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शनिवार, 25 अक्टूबर 2014

lekh: mahendra ke geeton men navachar: dr. ram sanehi lal sharma 'yayavar'

महेंद्र भटनागर के गीतों में नवाचार


-डा. रामसनेहीलाल शर्मा 'यायावर'

छायावाद-काल में ही कविता में नवता के प्रति आकर्षण --
'' नव गति नव लय ताल छंद नव,
नवल कंठ, नव जलद मन्द्र रव
नव नभ के नव विहग-वृंद को
नव पर नव स्वर दे!''
-- निराला
और काव्य के पारम्परिक प्रतिमानों को तोड़ने की ललक -- (''खुल गये छंद के बंध प्रास के रजत-पाश!'' -- पंत) के स्वर सुनायी पड़ने लगे थे; जिसके परिणाम प्रगतिवाद में सहज और भदेस के प्रति आकर्षण, सर्वहारा व शोषित के प्रति प्रेम व शोषक के प्रति आक्रोश के रूप में सामने आये और प्रयोगवाद में लघु मानव की प्रतिष्ठा, छंद-मुक्त गद्य-कविता की प्रतिष्ठा और वैचारिकता की प्रधानता के रूप में। नयी कविता ने काव्य के सभी प्राचीन बन्धनों और प्रतिमानों को ध्वस्त कर दिया। इसी काल में पाँचवें दशक में छायावादी गीतों की कोमलता, तत्समबहुलता, भाषिक आभिजात्य, शैलीगत मार्दव के प्रति अनाकर्षण जैसे तत्व पनपे। इस कालखंड में दो प्रकार के गीतकार दिखाई पड़े। एक वे जो गीत के पारम्परिक प्रतिमानों -- गहन आत्मानुभूति, छंद की स्वीकृति, लय की सहजता और रागात्मक तत्वों की अभिव्यक्ति के क्षेत्र में थोड़ी छूट लेकर गीत को नवाचार दे रहे थे। इनमें वीरेंद्र मिश्र, शम्भूनाथ सिंह, देवद्रें शर्मा 'इन्द्र', रवीन्द्र 'भ्रमर', उमाकान्त मालवीय आदि जैसे गीतकार थे तो दूसरे वे कवि थे जो मूलतः नयी कविता के साथ जुड़े परन्तु गीत के क्षेत्र में भी उन्होंने नयेपन को अपनाकर नये गीतों का सृजन किया। इस वर्ग में भारतभूषण अग्रवाल, महद्रेंभटनागर, और केदारनाथ सिंह जैसे कवि दिखायी पड़े। नवगीत को आन्दोलन का रूप तो 1955 के आसपास दिया जाने लगा परन्तु उससे पहले के इन दोनों वर्गों के गीतकारों में नवगीत के पूर्वरूप के दर्शन होने लगे थे। नवगीत में प्रकृति, लोकचेतना, मूल्य-क्षरण और जीवनगत विसंगतियों की अभिव्यक्ति के स्वर उसकी काठी को रच रहे थे। उपर्युक्त गीतकारों में इन स्वरों का पूर्वरूप और नयेपन की ललक दिखने लगी थी। महद्रेंभटनागर के गीत नवगीत की भूमिका रचते दिखायी पड़ते हैं।
सन् 1949 से सृजित उनके 50 नवगीत 'जनवादी लेखक संघ', वाराणसी से प्रकाशित 'जनपक्ष' -- 8 (सन् 2010) में प्रकाशित हुए हैं। इन गीतों में जीवन के तप्त स्वर और 'नवता' के प्रति आकर्षण ध्वनित हो रहा है। सम्पादकीय टिप्पणी के अनुसार -- ''महेंद्रभटनागर-विरचित नवगीत विशिष्ट हैं । वे गेय हैं। छंद का बंधन ज़रूर नहीं है। किन्तु वे छंद-मुक्त नहीं हैं। चरणबद्ध हैं। उनमें एक निश्चित मात्रिक-क्रम है। तुकों का व्यवस्थित प्रयोग है। उनके नवगीतों का शिल्प उनका अपना है।''नवगीत के प्रारम्भ से ही प्रकृति के प्रति अपने सहज आकर्षण परन्तु उसके नवरूप की स्वीकृति को स्वीकारा। महेंद्र जी के इन गीतों में 'री हवा', 'हेमन्ती धूप', 'एक रात', 'वर्षा-पूर्व', 'शीतार्द्र', तथा 'हेमन्त' प्रकृति को अपने ढंग से प्रस्तुत करने वाली रचनाएँ हैं । इनमें कहीं हवा यौवन भरी, उन्मादिनी है जिसका आवाहन कवि 'मेघ के टुकड़े लुटाती आ' कहकर कर रहा है। 'खिलखिलाती, रसमयी, जीवनमयी' यह हवा जीवन में उल्लास और जिजीविषा का अथक स्रोत जगाती लगती है। यह तरुण कवि का उल्लासमय नूतन स्वर है। कहीं हेमन्ती धूप मोहिनी है, सुखद है, और कहीं वर्षा-पूर्व --
 ' किसी ने डाल दी तन पर
सलेटी बादलों की रेशमी चादर!
मोह लेती है छटा
मोद देती है घटा
 काली घटा!'
परन्तु इन रचनाओं में कवि अपनी रागात्मक संवेदनाओं से आगे नहीं जा पाता। नवगीत ने आगे चलकर प्रकृति को जिस मानवीकृत और तटस्थ रूप में अपनाया वह 'शीतार्द्र' और 'हेमन्त' में दिखायी पड़ता है। 'शीतार्द्र' में 'कोहरा' कारीगर है, रजनी अध्यक्ष है, और नव-प्रभात डर कर बैठा हुआ है; परन्तु हवा 'उन्मादिनी यौवन भरी' है, 'मोहक गंध से भरी पुरवैया' है। कवि को 'प्रिया-सम' हेमन्ती धूप की गोद में सो जाने की ललक है; क्योंकि वह 'मोहिनी' है। 'वर्षा-पूर्व' में ' हवाओं से लिपट / लहरा उठा / ऊमस भरा वातावरण-आँचर' है। 'हेमन्त' में प्रिया से वह कहता है, 'ऐसे मौसम में चुप क्यों हो / कहो न कोई मन की बात!' ये सारे तत्व छायावाद की प्रणयी प्रवृत्ति के अवशेष हैं। कवि छयावाद के मादक, मोहक प्रभाव से अपने को मुक्त नहीं कर पाया है।
वस्तुतः नवगीत ने जिस जीवन-गति और संघर्ष-चेतना को अपना मूल स्वर बनाया वह उनकी गीति-रचनाओं में 'जीवन : एक अनुभूति', 'अनुदर्शन', 'नियति', 'परिणति', 'नवोन्मेष', 'विराम', 'आग्रह','घटना-चक्र','अकारथ', 'चाह', 'आह्वान', 'दृष्टि', 'परिवर्तन' आदि जैसी रचनाओं में दिखाई पड़ता है। इन रचनाओं में कवि समाज में समता का बीजमंत्र बोने का इच्छुक है। जीवन की विषमताओं, संघर्ष और मूल्य-क्षरण से व्यथित दिखाई पड़ता है। अनास्था के विरुद्ध आस्था का आलोक-स्वर गुँजाना चाहता है। उसे लगता है कि नया युग आ गया है --
मौसम
कितना बदल गया!
सब ओर कि दिखता
नया-नया!
सपना --
जो देखा था
साकार हुआ,
अपने जीवन पर
अपनी क़िस्मत पर
अपना अधिकार हुआ!
समता का
बोया था जो बीज-मंत्र
पनपा,
छतनार हुआ!
सामाजिक-आर्थिक
नयी व्यवस्था का आधार बना!
शोषित-पीड़ित जन-जन जागा,
नवयुग का छविकार बना!
साम्य-भाव के नारों से
नभ-मंडल दहल गया!
मौसम
कितना बदल गया!
('परिवर्तन')
इनमें वह युग-परिवर्तनकारी स्वरों का गायक बना है। इन गीतों में ज़िन्दगी उसे ''धूमकेतन-सी अवांछित, जानकी-सी त्रस्त लांछित, बदरंग कैनवस की तरह, धूल की परतें लपेटे किचकिचाहट से भरी, स्वप्नवत्'' प्रतीत होती है। उसे लगता है कि ''शोर में / चीखती ही रही ज़िन्दगी / हर क़दम पर विवश / कोशिशों में अधिक विवश'' है। उसकी सामूहिक विवशता का स्वर यह है कि ''बंजर धरती की / कँकरीली मिट्टी पर / नूतन जीवन / कैसे बोया जाय!'' जिसकी परिणति यह है कि '' आजन्म / वंचित रह / अभावों ही अभावों में / घिसटती ज़िन्दगी / औचट दहकती यदि / सहज आश्चर्य क्या है?'' परन्तु इस आश्चर्य और विवशता के बीच भी उसे लगता है कि ''ज़िन्दगी / इस तरह / बिखरेगी नहीं /'' भले ही वह ''चीखती / हाफ़ती / ज़िन्दगी / कर चुकी / अनगिनत / ऊर्ध्व ऊँचाइयाँ / गार गहराइयाँ / तय! / थम गया / भोर का / शाम का / गूँजता शोर / गत उम्र की / राह पर / थम गया / एक आह बन / शून्य में / हो गया / लय! /'' वह चाहता है कि ''जीवन अबाधित बहे /'' और ''जय की कहानी कहे!'' और वह शोषित, पीड़ित, दलित, दमित को जगाने वालों, जड़ता को झकझोरने वालों का आह्वान करता है, ''मन से हारो! जागो! तन के मारो! जागो! / जीवन के लहराते सागर में कूदो / ओ गोताखोरो! जड़ता झकझोरो!''
वस्तुतः यही वह मूल स्वर है जिसे आगे चलकर नवगीत ने अपने कथ्य का आधार बनाया। समय के प्रश्नों से टकराने, जड़ता को झकझोरने, नये युग-मूल्यों को गढ़ने, विसंगतियों से टकराने, धुँधलकों को हटाने, विषमता के चक्रव्यूह को तोड़ने और नवयुग के आह्नान का यही स्वर नवगीत का मूल स्वर है; जिसका मंगलाचरण डा. महेंद्रभटनागर की इन रचनाओं में दिखाई पड़ता है।
इसलिए लगता है कि कवि महेंद्र जी जहाँ एक ओर छायावादी कोमलता, मार्दव, वायवी प्रणय चेतना और भाषिक तत्समीयता से बाहर नहीं निकल पा रहे; वहीं इन गीतों से यह भी लगता है कि उसमें इन सबको छोड़ने और जीवन की जटिलताओं से सीधे टकराने का हौसला भी है। वह नवयुग की कीर्ति-कथा भी लिखना चाह रहा है। कहा जा सकता है कि ये गीत संक्रमण काल की मनःस्थितियों के गीत हैं।
गीत के पारम्परिक फार्मेट में छन्द का विशेष महत्त्व है। छन्द ही गीत की लय को नियन्त्रित करने का साधन है। नवगीत के पुरोधा कवि देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र' ने एक गीत में कहा है --
हाँ, हमने गीत के स्वयंवर में
तोड़ी है प्रत्यंचा इंद्र के धनुष की!
अँधियारी लय के कान्तरों में हम
कालजयी आखेटक
आश्रयदाताओं के अभिनन्दन में
झुका नहीं अपना मस्तक
हमने कब मानी है भाषा अंकुश की ...
हमसे ही जीवित है इतिहासों में
एकलव्य की परम्परा,
बँधी नहीं श्लेष, यमक, रूपक में
ऋषि की वाणी ऋतम्भरा,
हमने कब ढोयी है पालकी नहुष की!
यह गीत छन्द के संबंध में लय के संबंध में व नवगीत के कथ्य के संबंध में रचा गया शाश्वत सूत्र है। नवगीतकार छंद, लय और तुक के बन्धन तोड़कर नयी शिल्प-चेतना का वाहक बनता है और आश्रयदाताओं और नहुषों का कीर्ति गान न करके शोषित पीड़ित विजड़ित मानवता के दर्द को अपने गीतों में उकेरता है। इस दिशा में नवगीतकारों में छन्द के बंधन से अपने को पूर्णत: मुक्त तो नहीं किया है; परन्तु वह छन्द के एक चरण को तोड़कर कई पंक्तियों में लिखकर यौगिक छन्द बना कर चरण-संख्या घटा-बढ़ाकर, चरणों में विसंगतियाँ अपना कर, छन्दहीनता अपना कर तथा बृहत् खण्ड-योजना से छन्दात्मकता लाकर छन्द के इस इंद्रधनुष को नयापन देता है। डा. महेंद्रभटनागर के गीतों में लय की स्वीकृति तो है; परन्तु छन्द को उन्होंने लगभग अस्वीकार कर दिया है। उनके गीतों में न तो चरण-योजना है, न ध्रुवपद के साथ तुक-विधान का अनिवार्य सामंजस्य है। उन्होंने छन्दहीनता व छन्द के चरणों में विसंगतियों को अपनाया है। उदाहरणार्थ उनके बहुचर्चित गीत 'री हवा!' को ही देखें --
री हवा !
गीत गाती आ,
सनसनाती आ ;
डालियाँ झकझोरती
रज को उड़ाती आ !
मोहक गंध से भर
प्राण पुरवैया
दूर उस पर्वत-शिखा से
कूदती आ जा !
ओ हवा !
उन्मादिनी यौवन भरी
नूतन हरी इन पत्तियों को
चूमती आ जा !
गुनगुनाती आ,
मेघ के टुकड़े लुटाती आ !
मत्त बेसुध मन
मत्त बेसुध तन !
खिलखिलाती, रसमयी,
जीवनमयी
उर-तार झंकृत
नृत्य करती आ !
री हवा !
(रचना-सन् 1949)
इस गीत का ध्रुवपद 23-23 मात्राओं से बुना गया है; परन्तु प्रथम चरण तीन पंक्तियों में व द्वितीय चरण दो पंक्तियों में लिखा गया है। पारम्परिक ढंग से इसे अगर इस तरह लिख दिया जाय --
री हवा / गीत गाती आ / सनसनाती आ!
डालियाँ झकझोरती / रज को उड़ाती आ!
तो यह 23 मात्रा का मात्रिक छन्द बन जाएगा। पन्तु आगे के अक्षरों में 'मोहक ... पुरवैया' दो पंक्तियों में 20 मात्राएँ हैं और 'दूर उस पर्वत-शिखा से कूदती आ जा!' में 23 मात्राएँ। आगे की पंक्तियों में क्रमशः 5, 19,, 16, 9 मात्राएँ हैं; जो दो पंक्तियों का चरण बनकर प्रस्तुत है। इस तरह छन्द में 24 एवं 25 मात्राएँ हो जाती हैं और समापन चरण में प्रथम पंक्ति में 9 व द्वितीय पंक्ति ('मेघ के टुकड़े लुटाती आ') में 16 मात्राएँ हैं। इस तरह इस गीत की संरचना में मात्रिक स्तर पर पूर्ण विसंगति है; परन्तु विशेषता यह है कि इसके बावजू़द गीत की लय प्रभावित नहीं हुई है। महेंद्र जी के अन्य गीतों में भी यही विशेषता है। वे पारम्परिक छन्द-बन्धन को नहीं मानते। छन्दों को तोड़ते हैं, एक छन्द के एक चरण को कई पंक्तियों में लिखते हैं और चरणों में विसंगति अपनाते हैं। इससे छन्द का इन्द्रधनुष टूटता है। छन्द-भंग होता है; परन्तु लय का उन्होंने ध्यान रखा है। उनके गीतों में गेयता की अपेक्षा वाचिकता अधिक है जो आगे चलकर अनेक नवगीतकारों में भी मिलती है।
वस्तुतः निर्विवाद रूप से डा. महेंद्रभटनागर के गीत नवगीत का पूर्वरूप हैं। ये संक्रमण काल की रचनाएँ हैं जिनमें छायावादी प्रवत्तियों के अवशेष भी हैं और नये युग की गीतधर्मी जनचेतना के स्वर भी इन्हें ऐतिहासिक महत्त्व का बनाते हैं। इनमें अपने युग की भविष्यधर्मी नवगीत चेतना की आहट सुनी जा सकती है।

बुधवार, 20 जुलाई 2011

POEMS : DR. MAHENDRA BHATNAGAR

POEMS : DR. MAHENDRA BHATNAGAR

[1] TO  STARS 

Why do the stars shiver in the sky? 

Are their feet chained? 
Restrained breaths are suffocated, 
Do they also face oppression by weapons? 
Are they too scorched by the fire of exploitation, every moment? 
They look tortured, perturbed, weak. 
Some, simply shiver, 
Some are shooting, measuring the limit of the sky! 
Are the worldly people at guilty?
In life’s dreams — of happiness and sadness,
while the world is sleeping, unconscious,
And is encircled from head to feet
in the cover of night,
Feeling bored in loneliness,
When every particle is sad and heavy-hearted,
Whom they are cursing then?
Is shivering their only life?
Appearing happy down the ages,
Is their youth  perpetual?
Falling, hiding continuously
Are they playing hide and seek?
Sowing vine of nectar like affection, and
laughing, stirring together instinctively
in their own world!

Ä

[2] DARKNESS-FELLOW STARS

Stars are the perpetual partners of deep darkness!

When bright new dawn descends
the grimy night departs
They, too, silently go
with their bag and baggage somewhere!

Seeing the fascinating evening near
The eternal indestructible moon rises
They also return; though kept hidden in the sky
                  throughout the day!

When dense darkness covers the day
These numerous stars come and surround the sky,
They want the extinguishing extinction
                  of the full moonlight!

The affectionate union of light and darkness
Denotes the cheer and pains of life,
The life becomes happy when
rise with fall and laughter with tears mingle together!

Ä

[3] THE WAKING STARS
The stars awake at midnight!
When all habitants —
humans, trees, animals, birds — of the world sleep!
    The stars awake at midnight!
They remain vigilant like watchmen
And say fables to each other, silently
Oh, not feeling drowsy even a moment
They sparkled and flashed!
      The stars awake at midnight!
The jingling voice of the cricket and,
Wailing voice of the distressed woman, too,
Become fusioned in the free wind,
reaching the doors of the fickle stars!
      The stars awake at midnight!
Slumber comes equipped with its army
and says, “Dear ! take a nap!”
so that I seize all your glamour;
but they don’t surrender to such temptation!
      The stars awake at midnight!
All night they twinkle without being dim,
Never closed their eye-doors,
Never attained dreams of life,
Poor helpless!
Remained aloof  from pleasures and pain!
      The stars awake at midnight!

Ä

शुक्रवार, 29 जनवरी 2010

विशेष आलेख: डॉ. महेंद्र भटनागर के गीतों में अलंकारिक सौंदर्य --आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

विशेष आलेख:

डॉ. महेंद्र भटनागर के गीतों में अलंकारिक सौंदर्य

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
जगवाणी हिंदी को माँ वीणापाणी के सितार के तारों से झंकृत विविध रागों से उद्भूत सांस्कृत छांदस विरासत से समृद्ध होने का अनूठा सौभाग्य मिला है. संस्कृत साहित्य की सरस विरासत को हिंदी ने न केवल आत्मसात किया अपितु पल्लवित-पुष्पित भी किया. हिंदी साहित्योद्यान के गीत-वृक्ष पर झूमते-झूलते सुन्दर-सुरभिमय अगणित पुष्पों में अपनी पृथक पहचान और ख्याति से संपन्न डॉ. महेंद्र भटनागर गत ७ दशकों से विविध विधाओं (गीत, कविता, क्षणिका, कहानी, नाटक, साक्षात्कार, रेखाचित्र, लघुकथा, एकांकी, वार्ता संस्मरण, गद्य काव्य, रेडियो फीचर, समालोचना, निबन्ध आदि में) समान दक्षता के साथ सतत सृजन कर बहु चर्चित हुए हैं. उनके गीतों में सर्वत्र व्याप्त आलंकारिक वैभव का पूर्ण निदर्शन एक लेख में संभव न होने पर भी हमारा प्रयास इसकी एक झलक से पाठकों को परिचित कराना है. नव रचनाकर्मी इस लेख में उद्धृत उदाहरणों के प्रकाश में आलंकारिक माधुर्य और उससे उपजी रमणीयता को आत्मसात कर अपने कविकर्म को सुरुचिसंपन्न तथा सशक्त बनाने की प्रेरणा ले सकें, तो यह प्रयास सफल होगा.

संस्कृत काव्यशास्त्र में काव्य समीक्षा के विभिन्न सम्प्रदायों (अलंकार, रीति, वक्रोक्ति, ध्वनि, औचत्य, अनुमिति, रस) में से अलंकार, ध्वनि तथा रस को ही हिंदी गीति-काव्य ने आत्मार्पित कर नवजीवन दिया. संस्कृत साहित्य में अलंकार को 'सौन्दर्यमलंकारः' ( अलंकार को काव्य का कारक), 'अलंकरोतीति अलंकारः' (काव्य सौंदर्य का पूरक) तथा अलंकार का मूल वक्रोक्ति को माना गया.

'सैषा सर्वत्र वक्रोक्तिरनयार्थो विभाच्याते.

यत्नोस्यां कविना कार्यः कोs लंकारोsनया बिना..' २.८५ -भामह, काव्यालंकारः

डॉ. महेंद्र भटनागर के गीत-संसार में वक्रोक्ति-वृक्ष के विविध रूप-वृन्तों पर प्रस्फुटित-पुष्पित विविध अलंकार शोभायमान हैं. डॉ. महेंद्र भटनागर गीतों में स्वाभाविक भावाभिव्यक्ति के पोषक हैं. उनके गीतों में प्रयुक्त बिम्ब और प्रतीक सनातन भारतीय परंपरा से उद्भूत हैं जिन्हें सामान्य पाठक/श्रोता सहज ही आत्मसात कर लेता है. ऐसे पद सर्वत्र व्याप्त हैं जिनका उदाहरण देना नासमझी ही कहा जायेगा. ऐसे पद 'स्वभावोक्ति अलंकार' के अंतर्गत गण्य हैं.

शब्दालंकारों की छटा:

डॉ. महेंद्र भटनागर सामान्य शब्दों का विशिष्ट प्रयोग कर शब्द-ध्वनियों द्वारा पाठकों/श्रोताओं को मुग्ध करने में सिद्धहस्त हैं. वे वस्तु या तत्त्व को रूपायित कर संवेद्य बनाते हैं. शब्दालंकारों तथा अर्थालंकारों का यथास्थान प्रयोग गीतों के कथ्य को रमणीयता प्रदान करता है.

शब्दालंकारों के अंतर्गत आवृत्तिमूलक अलंकारों में अनुप्रास उन्हें सर्वाधिक प्रिय है.

'मैं तुम्हें अपना ह्रदय गा-गा बताऊँ, साथ छूटे यही कभी ना, हे नियति! करना दया, हे विधना! मोरे साजन का हियरा दूखे ना, आज आँखों में गया बस, प्रीत का सपना नया, निज बाहुओं में नेह से, लहकी-लहकी मधुर जवानी हो, नील नभ सर में मुदित-मुग्धा, तप्त तन को वारिदों सी छाँह दी आदि अगणित पंक्तियों में 'छेकानुप्रास' की छबीली छटा सहज दृष्टव्य है.

एक या अनेक वर्णों की अनेक आवृत्तियों से युक्त 'वृत्यानुप्रास' का सहज प्रयोग डॉ. महेंद्र जी के कवि-कर्म की कुशलता का साक्ष्य है. 'संसार सोने का सहज' (स की आवृत्ति), 'कन-कन की हर्षांत कहानी हो' ( क तथा ह की आवृत्ति), 'महकी मेरे आँगन में महकी' (म की आवृत्ति), 'इसके कोमल-कोमल किसलय' (क की आवृत्ति), 'गह-गह गहनों-गहनों गहकी!' (ग की आवृत्ति), 'चारों ओर झूमते झर-झर' (झ की आवृत्ति), 'मिथ्या मर्यादा का मद गढ़' (म की आवृत्ति) आदि इसके जीवंत उदाहरण हैं.

अपेक्षाकृत कम प्रयुक्त हुए श्रुत्यानुप्रास के दो उदाहरण देखिये- 'सारी रात सुध-बुध भूल नहाओ' (ब, भ) , काली-काली अब रात न हो, घन घोर तिमिर बरसात न हो' (क, घ) .

गीतों की काया को गढ़ने में 'अन्त्यानुप्रास' का चमत्कारिक प्रयोग किया है महेंद्र जी ने. दो उदाहरण देखिये- 'और हम निर्धन बने / वेदना कारण बने तथा 'बेसहारे प्राण को निज बाँह दी / तप्त तन को वारिदों सी छाँह दी / और जीने की नयी भर चाह दी' .

इन गीतों में 'भाव' को 'विचार' पर वरीयता प्राप्त है. अतः, 'लाटानुप्रास' कम ही मिलता है- 'उर में बरबस आसव री ढाल गयी होली / देखो अब तो अपनी यह चाल नयी हो ली.'

महेंद्र जी ने 'पुनरुक्तिप्रकाश' अलंकार के दोनों रूपों का अत्यंत कुशलता से प्रयोग किया है.

समानार्थी शब्दावृत्तिमय 'पुनरुक्तिप्रकाश' के उदाहरणों का रसास्वादन करें: 'कन-कन की हर्षांत कहानी हो, लहकी-लहकी मधुर जवानी हो, गह-गह गहनों-गहनों गहकी, इसके कोमल-कोमल किसलय, दलों डगमग-डगमग झूली, भोली-भोली गौरैया चहकी' आदि.

शब्द की भिन्नार्थक आवृत्तिमय पुनरुक्तिप्रकाश से उद्भूत 'यमक' अलंकार महेंद्र जी की रचनाओं को रम्य तथा बोधगम्य बनाता है: ' उर में बरबस आसव सी ढाल गयी होली / देखो अब तो अपनी यह चाल नयी होली' ( होली पर्व और हो चुकी), 'आँगन-आँगन दीप जलाओ (घर का आँगन, मन का आँगन).' आदि.

'श्लेष वक्रोक्ति' की छटा इन गीतों को अभिनव तथा अनुपम रूप-छटा से संपन्न कर मननीय बनाती है: 'चाँद मेरा खूब हँसता-मुस्कुराता है / खेलता है और फिर छिप दूर जाता है' ( चाँद = चन्द्रमा और प्रियतम), 'सितारों से सजी चादर बिछये चाँद सोता है'. काकु वक्रोक्ति के प्रयोग में सामान्यता तथा व्यंगार्थकता का समन्वय दृष्टव्य है: 'स्वर्ग से सुन्दर कहीं संसार है.'

चित्रमूलक अलंकार: हिंदी गीति काव्य के अतीत में २० वीं शताब्दी तक चित्र काव्यों तथा चित्रमूलक अलंकारों का प्रचुरता से प्रयोग हुआ किन्तु अब यह समाप्त हो चुका है. असम सामयिक रचनाकारों में अहमदाबाद के डॉ. किशोर काबरा ने महाकाव्य 'उत्तर भागवत' में महाकाल के पूजन-प्रसंग में चित्रमय पताका छंद अंकित किया है. डॉ. महेंद्र भटनागर के गीतों में लुप्तप्राय चित्रमूलक अलंकार यत्र-तत्र दृष्टव्य हैं किन्तु कवि ने उन्हें जाने-अनजाने अनदेखा किया है.

डॉ. महेंद्र भटनागर जी ने शब्दालंकारों के साथ-साथ अर्थालंकारों का प्रयोग भी समान दक्षता तथा प्रचुरता से किया है. छंद मुक्ति के दुष्प्रयासों से सर्वथा अप्रभावित रहते हुए भी उनहोंने न केवल छंद की साधना की अपितु उसे नए शिखर तक पहुँचाने का भागीरथ प्रयास किया.

प्रस्तुत-अप्रस्तुत के मध्य गुण- सादृश्य प्रतिपादित करते 'उपमा अलंकार' को वे पूरी सहजता से अंगीकार कर सके हैं. 'दिग्वधू सा ही किया होगा, किसी ने कुंकुमी श्रृंगार / झलमलाया सोम सा होगा किसी का रे रुपहला प्यार, बिजुरी सी चमक गयीं तुम / श्रुति-स्वर सी गमक गयीं तुम / दामन सी झमक गयीं तुम / अलबेली छमक गयीं तुम / दीपक सी दमक गयीं तुम, कौन तुम अरुणिम उषा सी मन-गगन पर छ गयी हो? / कौन तुम मधुमास सी अमराइयाँ महका गयी हो? / कौन तुम नभ अप्सरा सी इस तरह बहका गयी हो? / कौन तुम अवदात री! इतनी अधिक जो भा गयी हो? आदि-आदि.

रूपक अलंकार उपमेय और उपमान को अभिन्न मानते हुए उपमेय में उपमान का आरोप कर अपनी दिव्या छटा से पाठक / श्रोता का मन मोहता है. डॉ. महेंद्र भटनागर के गीतों में 'हो गया अनजान चंचल मन हिरन, झम-झमाकर नाच ले मन मोर, आस सूरज दूर बेहद दूर है, गाओ कि जीवन गीत बन जाये, गाओ पराजय जीत बन जाये, गाओ कि दुःख संगीत बन जाये, गाओ कि कण-कण मीत बन जाये, अंधियारे जीवन-नभ में बिजुरी सी चमक गयीं तुम, मुस्कुराये तुम ह्रदय-अरविन्द मेरा खिल गया है आदि में रूपक कि अद्भुत छटा दृष्टव्य है.'नभ-गंगा में दीप बहाओ, गहने रवि-शशि हों, गजरे फूल-सितारे, ऊसर-मन, रस-सागा, चन्द्र मुख, मन जल भरा मिलन पनघट, जीवन-जलधि, जीवन-पिपासा, जीवन बीन जैसे प्रयोग पाठक /श्रोता के मानस-चक्षुओं के समक्ष जिवंत बिम्ब उपस्थित करने में सक्षम है.

डॉ. महेंद्र भटनागर ने अतिशयोक्ति अलंकार का भी सरस प्रयोग सफलतापूर्वक किया है. एक उदाहरण देखें: 'प्रिय-रूप जल-हीन, अँखियाँ बनीं मीन, पर निमिष में लो अभी / अभिनव कला से फिर कभी दुल्हन सजाता हूँ, एक पल में लो अभी / जगमग नए अलोक के दीपक जलाता हूँ, कुछ क्षणों में लो अभी.'

डॉ. महेंद्र भटनागर के गीतों में अन्योक्ति अलंकार भी बहुत सहजता से प्रयुक्त हुआ है. किसी एक वस्तु या व्यक्ति को लक्ष्य कर कही बात किसी अन्य वस्तु या व्यक्ति पर घटित हो तो अन्योक्ति अलंकार होता है. इसमें प्रतीक रूप में बात कही जाती है जिसका भिन्नार्थ अभिप्रेत होता है. बानगी देखिये: 'सृष्टि सारी सो गयी है / भूमि लोरी गा रही है, तुम नहीं और अगहन की रात / आज मेरे मौन बुझते दीप में प्रिय / स्नेह भर दो / अब नहीं मेरे गगन पर चाँद निकलेगा.

कारण के बिना कार्य होने पर विशेषोक्ति अलंकार होता है. इन गीतों में इस अलंकार की व्याप्ति यत्र-तत्र दृष्टव्य है: 'जीवन की हर सुबह सुहानी हो, हर कदम पर आदमी मजबूर है आदि में कारन की अनुपस्थिति से विशेषोक्ति आभासित होता है.

'तुम्हारे पास मानो रूप का आगार है' में उपमेय में उपमान की सम्भावना व्यक्त की गयी है. यहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार है जिसका अपेक्षाकृत कम प्रयोग इन गीतों में मिला.

डॉ. महेंद्र भटनागर रूपक तथा उपमा के धनी गीतकार हैं. सम्यक बिम्बविधान, तथा मौलिक प्रतीक-चयन में उनकी असाधारण दक्षता ने उन्हें अछूते उपमानों की कमी नहीं होने दी है. फलतः, वे उपमेय को उपमान प्रायः नहीं कहते. इस कारण उनके गीतों में व्याजस्तुति, व्याजनिंदा, विभावना, व्यतिरेक, भ्रांतिमान, संदेह, विरोधाभास, अपन्हुति, प्रतीप, अनन्वय आदि अलंकारों की उपस्थति नगण्य है.

'चाँद मेरे! क्यों उठाया / जीवन जलधि में ज्वार रे?, कौन तुम अरुणिम उषा सी, मन गगन पर छा गयी हो?, नील नभ सर में मुदित-मुग्धा उषा रानी नहाती है, जूही मेरे आँगन में महकी आदि में मानवीकरण अलंकर की सहज व्याप्ति पाठक / श्रोता को प्रकृति से तादात्म्य बैठालने में सहायक होती है.

स्मरण अलंकार का प्रचुर प्रयोग डॉ. महेंद्र भटनागर ने अपने गीतों में पूर्ण कौशल के साथ किया है. चिर उदासी भग्न निर्धन, खो तरंगों को ह्रदय / अब नहीं जीवन जलधि में ज्वार मचलेगा, याद रह-रह आ रही है / रात बीती जा रही है, सों चंपा सी तुम्हारी याद साँसों में समाई है, सोने न देती छवि झलमलाती किसी की आदि अभिव्यक्तियों में स्मरण अलंकार की गरिमामयी उपस्थिति मन मोहती है.

तत्सम-तद्भव शब्द-भंडार के धनी डॉ. महेंद्र भटनागर एक वर्ण्य का अनेक विधि वर्णन करने में निपुण हैं. इस कारण गीतों में उल्लेख अलंकार की छटा निहित होना स्वाभाविक है. यथा: कौन तुम अरुणिम उषा सी?, मधु मॉस सी, नभ आभा सी, अवदात री?, बिजुरी सी, श्रुति-स्वर सी, दीपक सी / स्वागत पुत्री- जूही, गौरैया, स्वर्गिक धन आदि.

सच यह है कि डॉ. भटनागर के सृजन का फलक इतना व्यापक है कि उसके किसी एक पक्ष के अनुशीलन के लिए जिस गहन शोधवृत्ति की आवश्यकता है उसका शतांश भी मुझमें नहीं है. यह असंदिग्ध है की डॉ. महेंद्र भटनागर इस युग की कालजयी साहित्यिक विभूति हैं जिनका सम्यक और समुचित मूल्यांकन किया जाना चाहिए और उनके सृजन पर अधिकतम शोध कार्य उनके रहते ही हों तो उनकी रचनाओं के विश्लेषण में वे स्वयं भी सहायक होंगे. डॉ. महेंद्र भटनागर की लेखनी और उन्हें दोनों को शतशः नमन.


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Acharya Sanjiv Salil

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