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शनिवार, 17 मई 2025

मई १७, सॉनेट, बुद्ध, हास्य, कुंडलिया, मधुमालती छंद, आभा, आदमी जिंदा है, मुक्तिका

सलिल सृजन मई १७  
*
सॉनेट
बुद्ध १
हमें कुछ नहीं लेना-देना
जब जहाँ जो जी चाहे कहो
सजा रखी है सशक्त सेना
लड़ो-मारो-मरो, गड़ो-दहो
हम विरागी करें नहीं मोह
नश्वर जीवन माटी काया
हमें सुहाए सिर्फ विद्रोह
माटी को माटी में मिलाया
कुछ मत कहो उठो लड़ो युद्ध
मिटा दो या मिट जाओ बुद्ध
मन के पशु का पथ न हो रुद्ध
जागो लड़ो होकर अति क्रुद्ध
तुम्हारी खोपड़ी सजा ली है
सभी शिक्षाएँ भुला दी है
१७-५-२०२२
•••
सॉनेट
बुद्ध २
*
युद्ध बुद्ध तुमसे करते हम
शांति हमारा ध्येय नहीं है
मार-मार खुद भी मरते हम
ज्ञाता हैं भ्रम; ज्ञेय नहीं है
लिखें जयंती पर कविताएँ
शीश तुम्हारा सजा कक्ष में
सूली पर तुमको लटकाएँ
वचन तुम्हारे वेध लक्ष्य में
तुमने राज तजा, हम छीनें
रौंद सुजाता को गर्वान्वित
हिंसा है हमको अतिशय प्रिय
अशुभ वरें; शुभ हित आशान्वित
क्रुद्ध रुद्ध तम ही वरते तम
युद्ध बुद्ध तुमसे करते हम
१७-६-२०२२
***
हास्य कुंडलिया
बाल पृष्ठ पर आ गए, हम सफेद ले बाल
बच्चों के सिर सोहते, देखो काले बाल
देखो काले बाल, कहीं हैं श्वेत-श्याम संग
दिखे कहीं बेबाल, न गंजा कह उतरे रंग
कहे सलिल बेनूर, सम्हालें विगें हस्त धर   
घूमें रँगे सियार, डाई कर बाल पृष्ठ पर  
पाक कला के दिवस पर, हर हरकत नापाक
करे पाक चटनी बना, काम कीजिए पाक
काम कीजिए पाक, नहीं होती है सीधी
कुत्ते की दुम रहे, काट दो फिर भी टेढ़ी
कहता कवि संजीव, जाएँ सरहद पर महिला
कविता बम फेंके, भागे दुश्मन दिल दहला
नई बहुरिया आ गई, नई नई हर बात
परफ्यूमे भगवान को, प्रेयर कर नित प्रात
प्रेयर कर नित प्रात, फास्ट भी ब्रेक कराती
ब्रेक फास्ट दे लंच न दे, फिरती इठलाती
न्यून वसन लख, आँख शर्म से हरि की झुक गई
मटक रही बेचीर, द्रौपदी फैशन कर नई
१७-५-२०२०
गीत
गीत कुंज में सलिल प्रवहता,
पता न गजल गली का जाने
मीत साधना करें कुंज में
प्रीत निलय है सृजन पुंज में
रीत पुनीत प्रणीत बन रही
नव फैशन कैसे पहचाने?
नेह नर्मदा कलकल लहरें
गजल शिला पर तनिक न ठहरें
माटी से मिल पंकज सिरजें
मिटतीं जग की तृषा बुझाने
तितली-भँवरे रुकें न ठहरें
गीत ध्वजाएँ नभ पर फहरें
छप्पय दोहे संग सवैये
आल्हा बम्बुलिया की ताने
***
१६-५-२०२०
गीत
*
नेह नरमदा घाट नहाते
दो पंछी रच नई कहानी
*
लहर लहर लहराती आती
घुल-मिल कथा नवल कह जाती
चट्टानों पर शीश पटककर
मछली के संग राई गाती
राई- नोंन उतारे झटपट
सास मेंढकी चतुर सयानी
*
रेला आता हहर-हहरकर
मन सिहराता घहर-घहरकर
नहीं रेत पर पाँव ठहरते
नाव निहारे सिहर-सिहरकर
छूट हाथ से दूर बह चली
खुद पतवार राह अनजानी
*
इस पंछी का एक घाट है,
वह पंछी नित घाट बदलता
यह बैठा है धुनी रमाए
वह इठलाता फिरे टहलता
लीक पुरानी उसको भाती
इसे रुचे नवता लासानी
१६-५-२०२०
***
कार्यशाला
दोहा से कुण्डलिया
*
दोहा- आभा सक्सेना दूनवी
पपड़ी सी पपड़ा गयी, नदी किनारे छांव।
जेठ दुपहरी ढूंढती, पीपल नीचे ठांव।।
रोला- संजीव वर्मा 'सलिल'
पीपल नीचे ठाँव, न है इंची भर बाकी
छप्पन इंची खोज, रही है जुमले काकी
साइकल पर हाथी, शक्ल दीदी की बिगड़ी
पप्पू ठोंके ताल, सलिल बिन नदिया पपड़ी
*
दोहा- आभा सक्सेना
रदीफ़ क़ाफ़िया ढूंढ लो, मन माफ़िक़ सरकार|
ग़ज़ल बने चुटकी बजा, हों सुंदर अशआर||
रोला- संजीव वर्मा 'सलिल'
हों सुंदर अशआर, सजें ब्यूटीपार्लर में।
मोबाइल सम बसें, प्राण लाइक-चार्जर में
दिखें हैंडसम खूब, सुना भगे माफिया
जुमलों की बरसात, करेगा रदीफ-काफिया
१७.५.२०१९
***
छंद सलिला
मधुमालती छंद
*
छंद-लक्षण: जाति मानव, प्रति चरण मात्रा १४ मात्रा, यति ७-७, चरणांत गुरु लघु गुरु (रगण) होता है.
लक्षण छंद
मधुमालती आनंद दे
ऋषि साध सुर नव छंद दे।
गुरु लघु गुरुज चरणांत हो
हर छंद नवउत्कर्ष दे।
उदाहरण:
१. माँ भारती वरदान दो
सत्-शिव-सरस हर गान दो
मन में नहीं अभिमान हो
घर-घर 'सलिल' मधु गान हो।
२. सोते बहुत अब तो जगो
खुद को नहीं खुद ही ठगो
कानून को तोड़ो नहीं-
अधिकार भी छोडो नहीं
***
मुक्तक
जीवन-पथ पर हाथ-हाथ में लिए चलें।
ऊँच-नीच में साथ-साथ में दिए चलें।।
रमा-रमेश बने एक-दूजे की खातिर-
जीवन-अमृत घूँट-घूँट हँस पिए चलें।।
१७-५-२०१८
***
कृति चर्चा
आदमी जिंदा है लघुकथा संग्रह
आचार्य संजीव वर्मा सलिल जी का लघुकथा संग्रह आना लघुकथा की समृद्धि में चार-चाँद लगने जैसा है। आपको साहित्य जगत में किसी परिचय की आवश्यकता नहीं है। आप बेहद समृद्ध पृष्ठभूमि के रचनाकार है। साहित्य आपके रक्त के प्रवाह में है। बचपन से प्रबुद्ध-चिंतनशील परिवार, परिजनों तथा परिवेश में आपने नागरिक अभियंत्रण में त्रिवर्षीय डिप्लोमा, बी.ई., एम.आई.ई., एम.आई.जी.एस., अर्थशास्त्र तथा दर्शनशास्त्र में एम. ए., एल-एल. बी., विशारद, पत्रकारिता में डिप्लोमा, कंप्युटर ऍप्लिकेशन में डिप्लोमा किया है। आप गत ४ दशकों से हिंदी साहित्य तथा भाषा के विकास के लिये सतत समर्पित और सक्रिय हैं। गद्य-पद्य की लगभग सभी विधाओं, समीक्षा, तकनीकी लेखन, शोध लेख, संस्मरण, यात्रा वृत्त, साक्षात्कार आदि में आपने निरंतर सृजन कर अपनी पहचान स्थापित की है। देश-विदेश में स्थित पचास से अधिक सस्थाओं ने सौ से अधिक सम्मानों से साहित्य -सेवा में श्रेष्ठ तथा असाधारण योगदान के लिये आपको अलङ्कृत कर स्वयं को सम्मानित किया है।
मैं सदा से आपके लेखन की विविधता पर चकित होती आई हूँ। हिंदी भाषा के व्याकरण तथा पिंगल के अधिकारी विद्वान सलिल जी ने सिविल अभियंता तथा अधिवक्ता होते हुए भी हिंदी के समांतर बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, अवधी, छत्तीसगढ़ी, मालवी, निमाड़ी, राजस्थानी, हरयाणवी, सिरायकी तथा अंग्रेजी में भी लेखन किया है। मेकलसुता पत्रिका तथा साइट हिन्दयुग्मव साहित्य शिल्पी पर भाषा, छंद, अलंकार आदि पर आपकी धारावाहिक लेखमालाएँ बहुचर्चित रही हैं। ओपन बुक्स ऑनलाइन, युग मानस, ई कविता, अपने ब्लॉगों तथा फेसबुक पृष्ठों के माध्यम से भी आचार्य जी ने अपनी बहुमुखी प्रतिभा से हिंदी भाषा तथा छन्दों के प्रचार-प्रसार व को जोड़ने में प्रचुर योगदान किया है। अपनी बुआ श्री महीयसी महादेवी जी तथा माताजी कवयित्री शांति देवी को साहित्य व भाषा प्रेम की प्रेरणा माननेवाले सलिल जी ने विविध विधाओं में सृजन करने के साथ-साथ के साथ-साथ कई संस्कृत श्लोकों का हिंदी काव्यानुवाद किया है। उन्हें समीक्षा और समालोचना के क्षेत्र में भी महारत हासिल है।
सलिल जी जैसे श्रेष्ठ-ज्येष्ठ विविध विधाओं के मर्मज्ञ साहित्यकार की पुस्तक में अभिमत देने की बात सोचना भी मेरे लिये छोटा मुँह बड़ी बात है। सामान्यतः नयी कलमों की राह में वरिष्ठों द्वारा रोड़े अटकाने, शोषण करने और हतोत्साहित करने के काल में सलिल जी अपवाद हैं जो कनिष्ठों का मार्गदर्शन कर उनकी रचनाओं को लगातार सुधारते हैं, त्रुटियाँ इंगित करते हैं और जटिल प्रकरणों को प्रमाणिकता से स्नेहपूर्वक समझाते हैं। अपने से कनिष्ठों को समय से पूर्व आगे बढ़ने अवसर देने के लिये सतत प्रतिबद्ध सलिल जी ने पात्रता न होने के बाद भी विशेष अनुग्रह कर मुझे अपनी कृति पर सम्मति देने के लिये न केवल प्रोत्साहित किया अपितु पूरी स्वतंत्रता भी दी। उनके स्नेहादेश के परिपालनार्थ ही मैं इस पुस्तक में अपने मनोभाव व्यक्त करने का साहस जुटा रही हूँ। नव लघुकथाकारों के मार्गदर्शन के लिये आपके द्वारा लिखा गया लघुकथा विषयक आलेख एक प्रकाशस्तंभ के समान है। मैं स्वयं को भाग्यशाली समझती हूँ कि मुझे निरन्तर सलिल जी से बहुत कुछ सीखने मिल रहा है। किसी पुस्तक पर लिखना भी इस प्रशिक्षण की एक कड़ी है। सलिल जी आज भी अंतर्जाल पर हिंदी के विकास में प्रभावी भूमिका निभा रहे है।
गद्य साहित्य में लघुकथा एक तीक्ष्ण विधा है जो इंसान के मन-मस्तिष्क पर ऐसा प्रहार करती है कि पढ़ते ही पाठक तिलमिला उठता है। जीवन और जगत की विसंगतियों पर बौद्धिक आक्रोश और तिक्त अनुभूतियों को तीव्रता से कलमबद्ध कर पाठक को उसकी प्रतीति कराना ही लघुकथा का उद्देश्य है। सलिल जी के अनुसार लघुकथाकार परोक्षतः समाज के चिंतन और चरित्र में परिवर्तन हेतु लघुकथा का लेखन करता है किंतु प्रत्यक्षतः उपचार या सुझाव नहीं सुझाता। सीधे-सीधे उपचार या समाधान सुझाते ही लघुकथा में परिवर्तित हो जाती है। अपने लघुकथा-विषयक दिशादर्शी आलेख में आपके द्वारा जिक्र हुआ है कि “वर्त्तमान लघुकथा का कथ्य वर्णनात्मक, संवादात्मक, व्यंग्यात्मक, व्याख्यात्मक, विश्लेषणात्मक, संस्मरणात्मक हो सकता है किन्तु उसका लघ्वाकरी और मारक होना आवश्यक है। लघुकथा यथार्थ से जुड़कर चिंतन को धार देती है। लघुकथा प्रखर संवेदना की कथात्मक और कलात्मक अभिव्यक्ति है। लघुकथा यथार्थ के सामान्य-कटु, श्लील-अश्लील, गुप्त-प्रगट, शालीन-नग्न, दारुण-निर्मम किसी रूप से परहेज नहीं करती।” आपकी लघुकथाओं में बहुधा यही “लघ्वाकारी मारकता “ अन्तर्निहित है।”
लघुकथा लेखन के क्षेत्र में तकनीकों को लेकर कई भ्रान्तियाँ हैं। वरिष्ठ-लेखकों में परस्पर मतान्तर की स्थिति के कारण इस विधा में नवोदितों का लेखन अपने कलेवर से भटकता हुआ प्रतीत होता है। विधा कोई भी हो उसमें कुछ अनुशासन है किन्तु नव प्रयोगों के लिये कुछ स्वतंत्रता होना भी आवश्यक है। नये प्रयोग मानकों का विस्तार कर उनके इर्द-गिर्द ही किये जाने चाहिए जाना चाहिए, मानकों की उपेक्षा कर या मानकों को ध्वस्त कर नहीं। नामानुसार एक क्षण विशेष में घटित घटना को लघुतम कथ्य के रूप में अधिकतम क्षिप्रता के साथ पाठक तक संप्रेषित करना ही सार्थक लघुकथा लेखन का उद्देश्य होता है। लघुकथा समाज, परिवार व देशकाल की असहज परिस्थितियों को सहज भाव में संप्रेषित करने की अति विशिष्ट विधा है अर्थात कलात्मक-भाव में सहज बातों के असाधारण सम्प्रेषण से पाठक को चौकाने का माध्यम है लघुतामय लघुकथा।
“आदमी जिंदा है“ लघुकथा संग्रह वास्तव में पुस्तक के रूप में आज के समाज का आईना है। अपने देश ,समाज और पारिवारिक विसंगतियों को सलिल जी ने पैनी दृष्टि से देखा है, वक्र दृष्टि से नहीं। सलिल जी की परिष्कृत-दार्शनिक दृष्टि ने समाज में निहित अच्छाइयों को भी सकारात्मक सोच के साथ प्रेरणा देते सार्थक जीवन-सन्देश को आवश्यकतानुसार इंगित किया है, परिभाषित नहीं। वे देश की अर्थनीति, राजनीति और प्रशासनिक विसंगतियों पर सधी हुई भाषा में चौकानेवाले तथ्यों को उजागर करते हैं। इस लघुकथा संग्रह से लघुकथा- विधा मजबूती के साथ एक कदम और आगे बढ़ी है। यह बात मैं गर्व और विश्वास साथ कह सकती हूँ। सलिल जी जैसे वरिष्ठ -साहित्यकार का लघुकथा संग्रह इस विधा को एक सार्थक और मजबूत आधार देगा।
लघुकथाओं में सर्जनात्मकता समेटता कथात्मकता का आत्मीय परिवेश सलिल जी का वैशिष्ट्य है। उनका लघुकथाकार सत्य के प्रति समर्पित-निष्ठावान है, यही निष्ठां आपकी समस्त रचनाओं और पाठकों के मध्य संवेदना- सेतु का सृजन कर मन को मन से जोड़ता है। इन लघुकथाओं का वाचन आप-बीती का सा भान कराता है। पाठक की चेतना पात्रों और घटना के साथ-साथ ठिठकती-बढ़ती है और पाठक का मन भावुक होकर तादात्म्य स्थापित कर पाता है।
'आदमी जिंदा है' शीर्षकीय लघुकथा इस संग्रह को परिभाषित कर अपने कथ्य को विशेष तौर पर उत्कृष्ट बनाती है। “साहित्य का असर आज भी बरकरार है, इसीलिये आदमी जिंदा है। “ एक साहित्य सेवी द्वारा लिपिबद्ध ये पंक्तियाँ मन को मुग्ध करती है। बहुत ही सुन्दर और सार्थक कथ्य समाविष्ट है इस लघुकथा में।
“एकलव्य“ लघुकथा में कथाकार ने एकलव्य द्वारा भोंकते कुत्तों का मुँह तीरों से बंद करने को बिम्बित कर सार्थक सृजन किया है। न्यूनतम शब्दों में कथ्य का उभार पाठक के मन में विचलन तथा सहमति एक्स उत्पन्न करता है। लघुकथा का शिल्प चकित करनेवाला है।
'बदलाव का मतलब' में मतदाताओं के साथ जनप्रतिनिधि द्वारा ठगी को जबर्दस्त उभार दिया गया है। 'भयानक सपना' में हिंदी भाषा को लेकर एक विशिष्ट कथा का सशक्त सम्प्रेषण हुआ है। 'मन का दर्पण' में लेखक के मन की बात राजनैतिक उथल–पुथल को कथ्य के रूप में उभार सकी है। 'दिया' में विजातीय विवाह से उपजी घरेलू विसंगति और पदों का छोटापन दर्शित है। पूर्वाग्रह से ग्रसित सास को अपने आखिरी समय में बहू की अच्छाई दिखाई देती है जो मार्मिक और मननीय बन पड़ी है। 'करनी-भरनी' में शिक्षा नीति की धॉँधली और 'गुलामी' में देश के झंडे की अपने ही तंत्र से शिकायत और दुःख को मुखर किया गया है। 'तिरंगा' में राष्ट्रीय ध्वज के प्रति बालक के अबोध मन में शृद्धा का भाव, तिरंगे को रखने के लिये सम्मानित जगह का न मिलना और सीने से लगाकर सो जाना गज़ब का प्रभाव छोड़ता है। इस लघुकथा का रंग शेष लघुकथाओं से अलग उभरा है।
'अँगूठा' में बेरोजगारी, मँहगाई और प्रशासनिक आडम्बर पर निशाना साधा गया है। 'विक्षिप्तता', 'प्यार का संसार', 'वेदना का मूल' आदि लघुकथाएँ विशेष मारक बन पड़ी हैं। 'सनसनाते हुए तीर' तथा 'नारी विमर्श' लघुकथाओं में स्त्री विमर्श पर बतौर पुरुष आपकी कलम का बेख़ौफ़ चलना चकित करता है। सामान्यतः स्त्री विमर्शात्मक लघुकथाओं में पुरुष को कठघरे में खड़ा किया जाता है किन्तु सलिल जी ने इन लघुकथाओं में स्त्री-विमर्श पर स्त्री-पाखण्ड को भी इंगित किया है।
आपकी कई लघुकथाएँ लघुकथाओं संबंधी पारम्परिक-रूरक मानकों में हस्तक्षेप कर अपनी स्वतंत्र शैली गढ़ती हुई प्रतीत होती हैं। कहावत है 'लीक छोड़ तीनों चलें शायर, सिंह सपूत'। प्रचलित ”चलन” या रूढ़ियों से इतर चलना आप जैसे समर्थ साहित्यकार के ही बूते की बात है। आप जैसे छंद-शास्त्री, हिंदी-ज्ञाता, भाषा-विज्ञानी द्वारा गद्य साहित्य की इस लघु विधा में प्रयोग पाठकों के मन में गहराई तक उतर कर उसे झकझोरते हैं। आपकी लघुकथाओं का मर्म पाठको के चितन को आंदोलित करता है। ये लघुकथाएँ यथा तथ्यता, सांकेतिकता, बिम्बात्मकता एवं आंचलिकता के गुणों को अवरेखित करती है। अपनी विशिष्ट शैली में आपने वैज्ञानिकता का परिवेश बड़ी सहजता से जीवंत किया है। इन दृष्टियों से अब तक मैंने जो पूर्व प्रकाशित संग्रह पढ़े हैं में अपेक्षा इस संग्रह को पर्याप्त अधिक समृद्ध और मौलिक पाया है।
मुझे जीने दो, गुणग्राहक, निर्माण, चित्रगुप्त पूजन, अखबार, अंधमोह, सहिष्णुता इत्यादि कथाओं में भावों का आरोपण विस्मित करता है। यहाँ विभिन्न स्तरों पर कथ्य की अभिव्यंजना हुई है। शब्दों की विशिष्ट प्रयुक्ति से अभिप्रेत को बड़ी सघनता में उतारा गया है। इस संग्रह में कथाकार द्वारा अपने विशिष्ट कथ्य प्रयोजनों की सिद्धि हुई है। प्रतीकात्मक लघुकथाओं ने भी एक नया आयाम गढ़ा है।
लघुकथा 'शेष है' सकारात्मक भाव में एक जीवन्त रचना की प्रस्तुति है। यहाँ आपने 'कुछ अच्छा भी होता है, भले उसकी संख्या कम है' को बहुत सुन्दर कथ्य दिया है। 'समाज का प्रायश्चित्य' में समर्थ को दोष नहीं लगता है यानि उनके लिए नियमों को ताक पर रखा जा सकता है, को कथा-रूप में ढाला गया है। 'क्या खाप पंचायत इस स्वागत के बाद अपने नियम में बदलाव करेगी ? शायद नहीं!' बहुत ही बढ़िया कथ्य उभरकर आया है इस कथा में। गम्भीर और नूतन विषय चयन है। 'फल' में 'अँधेरा करना नहीं पड़ता, हो जाता है, उजाला होता नहीं ,करना पड़ता है' सनातन सत्य की सूक्ति रूप में अभिव्यक्ति है।
लघुतम रचनाओं में कथ्य का श्रेष्ठ-संतुलित संवहन देखते ही बनता है। ये लघुकथाएँ जीवन-सत्यों तथा सामाजिक-तथ्यों से पाठकों साक्षात्कार कराती है।
'वेदना का मूल' में मनुष्य की सब वेदना का मूल विभाजन जनित द्वेष को इंगित किया जाना चिंतन हेतु प्रेरित करता है। 'उलझी हुई डोर' में कथ्य की सम्प्रेषणीयता देखते ही बनती है। 'सम्मान की दृष्टि' शीर्षक लघुकथा अपने लिए सम्मान कमाना हमारे ही हाथ में है, यह सत्य प्रतिपादित करता है। लोग हमें कुछ भी समझे, लेकिन हमें स्वयं को पहले अपनी नजर में सम्मानित बनाना होगा। चिंतन के लिये प्रेरित कर मन को मनन-गुनन की ओर ले जाती हुई, शीर्षक को परिभाषित करती, बहुत ही सार्थक लघुकथा है यह।
'स्थानान्तरण' में दृश्यात्मक कथ्य खूबसूरत काव्यात्मकता के साथ विचारों का परिवर्तन दिखाई देता है। 'जैसे को तैसा' में पिता के अंधे प्यार के साये में संतान को गलत परवरिश देने की विसंगति चित्रित है। 'सफ़ेद झूठ' में सटीक कथ्य को ऊभारा है आपने। आपके द्वीरा रचित लघुकथायें अक्सर प्रजातंत्र व नीतियों पर सार्थक कटाक्ष कर स्वस्थ्य चिंतन हेतु प्रेरित करती है।
'चैन की सांस' में इंसानों के विविध रूप, सबकी अपनी-अपनी गाथा और चाह, भगवान भी किस-किसकी सुनें? उनको भी चैन से बाँसुरी बजाने के लिए समय चाहिए। एक नये कलेवर में, इस लघुकथा का अनुपम सौंदर्य है।
'भारतीय' लघुकथा में चंद शब्दों में कथ्य का महा-विस्तार चकित करता है। 'ताना-बाना' हास्य का पुट लिये भिन्न प्रकृति की रचना है जिसे सामान्य मान्यता के अनुसार लघुकथा नहीं भी कहा जा सकता है। ऐसे प्रयोग सिद्धहस्त सकती हैं।'संक्रांति' हमारी भारतीय संस्कृति की सुकोमल मिठास को अभिव्यक्ति देती एक बहुत ही खूबसूरत कथा है।
'चेतना शून्य' में दो नारी व्यक्तित्वों को उकेरा गया है, एक माँ है जो अंतर्मुखी है और उसी भाव से अपने जीवन की विसंगतियों के साथ बेटी के परवरिश में अपने जीवन की आहुति देती है । यहाँ माँ से इतर बेटी का उन्मुक्त जीवन देख घरेलू माँ का चेतना शून्य होना स्वभाविक है । चंद पंक्तियों में यह स्त्री-विमर्श से जुड़ा हुआ बहुत बडा मुद्दा है। चिंतन-मनन के लिए परिदृश्य का वृहत विस्तार है। 'हवा का रुख' में 'सयानी थी, देर न लगाई पहचानने में हवा का रुख' को झकझोरता है। इस सकारात्मक कथा पाठकों को अभिभूत करती है। 'प्यार का संसार' में भाईचारे का ऐसा मार्मिक-जिवंत दृश्य है कि पाठक का मन भीतर तक भीग जाता है।
'अविश्वासी मन' में रुपयों का घर में और और सास पर शक करने को इतनी सहजता से आपने वर्णित किया है कि सच में अपने अविश्वासी मन पर ग्लानी होती है। 'अनुभूति' में आपने अंगदान की महत्ता दर्शाता कथ्य दिया है।
'कल का छोकरा' में बच्चे की संवेदनशीलता वर्णित है। बच्चे जिन पर यकीन करने में हम बड़े अकारण हिचकिचाते है, को सकारात्मक सन्देश के साथ शब्दित किया गया है।
निष्कर्षतः, 'आदमी ज़िंदा है' की लघुकथाओं में संकेत व अभिव्यंजनाओं के सहारे गहरा व्यंग्य छिपा मिलता है जिसका प्रहार बहुत तीखा होता है। सार्थकता से परिपूर्ण सलिल जी की इन लघुकथाओं में मैंने हरिशंकर परसाई खलील जिब्रान, मंटो, कन्हैया लाल मिश्र, हरिशंकर प्रसाद, शंकर पुणताम्बेकर, उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’ तथा जयशंकर प्रसाद की लघुकथाओं की तरह दार्शनिक व यथार्थवादी छवि को आभासित पाया है। बुन्देली-माटी की सौंधी खुशबू रचनाओं में अपनत्व की तरावट को घोलती है। सलिल जी के इस लघुकथा संग्रह में वर्तमान समाज की धड़कनें स्पंदित हैं। मुझे आशा ही नहीं पूरा विश्वास है कि इस लघुकथा संग्रह पूर्ण अपनत्व के साथ स्वागत होगा तथा सलिल जी भविष्य में भी लघुकथा विधा के विकास में महत्वपूर्ण योगदान देते रहेंगे।
एफ -२, वी-५ विनायक होम्स श्रीमती कान्ता राॅय
मयूर विहार, अशोका गार्डन भोपाल - 462023
मो .9575465147 roy.kanta69@gmail.com
***
मुक्तिका
जितने चेहरे उतने रंग
सबकी अलग-अलग है जंग
.
ह्रदय एक का है उदार पर
दूजे का दिल बेहद तंग
.
तन मन से अतिशय प्रसन्न है
मन तन से है बेहद तंग
.
रंग भंग में डाल न करना
मतवाले तू रंग में भंग
.
अवगुंठन में समझदार है
नासमझों के दर्शित अंग
.
जंग लगी जिसके दिमाग में
वह नाहक ही छेड़े जंग
.
बेढंगे में छिपा हुआ है
खोज सको तो खोजो ढंग
.
नेह नर्मदा 'सलिल' स्वच्छ पर
अधिकारों की दूषित गंग
१७-५-२०१६
***
द्विपदी
वफ़ा के बदले वफ़ा चाहिए हो यार तुम्हें
'सलिल' की ओर ज़माने को छोड़ मुख करना
***
दोहा सलिला:
*
आँखों का काजल चुरा, आँखें कहें: 'जनाब!
दिल के बदले दिल लिया, पूरा हुआ हिसाब
*
प्रहसन मंचित हो गया, बजीं तालियाँ खूब
समरथ की जय हो गयी, पीड़ित रोये डूब
.
बरसों बाद सजा मिली, गये न पल को जेल
न्याय लगा अन्याय सा, पल में पायी बेल
.
दोष न कारों का तनिक, दोषी है फुटपाथ
जो कुचले-मारे गये, मिले झुकाए माथ
.
छद्म तर्क से सच छिपा, ज्यों बादल से चाँद
दोषी गरजे शेर सा, पीड़ित छिपता मांद
.
नायक कारें ले करें, जनसंख्या कंट्रोल
दिल पर घूँसा मारता, गायक कडवा बोल
.
पट्टी बाँधे आँख पर, तौल रही है न्याय
अजब व्यवस्था धनी की, जय- निर्धन निरुपाय
.
मोटी-मोटी फीस है, खोटे-खोते तर्क
दफन सत्य को कर रहे, पिला झूठ का अर्क
.
दौलत की जय बोलना, दुनिया का दस्तूर
एकांगी जब न्याय हो लगे वधिक सा क्रूर
.
तिल को ताड़ बना दिया, और ताड़ को तिल
रुपयों की खनकार से घायल निर्धन-दिल
***
मुक्तिका:
*
आशा कम विश्वास बहुत है
श्लेष तनिक अनुप्रास बहुत है
सदियों का सुख कम लगता है
पल भर का संत्रास बहुत है
दुःख का सागर पी सकता है
ऋषि अँजुरीवत हास बहुत है
हार न माने मरुस्थलों से
फिर उगेगी घास बहुत है
दिल-कुटिया को महल बनाने
प्रिये! तुम्हारा दास बहुत है
विरह-अग्नि में सुधियाँ चन्दन
मिलने का अहसास बहुत है
आम आम के रस पर रीझे
'सलिल' न कहना खास बहुत है
***
दोहा
करें आरती सत्य की, पूजें श्रम को नित्य
हों सहाय सब देवता, तजिए स्वार्थ अनित्य
*
दोहा गर किताब पढ़ बन रहा, रिश्वतखोर समाज
पूज परिश्रम हम रचें, एक लीक नव आज
१७-५-२०१५
दोहा गाथा ७
दोहा साक्षी समय का
संजीव
युवा ब्राम्हण कवि ने दोहे की प्रथम पंक्ति लिखी और कागज़ को अपनी पगड़ी में खोंस लिया। बार -बार प्रयास करने पर भी दोहा पूर्ण न हुआ। परिवार जनों ने पगड़ी रंगरेजिन शेख को दे दी। शेख ने न केवल पगड़ी धोकर रंगी अपितु दोहा भी पूर्ण कर दिया। शेख की काव्य-प्रतिभा से चमत्कृत आलम ने शेख के चाहे अनुसार धर्म परिवर्तन कर उसे जीवनसंगिनी बना लिया। आलम-शेख को मिलनेवाला दोहा निम्न है:
आलम - कनक छुरी सी कामिनी, काहे को कटि छीन?
शेख - कटि को कंचन काट विधि, कुचन मध्य धर दीन।
संस्कृत पाली प्राकृत, डिंगल औ' अपभ्रंश.
दोहा सबका लाडला, सबसे पाया अंश.
दोहा दे आलोक तो, उगे सुनहरी भोर.
मौन करे रसपान जो, उसे न रुचता शोर.
सुनिए दोहा-पुरी में, श्वास-आस की तान.
रस-निधि पा रस-लीन हों, जीवन हो रसखान.
समय क्षेत्र भाषा करें, परिवर्तन दिन-रात.
सत्य न लेकिन बदलता, कहता दोहा प्रात.
सीख-सिखाना जिन्दगी, इसे बंदगी मान.
जन्म सार्थक कीजिए, कर कर दोहा-गान.
शीतल करता हर तपन, दोहा धरकर धीर.
भूला-बिसरा याद कर, मिटे ह्रदय की पीर.
दिव्य दिवाकर सा अमर, दोहा अनुपम छंद.
गति-यति-लय का संतुलन, देता है आनंद.
पढ़े-लिखे को भूलकर, होते तनहा अज्ञ.
दे उजियारा विश्व को, नित दीपक बन विज्ञ.
अंग्रेजी के मोह में, हैं हिन्दी से दूर.
जो वे आँखें मूँदकर, बने हुए हैं सूर.
जगभाषा हिन्दी पढ़ें, सारे पश्चिम देश.
हिंदी तजकर हिंद में, हैं बेशर्म अशेष.
सरल बहुत है कठिन भी, दोहा कहना मीत.
मन जीतें मन हारकर, जैसे संत पुनीत.
स्रोत दिवाकर का नहीं, जैसे कोई ज्ञात.
दोहे का उद्गम 'सलिल', वैसे ही अज्ञात.
दोहा की सामर्थ्य जानने के लिए एक ऐतिहासिक प्रसंग की चर्चा करें। इन्द्रप्रस्थ नरेश पृथ्वीराज चौहान अभूतपूर्व पराक्रम, श्रेष्ठ सैन्यबल, उत्तम आयुध तथा कुशल रणनीति के बाद भी मो॰ गोरी के हाथों पराजित हुए। उनकी आँखें फोड़कर उन्हें कारागार में डाल दिया गया। उनके बालसखा निपुण दोहाकार चंदबरदाई (संवत् १२०५-१२४८) ने अपने मित्र को जिल्लत की जिंदगी से आजाद कराने के लिए दोहा का सहारा लिया। उसने गोरी से सम्राट की शब्द-भेदी बाणकला की प्रशंसा कर परीक्षा किए जाने को उकसाया। परीक्षण के समय बंदी सम्राट के कानों में समीप खड़े कवि मित्र द्वारा कहा गया दोहा पढ़ा, दोहे ने गजनी के सुल्तान के आसन की ऊंचाई तथा दूरी पल भर में बता दी। असहाय दिल्लीपति ने दोहा हृदयंगम किया और लक्ष्य साध कर तीर छोड़ दिया जो सुल्तान का कंठ चीर गया। सत्तासीन सम्राट हार गया पर दोहा ने अंधे बंदी को अपनी हार को जीत में बदलने का अवसर दिया, ऐसी है दोहा, दोहाकार और दोहांप्रेमी की शक्ति। वह कालजयी दोहा है-
चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण.
ता ऊपर सुल्तान है, मत चुक्कै चव्हाण.
इतिहास गढ़ने, मोड़ने, बदलने तथा रचने में सिद्ध दोहा की जन्म कुंडली महाकवि कालिदास (ई. पू. ३००) के विकेमोर्वशीयम के चतुर्थांक में है.
मइँ जाणिआँ मिअलोअणी, निसअणु कोइ हरेइ.
जावणु णवतलिसामल, धारारुह वरिसेई..
शृंगार रसावतार महाकवि जयदेव की निम्न द्विपदी की तरह की रचनाओं ने भी संभवतः वर्तमान दोहा के जन्म की पृष्ठभूमि तैयार करने में योगदान किया हो.
किं करिष्यति किं वदष्यति, सा चिरं विरहेऽण.
किं जनेन धनेन किं मम, जीवितेन गृहेऽण.
हिन्दी साहित्य के आदिकाल (७००ई. - १४००ई..) में नाथ सम्प्रदाय के ८४ सिद्ध संतों ने विपुल साहित्य का सृजन किया. सिद्धाचार्य सरोजवज्र (स्वयंभू / सरहपा / सरह वि. सं. ६९०) रचित दोहाकोश एवं अन्य ३९ ग्रंथों ने दोहा को प्रतिष्ठित किया।
जहि मन पवन न संचरई, रवि-ससि नांहि पवेस.
तहि वट चित्त विसाम करू, सरहे कहिअ उवेस.
दोहा की यात्रा भाषा के बदलते रूप की यात्रा है. देवसेन के इस दोहे में सतासत की विवेचना है-
जो जिण सासण भाषीयउ, सो मई कहियउ सारु.
जो पालइ सइ भाउ करि, सो सरि पावइ पारू.
चलते-चलते ८ वीं सदी के उत्तरार्ध का वह दोहा देखें जिसमें राजस्थानी वीरांगना युद्ध पर गए अपने प्रीतम को दोहा-दूत से संदेश भेजती है कि वह वायदे के अनुसार श्रावण की पहली तीज पर न आया तो प्रिया को जीवित नहीं पायेगा.
पिउ चित्तोड़ न आविउ, सावण पैली तीज.
जोबै बाट बिरहणी, खिण-खिण अणवे खीज.
संदेसो पिण साहिबा, पाछो फिरिय न देह.
पंछी थाल्या पींजरे, छूटण रो संदेह.
निवेदन है कि अपने अंचल एवं आंचलिक भाषा में जो रोचक प्रसंग दोहे में हों उन्हें खोजकरभेजें:
दोहा साक्षी समय का, कहता है युग सत्य।
ध्यान समय का जो रखे, उसको मिलता गत्य॥
दोहा रचना मेँ समय की महत्वपूर्ण भूमिका है। दोहा के चारों चरण निर्धारित समयावधि में बोले जा सकें, तभी उन्हें विविध रागों में संगीतबद्ध कर गाया जा सकेगा। इसलिए सम तथा विषम चरणों में क्रमशः १३ व ११ मात्रा होना अनिवार्य है।
दोहा ही नहीं हर पद्य रचना में उत्तमता हेतु छांदस मर्यादा का पालन किया जाना अनिवार्य है। हिंदी काव्य लेखन में दोहा प्लावन के वर्तमान काल में मात्राओं का ध्यान रखे बिना जो दोहे रचे जा रहे हैं, उन्हें कोई महत्व नहीं मिल सकता। मानक मापदन्डों की अनदेखी कर मनमाने तरीके को अपनी शैली माने या बताने से अशुद्ध रचना शुद्ध नहीं हो जाती। किसी रचना की परख भाव तथा शैली के निकष पर की जाती है। अपने भावों को निर्धारित छंद विधान में न ढाल पाना रचनाकार की शब्द सामर्थ्य की कमी है।
किसी भाव की अभिव्यक्ति के तरीके हो सकते हैं। कवि को ऐसे शब्द का चयन करना होता है जो भाव को अभिव्यक्त करने के साथ निर्धारित मात्रा के अनुकूल हो। यह तभी संभव है जब मात्रा गिनना आता हो। मात्रा गणना के प्रकरण पर पूर्व में चर्चा हो चुकने पर भी पुनः कुछ विस्तार से लेने का आशय यही है कि शंकाओं का समाधान हो सके.
"मात्रा" शब्द अक्षरों की उच्चरित ध्वनि में लगनेवाली समयावधि की ईकाई का द्योतक है। तद्‌नुसार हिंदी में अक्षरों के केवल दो भेद १. लघु या ह्रस्व तथा २. गुरु या दीर्घ हैं। इन्हें आम बोलचाल की भाषा में छोटा तथा बडा भी कहा जाता है। इनका भार क्रमशः १ तथा २ गिना जाता है। अक्षरों को लघु या गुरु गिनने के नियम निर्धारित हैं। इनका आधार उच्चारण के समय हो रहा बलाघात तथा लगनेवाला समय है।
१. एकमात्रिक या लघु रूपाकारः
अ.सभी ह्रस्व स्वर, यथाः अ, इ, उ, ॠ।
ॠषि अगस्त्य उठ इधर ॰ उधर, लगे देखने कौन?
१+१ १+२+१ १+१ १+१+१ १+१+१
आ. ह्रस्व स्वरों की ध्वनि या मात्रा से संयुक्त सभी व्यंजन, यथाः क,कि,कु, कृ आदि।
किशन कृपा कर कुछ कहो, राधावल्लभ मौन ।
१+१+१ १+२ १+१ १+१ १+२
इ. शब्द के आरंभ में आनेवाले ह्रस्व स्वर युक्त संयुक्त अक्षर, यथाः त्रय में त्र, प्रकार में प्र, त्रिशूल में त्रि, ध्रुव में ध्रु, क्रम में क्र, ख्रिस्ती में ख्रि, ग्रह में ग्र, ट्रक में ट्र, ड्रम में ड्र, भ्रम में भ्र, मृत में मृ, घृत में घृ, श्रम में श्र आदि।
त्रसित त्रिनयनी से हुए, रति ॰ ग्रहपति मृत भाँति ।
१+१+१ १+१+१+२ २ १+२ १‌+१ १+१+१+१ १+१ २+१
ई. चंद्र बिंदु युक्त सानुनासिक ह्रस्व वर्णः हँसना में हँ, अँगना में अँ, खिँचाई में खिँ, मुँह में मुँ आदि।
अँगना में हँस मुँह छिपा, लिये अंक में हंस ।
१+१+२ २ १+१ १+१ १+२, १‌+२ २‌+१ २ २+१
उ. ऐसा ह्रस्व वर्ण जिसके बाद के संयुक्त अक्षर का स्वराघात उस पर न होता हो या जिसके बाद के संयुक्त अक्षर की दोनों ध्वनियाँ एक साथ बोली जाती हैं। जैसेः मल्हार में म, तुम्हारा में तु, उन्हें में उ आदि।
उन्हें तुम्हारा कन्हैया, भाया सुने मल्हार ।
१+२ १+२+२ १+२+२ २+२ १+२ १+२+१
ऊ. ऐसे दीर्घ अक्षर जिनके लघु उच्चारण को मान्यता मिल चुकी है। जैसेः बारात ॰ बरात, दीवाली ॰ दिवाली, दीया ॰ दिया आदि। ऐसे शब्दों का वही रूप प्रयोग में लायें जिसकी मात्रा उपयुक्त हों।
दीवाली पर बालकर दिया, करो तम दूर ।
२+२+२ १+१ २+१+१+१ १+२ १+२ १ =१ २+१
ए. ऐसे हलंत वर्ण जो स्वतंत्र रूप से लघु बोले जाते हैं। यथाः आस्मां ॰ आसमां आदि। शब्दों का वह रूप प्रयोग में लायें जिसकी मात्रा उपयुक्त हों।
आस्मां से आसमानों को छुएँ ।
२+२ २ २+१+२+२ २ १+२
ऐ. संयुक्त शब्द के पहले पद का अंतिम अक्षर लघु तथा दूसरे पद का पहला अक्षर संयुक्त हो तो लघु अक्षर लघु ही रहेगा। यथाः पद॰ध्वनि में द, सुख॰स्वप्न में ख, चिर॰प्रतीक्षा में र आदि।
पद॰ ध्वनि सुन सुख ॰ स्वप्न सब, टूटे देकर पीर।
१+१ १+१ १+१ १+१ २+१ १+१
द्विमात्रिक, दीर्घ या गुरु के रूपाकारों पर चर्चा अगले पाठ में होगी। आप गीत, गजल, दोहा कुछ भी पढें, उसकी मात्रा गिनकर अभ्यास करें। धीरे॰धीरे समझने लगेंगे कि किस कवि ने कहाँ और क्या चूक की ? स्वयं आपकी रचनाएँ इन दोषों से मुक्त होने लगेंगी।
अंत में एक किस्सा, झूठा नहीं, सच्चा...
फागुन का मौसम और होली की मस्ती में किस्सा भी चटपटा ही होना चाहिए न... महाप्राण निराला जी को कौन नहीं जानता? वे महाकवि ही नहीं महामानव भी थे। उन्हें असत्य सहन नहीं होता था। भय या संकोच उनसे कोसों दूर थे। बिना किसी लाग-लपेट के सच बोलने में वे विश्वास करते थे। उनकी किताबों के प्रकाशक श्री दुलारेलाल भार्गव द्वारा रचित दोहा संकलन का विमोचन समारोह आयोजित था। बड़े-बड़े दौनों में शुद्ध घी का हलुआ खाते-खाते उपस्थित कविजनों में भार्गव जी की प्रशस्ति-गायन की होड़ लग गयी। एक कवि ने दुलारेलाल जी के दोहा संग्रह को महाकवि बिहारी के कालजयी दोहा संग्रह "बिहारी सतसई" से श्रेष्ठ कह दिया तो निराला जी यह चाटुकारिता सहन नहीं कर सके, किन्तु मौन रहे। तभी उन्हें संबोधन हेतु आमंत्रित किया गया। निराला जी ने दौने में बचा हलुआ एक साथ समेटकर खाया, कुर्ते की बाँह से मुँह पोंछा और शेर की तरह खड़े होकर बडी-बडी आँखों से चारों ओर देखते हुए एक दोहा कहा। उस दिन निराला जी ने अपने जीवन का पहला और अंतिम दोहा कहा, जिसे सुनते ही चारों तरफ सन्नाटा छा गया, दुलारेलाल जी की प्रशस्ति कर रहे कवियों ने अपना चेहरा छिपाते हुए सरकना शुरू कर दिया। खुद दुलारेलाल जी भी नहीं रुक सके। सारा कार्यक्रम चंद पलों में समाप्त हो गया।
इस दोहे और निराला जी की कवित्व शक्ति का आनंद लीजिए और अपनी प्रतिक्रिया दीजिए।
वह दोहा जिसने बीच महफिल में दुलारेलाल जी और उनके चमचों की फजीहत कर दी थी, इस प्रकार है-
कहाँ बिहारी लाल हैं, कहाँ दुलारे लाल?
कहाँ मूँछ के बाल हैं, कहाँ पूँछ के बाल?
१७-५-२०१३
***
कुण्डलिया
हरियाली ही हर सके, मन का खेद-विषाद.
मानव क्यों कर रहा है, इसे नष्ट-बर्बाद?
इसे नष्ट-बर्बाद, हाथ मल पछतायेगा.
चेते, सोचे, सम्हाले, हाथ न कुछ आयेगा.
कहे 'सलिल' मन-मोर तभी पाये खुशहाली.
दस दिश में फैलायेंगे जब हम हरियाली..
***
दोहा
होता रूप अरूप जब, आत्म बने विश्वात्म.
शब्दाक्षर कर वन्दना, देख सकें परमात्म..
***
***
मुक्तक
भारत नहीं झुका है, भारत नहीं झुकेगा.
भारत नहीं रुका है, भारत नहीं रुकेगा..
हम-आप मेहनती हों, हम-आप एक-नेक हों तो-
भारत नहीं पिटा है, भारत नहीं पिटेगा..
१७-५-२०११
***

शनिवार, 18 जनवरी 2025

जनवरी १८, सॉनेट, लघुकथा, नवगीत, सुजान छंद, रूपमाला, शाल, आभा,

सलिल सृजन जनवरी १८
सॉनेट
कनक हिरन
कनक हिरन आज अवध भेज रे अहेरी,
कनक महल कनक शिखर कनक द्वार बस रहे,
कनककशिपु कनक अक्ष ठठा ठठा हँस रहे,
कनक की बना बिछा सेज रे अहेरी।
कनक जोड़ जोड़ बढ़ा तेज रे अहेरी,
कनक कनक से अधिक मादक ले मान,
कनक कनक से अधिक पातक ले जान,
कनक की सनक नहीं सहेज रे अहेरी।
कन न साथ जाए कभी त्याग रे अहेरी,
जोड़-होड़ द्रोह-मोह छोड़ चेत आप,
कनकासुर वधें राम मत कर अभिमान।
छन न कभी राह तके कभी न कर देरी,
राग-द्वेष, नाश करें, नफरत है शाप,
पद-मद से दूर, कह न सत्ता भगवान।
१८.१.२०२४
•••
सॉनेट
दीप प्रज्जवलन
*
दीप ज्योति सब तम हरे, दस दिश करे प्रकाश।
नव प्रयास हो वर्तिका, ज्योति तेल जल आप।
पंथ दिखाएँ लक्ष्य वर, हम छू लें आकाश।।
शिखर-गह्वर को साथ मिल, चलिए हम लें नाप।।
पवन परीक्षा ले भले, कँपे शिखा रह शांत।
जले सुस्वागत कह सतत, कर नर्तन वर दीप।
अगरु सुगंध बिखेर दे, रहता धूम्र प्रशांत।।
भवसागर निर्भीक हो, मन मोती तन सीप।।
एक नेक मिल कर सकें, शारद का आह्वान।
चित्र गुप्त साकार हो, भाव गहें आकार।
श्री गणेश विघ्नेश हर, विघ्न ग्रहणकर मान।।
शुभाशीष दें चल सके, शुभद क्रिया व्यापार।।
दीप जले जलता रहे, हर पग पाए राह।
जिसके मन में जो पली, पूरी हो वह चाह।।
छंद- दोहा
१८-१-२०२२
***
छंद शाला
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
पाठ
कथ्य भाव लय छंद है
*
(इस लेख माला का उद्देश्य नवोदित कवियों को छंदों के तत्वों, प्रकारों, संरचना, विधानों तथा उदाहरणों से परिचित कराना है। लेखमाला के लेखक आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ख्यात छन्दशास्त्री, नवगीतकार, लघुकथाकार, संपादक व् समालोचक हैं। सलिलजी ने ५०० से अधिक नए छंदों का अन्वेषण किया है। लेखमाला के भाग १ में मूल अवधारणों को स्पष्ट करते हुए दोहा लेखन के सूत्र स्पष्ट किये गए हैं। - सं.)
*
भाषा :
अनुभूतियों से उत्पन्न भावों को अभिव्यक्त करने के लिए भंगिमाओं या ध्वनियों की आवश्यकता होती है। भंगिमाओं से नृत्य, नाट्य, चित्र आदि कलाओं का विकास हुआ। ध्वनि से भाषा, वादन एवं गायन कलाओं का जन्म हुआ।
चित्र गुप्त ज्यों चित्त का, बसा आप में आप।
भाषा सलिला अनाहद, भाव-भंगिमा जाप।।
भाषा वह साधन है जिससे हम अपने भाव एवं विचार अन्य लोगों तक पहुँचा पाते हैं अथवा अन्यों के भाव और विचार गृहण कर पाते हैं। यह आदान-प्रदान वाणी के माध्यम से (मौखिक) या लेखनी के द्वारा (लिखित) होता है।
निर्विकार अक्षर रहे मौन, शांत निः शब्द।
भाषा वाहक भाव की, माध्यम हैं लिपि-शब्द।।
व्याकरण ( ग्रामर ) -
व्याकरण ( वि + आ + करण ) का अर्थ भली-भाँति समझना है। व्याकरण भाषा के शुद्ध एवं परिष्कृत रूप सम्बन्धी नियमोपनियमों का संग्रह है। भाषा के समुचित ज्ञान हेतु वर्ण विचार (ओर्थोग्राफी) अर्थात वर्णों (अक्षरों) के आकार, उच्चारण, भेद, संधि आदि , शब्द विचार (एटीमोलोजी) याने शब्दों के भेद, उनकी व्युत्पत्ति एवं रूप परिवर्तन आदि तथा वाक्य विचार (सिंटेक्स) अर्थात वाक्यों के भेद, रचना और वाक्य विश्लेषण को जानना आवश्यक है।
वर्ण शब्द संग वाक्य का, कविगण करें विचार।
तभी पा सकें वे 'सलिल', भाषा पर अधिकार।।
वर्ण / अक्षर :
ध्वनि विशेष के लिए निर्धारित रैखिक आकार को वर्ण कहा जाता है। उस आकार से वही ध्वनि समझी जाती है। वर्ण के दो प्रकार स्वर (वोवेल्स) तथा व्यंजन (कोंसोनेंट्स) हैं।
अजर अमर अक्षर अजित, ध्वनि कहलाती वर्ण।
स्वर-व्यंजन दो रूप बिन, हो अभिव्यक्ति विवर्ण।।
स्वर ( वोवेल्स ) :
स्वर वह मूल ध्वनि है जिसे विभाजित नहीं किया जा सकता, वह अक्षर है। स्वर के उच्चारण में अन्य वर्णों की सहायता की आवश्यकता नहीं होती। यथा - अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:। स्वर के दो प्रकार १. हृस्व (अ, इ, उ, ऋ) तथा दीर्घ (आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:) हैं।
अ, इ, उ, ऋ हृस्व स्वर, शेष दीर्घ पहचान।
मिलें हृस्व से हृस्व स्वर, उन्हें दीर्घ ले मान।।
व्यंजन (कांसोनेंट्स) :
व्यंजन वे वर्ण हैं जो स्वर की सहायता के बिना नहीं बोले जा सकते। व्यंजनों के चार प्रकार १. स्पर्श (क वर्ग - क, ख, ग, घ, ङ्), (च वर्ग - च, छ, ज, झ, ञ्.), (ट वर्ग - ट, ठ, ड, ढ, ण्), (त वर्ग त, थ, द, ढ, न), (प वर्ग - प,फ, ब, भ, म) २. अन्तस्थ (य वर्ग - य, र, ल, व्, श), ३. (उष्म - श, ष, स ह) तथा ४. (संयुक्त - क्ष, त्र, ज्ञ) हैं। अनुस्वार (अं) तथा विसर्ग (अ:) भी व्यंजन हैं।
भाषा में रस घोलते, व्यंजन भरते भाव।
कर अपूर्ण को पूर्ण वे मेटें सकल अभाव।।
शब्द :
अक्षर मिलकर शब्द बन, हमें बताते अर्थ।
मिलकर रहें न जो 'सलिल', उनका जीवन व्यर्थ।।
अक्षरों का ऐसा समूह जिससे किसी अर्थ की प्रतीति हो शब्द कहलाता है। यह भाषा का मूल तत्व है।
शब्द के प्रकार
१. अर्थ की दृष्टि से : सार्थक (जिनसे अर्थ ज्ञात हो यथा - कलम, कविता आदि) एवं निरर्थक (जिनसे किसी अर्थ की प्रतीति न हो यथा - अगड़म बगड़म आदि)।
२. व्युत्पत्ति (बनावट) की दृष्टि से : रूढ़ (स्वतंत्र शब्द - यथा भारत, युवा, आया आदि), यौगिक (दो या अधिक शब्दों से मिलकर बने शब्द जो पृथक किए जा सकें यथा - गणवेश, छात्रावास, घोड़ागाड़ी आदि) एवं योगरूढ़ (जो दो शब्दों के मेल से बनते हैं पर किसी अन्य अर्थ का बोध कराते हैं यथा - दश + आनन = दशानन = रावण, चार + पाई = चारपाई = खाट आदि)।
३. स्रोत या व्युत्पत्ति के आधार पर तत्सम (मूलतः संस्कृत शब्द जो हिन्दी में यथावत प्रयोग होते हैं यथा - अम्बुज, उत्कर्ष आदि), तद्भव (संस्कृत से उद्भूत शब्द जिनका परिवर्तित रूप हिन्दी में प्रयोग किया जाता है। यथा - निद्रा से नींद, छिद्र से छेद, अर्ध से आधा, अग्नि से आग आदि) अनुकरण वाचक (विविध ध्वनियों के आधार पर कल्पित शब्द यथा - घोडे की आवाज से हिनहिनाना, बिल्ली के बोलने से म्याऊँ आदि), देशज (आदिवासियों अथवा प्रांतीय भाषाओँ से लिए गए शब्द जिनकी उत्पत्ति का स्रोत अज्ञात है यथा - खिड़की, कुल्हड़ आदि), विदेशी शब्द ( संस्कृत के अलावा अन्य भाषाओँ से लिए गए शब्द जो हिन्दी में जैसे के तैसे प्रयोग होते हैं यथा - अरबी से - कानून, फकीर, औरत आदि, अंग्रेजी से - स्टेशन, स्कूल, ऑफिस आदि)।
४. प्रयोग के आधार पर विकारी (वे शब्द जिनमें संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया या विशेषण के रूप में प्रयोग किए जाने पर लिंग, वचन एवं कारक के आधार पर परिवर्तन होता है यथा - लड़का लड़के लड़कों लड़कपन, अच्छा अच्छे अच्छी अच्छाइयां आदि), अविकारी (वे शब्द जिनके रूप में कोई परिवर्तन नहीं होता. इन्हें अव्यय कहते हैं। इनके प्रकार क्रिया विशेषण, सम्बन्ध सूचक, समुच्चय बोधक तथा विस्मयादि बोधक हैं। यथा - यहाँ, कहाँ, जब, तब, अवश्य, कम, बहुत, सामने, किंतु, आहा, अरे आदि) भेद किए गए हैं।
छंद :
सामान्यतः ध्वनि से उत्पन्न लयखंड को पहचानने के लिये छन्द शब्द का प्रयोग किया जाता है। 'चद' धातु से बने 'छंद' शब्द का अर्थ आल्हादित या प्रसन्न करना है। वर्णों को क्रम विशेष में रखने पर विशेष तरह का लय खंड (रुक्न उर्दू, मीटर अंग्रेजी) उत्पन्न होता है। लय खण्डों की आवृत्ति को छंद (बह्र, फॉर्म ऑफ़ पोएट्री) कहा जाता है। 'छंद' का अर्थ है छाना, जो मन-मस्तिष्क पर छा जाए वह छंद है। छ्न्द से काव्य में लय और रंजकता आती है। छोटी-बड़ी ध्वनियों को उच्चारण के अनुसार वर्ण कहा जाता है। वर्ण के लघु-गुरु उच्चारणों को मात्रा कहते हैं। मात्राओं का विशिष्ट समायोजन लय विशेष (धुन) को जन्म देता है। मात्रा क्रम, मात्रा संख्या या विरामस्थल में परिवर्तन होने से लय और तदनुसार छंद परिवर्तित हो जाता है।
छंद के प्रकार -
१.मात्रिक छंद - मात्रा गणना के आधार पर रचे गए छंद कहे जाते हैं। जैसे दस मात्राओं से निर्मित छंद को दैशिक छंद कहा जाता है। बारह मात्राओं से निर्मित छंद आदित्य छंद हैं। मात्रिक छंद की हर पंक्ति (पद) में मात्रा संख्या समान होती है।
२. वर्णिक छंद - वर्ण (अक्षर) अथवा गण संयोजन के आधार पर रचे गए छंदों को वर्णिक छंद कहा जाता हैं। उदाहरण प्रतिष्ठा छंद ४ वर्ण से जबकि गायत्री छंद ६ वर्णों के समायोजन से बनते हैं। वर्णिक छंद की हर पंक्ति में वर्ण अथवा गण संख्या व् क्रम समान होना आवश्यक है।
गण - तीन वर्णों को मिलाकर बनी ईकाई को गण कहते हैं। हिंदी में ८ गण हैं जिनकी संयोजन से गण छंद बनते हैं।
गण सूत्र 'यमाताराजभानसलगा' के पहले ८ अक्षरों में अगले २ -२ अक्षर जोड़ कर गानों की संरचना ज्ञात की जाती है। तदनुसार यगण यमाता १२२, मगण मातारा २२२, तगण ताराज २२१, रगण राजभा २१२ , जगण जभान १२१, भगण भानस २११ तथा सगण सलगा ११२ हैं।
उदाहरण :
यगण - यमाता - १२२ - हमारा
मगण - मातारा - २२२ - दोधारा
तगण - ताराज - २२१ - शाबाश
रगण - राजभा - २१२ - आइए
जगण - जभान - १२१ - सुहास
भगण - भानस - २११ - भारत
नगण - नसल - १११ - सहज
सगण - सलगा - ११२ - सहसा
पिंगल / छंद शास्त्र - छन्दों की रचना और गुण-अवगुण के अध्ययन को छन्दशास्त्र कहते हैं। चूँछंद शास्त्र का प्रथम ग्रंथ आचार्य पिंगल ने लिखा इसलिए इसे पिंगलशास्त्र भी कहते हैं। गद्य की कसौटी ‘व्याकरण’ और कविता की कसौटी ‘छन्द’ है।
काव्य और छन्द के प्रारम्भ में ‘अगण’ अर्थात ‘अशुभ गण’ नहीं आना चाहिए।
छंद के अंग :
छंद के आठ अंग १. वर्ण या मात्रा, २. गण ३. पद या पंक्ति, ४. चरण, ५. यति या विराम स्थल, ६. तुकांत ७. पदांत तथा ८. गति हैं।
१. वर्ण या मात्रा - अनुभूति या विचार को अभिव्यक्त करने के लिए प्रयुक्त शब्दों के वर्ण या मात्राएँ।
२. गण - छंद में प्रयुक्त गण प्रकार तथा क्रम।
३. पद या पंक्ति - छंद में प्रयुक्त पंक्ति संख्या।
४. चरण - पंक्ति में आये दो विराम स्थलों या यति स्थानों के बीच का भाग अथवा ऐसे भागों की संख्या। चरणों को उनके स्थान के अनुसार आदि चरण, मध्य चरण, अंतिम चरण, सम चरण, विषम चरण आदि कहा जाता है।
५. यति या विराम स्थल - छंद की पंक्ति को पढ़ते या बोलते समय कुछ शब्दों के बाद श्वास लेने हेतु रुका जाता है। ऐसे स्थल को यति कहा जाता है।
६. तुकांत - छंद-पंक्तियों के अंत में समान उच्चार के शब्द।
७. पदांत - छंद पंक्ति का अंतिम शब्द।
८. गति - छंद विशेष को पढ़ने का प्रवाह।
मात्रा गणना -
हिंदी में वर्ण की दो मात्राएँ लघु और गुरु होती हैं जिनका पदभार क्रमश: १ और २ गिना जाता है। अ, इ, उ, ऋ तथा इनकी मात्राओं (मात्रा रहित वर्ण, ि, ु) से युक्त वर्ण लघु, ह्रस्व या छोटे कहे जाते हैं। आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ: तथा इनकी मात्राओं (ा, ी, ू, े, ै, ो, ौ, ां, ा:) से युक्त वर्ण गुरु, दीर्घ या बड़ी कही जाती हैं।
उदाहरण -
विकास - १२१ = ४, भारती - २१२ = ५, हिंदी - २२ = ४, ह्रदय - १११ = ३, मार्मिक २११ = ४, स्थल - ११ = २, मनस्वी - १२२ = ५, त्यक्त - २१ = ३, प्रयास - १२१ = ४, विप्र - २१ = ३, अहं - १२ = ३ आदि।
रस - रस का अर्थ है आनंद। काव्य को रचने, सुनने या पढ़ने से प्राप्त आनंद ही रस है। रस को काव्य की आत्मा, व आत्मानन्द भी कहा गया है।नाट्यशास्त्र प्रवर्तक भरत मुनि के काल से ही रस को काव्य माधुर्य और अलंकार दोनों रूपों में देखा गया। अग्निपुरनकार के अनुसार " वाग्वैदग्ध्य प्रधानेsपि रस एवात्र जीवितं", विश्वनाथ के शब्दों में "रसात्मकं वाक्यं काव्यं" , राजशेखर के मतानुसार शब्दार्थौ ते शरीर रस आत्मा" ।
अलंकार - अलम् अर्थात् भूषण, जो भूषित करे वह अलंकार है। अलंकार, कविता-कामिनी के सौन्दर्य को बढ़ाने वाले तत्व होते हैं। जिस प्रकार आभूषण से नारी का लावण्य बढ़ जाता है, उसी प्रकार अलंकार से कविता की शोभा बढ़ जाती है। कहा गया है - 'अलंकरोति इति अलंकारः' (जो अलंकृत करता है, वही अलंकार है।) डंडी के अनुसार "तै शरीरं च काव्यानमलंकारश्च दर्शिता:" तथा "काव्यशोभाकरान धर्मान अलंकारान प्रचक्षते। वामन के शब्दों में -"सौन्दर्यंलंकार" । ध्वन्यालोक में "अनन्ता हि वाग्विकल्पा:" कहकर अलंकारों की अगणेयता की ओर संकेत किया गया है। दंडी ने "ते चाद्यापि विकल्प्यंते" कहकर इनकी नित्य संख्यवृद्धि का ही निर्देश किया है। विचारकों ने अलंकारों को शब्दालंकार, अर्थालंकार, रसालंकार, भावालंकार, मिश्रालंकार, उभयालंकार तथा संसृष्टि और संकर नामक भेदों में बाँटा है। इनमें प्रमुख शब्द तथा अर्थ के आश्रित अलंकार हैं।
प्रतीक - प्रतीक का संबंध मनुष्य की चिंतन प्रणाली से है । प्रतीक का शाब्दिक अर्थ अवयव या चिह्न है। कविता में प्रतीक हमारी भाव सत्ता को प्रकट अथवा गोपन करने का माध्यम है। प्रत्येक भाव व्यंजना की विशिष्ट प्रणाली है। इससे सूक्ष्म अर्थ व्यंजित होता है । डॉक्टर भगीरथ मिश्र कहते हैं कि ” सादृश्य के अभेदत्व का घनीभूत रूप ही प्रतीक है”। उनके मंतव्य में प्रतीक की सृष्टि अप्रस्तुत बिंब द्वारा ही संभव है।प्रतीक के कुछ मौलिक गुण धर्म है जैसे सांकेतिकता, संक्षिप्तता, रहस्यात्मकता, बौद्धिकता, भावप्रकाशयत्ता एवं प्रत्यक्षतः प्रतिज्ञा प्रगटीकरण से बचाव आदि। आधुनिक काव्य प्रतीक सामान्य लक्षण को अपने अंदर समाहित कर पाठक को विषय को समझने, अनुभव करने और अर्थ में संबोधन का व्यापक विकल्प प्रस्तुत करने में सहायक होते हैं।
प्रकार :
१. रूपात्मक प्रतीक - राधा चमक रही चंदा सी, कान्ह सूर्य सा दमक रहा
२. गुण-स्वभावात्मक प्रतीक - कागा हैं सत्ता के वाहक, राजहंस सड़कों पर
३. क्रियात्मक प्रतीक - यंत्रों की जयकार न हो अब, श्रम को पूजा जाए
४. मिश्र प्रतीक - झोपड़ी में श्रम करे उत्पाद, भोग महलों में करते नेता
बिम्ब - बिंब किसी पदार्थ का मानचित्र या मानसी चित्र होता है। पाश्चात्य काव्यशास्त्र में बिंब को कविता का अनिवार्य अंग माना है। बिंब शब्दों द्वारा चित्रित किए जाने वाला वह न्यूनाधिक संविदात्मक चित्र है जो अंश का रूप आत्मक होता है और अपने संदर्भ में मानवीय संवेदनाओं से संबंध रखता है। किंतु वह कविता की भावना या उसके आगे को पाठक तक पहुँचाता है। चित्रमयता वर्तमान कविता की अनिवार्यता है , क्योंकि चित्रात्मक स्थितियों का पाठक चाक्षुष अनुभव कर पाता है। कविता में बिंब के प्रयोग से पाठक या श्रोता कविता को इंद्रिय बोध और मानसिक वह दोनों ही प्रकार किसे सुगमता से आत्मसात कर लेता है। छायावादी कविता और आधुनिक कविता ने बिम्बों को स्वीकार किया। इसलिए यह कविताएँ छंद मुक्त होकर भी पाठक को सम्वेदनाओं से अधिक निकट ठहरती है। बिम्बों के दो मौलिक वर्ग हैं।
(अ) शुद्ध इंद्रियबोध गम्य बिंब- १ चाक्षुष बिंब, २ नाद बिंब, ३ गन्ध बिम्ब, ४ स्वाद बिंब, स्पर्श बिंब। पाँचों ज्ञानेइंद्रियों के विषयों से संबंधित बिंब इंद्रिय बोध गम्य बिंब कहलाते है ।
गाल गुलाबी कर-किरण, लिए हुए जयमाल
किसका स्वागत कर रही, उषा सूर्य रख भाल
(आ) मिश्रित इंद्रिय बोध के आधार पर यह संवेदात्मक बिम्ब - १ मानस बिंब , २ स्रोत वैभिन्नयगत बिंब -(अ) धार्मिक एवं पौराणिक बिंब (ब) तंत्रों से गृहीत बिंब (स) महाकाव्यों से गृहीत बिंब (द) ऐतिहासिक स्रोतों से गृहीत बिंब।
भरत पर अगर नहीं विश्वास, किया तो सहे अयोध्या त्रास
नृपति ने वचन किया है भंग, न होगा अधरों पर अब हास
मिथक - प्राचीन पुराकथाओं के वे तत्व जो नवीन स्थितियों में नये अर्थ का वहन करे मिथक कहलाते हैं। मिथकों का जन्म ही इसलिए हुआ था कि वे प्रागैतिहासिक मनुष्य के उस आघात और आतंक को कम कर सकें, जो उसे प्रकृति से सहसा अलग होने पर महसूस हुआ था-और मिथक यह काम केवल एक तरह से ही कर सकते थे-स्वयं प्रकृति और देवताओं का मानवीकरण करके। इस अर्थ में मिथक एक ही समय में मनुष्य के अलगाव को प्रतिबिम्बित करते हैं और उस अलगाव से जो पीड़ा उत्पन्न होती है, उससे मुक्ति भी दिलाते हैं। प्रकृति से अभिन्न होने का नॉस्टाल्जिया, प्राथमिक स्मृति की कौंध, शाश्वत और चिरन्तन से पुनः जुड़ने का स्वप्न ये भावनाएँ मिथक को सम्भव बनाने में सबसे सशक्त भूमिका अदा करती हैं। सच पूछें, तो मिथक और कुछ नहीं प्रागैतिहासिक मनुष्य का एक सामूहिक स्वप्न है जो व्यक्ति के स्वप्न की तरह काफी अस्पष्ट, संगतिहीन और संश्लिष्ट भी है। कालान्तर में पुरातन अतीत की ये अस्पष्ट गूँजें, ये धुँधली आकांक्षाएँ एक तर्कसंगत प्रतीकात्मक ढाँचे में ढल जाती हैं और प्राथमिक यथार्थ की पहली, क्षणभंगुर, फिसलती यादें महाकाव्यों की सुनिश्चित संरचना में गठित होती हैं। मिथक और इतिहास के बीच महाकाव्य एक सेतु है, जो पुरातन स्वप्नों को काव्यात्मक ढाँचे में अवतरित करता है। माना गया है कि जितने मिथक हैं, सब परिकल्पना पर आधारित हैं। फिर भी यह मूल्य आधारित परिकल्पना थी जिसका उद्देश्य सामाजिक व्यवस्था को मजबूत करना था। प्राचीन मिथकों की खासियत यही थी कि वह मूल्यहीन और आदर्शविहीन नहीं थे। मिथकों का जन्म समाज व्यवस्था को कायम रखने के लिए हुआ। मिथक लोक विश्वास से जन्मते हैं। पुरातनकाल में स्थापित किये गये धार्मिक मिथकों का मंतव्य स्वर्ग तथा नरक का लोभ, भय दिखाकर लोगों को विसंगतियों से दूर रखना था। मिथ और मिथक भिन्न है। मिथक असत्य नहीं है। इस शब्द का प्रयोग साहित्य से इतर झूठ या काल्पनिक कथाओं के लिए भी किया जाता है।
मिथ - मिथ अतीत में घटी प्राकृतिक घटना, सामाजिक विश्वास या धार्मिक रीति को स्पष्ट करने हेतु गढ़ी सर्वश्रुत गयी कहानी है। मिथ को पुराण कथा भी कहा जाता है।
१. दोहा
दोहा गाथा सनातन, शारद कृपा पुनीत।
साँची साक्षी समय की, जनगण-मन की मीत।।
दोहा हिंदी का सर्वाधिक लोकप्रिय, लोकोपयोगी, पुराना तथा मारक छंद है। दोहा गागर में सागर की तरह कम शब्दों में गहरी बात कहने की सामर्थ्य रखता है। दोहा को 'दोपदी' (दो पंक्ति वाला छंद) भी कहते हैं। गौ रूपी भाषा को दूह कर अर्थ रूपी दूध निकलने की असीम सामर्थ्य रखने के कारण इसे 'दूहा व् दूहड़ा भी कहा गया। दोहा छंद में ' दो' का बहुत महत्व है।
दोहा में पंक्ति संख्या २
प्रति पंक्ति चरण संख्या २
प्रति पंक्ति यति स्थान (१३-११ मात्राओं पर) २
पदांत में सुनिश्चित वर्ण २ (गुरु लघु)
पदादि में लय साधने में सहायक शब्द/शब्दांश की मात्रिक आवृत्ति २
निषेध - पंक्ति के आरम्भ में एक शब्द में जगण (जभान १२१ )
प्रथम पंक्ति - १३ मात्रा यति ११ मात्रा यति
१ विषम चरण , २ सम चरण
प्रथम पंक्ति - १३ मात्रा यति ११ मात्रा यति
३ विषम चरण , ४ सम चरण
अमरकंटकी नर्मदा , दोहा अविरल धार। - पहला पद
पहला / विषम चरण / दूसरा / सम चरण
गत-आगत से आज का, सतत ज्ञान व्यापार।। - दूसरा पद
तीसरा / विषम चरण / चौथा / सम चरण
कल का कल से आज ही, कलरव सा संवाद.
११ २ ११ २ २१ २ ११११ २ २२१
कल की कल हिन्दी करे, कलकल दोहा नाद.
११ २ ११ २२ १२ ११११ २२ २१
(कल = अतीत, भविष्य, शान्ति, यंत्र, कलरव पंछियों का स्वर, कलकल पानी बहने का स्वर)
दोहा में प्रयुक्त लघु और गुरु मात्राओं की संख्या के आधार पर दोहा के २३ प्रकार हो सकते हैं।
दोहा और शेर :
दोहा की अपने आप में पूर्ण एवं स्वतंत्र होने की प्रवृत्ति कालांतर में शे'र के रूप में फ़ारसी काव्य में भिन्न भाव-भूमि में विकसित हुई। दोहा और शे'र दोनों में दो पंक्तियाँ होती हैं, किंतु शे'र में चुलबुलापन होता है तो दोहा में अर्थ गौरव। शेर की पंक्तियाँ आसमान पदभार की हो सकती हैं जबकि दोहा की पंक्तियाँ सांभर और यति की होना आवश्यक है। शे'र में पद का चरण (पंक्ति या मिसरा का विभाजन) नहीं होता जबकि दोहा के दोनों पद दो-दो चरणों में यति (विराम) द्वारा विभक्त होते हैं।
२. सोरठा
दोहा के विषम चरण को सम और सम चरण को विषम बनाने पर सोरठा छंद बनता है। सोरठा भी दो पदीय, चार चरणीय छंद है। इसके पद २४ मात्रा के होते हैं जिनमें ११-१३ मात्रा पर यति होती है। दोहा के सम चरणों में गुरु-लघु पदांत होता है, सोरठा में यह पदांत बंधन विषम चरण में होता है। दोहा में विषम चरण के आरम्भ में 'जगण' वर्जित होता है जबकि सोरठा में सम चरणों में. इसलिए कहा जाता है-
बन जाता रच मीत, दोहा उल्टे सोरठा।
११ २२ ११ २१, २२ २२ २१२
काव्य-सृजन की रीत, दोनों मिलकर बनाते।।
दोहा और सोरठा
दोहा: काल ग्रन्थ का पृष्ठ नव, दे सुख-यश-उत्कर्ष.
करनी के हस्ताक्षर, अंकित करें सहर्ष.
सोरठा- दे सुख-यश-उत्कर्ष, काल-ग्रन्थ का पृष्ठ नव.
अंकित करे सहर्ष, करनी के हस्ताक्षर.
सोरठा- जो काबिल फनकार, जो अच्छे इन्सान.
है उनकी दरकार, ऊपरवाले तुझे क्यों?
दोहा- जो अच्छे इन्सान है, जो काबिल फनकार.
ऊपरवाले तुझे क्यों, है उनकी दरकार?
३. रोला छंद
रोला छंद के हर पद में सोरठा की ही तरह ११-१३ की यति सहित २४ मात्राएँ होती हैं। रोला के विषम चरण के अंत में गुरु लघु का बंधन नहीं होता। रोला का पदांत या सम चरणान्त गुरु होता है। दोहा तथा सोरठा में २ पद होते हैं जबकि रोला में ४ पद होते हैं।
हरे-भरे थे बाँस, वनों में अब दुर्लभ हैं
१२ १२ २ २१ , १२ २ ११ २११ २
नहीं चैन की साँस, घरों में रही सुलभ है
बाँस हमारे काम, हमेशा ही आते हैं
हम उनको दें काट, आप भी दुःख पाते हैं
४. कुण्डलिया
दोहा तथा रोला के योग से कुण्डलिनी या कुण्डली छंद बनता है। कुण्डलिया की पहली दो पंक्तियों में १३-११ की यति सहित गुरु-लघु पदांत होता है। शेष ४ पंक्तियों में ११-१३ पर यति सहित गुरु पदांत होता है। इसके अतिरिक्त कुण्डलिया में दो बंदन और हैं। दोहा का अंतिम (चौथा) चरण रोला का पहला (पाँचवे) चरण के रूप में दोहराया जाता है। दोहा के आरम्भ में प्रयुक्त शब्द या शब्द समूह रोला के अंत में प्रयोग किये जाते हैं।
नाग के बैठने की मुद्रा को कुंडली मारकर बैठना कहा जाता है। इसका भावार्थ जमकर या स्थिर होकर बैठना है। इस मुद्रा में सर्प का मुख और पूंछ आस-पास होती है। इस गुण के आधार पर कुण्डलिनी छंद बना है जिसके आदि-अंत में एक समान शब्द या शब्द समूह होता है।
दोहा
हिंदी की जय बोलिए, उर्दू से कर प्रीत
अंग्रेजी को जानिए, दिव्य संस्कृत रीत
रोला
दिव्य संस्कृत रीत, तमिल-तेलुगु अपनायें
गुजराती कश्मीरी असमी, अवधी गायें
बाङ्ग्ला सिन्धी उड़िया, 'सलिल' मराठी मधुमय
बृज मलयालम कन्नड़ बोलें हिंदी की जय
इन छंदों की रचना संबंधी कोी शंका या जिज्ञासा हो तो इस पत्रिका संपादक के माध्यम से अथवा निम्न से सम्पर्क किया जा सकता है। अगले अंक में कुछ और छंदों की जानकारी दी जाएगी।
१८.१.२०२०
***
एक रचना
पाई शाल
*
बड़े भाग से पाई शाल
हम लपेट बैठे खुशहाल
*
हुई प्रेरणा खीचें चित्र
भले आपको लगे विचित्र
*
चली कानपुर से चुपचाप
आई जबलपुर अपने आप
*
गंग-नर्मदा सेतु बनी
ह्रद-ऊष्मा से सनी-सनी
*
ठंड न लगने देगी यह
नेहिल नदी लहर सम बह
*
लड्डू, तिल-गुड़ गजक मधुर
खाकर हर्षित हम जी भर
*
सब दुनिया है दोरंगी
समझे तो मति हो चंगी
*
***
लघुकथा-
निर्दोष
*
उसने मनोरंजन के लिए अपने साथियों सहित जंगल में विचरण कर रहे पशुओं का वध कर दिया.
उसने मदहोशी में सडक के किनारे सोते हुए मनुष्यों को कार से कुचल डाला.
पुलिस-प्रशासन के कान पर जून नहीं रेंगी. जन सामान्य के आंदोलित होने और अखबारबाजी होने पर ऐसी धाराओं में वाद स्थापित किया गया कि जमानत मिल सके.
अति कर्तव्यनिष्ठ न्यायालय ने अतिरिक्त समय तक सुनवाई कर तत्क्षण फैसला दिया और जमानत के निर्णय की प्रति उपलब्ध कराकर खुद को धन्य किया.
बरसों बाद सुनवाई आरम्भ हुई तो एक-एक कर गवाह मरने या पलटने लगे.
दिवंगतों के परिवार चीख-चीख कर कहते रहे कि गवाहों को बचाया जाए पर कुछ न हुआ.
अंतत:, पुलिस द्वारा लगाये गए आरोप सिद्ध न हो पाने का कारण बताते हुए न्यायालय ने उसे घोषित कर दिया निर्दोष.
***
नवगीत
अभी नहीं
*
अभी नहीं सच हारा
प्यारे!
कभी नहीं सच हारा
*
कृष्ण मृगों को
मारा तुमने
जान बचाकर भागे.
सोतों को कुचला
चालक को
किया आप छिप आगे.
कर्म आसुरी करते हैं जो
सहज न दंडित होते.
बहुत समय तक कंस-दशानन
महिमामंडित होते.
लेकिन
अंत बुरा होता है
समय करे निबटारा.
अभी नहीं सच हारा
प्यारे!
कभी नहीं सच हारा
*
तुमने निर्दोषों को लूटा
फैलाया आतंक.
लाज लूट नारी की
निज चेहरे पर मलते पंक.
काले कोट
बचाते तुमको
अंधा करता न्याय.
मिटा साक्ष्य-साक्षी
जीते तुम-
बन राक्षस-पर्याय.
बोलो क्या आत्मा ने तुमको
कभी नहीं फटकारा?
अभी नहीं सच हारा
प्यारे!
कभी नहीं सच हारा
*
जन प्रतिनिधि बन
जनगण-मन से
कपट किया है खूब.
जन-जन को
होती है तुमसे
बेहद नफरत-ऊब.
दाँव-पेंच, छल,
उठा-पटक हर
दिखा सुनहरे ख्वाब
करे अंत में निपट अकेला
माँगे समय जवाब.
क्या जाएगा साथ
कहो,
फैलाया खूब पसारा.
१८.१.२०१७
***
रसानंद दे छंद नर्मदा १३
रूपमाला / मद / मदन / मदनावतारी छंद
लक्षण छंद:
रूपमाला रत्न चौदह, दस दिशा सम ख्यात।
कला गुरु-लघु रख चरण के, अंत उग प्रभात।।
नाग पिंगल को नमनकर, छंद रचिए आप्त।
नव रसों का पान करिए, 'सलिल' सुख मन-व्याप्त।।
*
तीन दो दो, तीन दो दो, तीन दो दो ताल
रूपमाला छंद की है यही उत्तम चाल - नारायण दास, हिंदी छ्न्दोलक्षण
छंद-लक्षण: जाति अवतारी, अर्ध सम मात्रिक छंद, प्रति पंक्ति मात्रा २४ मात्रा, यति चौदह-दस, पदांत गुरु-लघु (तगण, जगण), दो-दो पदों की तुकांतता।
मात्रा बाँट - २१२२ / २१२२ / २१२२ / २१, २१ के स्थान पर १११ भी मान्य। तीसरी, दसवीं, सत्रहवीं मात्रा यथा संभव लघु।
*
उदाहरण:
१. देश ही सर्वोच्च है- दें, देश-हित में प्राण।
जो- उन्हीं के योग से है, देश यह संप्राण।।
करें श्रद्धा-सुमन अर्पित, यादकर बलिदान।
पीढ़ियों तक वीरता का, 'सलिल' होगा गान।।
२. वीर राणा अश्व पर थे, हाथ में तलवार।
मुगल सैनिक घेर करते, अथक घातक वार।।
दिया राणा ने कई को, मौत-घाट उतार।
पा न पाये हाय! फिर भी, दुश्मनों से पार।।
ऐंड़ चेटक को लगायी, अश्व में थी आग।
प्राण-प्राण से उड़ हवा में, चला शर सम भाग।।
पैर में था घाव फिर भी, गिरा जाकर दूर।
प्राण त्यागे, प्राण-रक्षा की- रुदन भरपूर।।
किया राणा ने, कहा: 'हे अश्व! तुम हो धन्य।
अमर होगा नाम तुम हो तात! सत्य अनन्य।।
३. रत्न दिसि कल रूपमाला, साजिए सानंद।
    रामही के शरण में रहि, पाइये आनंद।।
जातु हौ वन वादिही गल, बांधिके बहु तंत्र ।
धामहीं किन जपत कामद, रामनाम सुमंत्र।। - जगन्नाथ प्रसाद भानु
४. दृष्टि की धुँधली परिधि में, आ गया आकार।
बज गया आनंददायी, ह्रदयतंत्री तार।।
केश की काली घटा में, चंद्र सी मुख-छाप।
प्रीति-पथ पर फेंकती थी, ज्योति अपने आप।। - रामदेव लाल 'विभोर'
५. धडकनें मदहोश पागल, नयन छलके प्यार।
बोल कुछ बोलें नहीं लब, मौन सब व्यवहार।।
शांति, चिरस्थायित्व खुशियाँ, प्रीत के उपहार।
झूमता जब प्रेम-अँगना, बह चले रस-धार।। - डॉ. प्राची सिंह
६. गर बचाना चाहते हम आज यह संसार।
है जरूरी पेड़-पौधों से करें सब प्यार।।
पेड़ ही तो बनाते हैं मेघमय आकाश।
पेड़ वर्ष ला बुझाते इस धरा की प्यास।। - संजय मिश्र 'हबीब'
७.स्पर्श करने लगी लज्जा, ललित कर्ण कपोल।
खिला पुलक कदम्ब सा था, भरा गदगद बोल।। -जय शंकर प्रसाद, कामायनी
***
आइये कविता करें: ७
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एक और प्रयास.......
नव गीत
आभा सक्सेना
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सूरज ने छाया को ठगा १५
किरनों नेे दिया दग़ा १२
अब कौन है, जो है सगा १४
कांपता थर थर अंधेरा १४
कोहरे का धुन्ध पर बसेरा १७
जागता अल्हड़ सवेरा १४
रोशनी का अधेरों से १४
दीप का जली बाती से १४
रिश्तें हैं बहुत करीब से १५
कांपती झीनी सी छांव १४
पकड़ती धूप की बांह १३
ताकती एक और ठांव १४
इस नवगीत के कथ्य में नवता तथा गेयता है. यह मानव जातीय छंद में रचा गया है. शैल्पिक दृष्टि से बिना मुखड़े के ४ त्रिपंक्तीय समतुकान्ती अँतरे हैं. एक प्रयोग करते हैं. पहले अँतरे की पहली पंक्ति को मुखड़ा बना कर शेष २ पंक्तियों को पहले तीसरे अँतरे के अंत में प्रयोग किया गया है. दूसरे अँतरे के अंत में पंक्ति जोड़ी गयी है. आभा जी! क्या इस रूप में यह अपनाने योग्य है? विचार कर बतायें।
सूर्य ने ५
छाया को ठगा ९
काँपता थर-थर अँधेरा १४
कोहरे का है बसेरा १४
जागता अल्हड़ सवेरा १४
किरनों नेे ६
दिया है दग़ा ८
रोशनी का दीपकों से १४
दीपकों का बातियों से १४
बातियों का ज्योतियोँ से १४
नेह नाता ७
क्यों नहीं पगा ८
छाँव झीनी काँपती सी १४
बाँह धूपिज थामती सी १४
ठाँव कोई ताकती सी १४
अब कौन है ७
किसका सगा ७
१८.१.२०१५
***
कार्यशाला
आइये! कविता करें ६ :
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मुक्तक
आभा सक्सेना
कल दोपहर का खाना भी बहुत लाजबाब था, = २६
अरहर की दाल साथ में भुना हुआ कबाब था। = २६
मीठे में गाजर का हलुआ, मीठा रसगुल्ला था, = २८
बनारसी पान था पर, गुलकन्द बेहिसाब था।। = २६
लाजवाब = जिसका कोई जवाब न हो, अतुलनीय, अनुपम। अधिक या कम लाजवाब नहीं होता, भी'' से ज्ञात होता है कि इसके अतिरिक्त कुछ और भी स्वादिष्ट था जिसकी चर्चा नहीं हुई. इससे अपूर्णता का आभास होता है. 'भी' अनावश्यक शब्द है.
तीसरी पंक्ति में 'मीठा' और 'मीठे' में पुनरावृत्ति दोष है. गाजर का हलुआ और रसगुल्ला मीठा ही होता है, अतः यहाँ मीठा लिखा जाना अनावश्यक है.
पूरे मुक्तक में खाद्य पदार्थों की प्रशंसा है. किसी वस्तु का बेहिसाब अर्थात अनुपात में न होना दोष है, मुक्तककार का आशय दोष दिखाना प्रतीत नहीं होता। अतः, इस 'बेहिसाब' शब्द का प्रयोग अनुपयुक्त है.
कल दुपहर का खाना सचमुच लाजवाब था = २४
अरहर की दाल बाटी औ' भुना कवाब था = २४
गाजर का हलुआ खीर रसगुल्ला न भूलिए- = २५
गुलकंदी पान बनारसी भी खुशगवार था = २५
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छंद सलिला:
सुजान छंद
*
द्विपदीय मात्रिक सुजान छंद में चौदह तथा नौ मात्राओं पर यति तथा पदांत में गुरु-लघु का विधान होता है.
चौदह-नौ यति रख रचें, कविगण छंद सुजान
हो पदांत लघु-गुरु 'सलिल', रचना रस की खान
उदाहरण :
१. चौदह-नौ पर यति सुजान / में'सलिल'-प्रवाह
गुरु-लघु से पद-अंत करे, कवि पाये वाह
२. डर न मुझको किसी का भी / है दयालु ईश
देश-हित हँसकर 'सलिल' कर / अर्पित निज शीश
३. कोयल कूके बागों में / पनघट पर शोर
मोर नचे अमराई में / खेतों में भोर
* * *

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