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गुरुवार, 20 जून 2019

प्रभु जी! हम जनता,

एक रचना 
प्रभु जी! हम जनता,
*
प्रभु जी! हम जनता, तुम नेता
हम हारे, तुम भए विजेता।।
प्रभु जी! सत्ता तुमरी चेरी 
हमें यातना-पीर घनेरी ।।
प्रभु जी! तुम घपला-घोटाला
हमखों मुस्किल भयो निवाला।।
प्रभु जी! तुम छत्तीसी छाती
तुम दुलहा, हम महज घराती।।
प्रभु जी! तुम जुमला हम ताली
भरी तिजोरी, जेबें खाली।।
प्रभु जी! हाथी, हँसिया, पंजा
कंघी बाँटें, कर खें गंजा।।
प्रभु जी! भोग और हम अनशन
लेंय खनाखन, देंय दनादन।।
प्रभु जी! मधुवन, हम तरु सूखा
तुम हलुआ, हम रोटा रूखा।।
प्रभु जी! वक्ता, हम हैं श्रोता
कटे सुपारी, काट सरोता।।
(रैदास से क्षमा प्रार्थना सहित)
***
२०-११-२०१५
चित्रकूट एक्सप्रेस, उन्नाव-कानपूर

रविवार, 22 सितंबर 2013

hasya rachna: chana jor garam -sanjiv

हास्य रचना:
चना जोर गरम
संजीव
*
चना जोर गरम
बाबू ! मैं लाया मजेदार
चना जोर गरम…
*
ममो मुट्ठी भर चना चबाये
संसद को नित धता बताये
रूपया गिरा देख मुस्काये-
अमरीका को शीश नवाये
चना जोर गरम…
*
नमो ने खाकर चना डकारा
शनी मिमयाता रहा बिचारा
लाम का उतर गया है पारा
लाल सियापा कर कर हांरा
चना जोर गरम…
*
मुरा की नूरा-कुश्ती नकली
शामत रामदेव की असली
चना बापू ने नहीं चबाये-
चदरिया मैली ले पछताये
चना जोर गरम…
*
मेरा चना मसालेवाला
अन्ना को करता मतवाला
जनगण-मन जपता है माला-
मेहनतकश का यही निवाला
चना जोर गरम…
*

ममो = मनमोहन सिंह
नमो = नरेन्द्र मोदी,
शनी = शरद यादव-नीतीश कुमार
लाम = लालू यादव-ममता
लाल = लालकृष्ण अडवानी
मुरा = मुलायम सिंह-राहुल गाँधी बापू = आसाराम

सोमवार, 1 अगस्त 2011

रचना-प्रति रचना: - डॉ. दीप्ति गुप्ता, कमल, संजीव 'सलिल', डा० महेश चंद्र गुप्त ’ख़लिश’


रचना-प्रति रचना:

रचना : डॉ. दीप्ति गुप्ता,  कमल, संजीव 'सलिल', डॉ. एम्. सी. गुप्ता 'खलिश'
2011/8/1 deepti gupta <drdeepti25@yahoo.co.in> 
               मैं गैर लगूं  तो
          मैं गैर लगूं  तो अपने अंदर झाँक लेना
          समझ ना आए तो मुझसे जान लेना
                    सताए ज़माने     की   गरम     हवा     तो
                    मेरे प्यार   के  शजर के  नीचे   बैठ रहना
                    कोई भूली   दासतां    जब   याद आए,  तो
                    आँखें      मूँद      मुझसे        बात      करना
                    जब     घेरे    अवसाद          निराशा   तो
                    मुझे     याद    कर   कोई   गीत गुनगुनाना
                    यूँ     ही    आँख     कभी    भर    आए     तो
                    मेरा    खिल - खिल   हंसना   याद   करना
                    जब    उदास     दोपहर   दिल  पे   छाये  तो
                    मेरी नटखट बातें सोच कर, दिल बहलाना 
                    कभी    सुरमई     शाम     बेचैन      करे   तो
                                        ख्यालों में साथ मेरे,दूर तक सैर को जाना
                    जीवन    में     उष्मा    राख    होती    लगे  तो
                    मेरी   निष्ठा   को ध्यान में ला,  ऊर्जित होना
                    जब    मैं      रह- रह     कर    याद    आऊँ तो
                    मेरी    उसी   तस्वीर    से   मौन  बातें करना
                           बस एक बात हमेशा याद रखना
                    दूर हो  कर भी,  हर पल तुम्हारे पास हूँ मैं
                    इस रिश्ते  का सुरूर और  तुम्हारा  गुरूर हूँ  मैं
           
                                                                                                                       दीप्ति                    

प्रति रचना: १
प्रिय दीप्ति ,
  यह क्या लिख डाला ? कितना ममत्व और अपनत्व भर दिया तुमने इन पंक्तियों में !
 मन इन्हीं को बार बार पढता, डूबता,  उतराता रह गया  और प्रतिक्रिया में अनायास ही
ये छन्द उछल आये -
                                 कभी गैर लगोगी क्यों ?
हर घड़ी हर पल पास तुम
अवसाद-औषधि ख़ास तुम
विश्वास तुम अहसास तुम
पतझार में मधुमास तुम
                             अमृत हो गरल भरोगी क्यों
                               कभी गैर लगोगी  क्यों
सदा खिलखिला हँसती रहना 
तुम तो सबकी प्यारी बहना
शब्द तुम्हारे जादू  हैं  ना ,
अंदाज़ तुम्हारा क्या कहना
                          कभी उदासी दोगी क्यों
                          कभी गैर लगोगी  क्यों
ऐसा कुछ जो मन भरमाये
अंतस में संताप जगाये
बरबस जो आंसू भर लाये
सोखे सलिल कमल मुरझाये
                         ऐसा कभी करोगी क्यों
                         कभी गैर लगोगी  क्यों 
  व्यत्युत्पन्न मति से अभी इतना ही ,  शेष फिर  !
सस्नेह,
कमल दादा

*
प्रति रचना: २
गीत
तुमको क्यों...
संजीव 'सलिल'
*
तुमको क्यों अपना मानूँ?
तुम सदा रहोगी गैर...
*
अपनेपन के नपने बेढब
उससे ज्यादा अपने बेढब.
मौका पाकर कौन धकेले?
कौन टाँग खींचे जाने कब??
किस पल में किस जनम का
जाने कौन भंजा ले बैर?
तुमको क्यों अपना मानूँ?
तुम सदा रहोगी गैर...
*
हर अपना सपना होता है,
बगिया में काँटे बोता है.
छुरा भोंकता प्रथम पीठ में -
भोज तेरहीं खा रोता है.
तुमसे यह सब हो न सकेगा
इसीलिये है खैर.
तुमको क्यों अपना मानूँ?
तुम सदा रहोगी गैर...
*
इतने पर ही ख़त्म न होता
अपनेपन का नाता.
लड़के लड़ के हक लेते
ठग लेता जामाता.
दूर बुढ़ापे में कर कहते
जा मरुथल में तैर.
तुमको क्यों अपना मानूँ?
तुम सदा रहोगी गैर...
*
सुख-संतोष गैरियत में है,
तनिक सोचकर लेखो.
अनचाहे मत टाँग अड़ाओ,
झाँक न पर्दा देखो.
दूरी में नैकट्य 'सलिल'
पल पाता है निर्वैर.
तुमको क्यों अपना मानूँ?
तुम सदा रहोगी गैर...
*
अजनबियों-अनजानों को दे-
पाता रहा सहारा.
उपकृत किया, पलटकर लेकिन
देखा नहीं दुबारा.
जिसको पैरों-खड़ा किया
उससे घायल हैं पैर.
तुमको क्यों अपना मानूँ?
तुम सदा रहोगी गैर...
*

Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.कॉम

प्रति रचना: ३
तुमसे मेरा नाता ही क्या रहती हो तुम ग़ैर१ अगस्त २०११



तुमसे मेरा नाता ही क्या रहती हो तुम ग़ैर
अब तो ऐसा लगता है कि दूर रहें तो ख़ैर

मैंने जब जब भी दी है तुमको कोई आवाज़
तुमने मुझको थाने तक की करवाई है सैर

प्रेम सहित मैंने तो अपना हाथ बढ़ाया था
लगता है जैसे था तुमको जनम-जनम का बैर

घोर बली हो मन में जो भी धारण तुम कर लो
हटा न पाए कोई जैसे अंगद का हो पैर

अब तो तनहा ही बीतेगा जीवन ख़लिश सकल
पार नहीं कर पाए मिल कर भव सागर हम तैर.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१ अगस्त २०११

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डा० महेश चंद्र गुप्त ’ख़लिश’



रविवार, 31 जुलाई 2011

हास्य रचना: स्वादिष्ट निमंत्रण ---तुहिना वर्मा 'तुहिन'

हास्य रचना
स्वादिष्ट निमंत्रण
तुहिना वर्मा 'तुहिन'
*
''खट्टे-मिट्ठे जिज्जाजी को चटपटी साली जी यानी आधी घरवाली जी की ताज़ा-ताज़ा गरमागरम मीठी-मीठी नमस्ते।

यह कुरकुरी पाती पाकर आपके मन में पानी - बतासे की तरह मोतीचूर के लड्डू फूटने लगेंगे क्योंकि हम आपको आपकी ससुराल में तशरीफ़ लाने की दावत दे रहे हैं।

मौका? अरे हुजूर मौका तो ऐसा है कि जो आये वो भी पछताए...जो न आये वह भी पछताये क्योंकि आपकी सिर चढ़ी सिरफिरी साली इमरतिया की शादी यानी बर्बादी का जश्न बार-बार तो होगा नहीं।

ये रसमलाई जैसा मिठास भरा रिश्ता पेड़ा शहर, कचौड़ी नगर, के खीरपुर मोहल्ले के मोटे-ताजे सेठ समोसामल मिंगौड़ीलाल के हरे-भरे साहिबजादे, खीरमोहन सिवईं प्रसाद के साथ होना तय हुआ है।

चांदनी चौक में चमचम चाची को चांदी की चमचमाती चम्मच से चिरपिरी चटनी चटाकर चर्चा में आ चुके चालू चाचा अपने आलूबंडे बेटे और भाजीबड़ा बिटिया के साथ चटखारे लेते हुए यहाँ आकर डकार ले रहे हैं।

जलेबी जिज्जी, काजू कक्का, किशमिश काकी, बादाम बुआ, फुल्की फूफी, छुहारा फूफा, चिरौंजी चाची, चिलगोजा चाचा, मखाना मौसा, मुसम्बी मौसी, दहीबड़ा दादा, दाल-भात दादी, आज गुलाब जामुन-मैसूरपाग एक्सप्रेस से आइसक्रीम खाते हुए, अखरोटगंज स्टेशन पर उतरेंगे।

रसमलाई धरमशाला में संदेश बैंड, बर्फी आर्केस्ट्रा, सिवईया बानो की कव्वाली, बूंदी बेगम का मुजरा, आपको दिल थामकर आहें भरने पर मजबूर कर देगा।

शरबती बी के बदबख्त हाथों से विजया भवानी यानी भांग का भोग लगाकर आप पोंगा पंडित की तरह अंगुलियाँ चाटते हुए कार्टून या जोकर नजर आयेंगे।

पत्थर हज़म हजम हाजमा चूर्ण, मुंह जलाऊ मुनक्का बाटी के साथ मीठे मसालेवाला पान और नशीला पानबहार लिये आपके इन्तेज़ार में आपकी नाक में दम करनेवाली रस की प्याली
                                                                                                                                  -- रबड़ी मलाई


http://divyanarmada.blogspot.com