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शुक्रवार, 30 नवंबर 2018

घनाक्षरी

घनाक्षरी सलिला  
आठ-आठ-आठ-सात, पर यति रखकर,
मनहर घनाक्षरी, छंद कवि रचिए।
लघु-गुरु रखकर, चरण के आखिर में,
'सलिल'-प्रवाह-गति, वेग भी परखिए।।
अश्व-पदचाप सम, मेघ-जलधार सम,
गति अवरोध न हो, यह भी निरखिए।
करतल ध्वनि कर, प्रमुदित श्रोतागण-
'एक बार और' कहें, सुनिए-हरषिए।।
*

विजया घनाक्षरी

घनाक्षरी
*
चलो कुछ काम करो, न केवल नाम धरो,
        उठो जग लक्ष्य वरो, नहीं बिन मौत मरो।
रखो पग रुको नहीं, बढ़ो हँस चुको नहीं,
        बिना लड़ झुको नहीं, तजो मत पीर हरो।।
गिरो उठ आप बढ़ो, स्वप्न नव नित्य गढ़ो,
         थको मत शिखर चढ़ो, विफलता से न डरो।
न अपनों को ठगना, न सपनों को तजना,
         न स्वारथ ही भजना, लोक हित करो तरो।।
***
संजीव ३०.११.२०१८          
       

घनाक्षरी

एक रचना
*
राम कहे राम-राम, सिया कैसे कहें राम?,
                          होंठ रहे मौन थाम, नैना बात कर रहे।
मौन बोलता है आज, न अधूरा रहे काज,
                         लाल गाल लिए लाज, नैना घात कर रहे।।
हेर उर्मिला-लखन, देख द्वंद है सघन,
                         राम-सिया सिया-राम, बोल प्रात कर रहे।
श्रुतिकीर्ति-शत्रुघन, मांडवी भरत हँस,
                         जय-जय सिया-राम मात-तात कर रहे।।
***
संजीव
३०.११.२०१८
  

गुरुवार, 29 नवंबर 2018

समीक्षा- वतन को नमन

कृति चर्चा
वतन को नमन : पठनीय, मननीय, अनुकरणीय कृति 
प्रो. (डॉ.) साधना वर्मा 
*
[कृति विवरण- वतन को नमन, राष्ट्रीय काव्य संग्रह, प्रो. सी.बी. एल. श्रीवास्तव 'विदग्ध', आकार डिमाई, आवरण एक रंग, सजिल्द, जैकेट सहित, पृष्ठ १३०, मूल्य १००/-, विकास प्रकाशन, विवेक सदन, नर्मदा गंज, मंडला ४८१६६१, लेखन संपर्क ०७६१ २६६२०५२]
*
                             राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी ने लिखा है-
"जिसको न निज गौरव तथा निज देश एक अभिमान है
वह नर नहीं नर पशु निरा है और मृतक समान है।"
                             नर्मदांचल के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ कवि प्रो. सी.बी. एल. श्रीवास्तव 'विदग्ध' ने देश की नई पीढ़ी को नर-पशु बनने से बचाने के लिए इस कृति का प्रणयन किया है। आदर्श शिक्षक रहे विदग्ध जी ने नेताओं की तरह वक्तव्य देने या तथाकथित समाज सुधारकों की तरह छद्म चिंता विकट करने के स्थान पर बाल, किशोर, तरुण तथा युवा वर्ग के लिए ही नहीं अपितु हर नागरिक में सुप्त राष्ट्रीय राष्ट्र प्रेम की भावधारा को लुप्त होने से बचाकर न केवल व्यक्त अपितु सक्रिय  और निर्णायक बनाने के लिए "वतन को नमन" की रचना तथा प्रकाशन किया है। १३० पृष्ठीय इस काव्य कृति में १०८ राष्ट्रीय भावधारापरक काव्य रचनाएँ हैं। वास्तव में ये रचनाएँ मात्र नहीं, राष्ट्रीयता भावधारा के सारस्वत कंठहार में पिरोए गए काव्य पुष्प हैं।

                             हिंदी साहित्य जिन दिनों छायावादी दौर से गुजर रहा था उन्हीं दिनों छायावादी काव्य धारा के समानांतर और उतनी ही शक्तिशाली एक और काव्यधारा भी प्रवाहमान थी। माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्णशर्मा नवीन, सुभद्राकुमारी चौहान आदि इस धारा के प्रतिनिधि कवि हैं। इन्होंने राष्ट्रीय और सांस्कृतिक संघर्ष को स्पष्ट और उग्र स्वर में व्यक्त किया है। छायावाद में राष्ट्रीयता का स्वर प्रतीकात्मक रूप में तथा शक्ति और जागरण गीतों के रूप में मिलता है। इसके बजाय माखनलाल चतुर्वेदी अपने वीरव्रती शीर्षक कविता में लिखते हैं- 
"मधुरी वंशी रणभेरी का डंका हो अब। 
नव तरुणाई पर किसको क्या शंका हो अब।" 

                             बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' विप्लव गान की रचना करते हैं- 
एक ओर कायरता काँपे गतानुगति विगलित हो जाए। 
अंधे मूढ़ विचारों की वह अचल शिला विचलित हो जाए। 

                             सुभद्राकुमारी चौहान ने झाँसी की रानी के रूप में पूरा वीरचरित ही लिख दिया - 
जाओ रानी याद करेंगें ये कृतज्ञ भारतवासी। 
तेरा ये बलिदान जगायेगा स्वतंत्रता अविनाशी। 

                           छायावाद की सीमारेखा इस धारा की सीमारेखा नहीं है। इसने पूर्ववर्ती मैथिलीशरण गुप्त और परवर्ती दौर में भी रामधारी सिंह दिनकर के साथ अपना स्वर प्रखर बनाए रखा।

सहनशीलता, क्षमा, दया को तभी पूजता जग है;
बल का दर्प चमकता उसके पीछे जब जगमग है।


                             नर्मदांचल में भारत माता, देश अपना हिन्दोस्तां, देश हमारा, अपना भारत, जग का अनुपम रतन, भारत हमारा प्यारा, सींचा था जिसे शहीदों ने, भगवान अब फिर आइए, मेरे देश के लिए, जब बीती यादें आती हैं, भारत की वंदना में, कहीं गाँधीका पैगाम नहीं दिखता, सद्भावना और प्यार का संसार चाहिए, आज जरूरत है भारत को, तब और अब, हमारे देश की धरती, क्रांति की अमर कहानी, पुनीत पर्व, गणतंत्र दिवस पर, कर सको कुछ अगर, समय है नाज़ुक मिज़ाज़, दृढ़वती संयमी को प्रणाम, हमारा वतन भारत, गणतंत्र हो अमर, हिमालय, तरुण पीढ़ी से, भारत हमें प्यारा, राजनेताओं से, किसी को राह कैसे दे सकेंगे बंद गलियारे, अब चुनावों के बाद, हम कहीं भी हों हमारा एक ही संसार है, बसंत आओ, बंबई बम विस्फोट दिवस पर, स्वतंत्रता दुवास पर भारतीय तरुणों से, भारत बनाम इंडिया, शहीदों की पुकार, कदम तो आगे बढ़े पर, भारत के गुमराह तरुणों से, श्रृंगार नया कर, जो लड़ता है, पौधे तो विश्व शांति के, स्वर आनेवाले तूफ़ान के, देश को चाहिए, विस्थापित पड़ोसियों से, देशवासियों से, दिल की चाहत, उजड़ी हुई बगिया में, वह हिन्दुस्तान हमारा है, आकांक्षा, बढ़ता भ्रष्टाचार, स्वप्न का संसार, मंडला की शहीदी मिट्टी की संकलन बेला में, फ़ौजी जवानों का अभिनन्दन, सेना के जवानों से, भारत की पवन माटी को प्रणाम, हम कहाँ आ गए, हम देश को अपने सही नज़रों से निहारें आदि काव्य रचनाओं  के माध्यम से  विदग्ध जी ने ५ दशकों तक राष्ट्रीय भावधारा का स्वर गुँजाने का कार्य किया। 

                             'वतन को नमन' विदग्ध जी की राष्ट्रीय चेतना से परिपूर्ण कविताओं-गीतों का संग्रह है। विदग्ध जी शिल्प पर कथ्य को वरीयता देते हुए नई पीढ़ी को जगाने के लिए राष्ट्रीय भावधारा के प्रमुख तत्वों राष्ट्र महिमा, राष्ट्र गौरव, राष्ट्रीय पर्व, राष्ट्रीय जीवन मूल्य, राष्ट्रीय संघर्ष, राष्ट्रीयता की दृष्टि से महत्वपूर्ण महापुरुष, राष्ट्रीय संकट, कर्तव्य बोध, शहीदों को श्रद्धांजलि, राष्ट्र का नवनिर्माण, नयी पीढ़ी के स्वप्न, राष्ट्र की कमजोरियाँ, राष्ट्र भाषा, राष्ट्र ध्वज, राष्ट्रीय एकता,  राष्ट्रीय सेना, राष्ट्र के शत्रु, रष्ट्रीय सुरक्षा, राष्ट्र की प्रगति, राष्ट्र हेतु नागरिकों का कर्तव्य एवं दायित्व आदि को गीतों में ढालकर पाठक को प्रेरित करने में पूरी तरह सफल हुए हैं। भारत का गौरव गान करते हुए वे कहते हैं- 
हिमगिरि शोभित, सागर सेवित, सुखदा, गुणमय, गरिमावाली। 
शस्य-श्यामला शांतिदायिनी, परम विशाला वैभवशाली।।
ममतामयी अतुल महिमामय, सरलहृदय मृदु ग्रामवासिनी। 
आध्यात्मिक सन्देशवाहिनी, अखिल विश्व मैत्री प्रसारिणी।।
प्रकृत पवन पुण्य पुरातन, सतत नीति-नय-नेह प्रकाशिनि। 
सत्य बंधुता समता करुणा, स्वतन्त्रता शुचिता अभिलाषिणी।।
ज्ञानमयी, युवबोधदायिनी, बहुभाषा भाषिणि सन्मानी। 
हम सबकी मी भारत माता, सुसंस्कारदायिनी कल्याणी।। 

                             कहा जाता है 'अग्र' सोची सदा सुखी' अर्थात जो आनेवाले संकट का पूर्वानुमान कर लेता है वह पूर्व तैयारी कर उससे जूझकर विजय पा सकता है- 
सुन पड़ते स्वर मुझे साफ़ आनेवाले तूफ़ान के 
छीने जाते सुख दिन-दिन ईमानदार इंसान के 
                             लगभग २५ वर्ष पूर्व रची गई यह कविता रचना काल की अपेक्षा आज अधिक प्रासंगिक हो गई है। देश के नागरिकों का चरित्र देश की असली ताकत है। सच्चरिते और देशभक्त नागरिक देश को गंभीर से गंभीर संकट से निकाल सकते हैं। विदग्ध जी कहते हैं- 
आज जरूरत है भारत को बस चरित्र निर्माण की 
नहीं किसी नारे आंदोलन की, न किसी अभियान की 

                             देश के युवाओं का आव्हान करते हुए वे उन्हें युग निर्माता बताते हैं- 
हर नए युग के सृजन का भर युवकों ने सम्हाला 
तुम्हारे ही ओज ने रच विश्व का इतिहास डाला 
प्रगति-पथ का अनवरत निर्माण युवकों ने किया है-
क्रांति में भी, शांति में भी, सदा नवजीवन दिया है 

                             देश, उसकी स्वतंत्रता और देशवासियों के रक्षक सेना के रणबांकुरों के प्रति देश की भावनाएं कवि  के माध्यम से अभिव्यक्त हुई हैं- 
तुम पे नाज़ देश को, तुम पे हमें गुमान 
मेरे वतन के फौजियों जांबाज नौजवान 

                             देश के राजनैतिक क्षितिज पर उठ रहे विवादों की निस्सारता को शब्दांकित करते हुए कवि 'क्षमा करो और भूल जाओ' की नीति के अनुसार देश की वंदना में हर देशवासी से स्वर मिलाने का आव्हान करता है- 
बस याद रख वतन को, सब एक साथ मिलकर
भारत की वंदना को, सब एक स्वर से गाओ
समृद्ध जो विरासत तुमको मिली है उसको 
अपने सदाचरण से कल के लिए सजाओ

                             संस्कारधानी जबलपुर राष्ट्रीय भावधारा के इस सशक्त हस्ताक्षर की काव्य साधना से गौरवान्वित है। हिंदी साहित्य के लब्ध प्रतिष्ठ हस्ताक्षर आचार्य संजीव 'सलिल' देश की माटी के गौरवगान करने वाले विदग्ध जी के प्रति अपने मनोभाव इस तरह व्यक्त करते हैं- 
हे विदग्ध! है काव्य दिव्य तव  सलिल-नर्मदा सा पावन 
शब्द-शब्द में अनुगुंजित है देश-प्रेम बादल-सावन 
कविकुल का सम्मान तुम्हीं से, तुम हिंदी की आन हो
समय न तुमको बिसरा सकता, देश भक्ति का गान हो 
चिर वन्दित तव सृजन साधना, चित्रगुप्त कुल-शान हो 
करते हो संजीव युवा को, कायथ-कुल-अभिमान हो 
***
सम्पर्क: प्रो. (डॉ.) साधना वर्मा, शासकीय मानकुँवरबाई स्वशासी स्नाकोत्तर अर्थ-वाणिज्य महाविद्यालय, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१  

   



बुधवार, 28 नवंबर 2018

लघुकथा- विकल्प

पहली बार मतदान का अवसर पाकर वह खुद को गौरवान्वित अनुभव कर रहा था। एक प्रश्न परेशान कर रहा था कि किसके पक्ष में मतदान करे? दल की नीति को प्राथमिकता दे या उम्मीदवार के चरित्र को? उसने प्रमुख दलों का घोषणापत्र पढ़े, दूरदर्शन पर प्रवक्ताओं के वक्तव्य सुने, उम्मीदवीरों की शिक्षा, व्यवसाय, संपत्ति और कर-विवरण की जानकारी ली। उसकी जानकारी और निराशा लगातार बढ़ती गई।

सब दलों ने धन और बाहुबल को सच्चरित्रता और योग्यता पर वरीयता दी थी। अधिकांश उम्मीदवारों पर आपराधिक प्रकरण थे और असाधारण संपत्ति वृद्धि हुई थी। किसी उम्मीदवार का जीवनस्तर और जीवनशैली सामान्य मतदाता की तरह नहीं थी।

गहन मन-मंथन के बाद उसने तय कर लिया था कि देश को दिशाहीन उम्मीदवारों के चंगुल से बचाने और राजनैतिक अवसरवादी दलों के शिकंजे से मुक्त रखने का एक ही उपाय है। मात्रों से विमर्श किया तो उनके विचार एक जैसे मिले। उन सबने परिवर्तन के लिए चुन लिया 'नोटा' अर्थात 'कोई नहीं' का विकल्प।
***

एक रचना

नागनाथ साँपनाथ, जोड़ते मिले हों हाथ, मतदान का दिवस, फिर निकट है मानिए। 

चुप रहे आज तक, न रहेंगे अब चुप, ई वी एम से जवाब, दें न बैर ठानिए।।

सारी गंदगी की जड़, दलवाद है 'सलिल', नोटा का बटन चुन,  निज मत बताइए- 

लोकतंत्र जनतंत्र, प्रजातंत्र गणतंत्र, कैदी न दलों का रहे, नव आजादी लाइए।।                                         ***                                                              संजीव, २८-११-२०१८।      http://divyanarmada.blogspot.in/

नवगीत

नवगीत

कहता मैं स्वाधीन
*
संविधान
इस हाथ से
दे, उससे ले छीन।
*
जन ही जनप्रतिनिधि चुने,
देता है अधिकार।
लाद रहा जन पर मगर,
पद का दावेदार।।
शूल बिछाकर
राह में, कहे
फूल लो बीन।
*
समता का वादा करे,
लगा विषमता बाग।
चीन्ह-चीन्ह कर बाँटता,
रेवड़ी, दूषित राग।।
दो दूनी
बतला रहा हाय!
पाँच या तीन।
*
शिक्षा मिले न एक सी,
अवसर नहीं समान।
जनभाषा ठुकरा रह,
न्यायालय मतिमान।।
नीलामी है
न्याय की
काले कोटाधीन।
*
तब गोरे थे, अब हुए,
शोषक काले लोग।
खुर्द-बुर्द का लग गया,
इनको घातक रोग।।
बजा रहा है
भैंस के, सम्मुख
जनगण बीन।
*
इंग्लिश को तरजीह दे,
हिंदी माँ को भूल।
चंदन फेंका गटर में,
माथे मलता धूल।।
भारत को लिख
इंडिया, कहता
मैं स्वाधीन।
***
संजीव
२८-११-२०१८

मंगलवार, 27 नवंबर 2018

मतदान कर

मुक्तक
*
मतदान कर,  मत दान कर, जो पात्र उसको मत
मिले।
सब जन अगर न पात्र हों, खुल कह, न रखना लब सिले।।
मत व्यक्त कर, मत लोभ-भय से, तू बदलना राय निज-
जन मत डरे, जनमत कहे, जनतंत्र तब फूले-फले।।
*
भाषा न भूषा, जात-नाता-कुल नहीं तुम देखना।
क्या योग्यता,  क्या कार्यक्षमता, मौन रह अवलोकना।।
क्या नीति दल की?, क्या दिशा दे?, देश को यह सोचना-
उसको न चुनना जो न काबिल, चुन न खुद को कोसना।।
*
जो नीति केवल राज करने हेतु हो,  वह त्याज्य है।
जो कर सके कल्याण जन का, बस वही आराध्य है।
जनहित करेगा खाक वह, दल-नीति से जो बाध्य है-
क्या देश-हित में क्या नहीं, आधार सच्चा साध्य है।।
*
शासन-प्रशासन मात्र सेवक, लोक के स्वामी नहीं।
सुविधा बटोरें, भूल जनगण, क्या यही खामी नहीं?
तज सभी भत्ते और वेतन, लोकसेवा कर सके-
जो वही जनप्रतिनिधियों बने, क्यों भरें सब हामी नहीं??
*
संजीव
२७-११-२०१८

मुक्तिका

मुक्तिका
*
ऋतुएँ रहीं सपना जगा।
मनु दे रहा खुद को दगा।।
*
अपना नहीं अपना रहा।
किसका हुआ सपना सगा।।
*
रखना नहीं सिर के तले
तकिया कभी पगले तगा।।
*
कहना नहीं रहना सदा
मन प्रेम में नित ही पगा।।
*
जिससे न हो कुछ वासता
अपना हमें वह ही लगा।।
***
संजीव
२७-११-२०१८

सोमवार, 26 नवंबर 2018

मुक्तक, मुक्तिका, नवगीत, लघुकथा

मुक्तिका
देख जंगल 
कहाँ मंगल?
हर तरफ है 
सिर्फ दंगल
याद आते
बहुत हंगल
स्नेह पर हो
बाँध नंगल
भू मिटाकर
चलो मंगल
२४.११.२०१४ ***
नवगीत:
अड़े खड़े हो
न राह रोको
यहाँ न झाँको
वहाँ न ताको
न उसको घूरो
न इसको देखो
परे हटो भी
न व्यर्थ टोको
इसे बुलाओ
उसे बताओ
न राज अपना
कभी बताओ
न फ़िक्र पालो
न भाड़ झोंको
२४.११.२०१४ 
***
नवगीत
.
बसर ज़िन्दगी हो रही है 
सड़क पर.
.
बजी ढोलकी
गूंज सोहर की सुन लो
टपरिया में सपने
महलों के बुन लो
दुत्कार सहता
बचपन बिचारा
सिसक, चुप रहे
खुद कन्हैया सड़क पर
.
लत्ता लपेटे
छिपा तन-बदन को
आसें न बुझती
समर्पित तपन को
फ़ान्से निबल को
सबल अट्टहासी
कुचली तितलिया मरी हैं
सड़क पर
.
मछली-मछेरा
मगर से घिरे हैं
जबां हौसले
चल, रपटकर गिरे हैं
भँवर लहरियों को
गुपचुप फ़न्साए
लव हो रहा है
ज़िहादी सड़क पर
.
कुचल गिट्टियों को
ठठाता है रोलर
दबा मिट्टियों में
विहँसता है रोकर
कालिख मनों में
डामल से ज्यादा
धुआँ उड़ उड़ाता
प्रदूषण सड़क पर 

२४.११.२०१७
***

नवगीत:
दादी को ही नहीं
गाय को भी भाती हो धूप

तुम बिन नहीं सवेरा होता
गली उनींदी ही रहती है
सूरज फसल नेह की बोता
ठंडी मन ही मन दहती है
ओसारे पर बैठी
अम्मा फटक रहीं है सूप
हित-अनहित के बीच खड़ी
बँटवारे की दीवार
शाख प्यार की हरिया-झाँके
दीवारों के पार
भौजी चलीं मटकती, तसला
लेकर दृश्य अनूप
तेल मला दादी के, बैठी
देखूँ किसकी राह?
कहाँ छबीला जिसने पाली
मन में मेरी चाह
पहना गया मुँदरिया बनकर
प्रेमनगर का भूप
२४.११.२०१४
***
मुख पुस्तक! मुख को पढ़ने का ज्ञान दे।  
क्या कपाल में लिखा, दिखे वरदान दे
शान न रहती सदा, मुझे मत दे ईश्वर।  
शुभाशीष दे, स्नेह, मान का दान दे
२४.११.२०१७ 
***
लीक से हटकर एक प्रयोग:

मुक्तिका:

संजीव 'सलिल'
*
हवा करती है सरगोशी बदन ये काँप जाता है.
कहा धरती ने यूँ नभ से, न क्यों सूरज उगाता है??
*
न सूरज-चाँद की गलती, निशा-ऊषा न दोषी हैं.
प्रभाकर हो या रजनीचर, सभी को दिल नचाता है..
*
न दिल ये बिल चुकाता है, न ठगता या ठगाता है.
लिया दिल देके दिल, सौदा नगद कर मुस्कुराता है.
*
करा सौदा खरा जिसने, जो जीता वो सिकंदर है.
क्यों कीमत तू अदा करता है?, क्यों तू सिर कटाता है??
*
यहाँ जो सिर कटाता है, कटाये- हम तो नेता हैं.
हमारा शौक- अपने मुल्क को ही बेच-खाता है..
*
करें क्यों मुल्क की चिंता?, सकल दुनिया हमारी है..
है बंटाढार इंसां चाँद औ' मंगल पे जाता है..
*
न मंगल अब कभी जंगल में कर पाओगे ये सच है.
जहाँ भी पग रखे इंसान उसको बेच-खाता है..
*
न खाना और ना पानी, मगर बढ़ती है जनसँख्या.
जलाकर रोम नीरो सिर्फ बंसी ही बजाता है..
*
बजी बंसी तो सारा जग, करेगा रासलीला भी.
कोई दामन फँसाता है, कोई दामन बचाता है..
*
लगे दामन पे कोई दाग, तो चिंता न कुछ करना.
बताता रोज विज्ञापन, इन्हें कैसे छुड़ाता है??
*
छुड़ाना पिंड यारों से, नहीं आसां तनिक यारों.
सभी यह जानते हैं, यार ही चूना लगाता है..
*
लगाता है अगर चूना, तो कत्था भी लगाता है.
लपेटा पान का पत्ता, हमें खाता-खिलाता है..
*
खिलाना और खाना ही हमारी सभ्यता- मानो.
मगर ईमानदारी का, हमें अभिनय दिखाता है..
*
किया अभिनय न गर तो सत्य जानेगा जमाना यह.
कोई कीमत अदा हो हर बशर सच को छिपाता है..
*
छिपाता है, दिखाता है, दिखाता है, छिपाता है.
बचाकर आँख टंगड़ी मार, खुद को खुद गिराता है..
*
गिराता क्या?, उठाता क्या?, फंसाता क्या?, बचाता क्या??
अजब इंसान चूहे खाए सौ, फिर हज को जाता है..
*
न जाता है, न जायेंगा, महज धमकायेगा तुमको.
कोई सत्ता बचाता है, कमीशन कोई खाता है..
*
कमीशन बिन न जीवन में, मजा आता है सच मानो.
कोई रिश्ता निभाता है, कोई ठेंगा बताता है..
*
कमाना है, कमाना है, कमाना है, कमाना है.
कमीना कहना है?, कह लो, 'सलिल' फिर भी कमाता है..
२४.११.२०१० 
***
लघुकथा:
बुद्धिजीवी और बहस
संजीव
*

'आप बताते हैं कि बचपन में चौपाल पर रोज जाते थे और वहाँ बहुत कुछ सीखने को मिलता थ. क्या वहाँ पर ट्यूटर आते थे?'
'नहीं बेटा! वहाँ कुछ सयाने लोग आते थे जिनकी बातें बाकि सभी लोग सुनते-समझते और उनसे पूछते भी थे.'
'अच्छा, तो वहाँ टी. वी. की तरह बहस और आरोप भी लगते होंगे?'
'नहीं, ऐसा तो कभी नहीं होता था'
'यह कैसे हो सकता है? लोग हों, वह भी बुद्धिजीवी और बहस न हो... आप गप्प तो नहीं मार रहे?'
दादा समझाते रहे पर पोता संतुष्ट न हो सका.
२४.११.२०१४ 
***

doha muktika

दोहा मुक्तिका
*
स्नेह भारती से करें, भारत माँ से प्यार। 
छंद-छंद को साधिये, शब्द-ब्रम्ह मनुहार।।
*
कर सारस्वत साधना, तनहा रहें न यार।
जीव अगर संजीव हों, होगा तब उद्धार।।
*
मंदिर-मस्जिद बन गए, सत्ता हित हथियार।।
मन बैठे श्री राम जी, कर दर्शन सौ बार।।
*
हर नेता-दल चाहता, उसकी हो सरकार।।
नित मनमानी कर सके, औरों को दुत्कार।।
*
सलिला दोहा मुक्तिका, नेह-नर्मदा धार।
जो अवगाहे हो सके, भव-सागर से पार।।
*
संजीव
२५.११.२०१८

प्रेमा छंद

छंद सलिला 
प्रेमा छंद
संजीव
*
यह दो पदों, चार चरणों, ४४ वर्णों, ६९ मात्राओं का छंद है. इसका पहला, दूसरा और चौथा चरण उपेन्द्रवज्रा तथा दूसरा चरण इंद्रवज्रा छंद होता है.
१. मिले-जुले तो हमको तुम्हारे हसीं वादे कसमें लुभायें
देखो नज़ारे चुप हो सितारों हमें बहारें नगमे सुनाये
*
२. कहो कहानी कविता रुबाई लिखो वही जो दिल से कहा हो
देना हमेशा प्रिय को सलाहें सदा वही जो खुद भी सहा हो
*
३. खिला कचौड़ी चटनी मिठाई मुझे दिला दे कुछ तो खिलौने
मेला लगा है चल घूम आयें बना न बातें भरमा रे!
****

muktak

मुक्तक 
गीत क्या?, नवगीत क्या?, बोलें, न बोलें। 
बात मन की करें, दिल के द्वार खोलें।।
२५.११.२०१७ 
चली गोली लौटकर, वापिस न आती-
करें बोली से ठिठोली, मगर तोलें।।  
२६.११.२०१८ 
*
दोहा मुक्तक 
निर्मल है नवगीत का, त्रिलोचनी संसार। 
निहित कल्पना मनोरम, ज्यों संध्या आगार।।        

२५-११-२०१७
चंद्रकांता पूर्णिमा, में करती चुप रास-
तारों की बारात ले, चाँद मना त्यौहार।।
*  
  

chaupaee muktak चौपाई मुक्तक

चौपाई मुक्तक  
*
यायावर मन दर-दर भटके, पर माया मृग हाथ न आए।  
नर-नारायण तन नारद को, कर वानर शापित हो जाए।। 
२५.११.२०१७ 
राजकुमारी चाह मनुज को, सौ-सौ नाच नचाती  बचना। 
'सलिल' अधूरी तृष्णा चालित हो, क्यों निज उपहास कराए।।
२६.११.२०१८ 
*** 

karyashala

कार्यशाला
प्रश्न- मीना धर द्विवेदी पाठक
लै ड्योढ़ा ठाढ़े भये श्री अनिरुद्ध सुजान
बा णा सुर की सेन को हनन लगे भगवान
इसका अर्थ क्या है? ड्योढ़ा = ?
*
प्रसंग
श्री कृष्ण के पुत्र अनुरुद्ध पर मोहित होकर दानवराज बाणासुर की पुत्री उषा उसे अचेत कर ले गयी और महल में बंदी कर लिया। ज्ञात होने पर कृष्ण उसे छुड़ाने गए। भयंकर युद्ध हुआ।
शब्दार्थ
ड्योढ़ी = देहरी या दरवाज़ा
ड्योढ़ा = डेढ़ गुना, सामान्य से डेढ़ गुना बड़ा दरवाज़ा। दरवाजे को बंद करने के लिए प्रयोग किये जाने वाले आड़े लंबे डंडे को भी ड्योढ़ा कहा जाता है।
पदार्थ
श्री अनिरुद्ध ड्योढ़ा लेकर खड़े हुए और कृष्ण जी बाणासुर की सेना को मारने लगे।
भावार्थ
कृष्ण जी अनिरुद्ध को छुड़ाने के लिए बाणासुर के महल पर पहुँचे। यह जानकर अनिरुद्ध दरवाज़ा बंद करने के लिए प्रयोग किये जानेवाले डंडे को लेकर दरवाजे पर आ गये। बाणासुर की सेना ने रोका तो भगवान सेना का वध करने लगे।
*
संजीव,
२० - ११ - २०१८

rakeshk handelwa lshabdanjali

राकेश खंडेलवाल के प्रति शब्दांजलि 
*
सलिल-धार लहरों में बिंबित, 'हर नर्मदे' ध्वनित राकेश
शीश झुकाते शब्द्-ब्रम्ह, आराधक सादर कह गीतेश
जहाँ रहें घन श्याम वहाँ, रसवर्षण होता सदा अनूप
कमल कुसुम सज शब्द-शीश, गुंजित करता है प्रणव अरूप
गौतम-राम अहिंसा-हिंसा, भव में भरते आप महेश
मानोशी शार्दुला नीरजा, किरण दीप्ति चारुत्व अशेष
ममता समता श्री प्रकाश पा, मुदित सुरेंद्र हुए अमिताभ
प्रतिभा को कर नमन हुई है, कविता-कविता अब अजिताभ
सीता-राम सदा करते संतोष, मंजु महिमा अद्भुत
व्योम पूर्णिमा शशि लेखे, अनुराग सहित होकर विस्मित
ललित खलिश हृद पीर माधुरी, राहुल मन परितृप्त करे
कांत-कामिनी काव्य भामिनि, हर भव-बाधा सुप्त करे
*
२६.११.२०१४ 

muktak

मुक्तक :
बात न करने को कुछ हो तो, कहिये कैसे बात करें?
बिना बात के बात करें जो, नाहक शह या मात करें
चोट न जो सह पाते देते, पड़ती तो रो देते हैं-
दोष विधाता को दे कहते, विधना क्यों आघात करे??
*

२६.११.२०१४ 
ये वो दोनों जब भी बोलें, एक-दूजे की बात करें। 
बात न करते सुनें ध्यान से, केवल प्रत्याघात करें।।
मुद्दे सारे छोड़-भूलकर, जनता को भरमाते हैं-
सत्ता पाने के अभिलाषी, वाक्-द्व्न्द बेबात करें।।
*   

राम दोहावली 
*
राम आत्म परमात्म भी, राम अनादि-अनंत।
चित्र गुप्त है राम का, राम सृष्टि के कंत।।
विधि-हरि-हर श्री राम हैं, राम अनाहद नाद।
शब्दाक्षर लय-ताल हैं, राम भाव रस स्वाद।।
राम नाम गुणगान से, मन होता है शांत।
राम-दास बन जा 'सलिल', माया करे न भ्रांत।। 
२६.११.२०१४ 
राम आम के खास के, सबके मालिक-दास।                                                                                                                                      राम कर्म के साथ हैं, करते सतत प्रयास।। 
वाम न राम से हो सलिल, हो जाने दे पार।                                                                                                                                            केवट के सँग मिलेगा, तुझको सुयश अपार।।
राम न सहते गलत को, राम न रहते मौन।                                                                                                                                        राम न कहते निज सुयश, नहीं जानता कौन?                                                                                                                                 
राम न बाधा मानते, राम न करते बैर।                                                                                                                                            करते हैं सत्कर्म वे, सबकी चाहें खैर।।
२६.११.२०१८       

नवगीत

नवगीत :
नीले-नीले कैनवास पर
बादल-कलम पकड़ कर कोई
आकृति अगिन बना देता है
मोह रही मन द्युति की चमकन
डरा रहा मेघों का गर्जन
सांय-सांय-सन पवन प्रवाहित
जल बूँदों का मोहक नर्तन
लहर-लहर लहराता कोई
धूसर-धूसर कैनवास पर
प्रवहित भँवर बना देता है
अमल विमल निर्मल तुहिना कण
हरित-भरित नन्हे दूर्वा तृण
खिल-खिल हँसते सुमन सुवासित
मधुकर का मादक प्रिय गुंजन
अनहद नाद सुनाता कोई
ढाई आखर कैनवास पर
मन्नत कफ़न बना देता है
***

नाग और नागा


नागाओं / नागों का रहस्य -2 : पुराण में नागाओं का उल्लेख
*
भारत के शासन-प्रशासन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभानेवाले, निर्गुण ब्रम्ह चित्रगुप्त के उपासक कायस्थ अपने आदि पुरुष कि अवधारणा-कथा में उनके दो विवाह नाग कन्या तथा देव कन्या से तथा उनके १२ पुत्रों के विवाह बारह नाग कन्याओं से होना मानते हैं. कौन थे ये नाग? सर्प या मनुष्य? आर्य, द्रविड़ या गोंड़? 

श्रेष्ठ-ज्येष्ठ पुरातत्वविद डॉ. आर. के. शर्मा लिखित पुस्तक से नागों संबंधी जानकारी दे रही हैं माँ जीवन शैफाली. 
*
नागों की उत्पत्ति का रहस्य अंधकार में डूबा है, इसलिए प्राचीन भारत के इतिहास की जटिल समस्याओं में से एक ये भी समस्या है. कुछ विद्वानों के अनुसार नाग मूलरूप से नाग की पूजा करनेवाले थे, इस कारण उनका संप्रदाय बाद में नाग के नाम से ही जाना जाने लगा. इसके समर्थन में जेम्स फर्ग्यूसन ने अपनी पुस्तक (Tree and Serpent Worship) में अक्सर उद्धृत करते हुए विचार व्यक्त किए हैं, और निःसंदेह काफी प्रभावित भी किया है, लेकिन आज के विद्वानों में उनका समर्थक मिलना मुश्किल होगा.

उनके अनुसार नाग, साँप की पूजा करनेवाली उत्तर अमेरिका में बसे तुरेनियन वंश की एक आदिवासी जाति थी जो युद्ध में आर्यों के अधीन हो गई. फर्ग्यूसन सकारात्मक रुप से ये घोषणा करते हैं कि ना आर्य साँप की पूजा करनेवाले थे, ना द्रविड़, और अपने इस सिद्धांत पर बने रहने के लिए वे ये भी दावा करते हैं कि नाग की पूजा का यदि कोई अंश वेद या आर्यों के प्रारंभिक लेखन में पाया भी गया है तो या तो वह बाद की तारीख का अंतर्वेशन होना चाहिए या आश्रित जातियों के अंधविश्वासों को मिली छूट. सर्प पूजा के स्थान पर जब बौद्ध धर्म आया, तो उसने उसे “आदिवासी जाति के छोटे मोटे अंधविश्वासों के थोड़े से पुनरुत्थारित रुप” से अधिक योग्य नहीं माना. वॉगेल ठीक ही कह गया है कि ‘ये सब अजीब और निराधार सिद्धांत हैं’.
कुछ विद्वानों का यह भी दावा है कि सर्प पूजा करने वालों की एक संगठित संप्रदाय के रुप में उत्पत्ति मध्य एशिया के सायथीयन के बीच से हुई है, जिन्होने इसे दुनियाभर में फैलाया. वे सर्प को राष्ट्रीय प्रतीक के रुप में उपयोग करने के आदि थे. इस संबंध में यह भी सुझाव दिया गया है कि भारत में आए प्रोटो-द्रविड़ियन (आद्य-द्रविड़), सायथियन जैसी ही भाषा बोलते थे जिसका आधुनिक शब्दावली में अर्थ होता था फ़िनलैंड मे बसने वाले कबीलों के परिवार की भाषा. (फिनो-अग्रिअन भाषाओं का परिवार).

यह अवलोकन १९  वीं शताब्दी के द्रविड़ भाषओं के अधिकारी कॅल्डवेल के साथ शुरू हुआ और जिसे ऑक्सफ़ोर्ड के प्रोफेसर टी. बरौ का समर्थन मिला. वहीं दूसरी ओर एस. सी. रॉय एवं अन्य ने सुझाव दिया कि प्रोटो-द्रविड़ियन (आद्य-द्रविड़) भूमध्यसागर की जाति के आदिम प्रवासी थे जिनका भारत के सर्प संप्रदाय में योगदान रहा. इसलिए इस संप्रदाय की उत्पत्ति और प्रसार के सिद्धांतो में बहुत मतभेद मिलता है, जिनमें से कोई भी पूर्णरूपेण स्वीकार्य नहीं है, इसके अलावा नाग की पूजा मानव जगत में व्यापक रूप से प्रचलित थी.

सायथीयन का दावा दो कारणों से ठहर नहीं सकता, पहला नाग पूजा का जो सिद्धांत भारत लाया गया वह मात्र द्रविड़ और फिनो-अग्रिअन भाषाओं की सतही समानता पर आधारित है और मध्य एशिया के आक्रमण का कोई ऐतिहासिक उदाहरण नहीं मिलता. नवीनतम पुरातात्विक और आनुवंशिक निष्कर्ष ने यह सिद्ध कर दिया है कि दूसरी सहस्राब्दी ई.पू. का आर्य आक्रमण/प्रवास सिद्धांत एक मिथक है. दूसरा, मध्य एशिया में सामान्य सर्प संप्रदाय का इस बात के अलावा कोई अंश नहीं मिलता कि वे साँपों का गहने या प्रतीक के रुप में उपयोग करते थे.

नाग सामान्य महत्व से अधिक शक्तिशाली और व्यापक लोग थे, जो आदिम समय से भारत के विभिन्न भागों में आजीविका चलाते दिखाई देते थे. संस्कृत में नाग नाम से बुलाये जाने से पहले वे किस नाम से जाने जाते थे ये ज्ञात नहीं है. द्रविड़ भाषा में नाग का अर्थ ‘पंबु’ या ‘पावु’ होता है. कदाचित ‘पावा’ नाम उत्तरी भारत के शहरों में से किसी एक से लिया गया था जो मल्ल की राजधानी हुआ करती थी और बुद्ध के समय में यहाँ निवास करनेवालों ने कबीले के पुराने नाम ‘नाग’ को बनाए रखा था. यह भी संभव है कि जैसे ‘मीना’ का नाम ‘मत्स्य’ में परिवर्तित हुआ, ‘कुदगा’ का ‘वानर’ में उसी तरह बाद में आर्यों द्वारा,’पावा’ (जिसका अर्थ है नाग) का नाम ‘नाग’ में परिवर्तित किया गया और संस्कृतज्ञ द्वारा समय के साथ साँप पालने वाले को नाग कहा जाने लगा.

हड़प्पा में खुदाई से मिले कुछ अवशेष अधिक रुचिकर है क्योंकि यह समकालीन लोगों के धार्मिक जीवन में सर्प के महत्व को अधिक से अधिक उजागर करते हैं. उनमें से एक छोटी सुसज्जित मेज है (faience tablet) है जिस पर एक देव प्रतिमा के दोनों ओर घुटने टेककर आदमी द्वारा पूजा की जा रही है. प्रत्येक उपासक के पीछॆ एक कोबरा अपना सिर उठाए और फन फैले दिखाई देता है जो प्रत्यक्ष रुप से यह दर्शाता है कि वह भी प्रभु की आराधना में साथ दे रहा है. इसके अलावा चित्रित मिट्टी के बर्तन भी पाए गए जिनमें से कुछ पर सरीसृप चित्रित थे, नक्काशी किया हुआ साँप का चित्र, मिट्टी का ताबीज जिस पर एक सरीसृप के सामने एक छोटी मेज पर दूध जैसी कोई भेंट दिखाई देती है.

हड़प्पा में भी एक ताबीज पाया गया जिस पर एक गरुड़ के दोनों ओर दो नागों को रक्षा में खड़े हुए चित्रित किया गया है. ऊपर दी गई खोज सिंधु घाटी के लोगों की पूजा में साँप के होने के तथ्य को इंगित करती है, केनी के अनुसार आवश्यक रुप से ख़ुद पूजा की वस्तु के रुप में ना सही, और उस क्षेत्र में नाग टोटेम वाले लोग होना चाहिए.

महाभारत में दिए वर्णन के अनुसार नाग जो कि कश्यप और कद्रु की संतान है, रमणियका की भूमि जो समुद्र के पार थी, पर बहुत गर्मी, तूफान और बारिश का सामना करने के बाद पहुँचे थे, ऐसा माना जाता है कि नाग मिस्र द्वारा खोजे गए देश की ओर चले गए थे. ये कहा जाता है कि वे गरुड़ प्रमुख के नेतृत्व में आगे बढ़े थे. चाहे यह सिद्धांत स्वीकार्य हो या ना हो यह जानना रुचिकर है कि मिस्र के फरौह (pharaohs of egypt -प्राचीन मिस्त्र के राजाओं की जाति या धर्म या वर्ग संबंधी नाम) कुछ हद तक बाज़ या गरुड़ और सर्प से संबंधित थे.

नाग आर्य थे या गैर-आर्य, इस प्रश्न के उत्तर में बहुत कुछ लिखा गया और अधिकतर विद्वानों का यही मानना है कि आर्यों के भारत में आने से पहले नाग द्रविड़ थे जो भारत के उत्तरी क्षेत्र में रहते थे. आर्यन आव्रजन सिद्धांत के विवाद में प्रवेश के बिना, जो नवीनतम शोधकर्ता द्वारा मिथक साबित हुई है यह इंगित किया जा सकता है कि नाग सिर्फ साँप जो कि उनका टोटेम था ना कि पूजा के लिए आवश्यक वस्तु, की पूजा की वजह से गैर-आर्य लोग नहीं थे. वे गैर-आर्य कबीले के थे चाहे वे साँप की पूजा करते थे या नहीं. कबीले के टोटेम के रुप में सर्प और पूजा की एक वस्तु के रुप में सर्प, ये दो अलग कारक है. पहले कारक को स्वीकार करने के लिए दूसरे को स्वीकार करना आवश्यक नहीं है. प्राचीन भारत के संपूर्ण इतिहास में यह पर्याप्त रुप से सिद्ध कर दिया गया है कि नाग के टोटेम को अपनाने वाले सत्तारूढ़ कबीले/राजवंश नाग की पूजा करनेवाले और गैर-आर्य हो ये आवश्यक नहीं है.

प्राचीन भारत के दौरान, उत्तरी भारत का सबसे अधिक भाग नागों द्वारा बसा हुआ था. ऋग्वेद में व्रित्र और तुग्र के लिए स्थान है. महाभारत कई नाग राजाओं के शोषण के विवरण से भरा है . महान महाकाव्य इन्द्रप्रस्थ या पुरानी दिल्ली के पास जमुना की घाटी में महान खांडव जंगल में रहने वाले राजा तक्षक के तहत नाग के ऐतिहासिक उत्पीड़न के साथ खुलता है.
वास्तव में नाग कबीले या जनजाति के कई बहुत शक्तिशाली राजा थे जिनमें सबसे अधिक ज्ञात थे शेषनाग या अनंत, वासुकि, तक्षक, कर्कोटक, कश्यप, ऐरावत, कोरावा और धृतराष्ट्र, जो सब कद्रु से पैदा हुए थे. धृतराष्ट्र जो सभी नागों के अग्रणी थे उनके अकेले के अपने अनुयायियों के रूप में अट्ठाईस नाग थे. उत्तर भारत में नाग के अस्तित्व को साबित करने के लिए जातक (jatakas) में भी उल्लेखों की कमी नहीं है.

इक्ष्वाकु (iksvauku) वंश के महान राजा पाटलिपुत्र के प्राचीन नाग थे. भारत राजाओं को भी सर्प जाति में सम्मिलित किया गया था. महान राजा ययति, समान रुप से महान राजा पुरु के पिता, नहुसा नाग के पुत्र और अस्तक के नाना थे. पाँच पाँडव भाई भी नाग आर्यक या अर्क के पोते के पोते थे. फिर इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि अर्जुन ने नाग राजकुमारी युलूपि से विवाह किया.

यादव भी नाग थे. ना केवल कुंती बल्कि पाँच वीर पाँडव की माता और कृष्ण की चाची, कृष्ण तो नाग प्रमुख आर्यक जो कि वासुदेव के महान दादा और यादव राजा के पितृ थे, के सीधे वंशज थे. बल्कि उनके बड़े भाई बलदेव के सिर को विशाल साँपों से ढँका हुआ प्रस्तुत किया गया है, जिसे वास्तव में छत्र कहा जाता था, जो महान राजाओं की पहचान में भेद के लिए होता था. बलदेव को शेषनाग का अंश कहा जाता है, जिसका अर्थ है या तो वह महान शेषनाग का कोई संबंधी है या उनके जितना शक्तिशाली. चूंकि यादव कुल के इन दो सूरमाओं के मामा कंस, मगध के जरासंध राजा ब्रहद्रथ के दामाद थे, हम देखते हैं कि मगध के प्राचीन राज्यवंश में भी नाग शासक के रूप में थे, जिन्हें ब्रहद्रथ कहा गया.

पुराण के अनुसार मगध के बर्हद्रथ प्रद्योत द्वारा जीत लिए गए, जो बदले में शिशुनाग के अनुयायी हुए. कई लेखकों ने ठीक ही कहा है, कि शिशुनाग में मगध के पास एक नाग राजवंश उस पर शासन करने के लिए था. शिशुनाग शब्द अपने आप में ही बहुत महत्वपूर्ण है. बर्हद्रथ राजवंश जो कि एक नाग राजवंश था, के पतन के बाद एक अन्य राजवंश सत्तारूढ़ हुआ, जिसे प्रद्योत राजवंश कहा गया. परंतु यह राजवंश जो कि अपने पूर्ववर्ति नाग राजवंश से बिल्कुल भिन्न था, शिशुनाग राजवंश जैसे कि उसके नाम से ही पता चलता है कि एक नाग राजवंश है, द्वारा फिर से पराजित हुई. अर्थात प्रद्योत के एक छोटे से अंतराल के बाद नाग एक बार फिर सत्ता में आया. यह शिशुनाग बर्हद्रथ राजवंश के प्राचीन नागों के ही अनुयायी थे. प्राचीन सीनियर नाग बर्हद्रथ के अनुयायी होने के कारण सत्ता में आने के बाद एक बार फिर वे शिशुनाग या जूनियर नाग के रूप में पहचाने जाने लगे. नागओ द्वारा रक्षित बौद्ध परंपरा जो कि शिशुनाग की संस्थापक बल्कि पुंर्स्थापक थी, ने शिशुनाग की उत्पत्ति के बारे में यही सिद्ध किया है कि वह नाग थे.

यहाँ तक कि चंद्रगुप्त मौर्य भी नाग वंश के अंतर्गत माने जाते हैं. सिंधु घाटी को पार करने के बाद सिकंदर I (Alexander I) जिन लोगों के संपर्क में आया वे भी नाग थे.

एक नवगीत

सामयिक नवगीत
*
नाग, साँप,  बिच्छू भय ठाँड़े,
धर संतन खों भेस।
*
हात जोर रय, कान पकर रय,
वादे-दावे खूब।
बिजयी हो झट कै दें जुमला,
मरें नें चुल्लू डूब।।
की को चुनें, नें कौनउ काबिल,
सरम नें इनमें लेस।
*
सींग मार रय, लात चला रय,
फुँफकारें बिसदंत।
डाकू तस्कर चोर बता रय,
खुद खें संत-महंत।
भारत मैया हाय! नोच रइ
इनैं हेर निज केस।
*
जे झूठे, बे लबरा पक्के,
बाकी लुच्चे-चोर।
आपन मूँ बन रय रे मिट्ठू,
देख ठठा रय ढोर।
टी वी पे गरिया रय
भत्ते बढ़वा, लोभ असेस।
*
संजीव,
२६-११-२०१८

रविवार, 25 नवंबर 2018

karyashala

कार्यशाला
प्रश्न- मीना धर द्विवेदी पाठक
लै ड्योढ़ा ठाढ़े भये श्री अनिरुद्ध सुजान
बाणासुर की सेन को हनन लगे भगवान
इसका अर्थ क्या है?
ड्योढ़ा = ?
*
प्रसंग
श्री कृष्ण के पुत्र अनिरुद्ध पर मोहित होकर दानवराज बाणासुर की पुत्री उषा उसे अचेत कर ले गई और महल में बंदी कर लिया। ज्ञात होने पर कृष्ण उसे छुड़ाने गए। भयंकर युद्ध हुआ।
शब्दार्थ
ड्योढ़ी = देहरी या दरवाज़ा
ड्योढ़ा = डेढ़ गुना, सामान्य से डेढ़ गुना बड़ा दरवाज़ा। दरवाजे को बंद करने के लिए प्रयोग किये जाने वाले आड़े लंबे डंडे को भी ड्योढ़ा कहा जाता है।
पदार्थ
श्री अनिरुद्ध ड्योढ़ा लेकर खड़े हुए और कृष्ण जी बाणासुर की सेना को मारने लगे।
भावार्थ
कृष्ण जी अनिरुद्ध को छुड़ाने के लिए बाणासुर के महल पर पहुँचे। यह जानकर अनिरुद्ध दरवाज़ा बंद करने के लिए प्रयोग किये जानेवाले डंडे को लेकर दरवाजे पर आ गये। बाणासुर की सेना ने रोका तो भगवान सेना का वध करने लगे।
*
संजीव,
२० - ११ - २०१८

शनिवार, 24 नवंबर 2018

एक गीत

एक रचना
*
तेवरी के तेवर का राज
बदल दे सारा देश-समाज।
*
न जनगण से रह पाए दूर
झुका चरणों में आकर ताज।
बेर शबरी के चखने राम
प्रकट हों कलि में भी इस व्याज।
न वादों-जुमलों को दो बख्श
न चाहो श्रम बिन मिले अनाज।
हमीं लाएँगे सत्य-सुराज
संग हो न्यारा देश-समाज।
*
धर्म-मजहब अपना है एक
बचाना हर आँचल की लाज।
न भूखा सोए कोई पेट
हाथ हर कर पाए हर काज।
बनाएँ कल से कल के बीज
सेतु हम कोशिश कर-कर आज।
समय नभ जन आकांक्षा बाज
उड़े मिल प्यारा देश-समाज ।
*
छंद- रस-लय मिल बन नवगीत
बना दें दिलवर का दिल साज।
न मंदिर-मस्जिद में हो कैद
देश के सपनों की आवाज।
सराहे सारी दुनिया नित्य
हिंद-हिंदी का नव अंदाज।
नए सपनों का हो आगाज
गगन का तारा देश-समाज।
***
संजीव
२४-११-२०१८

साहित्य त्रिवेणी के रचनाकार नाम-पते

साहित्य त्रिवेणी के रचनाकार 
अतिथि संपादक
१. डॉ. इला घोष, २१ आदित्य कॉलोनी, नर्मदा मार्ग जबलपुर म.प्र., चलभाष ९८९३७९८७७२  narayandutt41@gmail.com
* २. संजीव वर्मा 'सलिल' salil.sanjiv@gmail.com 
३. डॉ. सरस्वती माथुर ए २ हवा सड़क, सिविल लाइन जयपुर ६ राजस्थान, jlmathur@hotmail.com 
४. बीनू भटनागर, binu.bhatnagar@gmail.com
* ४. सुरेन्द्र सिंह पवार, २०१ शास्त्री नगर, गाढ़ा, जबलपुर म. प्र.चल. ९३००१०४२९६ / ७०००३८८३३२, pawarss2506 @gmailcom 
* ५. डॉ. साधना वर्मा, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ म. प्र., चल. ०७९९९८५४३५४ 
* ६. डॉ. प्रवीण श्रीवास्तव, ५०१ चर्च मार्ग, सिविल लाइंस, सीतापुर उ. प्र.  <drpraveenkumar.00@gmail.com>
* ७. डॉ. वसुंधरा उपध्याय, सहा. प्राध्यापक, हिंदी विभाग, एल. एस.एम. रा. स्नातकोत्तर महाविद्यालय, पिथौरागढ Basundhara Upadhyay <basu1577@gmail.com>
* ८. छाया सक्सेना 'प्रभु', १२ माँ नर्मदे नगर, फेज १, बिलहरी जबलपुर म. प्र.चल. ९४०६०३४७०३, chhayasaxena2508@gmail.com
* ९. आदर्शिनी श्रीवास्तव, १/८१ फेज १, श्रद्धापुरी, कंकडख़ेड़ा, मेरठ २५०००१ उ. प्र. चल. ९४१०८८७७९४, ८७५५९६७५६७ srivastava.adarshini@gmail.com  
= १०. अंबरीश श्रीवास्तव 'अंबर', ९१ आगा कॉलोनी, सिविल लाइंस, सीतापुर  उ. प्र. चल. ९४१५०४७०२०, ८८५३२७३०६६, ८२९९१३२२३७ ambarishji@gmail.com    
११. अरुण कुमार निगम, एच.आई.जी. १/२४, आदित्य नगर, दुर्ग ४९१००१ छत्तीसगढ़, चल. ८३१९९१५१६८, ९९०७१७४३३४ arun.nigam@gmail.com / <arun.nigam56@gmail.com>
१२. रमेश कुमार सिंह चौहान, मिश्रपारा, नवागढ़, बेमेतरा ४९१३३७ छत्तीसगढ़ चल. ९९७७०६९५४५, ८८३९०२४८७१ <rkdevendra4@gmail.com>
=१३. आशा शैली, साहित्य सदन, जेड सेक्टर, इंदिरा नगर २, डाकघर लालकुआं, नैनीताल २६२४०२ उत्तराखंड चल ९४५६३१७१५०, ०७०५५३३६१६८, ८९५८११०८५९ <asha.shaili@gmail.com>
* १४. चंद्रकांता अग्निहोत्री ४०४ सेक्टर ६ पंचकूला १३४१०९ हरियाणा चल. ९८७६६५०२४८ agnihotri.chandra@gmail.com 
* १५. डॉ. ब्रम्हजीत गौतम, युक्का २०६ पैरामाउंट सिम्फनी, क्रॉसिंग रिपब्लिक, गाज़ियाबाद २०१०१६ चल ९७६०००७८३८, ९४३५१०२१५४ bjgautam2007@gmail.com 
* १६. विवेक रंजन श्रीवास्तव, ए १ शिलाकुंज, रामपुर जबलपुर ४८२००८ चल. ७०००३७५७९८ vivekranjan.vinamra@gmail.com 
१७. सुषमा निगम, 
= १८. अन्नपूर्णा बाजपेयी, अन्नपूर्णा बाजपेयी अंजू,२७८, प्रभांजलि, विराट नगर, जी टी, रोड अहिरवां, कानपुर २०८००७ उ.प्र.   <annapurna409@gmail.com>
* १९. प्रो. किरण श्रीवास्तव डी १०५ शैलेन्द्र नगर, रायपुर छत्तीसगढ़ 
२०. मीना धर, ४३७ दामोदर नगर, बर्रा, कानपूर २०८०२७ चल. ९८३८९४४७१८ meenadhardwivedi1967@gmail.com  
* २१. बसंत कुमार शर्मा, ३५४ रेलवे डुप्लेक्स बंगला, फेथ वेली स्कूल के सामने, पचपेढ़ी, दक्षिण सिविल लाइंस, जबलपुर ४८२००१ चल ९७५२४१५९०७ basant5366@gmail.com  
= २२. पुष्पा सक्सेना, द्वारा डॉ. ओ. पी. सक्सेना, साकेत नगर ग्वालियर म.प्र.  
२३. सविता वर्मा 'ग़ज़ल', २३० कृष्णपुरी, मुज़्ज़फरपुर २५१००१ उ. प्र. चल. ०८७५५३१५५५ <savita.gazal@gmail.com>
२४. कुमार गौरव अजितेंदु, द्वारा- श्री नवेन्दु भूषण कुमार, शाहपुर, समीप ठाकुरबाड़ी मोड़, डाकघर दाउदपुर, दानापुर कैंट, पटना ८०१५०२ बिहार चल. ९६३१६५५१२९ gauravajeetendu@gmail.com 
* २५. राजेंद्र वर्मा, के ३/२९ विकास नगर, लखनऊ उ. प्र२२६०२२ चल. ८००९६६००९६ rajendrapverma@gmail.com 
२६. उपासना उपाध्याय, भातखण्डे संगीत महाविद्यालय, समीप मदन महल स्टेशन, नेपियर टाउन जबलपुर म. प्र. 
* २७. डॉ. रामसनेही लाल शर्मा 'यायावर', ८६ तिलक नगर, बाई पास मार्ग, फ़िरोज़ाबाद २८३२०३ उ. प्र. चल. ९४१२३१६७७९ dryayavar@gmail.com  
२८. डॉ. श्यामसनेही लाल शर्मा, ११८ नित्या एंक्लेव, निकट दाऊदयाल स्टेडियम, जलेसर मार्ग, फीरोजाबाद २८३२०३ चल. ९८२६६३००२९, ssslsharma@gmail.com 
२९. देबू  बंदोपाध्याय, जयंतीपुर, पश्चिम मेदिनीपुर ७२१२०१ चल. ९५६४१९३४६५ 
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बंधुवर! 
दुःख के साथ सूचित कर रहा हूँ कि छंद विशेषांक में लेख लिखनेवाली डॉ. सरस्वती माथुर जयपुर का गत माह निधन हो गया। उन्हें यह अंक देखने को नहीं मिला सका। 
साहित्य त्रिवेणी के अंक निम्न को अभी तक नहीं मिले हैं- 
१. अंबरीश श्रीवास्तव 'अंबर', ९१ आगा कॉलोनी, सिविल लाइंस, सीतापुर  उ. प्र. चल. ९४१५०४७०२०, ८८५३२७३०६६, ८२९९१३२२३७ ambarishji@gmail.com 
२. अन्नपूर्णा बाजपेयी, अन्नपूर्णा बाजपेयी अंजू,२७८, प्रभांजलि, विराट नगर, जी टी, रोड अहिरवां, कानपुर २०८००७ उ.प्र.   <annapurna409@gmail.com>