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शनिवार, 17 मई 2025

मई १७, सॉनेट, बुद्ध, हास्य, कुंडलिया, मधुमालती छंद, आभा, आदमी जिंदा है, मुक्तिका

सलिल सृजन मई १७  
*
सॉनेट
बुद्ध १
हमें कुछ नहीं लेना-देना
जब जहाँ जो जी चाहे कहो
सजा रखी है सशक्त सेना
लड़ो-मारो-मरो, गड़ो-दहो
हम विरागी करें नहीं मोह
नश्वर जीवन माटी काया
हमें सुहाए सिर्फ विद्रोह
माटी को माटी में मिलाया
कुछ मत कहो उठो लड़ो युद्ध
मिटा दो या मिट जाओ बुद्ध
मन के पशु का पथ न हो रुद्ध
जागो लड़ो होकर अति क्रुद्ध
तुम्हारी खोपड़ी सजा ली है
सभी शिक्षाएँ भुला दी है
१७-५-२०२२
•••
सॉनेट
बुद्ध २
*
युद्ध बुद्ध तुमसे करते हम
शांति हमारा ध्येय नहीं है
मार-मार खुद भी मरते हम
ज्ञाता हैं भ्रम; ज्ञेय नहीं है
लिखें जयंती पर कविताएँ
शीश तुम्हारा सजा कक्ष में
सूली पर तुमको लटकाएँ
वचन तुम्हारे वेध लक्ष्य में
तुमने राज तजा, हम छीनें
रौंद सुजाता को गर्वान्वित
हिंसा है हमको अतिशय प्रिय
अशुभ वरें; शुभ हित आशान्वित
क्रुद्ध रुद्ध तम ही वरते तम
युद्ध बुद्ध तुमसे करते हम
१७-६-२०२२
***
हास्य कुंडलिया
बाल पृष्ठ पर आ गए, हम सफेद ले बाल
बच्चों के सिर सोहते, देखो काले बाल
देखो काले बाल, कहीं हैं श्वेत-श्याम संग
दिखे कहीं बेबाल, न गंजा कह उतरे रंग
कहे सलिल बेनूर, सम्हालें विगें हस्त धर   
घूमें रँगे सियार, डाई कर बाल पृष्ठ पर  
पाक कला के दिवस पर, हर हरकत नापाक
करे पाक चटनी बना, काम कीजिए पाक
काम कीजिए पाक, नहीं होती है सीधी
कुत्ते की दुम रहे, काट दो फिर भी टेढ़ी
कहता कवि संजीव, जाएँ सरहद पर महिला
कविता बम फेंके, भागे दुश्मन दिल दहला
नई बहुरिया आ गई, नई नई हर बात
परफ्यूमे भगवान को, प्रेयर कर नित प्रात
प्रेयर कर नित प्रात, फास्ट भी ब्रेक कराती
ब्रेक फास्ट दे लंच न दे, फिरती इठलाती
न्यून वसन लख, आँख शर्म से हरि की झुक गई
मटक रही बेचीर, द्रौपदी फैशन कर नई
१७-५-२०२०
गीत
गीत कुंज में सलिल प्रवहता,
पता न गजल गली का जाने
मीत साधना करें कुंज में
प्रीत निलय है सृजन पुंज में
रीत पुनीत प्रणीत बन रही
नव फैशन कैसे पहचाने?
नेह नर्मदा कलकल लहरें
गजल शिला पर तनिक न ठहरें
माटी से मिल पंकज सिरजें
मिटतीं जग की तृषा बुझाने
तितली-भँवरे रुकें न ठहरें
गीत ध्वजाएँ नभ पर फहरें
छप्पय दोहे संग सवैये
आल्हा बम्बुलिया की ताने
***
१६-५-२०२०
गीत
*
नेह नरमदा घाट नहाते
दो पंछी रच नई कहानी
*
लहर लहर लहराती आती
घुल-मिल कथा नवल कह जाती
चट्टानों पर शीश पटककर
मछली के संग राई गाती
राई- नोंन उतारे झटपट
सास मेंढकी चतुर सयानी
*
रेला आता हहर-हहरकर
मन सिहराता घहर-घहरकर
नहीं रेत पर पाँव ठहरते
नाव निहारे सिहर-सिहरकर
छूट हाथ से दूर बह चली
खुद पतवार राह अनजानी
*
इस पंछी का एक घाट है,
वह पंछी नित घाट बदलता
यह बैठा है धुनी रमाए
वह इठलाता फिरे टहलता
लीक पुरानी उसको भाती
इसे रुचे नवता लासानी
१६-५-२०२०
***
कार्यशाला
दोहा से कुण्डलिया
*
दोहा- आभा सक्सेना दूनवी
पपड़ी सी पपड़ा गयी, नदी किनारे छांव।
जेठ दुपहरी ढूंढती, पीपल नीचे ठांव।।
रोला- संजीव वर्मा 'सलिल'
पीपल नीचे ठाँव, न है इंची भर बाकी
छप्पन इंची खोज, रही है जुमले काकी
साइकल पर हाथी, शक्ल दीदी की बिगड़ी
पप्पू ठोंके ताल, सलिल बिन नदिया पपड़ी
*
दोहा- आभा सक्सेना
रदीफ़ क़ाफ़िया ढूंढ लो, मन माफ़िक़ सरकार|
ग़ज़ल बने चुटकी बजा, हों सुंदर अशआर||
रोला- संजीव वर्मा 'सलिल'
हों सुंदर अशआर, सजें ब्यूटीपार्लर में।
मोबाइल सम बसें, प्राण लाइक-चार्जर में
दिखें हैंडसम खूब, सुना भगे माफिया
जुमलों की बरसात, करेगा रदीफ-काफिया
१७.५.२०१९
***
छंद सलिला
मधुमालती छंद
*
छंद-लक्षण: जाति मानव, प्रति चरण मात्रा १४ मात्रा, यति ७-७, चरणांत गुरु लघु गुरु (रगण) होता है.
लक्षण छंद
मधुमालती आनंद दे
ऋषि साध सुर नव छंद दे।
गुरु लघु गुरुज चरणांत हो
हर छंद नवउत्कर्ष दे।
उदाहरण:
१. माँ भारती वरदान दो
सत्-शिव-सरस हर गान दो
मन में नहीं अभिमान हो
घर-घर 'सलिल' मधु गान हो।
२. सोते बहुत अब तो जगो
खुद को नहीं खुद ही ठगो
कानून को तोड़ो नहीं-
अधिकार भी छोडो नहीं
***
मुक्तक
जीवन-पथ पर हाथ-हाथ में लिए चलें।
ऊँच-नीच में साथ-साथ में दिए चलें।।
रमा-रमेश बने एक-दूजे की खातिर-
जीवन-अमृत घूँट-घूँट हँस पिए चलें।।
१७-५-२०१८
***
कृति चर्चा
आदमी जिंदा है लघुकथा संग्रह
आचार्य संजीव वर्मा सलिल जी का लघुकथा संग्रह आना लघुकथा की समृद्धि में चार-चाँद लगने जैसा है। आपको साहित्य जगत में किसी परिचय की आवश्यकता नहीं है। आप बेहद समृद्ध पृष्ठभूमि के रचनाकार है। साहित्य आपके रक्त के प्रवाह में है। बचपन से प्रबुद्ध-चिंतनशील परिवार, परिजनों तथा परिवेश में आपने नागरिक अभियंत्रण में त्रिवर्षीय डिप्लोमा, बी.ई., एम.आई.ई., एम.आई.जी.एस., अर्थशास्त्र तथा दर्शनशास्त्र में एम. ए., एल-एल. बी., विशारद, पत्रकारिता में डिप्लोमा, कंप्युटर ऍप्लिकेशन में डिप्लोमा किया है। आप गत ४ दशकों से हिंदी साहित्य तथा भाषा के विकास के लिये सतत समर्पित और सक्रिय हैं। गद्य-पद्य की लगभग सभी विधाओं, समीक्षा, तकनीकी लेखन, शोध लेख, संस्मरण, यात्रा वृत्त, साक्षात्कार आदि में आपने निरंतर सृजन कर अपनी पहचान स्थापित की है। देश-विदेश में स्थित पचास से अधिक सस्थाओं ने सौ से अधिक सम्मानों से साहित्य -सेवा में श्रेष्ठ तथा असाधारण योगदान के लिये आपको अलङ्कृत कर स्वयं को सम्मानित किया है।
मैं सदा से आपके लेखन की विविधता पर चकित होती आई हूँ। हिंदी भाषा के व्याकरण तथा पिंगल के अधिकारी विद्वान सलिल जी ने सिविल अभियंता तथा अधिवक्ता होते हुए भी हिंदी के समांतर बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, अवधी, छत्तीसगढ़ी, मालवी, निमाड़ी, राजस्थानी, हरयाणवी, सिरायकी तथा अंग्रेजी में भी लेखन किया है। मेकलसुता पत्रिका तथा साइट हिन्दयुग्मव साहित्य शिल्पी पर भाषा, छंद, अलंकार आदि पर आपकी धारावाहिक लेखमालाएँ बहुचर्चित रही हैं। ओपन बुक्स ऑनलाइन, युग मानस, ई कविता, अपने ब्लॉगों तथा फेसबुक पृष्ठों के माध्यम से भी आचार्य जी ने अपनी बहुमुखी प्रतिभा से हिंदी भाषा तथा छन्दों के प्रचार-प्रसार व को जोड़ने में प्रचुर योगदान किया है। अपनी बुआ श्री महीयसी महादेवी जी तथा माताजी कवयित्री शांति देवी को साहित्य व भाषा प्रेम की प्रेरणा माननेवाले सलिल जी ने विविध विधाओं में सृजन करने के साथ-साथ के साथ-साथ कई संस्कृत श्लोकों का हिंदी काव्यानुवाद किया है। उन्हें समीक्षा और समालोचना के क्षेत्र में भी महारत हासिल है।
सलिल जी जैसे श्रेष्ठ-ज्येष्ठ विविध विधाओं के मर्मज्ञ साहित्यकार की पुस्तक में अभिमत देने की बात सोचना भी मेरे लिये छोटा मुँह बड़ी बात है। सामान्यतः नयी कलमों की राह में वरिष्ठों द्वारा रोड़े अटकाने, शोषण करने और हतोत्साहित करने के काल में सलिल जी अपवाद हैं जो कनिष्ठों का मार्गदर्शन कर उनकी रचनाओं को लगातार सुधारते हैं, त्रुटियाँ इंगित करते हैं और जटिल प्रकरणों को प्रमाणिकता से स्नेहपूर्वक समझाते हैं। अपने से कनिष्ठों को समय से पूर्व आगे बढ़ने अवसर देने के लिये सतत प्रतिबद्ध सलिल जी ने पात्रता न होने के बाद भी विशेष अनुग्रह कर मुझे अपनी कृति पर सम्मति देने के लिये न केवल प्रोत्साहित किया अपितु पूरी स्वतंत्रता भी दी। उनके स्नेहादेश के परिपालनार्थ ही मैं इस पुस्तक में अपने मनोभाव व्यक्त करने का साहस जुटा रही हूँ। नव लघुकथाकारों के मार्गदर्शन के लिये आपके द्वारा लिखा गया लघुकथा विषयक आलेख एक प्रकाशस्तंभ के समान है। मैं स्वयं को भाग्यशाली समझती हूँ कि मुझे निरन्तर सलिल जी से बहुत कुछ सीखने मिल रहा है। किसी पुस्तक पर लिखना भी इस प्रशिक्षण की एक कड़ी है। सलिल जी आज भी अंतर्जाल पर हिंदी के विकास में प्रभावी भूमिका निभा रहे है।
गद्य साहित्य में लघुकथा एक तीक्ष्ण विधा है जो इंसान के मन-मस्तिष्क पर ऐसा प्रहार करती है कि पढ़ते ही पाठक तिलमिला उठता है। जीवन और जगत की विसंगतियों पर बौद्धिक आक्रोश और तिक्त अनुभूतियों को तीव्रता से कलमबद्ध कर पाठक को उसकी प्रतीति कराना ही लघुकथा का उद्देश्य है। सलिल जी के अनुसार लघुकथाकार परोक्षतः समाज के चिंतन और चरित्र में परिवर्तन हेतु लघुकथा का लेखन करता है किंतु प्रत्यक्षतः उपचार या सुझाव नहीं सुझाता। सीधे-सीधे उपचार या समाधान सुझाते ही लघुकथा में परिवर्तित हो जाती है। अपने लघुकथा-विषयक दिशादर्शी आलेख में आपके द्वारा जिक्र हुआ है कि “वर्त्तमान लघुकथा का कथ्य वर्णनात्मक, संवादात्मक, व्यंग्यात्मक, व्याख्यात्मक, विश्लेषणात्मक, संस्मरणात्मक हो सकता है किन्तु उसका लघ्वाकरी और मारक होना आवश्यक है। लघुकथा यथार्थ से जुड़कर चिंतन को धार देती है। लघुकथा प्रखर संवेदना की कथात्मक और कलात्मक अभिव्यक्ति है। लघुकथा यथार्थ के सामान्य-कटु, श्लील-अश्लील, गुप्त-प्रगट, शालीन-नग्न, दारुण-निर्मम किसी रूप से परहेज नहीं करती।” आपकी लघुकथाओं में बहुधा यही “लघ्वाकारी मारकता “ अन्तर्निहित है।”
लघुकथा लेखन के क्षेत्र में तकनीकों को लेकर कई भ्रान्तियाँ हैं। वरिष्ठ-लेखकों में परस्पर मतान्तर की स्थिति के कारण इस विधा में नवोदितों का लेखन अपने कलेवर से भटकता हुआ प्रतीत होता है। विधा कोई भी हो उसमें कुछ अनुशासन है किन्तु नव प्रयोगों के लिये कुछ स्वतंत्रता होना भी आवश्यक है। नये प्रयोग मानकों का विस्तार कर उनके इर्द-गिर्द ही किये जाने चाहिए जाना चाहिए, मानकों की उपेक्षा कर या मानकों को ध्वस्त कर नहीं। नामानुसार एक क्षण विशेष में घटित घटना को लघुतम कथ्य के रूप में अधिकतम क्षिप्रता के साथ पाठक तक संप्रेषित करना ही सार्थक लघुकथा लेखन का उद्देश्य होता है। लघुकथा समाज, परिवार व देशकाल की असहज परिस्थितियों को सहज भाव में संप्रेषित करने की अति विशिष्ट विधा है अर्थात कलात्मक-भाव में सहज बातों के असाधारण सम्प्रेषण से पाठक को चौकाने का माध्यम है लघुतामय लघुकथा।
“आदमी जिंदा है“ लघुकथा संग्रह वास्तव में पुस्तक के रूप में आज के समाज का आईना है। अपने देश ,समाज और पारिवारिक विसंगतियों को सलिल जी ने पैनी दृष्टि से देखा है, वक्र दृष्टि से नहीं। सलिल जी की परिष्कृत-दार्शनिक दृष्टि ने समाज में निहित अच्छाइयों को भी सकारात्मक सोच के साथ प्रेरणा देते सार्थक जीवन-सन्देश को आवश्यकतानुसार इंगित किया है, परिभाषित नहीं। वे देश की अर्थनीति, राजनीति और प्रशासनिक विसंगतियों पर सधी हुई भाषा में चौकानेवाले तथ्यों को उजागर करते हैं। इस लघुकथा संग्रह से लघुकथा- विधा मजबूती के साथ एक कदम और आगे बढ़ी है। यह बात मैं गर्व और विश्वास साथ कह सकती हूँ। सलिल जी जैसे वरिष्ठ -साहित्यकार का लघुकथा संग्रह इस विधा को एक सार्थक और मजबूत आधार देगा।
लघुकथाओं में सर्जनात्मकता समेटता कथात्मकता का आत्मीय परिवेश सलिल जी का वैशिष्ट्य है। उनका लघुकथाकार सत्य के प्रति समर्पित-निष्ठावान है, यही निष्ठां आपकी समस्त रचनाओं और पाठकों के मध्य संवेदना- सेतु का सृजन कर मन को मन से जोड़ता है। इन लघुकथाओं का वाचन आप-बीती का सा भान कराता है। पाठक की चेतना पात्रों और घटना के साथ-साथ ठिठकती-बढ़ती है और पाठक का मन भावुक होकर तादात्म्य स्थापित कर पाता है।
'आदमी जिंदा है' शीर्षकीय लघुकथा इस संग्रह को परिभाषित कर अपने कथ्य को विशेष तौर पर उत्कृष्ट बनाती है। “साहित्य का असर आज भी बरकरार है, इसीलिये आदमी जिंदा है। “ एक साहित्य सेवी द्वारा लिपिबद्ध ये पंक्तियाँ मन को मुग्ध करती है। बहुत ही सुन्दर और सार्थक कथ्य समाविष्ट है इस लघुकथा में।
“एकलव्य“ लघुकथा में कथाकार ने एकलव्य द्वारा भोंकते कुत्तों का मुँह तीरों से बंद करने को बिम्बित कर सार्थक सृजन किया है। न्यूनतम शब्दों में कथ्य का उभार पाठक के मन में विचलन तथा सहमति एक्स उत्पन्न करता है। लघुकथा का शिल्प चकित करनेवाला है।
'बदलाव का मतलब' में मतदाताओं के साथ जनप्रतिनिधि द्वारा ठगी को जबर्दस्त उभार दिया गया है। 'भयानक सपना' में हिंदी भाषा को लेकर एक विशिष्ट कथा का सशक्त सम्प्रेषण हुआ है। 'मन का दर्पण' में लेखक के मन की बात राजनैतिक उथल–पुथल को कथ्य के रूप में उभार सकी है। 'दिया' में विजातीय विवाह से उपजी घरेलू विसंगति और पदों का छोटापन दर्शित है। पूर्वाग्रह से ग्रसित सास को अपने आखिरी समय में बहू की अच्छाई दिखाई देती है जो मार्मिक और मननीय बन पड़ी है। 'करनी-भरनी' में शिक्षा नीति की धॉँधली और 'गुलामी' में देश के झंडे की अपने ही तंत्र से शिकायत और दुःख को मुखर किया गया है। 'तिरंगा' में राष्ट्रीय ध्वज के प्रति बालक के अबोध मन में शृद्धा का भाव, तिरंगे को रखने के लिये सम्मानित जगह का न मिलना और सीने से लगाकर सो जाना गज़ब का प्रभाव छोड़ता है। इस लघुकथा का रंग शेष लघुकथाओं से अलग उभरा है।
'अँगूठा' में बेरोजगारी, मँहगाई और प्रशासनिक आडम्बर पर निशाना साधा गया है। 'विक्षिप्तता', 'प्यार का संसार', 'वेदना का मूल' आदि लघुकथाएँ विशेष मारक बन पड़ी हैं। 'सनसनाते हुए तीर' तथा 'नारी विमर्श' लघुकथाओं में स्त्री विमर्श पर बतौर पुरुष आपकी कलम का बेख़ौफ़ चलना चकित करता है। सामान्यतः स्त्री विमर्शात्मक लघुकथाओं में पुरुष को कठघरे में खड़ा किया जाता है किन्तु सलिल जी ने इन लघुकथाओं में स्त्री-विमर्श पर स्त्री-पाखण्ड को भी इंगित किया है।
आपकी कई लघुकथाएँ लघुकथाओं संबंधी पारम्परिक-रूरक मानकों में हस्तक्षेप कर अपनी स्वतंत्र शैली गढ़ती हुई प्रतीत होती हैं। कहावत है 'लीक छोड़ तीनों चलें शायर, सिंह सपूत'। प्रचलित ”चलन” या रूढ़ियों से इतर चलना आप जैसे समर्थ साहित्यकार के ही बूते की बात है। आप जैसे छंद-शास्त्री, हिंदी-ज्ञाता, भाषा-विज्ञानी द्वारा गद्य साहित्य की इस लघु विधा में प्रयोग पाठकों के मन में गहराई तक उतर कर उसे झकझोरते हैं। आपकी लघुकथाओं का मर्म पाठको के चितन को आंदोलित करता है। ये लघुकथाएँ यथा तथ्यता, सांकेतिकता, बिम्बात्मकता एवं आंचलिकता के गुणों को अवरेखित करती है। अपनी विशिष्ट शैली में आपने वैज्ञानिकता का परिवेश बड़ी सहजता से जीवंत किया है। इन दृष्टियों से अब तक मैंने जो पूर्व प्रकाशित संग्रह पढ़े हैं में अपेक्षा इस संग्रह को पर्याप्त अधिक समृद्ध और मौलिक पाया है।
मुझे जीने दो, गुणग्राहक, निर्माण, चित्रगुप्त पूजन, अखबार, अंधमोह, सहिष्णुता इत्यादि कथाओं में भावों का आरोपण विस्मित करता है। यहाँ विभिन्न स्तरों पर कथ्य की अभिव्यंजना हुई है। शब्दों की विशिष्ट प्रयुक्ति से अभिप्रेत को बड़ी सघनता में उतारा गया है। इस संग्रह में कथाकार द्वारा अपने विशिष्ट कथ्य प्रयोजनों की सिद्धि हुई है। प्रतीकात्मक लघुकथाओं ने भी एक नया आयाम गढ़ा है।
लघुकथा 'शेष है' सकारात्मक भाव में एक जीवन्त रचना की प्रस्तुति है। यहाँ आपने 'कुछ अच्छा भी होता है, भले उसकी संख्या कम है' को बहुत सुन्दर कथ्य दिया है। 'समाज का प्रायश्चित्य' में समर्थ को दोष नहीं लगता है यानि उनके लिए नियमों को ताक पर रखा जा सकता है, को कथा-रूप में ढाला गया है। 'क्या खाप पंचायत इस स्वागत के बाद अपने नियम में बदलाव करेगी ? शायद नहीं!' बहुत ही बढ़िया कथ्य उभरकर आया है इस कथा में। गम्भीर और नूतन विषय चयन है। 'फल' में 'अँधेरा करना नहीं पड़ता, हो जाता है, उजाला होता नहीं ,करना पड़ता है' सनातन सत्य की सूक्ति रूप में अभिव्यक्ति है।
लघुतम रचनाओं में कथ्य का श्रेष्ठ-संतुलित संवहन देखते ही बनता है। ये लघुकथाएँ जीवन-सत्यों तथा सामाजिक-तथ्यों से पाठकों साक्षात्कार कराती है।
'वेदना का मूल' में मनुष्य की सब वेदना का मूल विभाजन जनित द्वेष को इंगित किया जाना चिंतन हेतु प्रेरित करता है। 'उलझी हुई डोर' में कथ्य की सम्प्रेषणीयता देखते ही बनती है। 'सम्मान की दृष्टि' शीर्षक लघुकथा अपने लिए सम्मान कमाना हमारे ही हाथ में है, यह सत्य प्रतिपादित करता है। लोग हमें कुछ भी समझे, लेकिन हमें स्वयं को पहले अपनी नजर में सम्मानित बनाना होगा। चिंतन के लिये प्रेरित कर मन को मनन-गुनन की ओर ले जाती हुई, शीर्षक को परिभाषित करती, बहुत ही सार्थक लघुकथा है यह।
'स्थानान्तरण' में दृश्यात्मक कथ्य खूबसूरत काव्यात्मकता के साथ विचारों का परिवर्तन दिखाई देता है। 'जैसे को तैसा' में पिता के अंधे प्यार के साये में संतान को गलत परवरिश देने की विसंगति चित्रित है। 'सफ़ेद झूठ' में सटीक कथ्य को ऊभारा है आपने। आपके द्वीरा रचित लघुकथायें अक्सर प्रजातंत्र व नीतियों पर सार्थक कटाक्ष कर स्वस्थ्य चिंतन हेतु प्रेरित करती है।
'चैन की सांस' में इंसानों के विविध रूप, सबकी अपनी-अपनी गाथा और चाह, भगवान भी किस-किसकी सुनें? उनको भी चैन से बाँसुरी बजाने के लिए समय चाहिए। एक नये कलेवर में, इस लघुकथा का अनुपम सौंदर्य है।
'भारतीय' लघुकथा में चंद शब्दों में कथ्य का महा-विस्तार चकित करता है। 'ताना-बाना' हास्य का पुट लिये भिन्न प्रकृति की रचना है जिसे सामान्य मान्यता के अनुसार लघुकथा नहीं भी कहा जा सकता है। ऐसे प्रयोग सिद्धहस्त सकती हैं।'संक्रांति' हमारी भारतीय संस्कृति की सुकोमल मिठास को अभिव्यक्ति देती एक बहुत ही खूबसूरत कथा है।
'चेतना शून्य' में दो नारी व्यक्तित्वों को उकेरा गया है, एक माँ है जो अंतर्मुखी है और उसी भाव से अपने जीवन की विसंगतियों के साथ बेटी के परवरिश में अपने जीवन की आहुति देती है । यहाँ माँ से इतर बेटी का उन्मुक्त जीवन देख घरेलू माँ का चेतना शून्य होना स्वभाविक है । चंद पंक्तियों में यह स्त्री-विमर्श से जुड़ा हुआ बहुत बडा मुद्दा है। चिंतन-मनन के लिए परिदृश्य का वृहत विस्तार है। 'हवा का रुख' में 'सयानी थी, देर न लगाई पहचानने में हवा का रुख' को झकझोरता है। इस सकारात्मक कथा पाठकों को अभिभूत करती है। 'प्यार का संसार' में भाईचारे का ऐसा मार्मिक-जिवंत दृश्य है कि पाठक का मन भीतर तक भीग जाता है।
'अविश्वासी मन' में रुपयों का घर में और और सास पर शक करने को इतनी सहजता से आपने वर्णित किया है कि सच में अपने अविश्वासी मन पर ग्लानी होती है। 'अनुभूति' में आपने अंगदान की महत्ता दर्शाता कथ्य दिया है।
'कल का छोकरा' में बच्चे की संवेदनशीलता वर्णित है। बच्चे जिन पर यकीन करने में हम बड़े अकारण हिचकिचाते है, को सकारात्मक सन्देश के साथ शब्दित किया गया है।
निष्कर्षतः, 'आदमी ज़िंदा है' की लघुकथाओं में संकेत व अभिव्यंजनाओं के सहारे गहरा व्यंग्य छिपा मिलता है जिसका प्रहार बहुत तीखा होता है। सार्थकता से परिपूर्ण सलिल जी की इन लघुकथाओं में मैंने हरिशंकर परसाई खलील जिब्रान, मंटो, कन्हैया लाल मिश्र, हरिशंकर प्रसाद, शंकर पुणताम्बेकर, उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’ तथा जयशंकर प्रसाद की लघुकथाओं की तरह दार्शनिक व यथार्थवादी छवि को आभासित पाया है। बुन्देली-माटी की सौंधी खुशबू रचनाओं में अपनत्व की तरावट को घोलती है। सलिल जी के इस लघुकथा संग्रह में वर्तमान समाज की धड़कनें स्पंदित हैं। मुझे आशा ही नहीं पूरा विश्वास है कि इस लघुकथा संग्रह पूर्ण अपनत्व के साथ स्वागत होगा तथा सलिल जी भविष्य में भी लघुकथा विधा के विकास में महत्वपूर्ण योगदान देते रहेंगे।
एफ -२, वी-५ विनायक होम्स श्रीमती कान्ता राॅय
मयूर विहार, अशोका गार्डन भोपाल - 462023
मो .9575465147 roy.kanta69@gmail.com
***
मुक्तिका
जितने चेहरे उतने रंग
सबकी अलग-अलग है जंग
.
ह्रदय एक का है उदार पर
दूजे का दिल बेहद तंग
.
तन मन से अतिशय प्रसन्न है
मन तन से है बेहद तंग
.
रंग भंग में डाल न करना
मतवाले तू रंग में भंग
.
अवगुंठन में समझदार है
नासमझों के दर्शित अंग
.
जंग लगी जिसके दिमाग में
वह नाहक ही छेड़े जंग
.
बेढंगे में छिपा हुआ है
खोज सको तो खोजो ढंग
.
नेह नर्मदा 'सलिल' स्वच्छ पर
अधिकारों की दूषित गंग
१७-५-२०१६
***
द्विपदी
वफ़ा के बदले वफ़ा चाहिए हो यार तुम्हें
'सलिल' की ओर ज़माने को छोड़ मुख करना
***
दोहा सलिला:
*
आँखों का काजल चुरा, आँखें कहें: 'जनाब!
दिल के बदले दिल लिया, पूरा हुआ हिसाब
*
प्रहसन मंचित हो गया, बजीं तालियाँ खूब
समरथ की जय हो गयी, पीड़ित रोये डूब
.
बरसों बाद सजा मिली, गये न पल को जेल
न्याय लगा अन्याय सा, पल में पायी बेल
.
दोष न कारों का तनिक, दोषी है फुटपाथ
जो कुचले-मारे गये, मिले झुकाए माथ
.
छद्म तर्क से सच छिपा, ज्यों बादल से चाँद
दोषी गरजे शेर सा, पीड़ित छिपता मांद
.
नायक कारें ले करें, जनसंख्या कंट्रोल
दिल पर घूँसा मारता, गायक कडवा बोल
.
पट्टी बाँधे आँख पर, तौल रही है न्याय
अजब व्यवस्था धनी की, जय- निर्धन निरुपाय
.
मोटी-मोटी फीस है, खोटे-खोते तर्क
दफन सत्य को कर रहे, पिला झूठ का अर्क
.
दौलत की जय बोलना, दुनिया का दस्तूर
एकांगी जब न्याय हो लगे वधिक सा क्रूर
.
तिल को ताड़ बना दिया, और ताड़ को तिल
रुपयों की खनकार से घायल निर्धन-दिल
***
मुक्तिका:
*
आशा कम विश्वास बहुत है
श्लेष तनिक अनुप्रास बहुत है
सदियों का सुख कम लगता है
पल भर का संत्रास बहुत है
दुःख का सागर पी सकता है
ऋषि अँजुरीवत हास बहुत है
हार न माने मरुस्थलों से
फिर उगेगी घास बहुत है
दिल-कुटिया को महल बनाने
प्रिये! तुम्हारा दास बहुत है
विरह-अग्नि में सुधियाँ चन्दन
मिलने का अहसास बहुत है
आम आम के रस पर रीझे
'सलिल' न कहना खास बहुत है
***
दोहा
करें आरती सत्य की, पूजें श्रम को नित्य
हों सहाय सब देवता, तजिए स्वार्थ अनित्य
*
दोहा गर किताब पढ़ बन रहा, रिश्वतखोर समाज
पूज परिश्रम हम रचें, एक लीक नव आज
१७-५-२०१५
दोहा गाथा ७
दोहा साक्षी समय का
संजीव
युवा ब्राम्हण कवि ने दोहे की प्रथम पंक्ति लिखी और कागज़ को अपनी पगड़ी में खोंस लिया। बार -बार प्रयास करने पर भी दोहा पूर्ण न हुआ। परिवार जनों ने पगड़ी रंगरेजिन शेख को दे दी। शेख ने न केवल पगड़ी धोकर रंगी अपितु दोहा भी पूर्ण कर दिया। शेख की काव्य-प्रतिभा से चमत्कृत आलम ने शेख के चाहे अनुसार धर्म परिवर्तन कर उसे जीवनसंगिनी बना लिया। आलम-शेख को मिलनेवाला दोहा निम्न है:
आलम - कनक छुरी सी कामिनी, काहे को कटि छीन?
शेख - कटि को कंचन काट विधि, कुचन मध्य धर दीन।
संस्कृत पाली प्राकृत, डिंगल औ' अपभ्रंश.
दोहा सबका लाडला, सबसे पाया अंश.
दोहा दे आलोक तो, उगे सुनहरी भोर.
मौन करे रसपान जो, उसे न रुचता शोर.
सुनिए दोहा-पुरी में, श्वास-आस की तान.
रस-निधि पा रस-लीन हों, जीवन हो रसखान.
समय क्षेत्र भाषा करें, परिवर्तन दिन-रात.
सत्य न लेकिन बदलता, कहता दोहा प्रात.
सीख-सिखाना जिन्दगी, इसे बंदगी मान.
जन्म सार्थक कीजिए, कर कर दोहा-गान.
शीतल करता हर तपन, दोहा धरकर धीर.
भूला-बिसरा याद कर, मिटे ह्रदय की पीर.
दिव्य दिवाकर सा अमर, दोहा अनुपम छंद.
गति-यति-लय का संतुलन, देता है आनंद.
पढ़े-लिखे को भूलकर, होते तनहा अज्ञ.
दे उजियारा विश्व को, नित दीपक बन विज्ञ.
अंग्रेजी के मोह में, हैं हिन्दी से दूर.
जो वे आँखें मूँदकर, बने हुए हैं सूर.
जगभाषा हिन्दी पढ़ें, सारे पश्चिम देश.
हिंदी तजकर हिंद में, हैं बेशर्म अशेष.
सरल बहुत है कठिन भी, दोहा कहना मीत.
मन जीतें मन हारकर, जैसे संत पुनीत.
स्रोत दिवाकर का नहीं, जैसे कोई ज्ञात.
दोहे का उद्गम 'सलिल', वैसे ही अज्ञात.
दोहा की सामर्थ्य जानने के लिए एक ऐतिहासिक प्रसंग की चर्चा करें। इन्द्रप्रस्थ नरेश पृथ्वीराज चौहान अभूतपूर्व पराक्रम, श्रेष्ठ सैन्यबल, उत्तम आयुध तथा कुशल रणनीति के बाद भी मो॰ गोरी के हाथों पराजित हुए। उनकी आँखें फोड़कर उन्हें कारागार में डाल दिया गया। उनके बालसखा निपुण दोहाकार चंदबरदाई (संवत् १२०५-१२४८) ने अपने मित्र को जिल्लत की जिंदगी से आजाद कराने के लिए दोहा का सहारा लिया। उसने गोरी से सम्राट की शब्द-भेदी बाणकला की प्रशंसा कर परीक्षा किए जाने को उकसाया। परीक्षण के समय बंदी सम्राट के कानों में समीप खड़े कवि मित्र द्वारा कहा गया दोहा पढ़ा, दोहे ने गजनी के सुल्तान के आसन की ऊंचाई तथा दूरी पल भर में बता दी। असहाय दिल्लीपति ने दोहा हृदयंगम किया और लक्ष्य साध कर तीर छोड़ दिया जो सुल्तान का कंठ चीर गया। सत्तासीन सम्राट हार गया पर दोहा ने अंधे बंदी को अपनी हार को जीत में बदलने का अवसर दिया, ऐसी है दोहा, दोहाकार और दोहांप्रेमी की शक्ति। वह कालजयी दोहा है-
चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण.
ता ऊपर सुल्तान है, मत चुक्कै चव्हाण.
इतिहास गढ़ने, मोड़ने, बदलने तथा रचने में सिद्ध दोहा की जन्म कुंडली महाकवि कालिदास (ई. पू. ३००) के विकेमोर्वशीयम के चतुर्थांक में है.
मइँ जाणिआँ मिअलोअणी, निसअणु कोइ हरेइ.
जावणु णवतलिसामल, धारारुह वरिसेई..
शृंगार रसावतार महाकवि जयदेव की निम्न द्विपदी की तरह की रचनाओं ने भी संभवतः वर्तमान दोहा के जन्म की पृष्ठभूमि तैयार करने में योगदान किया हो.
किं करिष्यति किं वदष्यति, सा चिरं विरहेऽण.
किं जनेन धनेन किं मम, जीवितेन गृहेऽण.
हिन्दी साहित्य के आदिकाल (७००ई. - १४००ई..) में नाथ सम्प्रदाय के ८४ सिद्ध संतों ने विपुल साहित्य का सृजन किया. सिद्धाचार्य सरोजवज्र (स्वयंभू / सरहपा / सरह वि. सं. ६९०) रचित दोहाकोश एवं अन्य ३९ ग्रंथों ने दोहा को प्रतिष्ठित किया।
जहि मन पवन न संचरई, रवि-ससि नांहि पवेस.
तहि वट चित्त विसाम करू, सरहे कहिअ उवेस.
दोहा की यात्रा भाषा के बदलते रूप की यात्रा है. देवसेन के इस दोहे में सतासत की विवेचना है-
जो जिण सासण भाषीयउ, सो मई कहियउ सारु.
जो पालइ सइ भाउ करि, सो सरि पावइ पारू.
चलते-चलते ८ वीं सदी के उत्तरार्ध का वह दोहा देखें जिसमें राजस्थानी वीरांगना युद्ध पर गए अपने प्रीतम को दोहा-दूत से संदेश भेजती है कि वह वायदे के अनुसार श्रावण की पहली तीज पर न आया तो प्रिया को जीवित नहीं पायेगा.
पिउ चित्तोड़ न आविउ, सावण पैली तीज.
जोबै बाट बिरहणी, खिण-खिण अणवे खीज.
संदेसो पिण साहिबा, पाछो फिरिय न देह.
पंछी थाल्या पींजरे, छूटण रो संदेह.
निवेदन है कि अपने अंचल एवं आंचलिक भाषा में जो रोचक प्रसंग दोहे में हों उन्हें खोजकरभेजें:
दोहा साक्षी समय का, कहता है युग सत्य।
ध्यान समय का जो रखे, उसको मिलता गत्य॥
दोहा रचना मेँ समय की महत्वपूर्ण भूमिका है। दोहा के चारों चरण निर्धारित समयावधि में बोले जा सकें, तभी उन्हें विविध रागों में संगीतबद्ध कर गाया जा सकेगा। इसलिए सम तथा विषम चरणों में क्रमशः १३ व ११ मात्रा होना अनिवार्य है।
दोहा ही नहीं हर पद्य रचना में उत्तमता हेतु छांदस मर्यादा का पालन किया जाना अनिवार्य है। हिंदी काव्य लेखन में दोहा प्लावन के वर्तमान काल में मात्राओं का ध्यान रखे बिना जो दोहे रचे जा रहे हैं, उन्हें कोई महत्व नहीं मिल सकता। मानक मापदन्डों की अनदेखी कर मनमाने तरीके को अपनी शैली माने या बताने से अशुद्ध रचना शुद्ध नहीं हो जाती। किसी रचना की परख भाव तथा शैली के निकष पर की जाती है। अपने भावों को निर्धारित छंद विधान में न ढाल पाना रचनाकार की शब्द सामर्थ्य की कमी है।
किसी भाव की अभिव्यक्ति के तरीके हो सकते हैं। कवि को ऐसे शब्द का चयन करना होता है जो भाव को अभिव्यक्त करने के साथ निर्धारित मात्रा के अनुकूल हो। यह तभी संभव है जब मात्रा गिनना आता हो। मात्रा गणना के प्रकरण पर पूर्व में चर्चा हो चुकने पर भी पुनः कुछ विस्तार से लेने का आशय यही है कि शंकाओं का समाधान हो सके.
"मात्रा" शब्द अक्षरों की उच्चरित ध्वनि में लगनेवाली समयावधि की ईकाई का द्योतक है। तद्‌नुसार हिंदी में अक्षरों के केवल दो भेद १. लघु या ह्रस्व तथा २. गुरु या दीर्घ हैं। इन्हें आम बोलचाल की भाषा में छोटा तथा बडा भी कहा जाता है। इनका भार क्रमशः १ तथा २ गिना जाता है। अक्षरों को लघु या गुरु गिनने के नियम निर्धारित हैं। इनका आधार उच्चारण के समय हो रहा बलाघात तथा लगनेवाला समय है।
१. एकमात्रिक या लघु रूपाकारः
अ.सभी ह्रस्व स्वर, यथाः अ, इ, उ, ॠ।
ॠषि अगस्त्य उठ इधर ॰ उधर, लगे देखने कौन?
१+१ १+२+१ १+१ १+१+१ १+१+१
आ. ह्रस्व स्वरों की ध्वनि या मात्रा से संयुक्त सभी व्यंजन, यथाः क,कि,कु, कृ आदि।
किशन कृपा कर कुछ कहो, राधावल्लभ मौन ।
१+१+१ १+२ १+१ १+१ १+२
इ. शब्द के आरंभ में आनेवाले ह्रस्व स्वर युक्त संयुक्त अक्षर, यथाः त्रय में त्र, प्रकार में प्र, त्रिशूल में त्रि, ध्रुव में ध्रु, क्रम में क्र, ख्रिस्ती में ख्रि, ग्रह में ग्र, ट्रक में ट्र, ड्रम में ड्र, भ्रम में भ्र, मृत में मृ, घृत में घृ, श्रम में श्र आदि।
त्रसित त्रिनयनी से हुए, रति ॰ ग्रहपति मृत भाँति ।
१+१+१ १+१+१+२ २ १+२ १‌+१ १+१+१+१ १+१ २+१
ई. चंद्र बिंदु युक्त सानुनासिक ह्रस्व वर्णः हँसना में हँ, अँगना में अँ, खिँचाई में खिँ, मुँह में मुँ आदि।
अँगना में हँस मुँह छिपा, लिये अंक में हंस ।
१+१+२ २ १+१ १+१ १+२, १‌+२ २‌+१ २ २+१
उ. ऐसा ह्रस्व वर्ण जिसके बाद के संयुक्त अक्षर का स्वराघात उस पर न होता हो या जिसके बाद के संयुक्त अक्षर की दोनों ध्वनियाँ एक साथ बोली जाती हैं। जैसेः मल्हार में म, तुम्हारा में तु, उन्हें में उ आदि।
उन्हें तुम्हारा कन्हैया, भाया सुने मल्हार ।
१+२ १+२+२ १+२+२ २+२ १+२ १+२+१
ऊ. ऐसे दीर्घ अक्षर जिनके लघु उच्चारण को मान्यता मिल चुकी है। जैसेः बारात ॰ बरात, दीवाली ॰ दिवाली, दीया ॰ दिया आदि। ऐसे शब्दों का वही रूप प्रयोग में लायें जिसकी मात्रा उपयुक्त हों।
दीवाली पर बालकर दिया, करो तम दूर ।
२+२+२ १+१ २+१+१+१ १+२ १+२ १ =१ २+१
ए. ऐसे हलंत वर्ण जो स्वतंत्र रूप से लघु बोले जाते हैं। यथाः आस्मां ॰ आसमां आदि। शब्दों का वह रूप प्रयोग में लायें जिसकी मात्रा उपयुक्त हों।
आस्मां से आसमानों को छुएँ ।
२+२ २ २+१+२+२ २ १+२
ऐ. संयुक्त शब्द के पहले पद का अंतिम अक्षर लघु तथा दूसरे पद का पहला अक्षर संयुक्त हो तो लघु अक्षर लघु ही रहेगा। यथाः पद॰ध्वनि में द, सुख॰स्वप्न में ख, चिर॰प्रतीक्षा में र आदि।
पद॰ ध्वनि सुन सुख ॰ स्वप्न सब, टूटे देकर पीर।
१+१ १+१ १+१ १+१ २+१ १+१
द्विमात्रिक, दीर्घ या गुरु के रूपाकारों पर चर्चा अगले पाठ में होगी। आप गीत, गजल, दोहा कुछ भी पढें, उसकी मात्रा गिनकर अभ्यास करें। धीरे॰धीरे समझने लगेंगे कि किस कवि ने कहाँ और क्या चूक की ? स्वयं आपकी रचनाएँ इन दोषों से मुक्त होने लगेंगी।
अंत में एक किस्सा, झूठा नहीं, सच्चा...
फागुन का मौसम और होली की मस्ती में किस्सा भी चटपटा ही होना चाहिए न... महाप्राण निराला जी को कौन नहीं जानता? वे महाकवि ही नहीं महामानव भी थे। उन्हें असत्य सहन नहीं होता था। भय या संकोच उनसे कोसों दूर थे। बिना किसी लाग-लपेट के सच बोलने में वे विश्वास करते थे। उनकी किताबों के प्रकाशक श्री दुलारेलाल भार्गव द्वारा रचित दोहा संकलन का विमोचन समारोह आयोजित था। बड़े-बड़े दौनों में शुद्ध घी का हलुआ खाते-खाते उपस्थित कविजनों में भार्गव जी की प्रशस्ति-गायन की होड़ लग गयी। एक कवि ने दुलारेलाल जी के दोहा संग्रह को महाकवि बिहारी के कालजयी दोहा संग्रह "बिहारी सतसई" से श्रेष्ठ कह दिया तो निराला जी यह चाटुकारिता सहन नहीं कर सके, किन्तु मौन रहे। तभी उन्हें संबोधन हेतु आमंत्रित किया गया। निराला जी ने दौने में बचा हलुआ एक साथ समेटकर खाया, कुर्ते की बाँह से मुँह पोंछा और शेर की तरह खड़े होकर बडी-बडी आँखों से चारों ओर देखते हुए एक दोहा कहा। उस दिन निराला जी ने अपने जीवन का पहला और अंतिम दोहा कहा, जिसे सुनते ही चारों तरफ सन्नाटा छा गया, दुलारेलाल जी की प्रशस्ति कर रहे कवियों ने अपना चेहरा छिपाते हुए सरकना शुरू कर दिया। खुद दुलारेलाल जी भी नहीं रुक सके। सारा कार्यक्रम चंद पलों में समाप्त हो गया।
इस दोहे और निराला जी की कवित्व शक्ति का आनंद लीजिए और अपनी प्रतिक्रिया दीजिए।
वह दोहा जिसने बीच महफिल में दुलारेलाल जी और उनके चमचों की फजीहत कर दी थी, इस प्रकार है-
कहाँ बिहारी लाल हैं, कहाँ दुलारे लाल?
कहाँ मूँछ के बाल हैं, कहाँ पूँछ के बाल?
१७-५-२०१३
***
कुण्डलिया
हरियाली ही हर सके, मन का खेद-विषाद.
मानव क्यों कर रहा है, इसे नष्ट-बर्बाद?
इसे नष्ट-बर्बाद, हाथ मल पछतायेगा.
चेते, सोचे, सम्हाले, हाथ न कुछ आयेगा.
कहे 'सलिल' मन-मोर तभी पाये खुशहाली.
दस दिश में फैलायेंगे जब हम हरियाली..
***
दोहा
होता रूप अरूप जब, आत्म बने विश्वात्म.
शब्दाक्षर कर वन्दना, देख सकें परमात्म..
***
***
मुक्तक
भारत नहीं झुका है, भारत नहीं झुकेगा.
भारत नहीं रुका है, भारत नहीं रुकेगा..
हम-आप मेहनती हों, हम-आप एक-नेक हों तो-
भारत नहीं पिटा है, भारत नहीं पिटेगा..
१७-५-२०११
***

सोमवार, 23 अक्टूबर 2023

नवगीत, दोहा दीप, जनक मुक्तक, निशा तिवारी, आदमी जिंदा है, सुनीता सिंह, तकनीकी शिक्षा में हिंदी

मुक्तक
आरज़ू है अंजुमन में बहारें रहें।
आसमां में चाँद खुश हो, सितारे रहें।।
है जमीं का कौन?, सबकी वालिदा है वो
प्यार कर माँ से सलिल तो बहारें रहें।।
***
गीत
*
ओझल हो तुम
किंतु सरस छवि,
मन में अब तक बसी हुई है।
यादों का पल
युग सा बीता,
ज्योति मिलन की जली हुई है।।
*
उषा किरण सम रश्मि रथी का
दर तज मेरी ड्योढ़ी आई।
तुहिन बिंदु सम ठिठकीं-सँकुचीं
अरुणाई ने की पहुनाई।।
दर पर हाथ-
हथेली छापा
घड़ी मिलन की लिखी हुई है।
यादों का पल
युग सा बीता,
ज्योति मिलन की जली हुई है।।
*
दिन भर राह हेरतीं गुमसुम
कब संझा हो दीपक बालो।
रजनी हो तो मिलन पूर्व मिल
गीत मिलन के गुनगुन गा लो।।
चेहरा थाम निहारा, पाया
सिमटी-सिकुड़ी छुई-मुई है।
यादों का पल
युग सा बीता,
ज्योति मिलन की जली हुई है।।
*
दो थे, पल में एक हो गए,
नयन नयन में डूब-उबरते।
अधर अधर पर धर अधरामृत
पीते; उर धर, विहँस सिहरते।।
पाकर खोएँ, खोकर पाएँ
आस अहैतुक पली हुई है।
यादों का पल
युग सा बीता,
ज्योति मिलन की जली हुई है।।
*
२३-१०-२०२२, ९४२५१८३२४४
***
विमर्श- तकनीकी शिक्षा में हिंदी
क्या औचित्य और उपयोग है मध्य प्रदेश में हिंदी माध्यम से एमबीबीएस पाठ्यक्रम शुरू करने का, जबकि सारी पुस्तकों में अधिकांश अंग्रेजी शब्द "जस के तस" हैं और उन्हें केवल देवनागरी लिपि में लिख दिया गया है?
पहले आपकी प्रश्न की पृष्ठभूमि समझें-
पढ़ने-समझने और लिखने में भाषा माध्यम का कार्य करती है। आप भाषा जानते हैं तो विषय या कथ्य को समझते हैं। अगर भाषा ही समझ न सकें तो विषय या कथ्य कैसे समझेंगे?
मनोवैज्ञानिकों के अनुसार बच्चा सबसे आधी सरलता, सहजता से अपनी मातृभाषा समझता है। नवजात शिशु कुछ न जानने पर भी माँ द्वारा कहे गए शब्दों का भावार्थ समझकर प्रतिक्रिया देता है। किसी भी भारतीय की मातृभाषा अंग्रेजी नहीं है। अंग्रेजी में बताई गयी बात समझना अधिक कठिन होता है। सामान्यत:, हम अपनी मातृभाषा में सोचकर अंग्रेजी में अनुवाद कर उत्तर देते हैं। इसीलिए अटकते हैं, या रुक-सोचकर बोलते हैं।
संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा कराए गए अध्ययन से यह तथ्य सामने आया कि दुनिया में सर्वाधिक उन्नति देश वे हैं जो उच्च तथा तकनीकी शिक्षा अपनी मातृभाषा देते हैं। इनमें रूस, चीन, जापान, फ़्रांस, जर्मनी आदि हैं। यह भी कि दुनिया में सर्वाधिक पिछड़े देश वे हैं जो उच्च तथा तकनीकी शिक्षा किसी विदेश भाषा में देते हैं। इनमें से अधिकांश कभी न कभी अंग्रेजों के गुलाम रहे हैं।
पराधीनता के समय में भारत की शिक्षा नीति पर इंग्लैंड की संसद में हुई बहस में नीति बनानेवाले लार्ड मैकाले ने स्पष्ट कहा था कि उसका उद्देश्य भारत की सनातन ज्ञान परंपरा पर अविश्वास कर पश्चिम द्वारा थूका गया चाटनेवाली पीढ़ी उत्पन्न करना है। दुर्भाग्य से वह सफल भी हुआ। स्वतंत्रता के बाद भारत के शासन-प्रशासन में अंग्रेजी का बोलबाला रहा, आज भी है। इस संवर्ग में स्थान बनाने के लिए सामान्य जनों ने भी अंग्रेजी को सर पर चढ़ा लिया।
१९६२ में चीनी हमले के बाद देश में अभियंताओं की बड़ी संख्या की जरूरत हुई ताकि देश विज्ञान, तकनीक और उद्योग के क्षेत्र में प्रगति कर सके। दक्षिण भारतीय राज्यों ने ६ माह और एक वर्ष के सर्टिफिकेट कोर्स आरंभ किए जिन्हें उत्तीर्ण कर बड़ी संख्या में दक्षिण भाषी, मध्य तथा उत्तर भारत में कार्य विभागों में घुस गए और लगभग ४ दशकों तक पदोन्नत होकर उच्च पदों पर काबिज रहे। मध्य तथा उत्तर भारत में पॉलिटेक्निक आरंभ कर त्रिवर्षीय डिप्लोमा पाठ्यक्रम आरंभ किए गए। इनमें ग्रामीण पृष्ठभूमि के अनेक युवा प्रविष्ट हुए जिन्हें उच्चतर माध्यमिक परीक्षाओं में अच्छे एक मिले थे किन्तु पॉलिटेक्निक तथा अभियांत्रिकी महाविद्यालयों में अंग्रेजी न समझ सकने के कारण ये प्रथम वर्ष में असफल हो गए। कई ने पूरक परीक्षाओं से परीक्षा उत्तीर्ण की किन्तु अंक कम हो गए, कई ने आत्महत्या तक कर लीं। पॉलिटेक्निक जबलपुर के छात्रों ने वर्ष १९७१-७२ में परीक्षा में हिंदी की मांग करते हुए हड़ताल की। तब मैं भी वहाँ एक छात्र था।
डिप्लोमाधारी अभियंताओं ने इस विषमता को समझते हुए पदोन्नति अवसरों के सृजन, वेतनमान में सुधार तथा हिंदी में अभियांत्रिकी शिक्षण के लिए कई बार हड़तालें कीं। मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, राजस्थान, बिहार, गुजरात, महाराष्ट्र, बंगाल आदि राज्यों के डिप्लोमाधारी अभियंताओं ने अखिल भारतीय महासंघ बनाकर भारत सरकार को अपनी पीड़ा और समाधान के उपायों से वगत कराया। तब जनसंघ और समाजवादी दल विरोध में, कोंग्रेस सत्ता में थी। जनसंघ के कई नेताओं प्यारेलाल खंडेलवाल जी, कुशाभाऊ ठाकरे जी, अटलजी, आडवाणी जी, जोशी जी, आदि ने अभियंताओं के मांग पत्रों का समर्थन किया, विधायिकाओं में प्रश्न उठाए। तभी से यह नीति कि उच्च तथा तकनीकी शिक्षा हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओँ में हो जनसंघ और कालांतर में भाजपा की नीति बन गई। समाजवादी भी इस मांग के पक्ष में थे किन्तु सत्ता में आने पर उन्होंने इस बिंदु को भुला दिया। उस दौर में सर्व अभियंता ब्रह्म दत्त दिल्ली, रामकिशोर दत्त लख़नऊ, संजीव वर्मा जबलपुर, अमरनाथ लखनऊ, नारायण दास यादव ग्वालियर, जयशंकर सिंह महासमुंद, बृजेश सिंह बिलासपुर, रमाकांत शर्मा भोपाल, शिवप्रसाद वशिष्ठ उज्जैन, सतीश सक्सेना ग्वालियर, आदित्यपाल सिंह भोपाल आदि ने सतत संघर्ष किया। संजीव वर्मा ने जबलपुर में इंजीनियर्स फोरम (इंडिया) का गठन कर भारत रत्न सर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया के जान दिन को अभियंता दिवस के रूप में मनाकर स्वभाषा में अभियांत्रिकी शिक्षा के आंदोलन को नव स्फूर्ति दी। फलत:, हर विभाग में मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया की मूर्ति कार्यालय परिसर में स्थापित कर हिंदी में कार्य करने का संकल्प लिया गया। डिप्लोमाधारी अभियंताओं ने प्राकल्लन (एस्टिमेटिंग), मापन (मेजरमेंट) तथा मूल्याङ्कन (वेल्युएशन) हिंदी में करना आरंभ कर दिया। डिप्लोमा परीक्षाओं में छात्रों ने हिंदी में उत्तर लिखे। शासन के लिए इन्हें अमान्य करने का अर्थ विभागीय कार्य बंद होना होता, जिससे हड़ताल सफल होती। शासन ने हड़ताल को असफल दिखाने के लिए, देयकों का भुगतान होने दिया। मध्य प्रदेश में पॉलिटेक्निक में डिप्लोमा स्तर पर हिंदी में पुस्तकें तथा परीक्षा १९९० के आसपास ही सुलभ हो गयी किन्तु दुर्भाग्य से अन्य हिंदी भाषी प्रदेशों ने जहाँ समाजवादियों की सरकारें थीं ने इसका अनुकरण नहीं किया।
बड़ी संख्या में निजी अभियांत्रिकी महाविद्यालय खुलने पर उनमें भी ग्रामीण छत्रों ने बड़ी संख्या में प्रवेश लिया। इतिहास ने खुद को दुहराया। बी.ई./बी.टेक. तथा एम.ई./एम.टेक. में भी हिंदी का प्रवेश हुआ। अटल बिहारी हिंदी विश्वविद्यालय भोपाल ने मेडिकल की पुस्तकों का हिंदी अनुवाद कर एम.बी.बी.एस. में हिंदी में करना संभव कर दिया। यद्यपि यह आरंभ मात्र है। लगभग एक दशक लगेगा मेडिकल शिक्षा का पूरी तरह हिन्दीकरण होने में।
आपका प्रश्न तकनीकी किताबों में प्रयुक्त भाषा को लेकर है। हिन्दीकरण करते समय यदि शुद्ध संस्कृत निष्ठ हिंदी का प्रयोग किया जाए तो पारिभाषिक शब्द अत्यधिक कठिन तथा अप्रचलित होंगे। विज्ञान विषयों में अध्ययन-अध्यापन एक स्थान पर, प्रश्न पत्र बनाना दूसरे स्थान पर, उत्तर लिखना तीसरे स्थान पर तथा उत्तर पुस्तिका जाँचना चौथे स्थान पर होता है। अत:, भाषा व् शब्दावली ऐसी हो जिसे सब समझकर सही अर्थ निकालें। इसलिए आरंभ में तकनीकी तथा पारिभाषिक शब्दों को यथावत लेना ही उचित है। भाषा हिंदी होने से वाक्य संरचना सरल-सहज होगी। विद्यार्थी जो सोचता है वह लिख सकेगा। अंग्रेजी माध्यम से पढ़ा परीक्षक भी हिंदी के उत्तर में तकनीकी-पारिभाषिक शब्द यथावत भाषांतरित होने पर समझ सकेगा। मैंने बी.ई., एम.ई. की परीक्षाओं में इस तरह की समस्या का अनेक बार सामना किया है तथा हल भी किया है। तकनीकी लेख लिखते समय भी यह समस्या सामने आती है।
तकनीकी शिक्षा के हिन्दीकरण में सबसे बड़ी बाधा इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स, इंडियन जिओटेक्नीकल सोसायटी, इंडियन मेडिकल असोसिएशन, जैसी संस्थाएं हैं जहाँ हिंदी का प्रयोग वर्जित घोषित न होने पर कभी नहीं किया जाता। सरकार और जनता को इस दिशा में सजग होकर इन संस्थाओं का चरित्र बदलना होगा।
२३-१०-२०२२
***
पुरोवाक
'शफ़क-गुलाली' ग़ज़लाकाश में मुस्कुराती लाली
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
भारत की गंगो-जमनी तहज़ीब की बानगी देखनी हो तो ग़ज़ल पढ़नी चाहिए। गीत और दोहे की तरह ग़ज़ल ने भी वक़्त, हालत, मुल्क, जुबान और कौमों की हदों को पार कर दिलों को अपना दीवाना बनाया है। किसी बच्चे की पैदाइश की तरह ग़ज़ल के तशरीफ़ लाने की कोई तारीख तो नहीं बताई जा सकती पर यह जरूर कहा जा सकता है कि जैसे-जैसे इंसान ने इंसानियत की तरफ कदम रखने की शुरुआत की, वैसे-वैसे उसने अपने दिल की बात, कम से कम लफ़्ज़ों में बयां करने का हुनर सीखा। अपने अहसासात दो मिसरों (पंक्तियों) में कहने के बाद उसने हमकाफ़िया (सम तुकांत) और हमरदीफ़ (सम पदांत) मिसरों की ईजाद की। शुरुआत में फ़क़त दो मिसरे ही कहे गए होंगे। दोहा, सोरठा, रोला, श्लोक वगैरह की मानिंद शे'र कहे गए। दो मिसरों में बात पूरी न होने पर चार मिसरों का इस्तेमाल किया गया। फ़क़ीर और शायर चार मिसरों का मुक्तक या रुबाई लिखकर गुनगुनाते-गाते और शाबाशी पाते। इनमें पहले, दूसरे और चौथे मिसरे हमकाफ़िया-हमरदीफ़ होते थे जबकि तीसरे मिसरे में यह बंदिश नहीं थी, बशर्ते वज़न (पदभार) चारों मिसरोंका एक सा होता था। शुरुआत में हजाज छंद में मुक्तक कहे गए, बाद में रुबाई के २४ औज़ान तय किये गए। बतौर नमूना -
आसमान पर शफ़क गुलाली।
तेरे रुखसारों पर लाली।।
जी करता है जी भर पी लूँ-
ढाल-ढाल प्याली पर प्याली।।
भारत में सदियों पहले से अपभृंश और अब हिंदी में कुछ छंद (दोहा, सोरठा, रोला, चौपाई वगैरह) दो पंक्तियों के हैं जबकि बहुत से छंदों (दोहा, सोरठा, रोला, आल्हा, चौपाई, माहिया, हाइकु वगैरह) का उपयोग कर मुक्तक कहे जाते रहे हैं। मुक्तक का विस्तार अर्थात तीसरी-चौथी पंक्तियों की तरह पंक्तियाँ जोड़कर भारतीय लोक काव्यों को गायक और कवि चिरकाल से लिखते-गाते रहे हैं। कालांतर में फारस और भारत के बीच लोगों का आना-जाना होने पर ग़ज़ल कहने की यह काव्य विधा फारस में गई। कहावत है कि इतिहास खुद को दुहराता है। ग़ज़ल के सिलसिले में यह पूरी तरह सत्य सिद्ध हुई। भारत में जन्मी, पली-पुसी विधा फारसी संस्कार लेकर एवं आक्रांताओं के साथ फिर भारत में आई तो उसके नाक-नक्श ही नहीं, चाल-ढाल भी बदली हुई थी, बदलाव इस हद तक की जन्मदात्री धरती पर भी ग़ज़ल को आयातित काव्य विधा मान लिया गया। भारत में यह काव्य विधा किसी नाम विशेष से नहीं पुकारी गयी थी किन्तु इसके संस्कारों में लोकधर्मिता, शुचिता तथा पाकीजगी थी। फारस में इसे ग़ज़ल संज्ञा तथा '​तश्बीब' (​बादशाहों के मनोरंजन हेतु ​संक्षिप्त प्रेम गीत) एवं 'कसीदा' (रूप/रूपसी ​या बादशाहों की ​की प्रशंसा) विशेषण देकर ​'गजाला चश्म​'​ (मृगनयनी) महबूबा-माशूका से बातचीत के पिजरे में कैद कर, इसे पंख फड़फड़ाने के लिए मजबूर कर दिया। ग़ज़ल का शाब्दिक अर्थ औरतों (प्रेमिकाओं) से बातें करना है।१
हिंदी ग़ज़ल
मायके लौटी बेटी के सर पर कुछ दिनों सासरे की तारीफ का भूत सवार रहने की तरह, ग़ज़ल ने भी मादरे-वतन में आने के बाद कुछ वक़्त हुस्नो-इश्क़ की इबादत में गुजारे लेकिन जल्दी ही इस पर मुल्क की माटी का रंग चढ़ गया और ग़ज़ल ने बगावती तेवर के साथ आम आदमी के दर्दो-ख्वाब के साथ नाता जोड़ना शुरू कर दिया। जनाब सरवरी ग़ज़ल का अर्थ 'जवानी का हाल बयां करना' बताते हैं२ और इश्क़ को ग़ज़ल की रूह कहते हैं।३ जनाब कादरी ग़ज़ल का मानी 'इश्क़ और जवानी का जिक्र' मानते हैं।४ हद तो तब हुई हुई जब लिखा गया 'गरज हर वह चीज जो माशूक के शायनशान न हो, वह ग़ज़ल में नापसंदीद: है।'५ बकौल डॉ. सैयद ज़ाफ़र ग़ज़ल शुरू से ही दिलवरों की बात कहती आई है।६ जनाब आल अहमद सरूर कहते हैं - 'ग़ज़ल वैसे तो महबूब से बातें करने का नाम है मगर इसमें हदीसे-हुस्न से ज्यादा इश्क की हिक़ायत है।'७-८ डॉ. रामदास 'नादार' के लफ़्ज़ों में 'उर्दू शायरी फ़ारसी शायरी का अनुकरण है और फारसी शायरी अरबी शायरी का।८ डॉ. मसऊद खां के मुअतबिक 'इसका अपना दाइर-ए-अलम (कार्यक्षेत्र) है।९ हिंदुस्तानी ग़ज़ल और हिंदी ग़ज़ल को फारसी ग़ज़ल के नक्शे-कदम पर चलने की भरपूर कोशिश उर्दू परस्तों ने की, लेकिन आखिर में हारकर चुप हो गए। इसका कारण आर्थिक है। बशीर बद्र हकीकत को यूं बयां करते हैं - 'आज ग़ज़ल का मसला क्या है? उर्दू ग़ज़ल पढ़नेवाले लाख-सवा लाख हैं तो उसी उर्दू ग़ज़ल को देवनागरी लिपि में, ग़ज़ल गायकी में, ज़िंदगी की गुफ्तगू में हिंदुस्तान-पाकिस्तान क्या दुनिया के मुख्तलिफ हिस्सों में करोड़ों करोड़ों हैं। ....इस बोली जानेवाली जदीद लफ़्जीयात का बड़ा हिस्सा ग़ज़ल की जबान बनता जा रहा है।'१०
नामकरण
बहरहाल वजह कोई भी हो ग़ज़ल ने अपनी माटी की खुशबू को जल्द ही पहचान लिया और वह खुद को बदलने से न रोक सकी और बदलाव के हिमायतियों ने उसे सिर-आँखों लिया। सागर मीरजापुरी ने ग़ज़लपुर और नवगज़लपुर में इस बदलाव का स्वागत एवं 'गीतिका' नामकरण कर लिखा -'ग़ज़ल, गीत की एक विधा है जो उर्दू-फ़ारसी से हिंदी में आई है।'११ चंद्र सेन 'विराट' और पद्मभूषण नीरज जी ने मुक्तक का विस्तार इसे 'मुक्तिका' कहा। हिंदी ग़ज़ल को 'तेवरी' [तेवर (व्यवस्था विरोध के स्वर) की प्रधानता के कारण], सजल, पूर्णिका, अनुगीत आदि नाम देने के प्रयास लिए जाने के बाद भी यह 'हिंदी ग़ज़ल थी, है और रहेगी।' ॐ नीरव के शब्दों में 'गीतिका एक ऐसे ग़ज़ल है जिसमें हिंदी भाषा की प्रधानता हो, हिंदी व्याकरण की अनिवार्यता हो और पारम्परिक मापनियों के साथ हिंदी छंदों का समादर हो।२९
हिंदी ग़ज़ल-उर्दू गजल
हिंदी एक समर्थ और स्वतंत्र भाषा है जिसका अपना शब्द भंडार, व्याकरण, छंद शास्त्र और लिपि है। उर्दू मूलत: सीमाप्रांत की भारतीय भाषाओँ-बोलिओं का संकर रूप है जो फ़ारसी या देवनागरी लिपि में लिखी जाती है। उर्दू का अपना शब्द-भंडार नहीं है। उर्दू शब्दकोष का हर शब्द किसी अन्य भाषा-बोली से आयातित है। फारसी के व्याकरण और छंद शास्त्र का उपयोग उर्दू करती है। वास्तव में उर्दू भी हिंदी की एक शैली (भाषा रूप) मात्र है जिसमें फ़ारसी शब्दों का प्रयोग अधिक किया जाता है। हिंदी वर्णमाला की पंचम ध्वनियों का प्रयोग हिंदी ग़ज़ल बेहिचक करती है, जो फ़ारसी-ुर्दी ग़ज़ल के लिए संभव नहीं है। बांगला ग़ज़ल, तमिल ग़ज़ल, अंग्रेजी ग़ज़ल, रुसी ग़ज़ल अगर भाषिक आधार पर फ़ारसी-उर्दू ग़ज़ल से भिन्न है और वहां फ़ारसी लयखंडों या छंदों को अपनाने की बाध्यता नहीं है तो हिंदी ग़ज़ल पर ऐसे बंधन कैसे थोपे जा सकते हैं? हिंदी ग़ज़ल को विरासत में वैदिक-पौराणिक-लौकिक मिथक, बिम्ब, प्रतीक, मुहावरे, कहावतें आदि मिली हैं जिनका प्रयोग कर वह फ़ारसी-उर्दू ग़ज़ल से भिन्न हो जाती है। हिंदी ग़ज़ल का मिजाज और कहन परंपरागत ग़ज़ल से बिलकुल अलहदा और मौलिक है। बतौर नमूना -
राजनीति घना कोहरा नैतिकता का सूर्य छिपा है।
टके सेर ईमान सभी का स्वार्थ हाथों हाय! बिका है।।
रूप देखकर नज़र झुका लें कितनी वह तहज़ीब भली थी।
रूप मर गया बेहूदों ने आँख फाड़कर उसे तका है।।
गुमा मशीनों के मेले में आम आदमी खोजें कैसे?
लीवर एक्सल गियर हथौड़ा ब्रैक कहीं वह महज चका है।
आओ! हम सब इस समाज की छाती पर कुछ नश्तर मारें।
सड़े गले रंग-ढंग जीने के, हर हिस्सा एक घाव पका है।।
फ़ना हो गए वे दिन यारों जबकि हम सब फरमाते हैं।
अब तो लब खोलो तो यही कहा जाता है ख़ाक बका है।।
ईंट रेत सीमेंट जोड़कर करी इमारत 'सलिल' मुकम्मिल।
चाह रहे घर नेह-प्रेममय, बना महज बेजान मकाँ है।।
यहाँ यह भी स्पष्ट होना जरूरी है कि हिंदी-फ़ारसी ग़ज़ल की भिन्नता शब्दों के कारण कतई नहीं है। दुनिया की हर भाषा अन्य भाषाओँ से शब्दों को ग्रहण करती और अन्य भाषाओँ को शब्द देती है। हर भाषा शब्दों को अपनी प्रकृति और संस्कार के अनुसार ढलती बदलती है। हिंदी 'हॉस्पिटल' को 'अस्पताल' कर लेती है तो फ़ारसी 'ब्राह्मण' को 'बिरहमन'। संस्कृत का 'मातृ', फ़ारसी में मादर और अंग्रेजी में 'मदर' हो जाता है। डॉ. कृष्ण कुमार 'बेदिल' के अनुसार 'हिंदी और उर्दू में बहुत ज़्यादा फर्क नहीं है सिर्फ लिपि का फर्क है। फ़ारसी में लिखा जाए तो उर्दू और वही बात देवनागरी में लिखी जाए तो हिंदी हो जाती है।२७
हिंदी ग़ज़ल पर प्रथम शोधकार्य (१९८५) करनेवाले डॉ. रोहिताश्व अस्थाना खुसरो और कबीर की ग़ज़लों में भी हिंदी ग़ज़ल के मूल तत्व देखे हैं।१२ रामेश्वर शुक्ल 'अंचल' हिंदी ग़ज़ल में गंभीरता और जीवन दर्शन तथा सतही उथलेपन की सामान गुंजाइश देखते हैं।१३ ज़हीर कुरैशी के अनुसार 'हिंदी प्रकृति की ग़ज़ल आम आदमी की जनवादी अभिव्यक्ति है'।१४ शिवॐ अंबर कहते हैं 'समसामयिक हिंदी ग़ज़ल भाषा के भोजपत्र पर लिखी हुई विप्लव की अग्नि ऋचा है।'१५ शमशेर बहादुर सिंह के अनुसार 'ग़ज़ल एक लिरिक विधा है।' १६ डॉ. उर्मिलेश हिंदी ग़ज़ल को इस तरह परिभाषित करते हैं 'जो उर्दू ग़ज़ल की शैल्पिक काया में हिंदी की आत्मा को प्रतिष्ठित करती है।'१७ बकौल डॉ. कुंवर बेचैन 'ग़ज़ल जागरण के बाद का उल्लास है, पाँखुरी के मंच पर खुशबू का मौन स्पर्श है।'१८ डॉ. रोहिताश्व अस्थाना के शब्दों में 'अनुभूति की तीव्रता एवं संगीतात्मकता हिंदी ग़ज़ल के प्राण हैं।१९
शिल्प
स्पष्ट है कि हिंदी ग़ज़ल का शिल्प फ़ारसी ग़ज़ल की तरह होते हुए भी इसकी अपनी अलग पहचान और विशेषता है। बकौल नरेश नदीम 'ग़ज़ल एक से अधिक अशआर का संग्रह मात्र है जिसमें हर शेर दूसरों से स्वतंत्र हो सकता है।२०
विषय
डॉ. रामप्रसाद शरण 'महर्षि' के अनुसार 'कोई भी विषय क्यों न हो, अब उसे ग़ज़ल का विषय बनाया जा सकता है।'२१ डॉ. सादिका असलम नवाब 'सहर' के मत में - 'आधुनिक ग़ज़ल राजनीति और समाज से जुडी हुई समस्याओं को अभिव्यक्त करती है।२२ डॉ. महेंद्र अग्रवाल के शब्दों में 'नई ग़ज़ल का मूल प्रतिपाद्य समकालीन मकनव जीवन के समग्र है। वह ठोस यथार्थ पर खड़ी है।२३
शैली (ग़ज़लियत, तगज़्ज़ुल)
डॉ. मिर्ज़ा हसन नासिर की मान्यता है कि ग़ज़ल की भाषा शैली प्राय: प्रतीकात्मक एवं संकेतात्मक होती है।२४ हिंदी गजल भी ‘तगज्जुल’ को स्वीकार और शेर कहते हुए अभीष्ट सांकेतिकता की अधिकतम रक्षा करना चाहती है। ज़हर कुरैशी के अनुसार 'हिंदी गजल के पास अपनी विराट शब्द-संपदा है, मिथक, मुहावरे, बिंब, प्रतीक, रदीफ और काफिए हैं। शिल्प और विषय का उत्तरोत्तर विकास भी इसमें दिखता है। इस प्रक्रिया और विकास की पृष्ठभूमि में समकालीन जीवन की जटिल परिस्थितियां भी महत्त्वपूर्ण हैं। राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और तकनीकी परिवर्तन भी इसकी पृष्ठभूमि में हैं। इसलिए कहा जा सकता है कि हिंदी गजल का उद्भव अकस्मात नहीं हुआ। यह गतिशील संघर्ष प्रक्रिया का परिणाम है।'२५ रामदेव लाल 'विभोर' लिखते हैं 'तगज़्ज़ल सामान्य सी बात में अर्थ सौष्ठव उत्पन्न कर उसे असामान्य व् आनंददायी बना देता है। संस्कृत-हिंदी काव्य में इसे ही शब्द शक्ति का चमत्कार कहा गया है।'२६ 'कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाजे-बयां और' यह अंदाजे-बयां ही गज़लकार के शैली कहलाती है।
तत्व
मुग़ल काल में प्रशासकों का आश्रय मिला इसलिए फ़ारसी मिश्रित हिंदी (उर्दू) को देशी हिंदी (खड़ी बोली) पर वरीयता मिली। सुशिक्षित जनों ने प्रशासन में हिस्सेदारी पाने के लिए सत्ताधीशों की भाषा को अपनाया। इसलिए ग़ज़ल के फ़ारसी मानक, लय खंड और चंद पहले प्रचलित हो गए। हिंदी ग़ज़ल की स्वतंत्र पहचान बनने पर फ़ारसी पारिभाषिक शब्दों के हिंदी पर्याय विक्सित किए गए। तदनुसार पद या पंक्ति (मिसरा), पद युग्म या द्विपदी (शे'र), पहला पद (मिसरा ऊला), दूसरी पंक्ति (मिसरा सानी), प्रथम समतुकांती द्विपदी (मत्ला), अंतिम द्विपदी (मक़्ता), तुकांत (काफ़िया), पदांत (रदीफ़), भार (वज़्न), लयखण्ड या गण (रुक्न), छंद (बह्र) हिंदी ग़ज़ल के तत्व हैं।
छंद
अन्य गीति रचनाओं की तरह हिंदी ग़ज़ल भी लयखण्ड (रुक्न, बहुवचन अरकान) तथा छंद (बह्र) का प्रयोग कर रची (कही) जाती है। गण के आधार पर छंद के दो प्रकार एक गणीय छंद (मुफर्रद बह्र) तथा मिश्रित गणीय छंद (मुरक्कब बह्र) हैं। हिंदी ग़ज़ल के दो और प्रकार एक छंदीय ग़ज़ल और बहुछंदीय ग़ज़ल भी हैं जो उर्दू ग़ज़ल में नहीं हैं। डॉ. ब्रह्मजीत गौतम के अनुसार 'उर्दू ग़ज़ल की लगभग सभी बहरें हिंदी के मात्रिक या वर्णिक छंदों से निकली हैं।' २८ मैंने, रसूल अहमद 'सागर बक़ाई' डॉ. गौतम, साज जबलपुरी ने हिंदी छंदों पर आधारित ग़ज़लें लिखने का श्रीगणेश लगभग ४ दशक पूर्व किया था। 'बह्र नहीं तो ग़ज़ल नहीं' लिखकर महावीर प्रसाद 'मूकेश' ग़ज़ल में छंद की अपरिहार्यता बताते हैं।३० उत्तम (मुरस्सा) ग़ज़ल की विशेषता बताते हुए रामप्रसाद शर्मा 'महर्षि' लिखते हैं 'एक ओर नाद सौंदर्य हो तो दूसरी ओर भाषा और भाव का सौंदर्य। ३१
अलंकार व रस
अलंकार (सनअत) हिंदी ग़ज़ल के लालित्य और चारुत्व में वृद्धि कर ग़ज़ल में आकर्षण उत्पन्न कर, गज़लकार की कहन को पठनीय, श्रवणीय और मननीय बनाते हैं। हिंदी ग़ज़ल में अनुप्रास, यमक, श्लेष, उपमा, अतिशयोक्ति, अन्योक्ति, वक्रोक्ति, रूपक, संदेह, भ्रांतिमान, व्यतिरेक, स्मरण, दीपक, दृष्टांत, व्याजस्तुति पुरुक्तिवदाभास, अन्योक्ति आदि के प्रयोग मैंने हुए अन्य ग़ज़लकारों ने किए है। हिंदी ग़ज़ल में रस सलिला का प्रवाह अबाध होता रहा है।
'शफ़क़-गुलाली' : हिंदी ग़ज़ल का गुलदस्ता
हिंदी ग़ज़ल का ताज़ा-तरीन गुलदस्ता लेकर तसरीफ लाई हैं शाने-अवध लखनऊ से सुनीता सिंह। इन ग़ज़लों में मौलिकता, सुरुचि संपन्नता और ताज़गी सहज ही देखी जा सकती है। ये गज़लें सूरत-हाल का आईना हैं। इश्को-माशूक की खाम ख़याली से परहेज़ इन ग़ज़लों की खासियत है। इन ग़ज़लों में हिंदी के कई छंदों का सफल सार्थक प्रयोग किया गया है।
शायरा के हौसले की दाद दी जाना चाहिए जब वह आसमानी रब से भी सवाल करती है। गीतिका छंद में कही गई ग़ज़ल का यह शेर देखिए -
आसमां में बैठकर करता वहाँ क्या रब बता?
साँस बेकल डूबती तो भी सदाएँ चाहिए?
कोरोना की मार ने इंसानी रिश्तों-नातों और अहसासों को किस हद तक नुक्सान पहुँचाया, उपमान छंद में कहा गया एक शेर सूरते-हालात बयां करता है -
वहम की बात नहीं है, यकीन हारा था।
बहुत करीब थे लेकिन, फिसल गये नाते।।
रोजमर्रा की छोटी-छोटी बातें अमूमन बड़ी बनकर नज़दीकियों को दूरियों में बदल देती हैं। अरुण छंद में यह अनुभूति बखूबी अभिव्यक्त की गयी है -
बात ही बात में बात बढ़ती गयी।
बात भूली न तल्खी मगर जा रही।।
अरुण छंद में इससे अलग मिजाज की ग़ज़ल का मजा लें -
गुनगुनाता हुआ आसमां देखिए।
खास है ये नज़ारा ज़रा देखिए।।
आ रही कहकशां से सुहानी सदा।
रौशनी का जहां चाँद का देखिए।।
'जैसी करनी वैसी भरनी' की लोकोक्ति को चित्रपटीय गीत में 'कर्म किये जा फल की चिंता मत कर रे इंसान / जैसा कर्म करेगा वैसा फल देगा भगवान् / ये है गीता का ज्ञान' कहकर अभिव्यक्त किया गया है। मुक्तामणि छंद में इसी बात को सुनीता जी ने बेहद खूबसूरती से एक ग़ज़ल में पिरोया है -
बरबादियाँ कहीं पर तो सुकून है कहीं पर।
कर्मों से तय हमेशा अंजाम ज़िंदगी का।।
कहने लगा जमाना मुश्किल बहुत है जीना।
बनता रहे तमाशा सरे-आम ज़िंदगी का।।
'दीवार से सिर फोड़ना' मुहावरे का प्रयोग इस शे'र की खासियत है-
वक़्त का साज है, वक़्त का राज है।
सर न दीवार पर फोड़ना चाहिए।।
मुहावरों को लेकर कहे गए कुछ अशआर मजा लीजिए। ऐसे अशआर लिखना आसान नहीं होता। शायरा दाद की हक़दार है।
हम तो सरसों उगाने चले हाथ पर।
एक फूटी भी कौड़ी नहीं हाथ पर।।
हाथ आगे किसी के पसारे नहीं।
बनती गयी बात ही बात पर।।
योजनाएँ खटाई में पड़ गयीं।
ख़ाक में जाते मिल छानते ख़ाक पर।।
होश तो उड़ गये पर जताया नहीं।
खार खाता जहां मेरे ज़ज़्बात पर।।
कोई अपनी खबर खोज लेता नहीं।
बेतकल्लुफ हुए अपने हालात पर।।
हम तो खिचड़ी हैं अपनी पकाते अलग।
ज़िंदगी थाम लेते हैं हर मात पर।।
'क्यों कवायद सदा जूझने की रहे?', 'चाहना और पाना अलग बात है', 'ख्वाब टूटे हैं पर मलाल नहीं', 'गुल हमेश खिला नहीं करते', 'ज़िंदगी भी हमें सिखाती है', 'निराश जब दिल हो हर तरफ से, सहारा मिलता इबादतों में', 'कोशिश न बेहतरी के लिए रुकनी चाहिए', 'रहा किसी से गिला न शिकवा, फ़क़ीर जैसी हुई है फितरत' जैसे मिसरे गागर में सागर की तरह, कम लफ्जों में गहरी बात कहते हैं। इनसे गज़लसरा की भाषाई पकड़ पता चलती है।
दुष्यंत कुमार ने हालत से बेजार हो कर कहा था -'अब तो इस तालाब का पानी बदल दो', सुनीता का शायर मन समय की विसंगतियों को देखते हुए लिखता है -
'अब इन हवाओं बदलना हो जरूरी है गया'
शायरी-आज़म मेरे तकी मेरे की मशहूर ग़ज़ल है 'पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है', सुनीता जी भी इस ग़ज़ल के असर को अपने रंग में ढालकर कहती हैं-
गुमसुम-गुमसुम मद्धम-मद्धम लय गीतों की लगती है।
जाने कैसा सावन बरसे, भीगी खुश्की रहती है।।
आँगन-आँगन बस्ती-बस्ती, पत्ते-पत्ते बूटों में।
बूँद बरसती सावन की जो नज़्म रूहानी कहती है।।
वक़्त और हालात की दुश्वारियों का तकाज़ा है कि एक साथ रहा जाए। सुनीता जी जानती हैं की मुश्किलों को हसालों से ही जीता जा सकता है। वे अपने तमाम पाठकों तक यह पैगाम ग़ज़ल के जरिए पहुँचाती हैं-
दुआ में हाथ उठें, दौर मुश्किलों का है।
सभी के साथ चलें, दौर मुश्किलों का है।।
बता रही दुश्वारी न जीत पाओगे
दिखे जो छाँव छले, दौर मुश्किलों का है।।
चलो दिखा दें कलेजा की हम भी रखते हैं।
ये हौसले न ढलें, दौर मुश्किलों का है।।
जम्हूरियत के इस दौर में आम आदमी अपने नेताओं से परेशां है, किस पर भरोसा करे किस पर नहीं, यही समझ नहीं आता। जिस सिक्के को आजमाया वही खोटा निकला। एवं को हर नुमाइंदे से नाउम्मीदी ही हुई। सुनीता अपनी बात इस तरह कहती हैं -
वो रहनुमा मेरा जिस पर जां निसार थी।
संग उसके ही गम गयी, मेरी बहार थी।।
वो जिस पे नाज़ था मुझे, मेरा नसीब था।
जो अनसुनी थी रह गयी, मेरी पुकार थी।।
हालात कितने भी ख़राब हों, मायूसी से कोई हल नहीं निकलता। कामयाबी मिले न मिले, कोशिश बदस्तूर जारी रहनी चाहिए। बकौल शायरे-वक़्त फ़िराक़ गोरखपुरी 'ये माना ज़िंदगी है चार दिन की / बहुत होते हैं यारों चार दिन भी / खुदा को पा गया वाइज मगर है / जरूरत आदमी को आदमी की'। साहिर लुधियानवी लिखते हैं - 'मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया / हर फ़िक्र को धुएँ में उड़ाता चला गया / मनाना फज़ूल था / बर्बादियों का जश्न मनाता चला गया'। सुनीता फ़िराक के शहर की रहनेवाली हैं। वे हालत और वक़्त को अपने नज़रिए से देखती-परखती हैं और फिर कहती हैं -
हँसी-खुशी गुजारिए ये चार दिन की ज़िंदगी।
न रोइए-रुलाइए, ये चार दिन की ज़िंदगी।।
यहाँ-वहाँ कहाँ-कहाँ सुकून ढूँढता जिया।
जरा ठहर भी जाइए ये चार दिन की ज़िंदगी।।
न कामयाब हो सके, न ख्वाब जी सके कभी।
अजी न ग़म मनाइए, ये चार दिन की ज़िंदगी।।
धुआँ-धुआँ भरा जो दिल, सुलग रहा सिगार सा।
गुबार सब निकालिए, ये चार दिन की ज़िंदगी।।
अगर न गुल खिले चमन, उदास क्यों हुई फ़िज़ा।
बहार फिर बुलाइए, ये चार दिन की ज़िंदगी।।
हिंदी ग़ज़ल की खासियत और खसूसियत यही है कि वह सांसारिक और आध्यात्मिक पहलुओं को सिक्के के दो पहलुओं, धूप-छाँव, हार-जीत या फूल-शूल की तरह एक साथ कहती है। सुनीता इससे पूरी तरह वाक़िफ़ हैं।
आँख खोली तो देखा सहर हो गयी।
शबनमी सी सुहानी पहर हो गयी।।
दिल हमारा-तुम्हारा खुदा पा गया।
ये मुहब्बत रूहानी अगर हो गयी।।
जो दिया, जैसा दिया, उसने दिया, शिकवा न कर। यह फलसफा हर खासो-आम के काम आता है। सुनीता कहती हैं-
सफर ये ज़िन्दगी का भला या बुरा।
तौल करनी नहीँ, बस गुजर हो गयी।।
चौरासी हिंदी ग़ज़लों का यह गुलदस्ता अलग-अलग रूप-रंग-खुशबू के गुलों से बाबस्ता है। हर तितली और भँवरे का यहाँ स्वागत है। सपनों और सच्चाईयों दोनों की खबर रखती हैं ये ग़ज़लें। इनमें ज़िन्दगी के अलहदा-अलहदा पहलू इस तरह नुमाया हुए हैं कि वाह वाह कहने का मन होता है।
खवाबों का इक मकान बनता है आदमी।
चुन-चुन के ईंट उसमें लगता है आदमी।।
ढूँढे सुई भी रेत से, सीने को ज़िंदगी।
दिल चाक अपना सबसे छिपाता है आदमी।।
जाती है रात दे के सुहानी सी भोर को।
फिर तीरगी में हार क्यों जाता है आदमी।।
इन ग़ज़लों में वतनपरस्ती का पैगाम भी है और खुदाई वज़ूद का इमकान भी -
जब-जब वतन की आन पे हो आँच आ रही।
होना ही जां को देश पर कुर्बान चाहिए।।
घर जलता देख दूसरे का हँसना छोड़िए।
करना किसी को भी न परेशान चाहिए।।
थामा है रब ने जब भी जहाँ ठोकरें लगीं।
अब और क्या वज़ूद का फरमान चाहिए।।
चचा ग़ालिब फरमाते हैं - 'दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना', सुनीता का नजरिया अलग है -
आग जलने लगी हवा पाकर।
दर्द मिटने लगा दवा पाकर।।
एकटक देखती रहीं आँखें।
आप आये नहीं पता पाकर।।
लिख रही है कलम ग़ज़ल कोई।
उनकी भेजी हुई सदा पाकर।।
रे त सी रौशनी फिसलती है।
इक झरोखा कहीं जरा पाकर।।
मानविकीकरण का एक उदाहरण देखें -
वो सूरज हमारी तरह लग रहा है।
सुबह रोज उठता मगर फिर ढला है।।
निराशा और आशा का चोली-दामन का सा साथ है। किसी एक से ज़िंदगी मुकम्मल नहीं होती है। सुनीता ने ग़ज़लों में जगह-जगह दोनों रंग पिरोये हैं। बतौर नमूना देखिए-
मुट्ठी में कैद रेत फिसलती चली गयी।
सहरा मेरी उम्मीद पे हँसती गयी।।
बरसात जो थी संग लिए रंग आ रही।
बिन बरसे मेरे घर से निकलती चली गयी।।
*
लहरा रहे हैं फूल जो सरसों के खेत में।
मन मोहने की उनकी कला भी तो कम नहीं।।
वो दूर शफक पर है सुनहरी सी लालिमा।
उससे मिली उम्मीद ये, दिल का भरम नहीं।।
'शफ़क़-गुलाली' की ग़ज़लों की जुबान आम आदमी की बोलचाल की है। आजकल भाषाई शुद्धता के नाम पर कुछ अलफ़ाज़ को उपयोग न करने का जो जाहिलाना माहौल बनाया जा रहा है, उसकी ख़िलाफ़त इसी तरह की जुबान के जरिये से की जानी चाहिए। सुनीता जी मुबारकबाद की हकदार हैं, वे सरकारी मुलाजिम होते हुए भी अपनी रूह की आवाज़ सुनती हैं और उसे गीतों, दोहों, ग़ज़लों की शक्ल में अवाम तक पहुँचा देती हैं। 'तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा' की भावना से किया गया यह रचना कर्म वाकई काबिले तारीफ है। मुझे पूरी उम्मीद है कि इस दीवान को तारीफ मिलेगी और सुनीता दिन-ब-दिन ज्याद: से ज्याद: शिद्दत से यह कलमी सफर जारी रखकर बुलंदियों छुएँगी।
संदर्भ -
१. शमीमे बलाग़त, सफा ४६, २. जदीद उर्दू शायरी, सफा ४८, ३. जदीद उर्दू शायरी, सफा २६०, ४. तारीखी तनक़ीद, सफा १०१, ५. शेरुअल हिन्द, भाग २, सफा २८९, ६. तनक़ीद और अंदाज़े नज़र, सफा १४४, ७. तनक़ीद क्या है?, सफा १३३, ८. उर्दू काव्यशास्त्र में काव्य का स्वरूप, सफा ९२, ९. फन और तनक़ीद : ग़ज़ल का फन सफा २२१, १०. अमीर खुसरो-ता-ग़ज़ल २०००, ११. गीतिकायनम, पृष्ठ १५, १२-१९. हिंदी ग़ज़ल स्वरूप और विकास, डॉ. अस्थाना, २०. उर्दू कविता और छंद शास्त्र, २१. ग़ज़ल सृजन, पृष्ठ १८, २२. साठोत्तरी हिंदी ग़ज़ल - शिल्प और चेतना पृष्ठ २६४, २३. ग़ज़ल सृजन, पृष्ठ १९, २४. ग़ज़ल ज्ञान, ११, २५. जनसत्ता २६-८-२०१८, २६. ग़ज़ल ज्ञान पृष्ठ ११३, २७. ग़ज़ल : रदीफ़-काफ़िया और व्याकरण, २८. एक बह्र पर एक ग़ज़ल, ११-१२, २९. गीतिकालोक पृष्ठ १२, ३०. ग़ज़ल छंद चेतना पृष्ठ ३१. ग़ज़ल सृजन, पृष्ठ १३।
२३.१०.२०२१
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लघुकथा संकलन ‘आदमी जिंदा है’
प्राक्कथन
डॉ. निशा तिवारी
‘आदमी जिंदा है’ लघुकथा संग्रह मेरे अनुजवत संजीव वर्मा ‘सलिल’ की नव्य कृति है. यह नव्यता द्विपक्षीय है. प्रथम यह कृति कालक्रमानुसार नई है और दूसरे परंपरागत कहानी-विधा के सांचे को तोड़ती हुए नव्य रूप का सृजन करती है. यों नई शब्द समय सापेक्ष है. कोई भी सद्य:रचित कृति पुरानी की तुलना में नई होती है. स्वतंत्रता के पश्चात् हिंदी कहानी ने ‘नई कहानी’, ‘अकहानी’, ‘समान्तर कहानी’, ‘सचेतन कहानी’, ‘सहज कहानी’ इत्यादि कथा आंदोलनों के अनेमनेक पड़ावों पर कथ्यगत और रूपगत अनेक प्रतिमान स्थिर किये हैं. अद्यतन कहानी, लघुता और सूक्ष्मता के कम्प्युटरीकृत यथार्थ को रचती हुई अपनी नव्यता को प्रमाणित कर रही है. कंप्यूटर और मोबाइल की क्रांति लघुता और सूक्ष्मता को परिभाषित कर रही है.संप्रति सलिल जी का प्रकाश्य लघुकथा संग्रह भी तकनीकी युग की इसी सूक्ष्मता-लघुता से कहानी विधा को नवता प्रदान करता है. मुक्तक और क्षणिका की तर्ज पर उन्होंने कथा-सूत्र के ताने-बाने बुने हैं. अत्यंत लघु कलेवर में प्रतिपाद्य को सम्पूर्णता प्रदान करना अत्यंत दुष्कर कार्य है किंतु सलिल जी की भावनात्मकता तथा संवेदनशीलता ने समय और परिस्थितिगत वस्तु-चित्रणों को अपनी, इन कहानियों में बखूबी अनुस्यूत किया है. यही कारण है कि उनकी ये कहानियाँ उत्तर आधुनिक ‘पेरोडीज़’, ‘येश्तीज़’ तथा कतरनों की संज्ञाओं से बहुत दूर जाकर घटना और संवेदना का ऐसा विनियोग रचती हैं कि कथा-सूत्र टुकड़ों में नहीं छितराते वरन उन्हें एक पूर्ण परिणति प्रदान करते हैं.
लघुकथा संग्रह का शीर्षक ‘आदमी जिंदा है’ ही इस तथ्य का साक्ष्य है कि संख्या-बहुल ये एक सौ दस कहानियाँ आदमी को प्रत्येक कोण से परखती हुई उसकी आदमियत के विभिन्न रूपों का परिचय पाठक को देती हैं. ये कहानियां संख्या अथवा परिमाण में अधिक अवश्य हैं किन्तु विचार वैविध्य पाठक में जिज्ञासा बनाए रखता है और पाठक प्रत्येक कहानी के प्रतिपाद्य से निरंताराया में साक्षात् करता हुआ ह्बव-निमग्न होकर अगली कथा की और बढ़ जाता है. कहानी के सन्दर्भ में हमेशा यह फतवा दिया जाता है कि ‘जो एक बैठक में पढ़ी जा सके.’ सलिल जी की ये समस्त कहानियाँ पाठक को एकही बैठक में पढ़ी जाने के लिए आतुरता बनाये रखती हैं.
सलिल जी के नवगीत संग्रह ‘काल है संक्रांति का’ के नवगीतों की भांति ‘आदमी जिंदा है’ कथा संग्रह की कहानियों की विषय-वस्तु भी समान है. सामाजिक-पारिवारिक विसंगतियाँ एवं कुरीतियाँ (गाइड, मान-मनुहार, आदर्श), राजनीतिक कुचक्र एवं विडंबनाएँ (एकलव्य, सहनशीलता, जनसेवा, सर पर छाँव, राष्ट्रीय सुरक्षा, कानून के रखवाले, स्वतंत्रता, संग्राम, बाजीगर इत्यादि), पारिवारिक समस्या (दिया, अविश्वासी मन, आवेश आदि), राष्ट्र और लिपि की समस्या (अंधमोह), साहित्य जगत एवं छात्र जगत में फैली अराजकतायें (उपहार, अँगूठा, करनी-भरनी) इत्यादि विषयों के दंश से कहानीकार का विक्षुब्ध मन मानो चीत्कार करने लगता हुआ व्यंग्यात्मकता को वाणी देने लगता है. इस वाणी में हास्य कहीं नहीं है, बस उसकी पीड़ा ही मुखर है.
सलिल जी की कहनियों की सबसे बड़ी विशेषता है कि वे जिन समस्याओं को उठाते हैं उसके प्रति उदासीन और तटस्थ न रहकर उसका समाधान भी प्रस्तुत करते हैं. पारिवारिक समस्याओं के बीच वे नारी का मानवीय रूप प्रस्तुत करते हैं, साथ ही स्त्री-विमर्श के समानांतर पुरुष-विमर्श की आवश्यकता पर भी बल देते हैं. उनकी इन रचनाओं में आस्था की ज्योति है और मनुष्य का अस्मिताजन्य स्वाभिमान. ‘विक्षिप्तता’, ‘अनुभूति’ कल का छोकरा’, ‘सम्मान की दृष्टि’ इत्यादि कहानियाँ इसके उत्तम दृष्टांत हैं. सत्ता से जुड़कर मिडिया के पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण से आहूत होकर वे तनाव तो रचती हैं किन्तु ‘देशभक्ति और जनहित की दुहाई देते खोखले स्वर’ से जनगण की सजग-मानवीय चेतना को विचलित नहीं कर पातीं- ‘मन का दर्पण’ उसके मलिन प्रतिबिम्ब का साक्षी बन जाता है. लेखकीय अनुभति का यह कथा-संसार सचमुच मानवीय आभा से रंजित है. भविष्य में ऐसे ही और इससे भी अधिक परिपक्व सृजन की अपेक्षा है.
संपर्क- डॉ. निशा तिवारी, ६५० नेपियर टाउन, भंवरताल पानी की टंकी के सामने, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५३८६२३४
***
मुक्तिका:
*
रात चूहे से चुहिया यूँ बोली
तू है पोरस तो मैं सिकंदर हूँ
.
चौंक चूहा छिपा के मुँह बोला:
तू बँदरिया, मैं तेरा बंदर हूँ
.
शोख चुहिया ने हँस जवाब दिया:
तू न गोरख, न मैं मछंदर हूँ
*
तू सुधा मेरी, मान जा प्यारी!
मैं तेरा अपना दोस्त चन्दर हूँ
.
दिया नहले पे दहला चुहिया ने
तू है मंदर मगर मैं मंदिर हूँ
.
सर झुका चूहे ने सलाम किया:
मलिका तूफान, मैं बवंडर हूँ
.
जा किनारे खड़े लहर गिनना
याद रखना कि मैं समंदर हूँ
.
बाहरी दुनिया मुबारक हो तुझे
तू है बाहर, मैं घर के अंदर हूँ
२३-१०-२०१५
***
जनक मुक्तक
*
मिल त्यौहार मनाइए
गीत ख़ुशी के गाइए
साफ़-सफाई सब जगह
पहले आप कराइए
*
प्रिया रात के माथ पर,
बेंदा जैसा चाँद धर.
कालदेवता झूमता-
थाम बाँह में चूमता।
*
गये मुकदमा लगाने
ऋद्धि-सिद्धि हरि कोर्ट में
माँगी फीस वकील ने
अकल आ गयी ठिकाने
*
नयन न नम कर नतमुखे!
देख न मुझको गिलाकर
जो मन चाहे, दिलाऊं-
समझा कटनी जेब है.
*
हुआ सम्मिलन दियों का
पर न हो सका दिलों का
तेल न निकला तिलों का
धुंआ धुंआ दिलजलों का
*
शैलेन्द्र नगर, रायपुर
***
दोहा दीप
रांगोली से अल्पना, कहे देखकर चौक
चौंक न घर पर रौनकें, सूना लगता चौक
बाती मन, तन दीप से, कहे न देना ढील
बाँस प्रयासों का रखे, ऊँचा श्रम-कंदील
नेता जी गम्भीर हैं, सुनकर हँसते लोग
रोगी का कब डॉक्टर , किंचित करते सोग?
चाह रहे सब रमा को, बिसरा रहे रमेश
याचक हैं सौ सुरा के, चाहें नहीं सुरेश
रूप-दीप किस शिखा का, कहिए अधिक प्रकाश?
धरती धरती मौन जब, पूछे नीलाकाश
दोहा दीप जलाइए, स्नेह स्नेह का डाल
बाल न लेकिन बाल दें, करिए तनिक सम्हाल
कलम छोड़कर बाण जब, लगे चलने बाण
शशि-तारे जा छिप गए हो संकट से त्राण
दीपोत्सव, रायपुर
२३.१०.२०१४.
***
नवगीत:
मंज़िल आकर
पग छू लेगी
ले प्रदीप
नव आशाओं के
एक साथ मिल
कदम रखें तो
रश्मि विजय का
तिलक करेगी
होनें दें विश्वास
न डगमग
देश स्वच्छ हो
जगमग जगमग
भाग्य लक्ष्मी
तभी वरेगी
हरी-भरी हो
सब वसुंधरा
हो समृद्धि तब ही
स्वयंवरा
तब तक़दीर न
कभी ढलेगी
२३-१०-२०१४
***

गुरुवार, 25 मई 2023

बुन्देली, मुक्तिका, आरक्षण, रत्ना ओझा, दोहा, शृंगार, हिंदी, सोनेट, निशा तिवारी, आदमी अभी जिन्दा है




सॉनेट
*
मन की बात करें सब खुलकर 
सॉनेट लिखें न थकिए रुककर
फैलाएं सुगंध हिलमिलकर
फूलों जैसे झूमें झुककर

चौ चौ चौ त्रै पंक्ति भार सम
एक-तीन, दो-चार मिला तुक
प्रथम अंतरा हो वसुधा नम
दूजा किसलय झांक सके टुक 

पल्लव-पुष्प मनोरम भाएं 
महकाएं मिल मन-आंगन को
धूप-छांव नित गले लगाएं
पर्व मना सावन फागुन को

तंत समेटे फलित अंत में
कंत मन रमे ईश-संत में
24-5-2023
सॉनेट
दर्पण
दाएँ को बायाँ दिखलाए
फिर भी दुनिया यह कहती है
दर्पण केवल सत्य बताए।
असत सत्य सम चुप तहती है।
धूल नहीं मन पर जमती है
सही समझ सबको यह आए
दर्पण पोंछ धूल जमती है।
मत कह मन दर्पण कहलाए।
तेरे पीछे जो रहती है
वस्तु उसे आगे दिखलाए
हाथ बढ़ा तो कब मिलती है?
दर्पण हरदम ही भरमाए।
मत बन रे मन मूरख भोले।
मत कह दर्पण झूठ न बोले।।
२४-५-२०२२
•••
मुक्तिका
*
जब हुए जंजीर हम
तब हुए गंभीर हम
फूल मन भाते कभी हैं
कभी चुभते तीर हम
मीर मानो या न मानो
मन बसी हैं पीर हम
संकटों से बचाएँगे
घेरकर प्राचीर हम
भय करो किंचित न हमसे
नहीं आलमगीर हम
जब करे मन तब परख लो
संकटों में धीर हम
पर्वतों के शिखर हैं हम
हैं नदी के तीर हम
***
मुक्तिका
क्या बताएँ कौन हैं?
कुछ न बोले मौन हैं।
आँख में पानी सरीखे
या समझ लो नौन हैं।
कहीं तो हम नर्मदा हैं
कहीं पर हम दौन हैं।
पूर्व संयम था कभी पर
आजकल यह यौन है।
पूर्णता पहचान अपनी
नहीं अद्धा-पौन हैं।
***
गीत
*
सोते-सोते उमर गँवाई
खुलीं न अब तक आँखें
आँख मूँदने के दिन आए
काम न दें अब पाँखें
कोई सुनैना तनिक न ताके
अब जग बगलें झाँके
फना हो गए वे दिन यारों
जब हम भी थे बाँके
व्यथा कथा कुछ कही न जाए
मन की मन धर मौन
हँसी उड़ाएगा जग सारा
आँसू पोछे कौन?
तन की बाखर रही न बस में
ढाई आखर भाग
मन की नागर खाए न कसमें
बिसर कबीरा-फाग
चलो समेटो बोरा-बिस्तर
रहे न छाया संग
हारे को हरिनाम सुमिरकर
रंग जा हरी के रंग
***
कृति चर्चा
'आदमी अभी जिन्दा है', लघुकथा संग्रह, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल
डॉ. निशा तिवारी
*
‘आदमी जिंदा है’ लघुकथा संग्रह मेरे अनुजवत संजीव वर्मा ‘सलिल’ की नव्य कृति है। यह नव्यता द्विपक्षीय है, प्रथम यह कृति कालक्रमानुसार नई है और दूसरे परंपरागत कहानी-विधा के साँचे को तोड़ती हुए नव्य रूप का सृजन करती है। यों नवीन शब्द समय सापेक्ष है। कोई भी सद्य:रचित कृति पुरानी की तुलना में नई होती है। स्वतंत्रता के पश्चात् हिंदी कहानी ने ‘नई कहानी’, ‘अकहानी’, ‘समान्तर कहानी’, ‘सचेतन कहानी’, ‘सहज कहानी’ इत्यादि कथा आंदोलनों के अनेमनेक पड़ावों पर कथ्यगत और रूपगत अनेक प्रतिमान स्थिर किये हैं। अद्यतन कहानी, लघुता और सूक्ष्मता के कम्प्युटरीकृत यथार्थ को रचती हुई अपनी नव्यता को प्रमाणित कर रही है। कंप्यूटर और मोबाइल की क्रांति लघुता और सूक्ष्मता को परिभाषित कर रही है। संप्रति सलिल जी का प्रकाश्य लघुकथा संग्रह भी तकनीकी युग की इसी सूक्ष्मता-लघुता से कहानी विधा को नवता प्रदान करता है। मुक्तक और क्षणिका की तर्ज पर उन्होंने कथा-सूत्र के ताने-बाने बुने हैं। अत्यंत लघु कलेवर में प्रतिपाद्य को सम्पूर्णता प्रदान करना अत्यंत दुष्कर कार्य है किंतु सलिल जी की भावनात्मकता तथा संवेदनशीलता ने समय और परिस्थितिगत वस्तु-चित्रणों को अपनी, इन कहानियों में बखूबी अनुस्यूत किया है। यही कारण है कि उनकी ये कहानियाँ उत्तर आधुनिक ‘पेरोडीज़’, ‘येश्तीज़’ तथा कतरनों की संज्ञाओं से बहुत दूर जाकर घटना और संवेदना का ऐसा विनियोग रचती हैं कि कथा-सूत्र टुकड़ों में नहीं छितराते वरन उन्हें एक पूर्ण परिणति प्रदान करते हैं।
लघुकथा संग्रह का शीर्षक ‘आदमी जिंदा है’ ही इस तथ्य का साक्ष्य है कि संख्या-बहुल ये एक सौ दस कहानियाँ आदमी को प्रत्येक कोण से परखती हुई उसकी आदमियत के विभिन्न रूपों का परिचय पाठक को देती हैं। ये कहानियाँ संख्या अथवा परिमाण में अधिक अवश्य हैं किन्तु विचार वैविध्य पाठक में जिज्ञासा बनाए रखता है और पाठक प्रत्येक कहानी के प्रतिपाद्य से निरंतरता में साक्षात् करता हुआ भाव-निमग्न होकर अगली कथा की ओर बढ़ जाता है। कहानी के सन्दर्भ में हमेशा यह फतवा दिया जाता है कि ‘जो एक बैठक में पढ़ी जा सके.’ सलिल जी की ये समस्त कहानियाँ पाठक को एकही बैठक में पढ़ी जाने के लिए आतुरता बनाये रखती हैं।
सलिल जी के नवगीत संग्रह ‘काल है संक्रांति का’ के नवगीतों की भाँति ‘आदमी जिंदा है’ कथा संग्रह की कहानियों की विषय-वस्तु भी समान है। सामाजिक-पारिवारिक विसंगतियाँ एवं कुरीतियाँ (गाइड, मान-मनुहार, आदर्श), राजनीतिक कुचक्र एवं विडंबनाएँ (एकलव्य, सहनशीलता, जनसेवा, सर पर छाँव, राष्ट्रीय सुरक्षा, कानून के रखवाले, स्वतंत्रता, संग्राम, बाजीगर इत्यादि), पारिवारिक समस्या (दिया, अविश्वासी मन, आवेश आदि), राष्ट्र और लिपि की समस्या (अंधमोह), साहित्य जगत एवं छात्र जगत में फैली अराजकतायें (उपहार, अँगूठा, करनी-भरनी) इत्यादि विषयों के दंश से कहानीकार का विक्षुब्ध मन मानो चीत्कार करने लगता हुआ व्यंग्यात्मकता को वाणी देने लगता है। इस वाणी में हास्य कहीं नहीं है, बस उसकी पीड़ा ही मुखर है।
सलिल जी की कहनियों की सबसे बड़ी विशेषता है कि वे जिन समस्याओं को उठाते हैं उसके प्रति उदासीन और तटस्थ न रहकर उसका समाधान भी प्रस्तुत करते हैं। पारिवारिक समस्याओं के बीच वे नारी का मानवीय रूप प्रस्तुत करते हैं, साथ ही स्त्री-विमर्श के समानांतर पुरुष-विमर्श की आवश्यकता पर भी बल देते हैं। उनकी इन रचनाओं में आस्था की ज्योति है और मनुष्य का अस्मिताजन्य स्वाभिमान. ‘विक्षिप्तता’, ‘अनुभूति’ कल का छोकरा’, ‘सम्मान की दृष्टि’ इत्यादि कहानियाँ इसके उत्तम दृष्टांत हैं. सत्ता से जुड़कर मिडिया के पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण से आहूत होकर वे तनाव तो रचती हैं किन्तु ‘देशभक्ति और जनहित की दुहाई देते खोखले स्वर’ से जनगण की सजग-मानवीय चेतना को विचलित नहीं कर पातीं- ‘मन का दर्पण’ उसके मलिन प्रतिबिम्ब का साक्षी बन जाता है। लेखकीय अनुभति का यह कथा-संसार सचमुच मानवीय आभा से रंजित है। भविष्य में ऐसे ही और इससे भी अधिक परिपक्व सृजन की अपेक्षा है।
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संपर्क- डॉ. निशा तिवारी, ६५० नेपियर टाउन, भँवरताल पानी की टंकी के सामने, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५३८६२३४

***
दोहा
हिंदी महिमा
*
हिंदी बिंदी हिन्द की, अद्भुत इसकी शान
जो जान हिंदी बोलता, बढ़ता उसका मान
*
हिंदी में कहिए कथा, विहँस मनाएँ पर्व
मुदित हुए सुन ईश्वर, गॉड खुदा गुरु सर्व
*
हिंदी हिन्दुस्तान के, जनगण की आवाज
सकल विश्व में गूँजती, कर जन-मन पर राज
*
नेह नर्मदा सम सरम, अमल विमल अम्लान
हिंदी पढ़ते-बोलते, समझदार विद्वान्
*
हिंदी राखी दिवाली, हिंदी फाग अबीर
घाघ भड्डरी ईसुरी, जगनिक संत कबीर
*
पनघट नुक्क्ड़ झोपड़ी, पगडंडी खलिहान
गेहूँ चाँवल दाल है, हिंदी खेत मचान
*
हिंदी पूजा आरती, घंटी शंख प्रसाद
मन मानस में पूजिए, रहें सदा आबाद।
२४-५-२०२०
***

शृंगार गीत
*
अधर पर मुस्कान १०
नयनों में निमंत्रण, ११
हाथ में हैं पुष्प, १०
मन में शूल चुभते, ११
बढ़ गए पेट्रोल के फिर भाव, १७
जीवन हुआ दूभर। ११
*
ओ अमित शाही इरादों! १४
ओ जुमलिया जूठ-वादों! १४
लूटते हो चैन जन का १४
नीरवों के छिपे प्यादों! १४
जिस तरह भी हो न सत्ता १४
हाथ से जाए। ९
कुर्सियों में जान १०
संसाधन स्व-अर्पण, ११
बात में टकराव, १०
धमकी खुली देते, ११
धर्म का ले नाम, कर अलगाव, १७
खुद को थोप ऊपर। ११
बढ़ गए पेट्रोल के फिर भाव, १७
जीवन हुआ दूभर। ११
*
रक्तरंजित सरहदें क्यों? १४
खोलते हो मैकदे क्यों? १४
जीविका अवसर न बढ़ते १४
हौसलों को रोकते क्यों? १४
बात मन की, ध्वज न दल का १४
उतर-छिन जाए। ९
लिया मन में ठान १०
तोड़े आप दर्पण, ११
दे रहे हो घाव, १०
नफरत रोज सेते, ११
और की गलती गिनाकर मुक्त, १७
ज्यों संतुष्ट शूकर। ११
बढ़ गए पेट्रोल के फिर भाव, १७
जीवन हुआ दूभर। ११
*
२३-५-२०१८


***
मुक्तिका ​:
*
अंधे देख रहे हैं, गूंगे बोल रहे
पोल​ उजालों की अँधियारे खोल रहे
*
लोभतंत्र की जय-जयकार करेगा जो
निष्ठाओं का उसके निकट न मोल रहे
*
बाँध बनाती है संसद संयम के जो
नहीं देखती छिपे नींव में होल रहे ​
​*
हैं विपक्ष जो धरती को चौकोर कहें
सत्ता दल कह रहा अगर भू गोल रहे
*
कौन सियासत में नियमों की बात करे?
कुछ भी कहिए, पर बातों में झोल रहे
२४-५-२०१७
***
इंगलिश की यादगार कविताओं का हिन्दी में अनुवादकी श्रंखला में पहला अुनुवाद
A Dream Within A Dream
by Edgar Allan Poe
Take this kiss upon the brow!
And, in parting from you now,
Thus much let me avow--
You are not wrong, who deem
That my days have been a dream;
Yet if hope has flown away
In a night, or in a day,
In a vision, or in none,
Is it therefore the less gone?
All that we see or seem
Is but a dream within a dream.
I stand amid the roar
Of a surf-tormented shore,
And I hold within my hand
Grains of the golden sand--
How few! yet how they creep
Through my fingers to the deep,
While I weep--while I weep!
O God! can I not grasp
Them with a tighter clasp?
O God! can I not save
One from the pitiless wave?
Is all that we see or seem
But a dream within a dream?
स्वप्न में स्वप्न
अनुवाद-बीनू भटनागर
तुम्हारा माथा चूमकर
मैं विदा ले रहा हूँ,
इसलिये खुलकर कहूँगा कि
तुम ग़लत नहीं थी,जो सोचती थीं,
मेरे दिन ,दिवास्प्न हैं, स्वपन!
दिन हो या रात
आशायें धूमिल हो चुकी हैं
जो सोचा नहीं था, जो था ही नहीं
इसलिये बहुत खोया भी नहीं?
जो हम देखते हैं
या महसूस करते हैं वहतो बस
स्वप्न में स्वप्न है।
मैं लहरों के शोर में खड़ा हूँ
संतप्त सागर के तट पर
रेत के कण हाथ में लेता हूँ
इतने कम हैं
फिरभी फिसल रहे हैं
मेरी उंगलियां गहराई में हैं
मैं रोता हूँ, बहुत रोता हूँ
हे प्रभु! क्या मैं इन्हे पकड़े रह सकता हूँ।
क्या मुट्ठी में बाँध सकता हूँ
हे प्रभु!क्या मैं इन्हे निर्दयी लहरों से बचा सकता हूँ।
यही मैं देखता रहता हूँ।
सपनो में सपने...,
स्वप्न मे स्वप्न
***
मुक्तिका
*
बँधी नीलाकाश में
मुक्तता भी पाश में
.
प्रस्फुटित संभावना
अगिन केवल 'काश' में
.
समय का अवमूल्यन
हो रहा है ताश में
.
अचेतन है ज़िंदगी
शेष जीवन लाश में
.
दिख रहे निर्माण के
चिन्ह व्यापक नाश में
.
मुखौटों की कुंडली
मिली पर्दाफाश में
.
कला का अस्तित्व है
निहित संगतराश में
***
[बारह मात्रिक आदित्य जातीय छन्द}
११.५.२०१६, ६.४५
सी २५६ आवास-विकास, हरदोई
***
दोहा सलिला
*
लहर-लहर लहर रहे, नागिन जैसे केश।
कटि-नितम्ब से होड़ ले, थकित न होते लेश।।
*
वक्र भृकुटि ने कर दिए, खड़े भीत के केश।
नयन मिलाये रह सके, साहस रहा न शेष।।
*
मनुज-भाल पर स्वेद सम, केश सजाये फूल।
लट षोडशी कुमारिका, रूप निहारे फूल।।
*
मदिर मोगरा गंध पा, केश हुए मगरूर।
जुड़े ने मर्याद में, बाँधा झपट हुज़ूर।।
*
केश-प्रभा ने जब किया, अनुपम रूप-सिंगार।
कैद केश-कारा हुए, विनत सजन बलिहार।।
*
पलक झपक अलसा रही, बिखर गये हैं केश।
रजनी-गाथा अनकही, कहतीं लटें हमेश।।
*
केश-पाश में जो बँधा, उसे न भाती मुक्ति।
केशवती को पा सकें, अधर खोजते युक्ति।।
*
'सलिल' बाल बाँका न हो, रोज गूँथिये बाल।
किन्तु निकालें मत कभी, आप बाल की खाल।।
*
बाल खड़े हो जाएँ तो, झुका लीजिए शीश।
रुष्ट रूप से भीत ही, रहते भूप-मनीष।।
***
२४-५०२०१६
***
कृति चर्चा:
कृति विवरण:
रत्ना मंजूषा : छात्रोपयोगी काव्य संग्रह
चर्चाकार: आचार्य संजीव
*
[कृति विवरण: रत्न मंजूषा, काव्य संग्रह, रत्ना ओझा 'रत्न', आकार डिमाई, आवरण पेपरबैक, बहुरंगी, पृष्ठ १८०, मूल्य १५० रु., प्राप्ति संपर्क: २४०५/ बी गाँधी नगर, नया कंचनपुर, जबलपुर]
*
रत्न मंजूषा संस्कारधानी जबलपुर में दीर्घ काल से साहित्य सृजन और शिक्षण कर्म में निमग्न कवयित्री श्रीमती रत्ना ओझा 'रत्न' की नवीन काव्यकृति है. बँटवारे का दर्द कहानी संग्रह, गीत रामायण दोहा संग्रह, जरा याद करो क़ुरबानी भाग १ वीरांगनाओं की जीवनी, जरा याद करो क़ुरबानी भाग २ महापुरुषों की जीवनी, का लेखन तथा ७ स्मारिकाओं का संपादन कर चुकी रत्ना जी की कविताओं के विषय तथा शिल्प लक्ष्य पाठक शालेय छात्रो को ध्यान में रखकर काव्य कर्म और रूपाकार और दिशा निर्धारित की है. उच्च मापदंडों के निकष पर उन्हें परखना गौरैया की उड़ान की बाज से तुलना करने की तरह बेमानी होगा. अनुशासन, सदाचार, देशभक्ति, भाईचारा, सद्भाव, परिश्रम तथा पर्यावरण सुधार आदि रत्ना जी के प्रिय विषय हैं. इन्हें केंद्र में रखकर वे काव्य सृजन करती हैं.
विवेच्य कृति रत्न मञ्जूषा को कवयित्री ने २ भागों में विभाजित किया है. भाग १ में राखी गयी ४३ कवितायेँ राष्ट्रीय भावभूमि पर रची गयी हैं. मातृ वंदना तथा शहीदों को नमन करने की परम्परानुसार रत्ना जी ने कृति का आरंभ शईदों को प्रणतांजलि तथा वीणा वंदना से किया है.रानी दुर्गावती, रानी लक्ष्मीबाई, स्वामी विवेकानन्द, बापू, सुभद्रा कुमारी चौहान, इंदिराजी, जैसे कालजयी व्यक्तित्वों के साथ पर्यावरण और किसानों की समस्याओं को लेकर शासन-प्रशासन के विरुद्ध न्यायालय और ज़मीन पर नेरंतर संघर्षरत मेघा पाटकर पर कविता देकर रत्ना जी ने अपनी सजगता का परिचय दिया है. नर्मदा जयंती, वादियाँ जबलपुर की, ग्राम स्वराज्य, आदमी आदि परिवेश पर केन्द्रित रचनाएँ कवयित्री की संवेदनशीलता का प्रतिफल हैं. इस भाग की शेष रचनाएँ राष्ट्रीयता के रंग में रंगी हैं.
रत्न मञ्जूषा के भाग २ में सम्मिलित ८८ काव्य रचनाएँ विषय, छंद, कथ्य आदि की दृष्टि से बहुरंगी हैं. तस्वीर बदलनी चाहिए, मिट जाए बेगारी, लौट मत जाना बसंत, माँ रेवा की व्यथा-कथा, दहेज, आँसू, गुटखा, बचपन भी शर्मिंदा, ये कैसी आज़ादी आदि काव्य रचनाओं में कवयित्री का मन सामाजिक सामयिक समस्याओं की शल्य क्रिया कर कारण और निवारण की ओर उन्मुख है. रत्ना जी ने संभवत: जन-बूझकर इन कविताओं की भाषा विषयानुरूप सरस, सरल, सहज, बोधगम्य तथा लयात्मक रखी है. भूमिका लेखक आचार्य भगवत दुबे ने इसे पिन्गलीय आधार पर काव्य-दोष कहा है किन्तु मेरी दृष्टि में जिन पाठकों के लिए रचनाएँ की गयीं हैं, उनके भाषा और शब्द-ज्ञान को देखते हुए कवयित्री ने आम बोलचाल के शब्दों में अपनी बात कही है. प्रसाद गुण संपन्न ये रचनाएं काव्य रसिकों को नीरस लग सकती हैं किन्तु बच्चों को अपने मन के अनुकूल प्रतीत होंगी.
कवयित्री स्वयं कहती है: 'नवोदित पीढ़ी में राष्ट्रीयता, नैतिकता, पर्यावरण, सुरक्षा, कौमी एकता और संस्कार पनप सकें, काव्य संग्रह 'रत्न मञ्जूषा' में यही प्रयास किया गया है. कवयित्री अपने इस प्रयास में सफल है. शालेय बच्चे काव्यगत शिल्प और पिंगल की बारीकियों से परिचित नहीं होते. अत: उन्हें भाषिक कसावट की न्यूनता, अतिरिक्त शब्दों के प्रयोग, छंद विधान में चूकके बावजूद कथ्य ग्रहण करने में कठिनाई नहीं होगी. नयी पीढ़ी को देश के परिवेश, सामाजिक सौख्य और समन्वयवादी विरासत के साथ-साथ पर्यावरणीय समस्याओं और समाधान को इंगिर करती-कराती इस काव्य-कृति का स्वागत किया जाना चाहिए.
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आरक्षण समस्या: एक समाधान
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सबसे पहला आरक्षण संसद में हो
शत-प्रतिशत दें पिछड़े-दलित-आवर्णों को
आरक्षित डोक्टर आरक्षित को देखे
आरक्षित अभियन्ता ही बनवाये मकान
कुछ वर्षों में समाधान हो जाएगा
फिर न कहीं भी घमासान हो पायेगा...
२४-५-२०१५

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दोहा गाथा ९ : दोहा कम में अधिक है
संजीव
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब्ब.
पल में परलय होयेगी, बहुरि करैगो कब्ब.
बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर.
पंछी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर.
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रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय.
टूटे तो फ़िर ना जुड़े, जुड़े गाँठ पड़ जाय.
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दोहे रचे कबीर ने, शब्द-शब्द है सत्य.
जन-मन बसे रहीम हैं, जैसे सूक्ति अनित्य. कबीर
दोहा सबका मीत है, सब दोहे के मीत.
नए काल में नेह की, 'सलिल' नयी हो नीत.
सुधि का संबल पा बनें, मानव से इन्सान.
शान्ति सौख्य संतोष दो, मुझको हे भगवान.
गुप्त चित्र निज रख सकूँ, निर्मल-उज्ज्वल नाथ.
औरों की करने मदद, बढ़े रहें मम हाथ.
दोहा रचकर आपको, मिले सफलता-हर्ष.
नेह नर्मदा नित नहा, पायें नव उत्कर्ष.
नए सृजन की रश्मि दे, खुशियाँ कीर्ति समृद्धि.
पा जीवन में पूर्णता, करें राष्ट्र की वृद्धि.
जन-वाणी हिन्दी बने, जग-वाणी हम धन्य.
इसके जैसी है नहीं, भाषा कोई अन्य.
'सलिल' शीश ऊँचा रखें, नहीं झुकाएँ माथ.
ज्यों की त्यों चादर रहे, वर दो हे जगनाथ.
दोहा संसार के राजपथ से जनपथ तक जिस दोहाकार के चरण चिह्न अमर तथा अमिट हैं, वह हैं कबीर ( संवत १४५५ - संवत १५७५ )। कबीर के दोहे इतने सरल कि अनपढ़ इन्सान भी सरलता से बूझ ले, साथ ही इतने कठिन की दिग्गज से दिग्गज विद्वान् भी न समझ पाये। हिंदू कर्मकांड और मुस्लिम फिरकापरस्ती का निडरता से विरोध करने वाले कबीर निर्गुण भावधारा के गृहस्थ संत थे। कबीर वाणी का संग्रह बीजक है जिसमें रमैनी, सबद और साखी हैं।
मुगल सम्राट अकबर के पराक्रमी अभिभावक बैरम खान खानखाना के पुत्र अब्दुर्रहीम खानखाना उर्फ़ रहीम ( संवत १६१० - संवत १६८२) अरबी, फारसी, तुर्की, संस्कृत और हिन्दी के विद्वान, वीर योद्धा, दानवीर तथा राम-कृष्ण-शिव आदि के भक्त कवि थे। रहीम का नीति तथा शृंगार विषयक दोहे हिन्दी के सारस्वत कोष के रत्न हैं। बरवै नायिका भेद, नगर शोभा, मदनाष्टक, श्रृंगार सोरठा, खेट कौतुकं ( ज्योतिष-ग्रन्थ) तथा रहीम काव्य के रचियता रहीम की भाषा बृज एवं अवधी से प्रभावित है। रहीम का एक प्रसिद्ध दोहा देखिये--
नैन सलोने अधर मधु, कहि रहीम घटि कौन?
मीठा भावे लोन पर, अरु मीठे पर लोन।
कबीर-रहीम आदि को भुलाने की सलाह हिन्द-युग्म के वार्षिकोत्सव २००९ में मुख्य अतिथि की आसंदी से श्री राजेन्द्र यादव द्वारा दी जा चुकी है किंतु...
छंद क्या है?
संस्कृत काव्य में छंद का रूप श्लोक है जो कथ्य की आवश्यकता और संधि-नियमों के अनुसार कम या अधिक लम्बी, कम या ज्यादा पंक्तियों का होता है। संकृत की क्लिष्टता को सरलता में परिवर्तित करते हुए हिंदी छंदशास्त्र में वर्णित अनुसार नियमों के अनुरूप पूर्व निर्धारित संख्या, क्रम, गति, यति का पालन करते हुए की गयी काव्य रचना छंद है। श्लोक तथा दोहा क्रमशः संस्कृत तथा हिन्दी भाषा के छंद हैं। ग्वालियर निवास स्वामी ॐ कौशल के अनुसार-
दोहे की हर बात में, बात बात में बात.
ज्यों केले के पात में, पात-पात में पात.
श्लोक से आशय किसी पद्यांश से है। जन सामान्य में प्रचलित श्लोक किसी स्तोत्र (देव-स्तुति) का भाग होता है। श्लोक की पंक्ति संख्या तथा पंक्ति की लम्बाई परिवर्तनशील होती है।
दोहा घणां पुराणां छंद:
११ वीं सदी के महाकवि कल्लोल की अमर कृति 'ढोला-मारूर दोहा' में 'दोहा घणां पुराणां छंद' कहकर दोहा को सराहा गया है। राजा नल के पुत्र ढोला तथा पूंगलराज की पुत्री मारू की प्रेमकहानी को दोहा ने ही अमर कर दिया।
सोरठियो दूहो भलो, भलि मरिवणि री बात.
जोबन छाई घण भली, तारा छाई रात.
आतंकवादियों द्वारा कुछ लोगों को बंदी बना लिया जाय तो उनके संबंधी हाहाकार मचाने लगते हैं, प्रेस इतना दुष्प्रचार करने लगती है कि सरकार आतंकवादियों को कंधार पहुँचाने पर विवश हो जाती है। एक मंत्री की लड़की को बंधक बनाते ही आतंकवादी छोड़ दिए जाते हैं। मुम्बई बम विस्फोट के बाद भी रुदन करते चेहरे हजारों बार दिखानेवाली मीडिया ने पूरे देश को भयभीत कर दिया था।
संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश तीनों में दोहा कहनेवाले, 'शब्दानुशासन' के रचयिता हेमचन्द्र रचित दोहा बताता है कि ऐसी परिस्थिति में कितना धैर्य रखना चाहिए? संकटग्रस्त के परिजनों को क़तर न होकर देश हित में सर्वोच्च बलिदान का अवसर पाने को अपना सौभाग्य मानना चाहिए।
भल्ला हुआ जू मारिआ, बहिणि म्हारा कंतु.
लज्जज्जंतु वयंसि यहु, जह भग्गा घर एन्तु.
भला हुआ मारा गया, मेरा बहिन सुहाग.
मर जाती मैं लाज से, जो आता घर भाग.
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अम्हे थोवा रिउ बहुअ, कायर एंव भणन्ति.
मुद्धि निहालहि गयण फलु, कह जण जाण्ह करंति.
भाय न कायर भगोड़ा, सुख कम दुःख अधिकाय.
देख युद्ध फल क्या कहूँ, कुछ भी कहा न जाय.
गोष्ठी के अंत में :
दोहा सुहृदों का स्वजन, अक्षर अनहद नाद.
बिछुडे अपनों की तरह, फ़िर-फ़िर आता याद.
बिसर गया था आ रहा, फ़िर से दोहा याद.
दोहा रचना सरल यदि, होगा द्रुत संवाद.
दोहा दिल का आइना, कहता केवल सत्य.
सुख-दुःख चुप रह झेलता, कहता नहीं असत्य.
दोहा सत्य से आँख मिलाने का साहस रखता है. वह जीवन का सत्य पूरी निर्लिप्तता, निडरता, स्पष्टता से संक्षिप्तता में कहता है-
पुत्ते जाएँ कवन गुणु, अवगुणु कवणु मुएण
जा बप्पी की भूः णई, चंपी ज्जइ अवरेण.
गुण पूजित हो कौन सा?,क्या अवगुण दें त्याग?
वरित पूज्य- तज चम्पई, अवरित बिन अनुराग..
चम्पई = चंपकवर्णी सुन्दरी
बेवफा प्रियतम को साथ लेकर न लौटने से लज्जित दूती को के दुःख से भावाकुल प्रेमिका भावाकुल के मन की व्यथा कथा दोहा ही कह सकता है-
सो न आवै, दुई घरु, कांइ अहोमुहू तुज्झु.
वयणु जे खंढइ तउ सहि ए, सो पिय होइ न मुज्झु
यदि प्रिय घर आता नहीं, दूती क्यों नत मुख?
मुझे न प्रिय जो तोड़कर, वचन तुझे दे दुःख..
हर प्रियतम बेवफा नहीं होता। सच्चे प्रेमियों के लिए बिछुड़ना की पीड़ा असह्य होती है। जिस विरहणी की अंगुलियाँ प्रियतम के आने के दिन गिन-गिन कर ही घिसी जा रहीं हैं उसका साथ कोई दे न दे दोहा तो देगा ही।
जे महु दिणणा दिअहडा, दइऐ पवसंतेण.
ताण गणनतिए अंगुलिऊँ, जज्जरियाउ नहेण.
प्रिय जब गये प्रवास पर, बतलाये जो दिन.
हुईं अंगुलियाँ जर्जरित, उनको नख से गिन.
परेशानी प्रिय के जाने मात्र की हो तो उसका निदान हो सकता है पर इन प्रियतमा की शिकायत यह है कि प्रिय गये तो मारे गम के नींद गुम हो गयी और जब आये तो खुशी के कारण नींद गुम हो गयी। करें तो क्या करे?
पिय संगमि कउ निद्दणइ, पियहो परक्खहो केंब?
मई बिन्नवि बिन्नासिया, निंद्दन एंव न तेंव.
प्रिय का संग पा नींद गुम, बिछुडे तो गुम नींद.
हाय! गयी दोनों तरह, ज्यों-त्यों मिली न नींद.
मिलन-विरह के साथ-साथ दोहा हास-परिहास में भी पीछे नहीं है। 'सारे जहां का दर्द हमारे जिगर में है' अथवा 'मुल्ला जी दुबले क्यों? - शहर के अंदेशे से' जैसी लोकोक्तियों का उद्गम शायद निम्न दोहा है जिसमें अपभ्रंश के दोहाकार सोमप्रभ सूरी की चिंता यह है कि दशानन के दस मुँह थे तो उसकी माता उन सबको दूध कैसे पिलाती होगी?
रावण जायउ जहि दिअहि, दहमुहु एकु सरीरु.
चिंताविय तइयहि जणणि, कवहुं पियावहुं खीरू.
एक बदन दस वदनमय, रावन जन्मा तात.
दूध पिलाऊँ किस तरह, सोचे चिंतित मात.
दोहा सबका साथ निभाता है, भले ही इंसान एक दूसरे का साथ छोड़ दे। बुंदेलखंड के परम प्रतापी शूर-वीर भाइयों आल्हा-ऊदल के पराक्रम की अमर गाथा महाकवि जगनिक रचित 'आल्हा खंड' (संवत १२३०) का श्री गणेश दोहा से ही हुआ है-
श्री गणेश गुरुपद सुमरि, ईस्ट देव मन लाय.
आल्हखंड बरनन करत, आल्हा छंद बनाय.
इन दोनों वीरों और युद्ध के मैदान में उन्हें मारनेवाले दिल्लीपति पृथ्वीराज चौहान के प्रिय शस्त्र तलवार के प्रकारों का वर्णन दोहा उनकी मूठ के आधार पर करता है-
पार्ज चौक चुंचुक गता, अमिया टोली फूल.
कंठ कटोरी है सखी, नौ नग गिनती मूठ.
कवि को नम्र प्रणाम:
राजा-महाराजा से अधिक सम्मान साहित्यकार को देना दोहा का संस्कार है. परमल रासो में दोहा ने महाकवि चंद बरदाई को दोहा ने सदर प्रणाम कर उनके योगदान को याद किया-
भारत किय भुव लोक मंह, गणतिय लक्ष प्रमान.
चाहुवाल जस चंद कवि, कीन्हिय ताहि समान.
बुन्देलखंड के प्रसिद्ध तीर्थ जटाशंकर में एक शिलालेख पर डिंगल भाषा में १३वी-१४वी सदी में गूजरों-गौदहों तथा काई को पराजित करनेवाले विश्वामित्र गोत्रीय विजयसिंह का प्रशस्ति गायन कर दोहा इतिहास के अज्ञात पृष्ठ को उद्घाटित कर रहा है-
जो चित्तौडहि जुज्झी अउ, जिण दिल्ली दलु जित्त.
सोसुपसंसहि रभहकइ, हरिसराअ तिउ सुत्त.
खेदिअ गुज्जर गौदहइ, कीय अधी अम्मार.
विजयसिंह कित संभलहु, पौरुस कह संसार.
*
वीरों का प्यारा रहा, कर वीरों से प्यार.
शौर्य-पराक्रम पर हुआ'सलिल', दोहा हुआ निसार.
दोहा दीप जलाइए, मन में भरे उजास.
'मावस भी पूनम बने, फागुन भी मधुमास.
बौर आम के देखकर, बौराया है आम.
बौरा गौरा ने वरा, खास- बताओ नाम?
लाल न लेकिन लाल है, ताल बिना दे ताल.
जलता है या फूलता, बूझे कौन सवाल?
लाल हरे पीले वसन, धरे धरा हसीन.
नील गगन हँसता, लगे- पवन वसन बिन दीन.
सरसों के पीले किए, जब से भू ने हाथ.
हँसते-रोते हैं नयन, उठता-झुकता माथ.
राम राज्य का दिखाते, स्वप्न किन्तु खुद सूर.
दीप बुझाते देश का, क्यों कर आप हुजूर?
'कम लिखे को अधिक समझना' लोक भाषा का यह वाक्यांश दोहा रचना का मूलमंत्र है. उक्त दोहों के भाव एवं अर्थ समझिये.
सरसुति के भंडार की, बड़ी अपूरब बात.
ज्यों खर्चो त्यों-त्यों बढे, बिन खर्चे घट जात.
करत-करत अभ्यास के, जडमति होत सुजान.
रसरी आवत-जात ते, सिल पर पडत निसान.
दोहा गाथा की इस कड़ी के अंत में वह दोहा जो कथा समापन के लिये ही लिखा गया है-
कथा विसर्जन होत है, सुनहूँ वीर हनुमान.
जो जन जहाँ से आए हैं, सो तंह करहु पयान।
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बुन्देली मुक्तिका:
मंजिल की सौं...
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मंजिल की सौं, जी भर खेल
ऊँच-नीच, सुख-दुःख. हँस झेल
रूठें तो सें यार अगर
करो खुसामद मल कहें तेल
यादों की बारात चली
नाते भए हैं नाक-नकेल
आस-प्यास के दो कैदी
कार रए साँसों की जेल
मेहनतकश खों सोभा दें
बहा पसीना रेलमपेल

२४-५-२०१३

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