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गुरुवार, 30 जुलाई 2009

सिपाही तुम स्वदेश की शान !

मैं पिताजी प्रो.चित्र भूषण श्रीवास्तव विदग्ध जी की पहली रचना की खोज में था .... पुलिस पत्रिका वर्ष ३ अंक ११ नवम्बर १९४९ के पृष्ठ १ पर प्रकाशित यह रचना मिली ...पत्रिका के कोनो में दीमक लग रही थी ...शुक्रिया ब्क्स्लग की ताकत का कि अब यह रचना चिर सुसंचित रह सकेगी ....
आरक्षी दल के सिपाही से
चित्र भूषण श्रीवास्तव विदग्ध
सिपाही तुम स्वदेश की शान !
तुम पर आधारित जनता के अरमान
शांति व्यवस्था और सुरक्षा का तुम पर भार पड़ा है
तुम खुद को छोटा मत समझो , छोटे का अधिकार बड़ा है
तुम से है समाज संचालित , तुम समाज के प्राण
सिपाही तुम स्वदेश की शान !

बूंद बूंद जल के मिलने से सागर का निर्माण हुआ है
सच्चे सदा सिपाही दल से ही स्वदेश बलवान हुआ है
कर्म निष्ठ बन , धर्म निष्ठ बन राखो अपनी आन
सिपाही तुम स्वदेश की शान !
सत्य धैर्य औ नीति निपुणता सदा तुम्हारा प् दिखलायें
किन्तु शत्रु के लिये निठुरता पौरुष तुम में आश्रय पाये
भारत के विद्रोही जग में रह न सकें सप्राण
सिपाही तुम स्वदेश की शान !
वर्षों का फैला अंधियारा मानस मंदिर से मिट जाये
मातृ प्रेम का विषद दीप अब जन मन में प्रकाश फैलाये
मां का मान न घटने पाये , हो चाहे बलिदान
सिपाही तुम स्वदेश की शान !

बस अपने कर्तव्य प् के तुम निधड़क राही बन जाओ
देख हठीली विपदाओ को भी न तनिक तुम घबराओ
कर दो अंकित मेरु शिखर पर भी निज चरण निशान
सिपाही तुम स्वदेश की शान !

राष्ट्र ध्वजा लहरा लहरा कर तुम से रोज कहा करती है
शाम सबेरे बिगुल तुम्हारी रोज पुकार यही करती है
कदम कदम बढ़े चलो भारत के अभिमान
सिपाही तुम स्वदेश की शान !

बुधवार, 29 जुलाई 2009

नर्मदे हर हर हर नर्मदे



नर्मदे हर हर हर नर्मदे
अंशलाल पंद्रे
नर्मदे हर हर हर नर्मदे
मध्ये गंगे हर नर्मदे
अमरकंटक प्रकट्य सलिला
भड़ौच सागरमय सलिला
नर्मदे हर ...
मैकल सुता रेवा दिव्या
जल रूप हे देवी धन्या
नर्मदे हर ...
जन जन कल्याणी सुखजन्या
संपूर्ण जगतमय पूजन्या
नर्मदे हर ...
कंकड़ हर शंकर नर्मदेश्वर
ज्योतिर्लिंग ओंकारेश्वर
नर्मदे हर ...
माहात्म्य नर्मदा प्रदक्षिणा
सर्व सिद्धि दायिनि मोक्षणा
नर्मदे हर ...

लघु कथा: विजय दिवस

लघु कथा

विजय दिवस

आचार्य संजीव 'सलिल'

करगिल विजय की वर्षगांठ को विजय दिवस के रूप में मनाये जाने की खबर पाकर एक मित्र बोले-

'क्या चोर या बदमाश को घर से निकाल बाहर करना विजय कहलाता है?'

''पड़ोसियों को अपने घर से निकल बाहर करने के लिए देश-हितों की उपेक्षा, सीमाओं की अनदेखी, राजनैतिक मतभेदों को राष्ट्रीयता पर वरीयता और पड़ोसियों की ज्यादतियों को सहन करने की बुरी आदत (कुटैव या लत) पर विजय पाने की वर्ष गांठ को विजय दिवस कहना ठीक ही तो है.'' मैंने कहा.

'इसमें गर्व करने जैसा क्या है? यह तो सैनिकों का फ़र्ज़ है, उन्हें इसकी तनखा मिलती है.' -मित्र बोले.

'''तनखा तो हर कर्मचारी को मिलती है लेकिन कितने हैं जो जान पर खेलकर भी फ़र्ज़ निभाते हैं. सैनिक सीमा से जान बचाकर भाग खड़े होते तो हम और आप कैसे बचते?''

'यह तो सेना में भरती होते समय उन्हें पता रहता है.'

पता तो नेताओं को भी रहता है कि उन्हें आम जनता-और देश के हित में काम करना है, वकील जानता है कि उसे मुवक्किल के हित को बचाना है, न्यायाधीश जानता है कि उसे निष्पक्ष रहना है, व्यापारी जानता है कि उसे शुद्ध माल कम से कम मुनाफे में बेचना है, अफसर जानता है कि उसे जनता कि सेवा करना है पर कोई करता है क्या? सेना ने अपने फ़र्ज़ को दिलो-जां से अंजाम दिया इसीलिये वे तारीफ और सलामी के हकदार हैं. विजय दिवस उनके बलिदानों की याद में हमारी श्रद्धांजलि है, इससे नयी पीढी को प्रेरणा मिलेगी.''

प्रगतिवादी मित्र भुनभुनाते हुए सर झुकाए आगे बढ़ गए..

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मंगलवार, 28 जुलाई 2009

दो कवि - दो रंग. प्राण शर्मा और आचार्य संजीव 'सलिल' की रचनाएँ

Monday, 20 July 2009

इंग्लैंड निवासी श्री महावीर शर्मा तथा श्री प्राण शर्मा श्रेष्ठ लेखन के साथ-साथ स्तरीय प्रकाशन के द्वारा विश्व के हिन्दी रचनाकारों को एक मंच पर लाकर हिन्दी के उन्नयन में संलग्न हैं. २० जुलाई को उनके चिट्ठे पर 'तितलियाँ' शीर्षक से प्रकाशित दो रचनाएँ तथा उन पर मिली प्रतिक्रियाएँ साभार प्रस्तुत हैं. पाठक 'तितलियाँ' शीर्षक से पद्य विधा की रचनाएँ प्रकाशनार्थ भेजें- सं.

दो कवि - दो रंग. प्राण शर्मा और आचार्य संजीव 'सलिल' की रचनाएँ

http://mahavirsharma.blogspot.com/ से साभार


प्राण शर्मा की ग़ज़ल:

तितलियाँ :

होते ही प्रातःकाल आजाती हैं तितलियाँ
मधुबन में खूब धूम मचाती हैं तितलियाँ


फूलों से खेलती हैं कभी पत्तियों के संग
कैसा अनोखा खेल दिखाती है तितलियाँ


बच्चे, जवान, बूढ़े नहीं थकते देख कर
किस सादगी से सब को लुभाती हैं तितलियाँ


सुन्दरता की ये देवियाँ परियों से कम नहीं
मधुबन में स्वर्ग लोक रचाती हैं तितलियाँ


उड़ती हैं किस कमाल से फूलों के आर पार
दीवाना हर किसी को बनाती हैं तितलियाँ


वैसा कहाँ है जादू परिंदों का राम जी
हर ओर जैसा जादू जगाती है तितलियाँ

इनके ही दम से 'प्राण' हैं फूलों की रौनकें
फूलों को चार चांद लगाती हैं तितलियाँ




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आचार्य संजीव 'सलिल' की गीतिका

तितलियाँ

यादों की बारात तितलियाँ.

क़ुदरत की सौगात तितलियाँ..

बिरले जिनके कद्रदान हैं.

दर्द भरे नग्मात तितलियाँ..

नाच रहीं हैं ये बिटियों सी

शोख़-जवां जज़्बात तितलियाँ..

बद से बदतर होते जाते.

जो, हैं वे हालात तितलियाँ..

कली-कली का रस लेती पर

करें न धोखा-घात तितलियाँ..

हिल-मिल रहतीं नहीं जानतीं

क्या हैं शह औ' मात तितलियाँ..

'सलिल' भरोसा कर ले इन पर

हुईं न आदम-जात तितलियाँ



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शुक्रवार, 24 जुलाई 2009

प्रो. दिनेश खरे के निधन पर शोक गीत: संजीव 'सलिल'

शोक गीत:
-आचार्य संजीव 'सलिल'
(प्रसिद्ध कवि-कथाकार-प्रकाशक, स्व. डॉ. (प्रो.) दिनेश खरे, विभागाध्यक्ष सिविल इंजीनियरिंग, शासकीय इंजीनियरिंग महाविद्यालय जबलपुर, सचिव इंडियन जियोटेक्नीकल सोसायटी जबलपुर चैप्टर के असामयिक निधन पर )

नर नहीं,
नर-रत्न थे तुम,
समय कीमत
कर न पाया...
***
विरल थी
प्रतिभा तुम्हारी.
ज्ञान के थे
तुम पुजारी.
समस्याएँ
बूझते थे.
रूढियों से
जूझते थे.
देव ने
क्षमताएँ अनुपम
देख क्या
असमय बुलाया?...
***
नाथ थे तुम
'निशा' के पर
शशि नहीं,
'दिनेश' भास्वर.
कोशिशों में
गूँजता था
लग्न-निष्ठा
वेणु का स्वर.
यांत्रिकी-साहित्य-सेवा
दिग्-दिगन्तों
यश कमाया...
***
''शीघ्र आऊंगा''
गए-कह.
कहो तो,
हो तुम कहाँ रह?
तुम्हारे बिन
ह्रदय रोता
नयन से
आँसू रहे बह.
दूर 'अतिमा' से हुए-
'कौसुन्न' को भी
है भुलाया...
***
प्राण थे
'दिनमान' के तुम.
'विनय' के
अभिमान थे तुम.
'सुशीला' की
मृदुल ममता,
स्वप्न थे
अरमान थे तुम.
दिखाए-
सपने सलोने
कहाँ जाकर,
क्यों भुलाया?...
***
सीख कुछ
तुमसे सकें हम.
बाँट पायें ख़ुशी,
सह गम.
ज्ञान दें,
नव पीढियों को.
शान दें
कुछ सीढियों को.
देव से
जो जन्म पाया,
दीप बन
सार्थक बनाया.
***
नर नहीं,
नर-रत्न थे तुम,
'सलिल' कीमत
कर न पाया...
***

गुरुवार, 23 जुलाई 2009

अमर शहीद चन्द्र शेखर आजाद जयंती पर विशेष रचना

अमर शहीद चन्द्र शेखर आजाद जयंती पर विशेष नवगीत:

आचार्य संजीव 'सलिल'

तुम
गुलाम देश में
आजाद हो जिए
और हम
आजाद देश में
गुलाम हैं....

तुम निडर थे
हम डरे हैं,
अपने भाई से.
समर्पित तुम,
दूर हैं हम
अपनी माई से.
साल भर
भूले तुम्हें पर
एक दिन 'सलिल'
सर झुकाए बन गए
विनत सलाम हैं...

तुम वचन औ'
कर्म को कर
एक थे जिए.
हमने घूँट
जन्म से ही
भेद के पिए.
बात या
बेबात भी
आपस में
नित लड़े.
एकता?
माँ की कसम
हमको हराम है...

आम आदमी
के लिए, तुम
लड़े-मरे.
स्वार्थ हित
नेता हमारे
आज हैं खड़े.
सत्ता साध्य
बन गयी,
जन-देश
गौड़ है.
रो रही कलम
कि उपेक्षित
कलाम है...

तुम
गुलाम देश में
आजाद हो जिए
'सलिल' हम
आजाद देश में
गुलाम हैं....
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बुधवार, 22 जुलाई 2009

तेवरी, मुक्तिका, गीतिका या गजल

गीतिका

आचार्य संजीव 'सलिल'

आते देखा खुदी को जब खुदा ही जाता रहा.
गयी दौलत पास से क्या, दोस्त ही जाता रहा.

दर्दे-दिल का ज़िक्र क्यों हो?, बात हो बेबात क्यों?
जब ये सोचा बात का सब मजा ही जाता रहा.

ठोकरें हैं राह का सच, पूछ लो पैरों से तुम.
मिली सफरी तो सफर का स्वाद ही जाता रहा.

चाँद को जब तक न देखा चाँदनी की चाह की.
शमा से मिल शलभ का अरमान ही जाता रहा

'सलिल' ने मझधार में कश्ती को तैराया सदा.
किनारों पर डूबकर सम्मान ही जाता रहा..

मंगलवार, 21 जुलाई 2009

विशेष लेख : संगीता पुरी

vishesh

पृथ्‍वी के जड चेतन पर सूर्य या चंद्रग्रहण के प्रभाव का क्‍या है सच ???????


आप दुनिया को जिस रूप में देख पाते हैं, उसी रूप में उसका चित्र उतार पाना मुश्किल होता है, चाहे आप किसी भी साधन से कितनी भी तन्‍मयता से क्यों न कोशिश करें? इसका मुख्‍य कारण यह है कि आप हर वस्‍तु को देखते तो त्रिआयामी हैं, यानि हर वस्‍तु की लंबाई और चौडाई के साथ साथ ऊंचाई या मोटाई भी होती है, पर चित्र द्विआयामी ही ले पाते हैं, जिसमें वस्‍तु की सिर्फ लंबाई और चौडाई होती है। इसके कारण किसी भी वस्‍तु की वास्‍तविक स्थिति दिखाई नहीं देती है।



इसी प्रकार जब हम आकाश दर्शन करते हैं, तो हमें पूरे ब्रह्मांड का त्रिआयामी दर्शन होता है । प्राचीन गणित ज्‍योतिष के सूत्रों में सभी ग्रहों की आसमान में स्थिति का त्रिआयामी आकलण ही किया जाता है, इसी कारण सभी ग्रहों के अपने पथ से विचलन के साथ ही साथ सूर्य के उत्‍तरायण और दक्षिणायण होने की चर्चा भी ज्‍योतिष में की गयी है। पर ऋषि-महर्षियों ने जन्‍मकुंडली निर्माण से लेकर भविष्‍य-कथन तक के सिद्धांतों में कहीं भी आसमान के त्रिआयामी स्थिति को ध्‍यान में नहीं रखा है । इसका अर्थ यह है कि फलित ज्‍योतिष में आसमान के द्विआयामी स्थिति भर का ही महत्‍व है। शायद यही कारण है कि पंचांग में प्रतिदिन के ग्रहों की द्विआयामी स्थिति ही दी होती है। ‘गत्‍यात्‍मक ज्‍योतिष’ भी ग्रहों के पृथ्‍वी के जड चेतन पर पडने वाले प्रभाव में ग्रहों की द्विआयामी स्थिति को ही स्‍वीकार करता है। इस कारण सूर्यग्रहण या चंद्रग्रहण से प्रभावित होने का कोई प्रश्‍न ही नहीं उठता ?



हम सभी जानते हैं कि आसमान में प्रतिमाह पूर्णिमा को सूर्य और चंद्र के मध्‍य पृथ्‍वी होती है, जबकि अमावस्‍या को पृथ्‍वी और सूर्य के मध्‍य चंद्रमा की स्थिति बन जाती है, लेकिन इसके बावजूद प्रतिमाह सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण नहीं होता। इसका कारण भी यही है। आसमान में प्रतिमाह वास्‍तविक तौर पर पूर्णिमा को सूर्य और चंद्र के मध्‍य पृथ्‍वी और हर अमावस्‍या को पृथ्‍वी और सूर्य के मध्‍य चंद्रमा की स्थिति नहीं बनती है । यह तो हमें मात्र उस चित्र में दिखाई देता है, जो द्विआयामी ही लिए जाते हैं। इस कारण एक पिंड की छाया दूसरे पिंड पर नहीं पडती है। जिस माह वास्‍तविक तौर पर ऐसी स्थिति बनती है, एक पिंड की छाया दूसरे पिंड पर पडती है और इसके कारण सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण होते है।



सूर्यग्रहण के दिन चंद्रमा सूर्य को पूरा ढंक लेता है, जिससे उसकी रोशनी पृथ्‍वी तक नहीं पहुंच पाती, तो दूसरी ओर चंद्रग्रहण के दिन पृथ्‍वी सूर्य और चंद्रमा के मध्‍य आकर सूर्य की रोशनी चंद्रमा पर नहीं पडने देती है । सूर्य और चंद्र की तरह ही वास्‍तविक तौर पर समय-समय पर अन्‍य ग्रहों की भी आसमान में ग्रहण सी स्थिति बनती है, जो विभिन्‍न ग्रहों की रोशनी को पृथ्‍वी तक पहुंचने में बाधा उपस्थित करती है। पर चूंकि अन्‍य ग्रहों की रोशनी से जनसामान्‍य प्रभावित नहीं होते हैं, इस कारण वे सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण की तरह उन्‍हें साफ दिखाई नहीं देते। यदि ग्रहणों का प्रभाव पडता, तो सिर्फ सूर्य और चंद्र ग्रहण ही प्रभावी क्यों होता, अन्‍य ग्रहण भी प्रभावी होते और प्राचीन ऋषियों-महर्षियों के द्वारा उनकी भी कुछ तो चर्चा की गयी होती ।



अन्‍य ग्रहों के ग्रहणों का किसी भी ग्रंथ में उल्‍लेख नहीं किए जाने से यह स्‍पष्‍ट है कि किसी भी ग्रहण का कोई ज्‍योतिषीय प्रभाव जनसामान्‍य पर नहीं पडता है। सूर्य के उदय और अस्‍त के अनुरूप ही पशुओं के सारे क्रियाकलाप होते हैं, इसलिए अचानक सूर्य की रोशनी को गायब होते देख उनलोगों का व्‍यवहार असामान्‍य हो जाता है, जिसे हम ग्रहण का प्रभाव मान लेते हैं । लेकिन चिंतन करनेवाली बात तो यह है कि यदि ग्रहण के कारण जानवरों का व्‍यवहार असामान्‍य होता तो वह सिर्फ सूर्यग्रहण में ही क्यों होता? चंद्रग्रहण के दिन भी तो उनका व्‍यवहार असामान्‍य होना चाहिए था । पर चंद्रग्रहण में उन्‍हें कोई अंतर नहीं पडता है, क्योंकि अमावस्‍या के चांद को झेलने की उन्‍हें आदत होती है।



वास्‍तव में ज्‍योतिषीय दृष्टि से अमावस्‍या और पूर्णिमा का दिन ही खास होता है। यदि इन दिनों में किसी एक ग्रह का भी अच्‍छा या बुरा साथ बन जाए तो अच्‍छी या बुरी घटना से जनमानस को संयुक्‍त होना पडता है। यदि कई ग्रहों की साथ में अच्‍छी या बुरी स्थिति बन जाए तो किसी भी हद तक लाभ या हानि की उम्‍मीद रखी जा सकती है। ऐसी स्थिति किसी भी पूर्णिमा या अमावस्‍या को हो सकती है, इसके लिए उन दिनों में ग्रहण का होना मायने नहीं रखता पर पीढी दर पीढी ग्रहों के प्रभाव के ज्ञान की यानि ज्‍योतिष शास्‍त्र की अधकचरी होती चली जानेवाली ज्‍योतिषीय जानकारियों ने कालांतर में ऐसे ही किसी ज्‍योतिषीय योग के प्रभाव से उत्‍पन्‍न हुई किसी अच्‍छी या बुरी घटना को इन्‍हीं ग्रहणों से जोड दिया हो। इसके कारण बाद की पीढी इससे भयभीत रहने लगी हो। इसलिए समय-समय पर पैदा हुए अन्‍य मिथकों की तरह ही सूर्य या चंद्र ग्रहण से जुड़े सभी अंधविश्वासी मिथ गलत माने जा सकते है। यदि किसी ग्रहण के दिन कोई बुरी घटना घट जाए, तो उसे सभी ग्रहों की खास स्थिति का प्रभाव मानना ही उचित होगा, न कि किसी ग्रहण का प्रभाव।

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सोमवार, 20 जुलाई 2009

नवगीत - एक गाँव में देखा मैंने

एक गाँव में देखा मैंने
सुख को बैठे खटिया पर
अधनंगा था, बच्‍चे नंगे,
खेल रहे थे मिटिया पर।



मैंने पूछा कैसे जीते
वो बोला सुख हैं सारे
बस कपड़े की इक जोड़ी है
एक समय की रोटी है
मेरे जीवन में मुझको तो
अन्‍न मिला है मुठिया भर
एक गाँव में देखा मैंने
सुख को बैठे खटिया पर।



दो मुर्गी थी चार बकरियां
इक थाली इक लोटा था
कच्‍चा चूल्‍हा धूआँ भरता
खिड़की ना वातायन था
एक ओढ़नी पहने धरणी
बरखा टपके कुटिया पर
एक गाँव में देखा मैंने
सुख को बैठे खटिया पर।



लाखों की कोठी थी मेरी
तन पर सुंदर साड़ी थी
काजू, मेवा सब ही सस्‍ते
भूख कभी ना लगती थी
दुख कितना मेरे जीवन में
खोज रही थी मथिया पर
एक गाँव में देखा मैंने
सुख को बैठे खटिया पर।

बाल गीत: पारुल, आचार्य संजीव 'सलिल'

पारुल

रुन-झुन करती आयी पारुल।

सब बच्चों को भायी पारुल।

बादल गरजे, तनिक न सहमी।

बरखा लख मुस्कायी पारुल।

चम-चम बिजली दूर गिरी तो,

उछल-कूद हर्षायी पारुल।

गिरी-उठी, पानी में भीगी।

सखियों सहित नहायी पारुल।

मैया ने जब डाँट दिया तो-

मचल-रूठ-गुस्सायी पारुल।

छप-छप खेले, ता-ता थैया।

मेंढक के संग धायी पारुल।

'सलिल' धार से भर-भर अंजुरी।

भिगा-भीग मस्तायी पारुल।


-संजीव 'सलिल'

रविवार, 19 जुलाई 2009

गिरीश बिल्लोरे की एक रचना

धरा से उगती उष्मा , तड़पती देहों के मेले
दरकती भू ने समझाया, ज़रा अब तो सबक लो

यहाँ उपभोग से ज़्यादा प्रदर्शन पे यकीं क्यों है
तटों को मिटा देने का तुम्हारा आचरण क्यों है
तड़पती मीन- तड़पन को अपना कल समझ लो
दरकती भू ने समझाया, ज़रा अब तो सबक लो

मुझे तुम माँ भी कहते निपूती भी बनाते हो
मेरे पुत्रों की ह्त्या कर वहां बिल्डिंग उगाते हो
मुझे माँ मत कहो या फिर वनों को उनका हक दो
दरकती भू ने समझाया, ज़रा अब तो सबक लो

मुझे तुमसे कोई शिकवा नहीं न कोई अदावत है
तुम्हारे आचरण में पल रही ये जो बगावत है
मेघ तुमसे हैं रूठे , बात इतनी सी समझ लो
दरकती भू ने समझाया, ज़रा अब तो सबक लो
मन शिवम् गात

अवनीश तिवारी



मुंड माल ,
त्रिशूल विशाल ,
देख डमरू हाथ ,
मन शिवम् गात |


त्रिनेत्र - ललाट ,
जटा गंग- धार ,
गले झूलत नाग ,
मन शिवम् गात |

चन्द्र - भाल ,
ओढे मृग - छाल,
हो तांडव नाच ,
मन शिवम् गात |

कैलाश - नाथ,
करें काम - नाश ,
वंदन दिन - रात ,
मन शिवम् गात |


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रविवार, 12 जुलाई 2009

परिचर्चा: चिट्ठाकारी और टिप्पणी-लेखन

परिचर्चा:

यह परिचर्चा सभी के लिए खुली है. आप अपनी राय दें... टिप्पणी देने का औचित्य, तरीका, आकर, प्रकार, शब्दों का प्रयोग, शैली, शिल्प आदे विविध पक्षों पर लिखें - सं.


क्या हिन्दी जगत में ब्लॉग पर टिप्पणी पाने के लिए खुद भी उनके ब्लॉग पर टिपियाना ज़रूरी है ???


हिंदी जगत में चिट्ठाकारी (ब्लोगिंग) का उपयोग अन्यत्र से बिलकुल अलग है. मूलतः चिटठा का उपयोग व्यक्तिगत दैनन्दिनी (डायरी) की तरह किया जाता है किन्तु हिंदी या भारत में यह सामूहिक मंच बन गया है. साहित्य में तो इसने अंतर्जाल पत्रिका का रूप भी ले लिया है. विविध रुचियों और विषयों की रचनाएँ परोसी जा रही हैं. सामान्यतः जो विधाओं के निष्णात हैं वे तकनीक से पूरी तरह अनजान या अल्प जानकर हैं. तकनीक के निष्णात जन बहुधा विधाओं में निपुण नहीं हैं. हिंदी का दुर्भाग्य यह कि ये दोनों पूरक कम स्पर्धी अधिक हैं.

कविता 'गरीब की लुगाई, गाँव की भौजाई' की तरह हर किसी के मन बहलाव का साधन बन गयी है. हर साक्षर महाकवि और युगकवि बनने के मोह में अपने लिखे को भेजने और उन पर प्रशंसात्मक टिप्पणियों के लिए आग्रह करने लगा है. इसी क्रम में टिप्पणियों का आदान-प्रदान और चंद शब्दों का प्रयोग हो रहा है.

रूपाकारविहीन कविता को 'सुन्दर' कहा जा रहा है तोजबकि क्या रूपवती को 'स्वादिष्ट' कहेंगे? दर्द से भरी मर्मस्पर्शी कविता पर 'आह'' नहीं 'वाह' की जा रही है. किसी साहित्यिक विधा के मापदंडों को समझने के स्थान पर खारिज करने का दौर है. 'चोरी और सीनाजोरी' का आलम यह की कोइ जानकार कमी बता दे तो नौसिखिया ताल ठोंककर कहता है 'यह मेरी स्टाइल है'.

टिप्पणी से कोई अमर नहीं होता, अपना प्रचार आप कर प्रशंसा जुटानेवाला भी जनता है की बहुधा किसी रचना को पढ़े बिना ही टिप्पणी ठोंक दी जाती है. बहुत खूब, सराहनीय, लिखते रहिये, क्या बात है? अथवा रचना की कुछ पंक्तियों को कॉपी-पेस्ट करना आम हो गया है. समय बिताना या खुद को महत्वपूर्ण मानने का भ्रम पलना ही इस स्थिति का कारण है.
अच्छी रचनाओं को समझनेवाले कम हैं तो बहुत टिप्पणियाँ कहाँ से आएँगी? इस स्थिति में सुधर केवल तभी संभव है जब जानकार रचनाकार एक-दुसरे को लगातार पढें, तिपानी करें और नासमझों के टिप्पणी भेजने के आग्रह पर मौन रहें.

सामान्यतः रचना किसी योग्य न होने पर भी शिष्टता-शालीनता के नाते उत्साहवर्धन के लिए लिखी गयी टिप्पणियों का उपयोग आत्म-प्रचार में यह कहकर होता है कि इतने योग्य व्यक्ति ने भी इसे सराहा है. अर्चनाओं पर टिप्पणी में गुण-दोषों का विवेचन हो तो हर दिन शतक नहीं लगाया जा सकता. टिप्पणियों के गुण-स्तर या सामग्री को परखे बिना सिर्फ संख्या के आधार पर पुरस्कार देनेवाले भी इस अराजकता के जिम्मेदार हैं.

सारतः यह सत्य है कि 'सब चलता है' और 'लघु-मार्ग (शोर्ट कट) के आदी हम टिप्पणियों में भी बेईमानी पर उतारू हैं. बहुधा प्रशंसात्मक टिपण्णी-लेखन आदान-प्रदान (व्यापार) ही है. अल्प अंश में अच्छे रचनाकार, विद्वान् विवेचक तथा सुधी पाठक भी टिपण्णी करते हैं और ऐसी एक भी टिप्पणी मिल जाये तो रचनाकर्म सार्थक लगता है. मैं अपने रचनाओं को मिलनेवाली ऐसी टिप्पणियों को ही महत्त्व देता हूँ संख्या को नहीं.

गुरुवार, 9 जुलाई 2009

गजल मनु बेतखल्लुस

क्या अपने हाथ से निकली नज़र नहीं आती ?
ये नस्ल, कुछ तुझे बदली नज़र नहीं आती ?

किसी भी फूल पे तितली नज़र नहीं आती
हवा चमन की क्या बदली नज़र नहीं आती ?

ख्याल जलते हैं सेहरा की तपती रेतों पर
वो तेरी ज़ुल्फ़ की बदली नज़र नहीं आती

हज़ारों ख्वाब लिपटते हैं निगाहों से मगर
ये तबियत है कि बहली नज़र नहीं आती

न रात, रात के जैसी सियाह दिखती है
सहर भी, सहर सी उजली नज़र नहीं आती

हमारी हार सियासत की मेहरबानी सही
ये तेरी जीत भी, असली नज़र नहीं आती

कहाँ गए वो, निशाने को नाज़ था जिनपे
कि अब तो आँख क्या, मछली नज़र नहीं आती

न जाने गुजरी हो क्या, उस जवां भिखारिन पर
कई दिनों से वो पगली, नज़र नहीं आती


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