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रविवार, 2 अक्टूबर 2011

लघुकथा: गाँधी जयंती -- संजीव 'सलिल'

लघुकथा:                     
गाँधी जयंती
संजीव 'सलिल'
*



  बापू आम आदमी के प्रतिनिधि थे। जब तक हर भारतीय को कपड़ा न मिले,
तब तक कपड़े न पहनने का संकल्प उनकी महानता का जीवंत उदाहरण है। वे 
हमारे प्रेरणास्रोत हैं’ 
   -नेताजी भाषण फटकारकर मंच से उतरकर अपनी महँगी आयातित कार में 
बैठने लगे तो एक पत्रकार ने उनसे कथनी-करनी में अन्तर का कारण पूछा।

नेताजी बोले– ‘बापू पराधीन भारत के नेता थे। उनका अधनंगापन पराये शासन में 

देश का दुर्दशा दर्शाता था, हम स्वतंत्र भारत केनेता हैं। अपने देश के जीवनस्तर की 
समृद्धि तथा सरकार की सफलता दिखाने के लिए हमें यह ऐश्वर्य भरा जीवन जीना 
होता है। हमारी कोशिश तो यह है कि हर जनप्रतिनिधि को अधिक से अधिक सुख-
सुविधाएँ दी जाएँ।’

‘चाहे जन प्रतिनिधियों की सुविधाएँ जुटाने में देश के जनगण का दीवाला निकल जाए? 

अभावों की आग में देश का जन सामान्य जलता रहे मगर नेता नीरो की तरह बाँसुरी 
बजाते ही रहेंगे- वह भी गांधी जैसे आदर्श नेता की आड़ में?’
–एक युवा पत्रकार बोल पड़ा।

अगले दिन से उसे सरकारी विज्ञापन मिलना बंद हो गया।

Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

लघुकथा निपूती भली थी -- संजीव 'सलिल'

लघुकथा 
निपूती भली थी  
    संजीव 'सलिल'     
          
बापू के निर्वाण दिवस पर देश के नेताओं, चमचों एवं अधिकारियों ने उनके आदर्शों का अनुकरण करने की शपथ ली। अख़बारों और दूरदर्शनी चैनलों ने इसे प्रमुखता से प्रचारित किया।

अगले दिन एक तिहाई अर्थात नेताओं और चमचों ने अपनी आँखों पर हाथ रख कर कर्तव्य की इति श्री कर ली। 

उसके बाद दूसरे तिहाई अर्थात अधिकारियों ने कानों पर हाथ रख लिए. 

तीसरे दिन शेष तिहाई अर्थात पत्रकारों ने मुँह पर हाथ रखे तो भारत माता प्रसन्न हुई कि देर से ही सही इन्हे सदबुद्धि तो आयी।

उत्सुकतावश भारत माता ने नेताओं के नयनों पर से हाथ हटाया तो देखा वे आँखें मूँदे जनगण के दुःख-दर्दों से दूर सत्ता और सम्पत्ति जुटाने में लीन थे।

दुखी होकर भारत माता ने दूसरे बेटे अर्थात अधिकारियों के कानों पर रखे हाथों को हटाया तो देखा वे आम आदमी की पीड़ाओं की अनसुनी कर पद के मद में मनमानी कर रहे थे। 

नाराज भारत माता ने तीसरे पुत्र अर्थात पत्रकारों के मुँह पर रखे हाथ हटाये तो देखा नेताओं और अधिकारियों से मिले विज्ञापनों से उसका मुँह बंद था और वह दोनों की मिथ्या महिमा गाकर ख़ुद को धन्य मान रहा था।

अपनी सामान्य संतानों के प्रति तीनों की लापरवाही से क्षुब्ध भारत माता के मुँह से निकला- ‘ऐसे पूतों से तो मैं निपूती ही भली थी।

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बुधवार, 7 सितंबर 2011

लघु कथा: गुरु दक्षिणा संजीव 'सलिल'

लघुकथा:                                                                                
गुरु दक्षिणा
संजीव 'सलिल'
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एकलव्य का अद्वितीय धनुर्विद्या अभ्यास देखकर गुरुवार द्रोणाचार्य चकराये कि अर्जुन को पीछे छोड़कर यह श्रेष्ठ न हो जाए.

उन्होंने गुरु दक्षिणा के बहाने एकलव्य का बाएँ हाथ का अँगूठा माँग लिया और यह सोचकर प्रसन्न हो गए कि काम बन गया. प्रगट में आशीष देते हुए बोले- 'धन्य हो वत्स! तुम्हारा यश युगों-युगों तक इस पृथ्वी पर अमर रहेगा.

'आपकी कृपा है गुरुवर!' एकलव्य ने बायें हाथ का अँगूठा गुरु दक्षिणा में देकर विकलांग होने का प्रमाणपत्र बनवाया और छात्रवृत्ति का जुगाड़ कर लिया. छात्रवृत्ति के रुपयों से प्लास्टिक सर्जरी कराकर अँगूठा जुड़वाया, द्रोणाचार्य एवं अर्जुन को ठेंगा बताते हुए 'अंगूठा' चुनाव चिन्ह लेकर चुनाव समर में कूद पड़ा.

तब से उसके वंशज आदिवासी द्रोणाचार्य से शिक्षा न लेकर अँगूठा लगाने लगे.

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Acharya Sanjiv Salil

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गुरुवार, 4 अगस्त 2011

लघुकथा: विजय दिवस आचार्य संजीव 'सलिल'

लघुकथा:                                                                                            

विजय दिवस

आचार्य संजीव 'सलिल'
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करगिल विजय की वर्षगांठ को विजय दिवस के रूप में मनाये जाने की खबर पाकर एक मित्र बोले-

'क्या चोर  या बदमाश को घर से निकाल बाहर करना विजय कहलाता है?'

''पड़ोसियों को अपने घर से निकल बाहर करने के लिए देश-हितों की उपेक्षा, सीमाओं की अनदेखी, राजनैतिक मतभेदों को राष्ट्रीयता पर वरीयता  और पड़ोसियों की ज्यादतियों को सहन करने की बुरी आदत (कुटैव या लत) पर विजय पाने की वर्ष गांठ को विजय दिवस कहना ठीक ही तो है. '' मैंने कहा.

'इसमें गर्व करने जैसा क्या है? यह तो सैनिकों का फ़र्ज़ है, उन्हें इसकी तनखा मिलती है.' -मित्र बोले.

'''तनखा तो हर कर्मचारी को मिलती है लेकिन कितने हैं जो जान पर खेलकर भी फ़र्ज़ निभाते हैं. सैनिक सीमा से जान बचाकर भाग खड़े होते तो हम और आप कैसे बचते?''

'यह तो सेना में भरती होते समय उन्हें पता रहता है.'

पता तो नेताओं को भी रहता है कि उन्हें आम  जनता-और देश के हित में काम करना है, वकील जानता है कि उसे मुवक्किल के हित को बचाना है, न्यायाधीश जानता है कि उसे निष्पक्ष रहना है, व्यापारी जानता है कि उसे शुद्ध माल कम से कम मुनाफे में बेचना है, अफसर जानता है कि उसे जनता कि सेवा करना है पर कोई करता है क्या? सेना ने अपने फ़र्ज़ को दिलो-जां से अंजाम दिया इसीलिये वे तारीफ और सलामी के हकदार हैं. विजय दिवस उनके बलिदानों की याद में हमारी श्रद्धांजलि है, इससे नयी पीढी को प्रेरणा मिलेगी.''

प्रगतिवादी मित्र भुनभुनाते हुए सर झुकाये आगे बढ़ गये..

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Acharya Sanjiv Salil

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बुधवार, 11 मई 2011

लघु कथा: फूल --- शिखा कौशिक

लघु कथा:
फूल
शिखा कौशिक
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सिमरन दो साल के बेटे विभु को लेकर जब से मायके आई थी उसका मन उचाट था

गगन से जरा सी बात पर बहस ने ही उसे यहाँ आने के लिए विवश किया था | गगन और उसकी 'वैवाहिक रेल' पटरी पर ठीक गति से चल रही थी पर सिमरन के नौकरी की जिद करने पर गगन ने इस रेल में इतनी जोर क़ा ब्रेक लगाया क़ि यह पटरी पर से उतर गई और सिमरन विभु को लेकर मायके आ गयी | 

सिमरन अपने घर से निकली तो देखा विभु उस फूल की  तरह मुरझा गया था जिसे बगिया से तोड़कर बिना पानी दिए यूँ ही फेंक दिया गया हो | कई बार सिमरन ने मोबाईल उठाकर गगन को फोन मिलाना चाहा पर नहीं मिला पाई यह सोचकर क़ि ''उसने क्यों नहीं मिलाया ?" 

मम्मी-पापा व छोटा भाई उसे समझाने क़ा प्रयास कर हार चुके थे | विभु ने ठीक से खाना भी नहीं खाया था ...  पापा के पास ले चलो की जिद किये बैठा था | विभु को उदास देखकर आखिर सिमरन ने मोबाईल से गगन क़ा नम्बर  मिलाया और बस इतना कहा-''तुम तो फोन करना मत, विभु क़ा भी ध्यान  नहीं तुम्हें ?'' 

गगन ने एक क्षण की चुप्पी के बाद कहा -''सिम्मी मैं शर्मिंदा था......मुझे शब्द नहीं मिल रहे थे...... पर तुम अपने घर क़ा दरवाज़ा तो खोल दो........ मैं बाहर ही खड़ा हूँ....!'' 

यह सुनते ही सिमरन की आँखों  में  आँसू आ गए | वह विभु को गोद में उठाकर दरवाज़ा  खोलने के लिए बढ़ गयी, दरवाज़ा खोलते ही गगन को देखकर विभु मचल उठा और ........पापा.....पापा........कहता हुआ गगन की गोद में चला गया | सिमरन ने देखा कि आज उसका फूल फिर से खिल उठा था और महक भी रहा था |

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