
हुडदंग मचायें...
संजीव 'सलिल'
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अब आ गयी होली चलो हुडदंग मचायें.
खुद अपने घर में आग लगा फाग हम गायें...
भंग की तरंग में हो जंग रंग की.
मनहूसियत को त्याग हँसें और हँसायें..
मजबूर हो जाएँ तो जय गाँधी की हम कहें.
कोई न मिले तो स्वयं अपनी ही जय गायें..
भूखी रहे जनता तो हमें गम तनिक नहीं.
अरबों के घोटाले करें, हम रिश्वतें खायें..
काला है मन तो क्या हुआ?, कुरता सफेद है.
नित देश को ठगा करें, चूना भी लगायें..
जनतंत्र का जनगण है सियासत की कैद में.
अफसर बनें अधिकार से नित रास रचायें..
काला पहन के कोट, न्याय लें खरीद -बेच.
जेब पर मरीज़ की हम नज़र गड़ायें..
निजीकरण होली के रंग-अबीर का भी हो.
पिचकारियाँ भी क्यों न अब विदेश से आयें??
लट्ठमार होली रंग अबीर औ' गुझिया
अमेरिका में चल के हम पेटेंट करायें..
हुरियारों के हाथों में है मशीनगन बचो.
टी.व्ही. पे बृज की होली देख पैग चढ़ायें..
पश्चिम की होलिका पे फ़िदा पूर्व का प्रहलाद.
राष्ट्रीयता के नृसिंह को नीलाम करायें..
बीबी के सामने न पड़ो जेब ले तलाश.
साली के गाल लालकर, गले से लगायें..
फागुन में भौजियों को रंगो नेह-प्रेम से.
इतना ही रहे ध्यान भाई आ नहीं पायें..
मन भर के मनमानी करो पर ध्यान ये रहे.
गलती से दिल किसी का 'सलिल' हम न दुखायें..
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