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गुरुवार, 22 फ़रवरी 2018

kruti charcha

कृति चर्चा:
'उम्र जैसे नदी हो गई' हिंदी गजल का सरस प्रवाह
- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
. [कृति विवरण: उम्र जैसे नदी हो गई, हिंदी ग़ज़ल / गीतिका संग्रह,  प्रो. विश्वंभर शुक्ल, प्रथम संस्करण, २०१७, आई एस बी एन  ९७८.९३.८६४९८.३७.३, पृष्ठ ११८, मूल्य २२५/-,  आवरण बहुरंगी, सजिल्द जैकेट सहित, अनुराधा प्रकाशन, जनकपुरी, नई दिल्ली, रचनाकार संपर्क ८४ ट्रांस गोमतीए त्रिवेणी नगर, प्रथम, डालीगंज रेलवे क्रोसिंग, लखनऊ २२६०२०, चलभाष ९४१५३२५२४६]
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. विश्ववाणी हिंदी का गीति काव्य विश्व की किसी भी अन्य भाषा की तुलना में अधिक व्यापक, गहन, उर्वर, तथा श्रेष्ठ है। इस कथन की सत्यता हेतु मात्र यह इंगित करना पर्याप्त है कि हिंदी में ३२ मात्रा तक के मात्रिक छंदों की संख्या ९२, २७, ७६३ तथा २६ वर्णों तक के वर्णिक छंदों की संख्या ६,७१,०८,८६४ है।  दंडक छंद, मिश्रित छंद, संकर छंद, लोक भाषाओँ के छंद असंख्य हैं जिनकी गणना ही नहीं की जा सकी है।  यह छंद संख्या गणित तथा ध्वनि-विज्ञान सम्मत है।  संस्कृत से छान्दस विरासत ग्रहण कर हिंदी ने उसे सतत समृद्ध किया है। माँ शारदा के छंद कोष को संस्कृत अनुष्टुप छंद के विशिष्ट शिल्प के अंतर्गत समतुकांती  द्विपदी में लिखने की परंपरा के श्लोक सहज उपलब्ध हैं।  संस्कृत से अरबी-फारसी ने यह परंपरा ग्रहण की और मुग़ल आक्रान्ताओं के साथ इसने भारत में प्रवेश किया।  सैन्य छावनियों व बाज़ार में लश्करी, रेख्ता और उर्दू के जन्म और विकास के साथ ग़ज़ल नाम की यह विधा भारत में विकसित हुई किंतु सामान्य जन अरबी-फारसी के व्याकरण-नियम और ध्वनि व्यवस्था से अपरिचित होने के कारण यह उच्च शिक्षितों या जानकारों तक सीमित रह गई।  उर्दू के तीन गढ़ों में से एक लखनऊ से ग़ज़ल के भारतीयकरण का सूत्रपात हुआ। 
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. हरदोई निवासी डॉ. रोहिताश्व अस्थाना ने हिंदी ग़ज़ल पर प्रथम शोध ग्रन्थ 'हिंदी ग़ज़ल उद्भव और विकास' प्रस्तुत किया।  सागर मीराजपुरी ने गज़लपुर, नवग़ज़लपुर तथा गीतिकायनम के नाम से तीन शोधपरक कृतियों में हिंदी ग़ज़ल के सम्यक विश्लेषण का कार्य किया।  हिंदी ग़ज़ल को स्वतंत्र विधा के रूप में पहचान देने की भावना से प्रेरित रचनाकारों ने इसे मुक्तिका, गीतिका, तेवरी, अनुगीत, लघुगीत जैसे नाम दिए किंतु नाम मात्र बदलने से किसी विधा का इतिहास नहीं बदला करता। 

. हिंदी ग़ज़ल को महाप्राण निराला द्वारा प्रदत्त 'गीतिका' नाम से स्थापित करने के लिए प्रो . विश्वंभर शुक्ल ने अपने अभिन्न मित्र ओम नीरव के साथ मिलकर अंतरजाल पर निरंतर प्रयत्न कर नव पीढ़ी को जोड़ा।  फलत: 'गीतिका है मनोरम सभी के लिए' तथा 'गीतिकालोक' शीर्षक से दो महत्वपूर्ण कृतियाँ प्रकाशित हुईं जिनसे नई कलमों को प्रोत्साहन मिला। 
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. विवेच्य कृति 'उम्र जैसे नदी हो गयी' इस पृष्ठभूमि में हिंदी छंदाधारित हिंदी ग़ज़ल की परिपक्वता की झलक प्रस्तुत करती पठनीय-मननीय कृति है।  गीतिका, रोला, वाचिक भुजंगप्रयात, विजात, वीर/आल्ह, सिंधु, मंगलवत्थु, दोहा, आनंदवर्धक, वाचिक महालक्ष्मी, वाचिक स्रग्विणी, जयकरी चौपाई, वर्णिक घनाक्षरी, राधाश्यामी चौपाई, हरिगीतिका, सरसी, वाचिक चामर, समानिका, लौकिक अनाम, वर्णिक दुर्मिल सवैया, सारए लावणी, गंगोदक, सोरठा, मधुकरी चौपाई, रारायगा, विजात, विधाता, द्वियशोदा, सुखदा, ताटंक, बाला, शक्ति, द्विमनोरम, तोटक, वर्णिक विमोहाए आदि छंदाधारित सरस रचनाओं से समृद्ध यह काव्य-कृति रचनाकार की छंद पर पकड़, भाषिक सामर्थ्य तथा नवप्रयोगोंमुखता की बानगी है।  शुभाशंसान्तर्गत प्रो . सूर्यप्रकाश दीक्षित ने ठीक ही कहा है: 'इस कृति में वस्तु-शिल्पगत यथेष्ट वैविध्यपूर्ण काव्य भाषा का प्रयोग किया गया है, जो प्रौढ़ एवं प्रांजल है....  कृति में विषयगत वैविध्य दिखाई देता है।  कवि ने प्रेम, सौन्दर्य, विरह-मिलन एवं उदात्त चेतना को स्वर दिया है।  डॉ. उमाशंकर शुक्ल 'शितिकंठ' के अनुसार इन रचनाओं में विषय वैविध्य, प्राकृतिक एवं मानवीय प्रेम-सौन्दर्य के रूप-प्रसंग, भक्ति-आस्था की दीप्ति, उदात्त मानवीय मूल्यों का बोध, राष्ट्रीय गौरव की दृढ़ भावनाएँ विडंबनाओं पर अन्वेषी दृष्टि, व्यंग्यात्मक कशाघात से तिलमिला देनेवाले सांकेतिक चित्र तथा सुधारात्मक दृष्टिकोण समाहित हैं।'
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. 'गीतिका है मनोरम सभी के लिए' में ९० रचनाकारों की १८० रचनाओं के अतिरिक्त, दृगों में इक समंदर है तथा मृग कस्तूरी हो जाना दो गीतिका शतकों के माध्यम से इस विधा के विकास हेतु निरंतर सचेष्ट प्रो. विश्वंभर शुक्ल आयु के सात दशकीय पड़ाव पार करने के बाद भी युवकोचित उत्साह और ऊर्जा से छलकते हुए उम्र के नद-प्रवाह को इस घाट से घाट तक तैरकर पराजित करते रहते हैं।  भाव-संतरण की महायात्रा में गीतिका की नाव और मुक्तकों के चप्पू उनका साथ निभाते हैं।  प्रो. शुक्ल  के सृजन का वैशिष्ट्य देश-काल-परिस्थिति के अनुरूप भाषा- शैली और शब्दों का चयन करना है।  वे भाषिक शुद्धता के प्रति सजग तो हैं किंतु रूढ़-संकीर्ण दृष्टि से मुक्त हैं।  वे भारत की उदात्त परंपरानुसार परिवर्तन को जीवन की पहचान मानते हुए कथ्य को शिल्प पर वरीयता देते हैं।  'कर्म प्रधान बिस्व करि राखा' और 'कर्मण्येवाधिकारस्ते' की सनातन परंपरा के क्रम में वे कहते हैं- 
. 'कर्म के खग पंख खोलें व्योम तक विचरण करें  
. शिथिल हैं यदि चरण तब यह जीवनी कारा हुई 
. काटकर पत्थर मनुज अब खोजता है नीर को 
. दग्ध धरती कुपित यह अभिशप्तए अंगारा हुई
. पर्वतों को सींचता है देवता जब स्वेद से
. भूमि पर तब एक सलिला पुण्य की धारा हुई '
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. जीवन में सर्वाधिक महत्व स्नेह का हैण् तुलसीदास कहते है-
. 'आवत ही हरसे नहींए नैनन नहीं सनेह 
. तुलसी तहाँ न जाइए कंचन बरसे नेह'

. शुक्ल जी इस सत्य को अपने ही अंदाज़ में कहते हैं. 
. 'आदमी यद्यपि कभी होता नहीं भगवान है 
. किंतु प्रिय सबको वही जिसके अधर मुस्कान है 
. सूख जाते हैं समंदर जिस ह्रदय में स्नेह के
. जानिए वह देवता भी सिर्फ रेगिस्तान है
. पाहनों को पूज लेताए मोड़ता मुँह दीन से 
. प्यार.ममता के बिना मानव सदा निष्प्राण हैण्
. प्रेम करुणा की सलिल सरिता जहाँ बहती नहीं
. जीव ऐसा जगत में बस स्वार्थ की दूकान है'

. प्रकृति के मानवीकरण ओर रूपक के माध्यम से जीवन-व्यापार को शब्दांकित करने में शुक्ल जी का सानी नहीं है. भोर में उदित होते भास्कर पर आल्हाध्वीर छंद में रचित यह मुक्तिका देखिए- 
. 'सोई हुई नींद में बेसुध, रजनी बाला कर श्रृंगार
. रवि ने चुपके से आकर के, रखे अधर पर ऊष्ण अंगार
. अवगुंठन जब हटा अचानक, अरुणिम उसके हुए कपोल
. प्रकृति वधूटी ले अँगड़ाई, उठी लाज से वस्त्र सँवार 
. सकुचाई श्यामा ने हँसकर, इक उपहार दिया अनमोल
. प्रखर रश्मियों ने दिखलाए, जी भर उसके रंग हजार
. हुआ तिरोहित घने तिमिर का, फैला हुआ प्रबल संजाल
. उषा लालिमा के संग निखरी, गई बिखेर स्वर्ण उपहार 
. प्रणय समर्पण मोह अनूठे, इनसे खिलती भोर अनूप 
. हमें जीवनी दे देता है, रिश्तों का यह कारोबार'  
.  
. पंचवटी में मैथिलीशरण जी गुप्त भोर के दृश्य का शब्दांकन देखें-
. 'है बिखेर देती वसुंधरा मोती सबके सोने पर 
. रवि बटोर लेता है उनको सदा सवेरा होनेपर 
. और विरामदायिनी अपनी संध्या को दे जाता है
. शून्य श्याम तनु जिससे उसका नया रूप झलकाता है'

दो कवियों में एक ही दृश्य को देखकर उपजे विचार में भिन्नता स्वाभाविक है किंतु शुक्ल जी द्वारा किए गए वर्णन में अपेक्षाकृत अधिक सटीकता और बारीकी उल्लेखनीय है। 

उर्दू ग़ज़ल के चुलबुलेपन से प्रभावित रचना का रंग अन्य से बिलकुल भिन्न है-
'हमारे प्यार का किस्सा पुराना है 
कहो क्या और इसको आजमाना है 
गज़ब इस ज़िंदगी के ढंग हैं प्यारे 
पता चलता नहीं किस पर निशाना है।' 
एक और नमूना देखें -
'फिर से चर्चा में आज है साहिब 
दफन जिसमें मुमताज है साहिब
याद में उनके लगे हैं मेले
जिनके घर में रिवाज़ है साहिब'  

भारतीय आंचलिक भाषाओँ को हिंदी की सहोदरी मानते हुए शुक्ल जी ने बृज भाषा की एक रचना को स्थान दिया है।  वर्णिक दुर्मिल सवैया छंद का माधुर्य आनंदित करता है-
करि गोरि चिरौरि छकी दुखियाए छलिया पिय टेर सुनाय नहीं 
अँखियाँ दुइ पंथ निहारि थकींए हिय व्याकुल हैए पिय आय नहीं 
तब बोलि सयानि कहैं सखियाँ ए तनि कान लगाय के बात सुनो 
जब लौं अँसुआ टपकें ण कहूँए सजना तोहि अंग लगाय नहीं 

ग्रामीण लोक मानस ऐसी छेड़-छाड़ भरी रचनाओं में ही जीवन की कठिनाइयों को भुलाकर जी पाता है। 

राष्ट्रीयता के स्वर बापू और  अटल जी को समर्पित रचनाओं के अलावा यत्र-तत्र भी मुखर हुए हैं-
'तोड़ सभी देते दीवारें बंधन सीमाओं के 
जन्मभूमि जिनको प्यारी वे करते नहीं बहाना 
कब-कब मृत्यु डरा पाई है पथ के दीवानों को 
करते प्राणोत्सर्ग राष्ट्र-हित गाते हुए तराना 
धवल कीर्ति हो अखिल विश्व में, नवोन्मेष का सूरज 
शस्य श्यामला नमन देश को वन्दे मातरम गाना' 

यदा-कदा मात्रा गिराने, आयें और आएँ दोनों क्रिया रूपों का प्रयोग, छुपे, मुसकाय जैसे देशज क्रियारूप खड़ी हिंदी में प्रयोग करना आदि से बचा जा सकता तो आधुनिक हिंदी के मानक नियमानुरूप रचनाएँ नव रचनाकारों को भ्रमित न करतीं। 

शुक्ल जी का शब्द भण्डार समृद्ध है।  वे हिंदीए संस्कृत, अंगरेजी, देशज और उर्दू के शब्दों को अपना मानते हुए यथावश्यक निस्संकोच प्रयोग करते हैं , कथ्य के अनुसार छंद चयन करते हुए वे अपनी बात कहने में समर्थ हैं-
'अब हथेली पर चलो सूरज उगाएँ
बंद आँखों में अमित संभावनाएँ
मनुज के भीतर अनोखी रश्मियाँ है 
खो गयी हैंए आज मिलकर ढूँढ लाएँ 
 एक सूखी झील जैसे हो गए मन
है जरूरी नेह की सरिता बहाएँ
आज का चिंतन मनन अब तो यही है
पेट भर के ग्रास भूखों को खिलाएँ 
तोड़ करके व्योम से लायें न तारे 
जो दबे कुचले उन्हें ऊपर उठाएँ' 

सारत: 'उम्र जैसे नदी हो गयी' काव्य-पुस्तकों की भीड़ में अपनी अलग पहचान स्थापित करने में समर्थ कृति है। नव रचनाकारों को छांदस वैविध्य के अतिरिक्त भाषिक संस्कार देने में भी यह कृति  समर्थ है।  शुक्ल जी का जिजीविषाजयी व्यक्तित्व इन रचनाओं में जहाँ-तहाँ झलक दिखाकर पाठक को मोहने में कोई कसर नहीं छोड़ता। 
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संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ७९९९५५९६१८, ईमेल: salil.sanjiv@gmail.com, वेब: www.divyanarmada.in

बुधवार, 3 जनवरी 2018

kruti charcha-

कृति चर्चा:
'गाँधी और उनके बाद' 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
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[कृति विवरण: गाँधी और उनके बाद, काव्य संग्रह, ISBN No.: 13-978-93-83198-07-8, ओमप्रकाश शुक्ल, २०१८, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी, पृष्ठ  ६०, १५०/-, पाल प्रकाशन, १८२ चंद्रलोक, मंडोली मार्ग, दिल्ली ११००९३, कवि संपर्क: ]     
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               सनातन मूल्यों के वर्तमान संक्रमण काल में सत्य और अहिंसा की आधार शिला पर  अपने व्यक्तिगत, पारिवारिक, राजनैतिक और सामाजिक जीवन इमारत खड़ी करनेवाले, साधारण रूप-रंग, कद-काठी किंतु असाधारण ही नहीं अनुपमेय चिंतन शक्ति और कर्म निष्ठा के जीवंत उदाहरण गाँधी जी से आत्मिक जुड़ाव की अनुभूति कर, उनके व्यक्तित्व-कृतित्व से अभिभूत होकर, एकांतिक निष्ठा और समर्पण के दिव्य भाव से समर्पित होकर एक युवा द्वारा ६५ काव्य रचनाएँ की जाना विस्मित करता है। म. गाँधी की नौका पर चढ़कर चुनावी वैतरणी पार करनेवाले उनके नाम का सदुपयोग (?) उनके जीवन काल से अब तक असंख्य बार करते रहे हैं और न जाने कब तक करते रहेंगे। गाँधी जी के विचारों की हत्या कर उनके अनुयायी होने का दावा करनेवालों की संख्या भी अगणित है किंतु बिना किसी स्वार्थ के गाँधी जी के व्यक्तित्व-कृतित्व से अपनत्व और अभिन्नता की प्रतीति कर काव्य कर्म को मूर्त करने की साधना न तो सहज है, न ही सुलभ। प्रतिदिन प्रकाशित हो रही अगणित हिंदी काव्य रचनाओं के बीच शुचि-सात्विक चिंतनपरक सृजन का वैचारिक अश्वमेध बिना दृढ़ संकल्प पूर्ण नहीं होता। 

               काव्य रचना वैचारिक प्रतिबद्धता के साथ प्रचुर शब्द-भण्डार, प्रासंगिक कथ्य, सम्यक भावाभिव्यक्ति, छांदस लयात्मक अभिव्यक्ति, यथोचित आलंकारिक सज्जा, बिंब-प्रतीक के सप्तपदीय अनुशासन के साथ शब्द-शक्तियों और रस के समन्वययुक्त नवधा अनुष्ठान को पूर्ण करने की संश्लिष्ट प्रक्रिया है। युवा कवि ओमप्रकाश शुक्ल ने  नितांत समर्पण भाव से इस रचना यज्ञ में भावाहुतियाँ दी हैं। इस कृति के पठन के समान्तर पाठक के मन में चिंतन प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है। दर्शन शास्त्र में स्नातकोत्तर अध्ययन करते समय गाँधी दर्शन से दो-चार होने के अवसर मिला है। समय-समय पर अपने आचरण में यदा-कदा वह प्रभाव पाता रहा हूँ। 'गाँधी और उनके बाद' की रचनाएँ मुझे मेरे कवि के उस मनोभाव से साक्षात का सुअवसर देता रहा जिसे मैं अभिव्यक्त नहीं कर सका। बहुधा ऐसा लगता रहा जैसे अपनी ही विचार सलिला में अवगाहन कर रहा हूँ। 

               प्रथम रचना में बापू के चरणों में प्रणति-पुष्प अर्पित कर कवि कामना करता है 'देना नित मुझे मार्गदर्शन / कर सकूँ सत्य का अवलोकन'। सत्य - अवलोकन की प्रक्रिया में छद्म गाँधीवादियों की विचार यात्रा को 'दे दी हमें आजादी बिना खड्ग, बिना ढाल / साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल' से आरम्भ होकर 'मजबूरी का नाम महात्मा गाँधी' तक पहुँचते देख सत्यान्वेषी कवि बरबस ही पूछ बैठता है-
क्या हम हर क्षण, हर पल
सिर्फ गाँधी की दुहाई देंगे?
मृत्यु के पश्चात् भी
क्या हर अच्छे और बुरे कार्य के लिए
उन्हें जिम्मेवार ठहराते रहेंगे?
वर्षों से ध्यान मग्न
उनकी तन्द्रा को भंग करेंगे?
क्या बापू ही
आज तक हर बुराई के लिए
जिम्मेवार हैं?
तो भाई! क्यों नहीं आज तक
आप सभी ने मिलकर
मिटा दिया उन बुराइयों को?

               कवि ही नहीं, मैं और आप भी जानते हैं कि येन-केन-प्रकारेण सिर्फ और सिर्फ सत्ता को साध्य माननेवाले और गाँधी जी के प्रति लोक-आस्था को भुनानेवाले राजनैतिक लोग अपने मन-दर्पण में कभी नहीं  झाँकेंगे। इसलिए वह अपने आप से गाँधी के नाम नहीं विचार के अनुकरण की परंपरा का श्री गणेश करना चाहता है-
मैं बापू के चरित्र से
प्रभावित तो हूँ
और उनके ही समान
बनना चाहता हूँ,
बापू के रंग में रंगकर
एक आदर्श
प्रस्तुत करना चाहता हूँ।

               इस राह में सबसे बड़ी बाधा है बापू का न होना। कवि का यह सोचना स्वाभाविक है कि आज बापू होते तो उनके चरणों में बैठकर उन जैसा बनने की यात्रा सहजता से हो पाती-
हे बापू!
आपके न रहने से
प्रभावित हुआ हूँ मैं।
मेरे अंतर्मन की आशा
जिसमें कुछ कर दिखाने की
थी अभिलाषा
जाने कहाँ विलुप्त हो गयी?

              इन पंक्तियों को पढ़कर बरबस याद हो आती है वह कविता जिसे हमने अपने बचपन में पाठ्य पुस्तक में पढ़कर गाँधी को जाना और एक अनकहा नाता जोड़ा था-
माँ! खादी की चादर दे-दे,  मैं गाँधी बन जाऊँगा
सब मित्रों के बीच बैठकर रघुपति राघव गाऊँगा...
... एक मुझे तू तकली ला दे, चरखा खूब चलाऊँगा

              तब हम सप्ताह में एक दिन तकली भी चलाते थे, और चरखा चलाना भी सीख लिया था। आज तो बच्चों को विद्यालय जाने और पढ़ना-लिखना सीखने के पहले अभिभावक के पहले चलभाष देने में गर्व अनुभव कर रहे हैं।
               यह सनातन सत्य है कि कोई हमेशा सदेह नहीं रहता। गाँधी जी की हत्या न होती तो भी उनका जीवन कभी न कभी तो समाप्त होना ही था। इसलिए अपने मन को समझाकर कवि गाँधी - मार्ग पर चलने का संकल्प करता है-
देख मत दूसरे के दोषों को
तू अपने दोषों का सुधार कर
अहंवाद समाप्त कर
जग में समन्वय पर्याप्त कर
अपनी हर भूल से शिक्षा ले
निज पापों का परिहार कर

               गाँधी-दर्शन 'स्व' नहीं' 'सर्व' के हित साधन का पथ है। कवि गाँधी जी के आदर्श को अपनाने की राह पर अकेला नहीं सबको साथ लेकर बढ़ने का इच्छुक है-
हे बंधु! सुनो
छोड़ो भी ये नारेबाजी
अब मिल तो गयी है आज़ादी
कुछ स्वयं करो
कुछ स्वयं भरो

               निज दोषों और कमियों का ठीकरा गाँधी जी पर फोड़कर खुद कुछ न करनेवाले अन्धालोचकों को कटघरे में खड़ा करते हुए कवि निर्भीकता किंतु विनम्रता से पूछता है-
बकौल तुम्हारे
उनको किसी अच्छाई का श्रेय
नहीं दिया जा सकता
तो अकेले हर बुराई के लिए
वो जिम्मेवार कैसे
फिर गाँधी जैसे व्यक्तित्व को
तुम जैसे तुच्छ सोच
और निरर्थक कृत्य वाले के
प्रमाण पत्र की
किंचित आवश्यकता नहीं
वह स्वयं में प्रामाणिक हैं.

               अपने आदर्श को विविध दृष्टिकोणों से देखने की चाह और विविधताओं में समझने की चाह अनुकरणकर्ता को अपने आदर्श के व्यक्तित्व-कृतित्व के निरीक्षण-परीक्षण तथा उसके संबंध में अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने के लिए प्रेरित ही नहीं विवश भी करती है। कुछ रचनाओं में भावुकता की अतिशयता होने पर भी कवि ने गाँधी जी के जीवन काल में और गाँधी जी की शहादत के बाद हुए सामाजिक, राजनैतिक और मानसिक परिवर्तनों का तुलनात्मक अध्ययन कर सटीक निष्कर्ष निकाले हैं।
यूँ लगा कि
गाँधी और उनके बाद
'भारत का भाग्य' चला गया।
अब वह मर्मस्पर्शी अपनत्व कहाँ?
अब वह सतयुग सा आभास कहाँ?
'गाँधी और उनके बाद'
वस्तुत:
सत्य यही है कि
युग बदला
समय का मूल्य सब भूल गए
नैतिकता का पतन हुआ
दुखद परिस्थितियों को
आत्मसात करना पडा
सत्य कहा मन ने कि
एक युग का अंत हुआ है
'गाँधी और उनके बाद'

               प्रथमार्ध में छंद मुक्त रचनाओं के साथ द्वितीयार्ध में रचनाकार ने हिंदी ग़ज़ल (जिसे आजकल गीतिका, मुक्तिका, अनुगीत, तेवरी आदि विविध नामों से विभूषित किया जा रहा है) के शिल्प विधान में चाँद रचनान्जलियाँ  समर्पित की हैं। गुरु वंदना के पश्चात प्रस्तुत इन रचनाओं का स्वर गाँधी चिन्तनपरक ही है-
क्यों लिखते हो खार सुनों तुम
लिख दो थोड़ा प्यार लिखो तुम

               प्यार की वकालत करते गाँधी जी और गाँधीवाद का प्रभाव  'मुहब्बत का असर है, आज कविता खूब लिखता हूँ', 'ज़िन्दगी सत्य की डगर पर है', 'प्रेम का ही आवरण दिग छा गया है', 'भारती हो भारती की जय करो', 'राम सदा ही / हैं दुःख भंजन' आदि पंक्तियाँ येन-केन संग्रह के केंद्र बिंदु को साथ रख पाती हैं।

               चतुष्पदिक मुक्तकों में 'हम दिखाते रह गए बस सादगी', 'सतयुग सरीखी रीत निभाया न कीजिए', 'आश औरि विश्वास लै, बाँधि नेह कय डोर', 'भू मंडल के जीव-जंतु सब, पुत्र भांति हैं धरती के', 'ममता, समता दिव्यता नारी के प्रतिरूप', 'ऊबड़-खाबड़ बना बिछौना' जैसी पंक्तियाँ विविध विषयांतर के बाद भी मूल को नहीं छोड़तीं। गाँधी दर्शन के दो बिंदु 'हिंदी-प्रेम' और निष्काम कर्म योग' पर केन्द्रित दो मुक्तक देखें-
हिंदी में रचना करें, हिंदी में व्याख्यान
हिन्दीमय हो हिन्द तब, हो हिंदी उत्थान
राजनीति का अंत ही उन्नति का आधार
भारत तब विकसित बने, हो भाषा का मान
*
कर्म करो मनु प्रभु बसें, हो हर अड़चन दूर
कृपा-दृष्टि की छाँव भी, मिले सदा भरपूर
मालिक नहिं कोई हुआ, धन-वैभव की खान
'शुक्ल' रहे इस जगत में, हर कोई मजदूर

               उक्त दोनों दोहा-मुक्तकों में क्रमश: 'स्वभाषा' और न्यासी (ट्रस्टीशिप) सिद्धांत को कवि ने कुशलता से संकेतित किया है। यह कवि सामर्थ्य का परिचायक है। कवि ने मानक आधुनिक हिंदी के साथ लोक भाषा का प्रयोग कर गाँधी जी की भाषा नीति को व्यावहारिक रूप दिया है।

               'प्रेम डोर से बाँध ह्रदय को', 'द्वेष, कपट, छल, बैर मिटे कुछ / मिलकर ऐसी नीत लिखो तुम', 'द्वेष भाव से विलग रहा हूँ', 'राम-भारत सम भ्रातृ-प्रेम हो', 'भले व्यक्ति को नेता चुन ले', 'लेप नेह का हिय पर मलता', 'मन को दुखी करो मत साथी, होगा जो प्रभु ने ठाना' आदि गीताशों में गाँधी-चिन्तन इस तरह पिरोया गया है कि कथ्य की विविधता के बावजूद गाँधी-सूत्र उस गीत का अभिन्न भाग हो गया है।

               कृति के अंत में सवैये, घनाक्षरी, आल्हा, पद कुण्डलिया तथा चौपाई की प्रस्तुति छांदस कविता के प्रति रचनाकार की रूचि और कुशलता दोनों को बिम्बित करती है। कवि ने अपना गाँधीचिन्तक परक दृष्टि कोण इन लघु रचनाओं में भी पूर्ववत रखा है।

राम प्रभो मनवा अति मोहत               - राम प्रेम, सवैया

'भारती के भाल पर, प्रकृति के गाल पर
सुर और टाल पर, हिंदी हिंदी छाई है '    - स्वभाषा प्रेम, घनाक्षरी

वंदे मातरम बोल सभी के मन में ऐसी अलख जगाय -राष्ट्र-प्रेम, आल्हा

माँ से बड़ा न कोई  जग में....               - मातृ-प्रेम, पद

सारा दिन मेहनत करे ह्रदय चीर मजदूर -श्रमिक शोषण, कुण्डलिया

अंतर्मन सत-रूप बसाओ - सत्य-प्रेम, चौपाई

हित छोड़ो, मत देश -राष्ट्र-प्रेम, सोरठा

सत्य पर हम बलि जाएँ  - सत्य-प्रेम, रोला

हिन्द देश, हिंदी जुबां, हिन्दू हैं सब लोग  -सर्व धर्म समभाव, दोहा

               काव्य को दृश्य काव्य, श्रव्य काव्य और चम्पू काव्य में वर्गीकृत किया गया है। दृश्य काव्य के अंतर्गत दृश्य अलंकार हैं। संस्कृत काव्य में इसे हेय या निम्न माना गया है। इस कारण न तो संस्कृत काव्य में न हिंदी काव्य में चित्र अलंकारों को अधिक प्रश्रय मिला। मैंने चित्र अलंकार का सर्वाधिक उपयुक्त और सटीक प्रयोग डॉ. किशोर काबरा रचित महाकाव्य उत्तर भागवत में श्री कृष्ण द्वारा महाकाल की पूजन प्रसंग में देखा है। प्रबंध काव्य कुरुक्षेत्र गाथा में में स्तूप अलंकार और ध्वजा अलंकार के रूप में मैंने भी चित्र अलंकार का प्रयोग किया है। ओमप्रकाश ने वर्ण पिरामिड तथा डमरू चित्रालंकार प्रस्तुत किये हैं। युवा रचनाकार में निरंतर नए प्रयोग करने की रचनात्मक प्रवृत्ति सराहनीय है।

               कहने की आवश्यकता नहीं कि कोई भी छंद हो, कोई भी विषय हो कवि को हर जगह गाँधी ही दृष्टिगत होते हैं। गाँधी दर्शन के प्रति यह प्रबद्धता ही इस कृति को पठनीय, मननीय और संग्रहणीय बनाती है। मुझे विशवास है कि पाठक वर्ग में इस कृति का स्वागत होगा।
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संपर्क - विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, सुभद्रा वार्ड, जबलपुर ४८२००१.
चलभाष: ९४२५१८३२४४ / ७९९९५५९६१८, salilsanjiv@gmail.com

बुधवार, 7 अक्टूबर 2015

kruti charcha: shivaansh se shiv tak

कृति चर्चा:
शिवांश से शिव तक : ग्रहणीय पर्यटन वृत्तांत
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
[कृति विवरण: शिवांश से शिव तक (कैलास-मानसरोवर यात्रा में शिवतत्व की खोज), ओमप्रकाश श्रीवास्तव - भारती, यात्रा वृत्तांत, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी पेपरबैक लैमिनेटेड, पृष्ठ २०४ + १६ पृष्ठ बहुरंगी चित्र, प्रकाशक: मंजुल पब्लिशिंग हाउस, द्वितीय तल, उषा प्रीत कॉम्प्लेक्स, ४२ मालवीय नगर भोपाल ४६२००३, लेखक संपर्क: opshrivastava@ymail.com]
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भाषा और साहित्य का एक सिक्के के दो पहलू हैं जिन्हें पृथक नहीं किया जा सकता। जैसे कोई संतान मन से जन्मती और माँ को परिपूर्ण करती है वैसे ही साहित्य भाषा से जन्मता और भाषा को सम्पूर्ण करता है। भाषा का जन्म समाज से होता। आम जन अपने दैनन्दिन क्रिया-कलाप में अपनी अनुभूतियों और अनुभवों को अभिव्यक्त और साझा करने के लिये जिस शब्द-समुच्चय और वाक्यावलियों का प्रयोग करते हैं, वह आरम्भ में भले ही अनगढ़ प्रतीत होती है किन्तु भाषा की जन्मदात्री होती है। शब्द भण्डार, शब्द चयन, कहन (बात कहने का सलीका), उद्देश्य तथा सैम सामयिकता के पंचतत्व भाषा के रूप निर्धारण में सहायक होते है और भशा से ही वर्ण्य-विषय (कथ्य) पाठक-श्रोता तक पहुँचता है।  स्पष्ट है कि भाषा रचनाकार और पाठक के मध्य संवेदन सेतु का निर्माण करती है।  जो लेखक ये संवेदना-सेतु बना पते हैं उनकी कृति हाथ दर हाथ गुजरती हुई पढ़ी, समझी, सराही और चर्चा का विषय बनाई जाती है. विवेच्य कृति इसी श्रेणी में गणनीय है।

हिंदी में सर्वाधिक लिखी जानेवाली किन्तु न्यूनतम पढ़ी जानेवाली विधा पद्य है। प्रकाशकों के अनुसार गद्य अधिक बिकाऊ और टिकाऊ है किन्तु गद्य की लोकप्रिय विधाएँ कहानी, उपन्यास, व्यंग और लघुकथा हैं। एक समर्थ रचनाकार इन्हें छोड़कर एक ऐसी विधा में अपनी पहली पुस्तक प्रस्तुत करने का साहस करें जो अपेक्षाकृत काम लिखी-पढ़ी और बिकती हो तो उसकी ईमानदारी का अनुमान किया जा सकता है की वह विषय के अनुकूल अपनी भावाभिव्यक्ति और कथ्य के अनुरूप सर्वाधिक उपयुक्त विधा का चयन कर रहा है और उसे दुनियादारी से अधिक अपने आप की संतुष्टि और विषय से न्याय करने की चिंता है। 'स्व' और 'सर्व' का समन्वय और संतुलन 'सत्य-शिव-सुन्दर' की प्रतीति करने के पथ पर ले जाता है। यह कृति आत्त्म-साक्षात के माध्यम से 'शिवत्व' के संधान का सार्थक प्रयास है।

श्री ओमप्रकाश श्रीवास्तव पेशेवर या आदतन लिखने के आदि नहीं हैं इसलिए उनकी अनुभूतियाँ अभिव्यक्ति बनाते समय कृत्रिम भंगिमा धारण नहीं करतीं, दिल की गहराइयों में अनुभूत सत्य कागज़ पर तथ्य बनकर अंकित होता है। वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी होने को विस्मृत कर वे आम जन की तरह व्यवहार करते और पाते हुए यात्रा की तैयारियों, परीक्षणों, चरणों तथा समापन तक सजग-सचेष्ट रहे हैं। भारती जी ने भोजन में पानी की तरह कहीं भी प्रत्यक्ष न होते हुए भी सर्वत्र उपस्थित हैं तथा पूरे प्रसंग को सम्पूर्णता दे स्की हैं। धर्म, लोक परम्परा, विज्ञान, कल्पना तथा यथार्थ के पञ्च तत्वों का सम्मिश्रण उचित अनुपात में कर सकने में लेखन सफल हुआ है। किसी भी एक तत्व का अधिक होना रस-भंग कर सकता था किन्तु ऐसा हुआ नहीं ।

यह पुस्तक पाठक को सांगोपांग जानकारी देती है। यथावश्यक सन्दर्भ प्रामाणिकता की पुष्टि करते हैं। दुनियादारी और
वीतरागिता के मध्य संतुलन साधना दुष्कर होता है किन्तु एक का निष्पक्ष होने प्रशासनिक अनुभव और दूसरे का गार्हस्थ जीवन में होकर भी न होने की साधना सकल वृत्तांत को पठनीय बना सकी है।  शिव का आमंत्रण, शिव से मिलने की तैयारी, हे शिव! यह शरीर आपका मंदिर है, शिव- अनेकता में एकता के केंद्र, निःस्वार्थ सेवा की सनातन परंपरा, व्यष्टि का समष्टि में विलय, प्रकृति से पुरुष तक, प्रकृति की रचना ही श्रेष्ठ है, जहाँ प्रकृति स्वयं ॐ लिखती है, रात का रहस्यमयी सौंदर्य, स्वर्गीय सौंदर्य से बंजर पठारों की ओर, चीनी ड्रैगन की हेकड़ी और हमारा आत्म सम्मान, शक्ति और शांति के प्रतीक: राक्षस ताल और मानसरोवर, शिव का निवास कैलास, जहाँ आत्मा नृत्य कर उठे, महाकाल के द्वार से, परम रानी गिरिबरु कैलासू, जहाँ पुनर्जन्म होता है, भाविउ मेटि सकहिं त्रिपुरारी, कैलास और शिवतत्व, कैलास पर्वते राम मनसा निर्मितं परम, मानसरोवर के चमत्कार, तब इतिहास ही कुछ और होता, जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी तथा फिर पुराने जगत में शीर्षक २५ अध्यायों में लिखित यह कृति पाठक के मनस-चक्षुओं में कैलाश से साक्षात की अनुभूति करा पाती है। आठ परिशिष्टों में भविष्य में कैलास यात्रा के इच्छुकों के लिये मार्गों, खतरों, औषधियों, सामग्रियों, ऊँचाईयों, सहायक संस्थाओं तथा करणीय-अकरणीय आदि संलग्न करना यह बताता है कि लेखक को पूर्वानुमान है की उनकी यह कृति पाठकों को कैलास यात्रा के लिए प्रेरित करेगी जहाँ वे आत्साक्षात् के पल पाकर धन्य हो सकेंगे।

हिंदी वांग्मय का पर्यटन खंड इस कृति से निश्चय ही समृद्ध हुआ है। लेखक की वर्णन शैली रोचक, प्रसाद गुण संपन्न है। नयनाभिराम चित्रों ने कृति की सुंदरता ही नहीं उपयोगिता में भी वृद्धि की है। यत्र-तत्र रामचरित मानस, श्रीमद्भगवत्गीता, महाभारत, पद्मपुराण, बाल्मीकि रामायण आदि आर्ष ग्रंथों ने उद्धरणों ने प्रामाणिकता के साथ-साथ ज्ञानवृद्धि का मणि-काञ्चन संयोग प्रदान किया है।  कैलास-मानसरोवर क्षेत्र में चीनी आधिपत्य से उपजी अस्वच्छता, सैन्य हस्तक्षेप, असहिष्णुता तथा अशालीनता का उल्लेख क्षोभ उत्पन्न करता है किन्तु यह जानकारी होने से पाठक कैलास यात्रा पर जाते समय इसके लिये खुद को तैयार कर सकेगा।

विश्व हिंदी सम्मलेन भोपाल में मध्य प्रदेश के मुख्या मंत्री श्री शिवराज सिंग के कर कमलों से कृति का विमोचन होना इसके महत्त्व को प्रतिपादित करता है। कृति का मुद्रण स्तरीय, कम वज़न के कागज़ पर हुआ है, बँधाई मजबूत है। सकल कृति का पाठ्य पठान सजगतापूर्वक किया गया है। अत:, अशुद्धियाँ नहीं हैं।  मूलत: साहित्यकार न होते हुए भी लेखक की भाषा प्रांजल, शुद्ध, तत्सम-तद्भव शब्दावली युक्त तथा सहज ग्राह्य है।  सारत: समसामयिक उल्लेखनीय यात्रा वृत्तांतों में 'शिवांश से शिव तक' की गणना की जाएगी। इस सारस्वत अनुष्ठान  संपादन हेतु श्री ओमप्रकाश श्रीवास्तव तथा श्रीमती भारती श्रीवास्तव साधुवाद के पात्र हैं।
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- समन्वयम २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१ ८३२४४

रविवार, 6 सितंबर 2015

kruti charcha

कृति चर्चा:
'खुशबू सीली गलियों की' : प्राण-मन करती सुवासित  
चर्चाकार: संजीव 
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[कृति विवरण: खुशबू सीली गलियों की, नवगीत संग्रह, सीमा अग्रवाल, २०१५, आकार डिमाई, आवरण पेपरबैक, बहुरंगी, पृष्ठ ११२, १२०/-, अंजुमन प्रकाशन, ९४२ आर्य कन्या चौराहा, मुट्ठीगंज, इलाहाबाद , गीतकार संपर्क: ७५८७२३३७९३]

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भाषा और साहित्य समाज और परिवेश के परिप्रेक्ष्य में सतत परिवर्तित होता है. गीत मनुष्य के मन और जीवन के मिलन से उपजी सरस-सार्थक अभिव्यक्ति है रस और अर्थ न हो तो गीत नहीं हो सकता। गीतकार के मनोभाव शब्दों से रास करते हुए कलम-वेणु से गुंजरित होकर आत्म को आनंदित कर दे तो गीत स्मरणीय हो जाता है। 'खुशबू सीती गलियों की' की गीति रस-छंद-अलंकार की त्रिवेणी में अवगाहन कर नव वसन धारण कर नवगीत की भावमुद्रा में पाठक का मन हरण करने में सक्षम हैं 

गीत और अगीत का अंतर मुखड़े और अंतरे पर कम और कथ्य की प्रस्तुति के तरीके पर अधिक निर्भर है।सीमा जी की ये रचनायें २ से ५ पंक्तियों के मुखड़े के साथ २ से ५ अंतरों का संयोजन करते हैं अपवाद स्वरूप 'झाँझ हुए बादल' में  ६ पंक्तियों के २ अंतरे मात्र हैं केवल अंतरे का मुखड़ाहीन गीत नहीं है शैल्पिक नवता से अधिक महत्त्वपूर्ण कथ्य और छंद की नवता होती है जो नवगीत के तन में मन बनकर निवास करती और अलंकृत होकर पाठक-श्रोता के मन को मोह लेती है 

सीमा जी की यह कृति पारम्परिकता की नींव पर नवता की भव्य इमारत बनाते हुए निजता से उसे अलंकृत करती है ये नवगीत चकित या स्तब्ध नहीं आनंदित करते हैं. धार्मिक, सामाजिक, राष्ट्रीय पर्वों-त्यहारों की विरासत सम्हालते ये गीत आस्मां में उड़ान भरने के पहले अपने कदम जमीन पर मजबूती से जमाते हैं यह मजबूती देते हैं छंद अधिकाँश नवगीतकार छंद के महत्व को न आंकते हुई नवता की तलाश में छंद में जोड़-घटाव कर अपनी कमाई छिपाते हुए नवता प्रदर्शित करने का प्रयास करते हुई लड़खड़ाते हुए प्रतीत होते हैं किन्तु सीमा जी की इन नवगीतों को हिंदी छंद के मापकों से परखें या उर्दू बह्र के पैमाने पर निरखें वे पूरी तरह संतुलित मिलते हैं पुरोवाक में श्री ओम नीरव ने ठीक ही कहा है कि सीमा जी गीत की पारम्परिक अभिलक्षणता को अक्षुण्ण रखते हुए निरंतर नवल भावों, नवल प्रतीकों, नवल बिम्ब योजनाओं और नवल शिल्प विधान की उद्भावना करती रहती हैं 

 'दीप इक मैं भी जला लूँ' शीर्षक नवगीत ध्वनि खंड २१२२ (फाइलातुन) पर आधारित है  [संकेत- । = ध्वनि खंड विभाजन, / = पंक्ति परिवर्तन, रेखांकित ध्वनि लोप या गुरु का लघु उच्चारण]   

तुम मुझे दो । शब्द / औ मैं /। शब्द को गी। तों में ढालूँ 
  २  १२   २  ।  २ १ /   २   २ /।   २ १  २  २ ।  २  १  २२   = २८ मात्रा 
बरसती रिम । झिम की / हर इक । बूँद में / घुल । कर बहे जो 
 २  १ २   २  ।    २     १ /  २   २  ।  २ १ २  /  २ ।   २  १२  २  = २८ मात्रा 
थाम आँचल । की किनारी ।/ कान में / तुम । ने कहे जो  
 २  १  २  २  ।   २  १  २  २ ।/ २ १  २  / २  ।  २  १२   २  = २८ मात्रा 
फिर उन्हीं निश्  छल  पलों को।/  तुम कहो तो ।/ आज फिर से  
  २   १  २   २   ।   २    १  २  २ ।/   २   १  २  २ ।/  २ १   २   २  = २८ मात्रा  
 गुनगुना लूँ  । तुम मुझे दो । शब्द
  २   १ २  २  ।  २    १ २  २ ।  २ १   = १७ मात्रा 
ओस भीगी । पंखुरी सा / मन सहन / निख ।  रा  है  ऐसे 
 २ १   २ २  ।  २१२   २ । / २    १ २  /    २   । २  १  २ २ = २८ मात्रा 
स्वस्ति श्लोकों । के मधुर स्वर । / घाट पर / बिख। रे हों जैसे
  २  १    २  २ ।  २  १  २    २  । / २ १   २ /    २  ।  २ १ २२ = २८ मात्रा 
नेह की मं । दाकिनी में ।/ झिलमिलाता ।/ दीप इक  = २६ मात्रा    
 २ १ २  २ ।  २ १  २  २ ।/    २   १ २  २ ।/   २१  २   
मैं । भी जला लूँ । तुम मुझे दो । शब्द
२ ।  २  १  २  २    २    १ २ २ ।  २ १ = १९ मात्रा   

इस नवगीत पर उर्दू का प्रभाव है। 'और' को औ' पढ़ना, 'की' 'में' 'है' तथा 'हों' का लघु उच्चारण व्याकरणिक दृष्टि से विचारणीय है ऐसे नवगीत गीत हिंदी छंद विधान के स्थान पर उर्दू बह्र के आधार पर रचे गये हैं 
इसी बह्र पर आधारित अन्य नवगीत 'उफ़! तुम्हारा / मौन कितना / बोलता है',  अनछुए पल / मुट्ठियों में / घेर कर', हर घड़ी ऐ/से जियो जै/से यही बस /खास है',  पंछियों ने कही / कान में बात क्या? आदि हैं 

पृष्ठ ७७ पर हिंदी पिंगल के २६ मात्रिक महाभागवत जातीय गीतिका छंद पर आधारित नवगीत [प्रति पंक्ति में १४-१२ मात्राएँ तथा पंक्त्याँत में लघु-गुरु अनिवार्य]  का विश्लेषण करें तो इसमें २१२२ ध्वनि खंड की ३ पूर्ण तथा चौथी अपूर्ण आवृत्ति समाहित किये है स्पष्ट है कि उर्दू बह्रें हिंदी छंद की नीव पर ही खड़ी की गयी हैं. हिंदी में गुरु का लघु तथा लघु का गुरु उच्चारण दोष है जबकि उर्दू में यह दोष नहीं है. इससे रचनाकार को अधिक सुविधा तथा छूट मिलती है
कौन सा पल । ज़िंदगी का ।/ शीर्षक हो । क्या पता?  
 २ १  २   १   ।  २  १  २  २ ।  २ १ २ २   । २ १ २    = १४ + १२ = २६ मात्रा 
हर घड़ी ऐसे जियो /जै।/से यही बस । खास है 
 २  १ २  १।२  १  २  २ ।/ २ १ २  २  ।  २ १   २    = १४ + १२ = २६ मात्रा 

'फूलों का मकरंद चुराऊँ / या पतझड़ के पात लिखूँ' पृष्ठ ९८ में महातैथिक जातीय लावणी (१६-१४, पंक्यांत में मात्रा क्रम बंधन नहीं) का मुखड़ा तथा स्थाई हैं जबकि अँतरे में ३२ मात्रिक लाक्षणिक  प्रयोग है जिसमें पंक्त्यांत में लघु-गुरु नियम को शिथिल किया गया है  

'गीत कहाँ रुकते हैं / बस बहते हैं तो बहते हैं' - पृष्ठ १०९ में २८ मात्रिक यौगिक जातीय छंदों का मिश्रित प्रयोग है। मुखड़े में १२= १६, स्थाई में १४=१४ व १२ + १६  अंतरों में १६=१२, १४=१४, १२+१६  संयोजनों का प्रयोग हुआ है। गीतकार की कुशलता है  कि कथ्य के अनुरूप छंद के विधान में विविधता होने पर भी लय तथा रस प्रवाह अक्षुण्ण है

'बहुत दिनों के बाद' शीर्षक गीत पृष्ठ ९५ में मुखड़ा 'बहुत दिनों के बाद / हवा फिर से बहकी है' में रोला (११-१३)  प्रयोग हुआ है किन्तु स्थाई में 'गौरैया आँगन में / आ फिर से चहकी है, आग बुझे चूल्हे में / शायद फिर दहकी है तथा थकी-थकी अँगड़ाई / चंचल हो बहकी है' में  १२-१२ = २४ मात्रिक अवतारी जातीय दिक्पाल छंद का प्रयोग है जिसमें पंक्त्यांत में लघु-गुरु-गुरु का पालन हुआ है। तीनों अँतरेरोल छंद में हैं  

'गेह तजो या देवों जागो / बहुत हुआ निद्रा व्यापार' पृष्ठ ६३ में आल्हा छंद (१६-१५, पंक्त्यांत गुरु-लघु) का प्रयोग करने का सफल प्रयास कर उसके साथ सम्पुट लगाकर नवता उत्पन्न करने का प्रयास हुआ है। अँतरे ३२ मात्रिक लाक्षणिक जातीय मिश्रित छंदों में हैं

'बहुत पुराना खत हाथों में है लेकिन' में  २२ मात्रिक महारौद्र जातीय छंद में मुखड़ा, अँतरे व स्थाई हैं किन्तु यति १०,  १२ तथा ८ पर ली गयी है यह स्वागतेय है क्योंकि इससे विविधता तथा रोचकता उत्पन्न हुई है

सीमा जी के नवगीतों का सर्वाधिक आकर्षक पक्ष उनका जीवन और जमीन से जुड़ाव है वे कपोल कल्पनाओं में नहीं विचरतीं इसलिए उनके नवगीतों में पाठक / श्रोता को अपनापन मिलता है। आत्मावलोकन और आत्मालोचन ही आत्मोन्नयन की राह दिखाता है। 'क्या मुझे अधिकार है?' शीर्षक नवगीत इसी भाव से प्रेरित है। 

'रिश्तों की खुशबु', 'कनेर', 'नीम', 'उफ़ तुम्हारा मौन', 'अनबाँची रहती भाषाएँ', 'कमला रानी', 'बहुत पुराना खत' आदि नवगीत इस संग्रह की पठनीयता में वृद्धि करते हैं। सीमा जी के इन नवगीतों का वैशिष्ट्य प्रसाद गुण संपन्न, प्रवाहमयी, सहज भाषा है। वे शब्दों को चुनती नहीं हैं, कथ्य की आवश्यकतानुसार अपने आप  हैं इससे उत्पन्न प्रात समीरण की तरह ताजगी और प्रवाह उनकी रचनाओं को रुचिकर बनाता है। लोकगीत, गीत और मुक्तिका (हिंदी ग़ज़ल) में अभिरुचि ने अनजाने ही नवगीतों में छंदों और बह्रों  समायोजन करा दिया है। 

तन्हाई की नागफनी, गंध के झरोखे, रिवाज़ों का काजल, सोच में सीलन, रातरानी से मधुर उन्वान, धुप मवाली सी, जवाबों की फसल, लालसा के दाँव, सुर्ख़ियों की अलमारियाँ, चन्दन-चंदन बातें, आँचल की सिहरन, अनुबंधों की पांडुलिपियाँ आदि रूपक  छूने में समर्थ हैं. 

इन गीतों में सामाजिक विसंगतियाँ,  वैषम्य से जूझने का संकल्प, परिवर्तन की आहट, आम जन की अपेक्षा, सपने, कोशिश का आवाहन, विरासत और नव सृजन हेतु छटपटाहट सभी कुछ है। सीमा जी के गीतों में आशा का आकाश अनंत है: 
पत्थरों के बीच इक / झरना तलाशें 
आओ बो दें / अब दरारों में चलो / शुभकामनाएँ 
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टूटती संभावनाओं / के असंभव / पंथ पर 
आओ, खोजें राहतों की / कुछ रुचिर नूतन कलाएँ 
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उनकी अभिव्यक्ति का अंदाज़ निराला है:
उफ़, तुम्हारा मौन / कितना बोलता है  
वक़्त की हर शाख पर / बैठा हुआ कल
बाँह में घेरे हुए मधुमास / से पल 
अहाते में आज के / मुस्कान भीगे 
गंध के कितने झरोखे / खोलता है 
तुम अधूरे स्वप्न से / होते गए 
और मैं होती रही / केवल प्रतीक्षा 
कब हुई ऊँची मुँडेरे / भित्तियों से / क्या पता? 
दिन निहोरा गीत / रचते रह गए 
 रातें अनमनी / मरती रहीं / केवल समीक्षा 
 'कम लिखे से अधिक समझना' की लोकोक्ति सीमा जी के नवगीतों के संदर्भ में सटीक प्रतीत होती है। नवगीत आंदोलन में आ रहे बदलावों के परिप्रेक्ष्य में कृति का महत्वपूर्ण स्थान है. अंसार क़म्बरी  कहते हैं: 'जो गीतकार भाव एवं संवेदना से प्रेरित होकर गीत-सृजन करता है वे गीत चिरंजीवी एवं ह्रदय उथल-पुथल कर देने वाले होते हैं' सीमा जी के गीत ऐसे ही हैं। 

सीमाजी के अपने शब्दों में: 'मेरे लिए कोई शै नहीं जिसमें संगीत नहीं, जहाँ पर कोमल शब्द नहीं उगते , जहाँ भावों की नर्म दूब नहीं पनपती।हंसी, ख़ुशी, उल्लास, सकार निसर्ग के मूल भाव तत्व है, तभी तो सहज ही प्रवाहित होते हैं हमारे मनोभावों में मेरे शब्द इन्हें ही भजना चाहते हैं, इन्हीं का कीर्तन चाहते हैं।' 
यह कीर्तन शोरोगुल से परेशान आज के पाठक के मन-प्राण को आनंदित करने समर्थ है. सीमा जी की यह कीर्तनावली नए-नए रूप लेकर पाठकों को आनंदित करती रहे.
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शुक्रवार, 31 जुलाई 2015

kruti charcha:

कृति-चर्चा:
चीखती टिटहरी हाँफता अलाव : नवगीत का अनूठा रचाव
संजीव
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[कृति-विवरण: चीखती टिटहरी हाँफता अलाव, नवगीत संग्रह, डॉ. रामसनेहीलाल शर्मा 'यायावर', आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी सजिल्द जैकेट सहित, पृष्ठ १३१, १८०/-, वर्ष २०११, अयन प्रकाशन महरौली नई दिल्ली, नवगीतकार संपर्क: ८६ तिलक नगर, बाई पास मार्ग फीरोजाबाद २८३२०३, चलभाष  ९४१२३ १६७७९,  ई मेल: dr.yayavar@yahoo.co.in]
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डॉ. रामसनेहीलाल शर्मा 'यायावर' ने मन पलाशवन, गलियारे गंध के तथा अँधा हुआ समय का दर्पण के पश्चात चीखती टिटहरी हाँफता अलाव शीर्षक से चौथा नवगीत संग्रह लेकर माँ शारदा के चरणों में समर्पित किया है. नवगीत दरबार पूरी दबंगता के साथ अपनी बात शिष्ट-शालीन-संस्कारिक शब्दावली में कहने में यायावर जी का सानी नहीं है. ठेठ भदेसी शब्दावली की अबूझता, शब्दकोशी क्लिष्ट शब्दों की बोझिलता तथा अंग्रेजी शब्दों की अनावश्यक घुसपैठ की जो प्रवृत्ति समकालीन नवगीतों में वैशिष्ट्य कहकर आरोपित की गयी है, डॉ. यायावर के नवगीत उससे दूर रहते हुए हिंदी भाषा की जीवंतता, सहजता, सटीकता, सरसता तथा छान्दसिकता बनाये रखते हुए पाठक-श्रोता का मर्म छू पाते हैं. 

कवि पिंगल की मर्यादानुसार प्रथम नवगीत 'मातरम् मातरम्' वंदना में भी युगीन विसंगतियों को समाहित करते हुए शांति की कामना करता है: 'झूठ ही झूठ है / पूर्ण वातावरण / खो गया है कहीं / आज सत्याचरण / बाँटते विष सभी / आप, वे और मैं / बंधु बांधव सखा / भ्रातरम् भ्रातरम्' तथा 'हो चतुर्दिक / तेरे हंस की धवलिमा / जाय मिट / हर दिशा की / गहन कालिमा / बाँसुरीi में / नये स्वर / बजें प्रीति के / / शांति, संतोष, सुख / मंगलम् मंगलम्' . 'कालिमा' की तर्ज पर 'धवलिमा शब्द को गढ़ना और उसका सार्थक प्रयोग करना यायावर जी की प्रयोगशील वृत्ति का परिचायक है.  

श्रेष्ठ-ज्येष्ठ नवगीतकार डॉ. महेंद्र भटनागर ने ठीक ही परिलक्षित किया है: 'डॉ. यायावर के नवगीतों की सबसे बड़ी विशेषता है कि उनमें जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टि अपनायी गयी है. ये वातावरण की रिक्तता, मूल्यहीनता के घटाटोप अन्धकार के दुर्दमनीय फैलाव और निराशा के अछोर विस्तार से भले ही गीत का प्रारंभ करते हों परन्तु अंत सदैव आशावाद और आशावादी संदेश के साथ करते हैं.' 

डॉ. यायावर हिंदी के असाधारण विद्वान, छंद शास्त्री, प्राध्यापक, शोध निदेशक होने के साथ-साथ नवदृष्टि परकता के लिये ख्यात हैं. वे नवगीत के संदर्भ में प्रचलित से हटकर कहते हैं: 'नवगीत खौलाती संवेदनाओं की वर्ण-व्यंजना है, दर्द की बाँसुरी पर धधकते परिवेश में भुनती ज़िंदगी का स्वर संधान है, वह पछुआ के अंधड़ में तिनके से उड़ते स्वस्तिक की विवशता है, अपशकुनी टिटहरियों की भुतहा चीखों को ललकारने का हौसला है, गिरगिटों की दुनिया में प्रथम प्रगीत के स्वर गुंजाने का भगीरथ प्रयास है, शर-शैया पर भीष्म के स्थान पर पार्थ को धार देनेवाली व्यवस्था का सर्जनात्मक प्रतिवाद है, अंगुलिमालों की दुनिया में बुद्ध के अवतरण की ज्योतिगाथा है, लाफ्टर चैनल के पंजे में कराहती चौपाई को स्वतंत्र करने का प्रयास है, 'मूल्यहन्ता' और 'हृदयहन्ता' समय की छाती पर कील गाड़ने की चेष्टा है, बुधिया के आँचल में डर-डर कर आते हुए सपनों को झूठी आज़ादी से आज़ाद करने का गुरुमंत्र है, ट्रेक्टर के नीचे रौंदे हुए सपनों के चकरोड की चीख है, झूठ के कहकहों को सुनकर लचर खड़े सच को दिया गया आश्वासन है और रचनाकार द्वारा किसी भी नहुष की पालकी न ढोने का सर्जनात्मक संकल्प है. वस्तुत: नवगीत समय का सच है.'

विवेच्य संग्रह के नवगीत सच की  अभ्यर्थना ही नहीं करते, सच को जीवन में उतारने का आव्हान भी करते हैं:
'भ्रम ही भ्रम 
लिखती रही उमर
आओ!
अब प्रथम प्रगीत लिखें 
मन का अनहद संगीत लिखें'  (संस्कारी छंद)

जनहित की पक्षधरता नवगीत का वैशिष्ट्य नहीं, उद्देश्य है. आम जन की आवाज़ बनकर नवगीत आसमान नहीं छूता, जमीन से अँकुराता और जमीन में जड़ें जमाता है. आपातकाल में दुष्यंत कुमार ने लिखा था: 'कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं / गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं'. यायावर का स्वर दुष्यंत से भिन्न नहीं है. वे विसंगति, किंकर्तव्यविमूढ़ता तथा आक्रोश तीनों मन:स्थितियों को नवगीतों में ढालते हैं:

विसंगति: 
बुढ़िया के आँचल में / सपने आते डरे-डरे. 
भकुआ बना हुआ / अपनापन / हँसती है चालाकी  
पंच नहीं परमेश्वर / हारी / पंचायत में काकी
तुलसीचौरे पर दियना अब / जले न साँझ ढरे.' (महाभागवतजातीय छंद)
 . 
पैरों में जलता मरुथल है   (संस्कारी छंद)
और पीठ पर चिथड़ा व्योम
हम सच के हो गए विलोम (तैथिक जातीय छंद)
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आँगन तक आ पहुँची / रक्त की नदी
सूली पर लटकी है / बीसवीं सदी   (महादेशिक जातीय छंद)
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किंकर्तव्यविमूढ़ता:  
हो गया गंदा / नदी का जल / यहाँ पर
डाँटती चौकस निगाहें / अब कहाँ पर? (त्रैलोक जातीय छंद)
घुन गयी वह / घाटवाली नाव / कोई क्या करे? (महाभागवतजातीय छंद)
चाँदनी में / जल रहे हैं पाँव / कोई क्या करे? 
कट गया वट / कटा पीपल / कटी तुलसी
थी यहाँ / छतनार इमली / बात कल सी  (त्रैलोक जातीय छंद)
अब हुई गायब / यहां की छाँव / कोई क्या करे? (महाभागवतजातीय छंद)  
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आव्हान :
भ्रम ही भ्रम / लिखती रही उमर 
आओ! अब / प्रथम प्रगीत लिखें 
मन का अनहद संगीत लिखें।
अर्थहीन कोलाहल में / हम वंशी नाद भरें 
चलो, चलें प्रिय!
इस मौसम में /  कुछ तो नया करें 
यायावर जी रचित ' ऊर्ध्वगामी चिंतन से संपृक्त इन गीतों में जीवन अपनी पूर्ण इयत्ता के साथ जीवंत हो उठा है. ये गीत लोक जीवन के अनुभवों-अनुभूतियों एवं आवेगों-संवेगों के गीतात्मक अभिलेख हैं. ये गीत मानवीय संवेदनाओं की ऐसी अभिव्यंजना हैं जो मन के अत्यंत समीप आकर कोमल स्पर्श की अनुभूति कराते हैं.सहजता इन गीतों की विशिष्ट है और मर्मस्पर्शिता इनकी पहचान. प्राय: सभी गीत सहज अनुभूति के ताने-बाने से बने हुए हैं. वे कब साकार होकर हमसे बतियाते हुए मर्मस्थल को बेध जाते हैं, पता ही नहीं चलता।' वरिष्ठ समीक्षक दिवाकर वर्मा का यह मत नव नवगीतकारों के लिये संकेत है की नवगीत का प्राण कहाँ बसता है?  

डॉ. यायावर के ये नवगीत लक्षणा शक्ति से लबालब भरे हैं. जीवंत बिम्ब विधान तथा सरस प्रतीकों की आधारशिला पर निर्मित नवगीत भवन में छांदस वैविध्य के बेल बूटों की मनोहर कलाकारी हृदयहारी है. यायावर जी का शब्द भण्डार समृद्ध होना स्वाभाविक है. असाधारण साधारणता से संपन्न ये नवगीत भाषिक संस्कार का अनुपम उदाहरण हैं. यायावर जी की विशेषता मिथकीय प्रयोगों के माध्यम से युगीन विसंगतियों को इंगित करने के साथ-साथ उनके प्रतिकार की चेतना उत्पन्न करना है. 

कितने चक्रव्यूह / तोड़ेगा? / यह अभिमन्यु अकेला?
यह कुरुक्षेत्र / अधर्म क्षेत्र है / कलियुग का महाभारत 
यहाँ स्वार्थ के / चक्रोंवाले / दौड़ रहे सबके रथ  
छल, प्रपंच, दुर्बुद्धि / क्रोध का लगा हुआ है मेला 
(यौगिक जातीय छंद)
डलहौजी की हड़पनीति / मौसम ने अपनायी 
अपने खाली हाथों में यह ख़ामोशी आयी
(महाभागवत जातीय छंद)
एक मान्यता यह रही है कि किसी घटना विशेष पर प्रतिक्रियास्वरूप नवगीत नहीं रचा जाता। यायावर जी ने इस मिथ को तोडा है. इस संकलन में बहुचर्चित निठारी कांड, २००९ में मुंबई पर आतंकी हमले आदि पर रचे गये नवगीत मर्मस्पर्शी हैं. 
काँप रहे हैं / गोली कंचे 
इधर कटारी / उधर तमंचे 
क्यों रोता है? / बोल कबीरा 
कोमल कलियाँ / बनी नसैनी 
नर कंकाल / कुल्हाड़ी पैनी  
भोले सपने / हँसी दूधिया 
अट्टहास कर / हँसता बनिया 
आँख जलाकर / बना ममीरा 
(वासव जातीय छंद)
अर्थहीन / शब्दों की तोपें / लिए बिजूके 
शब्दबेध चौहानी धनु के / चूके-चूके 
शांति कपोत / बंद आँख से करें प्रतीक्षा 
रक्त पियें मार्जार / उड़े / सतर्क प्रतिहिंसक 
(महावतारी जातीय छंद)
( यहाँ 'आँख' में वचन दोष है, 'आँखों' होना चाहिए) 

चंद्रपाल शर्मा 'शीलेश' के अनुसार 'संगीत से सराबोर इन गीतों का हर चरण भारतीय संस्कृति और लोक रस का सरस प्रक्षेपण करता है. नई प्रयोगधर्मिता, लक्षणा से भरपूर विचलन, जीवंत बिम्बात्मकता, रसात्मक प्रतीकात्मकता तथा राग-रागिनियों से हाथ मिलाता हुआ छंद विधान इन गीतों की साँसों का सञ्चालन करते हैं.'' 

यायावर जी ने दोहा नवगीत का भी प्रयोग किया है. इसमें वे मुखड़ा दैशिक जातीय छंद  का रखते हैं जबकि अंतरे एक दोहा रखकर, पदांत में मुखड़े की समतुकान्ती  देशिक जातीय गीत-पंक्ति रखते हैं:
न युद्ध विराम है / सतत संग्राम है (दैशिक जातीय छंद)
बाहर-बाहर कुटिल रास, भीतर कुटिल प्रहार 
मिला ज़िंदगी से हमें, बस इतना उपहार      (दोहा) 
न खनिक विराम है / सतत संग्राम है (दैशिक जातीय छंद)  
यायावर जी का शब्द-भण्डार समृद्ध है. इन नवगीतों में तत्सम शब्द: चीनांशुक, अभीत, वातायन, मधुयामिनी, पिपिलिकाएँ, अंगराग, भग्न चक्र, प्रत्यंचा, कंटकों, कुम्भज, पोष्य, परिचर्या,  स्वयं आदि, तद्भव शब्द: सांस, दूध, सांप, गाँव, घर, आग आदि, देशज शब्द: सुअना, मछुआरिन, कित्ता, रचाव, समंदर, चूनर, मछरी, फोटू, बुड़बक, जनम, बबरीवन, पीपरपांती, सतिया, कबिरा, ढूह, ढैया, मड़ैया, तलैया आदि शब्द-युग्म: छप्पर-छानी, शब्द-साधना, ऐरों-गैरों, नाम-निशान, मंदिर-मस्जिद, गत-आगत, चमक-दमक, काक-राग, सृजन-मंत्र, ताने-बाने, रवि-शशि, खिले-खिलाये, ताता-थैया, लय-ताल, धूल-धूसरित, भूखी-प्यासी, छल-बल आदि उर्दू शब्द: अमीन, ऐरे-गैरे-नत्थू खैरे, काबिज़, परचम, फ़िज़ाओं, मजबूरी, तेज़ाबी, सड़के, ममीरा, फ़क़ीरा, रोज़, दफ्तर, फौजी, निजाम आदि, अंग्रेजी शब्द: बैंक-लॉकर, ओवरब्रिज, बूट, पेंटिंग, लिपस्टिक, ट्रैक्टर, बायो गैस, आदि पूरी स्वाभाविकता से प्रयोग हुए हैं. एक शब्द की दो आवृत्तियाँ सहज द्रष्टव्य हैं. जैसे: डरे-डरे, राम-राम, पर्वत-पर्वत, घाटी-घाटी, चूके-चूके, चुप-चुप, प्यासी-प्यासी, पकड़े-पकड़े, मारा-मारा, अकड़े-अकड़े, जंगल-जंगल, बित्ता-बित्ता, सांस-सांस आदि. 

यायावर जी ने पारम्परिक गीत और छंद के शिल्प और कलेवर में प्रयोग किये हैं किन्तु मनमानी नहीं की है. वे गीत और छंद की गहरी समझ रखते हैं इसलिए इन नवगीतों का रसास्वादन करते हुए सोने में सुगंध की प्रतीति होती रहती है. 

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