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शुक्रवार, 31 अक्टूबर 2025

अक्टूबर ३१, दोहा सॉनेट, सूर्यमंडलाष्टकं, सवैया, दंडक छंद, नर्मदा नामावली, स्मरण अलंकार, लघुकथा

सलिल सृजन अक्टूबर ३१
*
गीत
० 
देव जागे हैं 
अजागा भाग्य सोया
बरसता पानी 
कहीं कम है, कहीं ज्यादा
वजीरों का है 
खिलौना आदमी प्यादा 
धसकता पर्वत 
नदी में डूबती बस्ती 
ज़िंदगी मँहगी 
बहुत है, मौत है सस्ती 
रूप चौदस ने  
अजाने नूर निज खोया   
दिवाली आई 
दिवाला भेंट में लाई 
पूज गोवर्धन 
बचा पाई नहीं भाई
सिसकती बहिना 
न छठ पर सूर्य क्यों निकला
पुँछ गया सिंदूर 
जागा देश अरि दहला 
ले लिया बदला   
नवाशा बीज भी बोया 
क्वांर के सपने 
कुआँरे रह गए अपने 
कार्तिक की बाढ़ 
सुख-दुख सब लगे बहने  
योग निद्रा तजो  
अब जागो विधाता हे!
हो नहीं नरमेध 
रोको समर त्राता रे!    
आ रहा अगहन 
न हो जन-मन असूया   
सजग मतदाता 
परखकर नीतियाँ सब की 
चुने जन प्रतिनिधि  
न देखे जातियाँ अब की 
लोक मंगल पर्व 
हम हर दिन मनाएँगे  
देव जागें खुद 
नहीं तो हम जगाएँगे
समय साक्षी है  
न धीरज-धर्म खोया 
३१-१०-२०२५ 
००० 
गीत
कातिक बिलख-बिसूरे 
जनगण हुआ 
आँख का अंधा  
कातिक बिलख-बिसूरे
.
तेवर नया कहन का लेकिन 
जुमले ठेठ पुराने 
काँव-काँव करते कागा जू 
कहकर गीत सुहाने 
खोटे सिक्के चलें ठाठ से
खरे पड़े हैं घूरे 
कातिक बिलख-बिसूरे
नाकाफ़ी है कोशिश श्रम की  
पूँजी की जैकार 
नेता-अफसर-सेठ पूत क्यों  
यश के दावेदार 
श्रमिक-कृषक सुत ठोकर खाएँ    
सपने हुए न पूरे
कातिक बिलख-बिसूरे
रूस-चीन-अमरीका मारें 
और न रोने देंय
कोयल के अंडे कागा जू  
अनजाने में सेंय 
हैं गरीब की जोरू जैसे 
छोटे देश मजूरे  
कातिक बिलख-बिसूरे
आसमान छूती मँहगाई
तनखा कटी पतंग 
तन खा जाती आवश्यकताएँ 
सूखी मन की गंग 
रहा दिये में तेल न बाती 
मन के ख्वाब अधूरे 
कातिक बिलख-बिसूरे
लच्छो पर एसिड अटैक 
लिव-इन पीड़ित सुरसतिया
लाजो ने आशिक सँग कर दी 
खड़ी सनम की खटिया 
सात जनम के नाते टूटे 
ढहे प्रेम-कंगूरे 
कातिक बिलख-बिसूरे
३१.१० २०२५ 
००० 
अभिनव प्रयोग
इतालवी दोहा सॉनेट
सुमनांजलि
*
सुमनांजलि ले सुमन ने, करी सुमन के नाम।
सुरभि सुवासित सुमन की, करे प्राण संप्राण।
ऊँची नाक सुवास को कभी न पाई घ्राण।।
नहीं तौल सकते इसे, चुका न सकते दाम।।
सुमन वाटिका में मिलें सीता से श्री राम।
जनक राज तब पा सके धनु-संकट से त्राण।
हिम्मत हारा दशानन, जैसे हो निष्प्राण।।
जयी काम पर हो गया, वह जो था निष्काम।।
मृदा-बीज से स्वेद मिल, उग अंकुर बन झूम।
नव कोंपल-पत्ता बना, नव आशा की डाल।
तने तने से जुड़ बढ़े, मानो नभ ले चूम।।
कली खिले खिलखिलाकर, भंँवरे करते धूम।
संयम रख प्रभु पर चढ़े, रखें झुकाकर भाल।
प्रेमी से पा प्रेयसी, ले सुमनों को चूम।।
१-११-२०२३
•••
मुक्तिका
मापनी - २१२ २२१ २ २२१ २ १२
*
अंत की चिंता न कर; शुरुआत तो करें
मंज़िलों की चाहतें, फौलाद तो करें
है सियासत को न गम, जनता मरे- मरे
चाह सत्ता की न हो, हालात तो करें
रूठना भी, मानना भी, आपकी अदा
दूरियाँ नजदीकियाँ हों, बात तो करें
वायदों का क्या?, कहा क्या-क्या न याद है
कायदों को तोड़ने, फरियाद तो करें
कौन क्या लाया यहाँ?, क्या ले गया कहो?
कैद में है हर बशर, आज़ाद तो करें
३१-१०-२०२२
***
एक सवैया छंद
*
विदा दें, बाद में बात करेंगे, नेता सा वादा किया, आज जिसने
जुमला न हो यह, सोचूँ हो हैरां, ठेंगा दिखा ही दिया आज उसने
गोदी में खेला जो, बोले दलाल वो, चाचा-भतीजा निभाएँ न कसमें
छाती कठोर है नाम मुलायम, लगें विरोधाभास ये रसमें
***
मुक्तक
*
वामन दर पर आ विराट खुशियाँ दे जाए
बलि के लुटने से पहले युग जय गुंजाए
रूप चतुर्दशी तन-मन निर्मल कर नव यश दे
पंच पर्व पर प्राण-वर्तिका तम पी पाए
*
स्नेह का उपहार तो अनमोल है
कौन श्रद्धा-मान सकता तौल है?
भोग प्रभु भी आपसे ही पा रहे
रूप चौदस भावना का घोल है
*
स्नेह पल-पल है लुटाया आपने।
स्नेह को जाएँ कभी मत मापने
सही है मन समंदर है भाव का
इष्ट को भी है झुकाया भाव ने
*
फूल अंग्रेजी का मैं,यह जानता
फूल हिंदी की कदर पहचानता
इसलिए कलियाँ खिलता बाग़ में
सुरभि दस दिश हो यही हठ ठानता
*
उसी का आभार जो लिखवा रही
बिना फुरसत प्रेरणा पठवा रही
पढ़ाकर कहती, लिखूँगी आज पढ़
सांस ही मानो गले अटका रही
३१.१०.२०२०
***
एक रचना
*
श्वास श्वास समिधा है
आस-आस वेदिका
*
अधरों की स्मित के
पीछे है दर्द भी
नयनों में शोले हैं
गरम-तप्त, सर्द भी
रौनकमय चेहरे से
पोंछी है गर्द भी
त्रास-त्रास कोशिश है
हास-हास साधिका
*
नवगीती बन्नक है
जनगीति मन्नत
मेहनत की माटी में
सीकर मिल जन्नत
करना है मंज़िल को
धक्का दे उन्नत
अभिनय के छंद रचे
नए नाम गीतिका
*
सपनों से यारी है
गर्दिश भी प्यारी है
बाधाओं को टक्कर
देने की बारी है
रोप नित्य हौसले
महकाई क्यारी है
स्वाति बूँद पा मुक्ता
रच देती सीपिका
***
***
छंद कार्यशाला -
२८ वर्णिक दण्डक छंद
विधान - २८ वर्णिक, ६-१४-१८-२३-२८ पर यति।
४३ मात्रिक, १०-११--७-६-९ पर यति।
गणसूत्र - र त न ज म य न स ज ग।
*
नाद से आल्हाद, झर कर ही रहेगा, देख लेना, समय खुद, देगा गवाही
अक्षरों में भाव, हर भर जी सकेगा, लेख लेना, सृजन खुद, देगा सुनाई
शब्द हो नि:शब्द, अनुभव ले सकेगा, सीख देगा, घुटन झट होगी पराई
भाव में संचार, रस भर पी सकेगा, लीक होगी, नवल फिर हो वाह वाही
३१.१०.२०१९
***
दोहा की दीपावली
*
दोहा की दीपावली, तेरह-ग्यारह दीप
बाल 'सलिल' के साथ मिल, मन हो तभी समीप
*
गो-वर्धन गोपाल बन, करें शुद्ध पय-पान
अन्न-कूट कर पकाकर, खाएँ हो श्री-वान
*
श्री वास्तव में पा सकें, तब जब बाँटें प्रीत
गुण पूजन की बढ़ सके, 'सलिल' जगत में रीत
*
बहिना का आशीष ही, भाई की तकदीर
शुभाशीष पा बहिन का, भाई होता वीर
*
मंजु मूर्ति श्री लक्ष्मी, महिमावान गणेश
सदा सदय हों नित मिले, कीर्ति -समृद्धि अशेष
*
दीप-कांति उजियार दे, जीवन भरे प्रकाश
वामन-पग भी छू सकें, हाथ उठा आकाश
*
दूरभाष चलभाष हो, या सम्मुख संवाद
भाष सुभाष सदा करे, स्नेह-जगत आबाद
*
अमन-चैन रख सलामत, निभा रहे कुछ फर्ज़
शेष तोड़ते हैं नियम, लाइलाज यह मर्ज़
*
लागू कर पायें नियम, भेदभाव बिन मित्र!
तब यह निश्चय मानिए, बदल सकेगा चित्र
*
शशि तम हर उजियार दे, भू को रहकर मौन
कर्मव्रती ऐसा कहाँ, अन्य बताये कौन?
*
यथातथ्य बतला सके, संजय जैसी दृष्टि
कर सच को स्वीकार-बढ़, करे सुखों की वृष्टि
*
खुद से आँख मिला सके, जो वह है रणवीर
तम को आँख दिखा सके, रख दीपक सम धीर
*
शक-सेना को जीत ले, जिसका दृढ़ विश्वास
उसकी आभा अपरिमित, जग में भरे उजास
*
वर्मा वह जो सच बचा लें, करे असत का नाश
तभी असत के तिमिर का, होगा 'सलिल' विनाश
*
हर रजनी दीपावली, अगर कृपालु महेश
हर दिन को होली करें, प्रमुदित उमा-उमेश
*
आशा जिसके साथ हो, होता वही अशोक
स्वर्ग-सदृश सुख भोगता, स्वर्ग बने भू लोक
*
श्याम अमावस शुक्ल हो, थाम कांति का हाथ
नत मस्तक करता 'सलिल', नमन जोड़कर हाथ
*
तिमिर अमावस का हरे, शुक्ल करे रह मौन
दींप वंद्य है जगत में, कहें दूसरा कौन?
३१.१०.२०१६
***
नर्मदा नामावली :
*
सनातन सलिला नर्मदा की नामावली का नित्य स्नानोपरांत जाप करने से भव-बाधा दूर होकर पाप-ताप शांत होते हैं। मैया अपनी संतानों के मनोकामना पूर्ण करती हैं।
पुण्यतोया सदानीरा नर्मदा, शैलजा गिरिजा अनिंद्या वर्मदा।
शैलपुत्री सोमतनया निर्मला, अमरकंटी शाम्भवी शुभ शर्मदा।।
आदिकन्या चिरकुमारी पावनी, जलधिगामिनी चित्रकूटा पद्मजा।
विमलहृदया क्षमादात्री कौतुकी, कमलनयना जगज्जननी हर्म्यदा।।
शशिसुता रुद्रा विनोदिनी नीरजा, मक्रवाहिनी ह्लादिनी सौन्दर्यदा।
शारदा वरदा सुफलदा अन्नदा, नेत्रवर्धिनी पापहारिणी धर्मदा।।
सिन्धु सीता गौतमी सोमात्मजा, रूपदा सौदामिनी सुख सौख्यदा।
शिखरिणी नेत्रा तरंगिणी मेखला, नीलवासिनी दिव्यरूपा कर्मदा।।
बालुकावाहिनी दशार्णा रंजना, विपाशा मन्दाकिनी चित्रोत्पला।
रूद्रदेहा अनुसुया पय-अम्बुजा, सप्तगंगा समीरा जय-विजयदा।।
अमृता कलकल निनादिनी निर्भरा, शाम्भवी सोमोद्भवा स्वेदोद्भवा।
चन्दना शिव-आत्मजा सागर-प्रिया, वायुवाहिनी ह्लादिनी आनंददा।।
मुरदला मुरला त्रिकूटा अंजना, नंदना नम्माडियस भाव-मुक्तिदा।
शैलकन्या शैलजायी सुरूपा, विराटा विदशा सुकन्या भूषिता।।
गतिमयी क्षिप्रा शिवा मेकलसुता, मतिमयी मन्मथजयी लावण्यदा।
रतिमयी उन्मादिनी उर्वर शुभा, यतिमयी भवत्यागिनी वैराग्यदा।।
दिव्यरूपा त्यागिनी भयहारिणी, महार्णवा कमला निशंका मोक्षदा।
अम्ब रेवा करभ कालिंदी शुभा, कृपा तमसा शिवज सुरसा मर्मदा।।
तारिणी मनहारिणी नीलोत्पला, क्षमा यमुना मेकला यश-कीर्तिदा।
साधना-संजीवनी सुख-शांतिदा, सलिल-इष्टा माँ भवानी नरमदा।।
***
***
अलंकार सलिला: २७
स्मरण अलंकार
*
बीती बातों को करें, देख आज जब याद।
गूंगे के गुण सा 'सलिल', स्मृति का हो स्वाद।।
स्मरण करें जब किसी का, किसी और को देख।
स्मित अधरों पर सजे, नयन अश्रु की रेख।।
करें किसी की याद जब, देख किसी को आप।
अलंकार स्मरण 'सलिल', रहे काव्य में व्याप।।
जब काव्य पंक्तियों को पढ़ने या सुनने पहले देखी-सुनी वस्तु, घटना अथवा व्यक्ति की, उसके समान वस्तु, घटना अथवा व्यक्ति को देखकर याद ताजा हो तो स्मरण अलंकार होता है।
जब किसी सदृश वस्तु / व्यक्ति को देखकर किसी पूर्व परिचित वस्तु / व्यक्ति की याद आती है तो वहाँ स्मरण अलंकार होता है। स्मरण स्वत: प्रयुक्त होने वाला अलंकार है कविता में जाने-अनजाने कवि इसका प्रयोग कर ही लेता है।
स्मरण अलंकार से कविता अपनत्व, मर्मस्पर्शिता तथा भावनात्मक संवगों से युक्त हो जाती है।
स्मरण अलंकार सादृश्य (समानता) से उत्पन्न स्मृति होने पर ही होता है। किसी से संबंध रखनेवाली वस्तु को देखने पर स्मृति होने पर स्मरण अलंकार नहीं होता।
स्मृति नामक संचारी भाव सादृश्यजनित स्मृति में भी होता है और संबद्ध वस्तुजनित स्मृति में भी। पहली स्थिति में स्मृति भाव और स्मरण अलंकार दोनों हो सकते हैं। देखें निम्न उदाहरण ६, ११, १२।
उदाहरण:
१. देख चन्द्रमा
चंद्रमुखी को याद
सजन आये। - हाइकु
२. श्याम घटायें
नील गगन पर
चाँद छिपायें।
घूँघट में प्रेमिका
जैसे आ ललचाये। -ताँका
३. सजी सबकी कलाई
पर मेरा ही हाथ सूना है।
बहिन तू दूर है मुझसे
हुआ यह दर्द दूना है।
४. धेनु वत्स को जब दुलारती
माँ! मम आँख तरल हो जाती।
जब-जब ठोकर लगती मग पर
तब-तब याद पिता की आती।।
५. प्राची दिसि ससि उगेउ सुहावा।
सिय-मुख सुरति देखि व्है आवा।।
६. बीच बास कर जमुनहिं आये।
निरखिनीर लोचन जल छाये।।
७. देखता हूँ जब पतला इन्द्र धनुषी हल्का,
रेशमी घूँघट बादल का खोलती है कुमुद कला।
तुम्हारे मुख का ही तो ध्यान
मुझे तब करता अंतर्ध्यान।
८. ज्यों-ज्यों इत देखियत मूरख विमुख लोग
त्यों-त्यों ब्रजवासी सुखरासी मन भावै है।
सारे जल छीलर दुखारे अंध कूप देखि,
कालिंदी के कूल काज मन ललचावै है।
जैसी अब बीतत सो कहतै ना बैन
नागर ना चैन परै प्राण अकुलावै है।
थूहर पलास देखि देखि कै बबूर बुरे,
हाय हरे हरे तमाल सुधि आवै है।
९. श्याम मेघ सँग पीत रश्मियाँ देख तुम्हारी
याद आ रही मुझको बरबस कृष्ण मुरारी।
पीताम्बर ओढे हो जैसे श्याम मनोहर.
दिव्य छटा अनुपम छवि बांकी प्यारी-प्यारी।
१०. सघन कुञ्ज छाया सुखद, सीतल मंद समीर।
मन व्है जात अजौं वहै, वा जमुना के तीर।।
११. जो होता है उदित नभ में कौमुदीनाथ आके।
प्यारा-प्यारा विकच मुखड़ा श्याम का याद आता।
१२. छू देती है मृदु पवन जो पास आ गाल मेरा।
तो हो आती परम सुधि है श्याम-प्यारे-करों की।
१३. जब जब बहार आयी और फूल मुस्कुराए
मुझे तुम याद आये।
जब-जब ये चाँद निकला और तारे जगमगाए
मुझे तुम याद आये।
***
व्यंग्य रचना:
दीवाली : कुछ शब्द चित्र:
*
माँ-बाप को
ठेंगा दिखायें.
सास-ससुर पर
बलि-बलि जायें.
अधिकारी को
तेल लगायें.
गृह-लक्ष्मी के
चरण दबायें.
दिवाली मनाएँ..
*
लक्ष्मी पूजन के
महापर्व को
सार्थक बनायें.
ससुरे से मांगें
नगद-नारायण.
न मिले लक्ष्मी
तो गृह-लक्ष्मी को
होलिका बनायें.
दूसरी को खोजकर,
दीवाली मनायें..
*
बहुमत न मिले
तो खरीदें.
नैतिकता को
लगायें पलीते.
कुर्सी पर
येन-केन-प्रकारेण
डट जाए.
झूम-झूमकर
दीवाली मनायें..
*
बोरी में भरकर
धन ले जाएँ.
मुट्ठी में समान
खरीदकर लायें.
मँहगाई मैया की
जट-जयकार गुंजायें
दीवाली मनायें..
*
बेरोजगारों के लिये
बिना पूंजी का धंधा,
न कोई उतार-चढ़ाव,
न कभी पड़ता मंदा.
समूह बनायें,
चंदा जुटायें,
बेईमानी का माल
ईमानदारी से पचायें.
दीवाली मनायें..
*
लक्ष्मीपतियों और
लक्ष्मीपुत्रों की
दासों उँगलियाँ घी में
और सिर कढ़ाई में.
शारदासुतों की बदहाली,
शब्दपुत्रों की फटेहाली,
निकल रहा है दीवाला,
मना रहे हैं दीवाली..
*
राजनीति और प्रशासन,
अनाचार और दुशासन.
साध रहे स्वार्थ,
तजकर परमार्थ.
सच के मुँह पर ताला.
बहुत मजबूत
अलीगढ़वाला.
माना रहे दीवाली,
देश का दीवाला..
*
ईमानदार की जेब
हमेशा खाली.
कैसे मनाये होली?
ख़ाक मनाये दीवाली..
*
अंतहीन शोषण,
स्वार्थों का पोषण,
पीर, व्यथा, दर्द दुःख,
कथ्य कहें या आमुख?
लालच की लंका में
कैद संयम की सीता.
दिशाहीन धोबी सा
जनमत हिरनी भीता.
अफसरों के करतब देख
बजा रहा है ताली.
हो रहे धमाके
तुम कहते हो दीवाली??
*
अरमानों की मिठाई,
सपनों के वस्त्र,
ख़्वाबों में खिलौने
आम लोग त्रस्त.
पाते ही चुक गई
तनखा हरजाई.
मुँह फाड़े मँहगाई
जैसे सुरसा आई.
फिर भी ना हारेंगे.
कोशिश से हौसलों की
आरती उतारेंगे.
दिया एक जलाएंगे
दिवाली मनाएंगे..
*
***
मुक्तक: चाँद
चाँद को केंद्र में रखकर रचिए मुक्तक और लगाइये टिप्पणी में-
*
राकेश खण्डेलवाल
*
प्रज्ज्वलित दीप की चमचमाती विभा, एक पल के लिये आज शरमा गई
हाथ के कंगनों में जड़ी आरसी, दूसरा चाँद लेकर निकट आ गई
व्योम का चाँद छत पर खड़े चाँद को देख कर अपना चेहरा छुपाने लगा
बिम्ब इक चाँद का दूसरे में मिला, ये घड़ी यों सुधा आज बरसा गई
*
संजीव
*
चाँद ने चाँद को देखकर यूँ कहा: 'दाग मुझमें मगर तुम बिना दाग हो.'
चाँद ने सुन कहा: 'आग मुझमें अमित, चाँद! हर ताप लेते, बिना आग हो.'
चाँदनी को दिखे चाँद कुछ झूमते, पूछ बैठी: ' न क्यों केश का लेश है?'
झेंप बोले: 'बना आइना चाँदनी ने सँवारे विहँस मेघ से केश हैं.'
३१-१०-२०१५
***
लघुकथा:
पटखनी
*
सियार के घर में उत्सव था। उसने अतिउत्साह में पड़ोस के नीले सियार को भी न्योता भेज दिया।
शेर को आश्चर्य हुआ कि उसके टुकड़ों पर पलनेवाला वफादार सियार उससे दगाबाजी करनेवाले नीले सियार को को आमंत्रित कर रहा है।
आमंत्रित नीले सियार को याद आया कि उसने विदेश में वक्तव्य दिया था: 'शेर को जंगल में अंतर्राष्ट्रीय देख-रेख में चुनाव कराने चाहिए'।
सियार लोक में आपके विरुद्ध आंदोलन, फैसले और दहशतगर्दी पर आपको क्या कहना है? किसी पत्रकार ने पूछा तो उसे दुम दबाकर भागना पड़ा था।
'शेर तो शेरों की जमात का नेता है, सियार उसे अपना नुमाइंदा नहीं मानते' नीले सियार ने आते ही वक्तव्य दिया तो केले खा रहे बंदरों ने तुरंत कुलाटियाँ खाते हुए उछल-कूदकर चैनलों पर बार-बार यही राग अलापना शुरू कर दिया।
'हम सियार तो नीले सियार को अपने साथ बैठने लायक भी नहीं मानते, नेता कैसे हो सकता है वह हमारा?' आमंत्रणकर्ता युवा सियार ने पूछा।
'सूरज पर थूकने से सूरज मैला नहीं होता, अपना ही मुँह गन्दा होता है' भालू ने कहा।
'शेर सिर्फ शेरों का नहीं पूरे जंगल का नेता है' कोयल ने कहा 'लेकिन उसे भी केवल शेरों के हितों की बात न कर, अन्य प्रजाति के पशु-पक्षियों के भी हित साधने चाहिए।'
'जानवरों के बीच नफरत फ़ैलाने और दूरियाँ बढ़ानेवाले घातक समाचार बार-बार प्रसारित करनेवाले बिकाऊ बंदरों पर कार्यवाही हो। कोटि-कोटि जनता का अनमोल समय और बर्बाद करने का हक़ इन्हें किसने दिया?' भीड़ को गरम होता देखकर बंदरों और नीले सियार को होना पड़ा नौ दो ग्यारह।
सभी विस्मित रह गये चुनाव का परिणाम देखकर कि मतदाताओं ने कोयल को विजयी बनाकर शेर और नीले सियार दोनों को दे दी थी पटखनी।
३१-१०-२०१४
०००
उल्लाला सलिला:
*
(छंद विधान १३-१३, १३-१३, चरणान्त में यति, सम चरण सम तुकांत, पदांत एक गुरु या दो लघु)
*
अभियंता निज सृष्टि रच, धारण करें तटस्थता।
भोग करें सब अनवरत, कैसी है भवितव्यता।।
*
मुँह न मोड़ते फ़र्ज़ से, करें कर्म की साधना।
जगत देखता है नहीं अभियंता की भावना।।
*
सूर सदृश शासन मुआ, करता अनदेखी सतत।
अभियंता योगी सदृश, कर्म करें निज अनवरत।।
*
भोगवाद हो गया है, सब जनगण को साध्य जब।
यंत्री कैसे हरिश्चंद्र, हो जी सकता कहें अब??
*
भृत्यों पर छापा पड़े, मिलें करोड़ों रुपये तो।
कुछ हजार वेतन मिले, अभियंता को क्यों कहें?
*
नेता अफसर प्रेस भी, सदा भयादोहन करें।
गुंडे ठेकेदार तो, अभियंता क्यों ना डरें??
*
समझौता जो ना करे, उसे तंग कर मारते।
यह कड़वी सच्चाई है, सरे आम दुत्कारते।।
*
हर अभियंता विवश हो, समझौते कर रहा है।
बुरे काम का दाम दे, बिन मारे मर रहा है।।
*
मिले निलम्बन-ट्रान्सफर, सख्ती से ले काम तो।
कोई न यंत्री का सगा, दोषारोपण सब करें।।
***
-- श्री सूर्यमंडलाष्टकं --
हिंदी काव्यानुवाद : संजीव 'सलिल'
*
नमः सवित्रे जगदेक चक्षुषे जगत्प्रसूतिस्थिति नाशहेतवे.
त्रयीमयाय त्रिगुणात्मधारिणे विरंचिनारायण शंकरात्मने..१..
जगत-नयन सविते! नमन, रचें-पाल कर अंत.
त्रयी-त्रिगुण के नाथ हे!, विधि-हरि-हर प्रिय कंत..१..
यंमन्डलं दीप्तिकरं विशालं, रत्नप्रभं तीव्रमनादि रूपं.
दारिद्र्य-दुःख-क्षय कारणं च, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम..२..
आभा मंडल दीप्त सुविस्तृत, रूप अनादि रत्न-मणि-भासित.
दुःख-दारिद्र्य क्षरणकर्ता हे!, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..२..
यन्मण्डलं देवगणैः सुपूजितं विप्रेस्तुते भावन मुक्तिकोविदं.
तं देवदेवं प्रणमामि सूर्यं, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यं..३..
आभा मंडल मुक्तिप्रदाता, सुरपूजित विप्रों से वन्दित.
लो प्रणाम देवाधिदेव हे!, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..३..
यन्मण्डलं ज्ञान घनं त्वगम्यं, त्रैलोक्यपूज्यं त्रिगुणात्मरूपं.
समस्त तेजोमय दिव्यरूपं, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यं..४..
आभा मंडल गम्य ज्ञान घन, त्रिलोकपूजित त्रिगुण समाहित.
सकल तेजमय दिव्यरूप हे!, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..४..
यन्मण्डलं गूढ़मति प्रबोधं, धर्मस्य वृद्धिं कुरुते जनानां.
यत्सर्वपापक्षयकारणं च, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यं..५..
आभा मंडल सूक्ष्मति बोधक, सुधर्मवर्धक पाप विनाशित .
नित प्रकाशमय भव्यरूप हे!, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..५..
यन्मण्डलं व्याधि-विनाशदक्षं, यद्द्रिग्यजुः साम सुसंप्रगीतं.
प्रकाशितं येन च भूर्भुवः स्व:, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यं..६..
आभा मंडल व्याधि-विनाशक,ऋग-यजु-साम कीर्ति गुंजरित.
भूर्भुवः व: लोक प्रकाशक!, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..६..
यन्मण्डलं वेदविदो वदन्ति, गायन्ति यच्चारण सिद्ध्-संघाः.
यदयोगिनो योगजुषां च संघाः, पुनातु मांतत्सवितुर्वरेण्यं..७..
आभा मंडल वेदज्ञ-वंदित, चारण-सिद्ध-संत यश-गायित .
योगी-योगिनी नित्य मनाते, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..७..
यन्मण्डलं सर्वजनेषु पूजितं, ज्योतिश्च कुर्यादित मर्त्यलोके.
यत्कालकल्पक्षय कारणं च , पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यं..८..
आभा मंडल सब दिश पूजित, मृत्युलोक को करे प्रभासित.
काल-कल्प के क्षयकर्ता हे!, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..८..
यन्मण्डलंविश्वसृजां प्रसिद्धमुत्पत्ति रक्षा पल प्रगल्भं.
यस्मिञ्जगत्संहरतेsअखिलन्च, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यं..९..
आभा मंडल सृजे विश्व को, रच-पाले कर प्रलय-प्रगल्भित.
लीन अंत में सबको करते, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..९..
यन्मण्डलं सर्वगतस्थ विष्णोरात्मा परंधाम विशुद्ध् तत्वं .
सूक्ष्मान्तरै योगपथानुगम्यं, पुनातु मां तत्सवितुरवतुरवरेण्यं..१०..
आभा मंडल हरि आत्मा सम, सब जाते जहँ धाम पवित्रित.
सूक्ष्म बुद्धि योगी की गति सम, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..१०..
यन्मण्डलं विदविदोवदन्ति, गायन्तियच्चारण सिद्ध-संघाः.
यन्मण्डलं विदविद: स्मरन्ति, पुनातु मां तत्सवितुरवतुरवरेण्यं..११..
आभा मंडल सिद्ध-संघ सम, चारण-भाटों से यश-गायित.
आभा मंडल सुधिजन सुमिरें, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..११..
मण्डलाष्टतयं पुण्यं, यः पथेत्सततं नरः.
सर्व पाप विशुद्धात्मा, सूर्य लोके महीयते..
मण्डलाष्टय पाठ कर, पायें पुण्य अनंत.
पापमुक्त शुद्धतम हो, वर रविलोक दिगंत..
..इति श्रीमदादित्य हृदयेमण्डलाष्टकं संपूर्णं..
..अब श्रीमदसूर्यहृदयमंडल अष्टक पूरा हुआ..
३१-१०-२०१३
***
गीत:
दीप, ऐसे जलें...
*
दीप के पर्व पर जब जलें-
दीप, ऐसे जलें...
स्वेद माटी से हँसकर मिले,
पंक में बन कमल शत खिले।
अंत अंतर का अंतर करे-
शेष होंगे न शिकवे-गिले।।
नयन में स्वप्न नित नव खिलें-
दीप, ऐसे जलें...
श्रम का अभिषेक करिए सदा,
नींव मजबूत होगी तभी।
सिर्फ सिक्के नहीं लक्ष्य हों-
साध्य पावन वरेंगे सभी।।
इंद्र के भोग, निज कर मलें-
दीप, ऐसे जलें...
जानकी जान की खैर हो,
वनगमन-वनगमन ही न हो।
चीर को चीर पायें ना कर-
पीर बेपीर गायन न हो।।
दिल 'सलिल' से न बेदिल मिलें-
दीप, ऐसे जलें...
३१-१०-२०१३

*** 

सोमवार, 25 दिसंबर 2023

सलिल सृजन- २४ दिसंबर, दोहा सॉनेट, चित्रगुप्त, गंगोदक सवैया, स्त्रग्विणी, जनक, मुक्तिका, गीत, बड़ा दिन, हिंदी, भजन, शिव,

सलिल  सृजन- २४ दिसंबर 

सॉनेट

चित्रगुप्त मन में बसें, हों मस्तिष्क महेश।
शारद उमा रमा रहें, आस-श्वास- प्रश्वास।
नेह नर्मदा नयन में, जिह्वा पर विश्वास।।
रासबिहारी अधर पर, रहिए हृदय गणेश।।
पवन देव पग में भरें, शक्ति गगन लें नाप।
अग्नि देव रह उदर में, पचा सकें हर पाक।
वसुधा माँ आधार दे, वसन दिशाएँ पाक।।
हो आचार विमल सलिल, हरे पाप अरु ताप।।
रवि-शशि पक्के मीत हों, सखी चाँदनी-धूप।
ऋतुएँ हों भौजाई सी, नेह लुटाएँ खूब।
करतल हों करताल से, शुभ को सकें सराह।
तारक ग्रह उपग्रह विहँस मार्ग दिखाएँ अनूप।।
बहिना सदा जुड़ी रहे, अलग न हो ज्यों दूब।।
अशुभ दाह दे मनोबल, करे सत्य की वाह।।
२४-१२-२०२१
*
नव प्रयोग
दोहा सॉनेट
*
दल के दलदल में फँसा, बेबस सारा देश।
दाल दल रहा लोक की, छाती पर दे क्लेश।
सत्ता मोह न छूटता, जनसेवा नहिं लेश।।
राजनीति रथ्या मुई, चाह-साध्य धन-एश।।
प्रजा प्रताड़ित तंत्र से, भ्रष्टाचार अशेष।
शुचिता को मिलता नहीं, किंचित् कभी प्रवेश।।
अफसर नेता सेठ मिल, साधें स्वार्थ विशेष।।
जनसेवक खूं चूसते, खुद को मान नरेश।।
प्रजा-लोक-गण पर हुआ, हावी शोषक तंत्र।
नफरत-शंका-स्वार्थ का, बाँट रहा है मंत्र।
मान रहा नागरिक को, यह अपना यंत्र।।
दूषित कर पर्यावरण, बढ़ा रहे संयंत्र।।
लोक करे जनजागरण, प्रजा करे बदलाव।
बनें अंगुलियाँ मुट्ठियाँ, मिटा सकें अलगाव।।
२४-१२-२०२१
***
गंगोदक सवैया (स्त्रग्विणी द्विरावृत्त मराठी)
विधान - ८ रगण।
[मूल स्त्रग्विणी गालगाx4 होती है।]
*
राम हैं श्याम में, श्याम हैं राम में, ध्याइए-पाइए, कीर्ति भी गाइए।
कौन लाया कभी साथ ले जा सका, जोड़ जो जो मरा, सोच ले आइए।।
कल्पना कामना, भावना याचना, वासना हो छले, भूल मुस्काइए।
साधना वंदना प्रार्थना अर्चना नित्य आराधिए, मुक्त हो जाइए।।
स्त्रग्विणी
आइए! आइए! रूठ क्यों जाइए।
बोलिए डोलिए भेंटते जाइए।।
आ गले से मिलें या मिला जाइए।
स्नेह के फूल भी तो खिला जाइए।।
***
२४-१२-२०२०
*
गीत
*
आ! सिरहाने रख यादों को,
सपनों की चादर पर सोएँ।
तकिया ले तेरी बाँहों का,
सुधियों की नव फसलें बोएँ।
*
अपनेपन की गरम रजाई,
शीत-दूरियाँ दूर भगा दे.
मतभेदों की हर सलवट आ!
एक साथ मिल परे हटा दे।
बहुत बटोरीं खुशियाँ अब तक
आओ! लुटाएँ, खुशियाँ खोएँ।
आ! सिरहाने रख यादों को,
सपनों की चादर पर सोएँ।
*
हँसने और हँसाने का दिन
बीत गया तो करें न शिकवा।
मिलने, ह्रदय मिलाने की
घड़ियों का स्वागत कर ले मितवा!
ख़ुशियों में खिलखिला सके तो
दुःख में मिलकर नयन भिगोएँ।
आ! सिरहाने रख यादों को,
सपनों की चादर पर सोएँ।
.*
प्रतिबंधों का मठा बिलोकर
अनुबंधों का माखन पा लें।
संबंधों की मिसरी के सँग
राधा-कान्हा बनकर खा लें।
अधरों-गालों पर चिपका जो
तृप्ति उसी में छिपी, न धो लें।
आ! सिरहाने रख यादों को,
सपनों की चादर पर सोएँ।
*
२४-१२-२०१७
*
गीत:
'बड़ा दिन'
*
हम ऐसा कुछ काम कर सकें
हर दिन रहे बड़ा दिन अपना.
बनें सहायक नित्य किसी के-
पूरा करदें उसका सपना.....
*
केवल खुद के लिए न जीकर
कुछ पल औरों के हित जी लें.
कुछ अमृत दे बाँट, और खुद
कभी हलाहल थोडा पी लें.
बिना हलाहल पान किये, क्या
कोई शिवशंकर हो सकता?
बिना बहाए स्वेद धरा पर
क्या कोई फसलें बो सकता?
दिनकर को सब पूज रहे पर
किसने चाहा जलना-तपना?
हम ऐसा कुछ काम कर सकें
हर दिन रहे बड़ा दिन अपना.....
*
निज निष्ठा की सूली पर चढ़,
जो कुरीत से लड़े निरंतर,
तन पर कीलें ठुकवा ले पर-
न हो असत के सम्मुख नत-शिर.
करे क्षमा जो प्रतिघातों को
रख सद्भाव सदा निज मन में.
बिना स्वार्थ उपहार बाँटता-
फिरे नगर में, डगर- विजन में.
उस ईसा की, उस संता की-
'सलिल' सीख ले माला जपना.
हम ऐसा कुछ काम कर सकें
हर दिन रहे बड़ा दिन अपना.....
*
जब दाना चक्की में पिसता,
आटा बनता, क्षुधा मिटाता.
चक्की चले समय की प्रति पल
नादां पिसने से घबराता.
स्नेह-साधना कर निज प्रतिभा-
सूरज से कर जग उजियारा.
देश, धर्म, या जाति भूलकर
चमक गगन में बन ध्रुवतारा.
रख ऐसा आचरण बने जो,
सारी मानवता का नपना.
हम ऐसा कुछ काम कर सकें
हर दिन रहे बड़ा दिन अपना.....
*
कविता
हिंदी भाषी
*
हिंदी भाषी ही
हिंदी की
क्षमता पर क्यों प्रश्न उठाते?
हिंदी जिनको
रास न आती
दीगर भाषा बोल न पाते।
*
हिंदी बोल, समझ, लिख, पढ़ते
सीढ़ी-दर सीढ़ी है चढ़ते
हिंदी माटी,हिंदी पानी
श्रम करके मूरत हैं गढ़ते
मैया के माथे
पर बिंदी
मदर, मम्मी की क्यों चिपकाते?
हिंदी भाषी ही
हिंदी की
क्षमता पर क्यों प्रश्न उठाते?
*
जो बोलें वह सुनें - समझते
जो समझें वह लिखकर पढ़ते
शब्द-शब्द में अर्थ समाहित
शुद्ध-सही उच्चारण करते
माँ को ठुकरा
मौसी को क्यों
उसकी जगह आप बिठलाते?
हिंदी भाषी ही
हिंदी की
क्षमता पर क्यों प्रश्न उठाते?
*
मनुज-काठ में पंचस्थल हैं
जो ध्वनि के निर्गमस्थल हैं
तदनुसार ही वर्ण विभाजित
शब्द नर्मदा नद कलकल है
दोष हमारा
यदि उच्चारण
सीख शुद्ध हम नहीं सिखाते
हिंदी भाषी ही
हिंदी की
क्षमता पर क्यों प्रश्न उठाते?
*
अंग्रेजी के मोह में फँसे
भ्रम-दलदल में पैर हैं धँसे
भरम पाले यह जगभाषा है
जाग पायें तो मोह मत ग्रसे
निज भाषा का
ध्वज मिल जग में
हम सब काश कभी फहराते
*
कविता -
*
करें पत्ते परिंदों से गुफ्तगू
व्यर्थ रहते हैं भटकते आप क्यूँ?
दरख्तों से बँध रहें तो हर्ज़ क्या
भटकने का आपको है मर्ज़ मया?
परिंदे बोले न बंधन चाहिए
नशेमन के संग आँगन चाहिए
फुदक दाना चुन सकें हम खुद जहाँ
उड़ानों पर भी न बंदिश हो वहाँ
बिना गलती क्यों गिरें हम डाल से?
करें कोशिश जूझ लें हर हाल से
चुगा दें चुग्गा उन्हें असमर्थ जो
तौल कर पर नाप लें हम गगन को
मौन पत्ता छोड़ शाखा गिर गया
परिंदा झटपट गगन में उड़ गया
२४-१२-२०१५
*
भजन
भोले घर बाजे बधाई
स्व. शांति देवी वर्मा
*
मंगल बेला आयी, भोले घर बाजे बधाई ...
गौर मैया ने लालन जनमे,
गणपति नाम धराई.
भोले घर बाजे बधाई ...
द्वारे बन्दनवार सजे हैं,
कदली खम्ब लगाई.
भोले घर बाजे बधाई ...
हरे-हरे गोबर इन्द्राणी अंगना लीपें,
मोतियन चौक पुराई.
भोले घर बाजे बधाई ...
स्वर्ण कलश ब्रम्हाणी लिए हैं,
चौमुख दिया जलाई.
भोले घर बाजे बधाई ...
लक्ष्मी जी पालना झुलावें,
झूलें गणेश सुखदायी.
भोले घर बाजे बधाई ...
*
गीत
चलो हम सूरज उगायें
*
चलो! हम सूरज उगायें...
सघन तम से क्यों डरें हम?
भीत होकर क्यों मरें हम?
मरुस्थल भी जी उठेंगे-
हरितिमा मिल हम उगायें....
विमल जल की सुनें कल-कल।
भुला दें स्वार्थों की किल-किल।
सत्य-शिव-सुंदर रचें हम-
सभी सब के काम आयें...
लाये क्या?, ले जायेंगे क्या?,
किसी के मन भाएंगे क्या?
सोच यह जीवन जियें हम।
हाथ-हाथों से मिलायें...
आत्म में विश्वात्म देखें।
हर जगह परमात्म लेखें।
छिपा है कंकर में शंकर।
देख हम मस्तक नवायें...
तिमिर में दीपक बनेंगे।
शून्य में भी सुनेंगे।
नाद अनहद गूँजता जो
सुन 'सलिल' सबको सुनायें...
*
मुक्तिका
तुम
*
सारी रात जगाते हो तुम
नज़र न फिर भी आते हो तुम.
थक कर आँखें बंद करुँ तो-
सपनों में मिल जाते हो तुम.
पहले मुझ से आँख चुराते,
फिर क्यों आँख मिलाते हो तुम?
रूठ मौन हो कभी छिप रहे,
कभी गीत नव गाते हो तुम
नित नटवर नटनागर नटखट
नचते नाच नचाते हो तुम
'सलिल' बाँह में कभी लजाते,
कभी दूर हो जाते हो तुम.
*
दोहा सलिला:
चित्र-चित्र में गुप्त जो, उसको विनत प्रणाम।
वह कण-कण में रम रहा, तृण-तृण उसका धाम ।
विधि-हरि-हर उसने रचे, देकर शक्ति अनंत।
वह अनादि-ओंकार है, ध्याते उसको संत।
कल-कल,छन-छन में वही, बसता अनहद नाद।
कोई न उसके पूर्व है, कोई न उसके बाद।
वही रमा गुंजार में, वही थाप, वह नाद।
निराकार साकार वह, उससे सृष्टि निहाल।
'सलिल' साधना का वही, सिर्फ़ सहारा एक।
उस पर ही करता कृपा, काम करे जो नेक।
*
मुक्तक
दिल को दिल ने जब पुकारा, दिल तड़प कर रह गया।
दिल को दिल का था सहारा, दिल न कुछ कह कह गया।
दिल ने दिल पर रखा पत्थर, दिल से आँखे फेर लीं-
दिल ने दिल से दिल लगाया, दिल्लगी दिल सह गया।
*
दिल लिया दिल बिन दिए ही, दिल दिया बिन दिल लिए।
देखकर यह खेल रोते दिल बिचारे लब सिए।
फिजा जहरीली कलंकित चाँद पर लानत 'सलिल'-
तुम्हें क्या मालूम तुमने तोड़ कितने दिल दिए।
*
*
नवगीत:
खोल दो खिड़की
हवा ताजा मिलेगी
.
ओम की छवि
व्योम में हैं देखना
आसमां पर
मेघ-लिपि है लेखना
रश्मियाँ रवि की
तनिक दें ऊष्णता
कलरवी चिड़ियाँ
नहीं तुम छेंकना
बंद खिड़की हुई तो
साँसें डँसेंगी
कब तलक अमरस रहित
माज़ा मिलेगी
.
घर नहीं संसद कि
मनमानी करो
अन्नदाता पर
मेहरबानी करो
बनाकर कानून
खुद ही तोड़ दो
आप लांछित फिर
भी निगरानी करो
छंद खिड़की हुई तो
आसें मिलेंगी
क्या कभी जनता
बनी राजा मिलेगी?
.
*
मुक्तिका:
अवगुन चित न धरो
सुन भक्तों की प्रार्थना, प्रभुजी हैं लाचार
भक्तों के बस में रहें, करें गैर-उद्धार
कोई न चुने चुनाव में, करें नहीं तकरार
संसद टीवी से हुए, बाहर बहसें हार
मना जन्म उत्सव रहे, भक्त चढ़ा-खा भोग
टुकुर-टुकुर ताकें प्रभो,हो बेबस-लाचार
सब मतलब से पूजते, सब चाहें वरदान
कोई न कन्यादान ले, दुनिया है मक्कार
ब्याह गयी पर माँगती, है फिर-फिर वर दान
प्रभु की मति चकरा रही, बोले:' है धिक्कार'
वर माँगे वर-दान- दें कैसे? हरि हैरान
भला बनाया था हुआ, है विचित्र संसार
अवगुन चित धरकर कहे, 'अवगुन चित न धरो
प्रभु के विस्मय का रहा, कोई न पारावार
२४-१२-२०१४
*
जनक छंदी सलिला :
*
शुभ क्रिसमस शुभ साल हो,
मानव इंसां बन सके.
सकल धरा खुश हाल हो..
*
दसों दिशा में हर्ष हो,
प्रभु से इतनी प्रार्थना-
सबका नव उत्कर्ष हो..
*
द्वार ह्रदय के खोल दें,
बोल क्षमा के बोल दें.
मधुर प्रेम-रस घोल दें..
*
तन से पहले मन मिले,
भुला सभी शिकवे-गिले.
जीवन में मधुवन खिले..
*
कौन किसी का हैं यहाँ?
सब मतलब के मीत हैं.
नाम इसी का है जहाँ..
*
लोकतंत्र नीलाम कर,
देश बेचकर खा गये.
थू नेता के नाम पर..
*
सबका सबसे हो भला,
सभी सदा निर्भय रहें.
हर मन हो शतदल खिला..
*
सत-शिव सुन्दर है जगत,
सत-चित -आनंद ईश्वर.
हर आत्मा में है प्रगट..
*
सबको सबसे प्यार हो,
अहित किसी का मत करें.
स्नेह भरा संसार हो..
*
वही सिंधु है, बिंदु भी,
वह असीम-निस्सीम भी.
वही सूर्य है, इंदु भी..
*
जन प्रतिनिधि का आचरण,
जन की चिंता का विषय.
लोकतंत्र का है मरण..
*
शासन दुश्शासन हुआ,
जनमत अनदेखा करे.
कब सुधरेगा यह मुआ?
*
सांसद रिश्वत ले रहे,
क़ैद कैमरे में हुए.
ईमां बेचे दे रहे..
*
सबल निबल को काटता,
कुर्बानी कहता उसे.
शीश न निज क्यों काटता?
*
जीना भी मुश्किल किया,
गगन चूमते भाव ने.
काँप रहा है हर जिया..
*
आत्म दीप जलता रहे,
तमस सभी हरता रहे.
स्वप्न मधुर पलता रहे..
*
उगते सूरज को नमन,
चतुर सदा करते रहे.
दुनिया का यह ही चलन..
*
हित-साधन में हैं मगन,
राष्ट्र-हितों को बेचकर.
अद्भुत नेता की लगन..
*
सांसद लेते घूस हैं,
लोकतन्त्र के खेत की.
फसल खा रहे मूस हैं..
*
मतदाता सूची बदल,
अपराधी है कलेक्टर.
छोडो मत दण्डित करो..
*
बाँधी पट्टी आँख में,
न्यायालय अंधा हुआ.
न्याय न कर, ले बद्दुआ..
*
पहने काला कोट जो,
करा रहे अन्याय नित.
बेच-खरीदें न्याय को..
*
हरी घास पर बैठकर,
थकन हो गयी दूर सब.
रूप धूप का देखकर..
*
गाल गुलाबी लाल लख़,
रवि ऊषा को छेड़ता.
भू-माँ-गृह वह जा छिपी..
*
ऊषा-संध्या-निशा को
चन्द्र परेशां कर रहा.
सूर्य न रोके डर रहा..
*
चाँद-चाँदनी की लगन,
देख मुदित हैं माँ धरा.
तारे बाराती बने..
*
वर से वधु रूठी बहुत,
चाँद मुझे क्यों कह दिया?
गाल लाल हैं क्रोध से..
*
लहरा बल खा नाचती,
नागिन सी चोटी तेरी.
सँभल, न डस ले यह तुझे..
*
मन मीरा, तन राधिका,
प्राण स्वयं श्री कृष्ण हैं.
भवसागर है वाटिका..
२४.१२.२०१०
***