyar-shanbar) कहा जाता है।

अमलतास के फायदे और उपयोग 

बुखार- अमलतास फल फली का गूदा (मज्जा), पिप्पली की जड़, हरीतकी, कुटकी एवं मोथा बराबर मात्रा में लेकर काढ़ा बनाकर पिएँ। 

फुंसी और छाले- अमलतास के पत्ते  गाय के दूध के साथ पीसकर लेप करने से नवजात शिशु की फुंसी या छाले दूर हो जाते हैं।
नाक की फुंसी- अमलतास ट्री के पत्तों और छाल को पीसकर नाक की फुन्सियों पर लगाएँ। इससे फुन्सियां ठीक हो जाती हैं। 

मुँह के छाले- अमलतास के फल का मज्जा धनिया के साथ पीसकर थोड़ा कत्था मिलाकर अथवा अमलतास का गूदा चूसें।  

घाव सुखाना- अमलतास, चमेली तथा करंज के पत्तों को गाय के मूत्र से पीसकर घाव पर लेप करें, पुराना से पुराना घाव ठीक हो जाता है।
अमलतास के पत्तों को दूध में पीसकर घाव पर लगाएँ, तुरंत फायदा होता है।
शरीर की जलन- अमलतास की १०-१५ ग्राम जड़ या छाल दूध में उबाल-पीसकर लेप करने से शरीर की जलन ठीक हो जाती है।
कंठ रोग- अमलतास की जड़ चावल के पानी के साथ पीसकर सुंघाने और लेप करने से कंठ के रोगों में लाभ होता है।
टॉन्सिल- टान्सिल बढ़ने पर अमलतास का पानी पीने में आराम मिलता है। टान्सिल के दर्द में १० ग्राम अमलतास जड़ या छाल थोड़े जल में पकाकर बूँद-बूँद मुँह में डालते रहने से आराम होता है।
खाँसी- अमलतास की ५-१० ग्राम गिरी पानी में घोटेंकरउसमें तीन गुना चीनी का बूरा डाल लें। इसे गाढ़ी चाशनी बनाकर चटाने से सूखी खांसी ठीक होती है।
अमलतास फल मज्जा को पिप्पली की जड़, हरीतकी, कुटकी एवं मोथा के साथ बराबर भाग में मिलाकर पिएँ, कफ कम होता है।
अमलतास फल गूदा के काढ़ा में 
५-१० ग्राम इमली का गूदा मिलाकर सुबह-शाम पिएँ। यदि रोगी में कफ की अधिकता हो तो इसमें थोड़ा निशोथ का चूर्ण मिलाकर पिलाने से विशेष लाभ होता है।

दमा (श्वसनतंत्र विकार)- अमलतास के  गूदे का काढ़ा पिलाने से सांसों की बीमारी में लाभ होता है।
आँत-रोग- )चार वर्ष से लेकर बारह वर्ष तक के बच्चे के शरीर में जलन हो रही हो, या वह आँतों की बीमारी से परेशान है तो उसे अमलतास फल की मज्जा २-४ नग मुनक्का के साथ दें। अमलतास के फूलों का गुलकंद बनाकर सेवन करने से भी आँत के विकारों में लाभ होता है।
पेट-रोग-  अमलतास के २-३ पत्तों में नमक और मिर्च मिला लें। इसे खाने से पेट साफ होता है। अमलतास फल का लगभग १० ग्राम गूदा रात में ५०० मि.ली. पानी में भिगो दें। इसे सुबह मसलकर छानकर पीने से पेट साफ हो जाता है। अमलतास फल की मज्जा पीसकर नाभि के चारों ओर लेप करें। इससे पेट के दर्द से आराम मिलता है।
पाचनतंत्र विकार-  अमलतास फल मज्जा, पिप्पली की जड़, हरीतकी, कुटकी एवं मोथा को बराबर मात्रा में लें। इसका काढ़ा बनाकर पिएँ। इससे पाचनतंत्र संबंधी विकार ठीक होते हैं, भूख बढ़ती है।
कब्ज- अमलतास के फूलों का गुलकंद बनाकर सेवन कराने से कब्ज में लाभ होता है। १५-२० ग्राम अमलतास फल का गूदा मुनक्का के रस के साथ सेवन करने से कब्ज ठीक हो जाता है।अमलतास के कच्चे फलों के चूर्ण में चौथाई भाग सेंधा नमक तथा नींबू का रस मिलाकर सेवन करने से कब्ज में फायदा होता है।
बवासीर- अमलतास, चमेली तथा करंज के पत्तों को गाय के मूत्र के साथ पीसकर बवासीर के मस्से पर लेप करें। 

पीलिया- अमलतास के फल का गूदा, गन्ना/भूमि कूष्मांड या आँवले का रस दिन में दो बार देने से पीलिया रोग में लाभ होता है।
डायबिटीज- १० ग्राम अमलतास के पत्तों को ४०० मिली पानी में पकाएँ, काढ़ा एक चौथाई रह जाए तो इसका सेवन करें। 

हाइड्रोसील (अण्डकोष वृद्धि)- १५ ग्राम अमलतास फल का गूदा,  १००  मिली पानी में उबालें। जब पानी २५ मिली शेष रह जाए तो उसमें गाय का घी मिलाकर पिएँ। इससे अण्डकोष (हाइड्रोसील) के बढ़ने की परेशानी में लाभ होता है।
गठिया/जोड़ दर्द- अमलतास की १०  ग्राम अमलतास की जड़ २५० मि.ली. दूध में उबालें। इसे देने से गठिया में लाभ होता है। अमलतास के १०-१५ पत्तों को गर्म करके उनकी पट्टी बाँधने से गठिया में फायदा होता है। सरसों के तेल में पकाए हुए अमलतास के पत्तों को शाम के भोजन में सेवन करें। इससे आम का पाचन होता है और आमवात में लाभ होता है। जोड़ों के दर्द में अमलतास फल के गूदा और पत्तों का लेप करें। इससे आराम मिलता है।
चेहरे का लकवा- अमलतास के १०-१५ पत्तों को गर्म करके उनकी पट्टी बाँधने से चेहरे के लकवा रोग में लाभ होता है। अमलतास के पत्ते के रस पिलाने से भी चेहरे के लकवे की बीमारी ठीक हो जाती है।
कुष्ठ रोग- अमलतास के पत्ते/जड़ को पीसकर लेप करने से कुष्ठ रोग में लाभ होता है। इससे दाद या खुजली जैसे चर्म रोगों में भी लाभ होता है।
अमलतास की पत्तियों तथा कुटज की छाल का काढ़ा बना लें। इसे स्नान, सेवन, लेप आदि करने से कुष्ठ रोग में लाभ होता है।
त्वचा रोग- अमलतास, मकोय तथा कनेर के पत्तों को छाछ से पीस लें। इसके बाद शरीर पर सरसों के तेल से मालिश करें, फिर लेप को प्रभावित अंगों पर लेप करें। कांजी से पत्तों को पीसकर लेप करने से भी त्वचा रोग जैसे कुष्ठ रोग, दाद, खुजली आदि में लाभ होता है।
विसर्प रोग (हरपीस )- अमलतास के पत्तों तथा श्लेष्मातक की छाल का लेप बना कर लगाएँ। अमलतास के ८-१० पत्तों को पीसकर घी में मिला लें। इसका लेप करने से भी विसर्प रोग में लाभ होता है।
रक्तपित्त (हेमोटाईसिस)- शरीर के अंगों जैसे नाक, कान आदि से खून के बहने पर अमलतास का प्रयोग करना लाभ देता है। २५-५० ग्राम अमलतास फल के गूदा में २० ग्राम मधु और शर्करा मिला लें। इसे सुबह और शाम देने से नाक-कान से खून का बहना रुक जाता है।
रक्तवाहिका विकार( Peripheral vascular Disease)- रक्तवाहिकाओं की परेशानी में अमलतास के पत्ते को पानी और तेल में पकाएं। इसका सेवन करें। इससे रक्तवाहिकाओं से जुड़ी परेशानियों में लाभ होता है।
गर्भवती स्त्रियां शरीर के स्ट्रेच मार्क्स- अमलतास के पत्तों को दूध में पीस लें। इसे गर्भवती स्त्रियों के शरीर पर होने वाली धारियों पर लगाएं। इससे तुरंत फायदा होता है।
पित्तज विकार- अमलतास के फल के गूदा के काढ़ा में ५-१० ग्राम इमली का गूदा मिलाकर सुबह और शाम पिएँ। कफ की अधिकता हो तो थोड़ा निशोथ- चूर्ण मिलाकर पिएँ। अमलतास फल के गूदा का काढ़ा बनाकर या अमलतास फल का गूदा  दूध में पकाकर पिएँ। 
अमलतास फल के गूदा और एलोवेरा के गूदे को जल के साथ घोट लें। इसका मोदक बना लें। इसे रात में सेवन करें। इससे पित्त के विकारों में फायदा होता है। इसके लिए जल के स्थान पर गुलाबजल का प्रयोग भी किया जा सकता है।
लाल निशोथ के काढ़ा के साथ अमलतास के फल का गूदा का पेस्ट मिला लें। इसके अलावा बेल के काढ़ा के साथ अमलतास के गूदा का पेस्ट, नमक एवं मधु मिला सकते हैं। इसे १०-२० मिली मात्रा में पीने से पित्तज विकार ठीक होता है।
वात विकार- अमलतास फल का गूदा, पिप्पली की जड़, हरीतकी, कुटकी एवं मोथा  बराबर मात्रा में मिलाकर काढ़ा बनाकर पिएँ। 
बिवाई (एड़िया फटना)- अमलतास के पत्ते का पेस्ट बनाकर एड़ियों पर लगाएँ। इससे एड़ी के फटने (बिवाई रोग) में लाभ होता है।

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सॉनेट
श्वास-श्वास मोगरे सी महके,
गुल गुलाब मन मुदित मदिर हो,
तरुणे तन पंक में कमल हो,
अगिन आस अमलतास दहके।
चारु चाह चंपई चपल हो,
कामना कनेर की कसक हो,
राह तके रातरानी रह के।
बरगदी संकल्प जड़ जमाए,
नीम तले चढ़-उतर गिलहरी,
सिर नवाए सींच-पूज तुलसी।
सूर्य रश्मि तोम तम मिटाए,
गौरैया संग मिल टिटहरी,
चहके लख प्रीति बेल हुलसी।
१८-८-२०२३
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सॉनेट
चित्रगुप्त
*
काया-स्थित ईश का चित्र गुप्त है मीत
अंश बसा हर जीव में आत्मा कर संजीव
चित्र-मूर्ति के बिना हम पूजा करते रीत
ध्यान करें आभास हो वह है करुणासींव
जिसका जैसा कर्म हो; वैसा दे परिणाम
सबल-बली; निर्धन-धनी सब हैं एक समान
जो उसको ध्याए, बनें उसके सारे काम
सही-गलत खुद जाँचिए; घटे न किंचित आन
व्रत पूजा या चढ़ावा; पा हो नहीं प्रसन्न
दंड गलत पाए; सही पुरस्कार का पात्र
जो न भेंट लाए; नहीं वह पछताए विपन्न
अवसर पाने के लिए साध्य योग्यता मात्र
आत्म-शुद्धि हित पूजिए, जाग्रत रखें विवेक
चित्रगुप्त होंगे सदय; काम करें यदि नेक
***
सॉनेट
सौदागर
*
भास्कर नित्य प्रकाश लुटाता, पंछी गाते गीत मधुर।
उषा जगा, धरा दे आँचल, गगन छाँह देता बिन मोल।
साथ हमेशा रहें दिशाएँ, पवन न दूर रहे पल भर।।
प्रक्षालन अभिषेक आचमन, करें सलिल मौन रस घोल।।
ज्ञान-कर्म इंद्रियाँ न तुझसे, तोल-मोल कुछ करतीं रे।
ममता, लाड़, आस्था, निष्ठा, मानवता का दाम नहीं।
ईश कृपा बिन माँगे सब पर, पल-पल रही बरसती रे।।
संवेदन, अनुभूति, समझ का, बाजारों में काम नहीं।।
क्षुधा-पिपासा हो जब जितनी, पशु-पक्षी उतना खाते।
कर क्रय-विक्रय कभी नहीं वे, सजवाते बाजार हैं।
शीघ्र तृप्त हो शेष और के लिए छोड़कर सुख पाते।।
हम मानव नित बेच-खरीदें, खुद से ही आजार हैं।।
पूछ रहा है ऊपर बैठे, ब्रह्मा नटवर अरु नटनागर।
शारद-रमा-उमा क्यों मानव!, शप्त हुआ बन सौदागर।।
१८-१२-२०२१
***

***
एक दोहा
रौंद रहे कलियों को माली,
गईँ बहारें रूठ।
बगिया रेगिस्तान हो रहीं,
वृक्ष कर दिए ठूँठ।।
***
सरस्वती वंदना
बृज भाषा
*
सुरसती मैया की किरपा बिन, नैया पार करैगो कौन?
बीनाबादिनि के दरसन बिन, भव से कओ तरैगो कौन?
बेद-पुरान सास्त्र की मैया, महिमा तुमरी अपरंपार-
तुम बिन तुमरी संतानन की, बिपदा मातु हरैगो कौन?
*
धरा बरसैगी अमरित की, माँ सारद की जै कहियौ
नेह नरमदा बन जीवन भर, निर्मल हो कै नित बहियौ
किशन कन्हैया तन, मन राधा रास रचइयौ ग्वालन संग
बिना-मुरली बजा मोह जग, प्रेम गोपियन को गहियौ
***
सरायकी हाइकु
*
लिखीज वेंदे
तकदीर दा लेख
मिसीज वेंदे
*
चीक-पुकार
दिल पत्थर दा
पसीज वेंदे
*
रूप सलोना
मेडा होश-हवास
वजीज वेंदे
*
दिल तो दिल
दिल आख़िरकार
बसीज वेंदे
*
कहीं बी जाते
बस वेंदे कहीं बी
लड़ीज वेंदे
*
दिल दी माड़ी
जे ढे अपणै आप
उसारी वेसूं
*
सिर दा बोझ
तमाम धंधे धोके
उसारी वेसूं
*
साड़ी चादर
जितनी उतने पैर
पसारी वेसूं
*
तेरे रस्ते दे
कण्डये पलकें नाल
बुहारी वेसूं
*
रात अँधेरी
बूहे ते दीवा वाल
रखेसी कौन?
*
लिखेसी कौन
रेगिस्तान दे मत्थे
बारिश गीत?
*
खिड़दे हिन्
मौज बहारां फुल्ल
तैडे ख़ुशी दे
*
ज़िंदणी तो हां
पर मौत मिलदी
मंगण नाल
*
मैं सुकरात
कोइ मैं कूं पिलेसी
ज़हर वी न
*
तलवार दे
कत्ल कर दे रहे
नाल आदमी
*
बणेसी कौन
घुँघरू सारंगी तों
लोहे दे तार?
*
कौन करेंसी
नीर-खीर दा फर्क
हंस बगैर?
*
खून चुसेंदी
हे रखसाणी रात
जुल्मी सदियाँ
*
नवी रौशनी
डेखो दे चेहरे तों
घंड लहेसी
*
रब जाण दे
केझीं लाचारी हई?
कुछ न पुच्छो
*
आप छोड़ के
अपणे वतन कूं
रहेसी कौन?
*
खैर-खबर
जिन्हां यार ते पुछ
खुशकिस्मत
*
अलेसी कौन?
कबर दा पत्थर
मैं सुनसान
*
वंडेसी कौन?
वै दा दर्द जित्थां
अपणी पई
*
मरण बाद
याद करेसी कौन
दुनिया बिच?
*
झूठ-सच्च दे
कोइ न जाणे लगे
मुखौटे हिन्
१८-१२-२०१९
***
गीत
*
हम जो कहते
हम जो करते
वही ठीक है मानो
*
जंगल में जनतंत्र तभी
जब तंत्र बन सके राजा।
जन की जान रखे मुट्ठी में
पीट बजाये बाजा।
शिक्षालय हो या कार्यालय
कभी शीश मत तानो
*
लोकतंत्र में जान लोक की
तंत्र जब रुचे ले ले।
जन प्रतिनिधि ऐय्याश लोक की
इज्जत से हँस खेले।
मत विरोध कर रहो समर्पित
सेवा में सुख जानो
*
प्रजा तंत्र में प्रजा सराहे
किस्मत अन्न उगाये।
तंत्र कोठियों में भर बेचे
दो के बीस बनाये।
अफसरशाही की जय बोलो
उन्हें ईश पहचानो
*
गण पर चलती गन को पूजो
भव से तुम्हें उबारे।
धन्य झुपड़िया राजमार्ग हित
प्रभु यदि तोड़ उखाड़े।
फैक्ट्री तान सेठ जी कृषकों
तारें सुयश बखानो
१८-१२-२०१९
***
लघुकथा:
ठण्ड
*
बाप रे! ठण्ड तो हाड़ गलाए दे रही है। सूर्य देवता दिए की तरह दिख रहे हैं। कोहरा, बूँदाबाँदी, और बरछी की तरह चुभती ठंडी हवा, उस पर कोढ़ में खाज यह कि कार्यालय जाना भी जरूरी और काम निबटाकर लौटते-लौटते अब साँझ ढल कर रात हो चली है। सोचते हुए उसने मेट्रो से निकलकर घर की ओर कदम बढ़ाए। हवा का एक झोंका गरम कपड़ों को चीरकर झुरझुरी की अनुभूति करा गया।
तभी चलभाष की घंटी बजी, भुनभुनाते हुए उसने देखा, किसी अजनबी का क्रमांक दिखा। 'कम्बख्त न दिन देखते हैं न रात, फोन लगा लेते हैं' मन ही मन में सोचते हुए उसने अनिच्छा से सुनना आरंभ किया- "आप फलाने बोल रहे हैं?" उधर से पूछा गया।
'मेरा नंबर लगाया है तो मैं ही बोलूँगा न, आप कौन हैं?, क्या काम है?' बिना कुछ सोचे बोल गया। फिर आवाज पर ध्यान गया यह तो किसी महिला का स्वर है। अब कडुवा बोल जाना ख़राब लग रहा था पर तोप का गोला और मुँह का बोला वापिस तो लिया नहीं जा सकता।
"अभी मुखपोथी में आपकी लघुकथा पढ़ी, बहुत अच्छी लगी, उसमें आपका संपर्क मिला तो मन नहीं माना, आपको बधाई देना थी। आम तौर पर लघुकथाओं में नकली व्यथा-कथाएँ होती हैं पर आपकी लघुकथा विसंगति इंगित करने के साथ समन्वय और समाधान का संकेत भी करती है। यही उसे सार्थक बनाता है। शायद आपको असुविधा में डाल दिया... मुझे खेद है।"
'अरे नहीं नहीं, आपका स्वागत है.... ' दाएँ-बाएँ देखते हुए उसने सड़क पार कर गली की ओर कदम बढ़ाए। अब उसे नहीं चुभ रही थी ठण्ड।
१८-१२-२०१८
***
मुक्तक
जग उठ चल बढ़ गिर मत रुक
ठिठक-झिझिक मत, तू मत झुक।
उठ-उठ कर बढ़, मंजिल तक-
'सलिल' सतत चल, कभी न चुक।।
*
नियति का आशीष पाकर 'सलिल' बहता जा रहा है।
धरा मैया की कृपा पा गीत कलकल गा रहा है।।
अतृप्तों को तृप्ति देकर धन्य जीवन कर रहा है-
पातकों को तार कर यह नर्मदा कहला रहा है।।
*
दोहा
जब तक चंद्र प्रकाश दे, जब तक है आकाश।
तब तक उद्यम कर 'सलिल', किंचित हो न निराश।।
१८.१२.१८
***
नीलाकाश में
अनगिनत तारे
चंद्रमा एक.
१८.१२.२०१७
***
नवगीत
फ़िक्र मत करो
*
फ़िक्र मत करो
सब चलता है
*
सूरज डूबा उगते-उगते
क्षुब्ध उषा को ठगते-ठगते
अचल धरा हो चंचल धँसती
लुटी दुपहरी बचते-फँसते
सिंदूरी संध्या है श्यामा
रजनी को
चंदा छलता है
फ़िक्र मत करो
सब चलता है
*
गिरि-चट्टानें दरक रही हैं
उथली नदियाँ सिसक रही हैं
घायल पेड़-पत्तियाँ रोते
गुमसुम चिड़ियाँ हिचक रही हैं
पशु को खा
मानव पलता है
फ़िक्र मत करो
सब चलता है
*
मनमर्जी कानून हुआ है
विधि-नियमों का खून हुआ है
रीति-प्रथाएँ विवश बलात्कृत
तीन-पाँच दो दून हुआ है
हाथ तोड़ पग
कर मलता है
१८. १२. २०१५
***
नवगीत:
बस्ते घर से गए पर
लौट न पाये आज
बसने से पहले हुईं
नष्ट बस्तियाँ आज
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है दहशत का राज
नदी खून की बह गयी
लज्जा को भी लाज
इस वहशत से आ गयी
गया न लौटेगा कभी
किसको था अंदाज़?
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लिख पाती बंदूक
कब सुख का इतिहास?
थामें रहें उलूक
पा-देते हैं त्रास
रहा चरागों के तले
अन्धकार का राज
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ऊपरवाले! कर रहम
नफरत का अब नाश हो
दफ़्न करें आतंक हम
नष्ट घृणा का पाश हो
मज़हब कहता प्यार दे
ठुकरा तख्तो-ताज़
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***
नवगीत:
पेशावर के नरपिशाच
धिक्कार तुम्हें
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दिल के टुकड़ों से खेली खूनी होली
शर्मिंदा है शैतानों की भी टोली
बना न सकते हो मस्तिष्क एक भी तुम
मस्तिष्कों पर मारी क्यों तुमने गोली?
लानत जिसने भेज
किया लाचार तुम्हें
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दहशतगर्दों! जिसने पैदा किया तुम्हें
पाला-पोसा देखे थे सुख के सपने
सोचो तुमने क़र्ज़ कौन सा अदा किया
फ़र्ज़ निभाया क्यों न पूछते हैं अपने?
कहो खुदा को क्या जवाब दोगे जाकर
खला नहीं क्यों करना
अत्याचार तुम्हें?
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धिक्-धिक् तुमने भू की कोख लजाई है
पैगंबर मजहब रब की रुस्वाई है
राक्षस, दानव, असुर, नराधम से बदतर
तुमको जननेवाली माँ पछताई है
क्यों भाया है बोलो
हाहाकार तुम्हें?
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नवगीत:
मैं लड़ूँगा....
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लाख दागो गोलियाँ
सर छेद दो
मैं नहीं बस्ता तजूँगा।
गया विद्यालय
न वापिस लौट पाया
तो गए तुम जीत
यह किंचित न सोचो,
भोर होते ही उठाकर
फिर नये बस्ते हजारों
मैं बढूँगा।
मैं लड़ूँगा....
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खून की नदियाँ बहीं
उसमें नहा
हर्फ़-हिज्जे फिर पढ़ूँगा।
कसम रब की है
मदरसा हो न सूना
मैं रचूँगा गीत
मिलकर अमन बोओ।
भुला औलादें तुम्हारी
तुम्हें, मेरे साथ होंगी
मैं गढूँगा।
मैं लड़ूँगा....
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आसमां गर स्याह है
तो क्या हुआ?
हवा बनकर मैं बहूँगा।
दहशतों के
बादलों को उड़ा दूँगा
मैं बनूँगा सूर्य
तुम रण हार रोओ ।
वक़्त लिक्खेगा कहानी
फाड़ पत्थर मैं उगूँगा
मैं खिलूँगा।
मैं लड़ूँगा....
१८.१२.२०१४
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