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बुधवार, 8 मार्च 2017

kavita

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष रचना
औरत
कुसुम वीर, दिल्ली
*
संघर्षों की पोटली को सर पर उठाये
बेटी, पत्नी और माँ की भूमिका निभाती
सुख-दुःख की परछाइयों को जीवन्तता  लाँघती
साहसी औरत
जो कभी
रहती थी चार दीवारों में
आज, बंद किवाड़ों को ढकेल बाहर आ खड़ी है

अपनों के सपनों को पल्लू में बाँधे
कल के कर्णधारों को गोदी में दुलारती
अपनी मुट्ठी में उनके भविष्य का खज़ाना बटोरती
प्रेरणाशील औरत
जो कभी छिपती थी पर्दे में
आज दूसरों को अपना पदगामी बना रही है

अपने कंधों पर पराक्रम का दोशाला ओढ़े
ज़िंदगी की ऊँची-नीची पगडंडियों पर
निर्भीकता से कदम बढ़ाती
सफलता की सीढ़ियों को नापती
सबला औरत
जो कभी थी अबला
आज
आसमान की बुलंदियाँ छूने को बेताब खड़ी है
***

गुरुवार, 28 जनवरी 2016

samiksha

पुस्तक सलिला- 

चलो आज मिलकर नया कल बनायें - कुछ कर गुजरने की कवितायें 
*
[कृति विवरण- चलो आज मिलकर नया कल बनायें, काव्य संग्रह, कुसुम वीर, आकार डिमाई, आवरण- बहुरंगी, सजिल्द, जैकेट सहित, पृष्ठ १३४, मुल्य २००/-, प्रकाशक ज्ञान गंगा २०५ बी, चावडी बाज़ार दिल्ली ११०००६] 
*
सच्चा साहित्य सर्व कल्याण के सात्विक सनातन भाव से आपूरित होता है. कविता 'स्व' को 'सर्व' से संयुक्त कर कवि को कविर्मनीषी बनाती है. कोमलता और शौर्य का, अतीत और भविष्य का, कल्पना और यथार्थ का, विचार और अनुभूति का समन्वय होने पर कविता उपजती है. कुसुम वीर जी की रचनाएँ मांगल्य परक चिंतन से उपजी हैं. वे लिखने के लिये नहीं लिखतीं अपितु कुछ करने की चाह को अभिव्यक्त करने के लिए कागज़-कलम को माध्यम बनाती हैं. प्रौढ़ शिक्षा अधिकारी, तथा हिंदी प्रशक्षण संस्थान में निदेशक पदों पर अपने कार्यानुभवों को ४ पूर्व प्रकाशित पुस्तकों में पाठकों के साथ बाँट चुकने के पश्चात् इस कृति में कुसुम जी देश और समाज के वर्तमान से भविष्य गढ़ने के अपने सपने शब्दों के माध्यम से साकार कर सकी हैं. 

साठ सारगर्भित, सुचिंतित, लक्ष्यवाही रचनाओं का यह संग्रह भाव, रस, बिम्ब, प्रतीक और शैली से पाठक को बाँधे रखता है. 
हर नदी के पार होता है किनारा / हर अन्धेरी रात के आगे उजाला 
मन की दुर्बलता मिटाकर तुम चलो / एक दीपक प्रज्वलित कर तुम चलो 

बेहाल बच्चे, बदहवासी, कन्या नहीं अभिशाप हूँ, मैं एक बेटी, मत बाँटों इंसान को जैसी रचनाएँ वर्तमान विषमताओं और विडम्बनाओं से उपजी हैं. कवयित्री इन समस्याओं से निराश नहीं है, वह परिवर्तन का आवाहन आत्मबोध, प्रवाह, मंथन करता यह मन मेरा, जीवन ऐसे व्यर्थ नहो, अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए जैसी रचनाओं के माध्यम से करती है. 

दिये के नीचे भले ही अँधेरा हो, ऊपर उजाला ही होता है. यह उजास की प्यास ही घोर तिमिर से भी सवेरा उगाती है. धूप धरा से मिलाने आयी, मधुर मिलन, वात्सल्य, पावस, तेरे आने की आहट   से, प्राण ही शब्दित हुए, मन के झरोखे से अदि रचनाएँ जीवन में माधुर्य, आशा और उल्लास के स्वरों की अभिव्यंजना करती हैं. 
कौन कहता है जगत में / प्रीति की भाषा नहीं है 
मौन के अंत: सुरों से / प्राण ही शब्दित हुए हैं 

शब्द शक्ति की जय-जयकार करती ऐसी पंक्तियाँ पाठक के मन-प्राण को स्पंदित कर देती हैं. 

कुसुम जी की रचनाएँ अपने कथ्य की माँग के अनुसार छंद का प्रयोग करने या न करने का विकल्प चुनती हैं. दोनों हो प्रारूपों में उनकी अभिव्यक्ति प्रांजल और स्पष्ट है- 
उषा को साथ ले/ अरुण-रथ पर सवार होकर
कल फिर लौटेगा सूरज / रत की पोटली में 
सपनों को समेटे / पृथ्वी के प्रांगण पर
स्वर्णिम रश्मियों का उपहार बाँटने 
किसी अकिञ्चन की चाह में    

प्रसाद गुण संपन्न सरस-सहज बोधगम्य भाषा कुसुम जी की शक्ति है. वे मन से मन तक पहुँचने को कविता का गुण बना सकी हैं. डॉ. दिनेश श्रीवास्तव तथा इंद्रनाथ चौधुरी लिखित मंतव्यों ने संग्रह की गरिमा-वृद्धि की है. कुसुम जी का यह संग्रह उनकी अन्य रचनाओं को पढ़ने की प्यास जगाता है. 

***
-आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१
९४२५१८३२४४ / salil.sanjiv@gmail.com 

मंगलवार, 13 अगस्त 2013

kavi aur kavita: kusum vir

कवि और कविता :  कुसुम वीर

निश्छल मन की अभिव्यक्तियाँ हैं श्रीमती कुसुम वीर की कविताएँ



परिचय:
श्रीमती कुसुम वीर जी वर्तमान में ‘‘आसरा’’ – गरीब, असाक्षर एवं पिछली महिलाओं के उत्थान में अग्रसर चेरिटेबल संस्था की निदेशक हैं।
पूर्व में ये प्रौढ़ शिक्षा निदेशालय, स्कूल शिक्षा एवं साक्षरता विभाग, मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार, के निदेशक के रुप में कार्यरत थीं। जहां से ये जनवरी 2011 में सेवानिवृत्त हुईं। इसके पूर्व केंद्रीय हिंदी प्रशिक्षण संस्थान, राजभाषा विभाग, गृह मंत्रालय, भारत सरकार में 5 वर्षों तक निदेशक के रुप में कार्यरत थीं। इसके अलावा केद्रीय अनुवाद ब्यूरो, राजभाषा विभाग, गृह मंत्रालय, भारत सरकार में निदेशक का अतिरिक्त प्रभार संभाल चुकीं हैं। श्रीमती कुसुम वीर जी का अध्यापन में भी व्यापक अनुभव रहा है। ये वर्ष 1989 में आई.टी. कॉलेज, लखनऊ (उ.प्र.) में मनोविज्ञान विभाग में प्रवक्ता रही तथा दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में स्नातक/स्नातकोत्तर छात्रों को ‘‘अनुवाद’’ विषय पढ़ाया हैं। इसके अलावा इन्होंने विभिन्न देशों में आयोजित अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों/कार्यशालाओं में भारत सरकार के प्रतिनिधि के रूप में समय-समय पर सहभागिता की।
इन्होंने स्नातक की शिक्षा आगरा विश्वविद्यालय से वर्ष 1970 में हिंदी में प्रथम स्थान एवं स्वर्ण पदक के साथ प्राप्त की तथा स्नातकोत्तर – ‘मनोविज्ञान’ में प्रथम श्रेणी एवं आगरा विश्वविद्यालय में तृतीय स्थान के साथ हासिल की। शिक्षा की प्रति इनकी प्रतिबद्धता की वजह से इन्होंने इंटरनेशनल कॉलेज, डेनमार्क से वर्ष 1986 में ‘‘प्रौढ़ों की शिक्षा एवं उनका सामाजिक – आर्थिक विकास’’ विषय पर कोर्स किया। इन्होंने वर्ष 2006-07 में केंद्रीय हिंदी संस्थान, मानव संसाधन विकास मंत्रालय से संचालित ‘‘भाषा विज्ञान’’ का स्नातकोत्तर डिप्लोमा कोर्स प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण किया।
अध्ययन के प्रति इनकी चेष्टा का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि ये कक्षा 1 से एम.ए. तक सदैव प्रत्येक स्तर पर ‘प्रथम स्थान’ पर रहीं। ये वर्ष 1968 से 1972 तक राष्ट्रीय स्कालर भी रहीं। इन्हें  अनेक वर्षों तक ‘‘सर्वोत्तम छात्रा’’ के पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इन्हे वर्ष 1984 में ‘‘भारत की सर्वोत्तम युवा’’ के पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। इनके अथक प्रयासों एवं भाषा के प्रचि निष्ठा का सम्मान करने के लिए वर्ष 2008 में ‘‘विक्रमादित्य विद्यापीठ’’, भागलपुर, बिहार द्वारा ‘‘विद्यासागर’’ (डी.लिट) की मानद उपाधि से इन्हे विभूषित किया गया।
ये शिक्षा का अनमोल खजाना लेकर अपेक्षाकृत कम विकसित शहरों में गयीं। उत्तर प्रदेश सरकार में जिला प्रौढ़ शिक्षा अधिकारी के पद पर 10 वर्षों तक (वर्ष 1980-90) कार्य करते हुए विभिन्न जिलों यथा – आगरा, मथुरा, गाजियाबाद एवं बुलंदशहर में साक्षरता कार्यक्रम का सफल संचालन किया एवं गाँव-गाँव घूमकर बहुत से गाँवों को पूर्ण साक्षर किया। भारत के विकास में महिलाओं की भागीदारी को सुनिश्चित करने के लिए इन्होंने ‘‘आसरा’’ चैरिटेबल ट्रस्ट की निदेशक के रूप में जून 2011 से गरीब, असाक्षर एवं पिछड़ी अनुसूचित जाति/जनजाति की महिलाओं के उन्नयन हेतु उन्हें सिलाई-कढ़ाई, फल संरक्षण, ब्यूटी पार्लर एवं पढ़ाई-लिखाई का अनवरत प्रशिक्षण, हुनर एवं रोजगार प्राप्त कराया।
इतने व्यस्त कार्यकाल में भी साहित्य के प्रति अनुराग और समर्पण का प्रमाण इनके द्वारा लिखी गयी कई महत्वपूर्ण पुस्तकें हैं। जिसमें प्रमुख है 30 दिन में हिंदी सीखें – द्वारा – डायमंड पॉकेट बुक्स, a few steps in learning Hindi – द्वारा – डायमंड पॉकेट बुक्स, ‘राजभाषा व्यवहार ’ – द्वारा – डायमंड पॉकेट बुक्स, ‘‘मैं आवाज़ हूँ’’ (कविता संग्रह) – द्वारा – प्रतिभा प्रतिष्ठान तथा ‘प्रशिक्षण ‘मैनुअल्स’ का निर्माण।
देशभर में ये महिलाओं के उद्धार हेतु कई कार्यक्रमों से जुड़ी रहीं हैं। महिलाओं के उन्नयन और उनमें साक्षरता को बढ़ावा देने के लिए राज्य स्तरीय/जिला स्तरीय सफल अभिनव प्रयोग एवं समन्वय कार्य किए। देशभर में ‘‘लेखक कार्यशालाओ’’ का आयोजन कर विभिन्न भाषाओं में ‘‘साक्षरता प्रवेशिकाओं’’ का निर्माण कराया। इनकी लेखन प्रतिभा का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वागर्थ, ज्ञानोदय, गगनान्चल, स्वागत, शब्द-योग, राजभाषा भारती, साक्षरता मिशन, प्रौढ़ शिक्षा पत्रिका एवं सजग समाचार आदि अन्य कई पत्रिकाओं में लेखों एवं कविताओं का प्रकाशन हो चुका है। इसके अलावा आकाशावाणी एवं दूरदर्शन पर भी वार्ताओं एवं परिचर्चाओं का प्रसारण हो चुका है। इनसे kusumvir@gmail.com ई-मेल पर सम्पर्क किया जा सकता है। इनसे मोबाईल नम्बर 9899571158 पर भी सम्पर्क किया जा सकता है।
प्रस्तुत है श्रीमती कुसुम वीर जी की पुस्तक “ मैं आवाज़ हूँ – काव्य संग्रह” की दिनेश मिश्र द्वारा लिखी गई भूमिका।
कविताएँ जो बहुत-कुछ कहती हैं
कुसुम वीर की कविताएँ बहुत-कुछ कहती हैं। जीवन से जुड़े अनेक संघर्ष और अनुभव उनकी कविताओं में झलकते हैं। सर्वाधिक महत्वपूर्ण चुनौती तो अभिव्यक्ति की है जिसे उन्होंने अपनी कविता ‘मैं आवाज़ हूँ’ के माध्यम से सुदृढ़ आत्मविश्वास के साथ व्यक्त किया है। कवयित्री को मालूम है कि हमारे परिवेश में, हमारे समाज में, स्वतंत्र और स्वाभिमानी विचार का आसानी से स्वागत नहीं होता। उस आवाज़ को दबाने या बाँधने की भरपूर कोशिश होती है। लेकिन, कवयित्री समाज की उन शक्तियों के सामने झुकने को तैयार नहीं। दमन और न्याय के खि़लाफ़ उसकी आवाज़ बुलंद है और रहेगी ताकि, बाधाओं और अंधविश्वासों की दीवारें गिराई जा सकें। कवयित्री का साहस अदम्य है और आत्मविश्वास अपराजेय। तभी तो,
मैं आरक्षित हूँ
एक बुलंद आवाज़
एक अपरिमित आकाश
जिसे न गिरा सका है कोई
न दबा सकेगा कोई।
कुसुम वीर की कविताओं में जहाँ एक ओर मानवीय संबंधों की उलझनें सामने आती हैं, वहीं दूसरी ओर रिश्तों की सच्चाई कुछ इस तरह नज़र आती है,
रंग-रँगीले लोग
गिरगिट-से रंग बदलते
स्वार्थरत
निजोन्मुख
अंतर की माँद में
दुबले-से रिश्ते
और फिर रिश्ते भी ‘किसिम-किसिम’ के,
रिश्ते
कुछ खट्टे
कुछ मीठे
कुछ तीखे
कुछ फीके
कुछ मन से जुड़े
कुछ तन से जुड़े
संपर्कों की आड़ में
कुछ बरबस जुड़े।
परंतु कवयित्री आशावादी है – सकारात्मक दृष्टि-संपन्न। तभी तो कहा है,
रिश्ता कोई भी
इतना फीका नहीं
कि सौहार्द का रंग न चढ़े
इतना खट्टा नहीं
जिस पर प्रेम की मिठास न मढ़े
इतना तीखा नहीं
कि नम्रता का असर न पड़े।
कुसुम वीर की कविताएँ जीवन की ऊहापोह से गुजरते हुए एक निश्छल मन की अभिव्यक्तियाँ हैं। इन कविताओं में भावनाएँ, संवेदनाएँ, विचार,रुचियां – उनका समूचा व्यक्तित्व परिलक्षित होता है। क्या मन को भला लगता है और क्या नहीं, बड़ी बेबाकी से बताया है:
मुझे अच्छा लगता है
लोगों के बीच रहना
मिलना-जुलना
लेकिन अखर जाता है
लोगों की भीड़ में
अपने को अकेला पाना।
जैसे मनुष्य के व्यक्तित्व के अनेक पहलू होते हैं, कुसुम वीर की कविताओं के भी कई रंग हैं। एक ओर सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश की जकड़न का गहरा अहसास है, वहीं मन की कोमलतम संवेदनाओं को भी ये कविताएँ उजागर करती हैं,
मन
गीली मिट्टी सा
उपजते हैं इसमें
अनेक विचार
अभिलाषाएँ
आकांक्षाएँ
या फिर,
मुझ्ो प्यार चाहिए
ढेर सारा प्यार
लाड़ और दुलार।
कुसुम वीर की कविताओं का एक अहम विषय है सामाजिक एवं राजनीतिक परिवेश की विसंगतियाँ। भारत की गौरवमयी सांस्कृतिक विरासत के बावजूद वर्तमान समाज में बहुत-सी बातें असहनीय हैं। उनके विरोध में कवयित्री के मन का आक्रोश कई कविताओं में मुखर हुआ है। जैसे,
कैसी आज़ादी यहाँ
कोई किसी की
सुनती नहीं।
कोई किसी को
कुछ कहता नहीं।
और भी बहुत-कुछ कहा जा सकता है कुसुम वीर की कविताओं के बारे में, उनकी संभावनाओं के बारे में। परंतु बेहतर यह है कि पाठक सीधे कविताओं से ही सुनें कि वे क्या कहती हैं?
विश्वास है कि पाठकों को ये कविताएँ अपने मन के आस-पास की कविताएँ लगेंगी और वे इनमें एक भावनापूर्ण निश्छल स्वर सुन सकेंगे।
‘मैं आवाज़ हूँ’ कुसुम वीर की कविताओं का पहला संग्रह है और आशा है कि यह समर्थ आवाज़ दूर तक हमारे साथ चलेगी। – दिनेश मिश्र
प्रस्तुत है श्रीमती कुसुम वीर जी की कुछ महत्वपूर्ण कवितायें –
मैं आवाज़ हूँ
मैं
एक आवाज़ हूँ
जीती-जागती
झंझावतों को चीरती
ज़ुल्मों को बींधती
म्यान से निकल
अत्याचारों को रौंदती
तुम सोचते हो
दबा सकोगे तुम
मेरी आवाज़ को
मेरी ताकत को
मेरी शख़्सियत को
मेरे वजूद को
आज तक
कौन बाँध सका है
मुझे, अपने पाश में
न मानव
न दानव
न सूरज
न तारे
गवाह हैं
ये सभी
मेरी सत्ता के
मेरे अस्तित्व के
मेरी आवाज़ के
मेरी आवाज़
युगों से पुकार रही है
मुझे जीने दो
खुली हवा में
साँस लेने दो
तोड़ डालो
उन बाधाओं को
अंधविश्वासों की दीवारों को
जो चारदीवारी से
तुम्हें बाहर नहीं आने देतीं
गिरा दो
उन शिलाखंडों को
जिनके पाषाण संकेतों ने
दबा रखा है स्वप्नों को
लौटा दो
उन गरजते तूफानों को
जो अपनी गरज से
दबा देना चाहते हैं
उभरती आवाज़ को
उड़ने दो इस आवाज़ को
भावनाओं के उन्मुक्त गगन में
जहाँ विस्तृत आकाश
बाँहें फैला खड़ा है
यह आवाज़ आत्मसात कर
उसे दोहराने को।
मैं अक्षरित हूँ
एक बुलंद आवाज़
एक अपरिमित आकाश
जिसे न गिरा सका है कोई
न दबा सकेगा कोई।
***
मैं खुश हूँ
मैं
बहुत खुश हूँ
मेरे आँगन में
एक अंकुर फूटा है
परसों, मैंने
एक नन्हें बीज को
अपनी हथेलियों से सहलाकर
बोया था
माटी के बीच में
आज
एक अंकुर फूटा है उसमें
मृदुल, कोमल
इक नन्हे शिशु सा
कोमल हरित गात
मैंने
उसे सहलाया
जल बिंदुओं से
और
आहिस्ता-आहिस्ता
वह बढ़ने लगा
थोड़ा ऊँचा
उठने लगा
और अब
कुछ-कुछ मुझे
पहचानने भी लगा है
मेरे पास आते ही
वह मचलने लगता है
मेरी उँगलियों का
स्पर्श पाने को
अपनी कोमल सी कोंपल बाँहों से
छूना चाहता है मुझे
मैं
रोज़ उसे देखती हूँ
दुलारती हूँ
सींचती हूँ।
अब
वह जवान हो चला है
मैं आज बहुत खुश हूँ
उसने जन्म दिया है
शाखों को,
जिनको
मौसम की बहारें
अपने पालने में
दुलार रही हैं
धीरे-धीरे
फिर बढ़ने लगी हैं
शाखें
और
बौर उमड़ आया है
उन पर
यौवन का
फैला दी हैं उसने अपनी बाँहें
किसी आलिंगन को
झुकने लगा है वह
अपने फलों से
धरा को
पूरित करने को
मैं
बहुत खुश हूँ
क्योंकि
मैंने आज
एक जीवन को
भरपूर जीते देखा है।
***
चस्का
यहाँ, कोई किसी से
नहीं बोलता
किसी की नहीं सुनता
सब अपने में मगन
आगे बढ़ने की होड़
एक चस्का
ढेर सारे पैसे
पाने का
और
सिक्कों की खनखनाहट में
बेसुध हो जाने का।
यहाँ पर
कोई किसी को नहीं रोकता
नहीं टोकता
क्योंकि
इस आपाधापी में
सबको
अपनी पड़ी है।
उसे चाहिए ज्चयादा
और ज्चयादा, सबसे ज्चयादा
किसी को कम मिले
या ना मिले
उसे क्या
उसे तो पाना है सर्वस्व
कभी न खत्म होनेवाली मरीचिका
और अपार अधिकार!
***
मैंने भारत को देखा है
मैंने
भारत को देखा है
उसके मान को
सम्मान को
गौरव को
मर्यादा को।
मैंने
भारत को जाना है
उसकी आत्मा को
पौरुष को
शौर्य को
बलिदान को।
मैंने
भारत को सुना है
उसके तरकस से छूटे
प्रत्यंचा पर चढ़े
तीरों की गर्जना को।
मैंने
भारत को सूँघा है
उसकी हवा में बहती
यज्ञ-सुवासित
समिधा की खुशबू को।
मैंने
भारत को पहचाना है
तक्षशिला नालंदा में गूँजते
वेदों की ऋचाओं के
मुखरित स्वरों को।
***
बुलबुले
बुलबुले
छोटे-बड़े बुलबुले
तरह-तरह के बुलबुले
बुलबुले
जो बहुत-कुछ कहते हैं
अपनी ज़बानी
जीवन की कहानी
बुलबुले
भावों के बुलबुले
उभरते-ठिठकते
अंतर के सागर में
फूटते-सिमटते
बुलबुले
सपनों के बुलबुले
तैरते-मचलते
उमंगों के बुलबुले
मुसकाते-चहकते
बुलबुले
आशा-निराशा के बुलबुले
जलते औ’ बुझ्ाते
आकांक्षाओं के बुलबुले
टिमटिमाते-चमकते
बुलबुले
प्रीत के बुलबुले
गहाराते-उथले
रिश्तों के बुलबुले
बनते-बिगड़ते
बुलबुले
खुशियों के बुलबुले
हँसते-मचलते
गम के बुलबुले
अकेले-वीराने
बुलबुले
तृष्णा के बुलबुले
ललचाते-बहकते
करुणा के बुलबुले
दुलारते-सहलाते
बुलबुले
वीरता के बुलबुले
दहाड़ते-गरजते
भय के बुलबुले
सहमते-दुबकते
बुलबुले
साँसों के बुलबुले
आते-गुज़रते
जीवन के बुलबुले
उगते औ’ ढलते
बुलबुले
मृत्यु के बुलबुले
मिटते-सिमटते
सत्य के बुलबुले
शाश्वत ही रहते
अनूठी कहानी है
ये बुलबुलों की
मिटकर भी फिर से
उपजते हैं बुलबुले
***
ये भी हैं बच्चे
बच्चे
कूड़े के ढेर में
इधर-उधर
ताकते-झाँकते
नन्हीं-नन्हीं उँगलियों से
चिंदी-चिंदी कागज़ बीनते
प्लास्टिक की बोतलें बटोरते
दिशाहीन बच्चे
पुराने घिसे कपड़ों को
अपने मैले हाथों से पोंछते
दूर कहीं सलीके से
यूनीफार्म पहने
स्कूल जाते दूसरे बालकों को
हसरत से निहारते
कुछ करने की चाह में
ऊपर- नीचे बेमकसद
कूदते-फाँदते बच्चे
चौराहे की लाल बत्ती पर
गाड़ियों के आगे-पीछे
डोलते- मंडराते
माँओं की गोद में चिपके
लाडले बच्चों को
गुब्बारा बेचते
अभावग्रस्त बच्चे
आरामदार गाड़ियों में बैंठे
साहब मेमसाहब से
माँगते- गिड़गिड़ाते
टाई बाबू की फटकार से
सहमते- डरते
किसी नुक्कड़ पर
हलवाई की दुकान को
ललचाई नज़रों से ताकते
भूखे बच्चे
भारत निर्माण के
ख्वाबों से अनजान
अक्षरों से महरुम
चौराहों पर
कलम किताब बेचते बच्चे
पास से गुज़रती
किसी गाड़ी की तेज़ रफ्तार से
ठोकर खाते
गिरते- कराहते
थककर पगडंडी पर पैर पसारे
भावपूरित आँखों से
शून्य में ताकते बच्चे
बाल शोषण मुक्ति कानून
देश के विकास,
उसकी तरक्की से बेखबर
देश के नौनिहाल-कर्णधार
सड़क फुटपाथ पर
अधनंगे सोते बच्चे
***
सुर्खियों में
मुझे अच्छा लगता है
सुबह-सुबह
हरी घास पर टहलना,
और शबनमी बूँदों का
मेरे पाँओं को सहलाना
भाती है मुझे
ठंडी हवाओं के झोकों में,
पेड़ों की शाखों पर
पत्तों का,
रह-रहकर मचल जाना
लेकिन, गर्म चाय की
प्याली के साथ
अख़बार की सुर्खियों में
जब पढ़ती हूँ,
बलात्कार, डकैती
अपहरण और मारकाट,
तब सिहर उठता है मन
काँप जाती है रूह
कि आज
फिर किसी
वृद्धा को पाकर अकेले
किसी कसाई ने,
उसका हलक दबाया होगा !
सुबह की सुहानी,
शीतल सुवासित मलय
अब गर्म हो चुकी है
अख़बार के सुर्ख स्याह
पन्नों की धूप से,
रेशमी घास के
शबनमी मोती भी
अब सुख चुके है,
और रीत चुके है
भावों के अप्लव
दूर कहीं
कोमल, निश्छल शाखें
ताक रही है
पेड़ो को,
और, पूछ रही है,
कब ये आदमी
इन्सान बनेगा?
क्या इसीलिए, ईश्वर ने
इन्सान को
धरती पर भेजा था,
कि वह,
ज़र, जोरू और ज़मी के लिए
कत्ले आम करे
और बहाए खून
माँओं, बहनों और बच्चों का
जिनका दोष सिर्फ यह है,
कि वे निर्दोष हैं !
***
आभार : प्रवासी दुनिया

गुरुवार, 25 अप्रैल 2013

hindi poetry: madhur milan kusum vir

सरस रचना:

मधुर मिलन  
कुसुम वीर 
*

नीलवर्ण आकाश अपरिमित
सिंध कंध आनन अति शोभित 
निरख रहा नीरव  नयनों से
सौन्दर्य धरा का हरित सुषमित 

हरित धरा की सौंधी खुशबू 
सुरभित गंध  विकीर्ण हुई
नीलाभ्र गगन की आभा में 
पुलकित होकर वह  विचर रही 

प्रकृति के प्रांगण में हरपल
भाव तरंगें उमड़ रहीं 
पलकों पर अगणित स्वप्न सजा 
मन आँगन में थीं जा बैठीं 

कल्पना के स्वर्णिम रंगों से 
नव चित्र उकेर वो लाई थी 
जगती के अनगिन रूपों में 
शुभ्र छटा बिखराई थी 

दूर गगन था निरख रहा 
धरती की निश्छल सुन्दरता 
धरा मिलन को आतुर हो 
उमगाता था कुछ जी उसका 

तृषित नयन से निरख रहा 
भू का स्वर्णिम नूतन निखार 
मौन निमंत्रण धरा मिलन को 
करता था वो भुज पसार 

छोड़ अहम् को गगन तभी
मन विहग उड़ा जा क्षितिज अभी
धरा मिलन को आतुर हो 
व्योम छोड़ कर गया जभी 

देख क्षितिज में मधुर मिलन 
द्युतिमय हो गया सकल भू नभ 
श्यामल रक्तिम सी आभा में 
सारी सृष्टि हो गई मगन 

अहंकार टूटा था नभ का 
प्रेम - प्रीति की रीति मे
बांध सका है किसको कोई
दंभ पाश की नीति में
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 "Kusum Vir" <kusumvir@gmail.com>

शनिवार, 8 सितंबर 2012

बाल कविता: आओ हम सब पढ़ना सीखें -- कुसुम वीर

बाल कविता 


आओ हम सब पढ़ना सीखें

कुसुम वीर

 

अक्षर की ताकत को जानो
पढ़ो - लिखो, ख़ुद को पहचानो
अक्षर से तुम शब्द बनाओ
उन्नति पथ पर बढ़ते जाओ


शब्दों में संसार सजा है
इसमें भाव भण्डार भरा है
साकार करें सपनों की दुनिया
खिल जाती हैं मन की कलियाँ


ये हैं हमको सीख सिखाते
भले - बुरे का भेद बताते
भीतर का तम हर लेते ये
ज्ञान - प्रकाश जगा देते ये


हमसे बातें करते अक्षर
जीवन से पूरित हैं अक्षर
कहानी कहते, किस्से गढ़ते
ज्ञान - विज्ञान की बात बताते


जल, जंगल, ज़मीन की रक्षा
साफ़ - सफाई, स्वास्थ्य सुरक्षा
इसको जानो, उसको जानो
सारी दुनिया को पहचानो


आओ हम सब पढ़ना सीखें
लिखना सीखें, गढ़ना सीखें
ज़िंदगी में बढ़ना सीखें
जीवन सुखी बनाना सीखें


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