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गुरुवार, 31 मार्च 2022

सॉनेट, भवानी, दोहा सतचरणी, हास्य, अरहंत, कविता

सॉनेट
भवानी
भोर भई आईं किरनें
मूँद न नैना जाग उठो।
टेर चिरैया मौन भई
धो मुँह मैया रे सपरो।।

आ पटियाँ दूँ पार जरा
लो गुड़ रोटी भोग लगा
छाछ पिओ जीरा बघरा
गौ बछड़े को रोट खिला।।

झाँक चिरैया टेर रही
जा कुछ दाने तो बिखरा
दे हमको छैंया अपनी
मातु भवानी आ अँगना।।

माँ न बिसारो, हो बिटिया
वास करो मोरे मन मां।।
३१-३-२०२२
•••
सॉनेट 
(लय सूत्र : जभभ गल)
जगा दिया तुमने झकझोर 
कहाँ चले सजना मुँह मोड़ 
चुरा लिया चित ही चितचोर।।
फिरा रहे अँखियाँ दिल तोड़।।

सुनो हुआ मन भाव विभोर।
गले मिलो, कर दो मत छोड़। 
छिपा रखी छवि श्याम अँजोर।।
नहीं किसी सँग है कुछ होड़।।

लुको-छिपो मत, छोड़ न डोर। 
छलो नहीं, छलिया रणछोड़। 
हरो सभी तम,  दो कर भोर।।
सदा रहे तुमसे गठजोड़।।

रहें बसी मन साथ किशोर। 
लली न भूल, न हीं मुँह मोड़।।
३१-३-२०२२२ 
 
दोहा सलिला
(अभिनव प्रयोग - सतचरणी दोहा)
छाया की काया नहीं, पर माया बेजोड़
हटे शीश से तब लगे, पाने खातिर होड़
किसी के हाथ न आती
उजाला सखा सँगाती
तिमिर को धता बताती
*
गुझिया खा मीना कहें, मी ना कोई और
सीख यही इतिहास की, तन्नक करिए गौर
परीक्षार्थी हों गुरु जब
परीक्षाफल नकली तब
देखते भौंचक हो सब
*
करता शोक अशोक नित, तमचर है आलोक
लछमीपति दर दर फिरे, जनपथ पर है रोक
विपक्षी मुक्त देश हो
तर्क कुछ नहीं शेष हो
प्रैस चारण विशेष हो
*
रंग उड़ गया देखकर, बीबी का मुख लाल
रंग जम गया जब मिली, साली लिए गुलाल
रँगे सरहज मूँ कारा
भई बिनकी पौ बारा
कि बोलो सा रा रा रा
*
उषा दुपहरी साँझ सँग, सूरज करता डेट
थक वसुधा को सुमिरता, रजनी शैया लेट
नमन फिर भी जग करता
न किंचित यह रवि डरता
किरण के संग विचरता
***
हास्य रचना
भोर भई शुभ, पड़ोसन हिला रही थी हाथ
देख मुदित मन हो गया, तना गर्व से माथ
तना गर्व से माथ, हिलाते हाथ रहे हम
घरवाली ने होली पर, था फोड़ दिया बम
निर्ममता से तोड़ दिल, बोल रही थी साँच
'तुम्हें नहीं वह हेरती, पोंछे खिड़की- काँच'
*
बुंदेली हास्य रचना:
उल्लू उवाच
*
मुतके दिन मा जब दिखो, हमखों उल्लू एक.
हमने पूछी: "कित हते बिलमे? बोलो नेंक"
बा बोलो: "मुतके इते करते रैत पढ़ाई.
दो रोटी दे नई सके, बो सिच्छा मन भाई.
बिन्सें ज्यादा बड़े हैं उल्लू जो लें क्लास.
इनसें सोई ज्यादा बड़े, धरें परिच्छा खास.
इनसें बड़े निकालते पेपर करते लीक.
औरई बड़े खरीदते कैते धंधा ठीक.
करें परीच्छा कैंसिल बिन्सें बड़े तपाक.
टीवी पे इनसें बड़े, बैठ भौंकते आप.
बिन्सें बड़े करा रए लीक काण्ड की जाँच.
फिर से लेंगे परिच्छा, और बड़े रए बाँच
इतने उल्लुन बीच में अपनी का औकात?
एई काजे लुके रए, जान बचाखें भ्रात.
३१-३-२०२१
***
एक रचना
*
अरिहंत
करते अंत
किसका?
अरि कौन?
अपना अहं?
संचय वृत्ति?
मोह-माया?
स्वार्थ?
इन्द्रियाँ?
जिन्होंने नहीं जीता
एक भी अरि,
वह कैसे अनुयायी हुआ
महावीर का?
सिर्फ इसलिए
कि उसने
जैन नामधारी
परिवार में जन्म लिया.
इन्द्रियों को
जीतकर भी,
अरिओं का
अंत करने के बाद भी
दूसरा नहीं हो सका जैन
क्योंकि उसके जनक
नहीं थे जैन.
कितना उचित
कौन करे परिभाषित?
३१-३-२०१८
***

बुधवार, 30 मार्च 2022

सॉनेट, चित्रगुप्त भजन,लघु कथा,तंत्रोक्त रात्रिसूक्त,पैरोडी,मुक्तिका,दोहा

सॉनेट
श्वेत-श्याम
(१६-१५ मात्रा)
जन्म श्वेत का हुआ श्याम से,
श्याम श्वेत का दे उपहार।
हैं अभिन्न पर भिन्न नाम से,
पल पल करते मिल उपकार।।

श्याम विष्णु शिव पूजे जाते,
श्वेत ब्रह्म को भूला लोक।
गोरेपन की क्रीम बने क्यों?
क्यों न लग रही इस पर रोक??

जो जैसा है उसको वैसा
क्यों न सके हैं हम स्वीकार?
बेहतर-कमतर कहें व्यर्थ ही
आमंत्रित करते खुद हार।।

शांति छोड़ करते क्यों युद्ध?
क्यों न शांति वर बनें प्रबुद्ध??
३०-३-२०२२
•••
सॉनेट
(मात्रा १६-१४)
नमन सभी को, सबका वंदन,
विश्व समूचा एक बने।
सब के माथे रोली-चंदन।।
प्रभु! न कहीं भी समर ठने।।

ममता समता सम्मुख सब नत।
प्रभुता हेतु हो न प्रयास।
मानव हो उजास हित नित रत।।
हर नयन में रहे उजास।।

सीमा भूल असीम हो सकें।
तजे मन निज-पर का भाव।
युद्ध त्याग कर शांति बो सकें।।
रवि-धरा सम करें निभाव।।

सबका मन से कर अभिनंदन।
 यह वसुधा हो नंदन वन।।
३०-३-२०२२
•••
चित्रगुप्त भजन सलिला:
*
१. शरणागत हम
शरणागत हम चित्रगुप्त प्रभु!
हाथ पसारे आये
*
अनहद; अक्षय; अजर; अमर हे!
अमित; अभय; अविजित; अविनाशी
निराकार-साकार तुम्ही हो
निर्गुण-सगुण देव आकाशी
पथ-पग; लक्ष्य-विजय-यश तुम हो
तुम मत-मतदाता-प्रत्याशी
तिमिर मिटाने अरुणागत हम
द्वार तिहारे आये
*
वर्ण; जात; भू; भाषा; सागर
अनिल;अनल; दिश; नभ; नद ; गागर
तांडवरत नटराज ब्रह्म तुम
तुम ही बृज रज के नटनागर
पैगंबर ईसा गुरु तुम ही
तारो अंश सृष्टि हे भास्वर!
आत्म जगा दो; चरणागत हम
झलक निहारें आये
*
आदि-अंत; क्षय-क्षर विहीन हे!
असि-मसि-कलम-तूलिका हो तुम
गैर न कोई सब अपने हैं
काया में हैं आत्म सभी हम
जन्म-मरण; यश-अपयश चक्रित
छाया-माया; सुख-दुःख सम हो
द्वेष भुला दो; करुणाकर हे!
सुनो पुकारें आये
***
२. चित्रगुप्त का ध्यान धरे जो...
*
चित्रगुप्त का ध्यान धरे जो
भवसागर तर जाए रे...
*
जा एकांत भुवन में बैठे,
आसन भूमि बिछाए रे.
चिंता छोड़े, त्रिकुटि महल में
गुपचुप सुरति जमाए रे.
चित्रगुप्त का ध्यान धरे जो
निश-दिन धुनि रमाए रे...
*
रवि शशि तारे बिजली चमके,
देव तेज दरसाए रे.
कोटि भानु सम झिलमिल-झिलमिल-
गगन ज्योति दमकाए रे.
चित्रगुप्त का ध्यान धरे तो
मोह-जाल कट जाए रे.
*
धर्म-कर्म का बंध छुडाए,
मर्म समझ में आए रे.
घटे पूर्ण से पूर्ण, शेष रह-
पूर्ण, अपूर्ण भुलाए रे.
चित्रगुप्त का ध्यान धरे तो
चित्रगुप्त हो जाए रे...
*
३. समय महा बलवान...
*
समय महा बलवान
लगाये जड़-चेतन का भोग...
*
देव-दैत्य दोनों को मारा,
बाकी रहा न कोई पसारा.
पल में वह सब मिटा दिया जो-
बरसों में था सृजा-सँवारा.
कौन बताये घटा कहाँ-क्या?
कहाँ हुआ क्या योग?...
*
श्वास -आस की रास न छूटे,
मन के धन को कोई न लूटे.
शेष सभी टूटे जुड़ जाएं-
जुड़े न लेकिन दिल यदि टूटे.
फूटे भाग उसी के जिसको-
लगा भोग का रोग...
*
गुप्त चित्त में चित्र तुम्हारा,
कितना किसने उसे सँवारा?
समय बिगाड़े बना बनाया-
बिगड़ा 'सलिल' सुधार-सँवारा.
इसीलिये तो महाकाल के
सम्मुख है नत लोग...
*
४. प्रभु चित्रगुप्त नमस्कार...
*
प्रभु चित्रगुप्त! नमस्कार
बार-बार है...
*
कैसे रची है सृष्टि प्रभु!
कुछ बताइए.
आये कहाँ से?, जाएं कहाँ??
मत छिपाइए.
जो गूढ़ सच न जान सके-
वह दिखाइए.
सृष्टि का सकल रहस्य
प्रभु सुनाइए.
नष्ट कर ही दीजिए-
जो भी विकार है...
*
भाग्य हम सभी का प्रभु!
अब जगाइए.
जाई तम पर उजाले को
विधि! बनाइए.
कंकर को कर शंकर जगत में
हरि! पुजाइए.
अमिय सम विष पी सकें-
'हर' शक्ति लाइए.
चित्र सकल सृष्टि
गुप्त चित्रकार है...
३०-३-२०२१
***
लघु कथा
साधक की आत्मनिष्ठा
*
'बेटी! जल्दी आ, देख ये क्या खबर आ रही है?' सास की आवाज़ सुनते ही उसने दुधमुँहे बच्चे को उठाया और कमरे से बाहर निकलते हुए पूछा- 'क्या हुआ माँ जी?'
बैठक में पहुँची तो सभी को टकटकी लगाये समाचार सुनते-देखते पाया। दूरदर्शन पर दृष्टि पड़ी तो ठिठक कर रह गयी वह.... परदे पर भाई कह रहा था- "उस दिन दोस्तों की दबाव में कुछ ज्यादा ही पी गया था। घर लौट रहा था, रास्ते में एक लड़की दिखी अकेली। नशा सिर चढ़ा तो भले-बुरे का भेद ही मिट गया। मैं अपना दोष स्वीकारता हूँ। कानून जो भी सजा दगा, मुझे स्वीकार है। मुझे मालूम है कि मेरे माफी माँगने या सजा भोगने से उस निर्दोष लडकी तथा उसके परिवार के मन के घाव नहीं भरेंगे पर मेरी आत्म स्वीकृति से उन्हें सामाजिक प्रतिष्ठा मिल सकेगी। मैं शर्मिन्दा और कृतज्ञ हूँ अपनी उस बहन के प्रति जो मुझे राखी बाँधने आयी थी लेकिन तभी यह दुर्घटना घटने के कारण बिना राखी बाँधे अपने घर लौट गयी। उसने मुझे अपने मन में झाँकने के लिए मजबूर कर दिया। मैं उससे वादा करता हूँ कि अब ज़िंदगी में कभी कुछ ऐसा नहीं करूँगा कि उसे शर्मिन्दा होना पड़े। मुझे आत्मबोध कराने के लिए नमन करता हूँ उसे।" भाई ने हाथ जोड़े मानो वह सामने खड़ी हो।
दीवार पर लगे भगवान् के चित्र को निहारते हुए अनायास ही उसके हाथ जुड़ गए और वह बोल पडी 'प्रभु! कृपा करना, उसे सद्बुद्धि देना ताकि अडिग और जयी रहे उस साधक की आत्मनिष्ठा।
***
लघुकथा
काँच का प्याला
*
हमेशा सुरापान से रोकने के लिए तत्पर पत्नी को बोतल और प्याले के साथ बैठा देखकर वह चौंका। पत्नी ने दूसरा प्याला दिखाते हुए कहा 'आओ, तुम भी एक पैग ले लो।'
वह कुछ कहने को हुआ कि कमरे से बेटी की आवाज़ आयी 'माँ! मेरे और भाभी के लिए भी बना दे। '
'क्या तमाशा लगा रखा है तुम लोगों ने? दिमाग तो ठीक है न?' वह चिल्लाया।
'अभी तक तो ठीक नहीं था, इसीलिए तो डाँट और कभी-कभी मार भी खाती थी, अब ठीक हो गया है तो सब साथ बैठकर पियेंगे। मूड मत खराब करो, आ भी जाओ। ' पत्नी ने मनुहार के स्वर में कहा।
वह बोतल-प्याले समेत कर फेंकने को बढ़ा ही था कि लड़ैती नातिन लिपट गयी- 'नानू! मुझे भी दो न।'
उसके सब्र का बाँध टूट गया, नातिन को गले से लगाकर फूट पड़ा वह 'नहीं, अब कभी हाथ भी नहीं लगाऊँगा। तुम सब ऐसा मत करो। हे भगवान्! मुझे माफ़ करों' और लपककर बोतल घर के बाहर फेंक दी। उसकी आँखों से बह रहे पछतावे के आँसू समेटकर मुस्कुरा रहा था काँच का प्याला।
***
***
लघुकथा : एक दृष्टि
*
लघुकथा के ३ तत्व, १. क्षणिक घटना, २. संक्षिप्त कथन तथा ३.तीक्ष्ण प्रभाव हैं।
इनमें से कोई एक भी न हो या कमजोर हो तो लघुकथा प्रभावहीन होगी जो न होने के समान है।
घटना न हो तो लघुकथा का जन्म ही न होगा, घटना हो पर उस पर कुछ कहा न जाए तो भी लघुकथा नहीं हो सकती, घटना घटित हो, कुछ लिखा भी जाए पर उसका कोई प्रभाव न हो तो लिखना - न लिखना बराबर हो जायेगा। घटना लंबी, जटिल, बहुआयामी, अनेक पात्रों से जुड़ी हो तो सबके साथ न्याय करने पर लघुकथा कहानी का रूप ले लेगी।
इन ३ तत्वों का प्रयोगकर एक अच्छी लघुकथा की रचना हेतु कुछ लक्षणों का होना आवश्यक है।
कुछ रचनाकार इन लक्षणों को तत्व कहते हैं। वस्तुत:, लक्षण उक्त ३ तत्वों के अंग रूप में उनमें समाहित होते हैं।
१. क्षणिक घटना - दैनन्दिन जीवन में सुबह से शाम तक अनेक प्रसंग घटते हैं। सब पर लघुकथा नहीं लिखी जा सकती। घटना-क्रम, दीर्घकालिक घटनाएँ, जटिल घटनाएँ, एक-दूसरे में गुँथी घटनाएँ लघुकथा लेखन की दृष्टि से अनुपयुक्त हैं। बादल में कौंधती बिजली जिस तरह एक पल में चमत्कृत या आतंकित कर जाती है, उसी तरह लघुकथा का प्रभाव होता है। क्षणिक घटना पर बिना सोचे-विचार त्वरित प्रतिक्रिया की तरह लघुकथा को स्वाभाविक होना चाहिए। लघुकथा सद्यस्नाता की तरह ताजगी की अनुभूति कराती है, ब्यूटी पार्लर से सज्जित सौंदर्य जैसी कृत्रिमता की नहीं। सावधानी हटी, दुर्घटना घटी की तर्ज़ पर कहा जा सकता है घटना घटी, लघुकथा हुई। लघुकथा के उपयुक्त कथानक व कथ्य वही हो सकता है जो क्षणिक घटना के रूप में सामने आया हो।
२. संक्षिप्त कथन - किसी क्षण विशेष अथवा अल्प समयावधि में घटित घटना-प्रसंग के भी कई पहलू हो सकते हैं। लघुकथा घटना के सामाजिक कारणों, मानसिक उद्वेगों, राजनैतिक परिणामों या आर्थिक संभावनाओं का विश्लेषण करे तो वह उपन्यास का रूप ले लेगी। उपन्यास और कहानी से इतर लघुकथा सूक्ष्मतम और संक्षिप्तम आकार का चयन करती है। वह गुलाबजल नहीं, इत्र की तरह होती है। इसीलिए लघुकथा में पात्रों का चरित्र-चित्रण, कथोपकथन आदि नहीं होता। 'कम में अधिक' कहने के लिए संवाद, आत्मालाप, वर्णन, उद्धरण, मिथक, पूर्व कथा, चरित्र आदि जो भी सहायक हो उसका उपयोग किया जाना चाहिए। उद्देश्य कम से कम कलेवर में कथ्य को प्रभावी रूप से सामने लाना है।
शिल्प, मारक वाक्य (पंच) हो-न हो अथवा कहाँ हो, संवाद हों न हों या कितने किसके द्वारा हों, भूमिका न हो, इकहरापन, सन्देश, चुटकुला न हो तथा भाषा-शैली आदि संक्षिप्त कथन के लक्षण हैं। इन सबकी सम्मिलित उपस्थिति अपरिहार्य नहीं है। कुछ हो भी सकते हैं, कुछ नहीं भी हो सकते हैं।
३.तीक्ष्ण प्रभाव- लघुकथा लेखन का उद्देश्य लक्ष्य पर प्रभाव छोड़ना है।
एक लघुकथा सुख, दुःख, हर्ष, शोक, हास्य, चिंता, विरोध आदि विविध मनोभावों में से किसी एक की अभिव्यक्त कर अधिक प्रभावी हो सकती है। एकाधिक मनोभावों को सामने लाने से लघुकथा का प्रभाव कम हो सकता है।
कुशल लघुकथाकार घटना के एक पक्ष पर सारगर्भित टिप्पणी की तरह एक मनोभाव को इस तरह उद्घाटित करता है कि पाठक / श्रोता आह य वाह कह उठे। चिंतन हेतु उद्वेलन, विसंगति पूर्ण क्षण विशेष, कालखण्ड दोष से मुक्ति आदि तीक्ष्ण प्रभाव हेतु सहायक लक्षण हैं। तीक्ष्ण प्रभाव सोद्देश्य हो निरुद्देश्य? यह विचारणीय है।
सामान्यत: बुद्धिजीवी मनुष्य कोई काम निरुद्देश्य नहीं करता। लघुकथा लेखन का उपक्रम सोद्देश्य होता है।
व्यक्त करने हेतु कुछ न हो तो कौन लिखेगा लघुकथा?
व्यक्त किये गए से कोई पाठक शिक्षा / संदेश ग्रहण करेगा या नहीं? यह सोचना लघुकथाकार काम नहीं है, न इस आधार पर लघुकथा का मूल्यांकन किया जाना उपयुक्त है।
*
***
ॐ तंत्रोक्त रात्रिसूक्त
*
II यह तंत्रोक्त रात्रिसूक्त है II
I ॐ ईश्वरी! धारक-पालक-नाशक जग की, मातु! नमन I
II हरि की अनुपम तेज स्वरूपा, शक्ति भगवती नींद नमन I१I
*
I ब्रम्हा बोले: 'स्वाहा-स्वधा, वषट्कार-स्वर भी हो तुम I
II तुम्हीं स्वधा-अक्षर-नित्या हो, त्रिधा अर्ध मात्रा हो तुम I२I
*
I तुम ही संध्या-सावित्री हो, देवी! परा जननि हो तुम I
II तुम्हीं विश्व को धारण करतीं, विश्व-सृष्टिकर्त्री हो तुम I३I
*
I तुम ही पालनकर्ता मैया!, जब कल्पांत बनातीं ग्रास I
I सृष्टि-स्थिति-संहार रूप रच-पाल-मिटातीं जग दे त्रास I४I
*
I तुम्हीं महा विद्या-माया हो, तुम्हीं महा मेधास्मृति हो I
II कल्प-अंत में रूप मिटा सब, जगन्मयी जगती तुम हो I५I
*
I महा मोह हो, महान देवी, महा ईश्वरी तुम ही हो I
II सबकी प्रकृति, तीन गुणों की रचनाकर्त्री भी तुम हो I६I
*
I काल रात्रि तुम, महा रात्रि तुम, दारुण मोह रात्रि तुम हो I
II तुम ही श्री हो, तुम ही ह्री हो, बोधस्वरूप बुद्धि तुम हो I७I
*
I तुम्हीं लाज हो, पुष्टि-तुष्टि हो, तुम ही शांति-क्षमा तुम हो I
II खड्ग-शूलधारी भयकारी, गदा-चक्रधारी तुम हो I८I
*
I तुम ही शंख, धनुष-शर धारी, परिघ-भुशुण्ड लिए तुम हो I
II सौम्य, सौम्यतर तुम्हीं सौम्यतम, परम सुंदरी तुम ही हो I९I
*
I अपरा-परा, परे सब से तुम, परम ईश्वरी तुम ही हो I
II किंचित कहीं वस्तु कोई, सत-असत अखिल आत्मा तुम होI१०I
*
I सर्जक-शक्ति सभी की हो तुम, कैसे तेरा वंदन हो ?
II रच-पालें, दे मिटा सृष्टि जो, सुला उन्हें देती तुम हो I११I
*
I हरि-हर,-मुझ को ग्रहण कराया, तन तुमने ही हे माता! I
II कर पाए वन्दना तुम्हारी, किसमें शक्ति बची माता!! I१२I
*
I अपने सत्कर्मों से पूजित, सर्व प्रशंसित हो माता!I
II मधु-कैटभ आसुर प्रवृत्ति को, मोहग्रस्त कर दो माता!!I१३II'
*
I जगदीश्वर हरि को जाग्रत कर, लघुता से अच्युत कर दो I
II बुद्धि सहित बल दे दो मैया!, मार सकें दुष्ट असुरों को I१४I
*
IIइति रात्रिसूक्त पूर्ण हुआII
***
ई मित्रता पर पैरोडी:
*
(बतर्ज़: अजीब दास्तां है ये,
कहाँ शुरू कहाँ ख़तम...)
*
हवाई दोस्ती है ये,
निभाई जाए किस तरह?
मिलें तो किस तरह मिलें-
मिली नहीं हो जब वज़ह?
हवाई दोस्ती है ये...
*
सवाल इससे कीजिए?
जवाब उससे लीजिए.
नहीं है जिनसे वास्ता-
उन्हीं पे आप रीझिए.
हवाई दोस्ती है ये...
*
जमीं से आसमां मिले,
कली बिना ही गुल खिले.
न जिसका अंत है कहीं-
शुरू हुए हैं सिलसिले.
हवाई दोस्ती है ये...
*
दुआ-सलाम कीजिए,
अनाम नाम लीजिए.
न पाइए न खोइए-
'सलिल' न न ख्वाब देखिए.
हवाई दोस्ती है ये...
३०-३-२०२०
***
दोहा
*
सुन पढ़ सीख समझ जिसे, लिखा साल-दर साल।
एक निमिष में पढ़ लिया?, सचमुच किया कमाल।।
३०-३-२०१९
***
मुक्तिका
*
कद छोटा परछाईं बड़ी है.
कैसी मुश्किल आई घड़ी है.
चोर कर रहे चौकीदारी
सचमच ही रुसवाई बड़ी है..
बीबी बैठी कोष सम्हाले
खाली हाथों माई खड़ी है..
खुद पर खर्च रहे हैं लाखों
भिक्षुक हेतु न पाई पड़ी है..
'सलिल' सांस-सरहद पर चुप्पी
मौत शीश पर आई-अड़ी है..
३०-३-२०१०
***

मंगलवार, 29 मार्च 2022

सॉनेट, कुण्डलिया, रात्रि सूक्त, दुर्गा पूजन, अलंकार पताका, हास्य, दोहे,सप्तश्लोकी दुर्गा




सॉनेट 
महीयसी 
• 
हिंदी सुता समर्पित सेवी। 
गद्य-पद्य लेखन निष्णाता। 
शारद कृपा प्राप्त महदेवी।। 
समय सतत यश कथा सुनाता।। 

शुभ्र वसन, निर्मल अंतर्मन। 
गौरवर्ण ज्यों शारद भू पर। 
शेष न किंचित कहीं कालिमा।। 
गरिमा मूर्तिमंत पद छूकर।। 

दीपशिखा प्रज्वलित अकंपित। 
तूफां-तिमिर नहीं टिक पाए। 
महाप्राण पा भगिनि अचंभित।। 

दिनकर पग छू, शीश नवाए।। 
पा प्रमुदित थी भव्य भारती। 
सुधि हर प्रेरक हमें तारती।। 
२९-३-२०२२
***
कार्यशाला : कुण्डलिया
*
अन्तर्मन से आ रही आज एक आवाज़।
सक्षम मानव आज का बने ग़रीबनिवाज़।। -रामदेव लाल 'विभोर'
बने गरीबनिवाज़, गैर के पोंछे आँसू।
खाए रोटी बाँट, बने हर निर्बल धाँसू।।
कोरोना से भीत, अकेला डरे न पुरजन।
धन बिन भूखा रहे, न कोई जग अंतर्मन।। - संजीव वर्मा 'सलिल'
***
।। अथ वेदोक्त रात्रि सूक्तं ।।
।। वेदोक्त रात्रि सूक्त।।
*
ॐ रात्री व्यख्यदायती पुरुत्रा देव्यक्षभि:। विश्र्वा अधिश्रियोधित ।१।
। ॐ रात्रि! विश्रांतिदायिनी जगत आश्रित। सब कर्मों को देखें, फल दें।१।
*
ओर्वप्रा अमर्त्या निवतो देव्युद्वत:। ज्योतिषा बाधते तम:।२।
।। देवी अमरा व्याप विश्व में, नष्ट करें अज्ञान तिमिर को ज्ञान ज्योति से ।२।
*
निरु स्वसारमस्कृतोषसं देव्येति। अपेदु हासते तम: ।३।
। पराशक्ति रूपा रजनी प्रगटा दें ऊषा, नष्ट अविद्या तिमिर स्वत्: हो। ३।
*
सा नो अद्य यस्या वयं नि ते यामन्नाविक्ष्महि। वृक्षे न वसतिं वय:।४।
।रात्रि देवी पधारें हों मुदित , सो सकें हम खग सदृश निज घोंसले में।४।
*
नि ग्रामासो अविक्षत नि पद्वन्तो नि पक्षिण:। नि श्येना सश्चिदर्थिन:।५।
। सोते सुख से ग्राम्य जन, पशु, जीव-जंतु,खग, रात्रि अंक में।५।
*
यावया वृक्यं वृकं यवय स्तेनमूर्म्ये। अथा न: सुतरा भव। ६।
।रात्रि देवी! पाप वृक वासना वृकी को, दूर कर सुखदायिनी हो।६।
*
उप मा पेपिशत्तम: कृष्णं व्यक्तमस्थित। उष ऋणेव् यातय। ७।
।घेरे अज्ञान तिमिर ज्ञान दे कर दूर, उषा! उऋण करतीं मुझे दे धन। ७।
*
उप ते गा इवाकरं वृणीष्व दुहितर्दिव:। रात्रि स्तोमं न जिग्युषे। ८।
। पयप्रदा गौ सदृश रजनी!, व्योमकन्या!! हविष्य ले लो।३।
***
श्री दुर्गा सप्तशती : पाठ- पूजन विधि
भुवनेश्वरी संहिता में कहा गया है- जिस प्रकार से ''वेद'' अनादि है, उसी प्रकार ''सप्तशती'' भी अनादि है। श्री व्यास जी द्वारा रचित महापुराणों में ''मार्कण्डेय पुराण'' के माध्यम से मानव मात्र के कल्याण के लिए इसकी रचना की गई है। जिस प्रकार योग का सर्वोत्तम ग्रंथ गीता है उसी प्रकार ''दुर्गा सप्तशती'' शक्ति उपासना का श्रेष्ठ ग्रंथ है | 'दुर्गा सप्तशती'के सात सौ श्लोकों को तीन भागों प्रथम चरित्र (महाकाली), मध्यम चरित्र (महालक्ष्मी) तथा उत्तम चरित्र (महा सरस्वती) में विभाजित किया गया है। प्रत्येक चरित्र में सात-सात देवियों का स्तोत्र में उल्लेख मिलता है प्रथम चरित्र में काली, तारा, छिन्नमस्ता, सुमुखी, भुवनेश्वरी, बाला, कुब्जा, द्वितीय चरित्र में लक्ष्मी, ललिता, काली, दुर्गा, गायत्री, अरुन्धती, सरस्वती तथा तृतीय चरित्र में ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, नारसिंही तथा चामुंडा (शिवा) इस प्रकार कुल २१ देवियों के महात्म्य व प्रयोग इन तीन चरित्रों में दिए गये हैं। नन्दा, शाकम्भरी, भीमा ये तीन सप्तशती पाठ की महाशक्तियां तथा दुर्गा, रक्तदन्तिका व भ्रामरी को सप्तशती स्तोत्र का बीज कहा गया है। तंत्र में शक्ति के तीन रूप प्रतिमा, यंत्र तथा बीजाक्षर माने गए हैं। शक्ति की साधना हेतु इन तीनों रूपों का पद्धति अनुसार समन्वय आवश्यक माना जाता है। सप्तशती के सात सौ श्लोकों को तेरह अध्यायों में बांटा गया है प्रथम चरित्र में केवल पहला अध्याय, मध्यम चरित्र में दूसरा, तीसरा व चौथा अध्याय तथा शेष सभी अध्याय उत्तम चरित्र में रखे गये हैं। प्रथम चरित्र में महाकाली का बीजाक्षर रूप ऊँ 'एं है। मध्यम चरित्र (महालक्ष्मी) का बीजाक्षर रूप 'हृी' तथा तीसरे उत्तम चरित्र महासरस्वती का बीजाक्षर रूप 'क्लीं' है। अन्य तांत्रिक साधनाओं में 'ऐं' मंत्र सरस्वती का, 'हृीं' महालक्ष्मी का तथा 'क्लीं' महाकाली बीज है। तीनों बीजाक्षर ऐं ह्रीं क्लीं किसी भी तंत्र साधना हेतु आवश्यक तथा आधार माने गये हैं। तंत्र मुखयतः वेदों से लिया गया है ऋग्वेद से शाक्त तंत्र, यजुर्वेद से शैव तंत्र तथा सामवेद से वैष्णव तंत्र का अविर्भाव हुआ है यह तीनों वेद तीनों महाशक्तियों के स्वरूप हैं तथा यह तीनों तंत्र देवियों के तीनों स्वरूप की अभिव्यक्ति हैं।
'दुर्गा सप्तशती' के सात सौ श्लोकों का प्रयोग विवरण इस प्रकार से है।
प्रयोगाणां तु नवति मारणे मोहनेऽत्र तु।
उच्चाटे सतम्भने वापि प्रयोगाणां शतद्वयम्॥
मध्यमेऽश चरित्रे स्यातृतीयेऽथ चरित्र के।
विद्धेषवश्ययोश्चात्र प्रयोगरिकृते मताः॥
एवं सप्तशत चात्र प्रयोगाः संप्त- कीर्तिताः॥
तत्मात्सप्तशतीत्मेव प्रोकं व्यासेन धीमता॥
अर्थात इस सप्तशती में मारण के नब्बे, मोहन के नब्बे, उच्चाटन के दो सौ, स्तंभन के दो सौ तथा वशीकरण और विद्वेषण के साठ प्रयोग दिए गये हैं। इस प्रकार यह कुल ७०० श्लोक ७०० प्रयोगों के समान माने गये हैं।
दुर्गा सप्तशती पाठ विधि-
नवार्ण मंत्र जप और सप्तशती न्यास के बाद तेरह अध्यायों का क्रमशः पाठ, प्राचीन काल में कीलक, कवच और अर्गला का पाठ भी सप्तशती के मूल मंत्रों के साथ ही किया जाता रहा है। आज इसमें अथर्वशीर्ष, कुंजिका मंत्र, वेदोक्त रात्रि देवी सूक्त आदि का पाठ भी समाहित है जिससे साधक एक घंटे में देवी पाठ करते हैं।
दुर्गा सप्तशती वाकार विधि :
यह विधि अत्यंत सरल मानी गयी है। इस विधि में प्रथम दिन एक पाठ प्रथम अध्याय, दूसरे दिन दो पाठ द्वितीय, तृतीय अध्याय, तीसरे दिन एक पाठ चतुर्थ अध्याय, चौथे दिन चार पाठ पंचम, षष्ठ, सप्तम व अष्टम अध्याय, पांचवें दिन दो अध्यायों का पाठ नवम, दशम अध्याय, छठे दिन ग्यारहवां अध्याय, सातवें दिन दो पाठ द्वादश एवं त्रयोदश अध्याय करके एक आवृति सप्तशती की होती है।
दुर्गा सप्तशती संपुट पाठ विधि :
किसी विशेष प्रयोजन हेतु विशेष मंत्र से एक बार ऊपर तथा एक नीचे बांधना उदाहरण हेतु संपुट मंत्र मूलमंत्र-१, संपुट मंत्र फिर मूलमंत्र अंत में पुनः संपुट मंत्र आदि इस विधि में समय अधिक लगता है।
दुर्गा सप्तशती सार्ध नवचण्डी विधि :
इस विधि में नौ ब्राह्मण साधारण विधि द्वारा पाठ करते हैं। एक ब्राह्मण सप्तशती का आधा पाठ करता है। (जिसका अर्थ है- एक से चार अध्याय का संपूर्ण पाठ, पांचवे अध्याय में ''देवा उचुः- नमो देव्ये महादेव्यै'' से आरंभ कर ऋषिरुवाच तक, एकादश अध्याय का नारायण स्तुति, बारहवां तथा तेरहवां अध्याय संपूर्ण) इस आधे पाठ को करने से ही संपूर्ण कार्य की पूर्णता मानी जाती है। एक अन्य ब्राह्मण द्वारा षडंग रुद्राष्टाध्यायी का पाठ किया जाता है। इस प्रकार कुल ग्यारह ब्राह्मणों द्वारा नवचण्डी विधि द्वारा सप्तशती का पाठ होता है। पाठ पश्चात् उत्तरांग करके अग्नि स्थापना कर पूर्णाहुति देते हुए हवन किया जाता है जिसमें नवग्रह समिधाओं से ग्रहयोग, सप्तशती के पूर्ण मंत्र, श्री सूक्त वाहन तथा शिवमंत्र 'सद्सूक्त का प्रयोग होता है जिसके बाद ब्राह्मण भोजन,' कुमारी का भोजन आदि किया जाता है। वाराही तंत्र में कहा गया है कि जो ''सार्धनवचण्डी'' प्रयोग को संपन्न करता है वह प्राणमुक्त होने तक भयमुक्त रहता है, राज्य, श्री व संपत्ति प्राप्त करता है।
दुर्गा सप्तशती शतचण्डी विधि :
मां की प्रसन्नता हेतु किसी भी दुर्गा मंदिर के समीप सुंदर मण्डप व हवन कुंड स्थापित करके (पश्चिम या मध्य भाग में) दस उत्तम ब्राह्मणों (योग्य) को बुलाकर उन सभी के द्वारा पृथक-पृथक मार्कण्डेय पुराणोक्त श्री दुर्गा सप्तशती का दस बार पाठ करवाएं। इसके अलावा प्रत्येक ब्राह्मण से एक-एक हजार नवार्ण मंत्र भी करवाने चाहिए। शक्ति संप्रदाय वाले शतचण्डी (१०८) पाठ विधि हेतु अष्टमी, नवमी, चतुर्दशी तथा पूर्णिमा का दिन शुभ मानते हैं। इस अनुष्ठान विधि में नौ कुमारियों का पूजन करना चाहिए जो दो से दस वर्ष तक की होनी चाहिए तथा इन कन्याओं को क्रमशः कुमारी, त्रिमूर्ति, कल्याणी, रोहिणी, कालिका, शाम्भवी, दुर्गा, चंडिका तथा मुद्रा नाम मंत्रों से पूजना चाहिए। इस कन्या पूजन में संपूर्ण मनोरथ सिद्धि हेतु ब्राह्मण कन्या, यश हेतु क्षत्रिय कन्या, धन के लिए वेश्य तथा पुत्र प्राप्ति हेतु शूद्र कन्या का पूजन करें। इन सभी कन्याओं का आवाहन प्रत्येक देवी का नाम लेकर यथा ''मैं मंत्राक्षरमयी लक्ष्मीरुपिणी, मातृरुपधारिणी तथा साक्षात् नव दुर्गा स्वरूपिणी कन्याओं का आवाहन करता हूं तथा प्रत्येक देवी को नमस्कार करता हूं।'' इस प्रकार से प्रार्थना करनी चाहिए। वेदी पर सर्वतोभद्र मण्डल बनाकर कलश स्थापना कर पूजन करें। शतचण्डी विधि अनुष्ठान में यंत्रस्थ कलश, श्री गणेश, नवग्रह, मातृका, वास्तु, सप्तऋषी, सप्तचिरंजीव, 64 योगिनी ५० क्षेत्रपाल तथा अन्याय देवताओं का वैदिक पूजन होता है। जिसके पश्चात् चार दिनों तक पूजा सहित पाठ करना चाहिए। पांचवें दिन हवन होता है।
इन सब विधियों (अनुष्ठानों) के अतिरिक्त प्रतिलोम विधि, कृष्ण विधि, चतुर्दशीविधि, अष्टमी विधि, सहस्त्रचण्डी विधि (१००८) पाठ, ददाति विधि, प्रतिगृहणाति विधि आदि अत्यंत गोपनीय विधियां भी हैं जिनसे साधक इच्छित वस्तुओं की प्राप्ति कर सकता है।
दुर्गा सप्तशती/ श्री दुर्गासप्तशती महायज्ञ / अनुष्ठान विधि
भगवती मां दुर्गाजी की प्रसन्नता के लिए जो अनुष्ठान किये जाते हैं उनमें दुर्गा सप्तशती का अनुष्ठान विशेष कल्याणकारी माना गया है। इस अनुष्ठान को ही शक्ति साधना भी कहा जाता है। शक्ति मानव के दैनन्दिन व्यावहारिक जीवन की आपदाओं का निवारण कर ज्ञान, बल, क्रिया शक्ति आदि प्रदान कर उसकी धर्म-अर्थ काममूलक इच्छाओं को पूर्ण करती है एवं अंत में आलौकिक परमानंद का अधिकारी बनाकर उसे मोक्ष प्रदान करती है। दुर्गा सप्तशती एक तांत्रिक पुस्तक होने का गौरव भी प्राप्त करती है। भगवती शक्ति एक होकर भी लोक कल्याण के लिए अनेक रूपों को धारण करती है। श्वेतांबर उपनिषद के अनुसार यही आद्या शक्ति त्रिशक्ति अर्थात महाकाली, महालक्ष्मी एवं महासरस्वती के रूप में प्रकट होती है। इस प्रकार पराशक्ति त्रिशक्ति, नवदुर्गा, दश महाविद्या और ऐसे ही अनंत नामों से परम पूज्य है। श्री दुर्गा सप्तशती नारायणावतार श्री व्यासजी द्वारा रचित महा पुराणों में मार्कण्डेयपुराण से ली गयी है। इसम सात सौ पद्यों का समावेश होने के कारण इसे सप्तशती का नाम दिया गया है। तंत्र शास्त्रों में इसका सर्वाधिक महत्व प्रतिपादित है और तांत्रिक प्रक्रियाओं का इसके पाठ में बहुधा उपयोग होता आया है। पूरे दुर्गा सप्तशती में ३६० शक्तियों का वर्णन है। इस पुस्तक में तेरह अध्याय हैं। शास्त्रों के अनुसार शक्ति पूजन के साथ भैरव पूजन भी अनिवार्य माना गया है। अतः अष्टोत्तरशतनाम रूप बटुक भैरव की नामावली का पाठ भी दुर्गासप्तशती के अंगों में जोड़ दिया जाता है। इसका प्रयोग तीन प्रकार से होता है।
[ १.] नवार्ण मंत्र के जप से पहले भैरवो भूतनाथश्च से प्रभविष्णुरितीवरितक या नमोऽत्त नामबली या भैरवजी के मूल मंत्र का १०८ बार जप।
[ २.] प्रत्येक चरित्र के आद्यान्त में पाठ।
[ ३.] प्रत्येक उवाचमंत्र के आस-पास संपुट देकर पाठ। नैवेद्य का प्रयोग अपनी कामनापूर्ति हेतु दैनिक पूजा में नित्य किया जा सकता है। यदि मां दुर्गाजी की प्रतिमा कांसे की हो तो विशेष फलदायिनी होती है।
दुर्गा सप्तशती का अनुष्ठान कैसे करें।
१. कलश स्थापना, २ . गौरी गणेश पूजन, ३. नवग्रह पूजन, ४. षोडश मातृकाओं का पूजन, ५. कुल देवी का पूजन, ६. माँ दुर्गा जी का पूजन निम्न प्रकार से करें-
आवाहन : आवाहनार्थे पुष्पांजली सर्मपयामि।
आसन : आसनार्थे पुष्पाणि समर्पयामि।
पाद : पाद्यर्यो : पाद्य समर्पयामि।
अर्घ्य : हस्तयो : अर्घ्य स्नानः ।
आचमन : आचमन समर्पयामि।
स्नान : स्नानादि जलं समर्पयामि।
स्नानांग : आचमन : स्नानन्ते पुनराचमनीयं जलं समर्पयामि।
दुधि स्नान : दुग्ध स्नान समर्पयामि।
दहि स्नान : दधि स्नानं समर्पयामि।
घृत स्नान : घृतस्नानं समर्पयामि।
शहद स्नान : मधु स्नानं सर्मपयामि।
शर्करा स्नान : शर्करा स्नानं समर्पयामि।
पंचामृत स्नान : पंचामृत स्नानं समर्पयामि।
गन्धोदक स्नान : गन्धोदक स्नानं समर्पयामि
शुद्धोदक स्नान : शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि
वस्त्र : वस्त्रं समर्पयामि
२९-३-२०२०
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चित्रलंकार - पताका
हूँ
भीरु,
डरता
हूँ पाप से. .
न हो सकता
भारत का नेता
डरता हूँ आप से.
*
है
कौन
जो रोके,
मेरा मन
मुझको टोंके,
गलती सुधार.
भयभीत मत हो.
*
जो
करे
फायर
दनादन
बेबस पर.
बहादुर नहीं
आतंकी है कायर.
*
हूँ
नहीं
सुरेश,
न नरेश,
आम आदमी.
थोडा डरपोंक
कुछ बहादुर भी.
*
मैं
देखूँ
सपने.
असाहसी
कतई नहीं.
बनाता उनको
हकीकत हमेशा.
*
२९.३.२०१८
***
एक रचना:
उल्लू उवाच
मुतके दिन मा जब दिखो, हमखों उल्लू एक.
हमने पूछी: "कित हते बिलमे? बोलो नेंक"
बा बोलो: "मुतके इते करते रैत पढ़ाई.
दो रोटी दे नई सके, बो सिच्छा मन भाई.
बिन्सें ज्यादा बड़े हैं उल्लू जो लें क्लास.
इनसें सोई ज्यादा बड़े, धरें परिच्छा खास.
इनसें बड़े निकालते पेपर करते लीक.
औरई बड़े खरीदते कैते धंधा ठीक.
करें परीच्छा कैंसिल बिन्सें बड़े तपाक.
टीवी पे इनसें बड़े, बैठ भौंकते आप.
बिन्सें बड़े करा रए लीक काण्ड की जाँच.
फिर से लेंगे परिच्छा, और बड़े रए बाँच
इतने उल्लुन बीच में अपनी का औकात?
एई काजे लुके रए, जान बचाखें भ्रात.
२९.३.२०१८
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दोहा सलिला:
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मले उषा के गाल पर, सूरज छेड़ गुलाल
बादल पिचकारी लिए, फगुआ हुआ कमाल.
*
नीता कहती नैन से, कहे सुनीता-सैन.
विनत विनीता चुप नहीं, बोले मीठे बैन.
*
दोहा ने मोहा दिखा, भाव-भंगिमा खूब.
गति-यति-लय को रिझा कर, गया रास में डूब.
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रोगी सिय द्वारे खड़ा, है लंकेश बुखार.
भिक्षा सुई-दवाई पा, झट से हुआ फरार.
*
शैया पर ही हो रहे, सारे तीरथ-धाम.
नर्स उमा शिव डॉक्टर, दर्द हरें निष्काम
*
बीमा? री! क्यों कराऊँ?, बीमारी है दूर.
झट बीमारी आ कहे:, 'नैनोंवाले सूर.'
*
लाली पकड़े पेट तो, लालू पूछें हाल.
'हैडेक' होता पेट में, सुन हँस सब बेहाल.
*
'फ्रीडमता' 'लेडियों' को, काए न देते लोग?
देख विश्व हैरान है, यह अंगरेजी रोग.
*
२९.३.२०१८
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नवरात्रि और सप्तश्लोकी दुर्गा स्तोत्र
(हिंदी काव्यानुवाद आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल')
*
नवरात्रि पर्व में मां दुर्गा की आराधना हेतु नौ दिनों तक व्रत किया जाता है। रात्रि में गरबा व डांडिया रास कर शक्ति की उपासना तथा विशेष कामनापूर्ति हेतु दुर्गा सप्तशती, चंडी तथा सप्तश्लोकी दुर्गा पाठ किया जाता है। दुर्गा सप्तशती तथा चंडी पाठ जटिल तथा प्रचण्ड शक्ति के आवाहन हेतु है। इसके अनुष्ठान में अत्यंत सावधानी आवश्यक है, अन्यथा क्षति संभावित हैं। दुर्गा सप्तशती या चंडी पाठ करने में अक्षम भक्तों हेतु प्रतिदिन दुर्गा-चालीसा अथवा सप्तश्लोकी दुर्गा के पाठ का विधान है जिसमें सामान्य शुद्धि और पूजन विधि ही पर्याप्त है। त्रिकाल संध्या अथवा दैनिक पूजा के साथ भी इसका पाठ किया जा सकता है जिससे दुर्गा सप्तशती,चंडी-पाठ अथवा दुर्गा-चालीसा पाठ के समान पूण्य मिलता है।
कुमारी पूजन
नवरात्रि व्रत का समापन कुमारी पूजन से किया जाता है। नवरात्रि के अंतिम दिन दस वर्ष से कम उम्र की ९ कन्याओं को माँ दुर्गा के नौ रूप (दो वर्ष की कुमारी, तीन वर्ष की त्रिमूर्तिनी चार वर्ष की कल्याणी, पाँच वर्ष की रोहिणी, छः वर्ष की काली, सात वर्ष की चण्डिका, आठ वर्ष की शाम्भवी, नौ वर्ष की दुर्गा, दस वर्ष की सुभद्रा) मान पूजन कर मिष्ठान्न, भोजन के पश्चात् व दान-दक्षिणा भेंट करें।
सप्तश्लोकी दुर्गा
निराकार ने चित्र गुप्त को, परा प्रकृति रच व्यक्त किया।
महाशक्ति निज आत्म रूप दे, जड़-चेतन संयुक्त किया।।
नाद शारदा, वृद्धि लक्ष्मी, रक्षा-नाश उमा-नव रूप-
विधि-हरि-हर हो सके पूर्ण तब, जग-जीवन जीवन्त किया।।
*
जनक-जननि की कर परिक्रमा, हुए अग्र-पूजित विघ्नेश।
आदि शक्ति हों सदय तनिक तो, बाधा-संकट रहें न लेश ।।
सात श्लोक दुर्गा-रहस्य को बतलाते, सब जन लें जान-
क्या करती हैं मातु भवानी, हों कृपालु किस तरह विशेष?
*
शिव उवाच-
देवि त्वं भक्तसुलभे सर्वकार्यविधायिनी।
कलौ हि कार्यसिद्धयर्थमुपायं ब्रूहि यत्नतः॥
शिव बोले: 'सब कार्यनियंता, देवी! भक्त-सुलभ हैं आप।
कलियुग में हों कार्य सिद्ध कैसे?, उपाय कुछ कहिये आप।।'
*
देव्युवाच-
श्रृणु देव प्रवक्ष्यामि कलौ सर्वेष्टसाधनम्‌।
मया तवैव स्नेहेनाप्यम्बास्तुतिः प्रकाश्यते॥
देवी बोलीं: 'सुनो देव! कहती हूँ इष्ट सधें कलि-कैसे?
अम्बा-स्तुति बतलाती हूँ, पाकर स्नेह तुम्हारा हृद से।।'
*
विनियोग-
ॐ अस्य श्रीदुर्गासप्तश्लोकीस्तोत्रमन्त्रस्य नारायण ऋषिः
अनुष्टप्‌ छन्दः, श्रीमहाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वत्यो देवताः
श्रीदुर्गाप्रीत्यर्थं सप्तश्लोकीदुर्गापाठे विनियोगः।
ॐ रचे दुर्गासतश्लोकी स्तोत्र मंत्र नारायण ऋषि ने
छंद अनुष्टुप महा कालिका-रमा-शारदा की स्तुति में
श्री दुर्गा की प्रीति हेतु सतश्लोकी दुर्गापाठ नियोजित।।
*
ॐ ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा।
बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति॥१॥
ॐ ज्ञानियों के चित को देवी भगवती मोह लेतीं जब।
बल से कर आकृष्ट महामाया भरमा देती हैं मति तब।१।
*
दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः
स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि।
दारिद्र्‌यदुःखभयहारिणि का त्वदन्या
सर्वोपकारकरणाय सदार्द्रचित्ता॥२॥
माँ दुर्गा का नाम-जाप भयभीत जनों का भय हरता है,
स्वस्थ्य चित्त वाले सज्जन, शुभ मति पाते, जीवन खिलता है।
दुःख-दरिद्रता-भय हरने की माँ जैसी क्षमता किसमें है?
सबका मंगल करती हैं माँ, चित्त आर्द्र पल-पल रहता है।२।
*
सर्वमंगलमंगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तुते॥३॥
मंगल का भी मंगल करतीं, शिवा! सर्व हित साध भक्त का।
रहें त्रिनेत्री शिव सँग गौरी, नारायणी नमन तुमको माँ।३।
*
शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे।
सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तुते॥४॥
शरण गहें जो आर्त-दीन जन, उनको तारें हर संकट हर।
सब बाधा-पीड़ा हरती हैं, नारायणी नमन तुमको माँ ।४।
*
सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते।
भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तुते॥५॥
सब रूपों की, सब ईशों की, शक्ति समन्वित तुममें सारी।
देवी! भय न रहे अस्त्रों का, दुर्गा देवी तुम्हें नमन माँ! ।५।
*
रोगानशोषानपहंसि तुष्टा
रूष्टा तु कामान्‌ सकलानभीष्टान्‌।
त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां
त्वामाश्रिता ह्माश्रयतां प्रयान्ति॥६॥
शेष न रहते रोग तुष्ट यदि, रुष्ट अगर सब काम बिगड़ते।
रहे विपन्न न कभी आश्रित, आश्रित सबसे आश्रय पाते।६।
*
सर्वाबाधाप्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्र्वरि।
एवमेव त्वया कार्यमस्यद्वैरिविनाशनम्‌॥७॥
माँ त्रिलोकस्वामिनी! हर कर, हर भव-बाधा।
कार्य सिद्ध कर, नाश बैरियों का कर दो माँ! ।७।
*
॥इति श्रीसप्तश्लोकी दुर्गा संपूर्णम्‌॥
।श्री सप्तश्लोकी दुर्गा (स्तोत्र) पूर्ण हुआ।
२९-३-२०१७
***

सोमवार, 28 मार्च 2022

दोहा, कुण्डलिया, मुक्तक, मुक्तिका,

मुक्तिका
*
कहाँ गुमी गुड़धानी दे दो
किस्सोंवाली नानी दे दो
बासंती मस्ती थोड़ी सी
थोड़ी भंग भवानी दे दो
साथ नहीं जाएगा कुछ भी
कोई प्रेम निशानी दे दो
मोती मानुस चून आँख को
बिन माँगे ही पानी दे दो
मीरा की मुस्कान बन सके
बंसी-ध्वनि सी बानी दे दो
*
मुक्तक
शशि त्यागी है सदा से, करे चाँदनी दान
हरी हलाहल की तपिश, शिव चढ़ पाया मान
सुंदरता पर्याय बन, कवियों से पा प्रेम
सलिल धार में छवि लखे, माँगे जग की क्षेम
२७-३-२०२०
***
कुण्डलिया
*
मन से राधाकिशन तब, 'सलिल' रहे थे संग.
तन से रहते संग अब, लिव इन में कर जंग..
लिव इन में कर जंग, बदलते साथी पल-पल.
कौन बताए कौन, कर रहा है किससे छल?.
नाते पलते मिलें, आजकल केवल धन से.
सलिल न हों संजीव, तभी तो रिश्ते मन से.
*
त्वरित प्रतिक्रिया
महारास और न्यायालय
*
महारास में भाव था, लीला थी जग हेतु.
रसलीला क्रीडा हुई, देह तुष्टि का हेतु..
न्यायालय अँधा हुआ, बँधे हुए हैं नैन.
क्या जाने राधा-किशन, क्यों खोते थे चैन?.
हलकी-भारी तौल को, माने जब आधार.
नाम न्याय का ले करे, न्यायालय व्यापार..
भारहीन सच को 'सलिल', कोई न सकता नाप.
नाता राधा-किशन का, सके आत्म में व्याप..
२८-३-२०१०
***

महादेवी

महीयसी महादेवी जी और उनका कालजयी साहित्य
*




महादेवी वर्मा (२६ मार्च १९०७ - ११ सितम्बर १९८७) हिन्दी भाषा की कवयित्री थीं। वे हिन्दी साहित्य में छायावादी युग के चार प्रमुख स्तम्भों में से एक मानी जाती हैं। आधुनिक हिन्दी की सबसे सशक्त कवयित्रियों में से एक होने के कारण उन्हें आधुनिक मीरा के नाम से भी जाना जाता है। कवि निराला ने उन्हें “हिन्दी के विशाल मन्दिर की सरस्वती” भी कहा है। महादेवी ने स्वतन्त्रता के पहले का भारत भी देखा और उसके बाद का भी। वे उन कवियों में से एक हैं जिन्होंने व्यापक समाज में काम करते हुए भारत के भीतर विद्यमान हाहाकार, रुदन को देखा, परखा और करुण होकर अन्धकार को दूर करने वाली दृष्टि देने की कोशिश की। न केवल उनका काव्य बल्कि उनके सामाजसुधार के कार्य और महिलाओं के प्रति चेतना भावना भी इस दृष्टि से प्रभावित रहे। उन्होंने मन की पीड़ा को इतने स्नेह और शृंगार से सजाया कि दीपशिखा में वह जन-जन की पीड़ा के रूप में स्थापित हुई और उसने केवल पाठकों को ही नहीं समीक्षकों को भी गहराई तक प्रभावित किया।

उन्होंने खड़ी बोली हिन्दी की कविता में उस कोमल शब्दावली का विकास किया जो अभी तक केवल बृजभाषा में ही संभव मानी जाती थी। इसके लिए उन्होंने अपने समय के अनुकूल संस्कृत और बांग्ला के कोमल शब्दों को चुनकर हिन्दी का जामा पहनाया। संगीत की जानकार होने के कारण उनके गीतों का नाद-सौंदर्य और पैनी उक्तियों की व्यंजना शैली अन्यत्र दुर्लभ है। उन्होंने अध्यापन से अपने कार्यजीवन की शुरूआत की और अन्तिम समय तक वे प्रयाग महिला विद्यापीठ की प्रधानाचार्या बनी रहीं। उनका बाल-विवाह हुआ परन्तु उन्होंने अविवाहित की भाँति जीवन-यापन किया। प्रतिभावान कवयित्री और गद्य लेखिका महादेवी वर्मा साहित्य और संगीत में निपुण होने के साथ-साथ कुशल चित्रकार और सृजनात्मक अनुवादक भी थीं। उन्हें हिन्दी साहित्य के सभी महत्त्वपूर्ण पुरस्कार प्राप्त करने का गौरव प्राप्त है। भारत के साहित्य आकाश में महादेवी वर्मा का नाम ध्रुव तारे की भाँति प्रकाशमान है। गत शताब्दी की सर्वाधिक लोकप्रिय महिला साहित्यकार के रूप में वे जीवन भर पूजनीय बनी रहीं। वे पशु पक्षी प्रेमी थी गाय उनको अति प्रिय थी । वर्ष २००७ उनका जन्म शताब्दी के रूप में मनाया गया। २७ अप्रैल १९८२ को भारतीय साहित्य में अतुलनीय योगदान के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार से इन्हें सम्मानित किया गया था। गूगल ने इस दिवस की याद में वर्ष २०१८ में गूगल डूडल के माध्यम से मनाया ।
जन्म और परिवार

महादेवी का जन्म २६ मार्च १९०७ को प्रातः ८ बजे फ़र्रुख़ाबाद उत्तर प्रदेश, भारत में हुआ। उनके परिवार में लगभग २०० वर्षों या सात पीढ़ियों के बाद पहली बार पुत्री का जन्म हुआ था। अतः बाबा बाबू बाँकेविहारी जी हर्ष से झूम उठे और इन्हें घर की देवी — महादेवी मानते हुए पुत्री का नाम महादेवी रखा। उनके पिता श्री गोविंद प्रसाद वर्मा भागलपुर के एक कॉलेज में प्राध्यापक थे। उनकी माता का नाम हेमरानी देवी था। हेमरानी देवी के ताऊ जी सुंदरलाल जी तत्कालीन तहसीलदार तथा पिता खैराती लाल द्वारा शिव तथा पार्वती के दो मंदिर जबलपुर में बनवाए गए थे। ये अब भी शहर कोतवाली जबलपुर के निकट बाड़े में स्थित हैं।

हेमरानी देवी बड़ी धर्म परायण, कर्मनिष्ठ, भावुक एवं शाकाहारी महिला थीं। विवाह के समय अपने साथ सिंहासनासीन भगवान की मूर्ति भी लायी थीं। वे प्रतिदिन कई घंटे पूजा-पाठ तथा रामायण, गीता एवं विनय पत्रिका का पारायण करती थीं और संगीत में भी उनकी अत्यधिक रुचि थी। इसके बिल्कुल विपरीत उनके पिता गोविन्द प्रसाद वर्मा सुन्दर, विद्वान, संगीत प्रेमी, नास्तिक, शिकार करने एवं घूमने के शौकीन, माँसाहारी तथा हँसमुख व्यक्ति थे। महादेवी वर्मा के मानस बंधुओं में सुमित्रानन्दन पन्त तथा सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' थे जो उनसे जीवन पर्यन्त राखी बँधवाते रहे। निराला जी से उनकी अत्यधिक निकटता थी, उनकी पुष्ट कलाइयों में महादेवी जी लगभग चालीस वर्षों तक राखी बाँधती रहीं।
शिक्षा

महादेवी जी की शिक्षा इन्दौर में मिशन स्कूल से प्रारम्भ हुई साथ ही संस्कृत, अंग्रेज़ी, संगीत तथा चित्रकला की शिक्षा अध्यापकों द्वारा घर पर ही दी जाती रही। बीच में विवाह जैसी बाधा पड़ जाने के कारण कुछ दिन शिक्षा स्थगित रही। विवाहोपरान्त महादेवी जी ने १९१९ में क्रास्थवेट कॉलेज इलाहाबाद में प्रवेश लिया और कॉलेज के छात्रावास में रहने लगीं। १९२१ में महादेवी जी ने आठवीं कक्षा में प्रान्त भर में प्रथम स्थान प्राप्त किया। यहीं पर उन्होंने अपने काव्य जीवन की शुरुआत की। वे सात वर्ष की अवस्था से ही कविता लिखने लगी थीं और १९२५ तक जब उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की, वे एक सफल कवयित्री के रूप में प्रसिद्ध हो चुकी थीं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में आपकी कविताओं का प्रकाशन होने लगा था। कालेज में सुभद्रा कुमारी चौहान के साथ उनकी घनिष्ठ मित्रता हो गई। सुभद्रा कुमारी चौहान महादेवी जी का हाथ पकड़ कर सखियों के बीच में ले जाती और कहतीं ― “सुनो, ये कविता भी लिखती हैं”। १९३२ में जब उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम॰ए॰ पास किया तब तक उनके दो कविता संग्रह नीहार तथा रश्मि प्रकाशित हो चुके थे।
वैवाहिक जीवन

सन् १९१६ में उनके बाबा श्री बाँके विहारी ने इनका विवाह बरेली के पास नबावगंज कस्बे के निवासी श्री स्वरूप नारायण वर्मा से कर दिया, जो उस समय दसवीं कक्षा के विद्यार्थी थे। श्री वर्मा इण्टर करके लखनऊ मेडिकल कॉलेज में बोर्डिंग हाउस में रहने लगे। महादेवी जी उस समय क्रास्थवेट कॉलेज इलाहाबाद के छात्रावास में थीं। श्रीमती महादेवी वर्मा को विवाहित जीवन से विरक्ति थी। कारण कुछ भी रहा हो पर श्री स्वरूप नारायण वर्मा से कोई वैमनस्य नहीं था। सामान्य स्त्री-पुरुष के रूप में उनके सम्बन्ध मधुर ही रहे। दोनों में कभी-कभी पत्राचार भी होता था। यदा-कदा श्री वर्मा इलाहाबाद में उनसे मिलने भी आते थे। श्री वर्मा ने महादेवी जी के कहने पर भी दूसरा विवाह नहीं किया। महादेवी जी का जीवन तो एक संन्यासिनी का जीवन था। उन्होंने जीवन भर श्वेत वस्त्र पहना, तख्त पर सोईं और कभी शीशा नहीं देखा। सन् १९६६ में पति की मृत्यु के बाद वे स्थायी रूप से इलाहाबाद में रहने लगीं।
कार्यक्षेत्र

महादेवी, हज़ारी प्रसाद द्विवेदी आदि के साथ

महादेवी का कार्यक्षेत्र लेखन, सम्पादन और अध्यापन रहा। उन्होंने इलाहाबाद में प्रयाग महिला विद्यापीठ के विकास में महत्वपूर्ण योगदान किया। यह कार्य अपने समय में महिला-शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी कदम था। इसकी वे प्रधानाचार्य एवं कुलपति भी रहीं।१९२३ में उन्होंने महिलाओं की प्रमुख पत्रिका ‘चाँद’ का कार्यभार संभाला। १९३० में नीहार, १९३२ में रश्मि, १९३४ में नीरजा, तथा १९३६ में सांध्यगीत नामक उनके चार कविता संग्रह प्रकाशित हुए। १९३९ में इन चारों काव्य संग्रहों को उनकी कलाकृतियों के साथ वृहदाकार में यामा शीर्षक से प्रकाशित किया गया। उन्होंने गद्य, काव्य, शिक्षा और चित्रकला सभी क्षेत्रों में नए आयाम स्थापित किये। इसके अतिरिक्त उनकी 18 काव्य और गद्य कृतियां हैं जिनमें मेरा परिवार, स्मृति की रेखाएं, पथ के साथी, शृंखला की कड़ियाँ और अतीत के चलचित्र प्रमुख हैं। सन १९५५ में महादेवी जी ने इलाहाबाद में साहित्यकार संसद की स्थापना की और पं इलाचंद्र जोशी के सहयोग से साहित्यकार का सम्पादन संभाला। यह इस संस्था का मुखपत्र था। उन्होंने भारत में महिला कवि सम्मेलनों की नीव रखी। इस प्रकार का पहला अखिल भारतवर्षीय महिलाकवि सम्मेलन १५ अप्रैल १९३३ को सुभद्रा कुमारी चौहान की अध्यक्षता में प्रयाग महिला विद्यापीठ में सम्पन्न हुआ। वे हिन्दी साहित्य में रहस्यवाद की प्रवर्तिका भी मानी जाती हैं। महादेवी बौद्ध पन्थ से बहुत प्रभावित थीं।महात्मा गाँधी के प्रभाव से उन्होंने जनसेवा का व्रत लेकर झूसी में कार्य किया और भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में भी हिस्सा लिया।१९३६ में नैनीताल से २५ किलोमीटर दूर रामगढ़ कसबे के उमागढ़ नामक गाँव में महादेवी वर्मा ने एक बंगला बनवाया था। जिसका नाम उन्होंने मीरा मन्दिर रखा था। जितने दिन वे यहाँ रहीं इस छोटे से गाँव की शिक्षा और विकास के लिए काम करती रहीं। विशेष रूप से महिलाओं की शिक्षा और उनकी आर्थिक आत्मनिर्भरता के लिए उन्होंने बहुत काम किया। आजकल इस बंगले को महादेवी साहित्य संग्रहालय के नाम से जाना जाता है। शृंखला की कड़ियाँ में स्त्रियों की मुक्ति और विकास के लिए उन्होंने जिस साहस व दृढ़ता से आवाज़ उठाई हैं और जिस प्रकार सामाजिक रूढ़ियों की निन्दा की है उससे उन्हें महिला मुक्तिवादी भी कहा गया। महिलाओं व शिक्षा के विकास के कार्यों और जनसेवा के कारण उन्हें समाज-सुधारक भी कहा गया है। उनके सम्पूर्ण गद्य साहित्य में पीड़ा या वेदना के कहीं दर्शन नहीं होते बल्कि अदम्य रचनात्मक रोष समाज में बदलाव की अदम्य आकांक्षा और विकास के प्रति सहज लगाव परिलक्षित होता है।

उन्होंने अपने जीवन का अधिकांश समय उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद नगर में बिताया। ११सितम्बर १९८७ को इलाहाबाद में रात ९ बजकर ३० मिनट पर उनका देहांत हो गया।

नीहार १९३० - महादेवी जी का पहला गीत काव्य संग्रह है। इस संग्रह में १९२४ से १९२८ तक के रचित गीत संग्रहीत हैं। नीहार जीवन के उषाकाल की ही रचना है, जिसमें सत्य कुहाजाल में छिपा रह कर भी मोहक और कुतूहलपूर्ण प्रतीत होती है। नीहार की विषयवस्तु के संबंध में स्वयं महादेवी वर्मा का कथन उल्लेखनीय है- "नीहार के रचना काल में मेरी अनुभूतियों में वैसी ही कौतूहल मिश्रित वेदना उमड़ आती थी, जैसे बालक के मन में दूर दिखायी देने वाली अप्राप्य सुनहली उषा और स्पर्श से दूर सजल मेघ के प्रथम दर्शन से उत्पन्न हो जाती है।" इन गीतों में कौतूहल मिश्रित वेदना की स्वाभाविक अभिव्यक्ति हुई है।

रश्मि १९३२ - यह महादेवी वर्मा का दूसरा कविता संग्रह है। इसमें १९२७ से १९३१ तक की रचनाएँ हैं। 'रश्मि' युवावस्था के प्रारंभिक दिनों की रचना है। जब सत्य की किरणें आत्मा में ज्ञान की ज्वाला जगा देती हैं। 'इसमें महादेवी जी का चिंतन और दर्शन पक्ष मुखर होता प्रतीत होता है। अतः अनुभूति की अपेक्षा दार्शनिक चिंतन और विवेचन की अधिकता है।

नीरजा १९३४ - रश्मि का चिन्तन और दर्शन अधिक स्पष्ट और प्रौढ़ हुआ है नीरजा में। नीरजा' कवयित्री की प्रौढ़ मानसिक स्थिति की कृति है, जिसमें दिन के उज्जवल प्रकाश में कमलिनी की तरह वह अपने साधना मार्ग पर अपना सौरभ बिखरा देती हैं। कवयित्री सुख-दु:ख में समन्वय स्थापित करती हुई पीड़ा एवं वेदना में आनन्द की अनुभूति करती है। वह उस सामंजस्यपूर्ण भावभूमि में पहुँच गई हैं, जहाँ दुःख सुख एकाकार हो जाते हैं और वेदना का मधुर रस ही उसकी समरसता का आधार बन जाता है। सांध्यगीत में यह सामंजस्य भावना और भी परिपक्व और निर्मल बनकर साधिका को प्रिय के इतना निकट पहुँचा देती है कि वह अपने और प्रिय के बीच की दूरी को ही मिलन समझने लगती है।

सांध्यगीत १९३६ - १९३४ से १९३६ ई० तक के इन गीतों में नीरजा के भावों का परिपक्व रूप मिलता है। 'सांध्यगीत' में जीवन के संध्याकाल की करुणार्द्रता और वैराग्य भावना के साथ-साथ आत्मा की अपने आध्यात्मिक घर को लौट चलने की प्रवृत्ति वर्तमान है। यहाँ न केवल सुख-दुख का बल्कि आँसू और वेदना, मिलन और विरह, आशा और निराशा एवं बन्धन-मुक्ति आदि का समन्वय है। दीपशिखा में १९३६ से १९४२ ई० तक के गीत हैं। इस संग्रह के गीतों का मुख्य प्रतिपाद्य स्वयं मिटकर दूसरे को सुखी बनाना है। यह महादेवी की सिद्धावस्था का काव्य है, जिसमें साधिका की आत्मा की दीपशिखा अकंपित और अचंचल होकर आराध्य की अखंड ज्योति में विलीन हो गई है।

प्रथम आयाम १९७४ -

अग्निरेखा १९९० - महादेवी जी के अन्तिम दिनों में रची गयीं रचनाएँ संग्रहीत हैं जो पाठकों को अभिभूत भी करेंगी और आश्चर्यचकित भी, इस अर्थ में कि महादेवी काव्य में ओत-प्रोत वेदना और करुणा का वह स्वर, जो कब से उनकी पहचान बन चुका है। 'अग्निरेखा` में दीपक को प्रतीक मानकर अनेक रचनाएँ लिखी गयी हैं। साथ ही अनेक विषयों पर भी कविताएँ हैं।

दीपशिखा १९४२ - दीपशिखा में महादेवी वर्मा के गीतों का अधिकारिक विषय ‘प्रेम’ है। पर प्रेम की सार्थकता उन्होंने मिलन के उल्लासपूर्ण क्षणों से अधिक विरह की पीड़ा में तलाश की है। 'दीपशिखा' में रात के शांत, स्निग्ध और शून्य वातावरण में आराध्य के सम्मुख जीवन दीप के जलते रहने की भावना प्रमुख है। इस प्रकार उन्होंने अपने जीवन के अहोरात्र को इन पाँच प्रतीकात्मक शीर्षकों में विभक्त कर अपनी जीवन साधना का मर्म स्पष्ट कर दिया है

सप्तपर्णा १९५९ - सप्तपर्णा में महादेवी ने अपनी सांस्कृतिक चेतना के सहारे वेद, रामायण, थेर गाथा, अश्वघोष, कालिदास, भवभूति एवं जयदेव की कृतियों से तादात्म्य स्थापित करके ३९ चयनित महत्वपूर्ण अंशों का हिन्दी काव्यानुवाद इस प्रस्तुत किया है। आरंभ में ६१ पृष्ठीय ‘अपनी बात’ में उन्होंने भारतीय मनीषा और साहित्य की इस अमूल्य धरोहर के संबंध में गहन शोधपूर्ण विमर्ष भी प्रस्तुत किया है। ’सप्तपर्णा’ के अंतर्गत आर्षवाणी, वाल्मीकि, थेरगाथा, अश्वघोष, कालिदास और भवभूति के बाद सातवें सोपान पर महादेवी वर्मा ने जयदेव को प्रतिष्ठित किया है। उन्होंने बताया है कि जयदेव (१२वीं शती का पूर्वार्द्ध) का जब आविर्भाव हुआ तब संस्कृत के शृंगारी काव्य के नायक-नायिका के रूप में राधाकृष्ण की प्रतिष्ठा हो चुकी थी।...महादेवी जी ने ’सप्तपर्णा’ में संस्कृत और पालि साहित्य के चयनित अंशों का काव्यानुवाद प्रस्तुत करते समय अपनी दृष्टि भारतीय चिंतनधारा और सौंदर्यबोध की परंपरा के इतिहास पर केंद्रित रखी है। उनकी यह कृति उन्हें एक सफल सृजनात्मक काव्यानुवादक, साहित्येतिहासकार तथा संस्कृति-चिंतक के रूप में प्रतिष्ठित करने में पूर्ण समर्थ है, इसमें संदेह नहीं।

वेदना की इस एकांत साधना के फलस्वरूप महादेवी की कविता में विषयों का वैविध्य बहुत कम है। उनकी कुछ ही कविताएँ ऐसी हैं, जिनमें राष्ट्रीय और सांस्कृतिक उद्बोधन अथवा प्रकृति का स्वतंत्र चित्रण हुआ है। शेष सभी कविताओं में विषयवस्तु और दृष्टिकोण एक ही होने के कारण उनकी काव्यभूमि विस्तृत नहीं हो सकी हैं। इससे उनके काव्य को हानि और लाभ दोनों हुआ है। हानि यह हुई है कि विषय परिवर्तन न होने से उनके समस्त काव्य में एकरसता और भावावृत्ति बहुत अधिक है। लाभ यह हुआ है कि सीमित क्षेत्र के भीतर ही कवयित्री ने अनुभूतियों के अनेकानेक आयामों को अनेक दृष्टिकोणों से देख-परखकर उनके सूक्ष्मातिसूक्ष्म भेद-प्रभेदों को बिंबरूप में सामने रखते हुए चित्रित किया है। इस तरह उनके काव्य में विस्तारगत विशालता और दर्शनगत गुरुत्व भले ही न मिले, पर उनकी भावनाओं की गंभीरता, अनुभूतियों की सूक्ष्मता, बिंबों की स्पष्टता और कल्पना की कमनीयता के फलस्वरूप गांभीर्य और महत्ता अवश्य है। इस तरह उनके काव्य विस्तार का नहीं, गहराई का काव्य है।

महादेवी का काव्य वर्णनात्मक और इतिवृत्तात्मक नहीं हैं। आंतरिक सूक्ष्म अनुभूतियों की अभिव्यक्ति उन्होंने सहज भावोच्छवास के रूप में की है। इस कारण उनकी अभिव्यंजना पद्धति में लाक्षणिकता और व्यंजकता का बाहुल्य है। रूपकात्मक बिंबों और प्रतीकों के सहारे उन्होंने जो मोहक चित्र उपस्थित किए हैं, वे उनकी सूक्ष्म दृष्टि और रंगमयी कल्पना की शक्तिमत्ता का परिचय देते हैं। ये चित्र उन्होंने अपने परिपार्श्व, विशेषकर प्राकृतिक परिवेश से लिए हैं पर प्रकृति को उन्होंने आलंबन रूप में बहुत कम ग्रहण किया। प्रकृति उनके काव्य में सदैव उद्दीपन, अलंकार, प्रतीक और संकेत के रूप में ही चित्रित हुई हैं। इसी कारण प्रकृति के अति परिचित और सर्वजनसुलभ दृश्यों या वस्तुओं को ही उन्होंने अपने काव्य का उपादान बनाया हैं। उसके असाधारण और अल्पपरिचित दृश्यों की ओर उनका ध्यान नहीं गया है। फिर भी सीमित प्राकृतिक उपादानों के द्वारा उन्होंने जो पूर्ण या आंशिक बिंब चित्रित किए हैं, उनसे उनकी चित्रविधायिनी कल्पना का पूरा परिचय मिल जाता है। इसी कल्पना के दर्शन उनके उन चित्रों में भी होते हैं, जो उन्होंने शब्दों से नहीं, रंगों और तूलिका के माध्यम से निर्मित किए हैं। उनके ये चित्र 'दीपशिखा' और 'यामा' में कविताओं के साथ प्रकाशित हुए हैं।



उक्त के अतिरिक्त कुछ ऐसे काव्य संकलन भी प्रकाशित हैं, जिनमें उपर्युक्त रचनाओं में से चुने हुए गीत संकलित किये गये हैं। जैसे - १. आत्मिका, २. धनु निरंतरा, ३. परिक्रमा, ४. सन्धिनी (१९६५), ५. यामा(१९३६), ६. गीतपर्व, ७ . दीपगीत, ८. स्मारिका, ९. हिमालय(१९६३) और १०. आधुनिक कवि महादेवी आदि।

गद्य में कविता का मर्म




महादेवी की प्रमुख गद्य रचनाएँ

महादेवी वर्मा ने लिखा है- 'कला के पारस का स्पर्श पा लेने वाले का कलाकार के अतिरिक्त कोई नाम नहीं, साधक के अतिरिक्त कोई वर्ग नहीं, सत्य के अतिरिक्त कोई पूँजी नहीं, भाव-सौंदर्य के अतिरिक्त कोई व्यापार नहीं और कल्याण के अतिरिक्त कोई लाभ नहीं।' लेखन-अवधि में उन्होंने एकनिष्ठ होकर अबाध-गति से भावमय सृजन और कर्ममय जीवन की साधना में लिखी हुई बात को सार्थक बनाया। एक महादेवी ही हैं जिन्होंने गद्य में भी कविता के मर्म की अनुभूति कराई और 'गद्यं कवीनां निकषं वदन्ति' उक्ति को चरितार्थ किया है। विलक्षण बात तो यह है कि न तो उन्होंने उपन्यास लिखा, न कहानी, न ही नाटक फिर भी श्रेष्ठ गद्यकार हैं। उनके ग्रंथ लेखन में एक ओर रेखाचित्र, संस्मरण या फिर यात्रावृत्त हैं तो दूसरी ओर संपादकीय, भूमिकाएँ, निबंध और अभिभाषण, पर सबमें जैसे संपूर्ण जीवन का वैविध्य समाया है। बिना कल्पनाश्रित काव्य रूपों का सहारा लिए कोई रचनाकार गद्य में इतना कुछ अर्जित कर सकता है, यह महादेवी को पढ़कर ही जाना जा सकता है। हिन्दी साहित्य में चंद्रकान्ता मणि के समान द्रवणशील करुण रस की देवी महादेवी वर्मा न केवल विशिष्ट कलाकार, कवयित्री और गद्य लेखिका हैं अपितु इससे आगे एक श्रेष्ठ निबंधकार भी हैं। उनका गद्य कविता की भांति सौंदर्य के भुलावे में डालकर हमें जीवन से दूर नहीं ले जाता, वह तो हमारी शिराओं में चेतना भरकर हमें यथार्थ जीवन में झांकने की प्रेरणा प्रदान करता है।

स्मृति की रेखाएँ और अतीत के चलचित्र

स्मृति की रेखाएँ और अतीत के चलचित्र में निरंतर जिज्ञासा शील महादेवी ने स्मृति के आधार पर अमिट रेखाओं द्वारा अत्यंत सह्रदयतापूर्वक जीवन के विविध रूपों को चित्रित कर उन पात्रों को अमर कर दिया है। इनमें गाँव, गँवई के निर्धन, विपन्न लोग, बालविधवाओं, विमाताओं, पुनर्विवाहिताओं तथा कथित भ्रष्टाओं और वृद्ध-विवाह के कारण प्रताड़िताओं के अत्यंत सशक्त एवं करुण चित्र है। केवल नारियाँ ही नहीं, उपेक्षित पुरुष वर्ग का भी महादेवी ने सही चित्रण किया है। रामा, घीसा, अलोपी और बदलू आदि के रेखाचित्र उनके असाधारण मानवतावाद की ओर इंगित करते हैं। महादेवी ने अधिकांश अपने रेखाचित्रों में निम्नवर्गीय पात्रों की विशेषताओं, दुर्बलताओं और समस्याओं का चित्रण किया है। सेवक रामा की वात्सल्यपूर्ण सेवा, भंगिन सबिया की पति-परायणता और सहनशीलता, घीसा की निश्छल गुरुभक्ति, साग-भाजी के विक्रेता अंधे अलोपी का सरल व्यक्तित्व, कुंभकार बदलू तथा रधिवा का सरल दांपत्य प्रेम, पहाड़ की रमणी लक्षमा का महादेवी के प्रति अनुपम स्नेह-भाव, वृद्ध भक्तिन की प्रगल्भता तथा स्वामी-भक्ति, चीनी युवक की करुण-मार्मिक जीवन-गाथा, पार्वत्य कुली जंगबहादुर तथा उसके अनुज धनिया की कर्मठता आदि अनेक विषयों को रेखाचित्रों में स्थान दिया है। सभी स्मृति-चित्रों को महादेवी ने अपने जीवन के भीतर से प्रस्तुत किया है, अतः यह स्वाभाविक ही है कि इनमें उनके अपने जीवन की विविध घटनाओं एवं उनके चरित्र के विभिन्न अंशों को स्थान प्राप्त हुआ है। उन्होंने अपनी अनुभूतियों को ज्यों का त्यों यथार्थ रूप में अंकित किया है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि महादेवी के रेखाचित्रों में चरित्र-चित्रण का तत्व प्रमुख रहा है, कथानक उसका अंगीभूत होकर प्रकट हुआ है। उनके इन रेखाचित्रों में गंभीर लोक का भी पर्याप्त समावेश हुआ है।
पथ के साथी और शृंखला की कड़ियाँ

'पथ के साथी' में महादेवी ने अपने समकालीन रचनाकारों का चित्रण किया है। जिस सम्मान और आत्मीयतापूर्ण ढंग से उन्होंने इन साहित्यकारों का जीवन-दर्शन और स्वभावगत महानता को स्थापित किया है वह अपने आप में बड़ी उपलब्धि है। 'पथ के साथी' में संस्मरण भी हैं और महादेवी द्वारा पढ़े गए कवियों के जीवन पृष्ठ भी। उन्होंने एक ओर साहित्यकारों की निकटता, आत्मीयता और प्रभाव का काव्यात्मक उल्लेख किया है और दूसरी ओर उनके समग्र जीवन दर्शन को परखने का प्रयत्न किया है। 'पथ के साथी' में कवींद्र रवींद्र, दद्दा (मैथिलीशरण गुप्त), प्रसाद, निराला, पंत, सुभद्राकुमारी चौहान तथा सियारामशरण गुप्त की रेखाएँ शब्द-चित्र के रूप में आईं हैं। श्रृंखला की कड़ियाँ' (१९४२ ई.) में सामाजिक समस्याओं, विशेष कर अभिशप्त नारी जीवन के जलते प्रश्नों के संबंधों में लिखे उनके विचारात्मक निबंध संकलित हैं।

संकलन

रेखाचित्र - १. अतीत के चलचित्र (१९४१) और २. स्मृति की रेखाएं (१९४३) ३. श्रृंखला की कड़ियां ४. मेरा परिवार।
संस्मरण
१. पथ के साथी (१९५६), २. मेरा परिवार (१९७२), ३. स्मृतिचित्र (१९७३) और ४. संस्मरण (१९८३)।
निबंध संग्रह - १. शृंखला की कड़ियाँ (१९४२), २. विवेचनात्मक गद्य (१९४२), 3 साहित्यकार की आस्था तथा अन्य निबंध (१९६२), ४. संकल्पिता (१९६९) , ५. भारतीय संस्कृति के स्वर।
ललित निबंधों का संग्रह
क्षणदा (१९५६) ललित निबंधों का संग्रह है।

रचनात्मक गद्य के अतिरिक्त महादेवी का विवेचनात्मक गद्य तथा दीपशिखा, यामा और आधुनिक कवि- महादेवी की भूमिकाएँ उत्कृष्ट गद्य-लेखन का नमूना समझी जाती हैं।

बाल साहित्य

कहानी संग्रह - गिल्लू और अन्य कहानियाँ।
भाषण संग्रह - संभाषण (१९७४)।
कविता संग्रह - ठाकुरजी भोले हैं, आज खरीदेंगे हम ज्वाला।