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बुधवार, 5 नवंबर 2014

mukatika:


मुक्तिका:

अवगुन चित न धरो




*
सुन भक्तों की प्रार्थना, प्रभुजी हैं लाचार
भक्तों के बस में रहें, करें गैर-उद्धार

कोई न चुने चुनाव में, करें नहीं तकरार
संसद टीवी से हुए, बाहर बहसें हार

मना जन्म उत्सव रहे, भक्त चढ़ा-खा भोग
टुकुर-टुकुर ताकें प्रभो,हो बेबस-लाचार

सब मतलब से पूजते, सब चाहें वरदान
कोई न कन्यादान ले, दुनिया है मक्कार

ब्याह गयी पर माँगती, है फिर-फिर वर दान
प्रभु की मति चकरा रही, बोले:' है धिक्कार'

वर माँगे वर-दान- दें कैसे? हरि हैरान 
भला बनाया था हुआ, है विचित्र संसार

अवगुन चित धरकर कहे, 'अवगुन चित न धरो
प्रभु के विस्मय का रहा, कोई  न पारावार

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मंगलवार, 27 जुलाई 2010

मुक्तिका: जब दिल में अँधेरा हो... संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

जब दिल में अँधेरा हो...

संजीव  'सलिल'
*













*

जब दिल में अँधेरा हो, क्या होगा मशालों से
मिलते हों गले काँटे, जब पाँव के छालों से?

चाबी की करे चिंता, कोई क्यों बताओ तो?
हों हाथ मिलाये जब, चोरों ने ही तालों से..

कुर्सी पे मैं बैठूँगा, बीबी को बिठाऊँगा.
फिर राज चलाऊँगा, साली से औ' सालों से..
 
इतिहास भी लिक्खेगा, 'मुझसा नहीं दूजा है,
है काबलियत मेरी, घपलों में-घुटालों में..

सडकों पे तुम्हें गड्ढे, दिखते तो दोष किसका?
चिकनी मुझे लगती हैं, हेमा जी के गालों से..

नंगों की तुम्हें चिंता, मुझको है फ़िक्र खुद की.
लज्जा को ढाँक दूँगा, बातों के दुशालों से..

क्यों तुमको खलिश होती, है कल की कहो चिंता.
सौदा है 'सलिल' का जब सूरज से उजालों से..

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